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चारण एक संक्षिप्त परिचय

चारण एक संक्षिप्त परिचय

जम्बूद्वीप विस्तार एवम् सभ्यताएँ

1. एशिया-यूरोप का भेद-

विश्व पटल पर वर्तमान भारत, एशिया महाद्वीप का दक्षिण में निकला हुआ एक भाग है, जैसा ही यूरोप इस एशिया महाद्वीप का पश्चिम में निकला हुआ एक भाग है और दोनों का क्षेत्रफल भी समान है। महाद्वीप की परिभाषा में पृथ्वी का वह विशाल भूभाग जिसके चारों ओर समुन्द्र हो परन्तु इस परिभाषा से यूरोप अलग महाद्वीप की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

अभी अल्प काल में ही यूरोप के विद्वानों ने अपने को सभ्य समझने के घमण्ड में पहले पहल एशिया महाद्वीप का नाम बदल कर ‘यूरेशिया’ कर दिया। फिर सभ्यता के कुछ वर्षों बाद उसको दो महाद्वीपों में बाँट दिया – यूरोप और एशिय – महाद्वीप की परिभाषा को नकारते हुए क्योंकि रानी को कानी कौन कहे ? उस समय वह इस तमाम क्षेत्र का अधिपति भी था।

2. जम्बूद्वीप – क्षेत्र विस्तार-

एशिया को आरम्भ से ही एक मानकर पुराणों आदि में वर्णित हमारे भूगोल में स्थान मिला है जिसके समस्त क्षेत्र का नाम ‘जम्बूद्वीप’ था। भद्राश्व पुराणों में दिये भूगोल में यह नौ खण्डों (वर्षों) में विभाजित था, जिसका एक खण्ड भद्राश्व था। यह सुमेरु पर्वत के पूर्व में था। पुराकाल में ‘जम्बूद्वीप’ के विस्तारित भू भाग में जो देश जाने जाते थे वे निम्न प्रकार से हैं-

1. आँध्रालय-आस्ट्रेलिया। जब रावण को बहिष्कृत करके निकाला गया तब उसने युवावस्था का कुछ समय यहां निकाला था।
2. अंगद्वीप – सुमात्रा।
3. यवद्वीप – जावा।
4. मलयद्वीप – मलाया ।
5. शंख द्वीप – बोर्निया ।
6. कुशद्वीप- लंका ।
7. वाराह द्वीप मेडागास्कर मेगास्टर,
8. स्वर्ण द्वीप-लंका। जहां रावण का द्वीमात भाई धनेष कुबेर महिपति था। फिर यह शिव (रुद्र) की शरण में स्वर्ण प्रदेश में चला गया और उसकी कृपा से वह वहाँ का अधिपति बना।
9. ब्रह्मद्वीप – ब्रह्मा ।
10. श्रीनारनाभी- अरब- शाकद्वीप।
11. पर्शिया – ईरान – मृत्युलोक – यमपुरी।
पर्शिया चार खण्डों में विभक्त था। 1. सुग्द, 2. मरु, 3. वरवधी और 4 निशा। माँ शक्ति हिंगलाज का मुख्य शक्तिपीठ पर्शिया के इस मरुप्रदेश में अवस्थित है। वर्तमान में पर्शिया का यह क्षेत्र बलुचिस्तान कहलाता है जो पाकिस्तान का कबीलाई ईलाका है।
12. फारस की खाड़ी – क्षीर सागर जैनेसिस ने पर्शिया (ईरान) के इतिहास में फारस की खाड़ी के ऊपर के हिस्से-जो सुमेरु सभ्यता का केन्द्र है – शीनार भूमि – शिशतान कहा है। पुराणों में इसे श्रीनार लिखा है।
13. शाद्वीप – पारिदिया,
14. असिरिया-सिरिया – फारस ।
15. नागद्वीप – निकोबार – पाताल – तुर्किस्तान। (पाताल- सिन्ध – हैदराबाद का क्षेत्र),
16. अश्वतार – काबुल -वक्रित ।
17. गिरडेशिया – गांधार – अफगानिस्तान ।
18. मरुतदेश – मकरान – सिस्तान – बलूचिस्तान। पर्शिया (ईरान) का चार प्रदशों में से मरुप्रदेश जहाँ दक्षायनी माँ सती के विखण्डित 52 अंगों में से ब्रह्मरंध्र पर अवस्थित मुख्य हिंगलाज शक्तिपीठ है। वर्तमान में यह पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त के ल्यारी तहसील के लसवेला जिला के अन्तर्गत है।
19. हरयू-हिरात 20 उत्तर मद्र – दक्षिण रूस का नाम उत्तर मद्र था। यहीं से मद्र, मेण्डेज ईरान में आये थे। जिनके मद्रपति वंशधर महारथी शल्य महाभारत युद्ध में लड़े थे ।
20. अबीसीनिया – उस काल में इसे पाताल भी कहते थे, जहाँ नाग जाति का शासन था।
21. सुमालीलैण्ड – रावण के नाना सुमाली के नाम पर यह नाम पड़ा जो अफ्रीका के पूर्वी भाग में है।
22. अजरबेजान – प्रलय के बाद आदित्य जाति के कुछ लोगों ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया, वे अपने आप को कुलीन व पवित्र मानते थे। इसका सूचक शब्द ‘आर्य’ था। अपनी कुलीनता की पहिचान कायम रखने के लिये अपने स्थान का नाम इन्होंने रखा – ‘आर्यवीर्या’। जो कालान्तर में अपभ्रंश बनकर ‘अजरबेजान’ नाम हुआ। यह वर्तमान में सोवियत गणराज्य का एक प्रदेश है।
23. गन्धर्वों का देश – आजकल के पेशावर से लेकर डेरागाजीखाँ तक का प्रदेश – सिन्धू नदी के दोनों ओर का अति रमणीय भू भाग। पुराकाल में यहाँ गन्धर्व जाति के लोग रहा करते थे।
24. हेम्बर्ग – जर्मनी।
25. कोपेन हेगन डेन्मार्क,
26. रैक जैविक आइसलैंड। विशेष – तुर्किस्तान, ईरान और अफगानिस्तान का क्षेत्र ‘आमू दरिया और सीर दरिया’ के दो आब का इलाका था।

