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स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती

स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती

पूरा नामस्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती [जन्म का नाम देवीदानजी रतनू था]
माता पिता का नाममाता का नाम ऊमाबाई व पिता का नाम ठाकुर दौलत दानजी रतनू
जन्म व जन्म स्थानजन्म सन् – 1900 ई. में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन बीकानेर रियासत के गाँव दासौड़ी में हुआ।
स्वर्गवास
मॉरिशस की सरकार एवं समस्त जनता ने इस महान संत के द्वारा सम्पन्न सेवा कार्यो के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये एक सप्ताह के सिल्वर जुबली समारोह का आयोजन रखा। इसी दौरान 23 अगस्त 1992 की रात्रि को 92 वर्ष की आयु में स्वामी जी का निधन हो गया। उत्सव शोक में परिवर्तित हो गया। 
अन्य
  • देवीदान जी रतनू के पिता ठाकुर दौलतदान जी नोखा तहसील के गाँव खारा के जागीरदार थे तथा गुजरात स्थित लखपत पाठशाला में पढ़े हुए थे।
  • देवीदानजी रतनू बीकानेर रियासत के प्रथम चारण स्नातकों में से एक थे।
  • उन्होंने अखिल भारतीय चारण सम्मेलन अपने पैतृक गाँव दासौड़ी में आयोजित कर उसमें कई सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन एवं शिक्षा एवं जागृति के प्रस्ताव पारित किये।
  • उन्होंने अपनी युवावस्था में जागीर, पद एवं भरे पूरे परिवार का परित्याग कर जोशी मठ से संन्यास ग्रहण कर लिया। अब वे स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती थे।
  • युरोपीय एवं अमेरिकन देशों में बसे भारतीय मूल के प्रवासियों में अनैतिकता एवं संस्कारहीनता बढ़ने के कारण वे लोग धर्म परिवर्तन को आमादा थे। स्वामीजी ने उनकी उखड़ती हुई आस्था को संबल प्रदान करते हुए एक लाख रामचरितमानस एवं एक लाख गीता की प्रतियां उनके घर-घर पहुंचाई तथा भारतीय सनातन संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने उन्हें एक लाख रामचरितमानस की प्रतियां भेंट की थी तथा तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम वी. वी. गिरी ने उन्हें एक लाख गीता की प्रतियां भेंट करते हुए उन्हें विदेशों में भारत के सांस्कृतिक दूत की संज्ञा दी थी।

 जीवन परिचय

स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती का जन्म सन् – 1900 ई. में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन बीकानेर रियासत के गाँव दासौड़ी में हुआ। इनके पिता का नाम ठाकुर दौलतदानजी रतनू था। आपका जन्म रतनू शाखा में हुआ था। इनके जन्म का नाम देवीदानजी रतनू था। इनकी माता का नाम ऊमाबाई था। देवीदानजी रतनू के पिता ठाकुर दौलतदानजी नोखा तहसील के गाँव खारा के जागीरदार थे तथा गुजरात स्थित लखपत पाठशाला में पढ़े हुए थे। इनके पूर्वजों में चैनदानजी रतनू एवं मिनजी रतनू सुप्रसिद्ध बलिदानी हुए हैं जो बीकानेर रियासत के गडियाला ठिकाने के कामदार थे। मिनजी रतनू की विलक्षण प्रतिभा एवं निष्ठापूर्वक राजकीय सेवाओं पर मुग्ध होकर बीकानेर के तत्कालीन महाराजा सरदारसिंहजी ने गोविन्दसर गाँव उन्हें जागीर स्वरूप भेंट किया था। यह गाँव गैर आबाद था जिसे मिनजी रतनू ने पुन: आबाद किया। मिनजी रतनू ने इस गाँव में मिनूरी तलाई एवं भगवान कृष्ण के मन्दिर निर्माण सहित अनेक लोककल्याणकारी कार्य कर प्रसिद्धि प्राप्त की अन्त में उन्होंने बीकानेर एवं जैसलमेर रियासतों की लड़ाई की जड़ धनेरी तलाई के निकट दोनों सेनाओं के बीच युद्ध की स्थिति को टालने के लिए अपना आत्म बलिदान देकर इस क्षेत्र को युद्ध की विभीषिका से बचा लिया। ऐसी महान् पारिवारिक पृष्ठभूमि के वारिस थे देवीदान जी रतनू।

