पूरा नाम | मां शीला झणकली |
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माता पिता व पति का नाम | इनके पिताजी का नाम शंकरदानजी रतनू मातृश्री का नाम श्रीमति पदमादेवी जो जैसलमेर जिलें के कोडा गांव के निवासी थे व शीला मां के पति का नाम जोगराजजी बीठू झणकली था। |
जन्म व जन्म स्थान | संवत 1878 में श्रावण माह की शुक्ल चहुदस शुक्रवार को |
जमर | |
संवत 1920 कार्तिक माह की शुक्ल चहुदस वृहस्पतिवार को | |
विविध | |
जीवन परिचय | |
इनसे तो देव ही डरते हैं तो फिर..! स्वमान व सत्य के प्रति आग्रही जितने चारण रहे हैं, उतने अन्य कम ही रहे हैं। जब-जब इनके सामने सत्य व स्वमान के रक्षण का संकट आसन्न हुआ, तब-तब इन्होंने निस्संकोच उनकी रक्षार्थ अपने प्राण अर्पण में भी संकोच नहीं किया। चारणों ने सदैव अपने हृदय में इस दृढ़ धारणा को धारित किया कि सत्य सार्वभौमिक, शाश्वत व अटल होता है। यही कारण था कि इन्होंने कभी भी सत्य के समक्ष असत्य को नहीं स्वीकारा। यही नहीं, इन्होंने तो सदैव लोकमानस को यह प्रेरणा दी कि – ‘प्राणादपि प्रत्ययो रक्षितव्य’ ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं हमारी समृद्ध श्रुति-परंपरा में अवस्थित हैं, जिनको सुनकर हमारी आस्था उन महामनों व मनस्विनी महिलाओं के प्रति हिलोरे लेने लगती हैं। हमारे मनोमस्तिष्क में यह प्रश्न तो उठना स्वाभाविक है कि उनके त्याग, जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पण, सैद्धांतिक प्रतिबद्धता आदि का मूल्यांकन समग्र समाज के समक्ष नहीं आ पाने के क्या कारण रहे होंगे? हमारी उदासीनता, संवेदनहीनता या तत्कालीन परिस्थितियों का स्वाभाविक दबाव। खैर कारण जो कोई भी रहा हो, लेकिन लोक वंदनीय है, जिसने अपनी जीव्हा के कोषागार में ऐसी कई घटनाओं का इतिहास संचित कर रखा है। ऐसी ही एक घटना है झिणकली की शीला माऊ की। झिणकली चारणों का पुराना सांसण है। दूसलजी बीठू की वंशपरंपरा में नेतसी बीठू हुए और उनके जोगराजजी बीठू। दुर्योग से जोगराजजी की पहली पत्नी की असामयिक मृत्यु हो जाने से गृहस्थी की गाड़ी अकेले जोगराजजी से चलनी मुश्किल हो गई। कहावत है कि हाथ से हाथ नहीं कटता। ऐसे में भाडली के भाटी रुघजी की धर्मपत्नी जो कि जोगराजजी को अपने पिता तुल्य मानती थी, ने अपने पति रुघजी से कहा कि – धन धन रतनू माड़धर, धन धन कोडां गांम। शंकरदानजी ने शीलां को रुघजी के ही खोळे डाल दी, जैसी कि उन दिनों परंपरा थी। दोनों का वर्षों सुखद दांपत्य जीवन रहा, लेकिन एक दिन दुर्योग से जोगराजजी काल-कवलित हो गए। शीलां माऊ के समक्ष परिवार की सभी जिम्मेवारियां आ पड़ीं। पति के देहांत के कुछ महीनों बाद पत्नी को अपने पीहर ‘गोडो-वाळण’ / खुणो छोडण (शोक संवेदना) हेतु जाने की एक रीत थी। चूंकि शीलां रुघजी के खोळे थी, तो भाटी आए और शीलां को भाडली ले गए। इधर ऐसा योग बना कि अंग्रेजी सरकार ने देशी-रियासतों को आदेश दिया कि वे अपने-अपने सीमांकन को दुरस्त करें। अतः अंग्रेजी सरकार के आदेशों की पालना में जैसलमेर और मारवाड़ की सीमाएं भी दुबारा तय होने के लिए नपने लगीं। जैसलमेर की तरफ से ‘खावड़’ तरफ की सीमा नापने का जिम्मा यहां के हाकम जोरजी पुरोहित और मूहता मूळचंद के पास था। इनका