मुख्य रूप से जम्बूद्वीप के सम्पूर्ण क्षेत्र की सीमा रेखा प्रकट करते हुए हमारे पुराणों में वर्णित – चीन पूर्वी दिशा में, यूरोप पश्चिम में, साइबेरिया उत्तर में और भारतवर्ष दक्षिण में दिखलाया गया है। यही सिद्ध करने के लिए एशिया का प्राचीन तथा मध्यकालीन इतिहास भी साक्षी है। यहाँ मध्य एशिया की जातियों ने दक्षिण में उत्तर भारत तक धावा बोला है, वहाँ उन्होंने यूरोप में भी धंसारा करते हुए अन्दर तक प्रवेश किया। आरंभ में असुर, देवों, नागों और दानवों ने और ऐतिहासिक युग में शक, हूणों और मंगोलों ने तथा उसके बाद तुर्की ने यूरोप को एशिया का पश्चिमी भाग मानकर अपना साम्राज्य फैलाया हूणों ने हुंगारी और बुल्गारिया नामक देश बसाये। कुछ लेखकों का तो यहाँ तक कहना है कि जम्बूद्वीप का विस्तार श्याम, रूस, मंगोलिया, चीन, इण्डोनेशिया, जापान, फिलिपाइन आदि राष्टों का सम्मिलित भाग तक था।

3. आदिमानव-सभ्यता के आयाम-

सृष्टि रचना के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों की यह धारणा है कि इस पृथ्वी पर सृष्टि तीन अरब वर्ष से भी अधिक पुरानी है। 400 करोड़ साल पहले जीवाश्म पृथ्वी पर उत्पन्न हुए थे। वे उन गर्म फव्वारों में जीवित रहते थे। पहले पृथ्वी पर ऑक्सीजन नहीं था। सूक्ष्म जीवाणु जो साइनो बैक्टीरिया बहुत कठोर परिस्थिति में रह सकते थे।

प्रलय के बाद के मानव इतिहास को वैज्ञानिक तीस हजार वर्ष पुराना बताते हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉ. लुई ने अपने अन्वेषणों के आधार पर यह सिद्ध किया था कि आज से लगभग अठारह लाख वर्ष पहले अफ्रीका में ‘होमोहोबिलिसका’ जाति के बोने रहते थे। संसार में सबसे प्राचीन मानव को इस शताब्दी के आरम्भ में रावलपिण्डी के पास ‘सोअन’ नदी के तट पर पाया गया। वहाँ से कुछ हड्डियाँ और प्रयोग में लाए जाने वाले पत्थर के हथियार मिले। वैज्ञानिकों ने इसका नाम ‘रामपिथेकस’ रखा जो आज से लगभग 1 करोड़ 40 लाख वर्ष पहले वहाँ रहते थे। पुरातत्त्वविदों ने अपने प्रयास में सफलता पाई और भारत स्वतंत्र के वर्ष बाद इनकी कुछ एक टोली ने पंजाब के अम्बाला जिले में ‘शिवालिका’ पहाड़ों में मारकण्डा नदी की घाटी में इससे भी पुराने मानव अवशेष ढूंढ निकाले जिनको ‘शिवपिथेकस’ का नाम दिया गया।

4. भारतीय सभ्यता -यूरोपियनों की कुण्ठा-

जब यूरोपियन यहाँ हिन्दुस्तान में आये तब उन्होंने पाया कि हिन्दुस्तान की सभ्यता अत्यन्त प्राचीन है। यहाँ तक कि मानव का प्रादुर्भाव ही इसी देश से आरम्भ होता है। यह बात उनके गले नहीं उतरी और उन्होंने भारतीयों पर यह थोपने का प्रयास किया कि भारत के आदिवासी द्रविड़ थे और वे बिल्कुल जंगली थे। उन्हें वे बाहर से उत्तरी जर्मनी, हंगरी, लिथुआनिया, दक्षिणी रूस या मध्य एशिया के मैदानों से आकर आर्यों ने सभ्यता सिखाई। यूरोपियन यह बात भूल जाते हैं कि जब भारत में व्यापार करने के नाम पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रतिनिधि बादशाह जहांगिर के समक्ष उपस्थित होकर गिड़गिड़ा रहा था, उस वक्त बादशाह का पिकॉकथ्रॉन – मयूर सिंहासन बेशकीमती करोड़ों मूल्य के हीरों – जवाहरातों से जगमगा रहा था जो भारतीय सभ्यता की उच्च थाती का प्रतीक था, जबकि उस समय यूरोप देश में औरतें अर्द्ध – नग्रावस्था में खड़ी खड़ी जंगलों में भद्दे गीत गाया करती थी। तब भला ये भारत को कैसी सभ्यता सिखायेंगे ?

इस मिथ्या को प्रतिपादित करने वालों ने स्वयं ने इस बात को मिथ्या व भूल स्वीकार किया। अंग्रेज विद्वान नेसफील्ड का कहना था कि ‘भारत में जो लोग रहते हैं, उनमें ऐसा कोई भेद नहीं पाया जाता कि आर्य लोग विजेता हैं और वहां के आदिवासी कहे जाने वाले लोग विजित हैं। वहाँ ब्राह्मण लोग अधिकतर श्याम रंग के दिखाई देते हैं, वे हल्के या गोरे रंग के नहीं हैं और न उनके शरीर की हड्डियों की बनावट भिन्न है।

