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क्रांतिकारी कुंवर प्रतापसिंह बारहठ

क्रांतिकारी कुंवर प्रतापसिंह बारहठ

पूरा नामकुंवर प्रतापसिंह बारहठ
माता पिता का नामपिता क्रांतिकारी बारहठ केशरीसिंहजी व माता श्रीमती माणिक्य कंवर
जन्म व जन्म भूमिवि.सं.1950 ज्येष्ठ शुक्ला नवमी तदनुसार दि. 24 मई 1893 को उदयपुर में हुआ
शहीद दिवस
बरेली जेल के रजिस्टर में लिखे गए पृष्ठ संख्या 106/107 के अनुसार संवत 1975 की बैसाखी पूर्णिमा तदनुसार दिनांक 24 मई सन 1918 को मात्र पच्चीस वर्ष की अल्पायु में ही अंग्रेजों की क्रूर नारकीय यातनाओं को झेलते झेलते यह क्रांतिकारी अपने 25वें जन्म दिवस पर सदा के लिए गुलामी के बंधन तोड़कर शहीद हो गए
अन्य
प्रताप का महत्व सिर्फ इस लिए ही नहीं है कि वो अल्पायु में ही शहीद हो गए थे, बल्कि इसलिए भी है कि वो उस परिवार से नाता रखते हैं जिस परिवार ने अपना पूरा खानदान क्रांति की राह में झौंक दिया था। पिता केसरीसिंहजी, चाचा जोरावरसिंहजी, जीजा ईश्वरदानजी आसिया और स्वयं प्रताप। इस देश के इतिहास में ऐसे सिर्फ दो परिवार हुए है जिन्होने अपने पूरे खानदान को राष्ट्रहित पर बलिदान किया हो। एक तो दसमेश गुरु श्री गोविंदसिंहजी महाराज का परिवार और दूसरा राजस्थान का ये बारहठ परिवार।

 जीवन परिचय

कुंवर प्रतापसिंह बारहठ

कुंवर प्रताप बारहठ का जन्म श्री केसरी सिंह बारहठ के पुत्र के रूप में माता श्रीमती माणिक्य कंवर की कोख से २४ मई १८९३ को उदयपुर में हुआ। कुंवर प्रताप बारहठ का प्राथमिक विद्याध्ययन कोटा में हुआ एवं हाई स्कूल की शिक्षा दयानन्द एंग्लो वैदिक हाईस्कूल, अजमेर में प्राप्त की, परंतु स्वातंत्र्य आंदोलन में भाग लेने की दृढ़ इच्छा ने उन्हें परीक्षा देने से रोक दिया।


प्रताप प्रकृति से ही सिंह था
(प्रख्यात क्रांतिकारी रास बिहारी बोस)

कुंवर प्रताप बारहठ को प्रसिद्ध क्रांतिकारी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रासबिहारी जी बोस ने निर्भीकता व शक्ति में ‘सिंह’ बताया था।

रास बिहारी जी बोस ने अपने एक आलेख में प्रताप बारहठ का वर्णन करते हुए लिखा-“हम लोग जिस समय नवद्वीप (बंगाल) में थे उस समय बहुत से भाई आते-जाते थे, उनमें से प्रतापसिंह की कुछ बातें करूंगा। प्रताप के बाप, चाचा, दादा सब कोई देश के लिये आत्मदान कर चुके हैं। प्रताप के साथ मेरा संबंध बहुत पुराना था। पंडित अर्जुनलाल सेठी जी की सिफारिश लेकर प्रताप और उनके बहनोई अन्य दो लड़कों के साथ देश सेवा करने के लिये मास्टर अमीरचन्द जी (जिनको बम काण्ड में फांसी दी गई) के पास १९१३ में आये थे। मुझे देखते ही अमीरचन्द ने कहा था-बाबूजी! मैं आपके लिए चार बड़े देश प्रेमी यहां ले आया हूं। मैं उस दिन दिल्ली से जाने वाला ही था इसलिए उन लोगों ने मेरे लिये राजपूताने के ढंग की रोटी तरकारी बना कर रखी थी।