उस समय शैक्षणिक सुविधाओं का नितान्त अभाव था। शिक्षा का प्रचार प्रसार नगण्य होने के कारण गांवों में पत्र और तार पढ़ने वाले लोग नहीं मिलते थे। देवीदानजी के पिता ठाकुर दौलतदानजी रतनू ने अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध किया। बीकानेर स्थित मोहता मूलचन्द हाई स्कूल एवं डूंगर कॉलेज से उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। देवीदानजी रतनू बीकानेर रियासत के प्रथम चारण स्नातकों में से एक थे। उच्च शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् बीकानेर महाराजा के निजी कार्यालय में उच्च पद पर आसीन रहे। तदुपरान्त आप रायसिंह नगर के तहसीलदार के रूप में राजकीय सेवा में भी रहे। देवीदानजी की प्रारम्भ से ही समाज सेवा, संगठन एवं पत्रकारिता में गहरी रुचि थी। इसीलिए उन्होंने मण्डलीय चारण सभा, क्षत्रिय महासभा, राजपूत महासभा एवं क्षत्रिय युवक संघ जैसी संस्थाओं की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। देवीदानजी ने जोधपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘चारण’ एवं अजमेर से प्रकाशित ‘क्षत्रिय धर्म’ का संपादकीय दायित्व भी कुशलतापूर्वक निभाया। इन पत्रिकाओं में उन्होंने साहित्य एवं संस्कृति के साथ-साथ सामयिक कुरीतियों, अन्याय तथा अत्याचार के विरुद्ध निर्भीक होकर निष्पक्ष भाव से लिखा। इसी दौरान उन्होंने अखिल भारतीय चारण सम्मेलन अपने पैतृक गाँव दासौड़ी में आयोजित कर उसमें कई सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन एवं शिक्षा एवं जागृति के प्रस्ताव पारित किये। युवक देवीदानजी रतनू अत्यन्त तेजस्वी, बहुआयामी एवं प्रखर प्रतिभा के धनी थे। वे अपनी योग्यता के कारण राजा, महाराजाओं, सामन्तों, ठाकुरों से लेकर आम जनता तक सभी में समान रूप से समादृत एवं लोकप्रिय थे।