‘आर्य जाति’ के सिद्धान्त के विरुद्ध स्वयं मैक्समूलर को सन् 1888 ई. में यह लिखना पड़ा कि ‘मैं बार – बार इस बात को स्पष्ट कर चुका हूँ कि जब मैं ‘आर्य’ शब्द का प्रयोग करता हूँ तो मेरा मतलब न रुधिर से होता है, न हड्डियों से, न सिर की बनावट से और न बालों से। मेरा आर्य शब्द से अर्थ केवल आर्य भाषा बोलने वालों से है। मेरी दृष्टि में शरीर विज्ञान वाले जो आर्य जाति, आर्य रुधिर, आर्य नेत्र और आर्य केशों की बात करते हैं वे उतने ही बड़े पापी हैं, जैसे भाषा विज्ञान वाले जो शब्द-कोष व व्याकरण की रचना की बात करते हैं।

5. आर्य शब्द और वेद –

वेद और आगे चलकर संस्कृत साहित्य में ‘आर्य’ आदर सूचक शब्द के रूप में प्रयोग हुआ है, न कि किसी जाति का सूचक संस्कृत में पत्नी अपने पति को ‘आर्यपुत्र’ कहकर पुकारती थी। ‘ओ! आर्यपुत्र इधर आईये। संस्कृत भाषा के विलुप्त होने पर इसी शब्द को हिन्दी भाषा में अपभ्रंश करके इस प्रकार कहा जाने लगा-‘अरि’ इधर आईयो ।

जब भारतीय आगे बढते हुए यूरोप तक बस गये, तब वे इस शब्द का वहाँ भी इसी भेद में उपयोग करते थे। परन्तु इण्डोयूरोपियन इस प्रजाति की भाषा में आर्य शब्द पाये जाने पर वे इस प्रजाति को ही आर्य कहने लगे। तब यह ‘आर्य’ शब्द मूल अर्थ से हटकर जातिवाचक बना दिया गया। जबकि वैदिक और संस्कृत भाषाओं में यह प्रतिष्ठित या भले व्यक्तियों के लिये आया है। यथा – ‘कृण्वन्तु विश्वमार्यम्’ पद में विश्व की प्रजाति बदलने को नहीं कहा गया है, बल्कि विश्व के प्रत्येक जन को भला बनाने के लिये कहा गया है। यह देव जाति की बोली का शब्द है जिसका अर्थ है – प्रतिष्ठित, भला, आदरणीय या अच्छज्ञ व्यक्ति। भारतीयों ने कहा था, ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ उसी स्थल पर आगे चलकर उन्होंने कहा, ‘विश्वं भद्रं कुर्वन्तुं।” विश्व को कुलीन बनाओ, भव्य बनाओ, अभिजात बनाओ।”

वस्तुतः आर्य और द्रविड़ कोई प्रजाति या जनजाति हमारे यहाँ नहीं पायी जाती। पूरे भारत में विभिन्न जातियों, कबीलों के रूप में रहती थी और उनकी आपसी टकराहट, से संस्कृति आरम्भ हुई और समृद्ध होती चली गई। जिस प्रकार दो पत्थरों के टकराने से अग्नि पैदा मेलमिलाप होती है उसी प्रकार उनकी टकराहट से ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुई और सुसंस्कृत होते चले गये। महान् इतिहासज्ञ टॉयनबी का कथन भारतीयों पर अक्षरशः लागू होता है – ‘यह तो भारतीयों का बड़प्पन था कि उन्होंने जनवध – Genocide जैसे पाप नहीं किये बल्कि कबीले एक दूसरे में मिलते रहे, एक दूसरे की अच्छी बातें अपनाते रहे और सुसंस्कृत होते गए।”

अथर्ववेद के विख्यात पृथिवीसूक्त के ऋषि (चारण) के अनुसार यह हमारी मातृभूमि अनेक प्रकार के जन को धारण करती है। यह जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले हैं और नाना धर्मों को मानने वाले हैं। यथा-

‘जनं बिभ्रति बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम् । अथर्ववेद 12/1/45

6. मानव का विकास-

पृथ्वी पर मानव के अवतरण पर उसकी पहली अवस्था पर्वतों की कन्दराओं और जंगली अवस्था से आरम्भ हुई थी, फिर उसने पत्थरों के नुकीले हथियारों क परिवार समूह के साथ विकास के कदम बढ़ाये। यह ‘यूथिल सभ्यता कहलाती है। फिर इसमें कुछ सुधार हुआ जिसे ‘चिलियन’ सभ्यता कहा जाता है, परन्तु इस अवस्था तक मानव अधिक अंशों में असभ्य ही था। फिर ‘मुस्टेरियन सभ्यता व उसके पश्चात् रेनडियन सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ, इस समय लोगों में मानवोचित बुद्धि का विकास होने लगा था। तत्पश्चात् ही मानव विकास की सभ्यताएँ वास्तविक सभ्यताएँ कहलाई। यूरोपीय लोगों ने मानव को वानर अवस्था से नर बनने की मिथ्या भ्रान्ति पैदा की। वानर का मस्तिष्क कभी भी मनुष्य के मस्तिष्क के समकक्ष न तो कभी पूर्व में विकसित हुआ है और न कभी भविष्य में विकसित होगा । सभ्यताओं के जनक भारतीय ऋषि मानव हैं जो सभ्यताओं के क्षेत्र में समस्त संसार में अग्रणी हैं।

तत्पश्चात् की सभ्यता में पहली सभ्यता नवपाषाण कालीन कही जाती है। इस युग का मनुष्य आज जैसा ही वास्तविक मनुष्य था। इस प्रकार यूथिल सभ्यता से लेकर नवपाषाण सभ्यता तक का काल पाषाण युग कहलाता है।

पाषाण युग के बाद मानव में धातु – युग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका आरम्भ ताम्रयुग से होता है। नवपाषाण युग के अन्त तक मनुष्य की बुद्धि बहुत कुछ विकसित हो गई थी और इसी काल में नाग जाति के पृथु ने कृषि का आविष्कार किया। संसार में सर्वप्रथम कृषक भरत खण्ड के पृथु थे, इस कारण से पृथु के नाम पर धरती का नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा।