मैंने अवधबिहारी को एक काम से बाहर भेजा था, वहां पर प्रताप को देखा था तो मालूम हुआ कि उसकी आंखों से आग निकल रही है। प्रतापसिंह प्रकृति से ही सिंह था। मेरे विदेश जाने का कारण प्रताप को मालूम होने पर वह रो दिया था। उसे बड़ा दुख था कि वह बहुत दिन मुझे देख नहीं पायेगा। प्रताप के साथ मेरा वही अंतिम साक्षात्कार था। प्रताप अब इस जगत में नहीं है।

जेल में ही वह पृथ्वी छोड़ कर स्वर्ग चला गया, जहां की चीज थी, वहीं चली गई। ”

(संदर्भ : ‘मैं जापान कैसे गया’ आलेख राजा महेन्द्र प्रताप अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित,
स्व. रासबिहारी बोस के आलेख से)

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हिन्दुस्तान के अंग्रेज गृह सचिव क्रेडक को मारने की क्रांतिकारी जिम्मेदारी ली प्रताप बारहठ ने

शचीन्द्र सान्याल और प्रताप को राजस्थान में क्रांतिकारियों को फिर से संगठित करने का काम सौंपा गया। ये दोनों पहले दिल्ली गये और फिर प्रताप अकेला राजस्थान आया। क्रांतिकारियों ने भारत सरकार के गृह सचिव सर रेजिनल्ड क्रेडक को मौत के घाट उतारने का इरादा किया और इस काम के लिये जयचन्द को चुना गया। जयचन्द निमेज डकैती के श्री रेजिनल्ड क्रेडक बाद से फरार था और ऋषिकेश में बाबा कमली वाले आश्रम में रहता था। उसे वहां से बुलाकर लाने के लिये रामनारायण चौधरी को भेजना तय हुआ। रामनारायण चौधरी इससे पहले जयपुर में अर्जुनलाल सेठी की प्रेरणा से क्रांतिदल में शामिल हो चुके थे। प्रताप जयपुर से रामनारायण चौधरी को दिल्ली ले आये। वहां से चौधरी बनिये का वेश धारण करके ऋषिकेष पहुंचे और जयचंद से मिले पर जयचंद ने इनकार कर दिया। इस पर क्रेडक को मारने की जिम्मेदारी प्रताप ने ली, लेकिन क्रेडक बीमार पड़ गया और उस पर हमला नहीं हो सका।

इस पर प्रताप के विरुद्ध वारंट जारी हो गया। वह हैद्राबाद (सिंध) चला गया। जब वहां से कुंवर प्रताप बारहठ और रामनारायण जी चौधरी लौट रहे थे तो आशानाडा रेल्वे स्टेशन पर अपने मित्र स्टेशन मास्टर से मिलने चले गये। आशानाडा रेल्वे स्टेशन के मास्टर ने पुलिस को इत्तिला दे दी और वहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

 

श्री केसरीसिंह जैसे कितने लोग जिन्होंने अपनी संतान की देश कार्य में बलि दी

प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल ने स्वतंत्रता आंदोलन में सशस्त्र विप्लव का नेतृत्व किया था। वे रास बिहारी बोस के निकटतम सहयोगी थे और वीरव्रती प्रताप बारहठ के अन्यनत्तम सहयोगी थे। श्री सान्याल को वीर सावरकर जी की तरह दो बार आजीवन काले पानी की सजायें हुई। अंग्रेज सरकार के छक्के छुड़ाने और विप्लव की आंधी के प्रवाह को तेज करने का कार्य उन्होंने वीरवर प्रताप बारहठ के साथ मिलकर किया था।

वीर योद्धा शचीन्द्रनाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ (१९२२) में अपने साथी प्रताप बारहठ का गौरवपूर्ण स्मरण करते हुए एक अध्याय लिखा है। जब प्रताप बारहठ को अंग्रेज पुलिस यातनाएं देकर पूछताछ कर रही थी, उस समय श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल जेल की पड़ौसी बैरक में बंदी थे। आपने अनेक बार प्रताप बारहठ के साथ विप्लवी योजनायें बनाईं थी।

महान क्रांतिकारी योद्धा श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल ने स्वयं अपने शब्दों में प्रताप बारहठ को स्मरण करते हुए लिखा कि-