इसी दौरान देवीदान जी का सम्पर्क राव गोपालसिंह जी खरवा, ठाकुर केसरीसिंहजी बारहठ, जोरावरसिंहजी बारहठ, प्रतापसिंहजी बारहठ, खूड़ ठाकुर मंगलसिंहजी और अलवर महाराजा जयसिंहजी आदि क्रांतिकारी देश भक्तों से हुआ। कुंवर प्रतापसिंहजी बारहठ के माध्यम से महान देशभक्त रासबिहारी बोस एवं कॉमरेड एम. एन. राय से भी उन्होंने भेंट की। राष्ट्र को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए इन प्रखर स्वतन्त्र चेताओं की भावना से देवीदानजी प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। उनके युवा मन में भी एक हलचल पैदा हो गई। दूसरी तरफ वे महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय, महर्षि अरविन्द, स्वामी माधवानन्दजी एवं स्वामी रामसुखदासजी आदि महापुरुषों से भी प्रभावित थे। अन्तत: उन्होंने अपनी युवावस्था में जागीर, पद एवं भरे पूरे परिवार का परित्याग कर जोशी मठ से संन्यास ग्रहण कर लिया। अब वे स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती थे। संन्यास ग्रहण के पश्चात छह माह का समय उन्होंने सर्वथा एकान्त बद्रीनाथ के निकट भैरव गुफा में गहन चिन्तन, मनन, ध्यान एवं समाधि में बिताया। आठ प्रहर में मात्र एक गिलास दूध अथवा थोड़ी-सी खीर ही उनका आहार था। यह क्रम निरन्तर छह माह तक चला। अन्तत: गहन साधना के पश्चात् उन्हें अन्तर्प्रेरणा का अनुभव हुआ कि दीन-हीन एवं दुःखी प्राणी की सेवा में ही मानव जीवन की सार्थकता है। इस निर्णय पर पहुंचने के बाद पूर्ण अनासक्त भाव से प्रवृत्तिमय संन्यासी के रूप में वे पुन: जगत की ओर उन्मुख हुए। उन्होंने अपना प्रथम सेवा कार्य ऋषिकेश में कोढी रोगियों की सेवा से आरम्भ किया। तदुपरान्त स्वामी जी ने वर्धा आश्रम में महात्मा गाँधी से भेंट की और उनके समक्ष राष्ट्र-सेवा एवं लोक-सेवा कार्य करने की इच्छा प्रकट की। परन्तु गाँधीजी ने उन्हें भगवे वेष के परित्याग का परामर्श दिया। क्योंकि यह वेष पूजा एवं श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है और संन्यासी से सेवाएं प्राप्त करने में लोगों को हिचक होती हैं। प्रत्युत्तर में स्वामी जी महाराज ने महात्मा गाँधी को निवेदन किया कि – ‘मैं अपनी सेवाओं से इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर दूंगा। ‘ गांधीजी प्रतिभा के सच्चे पारखी थे अत: उन्होंने स्वामीजी को वर्धा आश्रम में रहकर संपूर्ण देश में राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार का कार्य सौंपा। इस कार्य मे उनके साथी थे, अपने समय के सुप्रसिद्ध लेखक एवं बौद्ध भिक्षु भदन्तानन्द कौशल्यायन। इन दोनों विद्वान एवं कर्मठ सन्तों ने मिलकर महात्मा गाँधी के निर्देशानुसार हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार का व्यापक कार्य किया। महात्मा गाँधी के सान्निध्य से स्वामी कृष्णानन्द जी के मन में ‘मानव सेवा ही प्रभु सेवा है’ की धारणा अधिक सुदृढ़ हो गई और वे अपने विश्व-व्यापी सेवा अभियान पर निकल पड़े। उस समय नेपाल में लोग मोतियाबिंद की बीमारी से ग्रस्त होने के बावजूद आप्रेशन से कतराते थे। स्वामीजी ने पटना से सुयोग्य नेत्र चिकित्सकों के एक दल को नेपाल ले जाकर वहां विशाल नेत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन किया। स्वामी कृष्णानन्दजी के मित्र एवं नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवनशाह देव ने इस नेत्र चिकित्सा शिविर का उद्‌घाटन किया। उसके पश्चात् स्वामीजी ने वहां सैकड़ों नेत्र चिकित्सा शिविरों का आयोजन कर हजारों नेत्र रोगियों को नेत्र ज्योति प्रदान की। फलस्वरुप वे नेपाल में ‘आँखे देने वाले बाबा’ के नाम से विख्यात हो गए। इसी दौरान स्वामीजी ने नेपाल में एक समाचार-पत्र भी निकाला। नित्य प्रार्थना एवं सत्संग तो उनके दैनिक जीवन का एक आवश्यक अंग था। इस प्रकार सेवा, सृजन एवं सत्संग से उन्होंने नेपालवासियों में व्यापक कार्य किया। नेपाल से स्वामीजी का अफ्रीकी देशों में पदार्पण हुआ। जहाँ उन्होने हब्शी एवं नीग्रो लोगों की सेवा का अनुपम कार्य किया। वे जहाँ भी जाते वहाँ सेवा के लिये जन-जागृति पैदा कर सेवाभावी लोगों का एक संगठन खड़ा कर देते थे। इसी क्रम में स्वामीजी ने दीनबन्धु समाज, ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट तथा हिन्दू मॉनेस्ट्री आदि संस्थाओं की स्थापना कर सेवा कार्यो को निरन्तरता प्रदान की।

युरोपीय एवं अमेरिकन देशों में बसे भारतीय मूल के प्रवासियों में अनैतिकता एवं संस्कारहीनता बढ़ने के कारण वे लोग धर्म परिवर्तन को आमादा थे। स्वामीजी ने उनकी उखड़ती हुई आस्था को संबल प्रदान करते हुए एक लाख रामचरितमानस एवं एक लाख गीता की प्रतियां उनके घर-घर पहुंचाई तथा भारतीय सनातन संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने उन्हें एक लाख रामचरितमानस की प्रतियां भेंट की थी तथा तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम वी. वी. गिरी ने उन्हें एक लाख गीता की प्रतियां भेंट करते हुए उन्हें विदेशों में भारत के सांस्कृतिक दूत की संज्ञा दी थी। स्वामीजी उसी प्रवासी भारतीय के परिवार में भोजन ग्रहण करते थे जो नित्य प्रति प्रार्थना एवं सत्संग करता हो। उनके इस नियम का भी लोगों में गहरा प्रभाव पड़ा और वे लोग पुन: अपने धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की और अग्रसर हुए। कृष्णानन्दजी महाराज ने वहां ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’, ‘विश्व रामायण सम्मेलन’ एवं ‘विश्व भजन सम्मेलनों’ के वार्षिक आयोजनों का भी सूत्रपात किया। यदि उस संक्रमण काल में स्वामीजी का इन देशों में पदार्पण नहीं होता तो शायद हजारों की संख्या में प्रवासी भारतीय धर्म-परिवर्तन कर चुके होते।