7. चारण जाति और ताम्रयुग –

इसी काल में स्वर्ग प्रदेश- (तिब्बत, कैलाश, मानसरोवर, नेपाल, हिमाचल प्रदेश आदि का भू भाग) जहाँ पर ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में ‘देव’ नाम से एक समुदाय का उदय हुआ, जिसने आत्मा और परमात्मा का स्वरूप पहचाना एवं अणु और परमाणु के संघटक के आविष्कार से आग्नेयस्त्र व ब्रह्मास्त्र तक की संरचना कर डाली। उस देव समुदाय के कई कार्य अभी तक एक पहेली के रूप में बने हुए हैं। इसी देव समुदाय के घटक में चारण नाम से एक जाति भी थी।

देव व नागजाति के साथ अन्य कबीले व जातियाँ सम्मिलित होती गई और कृषि के विस्तार में आगे से आगे बढ़ते गये। कृषि का आविष्कार भारतवर्ष में होने के कारण ही यहाँ के कबीले इसका लाभ पाने के लिये सम्पूर्ण यूरेशिया (जम्बू द्वीप) तक फैल गये। यदि कृषि का आविष्कार भारतवर्ष में न हुआ होता तब यहाँ के कबीले भी अन्य महाद्वीपों की तरह यहीं पड़े रहते जैसे कि अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका आदि महाद्वीपों के लोग अभी तक वहाँ ही स्थिर हैं। जबकि भारतवर्ष के लोगों की आगे बढने की तूफानी प्रवृति अब भी वैसे ही कायम होने से वे सम्पूर्ण संसार में आज भी फैले हुए हैं और फैलते जा रहे हैं।

खेती के उपयोगी क्षेत्र की खोज में देव (चारण) और नाग जाति के लोग पंजाब की भूमि पर गये। उस काल में वहाँ सात नदियाँ बहती थी इसी से इस प्रदेश का नाम उन्होंने ‘सप्तसिन्धू देश’ रखा। वे सम्पूर्ण सप्तसिन्धू प्रदेश में फैल गये परन्तु उनकी सभ्यता का केन्द्र ‘सरस्वती’ तट था। सरस्वती के तट पर ही इन्हें ताँबा मिला। तब इन्होंने अपने पत्थर के हथियार छोड़कर ताँबे के हथियारों को काम में लाना शुरू किया। ये हथियार चलाने में अति सरल एवं परिष्कृत होने से संसार के किसी भी महाद्वीप का मानव इनके सामने युद्ध में खड़ा नहीं हो सकता था। भारतवर्ष इस स्थान पर संसार में ‘सुपर पॉवर’ हो गया था। जबकि दूसरे सभी महाद्वीपों के लोग मात्र जंगली अवस्था में ही थे।

भारतीय लोग देव (चारण) और नाग जाति के लिये ज्ञान की बड़ी उपलब्धि ताँबा था।

चारणों ने सरस्वती नदी के तट पर सर्वप्रथम ताम्र प्राप्त करने में कामयाबी प्राप्त की और इसी की बदौलत चारण और नागों ने संयुक्त रूप से हर क्षेत्र में विजय प्राप्त की। इसलिये चारणों ने सरस्वती को ज्ञानदायी कहा है। इसे वे विद्यादाता सरस्वती देवी के रूप में पूजते थे। इसकी कलरव करती हुई जल प्रवाह धाराएँ – वीणावादिनी और विमल वाणी के रूप में प्रतिपादित की गई। फिर मिथक के रूप में इसे एक स्त्री के रूप में पूजा जाने लगा। जैसे गंगा नदी को भी स्त्री रूप में पूजा जाता है। इसके श्वेत जल प्रवाह को – ‘हंस वाहिनी’ कहा गया। नागों और देवों (चारण) के समुदाय की उस काल की यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। देव (चारण) ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी थे और जब ताँबे को प्राप्त करने में महारथ हासिल कर ली तब से चारण को सरस्वती का पूजक व संवाहक माना गया। चारणों ने ताम्र की खोज की इसलिये यह जाति ‘ताम्रखोजी’ के नाम से भी जानी जाती है। विवाह के अवसर पर जब चारण को अपना गोत्र पूछा जाता है तब बहुत से अपने को ‘ताम्रगोत्री’ कहा करते हैं। चारणों का यह आवासीय स्थान ‘चारण डेरो’ का अपभ्रंश होकर ‘चान्हू डेरो’ के नाम से आज भी प्रसिद्ध है।

इस ताम्रयुग के चिह्न अन्वेषकों को ‘चान्हू डेरो’ और ‘विजनौत’ नामक स्थानों में खुदाई से मिले हैं। ये स्थान सरस्वती नदी के प्रवाह के सूखे हुए मार्ग पर ही हैं। देव जाति व नाग जाति के संयुक्त प्रवाह ने और आगे बढकर नई – नई सभ्यताओं को प्रतिपादित किया और वे उस स्थान व समुदाय विशेष के परिवर्तित नाम पर स्थापित हुई। मैसोपोटामिया तथा इलाम में यही सभ्यता ‘प्रोटोइलामाइट’ सभ्यता के नाम से जानी जाती है। देव जाति जम्बू द्वीप के सुमेरु पर्वत पर रहती थी। नागों के साथ देव लोग इनके नक्शे – कदम पर आगे बढे तब ये सुमेरु पर्वत के मूल निवासी होने के कारण सुमेरु जाति के नाम से जाना जाने लगे। यह सुमेरु जाति नागों व देवों (चारण) आदि का समुदाय था, जो प्रोटोइलामाइट के पश्चात मैसोपोटामिया में जाकर बसा है। सुमेरु सभ्यता के बाद मिश्र की सभ्यता का उदय हुआ।

अमेरीका के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. डी. टेरा, जो बड़े विद्वान हैं, उनका कहना है कि ‘निश्चित रूप से सिन्धु – प्रदेश पत्थर और धातु युग को मिलाने वाला है।’ ताम्र सभ्यता के बाद कांसे की सभ्यता आई। डॉ. डी. टेरा कांसे की सभ्यता को सुमेरियन लोगों की मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि कांसे की सभ्यता वाली यह सुमेरु जातियाँ की सभ्यताएँ किसी अन्य अज्ञात देश में ताँबे की सभ्यता में विकसित हुई थी।