“राजपूताना के एक युवक के साथ मैं दिल्ली आ पहुंचा। अपने दल के ही एक युवक के डेरे पर अतिथि हुआ। दिल्ली में जो करना था सो किया। दिल्ली में ही पिंगले के साथ भेंट होने की बात थी। उस समय के होम मेम्बर ‘सर रीजनल्ड क्रैडक साहब’ तब दिल्ली में न थे और एक-दो और कारण थे, जिससे दिल्ली में कुछ किया नहीं गया. . .। राजपूताने के जिस युवक के साथ मैं दिल्ली गया उसका नाम था प्रताप सिंह। ये राजपूताने के चारण वंश के थे। चारण लोग राजपूतों में पूज्य माने जाते हैं। प्रताप के पिता का नाम सरदार केशरी सिंह, वे उदयपुर के राणा के विशेष प्रिय थे और अब मुझे ठीक ठीक याद नहीं, या तो प्रताप के पिता या उनके दादा उदयपुर के राणा के मंत्री पद तक पहुंचे थे। इनकी जागीर मेवाड़ के अंतर्गत शाहपुरा राज्य में थी। . . . राजपूताना के आज बिल्कुल अध:पतित हो जाने पर भी उस अतीत युग के संस्कार आज भी प्रत्येक राजपूतानावासी के हृदय में अंकित हैं। प्रताप परिवार की कहानी देख कर यह बात मेरे मन में स्वत: जाग उठती है। यह परिवार राजपूताना के गणमान्य समृद्ध जमींदारों में गिना जाता था, किंतु स्वदेश प्रीति और तेजस्विता की खातिर इन्हें अपना घर-बार बर्बाद करना पड़ा।

सबसे पहले दिल्ली षड्यंत्र के मामले के संबंध में प्रताप और प्रताप के बहनोई पकड़े गये, किंतु उनके विरुद्ध कोई विशेष प्रमाण न रहने से उस बार उनका छुटकारा हो गया। इसके कुछ ही दिन बाद कोटा में ही एक और राजनैतिक मामले में प्रताप के पिता केशरी सिंह जी को आजन्म काले पानी का दण्ड हुआ और प्रताप के एक सगे चाचा के नाम भी वारंट निकला, संभव आज भी वे पकड़े नहीं गए। केशरी सिंह जी का स्वास्थ्य अच्छा न रहने से उन्हें अण्डमान नहीं जाना पड़ा, देश की जेलों में ही रहना पड़ा।

इस मामले के फलस्वरूप केशरी सिंह जी की और उनके छोटे भाई की समूची सम्पत्ति तो जब्त हुई इसके अलावा उनके जो भाई राजनीति के पास फटकते भी न थे, उनकी भी सारी सम्पत्ति जब्त हो गई। इस तरह वे समृद्ध-सम्पन्न जागीरदार की अवस्था से एकदम रास्ते के भिखारी हो गये। प्रताप की माता के दुखों की उस समय सीमा न थी, आज एक संबंधी के पास रहतीं तो कल दूसरे संबंधी के घर जाकर अतिथि बनतीं। अंत में अपने पिता के घर जाकर किसी तरह दिन काटती रहीं, प्रताप के मामा के घर की हालत भी विशेष अच्छी न थी। विधाता जब किसी के प्रति निर्दयी होते हैं तब उनकी निष्ठुरता के निकट संसार की सब निष्ठुरता फीकी पड़ जाती है और वे जिनको वीर बनाकर उठाते हैं, उनके वीरत्व के निकट भगवान की निष्ठुरता भी हार मानने को बाध्य होती है। इसी से इतनी विपत्ती में पड़कर भी प्रताप सिंह बराबर विप्लव दल में काम करते रहे। काम करने में भी अंतर है, केवल कर्तव्य ज्ञान से काम करना एक बात है और काम करके आनंद पाना दूसरी बात; हमारा विचार है कि काम करके आनंद पाया जाये यही हमारा कर्तव्य है; अर्थात् जैसा काम करने से मनुष्य साक्षात् रूप से आनंद भी पाये, हमारा विचार है वैसा काम ही मनुष्य का कर्तव्य है और जो करके मनुष्य आनंद तो पाये ही नहीं, प्रत्युत उससे क्लेश का आभास हो वह काम करना मनुष्य को उचित नहीं। वैसी स्थिति में मानना होगा कि अनाधिकार चेष्टा की जा रही है, क्योंकि वैसी स्थिति में आनंद अथवा तृप्ति कुछ भी नहीं होती। अर्थात् लज्जा की खातिर, लोक-निंदा के भय से कर्तव्य-कार्य में योग देना एक बात है और कर्तव्य कार्य करके सचमुच आनंद पाना दूसरी बात।