स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती ने सर्वाधिक अद्‌भुत कार्य मॉरिशस में किया। मॉरिशस में भारतीय मूल के लोगों की बहुतायत थी, परन्तु फ्रांसिसी उपनिवेश होने के कारण बहुसंख्यक भारतीय मूल के लोगों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता था। मॉरिशस के राष्ट्रीय नेता डॉ. शिवसागर रामगुलाम को निर्वासित कर राजनैतिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। भारतीय मूल के लोग बहुसंख्यक होते हुए भी शिक्षा एवं राजनैतिक चेतना के अभाव में असहाय थे। स्वामीजी ने मॉरिशस के 40 होनहार नौजवानों को छांट कर ईंग्लैण्ड एवं भारत में उनकी शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबन्ध किया तथा धार्मिक जागरण के माध्यम से उन्हें एकजुट कर स्वाधीनता आन्दोलन का शंखनाद किया। 13 वर्षो की लम्बी जद्‌दोजहद के पश्चात् मॉरिशस स्वतंत्र हुआ। डॉ. शिवसागर रामगुलाम को प्रथम प्रधानमंत्री बनाया गया। तब से लेकर आज तक स्वामीजी द्वारा प्रशिक्षित वहीं 40 शिष्य मॉरिशस की सत्ता का भार संभालते रहे हैं। मॉरिशस की गणना आज विकसित देशों में की जाती हैं। समुद्र के मध्य स्थित यह छोटा सा अत्यन्त सुन्दर सा टापू विश्व का प्रमुख पर्यटन स्थल है। यहां का मौसम सदैव खुशगवार रहता हैं, गर्मी अथवा सर्दी का नाम नहीं। धन-धान्य से सम्पन्न इस देश में लोगों का जीवन अत्यन्त सुख एवं समृद्धिमय है। मॉरिशस की स्वतन्त्रता से लेकर प्रगति तक के सूत्रधार एवं पुरोधा स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती ही थे। मॉरिशस सरकार ने स्वामीजी पर डाक टिकिट जारी कर उनके प्रति अपार श्रद्धा एवं कृतज्ञता प्रकट की है।

युगाण्डा के तत्कालीन तानाशाह ईदी अमीन ने प्रवासी भारतीयों को पन्द्रह दिन में युगाण्डा छोड़ने का जब तुगलकी फरमान जारी किया और नहीं छोड़ने की स्थिति में मृत्युदण्ड का प्रावधान निश्चित कर दिया। तब ऐसी संकट की विकट घड़ी में स्वामीजी ने उन्हें भारत एवं इग्लैण्ड की नागरिकता दिलाकर उन्हें वहां स्थापित करने का अभूतपूर्व कार्य कर मानव सेवा का एक विशिष्ट आयाम स्थापित कर दिया। विश्व के 71 देशों में स्वामीजी ने विविध प्रकार के – देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुकूल सेवा कार्य सम्पन्न किये जो आज भी उनकी कीर्ति के साक्षी हैं। उन्होंने वहां कई हिन्दी पाठशालाएं, चिकित्सालय, वृद्धाश्रम, कुष्ठ रोगियों के लिए सेवा आश्रम तथा अनाथ आश्रम स्थापित कर दरिद्रनारायण की भरपूर सेवा की।