चूंकि ताम्र सभ्यता के बारे में तो हमने विवेचन कर दिया है। नागों और देवों (चारणों) व आदित्यों आदि के इस अभियान में इन पुरातत्वविदों ने अपने अन्वेषणों को इत्तर स्थानों में स्थापित किया। इन पुरातत्वविदों ने इसका अन्वेषण भारतवर्ष से करने के बजाय वे अन्य स्थानों पर ही करने के लिए भटकते रहे जिससे उनको इस का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं हो सका।

मैसोपोटामिया के उर – फरा – किश तथा इलाम के सुसा और तपा मुख्यान आदि देशों में उन्हें खुदाई में कांसे की सभ्यता के नीचे ताम्र – सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यूरोपीय पुरातत्ववेताओं का यह मत है कि मिट्टी का यह स्तर उस बड़ी बाढ द्वारा बना था, जिसको प्राचीन ग्रन्थों में नूह की प्रलय कहते हैं। इसका यह अर्थ लगाया गया कि इस प्रलय से प्रथम ही प्रोटोइलामाइट सभ्यता का अस्तित्व था। परन्तु वहाँ पर विकसित सभ्यता के कोई अवशेष नहीं पाये गये। इस पर पुरातत्व के इन विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रोटोइलामाइट लोग अपनी ताम्र सभ्यता के साथ किसी अन्य देश से इलाम और मैसोपोटामिया में आकर बसे थे। यहाँ आकर उन्होंने यहाँ की मूल पाषाण – सभ्यता वाली जाति को नष्ट कर दिया और स्वयं वहाँ बस गये। ये खेती करते, पशु पालते तथा ऊनी वस्त्र पहनते थे। वस्तुतः यह देव सर्ग की चारण जाति का ही मुख्य कार्य था। इनमें ऊनी वस्त्र पहनने की विशेषतः बात विद्वानों ने कही है, ऐसा केवल मात्र चारण जाति की ही परम्परा व दर्शन का एक अभिन्न अंग है। वर्तमान काल तक गुजरात राज्य में इसे देखा जा सकता है। डॉक्टर, फ्रेंकफोर्ट, डी मार्गन, डॉ. लेंग्डन आदि विद्वानों ने यह निर्णय दिया है, परन्तु यह जाति कोन थी, प्रलय के बाद कहाँ चली गई ? इस संदर्भ में ये मौन हैं। हम इस राह को प्रशस्त करना चाहेंगे कि यह जाति चारण थी व नाग लोग भी इनके साथ थे।

सर जॉन मार्शल ने इसके बाद सिन्ध में आमरी प्रदेश की खुदाई की। उन्होंने इस ताम्र- सभ्यता को आमरी – सभ्यता का नाम दिया और खुदाई में पाई गई अनेक वस्तुओं के साम्य से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रोटोइलामाइट – सभ्यता तथा आमरी सभ्यता एक ही है। यही सभ्यता सप्तसिन्धु में सरस्वती तट पर विकसित हुई थी। वास्तव में ये लोग नाग जाति तथा देवजाति (चारण) ही थै जो पहले बलूचिस्तान में गये फिर पर्शिया (ईरान) में रहे तथा वहाँ से इलाम एवम् मैसोपोटामिया में जाकर बस गये।


चारण एक संक्षिप्त परिचय-

चारण की उत्पत्ति और विकास के बारे में वेद और पुराणों की गूंज इसके अति प्राचीन होने की साक्षी देते हैं। फलतः यह बात स्वतः प्रमाणित है कि इस जाति का प्रादुर्भाव एक ऐसे समय में हो चुका था जब वर्ण व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं था। यह जाति दक्ष पुत्री सती व शिव की सन्तान है। सती व शिव (रुद्र) के संरक्षण में वेदों की ऋचाएँ रचने के कारण ये ऋषि कहलाते थे। शिव के ये पुत्र (गण) जिन्होंने शिव से योग का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सिद्धियाँ अर्जित की तब वे सिद्ध कहलाते थे। सती के ये 52 पुत्र (गण) जो दक्ष यज्ञ में सती की सुरक्षा में साथ थे। सती के यज्ञ कुण्ड में कूदकर स्वयं को जला देने पर इन गणों ने दक्ष का वध कर अप्रतीम शौर्य का परिचय दिया। जिस पर उपस्थित देव दानव आदि ने इनको वीर पद से विभूषित किया तब से ये वीर कहलाये।

अर्थात् सती दक्षायनी के 65 पुत्र (गण) जो ऋषि, सिद्ध एवम् वीर नामों से प्रसिद्ध हुए । ये सती पुत्र शिव से योग विद्या सीख कर इतने निष्णात थे कि इन्हें अलोकिक पुरुष के रूप में देखा जाता था। ये ऋषि और सिद्ध वेद और योग का प्रचार करते, देश देशान्तर तक इस ज्ञान को प्रसारित करते इससे ये ‘चारण’ नाम से जाने जाते थे। अर्थात् ‘चारयन्ति वेदं, योगं वा इति चारणाः।’ लक्ष्मण पिंगळशी गढवी ने भी अपनी पुस्तक ‘चारण नी अस्मिता के पृष्ठांक 51 पर इसी बात को लक्ष्य करके चारण शब्द के बारे में लिखा है, ‘ज्ञाननो विद्यानो प्रचार करनारा होवाथी ज ‘चारणं अवुं नाम ए जातिने मळ्युं लागे छे।’