मुकाम ‘लखा’ गांव की गढ़ी में था। लखा, नीमली, भाडली, जिंझणयाळी, और कोहरो गांव में ‘खोखर’ राजपूत भी बसते थे। चूंकि ये कोई जागीरदार नहीं थे, बल्कि सामान्य राजपूत थे। इसलिए कोहरो और लखा के खोखर झिणकली के चारणों की जमीन हासिल से जोतते थे। ये जो जमीन जोतते थे, वह उपजाऊ जमीन थी, जो ‘ढाकणिया खड़ीन’ के नाम से प्रसिद्ध थी। खोखरों का मन बदल गया। उन्होंने विचार बनाया कि – ‘ऐसी उपजाऊ तथा महत्वपूर्ण जमीन किसी भी प्रकार चारणों से छीन ली जाए।’ अतः उन खोखरों ने जैसलमेर के हाकिम को कहा कि – यह सुनकर खोखरों ने कहा कि- तब चारणों ने कहा कि- लेकिन खोखर माने नहीं। फिर तो विवाद बढ़ता चला गया। समकालीन कवि गुलाबजी ऊजळ (ऊजळां) लिखते हैं – मूळो महतो मेल, चौड़ै ज कीना चाळा । पूर्ण विरोध के बाद भी जब जमीन नपने लगी थी, तब चारणों ने एकत्रित होकर विचार किया कि – ‘लेकिन जमर करेगा कौन?’ आखिर यह तय हुआ कि – ‘एक बार शीलां माऊ से सलाह ले ली जाए कि इस संबंध में हमें क्या करना चाहिए? वो जैसा कहेंगी हम सब वैसा ही करेंगे। क्योंकि वे समझदार, ठोस विचारों वाली तथा हिम्मत वाली महिला हैं।’ ऐसे में शीलां माऊ को भाडली से लाने हेतु उनके पुत्र सारंगधरजी को भेजा गया। सारंगधरजी ने जाकर अपनी मां से कहा कि – ‘माऊ ! इस तरह जमीन नप रही है और हमारा खड़ीन ढाकणिया पर विवाद बढ़ गया है। चारण तेलिया आदि की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने सोचा है कि आप समझदार हैं, ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? इसलिए आपको वहां बुलाया है।’ यह सुनते ही शीलां माऊ के सिर के बाल चठठ करते खड़े हो गए। आंखें लाल-चुट हो गई। वे बोली कि – ‘इसमें सलाह व सोचने की क्या आवश्यकता है? डीकरा ! स्वर्गवास एक तुम्हारे पिता का हुआ है, लेकिन मैं तो अभी जिंदा हूं ना! जमीन के लिए जमर तो मैं करूंगी।’ अनोपदानजी बीठू लिखते हैं- जमी काज आद जळणो जरूर। इतना कहकर उन्होंने अपने बेटे से कहा- शीलां का ऐसा विकराल रूप देखकर भाटियों की सहुआळियों ने उनसे कहा – ‘बाईसा ! आप ऐसे मत जाओ। रुघजी ठाकर गांमतरै (अन्यत्र) गए हुए हैं। उन्हें आने दो। फिर वो भी आपके साथ चलेंगे।’ ‘रे खुटोड़ों ! खज खाने से पेट भरेगा, अखज खाने से नहीं । यह जमीन हमारी बपौती है। आप होते कौन हो नापने वाले?’ यह सुन खोखरों ने कहा कि – इतना सुनते ही शीलां माऊ के क्रोध का कोई पारावार नहीं रहा। उन्होंने वहां बैठे चारणों से कहा कि – यह सुनते ही वहां बैठे घूवड़ां के घूवड़ गोमजी ने कहा कि ‘जमर करना कोई बच्चों का खेल नहीं है! जीते जी जलना बड़ा कठिन काम है। हम कैसे मान लें कि आप जमर कर ही लेंगी?’ कहते हैं कि शीलां माऊ ने उसी समय गांव से ‘सीधै’ का समान मंगवाया। अपनी हथेली से उकलते घी से सैंतळ सेककर सीरा बनाकर सबको जीमाया। लोगों ने देखा कि माऊ की हथेली कड़ाही में ऐसे चल रही थी, मानो ठंडे पानी में चल रही हो। शीलां माऊ ने सबको जीमाकर पुनः कड़कती आवाज में कहा कि – ‘अब तो मेरे जमर की तैयारी करो।’ इतना सुनते ही उन्होंने अपनी कटार निकाली। लोग कुछ समझ पाते उससे पहले ही अपने दोनों स्तन वहां प्रज्वलित हो रही जोत की अग्नि में अपने हाथों से होम दिए- थण काट आपरा भरै थाळ। फिर कठोर दृष्टि गोमजी पर डालते हुए पूछा कि – ‘बगनी घोन ! पतियाया या अभी भी अविश्वास है?’ माऊ के आंखों में बरसती अग्नि से डरकर गोमजी उनके पैरों में पड़ते हुए बोला कि – फिर तो उस आदेश की पालना में अविलम्ब चिता चुनी गई। यह दृश्य देख रहे हाकम ने अपने हजूरियों को कहा कि – ‘जाओ रे ! चिता को बिखेर दो। हमने ऐसी भोपा-डफरियां बहुत देखी है।’ यह सुनते ही सात हजूरी आगे बढ़े। हजूरियों को आगे बढ़ते देखकर शीलां माऊ का खवास भभूतोजी मरने को संभा, परंतु माऊ के तेज से हजूरी चिता को छूने से पहले ही अर्द्धमूर्छित होकर गिर पड़े, जिन्हें वापस होश ही नहीं आया। यह देखकर हाकिम ने अपने साथ आए मेहर जाति के मुसलमानों से कहा कि – ‘जाओ रे! चिता तुम बिखेर दो।’ कहते हैं जैसे ही शीलां माऊ चिता पर बैठी ही थी कि देवयोग से अग्नि स्वतः प्रज्वलित हो गई।- शीलां अगन सिनान, ऊजळ कियो उण वारां। अगन री बात पड़ती अवस, आपो जीव उबारणां। उक्त घटना विक्रम संवत 1920 की कार्तिक शुक्ला चर्तुदशी की है। इसकी पुष्टि करते हुए एक पद्म समीचीन है – काती सुदी चहुदश कां, वृसपत हंतो वार। जैसी ही अग्नि चेतन हुई, वैसे ही जैसलमेर-राज्य के मिनख भाग छूटे। लेकिन जो लाय वे लगाकर गए थे उसकी लपटों से मूहते और हाकम के घरों के साथ ही साथ खोखरों के घर भी बच नहीं सके। कहते हैं कि हाकिम जोरजी पुरोहित का बेटा उसी दिन कुयोग से झांफली के कुएं में पड़कर मरा तो मूहता खुद ही उसी रात को गढ़ में सोया, जो सुबह मरा हुआ मिला। खोखरों के घरों में भी काफी कुटाणे हुए। जैसलमेर महारावल रणजीतसिंह का एकमात्र बेटा लालसिंह उसी रात अपने पलंग से एक चीख के साथ तड़ाछ खाकर नीचे आ पड़ा और पड़ते ही मर गया। रणजीतसिंह निरवंश गए – खोखर सब खाया दुष्ट दबाया, गांम झिणकली जस गाया। जैसळमेर के किले में काफी विघ्न हुए। शीलां के डर से रात में गढ में सुनसान पसरी हुई रहती थी – सूनो कोट सांभरै, करै भणणाट जु भाळी। शीळां ने यकीनन चारणाचार को मंडित किया था – दोहूं पख दीपिया, आप दोहूं उजवाळ्या। शीलां माऊ देवी के रूप में आज भी उस इलाके में पूजी जाती हैं। विख्यात डिंगळ कवि गुलाबजी ऊजळ, ऊजळां के शब्दों में – घूघर पद घुरत रमत नित रांमत, इळ आवड़ अवतार इसी। शीलां माऊ के नाम पर चारणों ने उसी दिन वो 600 बीघा जमीन गोचर कर दी, जहां आज भी गायें चरती हैं। शीलां माऊ के सुयश की सौरभ पूरे राजस्थान में पसरी कि किस प्रकार उन्होंने अत्याचार और हठधर्मिता के प्रतिकार स्वरूप अग्नि में जीवित स्नान करके अपनी कुल- परंपरा की इस बात को अक्षुण्ण रखा कि, अत्याचार के समक्ष मर जाना बेशक परंतु झुकना नहीं चाहिए। गीत झिणकलीराय शीलां माऊ रो दूहा-सोरठा सतवट मारग साज, कुळवट दीधी कीरती। जाहर बातां जोगणी, मारवाड़ धर माड़। गीत – प्रहास साणोर ताकड़ी बहै इम के हरी तांणवां, धरा धिन रतनुवां मात बण धीहड़ी, चाड सुण चढी तू मदत झट चारणां, ढाकणियो लोवडी पलै इम ढाकियो, गीत कथ कीरती रखण थिर गहरता, झिणकली तणा रखवाळिया झाड़खा, अमर अखियात आ इळा रै ऊपर, खोखर खळ खपाया उणिपुळ खीझ नै, वसुधर ऊजळी जात सह वीसोतर, भणै कवि गीधियो गीत ओ भाव सूं, ~सन्दर्भ – आत्मोसर्ग का आलोक (लेखक – गिरधरदान रतनू दासोड़ी) |
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