भारत में विश्वज्योति आश्रम बड़ौदा, स्वामी जी के सेवा कार्यो का मुख्यालय रहा। गुजरात के कई पिछड़े गाँवों को गोद लेकर वहां विकास कार्य सम्पन्न करवाए। नेत्र चिकित्सा एवं क्षय रोग उन्मूलन के क्षेत्र में स्वामीजी द्वारा स्थापित भारतीय सेवा समाज संस्था ने सघन कार्य किया। बवासीर चिकित्सा के भी हजारों निःशुल्क शिविर आयोजित किये गये। 2 अक्टूबर को गाँधी जयन्ती के शुभ अवसर पर सांवली (सीकर) के विशाल निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर से स्वामीजी ने राजस्थान में अपने सेवाकार्यों का शुभारम्भ किया। सुप्रसिद्ध उद्योगपति एवं स्वामीजी के परमशिष्य श्री संजय डालमिया ने इस शिविर का उद्‌घाटन करते हुए यह वचन दिया था कि राजस्थान में स्वामीजी द्वारा प्रारम्भ किये गये सेवा कार्य निरन्तर चलते रहेंगे। स्वामी कृष्णानन्दजी के ब्रह्मलीन होने के बीस वर्ष बाद आज भी उनका सेवा यज्ञ अनवरत रुप से जारी हैं।

स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती समस्त साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर उठे हुए एक महान् सिद्ध पुरुष थे। वे दरिद्रनारायण एवं मानव धर्म के सच्चे पुजारी थे। जटा-जूट, दण्ड-कमण्डल, चेलों की जमात, कथा-वाचन, पण्डाल लगाकर प्रवचन सहित समस्त बाह्याचारों से कोसों दूर रहने वाले स्वामी कृष्णानन्दजी अत्यन्त व्यावहारिक एवं तर्क संगत विचारधारा के महापुरुष थे। स्वामीजी कहते थे कि मुझे मेरे ईश्वर के दर्शनार्थ किसी मंदिर अथवा तीर्थ जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि दीन, दुःखी, गरीब और रोगी के रूप में मेरा ईश्वर तो मुझे सर्वत्र उपलब्ध है और उसकी प्राण प्रण से सेवा करना ही मेरी साधना पद्धति है। उनकी कथनी एवं करनी में कोई भेद नहीं था। विश्व के 7 देशों में निर्द्वंद्व विचरण कर बहुआयामी सेवा कार्यों के सूत्रधार स्वामी कृष्णानन्दजी का विश्व के किसी देश की, किसी बैंक में कोई खाता नहीं था। कोई भगवां वस्त्र धारी उनका पट्‌ट शिष्य नहीं था, क्योंकि उन्होंने किसी पट्‌ट की भी तो स्थापना नहीं की थी। अपने स्थाई निवास हेतु उन्होंने किसी आश्रम की स्थापना भी नहीं की। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में लगभग 50 वर्षो तक कंचन-मुक्त रहने वाले स्वामीजी भेंट-चढ़ावा आदि स्वीकार नहीं करते थे। केवल दो जोड़ी कपड़े एवं कुछ पुस्तकें उनके पास जरूर रहती थी। ऐसे निर्लिप्त एवं कंचन-मुक्त संन्यासी के संकेत मात्र से ही विश्वव्यापी सेवा अभियान में वर्ष में करोड़ों रुपये खर्च होते थे। इस प्रसंग में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित एक अमेरिकन अखबार में आलेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था – ‘पैनीलेस बट वैरी रिच इंडियन मॉंक’। भगवान कृष्ण एवं हनुमान जी उनके आराध्य थे। भगवान का नाम एव भगवान का काम (अर्थात दीन-दुःखी, गरीब, जरूरतमन्द की सेवा) ये ही उनके जीवन के प्रमुख सूत्र थे। चमत्कार आदि की कपोल कल्पित कथाओं से उन्हें सख्त चिढ़ थी। वे व्यक्ति पूजा के प्रबल विरोधी थे। क्योंकि इसमें पथ भ्रष्ट होने के अधिक अवसर होते हैं। उन्हें अपनी प्रशंसा से भी पूरा परहेज था। वे कहते थे कि – ‘हम संन्यासी मालिक नहीं होकर मुनीम हैं, सेठ तो सांवरिया है। ‘ हमें अपने सेठ ने ही संन्यास की गद्‌दी पर बिठाया है, इसलिए बैठे हैं। मूल रूप से यह गद्‌दी हमारी नहीं है। परन्तु अधिकांश मुनीमों द्वारा अपने सेठ की गद्‌दी को हड़पने का उन्हें गहरा अफसोस था। इसी कारण उन्होंने अपनी शिष्य परम्परा का सूत्रपात नहीं किया। अन्यथा 27 भाषाओं के ज्ञाता एवं विलक्षण प्रतिभा के धनी स्वामी कृष्णानन्दजी चाहते तो विश्वस्तर पर लाखों की तादाद में शिष्यों की एक फौज खड़ी कर सकते थे। वे किसी नये सम्प्रदाय, किसी नये पंथ की स्थापना करने में समर्थ थे। परन्तु वे सदैव गुरु शिष्य परम्परा के नाम पर व्यक्ति पूजा के आडम्बर से दूर रहे जैसे कोई जहर से दूर रहता हो। भक्त नरसी मेहता के उस पद का वे बार-बार स्मरण करते रहते थे – ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड पराई जाणे रै। ‘ अर्थात भगवान का भक्त वही है जो दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ कर उसे मिटाने का प्रयास करें। उन्हें कण-कण में परमात्मा के दर्शन होने लग गये थे। उनकी मान्यता थी कि सच्चा संन्यासी वही है जो अपनी साधना से प्राप्त फल को आतप्त-संतप्त प्राणि-जगत् के कल्याण हेतु समर्पित कर दे। इसमें लोक कल्याण एवं स्व-कल्याण दोनों उद्देश्यों की एक साथ पूर्ति हो जाती है। उनकी यह भी धारणा थी कि भारत में जितने संन्यासी हैं वे यदि समाज की सेवा में लग जावे तो भारत की आधी से अधिक समस्याओं का समाधान हो सकता हैं। एक बार स्वामीजी जब देवहरा बाबा से मिलने गये तो उन्होंने मुस्कुराते हुए स्वामीजी से कहा कि – कई संन्यासी, महन्त, मण्डलेश्वर एवं महामण्डलेश्वर होते हैं। परन्तु आप तो भूमण्डलेश्वर हो। अक्षरश: उस संत की बात सही थी।