जैन धर्म शैव पंथ के मूल सिद्धान्त ‘आत्मयज्ञ’ के आधार पर अवस्थित हैं। जिन्होंने अपरिग्रह के रूप में इसे अंगीकार किया है। शैव धर्म के अनुयायी ‘नागा योगियों’ के अनुसरण में जैनों में ‘दिगंबर’ सम्प्रदाय का उदय हुआ। ये मूलतः यक्ष नामक आदिकाल की जाति से सम्बन्धित हैं। सिद्धि प्राप्त चारणों से जब इनका सम्पर्क हुआ तो जैन तपस्वी आश्चर्यचकित रह गये। जैन ग्रन्थ-पन्नावणाजीसूत्र में इसका दृष्टांत अवलोकनीय है, ‘अरिहंता चक्कवट्टी बलदेवा ‘वासुदेवा चारणा विज्जाहरा।’ (मनुष्यप्रकरण-प्रथम पद)

जैन कल्पसूत्र में लिखा है, ‘जंघा (सिद्ध) चारण एक दिन में सम्पूर्ण भूमंडल की परिक्रमा कर सकता है, यह ऐसी सिद्धिवाला होता है। ‘विद्या चारण’ (वेदज्ञ) अमोघ शक्ति धारण करने वाला होता है। चारण सत्य की उपासना करने के कारण परम सिद्धि प्राप्त है।’ चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख में चारणों के वेद ऋचाएँ रचने व योग से सिद्धियाँ प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है – यथा –

वन्द्योविभुम्भफवि न कैर हि कौण्डकुंद:
कुंद प्रभाप्रणयिकीर्तिविभफषिताशः ।
यश्चारु चारण कराम्बुजश्चरीकश्चके
श्रुतस्य भरते प्रयतः णप्रतिष्ठान ।।
अर्थात् कुन्द पुष्प की प्रभा धारण करने वाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं। जो चारणों के ‘चारण ऋषिधारी’ तपस्वियों के सुन्दर हस्तकमलों के भ्रमर थे और जिन पवित्र आत्माओं ने भरत क्षेत्र में वेद की ऋचाएँ एवं श्रुत की प्रतिष्ठा प्रतिपादित की है। वे विभु कुन्द कुन्द इस पृथ्वी पर किससे वंद्य नहीं हैं ?’

सती, जाति वे सूरवीर संभू सुत विचार।
चारण रण कलर नहीं। चारण वो रणधार॥1॥
सक्ति उपासक, सरल चित्त। ज्ञानि, ध्यानि गुणवान।
सत्य वदित, संस्कारपद, चारण वरण सुजान॥12॥

शास्त्रों के अन्य उल्लेख दृष्टव्य हैं- ‘श्री नेमीनाथ तीर्थंकर पूर्व के चौथे भव में अपराजित नाम के राजा थे। अष्टाह्निका के दिन वे मन्दिर में जिनेन्द्रपूजा कर शास्त्र – स्वाध्याय कर रहे थे। उस समय आकाश में से दो चारण सिद्ध उतरे। राजा ने उनका सन्मानादि कर धर्मोपदेश सुनकर कहा, ‘महाराज! मैंने आपको पहले कहीं देखा है। वे तीनों पूर्व के, दूसरे भव में उस बात का सिद्ध चारणों ने वर्णन किया और कहा, हे राजन, अब तुम्हारी एक महीने की आयु शेष है, इसलिये शीघ्र हित कर लो। राजा ने संसार से उदासीन हो प्रायोपगमन संन्यास धारण किया।’

‘महावीर भगवान जीव पूर्व दसवें भव में सिंह पर्याय में था। उस समय दो चारण ऋषि आकाश से उतरकर, भाववाही धर्मोपदेश देते हैं और कहते हैं कि ‘अरे सिंह! तू दसवें भव में तू तीर्थंकर होने वाला है। सिंह को जाति स्मरण होता है। आँखों से अश्रुधारा बहती है और वह सम्यग्दर्शन पाकर निराहराव्रत अंगीकार कर वैमानिक देव होता है।’ ‘राम, लक्ष्मण और सीता को सुगुप्ति और गुप्ति नामक दो सिद्ध चारणों ने आकाश आकर आहारदान दिया था।’ इसके अतिरिक्त प्रबन्धचिन्तामणी – मेरुतुंगाचार्यका श्वेताम्बर सम्प्रदाय के वर्णन में निम्न ग्रन्थों में चारणों का उल्लेख है-

प्रबन्धों, प्रबंधकोश, पुरातन प्रबंध, वस्तुपाल प्रबंध, सज्जनाकारितरैवतीर्थो द्वारा प्रबंध, मंत्री यशोवीर प्रबंध में चारणों का वर्णन है।

पृथ्वीचंद चरित्र – माणिकियसुंदरसूरिकृत – ‘पृथ्वीचंद चरित्र’ जो लगभग छः सौ वर्ष पहिले (वि.सं. 1478) में लिखा गया है। यह मध्यकाल का उत्तम गद्य लेखन का नमूना है। यह कृति गुजराती साहित्य की उत्तम कृति में अपना स्थान रखती है। इसमें चारणों के बारे में उल्लेख है –

ते तलई भाग्ययोगि दैव संयोगिई,
                                      चारण श्रमण महात्मा एक तिहां आविऊ, कल्हणकृत राजतरंगिणी
कृतापकित्रमकर्पुर परित्याग प्रतिज्ञाया।
                     तं च स्तुतिमिषा देवं जहसुः कवि चारणः ॥ तरंग ॥ 7, 11, 22 ।।

कई विद्वान लेखकों ने चारणों के बारे में लिखा अवश्य है परन्तु चारण जैसी अति प्राचीन जाति के लिए यह अपर्याप्त रहा, साथ ही चारण के मूल समग्र स्वरूप को भी स्पष्ट करने में असमर्थ रहे फलतः इस विद्वान और वीर जाति को भ्रान्तियों का शिकार होना पड़ा। विद्वान लेखकों का निम्न नामोल्लेख है- 1. भैरवदान कृत, चारणोत्पत्ति मीमांसा – मार्तण्ड’, 2. कृष्णसिंहजी कृत, चारण कुल प्रकास, 3. कविराजा मुरारिदान आशिया कृत, संक्षिप्त चारण ख्याती, 4. नन्दसिंह कृत, चारण जाति का संक्षिप्त इतिहास, एवं 5. सूर्यमल मीसण, 6. भगवती प्रसादसिंह, 7. किशोरसिंह, 8. श्यामलदास दधवाड़िया वीर विनोद, 9. जादूदान इत्यादि। इन लेखकों ने जो कुछ लिखा जिससे एक ही ध्वनि निकलती है कि इस जाति की उत्पत्ति सृष्टि के आरंभिक काल से है तथा इसकी गणना देववंश में की जाती है।