स्वामी विवेकानन्द जी के पश्चात् विश्व स्तर पर भारतीय संस्कृति का मूर्त रूप से इतना व्यापक प्रचार-प्रसार स्वामी कृष्णानन्द जी सरस्वती ने ही किया था। त्याग, तपस्या एवं मानव सेवा के व्रत ने उनके व्यक्तित्व मे एक अद्‌भुत आकर्षण उत्पन्न कर दिया था, जिससे कोई नास्तिक व्यक्ति भी उनके दर्शन कर श्रद्धा से अभिभूत हो उठता था। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष, राजनयिक, उद्योगपति, प्रबुद्ध पत्रकार, साहित्यकार, समाजसेवक, प्रोफेसर, चिकित्सक, वकील एवं शिक्षक से लेकर आमजन तक उनके चरणों में नमन कर स्वयं को धन्य समझते थे। उनके अनुयायियों का दायरा अत्यन्त विस्तृत था, परन्तु स्वामी जी उन्हें अपना शिष्य न कहकर मित्र अथवा साथी कहते थे। उन्होंने निर्लिप्तता के भाव को पूर्णत: साध लिया था। वस्तुत: स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती ने समस्त क्षुद्रताओं एवं दुराग्रहों से ऊपर उठकर सम्प्रदायमुक्त धार्मिकता के प्रसार का विश्व स्तर पर भागीरथ कार्य किया। वे भारतीय सनातनी मूल्यों एवं मानव धर्म के सच्चे संवाहक थे। वे संवेदनाओं एवं उदारता से ओत-प्रोत थे। वर्तमान युग के आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में ऐसी विभूति के दर्शन दुर्लभ हैं।