श्रीमद्भगवद गीता, मत्स्य पुराण, वाल्मिकि रामायण, महाभारत आदि आर्ष ग्रन्थों में चारण जाति के बारे में अनेकों उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया गया है कि यह जाति देव जाति समुदाय से सम्बन्धित है। भगवती प्रसाद ने चारणों का विस्तार मंगोलिया तक माना है। सूर्यमल मीसण ने इनका मूल स्थान तिब्बत में, कविराजा मुरारिदान ने सुमेरु पर्वत पर जिसे स्वर्ग नाम से पहिचाना जाता है, चारणों का मूल स्थान माना है।

ठाकुर भगवती प्रसाद सिंह बीसेन ने महाभारत में आये हुए प्रमाणों को मानकर गन्धमादन पर्वत पर जिसे आजकल हिन्दुकुश कहते हैं चारण का स्थान माना है। यहाँ से वे स्वर्ग स्थान पर आते जाते थे। उस काल में ‘हरिद्वार’ का नाम ‘गंगा द्वार’ और ‘स्वर्गद्वार’ भी था। हरि का अर्थ है – शिव (रुद्र) और शिव का स्थान वही स्वर्ग है, जो गंगा का उद्गम है। इसलिए शिव के पास जाने की इस राह को शिव द्वार – हरिद्वार कहा गया है।

विद्वान भैरुदान ने जैन पुराणों के आधार पर चारण को दिव्य देहधारी, गगनचारी एवं अनेकों सिद्धियों से निष्णात माना है। चारण सुदूर देशों में गमन करके योग एवं वेदों के ज्ञान का उपदेश दिया करते थे। प्राचीन जैन ग्रंथ ‘चुतः शरण प्रकर्ण’, उपदेश रसाल एवं ‘प्रबंध चिन्तामणी’ मैं चारण को पवित्र जीवन वाला, तपकर्म एवं शास्त्र (वेद) के पठन-पाठन करने का स्पष्ट वर्णन है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चारण वेदों के रचनाकार हैं एवम् उनकी ऋचाएँ का उपदेश देने एवं इसका प्रचार करने के कारण ऋषि कहलाये। इसी प्रकार जब मनु ने भी अपने धार्मिक सिद्धान्त प्रतिपादित किये और उसके अनुयायियों ने उनको ग्रहण कर प्रचन किया तो वे “मुनी’ कहलाये अर्थात् मनु के सिद्धान्तों का प्रचारक। इस प्रकार ऋषि और मुनि दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। ऋषि लोग दाढी मूंछों वाले लम्बी जटाजूट के होते थे जबकि मुनि बिना दाढी.. मूछ वाले। नारद एक मुनि थे ।

श्रभकृष्णसिंह बारहठ ने प्राचीनकाल से अर्वाचीन काल तक चारण के गमन पथ से उसके सोलह पर्यायवाची नाम का उल्लेख किया है- 1. ईहग:-ईहग, 2. कवि और कविजन:-कवि- किव-किवजण, 3. गढ़पतिः=गढवी, 4. द्वियः द्विस्थः वा द्विकथी= दूधी, 5. निपुण:-नीपण, 6. पात्रम्=पात, 7. भाणवः = भाणव, 8. मार्गणम् = मागण, 9. रणवहः- रेणव, 10. विदग्धः=वीदग, 11. हितवहः = हेतव, 12. गुणिजनः = गुणियण, 13. चारण:- चारण, 14. तक्र्कक:= ताकव, 15. बारठ, 16. पौळपात = प्रतोल्हपात्रः, गढ का द्वार रक्षक।

इसके अतिरिक्त हमने चारण के 5 पर्यायवाची शब्द और लिखे हैं- 1. चाह + रन = चारन। भय रहित भावना से युद्ध रत रहना चाह = इच्छा। रन = युद्ध। 2. द्विकर्मा = कलम और कृपाण के दो कार्यों का संवाहक। 3. द्विवर्णाः क्षत्रिय और ब्राह्मण के संयुक्त धर्म का खेवनहारा। 4. चार + न = चार वर्णों में न होने से चारन। 5. जिस जाति में त्रिगुण= 1. शूरवीर, 2. सती और 3. शक्ति अवतरित हो वह चारण है। क्षत्रिय शिष्य को चारणों ने शूरवीर व उनकी स्त्रियों को सती की दीक्षा से सम्पन्न अवश्य किया परन्तु चारण का तीसरा गुण केवल चारण के साथ ही है। त्रिगुण की संषष्टी का यह दोहा बड़ा प्रसिद्ध है-

त्रिगुण गुणां कुळ चारणां। सूरा, सती, सगत॥

इस प्रकार हम चारण शब्द की 21 पर्याय में व्याख्या करते हैं और चारण का समग्र दिग्दर्शन भी इस ग्रन्थ में 21 अध्यायों के माध्यम से कर रहे हैं।