दासौड़ी गाँव दो महान् विभूतियों का उद्‌गम स्थल रहा हैं। स्वामी रामसुखदासजी का गुरू स्थान एवं स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती का जन्म स्थान होने का गौरव इस गाँव को प्राप्त हैं। एक निवृत्तिमय एवं दूसरे प्रवृत्तिमय संन्यास की पराकाष्ठा समझे जाते हैं। एक सन्त ने राष्ट्रीय स्तर पर भक्ति एवं वैराग्य की अलख जगाई तो दूसरे ने विश्वस्तर पर भारतीय संस्कृति की पताका फहराई। एक छोटे से गाँव में जन्मे हुए व्यक्ति ने अपनी सेवाओं से भारतीय संस्कृति एवं संन्यास को धन्य कर दिया। बिना रुपये-पैसे का स्पर्श किये विश्व के 71 देशों में इतना व्यापक स्तर पर कार्य करना, किसी अद्‌भुत चमत्कारिक घटना से कम नहीं था। परन्तु जब कोई संत महापुरूष सांसारिक पदार्थो से सर्वथा निस्पृह होकर पूर्णतया ब्रह्मनिष्ठ हो जाता हैं तो परमात्म कृपा से उन्हें सब साधन-सुविधाएं सुलभ हो जाती हैं। भगवान स्वयं उनका योग-क्षेम वहन करते है। स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती ने अपने जन्म स्थान दासौड़ी में एक विशाल चिकित्सालय एवं वाचनालय का निर्माण करवाया। राजस्थान, गुजरात एवं विश्व के 71 देशों में उनके द्वारा स्थापित सेवा-संस्थान एवं उनके द्वारा प्रेरित प्रशिक्षित समाज सेवक आज भी निष्ठापूर्वक समाज सेवा में संलग्न हैं।

मॉरिशस में उनके सेवा कार्यो की जुबली मनाने का निर्णय उनकी सहमति के बिना ही लिया गया था। क्योंकि स्वामीजी जीवन पर्यन्त व्यक्ति विशेष को महिमा मंडित करने के विरुद्ध रहे थे। वे रहीम जी का यह दोहा बार-बार उद्धृत करते थे कि –

देनहार कोई और है, देत वही दिन रैन।
लोग भरम हम पे करै, या ते नीचे नैन।।

उनके दृष्टिकोण में महिमावंत तो परमात्मा है, जिनकी कृपा से सारे सत्‌कर्म सम्पन्न होते हैं। महिमामंडित अथवा धन्यवाद ज्ञापित करना है तो उस ईश्वर का करें। परन्तु मॉरिशस की सरकार एवं समस्त जनता ने इस महान संत के द्वारा सम्पन्न सेवा कार्यो के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये एक सप्ताह के सिल्वर जुबली समारोह का आयोजन रखा। इसी दौरान 23 अगस्त 1992 की रात्रि को 92 वर्ष की आयु में स्वामी जी का निधन हो गया। उत्सव शोक में परिवर्तित हो गया। 
विश्व स्तर पर मीडिया ने यह दुःखद समाचार प्रसारित किया। संपूर्ण राजकीय सम्मान के साथ वहीं उनकी अंत्येष्टी की गई। उनकी अर्थी को कन्धा देने वालों में मॉरिशस के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मन्त्रीमण्डल के सदस्य, समाज सेवक, विश्व के कोने-कोने से आए प्रतिनिधिगण और जनता का तो हुजूम उमड़ पड़ा था।

मॉरिशस स्थित स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती की समाधि वहां का राष्ट्रीय स्मारक हैं। उनकी पुण्य तिथि के दिन वहां प्रति वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का आयोजन होता है। कोई भी राष्ट्राध्यक्ष जब मॉरिशस की राजकीय यात्रा पर आते हैं तो उन्हें स्वामी कृष्णानन्दजी सरस्वती की समाधि पर नमन करने अवश्य ले जाया जाता है।

विश्व स्तर पर इतना व्यापक सेवा कार्य और इतनी प्रसिद्धि प्राप्त करना दुर्लभ हैं। स्वामी कृष्णानन्दजी महाराज ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से भारतीय संस्कृति, संन्यास आश्रम एवं चारण समाज को गौरवान्वित एवं धन्य-धन्य कर दिया।

मैंने उन्हें देखा हैं खिले फूल की तरहा,
अस्तित्व की हवा के संग डोलते हुए।
आनन्द की सुगन्ध लुटाते हुए सदा,
सबके दिलों में प्रेम का रस घोलते हुए।
लवलीन हो गए थे वे परमात्म भाव में,
या उन्हीं में वह ज्योति रूप व्यक्त हो उठा था।
सारल्य में समा गया बुद्धत्व दौड़ कर,
ऐसा लगा भगवान स्वयं भक्त हो उठा था।
वे सेवा में निमग्न एक सिद्ध पुरुष थे,
या सन्त के स्वरूप में स्वयं अलख पुरुष थे।
वे जोड़ कर गए हैं महोत्सव में बहुत कुछ.
मैं कैसे कहूं स्वामी कृष्णानन्द कौन थे?
मैं कैसे कहूं स्वामी कृष्णानन्द कौन थे?

~~श्री जगदीश रतनू “दासोड़ी” लिखित पुस्तक “चारण समाज के गौरव” से उद्धृत


बीकानेर में जयनारायण व्यास कॉलोनी मूर्ती सर्किल पर स्वामी कृष्णानंद सरस्वती मार्ग का लोकार्पण करते हुए मेयर भवानी शंकर शर्मा एवं मॉरिशस हाई कमीशन के सचिव जेविन पिल्लेई।

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वह महामानव थे। उदार थे, व्यवहारिक थे, यंत्र-तंत्र-मंत्र में विश्वास नहीं था उनका। मानव सेवा उनका कर्म था। उसी सेवा के आसपास सभी मसलों का वह हल देखते, खोजते समेटते थे। वह सहज थे, सरल थे, सादा जीवन जीते थे। पहनते बेशक वह गेरूआ वस्त्र थे लेकिन घुर, कट्टर साधुओं-स्वामियों-संतों जैसी भावभंगिमाओं से अछूते थे। गतिशील विचार थे, रचनात्मक सोच थे, विचारशील थे, वर्तमान स्थितियों-परिस्थितियों से परिचित थे, उपदेश से परहेज करते थे। गहन अध्ययन था। केवल धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथों का ही नहीं क्लासिक ग्रंथों से भी भलीभांति परिचित थे। उनके गहन और व्यापक व्यक्तित्व को जानने-समझने-परखने के लिए पारखी नजरों की जरूरत हुआ करती थी। आशीर्वाद तो सभी को देते थे जो उनसे मुलाकात करने आता था लेकिन दिल की बातें उसी से किया करते थे जो उनकी पारखी नजरों पर खरा उतरते थे। जी हां, मैं जिक्र कर रहा हूं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संत स्वामी कृष्णानंद सरस्वती का। मैं सौभाग्यशाली मानता हूं अपने आपको जिसे तीन दशकों से अधिक समय तक उनका आशीर्वाद मिला, वरदान मिला, स्नेह-प्रेम मिला और खुले मन से उन सभी जिज्ञासाओं का हल जानने का सौभाग्य मिला जो उनके साथ करीबी का दावा करने वाले किये करते थे। बेशक हर तरह से वह महामानव थे, शांत-सौम्य स्वभाव की प्रतिमूर्ति। नेत्र बंद कर जब वह समाधि में होते तब वह अपने आसपास के माहौल से अपरिचित होते थे।
उनका जन्म जन्माष्टमी के दिन हुआ था जो आम तौर पर अगस्त में पड़ती है। वह मुझे कहा करते थे देखा त्रिलोक, तुम भी अगस्त जन्मा हो, मैं भी अगस्त हूं, यह देश भारत भी अगस्त जन्मा है। गांधी जी ने भारत छोड़ो का नारा भी अगस्त में दिया था, विश्व के नेताओं में नेपोलियन महान भी अगस्त जन्मा था। फिर मुस्करा कर कहते हैं संभव है मैं ब्रह्मलीन भी अगस्त में ही होऊं देखो हाथ मेरे कांप रहे हैं, लिखने में दिक्कत पेश आती है। इस पर मेरा प्रत्युत्तर हुआ करता था कि दिलोदिमाग तो बिलकुल सही और स्वस्थ है। वह हंस पड़े थे। सन् 1993 के शुरू के महीनों की हमारी आखिरी मुलाकात थी जिसमें उन्होंने अपने ब्रह्मलीन होने की भविष्यवाणी कर दी थी। उसी साल 23 अगस्त को स्वामी कृष्णानंद सरस्वती मारिशस में ब्रह्मलीन हो गये। वह अपने पीछे एक संपन्न विरासत छोड़ गये हैं जिसका विस्तार केवल राजस्थान, गुजरात तथा अन्य राज्यों तक ही सीमित नहीं बल्कि विश्वव्यापी है। स्वामी जी को मेरा श्रद्धासुमन और नमन।

–त्रिलोक दीप (डालमिया सेवा ट्रस्ट)

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स्वामी कृष्णानंद सरस्वती द्वारा संस्थापित “Human Service Trust” के गोल्डन जुबली समारोह के अवसर पर मॉरिशस के प्रधानमन्त्री स्वामीजी की फोटो के कवर चित्र के साथ पत्रिका का विमोचन करते हुए:

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चारण शक्ति