डॉ. मोहनलाल जिज्ञासू ने अपनी पुस्तक ‘चारण साहित्य का इतिहास भाग प्रथम, पृष्ठ 28 पर लिखा है, ‘चारण का अस्तित्व सहस्रों वर्ष प्राचीन है। आदिकाल में अधिकांश चारण घोड़े, गाय, भैंस, बैल आदि उपयोगी पशुओं का क्रय-विक्रय करते थे। किसी समय उत्तर- पश्चिमी भारत में घी और घोड़ों के व्यापार की कुंजी इनके हाथ में थी। धनाढ्य चारण आढतियों एवं गुमास्तों से बैलें पर माल असबाब पहुंचाने का भी काम करते थे। जिनमें चारण हेम हेड़ाऊ एवं मावलजी वरसड़ा के नामों का पता चलता है। वस्तुतः चारण जाति का इतिहास राजपूतकालीन भारत से आरम्भ होता है। मारु चारण मारवाड़ से निकलकर अन्य राज्यों में भी फैले हैं। इनके अधिकार में 2000000 रुपये बीस लाख रुपये वार्षिक आय की भूमि रही है। अकेले मारवाड़ राज्य में अनुमानतः 400000 रुपये चार लाख रुपये की पैदावार होती थी।

चारण और राजपूत जाति के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में डॉ. जिज्ञासू ने पृष्ठ 30 पर लिखा है, ‘चारण राजपूत का चित्रकार है। एक गुरु है, दूसरा शिष्य है। चारण अपने ओजस्वी भाषणों से प्राणों का मोह छुड़ाकर वीरों को स्वदेश एवं परहितार्थ सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करना सिखाते हैं। ऐसे चारण गुरुओं की बलिहारी है जो क्षण मात्र के तप से स्वर्ग-प्राप्ति करा देते हैं। यही इस सम्बन्ध का मूल रहस्य है। इन दोनों जातियों के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को देखकर कहना ही पड़ेगा कि भारत की अन्य जातियों में ऐसा घनिष्ठ सम्पर्क दुर्लभ है। इस सम्बन्ध का आरम्भ हर्षवर्द्धन के पश्चात् क्रमबद्ध रूप से देखने को मिलता है।

चारण के बारे में डॉ. जिज्ञासू ने इसी पुस्तक के पृष्ठ 31 पर लिखा है, ‘जिस प्रकार चारण कवियों ने राजपूत जाति के कुल गौरव को सुनहरे अक्षरों में अंकित किया है, उसी प्रकार उन्होंने जीवन तथा जगत के अनेकानेक क्षेत्रों में उनकी सेवा भी की है। इतिहास इस कथन की पुष्टि करता कि चारण राज्य दरबारों में रहकर राजनैतिक कार्यों में पूर्ण दिलचस्पी लेते थे। पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने में भी रुचि ली है। विपत्ति एवं युद्ध के समय तो कंधे से कंधा भिड़ाकर वे प्राणों तक का विसर्जन कर देते थे। जब कोई राजपूत अपने बंधु-बान्धवों के अपराध से अथवा राजा-महाराजाओं के अन्याय से बचने के लिये चारण के घर आश्रय ग्रहण करता तब उसे कोई नहीं छेड़ता था। युद्ध का निमन्त्रण मिलने पर राजपूत अपनी बहू-बेटियों एवं स्त्रियों को चारणों के घर छोड़ देते थे। इस प्रकार हम इन दोनों को एक आत्मा दो शरीर के रूप में देख सकते हैं। चारण काव्य है तो राजपूत उसका चरित नायक।

‘यदि दोनों का विश्लेषण किया जाय तो कहा जा सकता है कि इन्हें, कविराजा का उपटंक, ताजीम, पैरों में स्वर्णाभरण, लाखपसाव, बांहपसाव, ठिकाना, हाथी, घोड़े, पालकी, सोना चांदी, नकद रुपये आदि अनेक मूल्यवान पदार्थ प्राप्त हुए हैं।

पण्डितवर श्री सुखलाल ने अपनी पुस्तक, ‘चारण कुल की उत्पत्ति’ में जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया है वे सब शास्त्र सम्मत हैं। वर्णों से भिन्न और वर्ण व्यवस्था से पूर्व भी जिसका अस्तित्व था, वह जाति चारण थी। यजुर्वेद में उसके बारे में यह उल्लेख है, ‘यथेमां वाच कल्याणीमावदानि जनेभ्यः राजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।’

हिमालय पर्वत, कैलाश, मानसरोवर, तिब्बत, नेपाल, हिमाचल प्रदेश त्यादि समस्त भाग को स्वर्ग कहा गया है। इस बाबत भारद्वाज ऋषि ने महाभारत के शान्ति पर्व के मोक्ष पर्व में 192 वें अध्याय के आठवें श्लोक में लिखा है-

उतरे हिमवत्याऽर्ये पुण्ये सर्वगुणान्विते।
पुण्यः क्षेमश्च काम्यश्च स परोलोक उच्यते॥
अर्थात् उत्तर दिशा में हिमालय के पवित्र एवं सर्वगुणों वाली भूमि के नजदीक अति पवित्र विघ्न रहित जो सुन्दर लोक है-स्वर्ग कहते हैं।

इस संसार के प्रथम मानव की उत्पत्ति – खगोल की रचना तिब्बत में हुई है। इसके प्रमाण में उदयपुर के यन्त्रालय में प्रसिद्ध प्राप्त शब्दार्थ ‘चिन्तामणि कोष’ के तृतीय भाग के एक श्लोक में अंकित है-

अत्रैन हि स्थितो ब्रह्मा पाड नक्षत्रं ससजंह।
ततः वारज्योतिषार व्योमपुरी शक्रपुरीसमा॥
अर्थात् प्राग्जोतिष नाम के नगर जो तिब्बत के पास स्थित है, तिब्बत का त्रिविष्टप यानि स्वर्ग नाम कहा जाता है। तिब्बत = त्रिविष्टप= स्वर्ग देव प्रदेश। वहाँ सृष्टि की प्रथम उत्पत्ति हुई है।

संदर्भ – चारण दिग्दर्शन
लेखक – शंकरसिंह आशिया भांडियावास-बाड़मेर


चारण जाती की उत्पति से समंधित अन्य आलेख के लिए, शीर्षक पर क्लिक करें-

  1. चारण जाती की उत्पति – ठा.  कृष्णसिंह बारहठ


 

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