प्रताप ने जो अपनी पारिवारिक अवस्था के भीषण संकट काल में भी इस प्रकार विप्लव कार्य में योग दिया था, उससे उनके दिल के किसी कोने में किसी तरह की ग्लानि अथवा संकोच तो था ही नहीं, वरन् विपत्ति की ऐसी कराल मूर्ति आंखों से देखकर भी वे पिता के अभिप्रेत प्रिय कार्य में फिर भी अपने को लगा सके, इससे उनका दिल आनंद और गर्व से फूल उठता था। ऐसे बहुत सज्जन देखे गये हैं जो केवल कर्तव्य की खातिर अथवा बंधुत्व को निबाहने के लिये ही इस विप्लव कार्य में योग देते थे, इसी से उनके कार्य में वैसा उत्साह न देखा जाता था और इसीलिए वे अधिकांश समय मुरझाये से रहते थे। ऐसा भाव देखकर हम उन्हें अधिक दिन यह विडम्बना न भोगने देते और शीघ्र ही निर्विवाद रूप से आनन्द भोगने का अवसर दे देते थे, जिससे वे छुटकारा पाकर शांति से दम ले सकें। किंतु जब-जब ऐसा नहीं किया गया है, जब-जब प्रकृति और प्रवृत्ति के विरुद्ध आचरण किया गया है, तब-तब प्रकृति देवी ने अपना पूरा बदला चुकाया है।

प्रताप वैसे कर्तव्य की खातिर ही उस कार्य में योग न देते थे। उन जैसे युवक मैंने बहुत ही कम देखें हैं। प्रताप केवल स्वयं ही आनंद में रहते हों सो नहीं, उनके संग में जो रहते थे वे भी आनंद पाते थे। तो हमारा तो विचार है कि जिसका मन ऐसी अवस्था में माता-पिता के लिए अधीर न होता हो उसका विश्वास करना उचित नहीं। मायामोह का एकदम अभाव होना एक बात है और माया-मोह में लिप्त न होना दूसरी बात। मनुष्य की दृष्टि से मैं तो उन्हीं को श्रेष्ठ कहूंगा जिनके स्वभाव में माया-मोह की पूरी सत्ता है किंतु जो माया-मोह में लिप्त नहीं होते। इसी से प्रताप को जब दुखी देखता तब मेरे प्राणों में बड़ी व्यथा होती। किंतु कार्य-क्षेत्र में जब देखता प्रताप किसी से भी पीछे नहीं है तब फिर वैसा ही आनंद भी प्रतीत होता।

भले-बुरे का द्वंद्व भी प्रताप के अंतःकरण में चरम अवस्था तक जा पहुंचा था। प्रताप के पकड़े जाने पर पुलिस बहुत दिन तक अनेक प्रकार के प्रलोभन दिखाकर उन्हें सब गुप्त बातें प्रकट कर देने के लिए विशेष तंग करती रही। पुलिस प्रताप से कहती कि सब गुप्त बातें कह देने पर केवल प्रताप को ही नहीं वरन् उसके पिता को भी छोड़ दिया जाएगा, यही नहीं उसके चाचा पर से भी मुकदमा उठा लिया जायेगा, उनकी सब सम्पत्ति फिर लौटा दी जाएगी, और इस सबके अलावा और भी कुछ पुरस्कार दिया जायेगा। प्रताप की माता ने, कितना कष्ट पाया है, प्रताप के भी दण्डित हो जाने से माता की अवस्था कैसी शोचनीय हो जायेगी और इस आघात को वे कैसे सह सकेंगी, यह सब बातें पुलिस अपनी स्वभावसिद्ध चतुराई के साथ बार-बार समझाती थी। पुलिस की ये सब बातें बिल्कुल निर्मूल हों सो भी तो न था। पहले पहल तो वे पुलिस के साथ ज्यादा देर ठीक तरह बात ही न करते थे। पीछे उन लोगों के साथ बात करना प्रताप को मानो कुछ-कुछ भला लगने लगा। एक दिन पुलिसवालों के साथ प्रताप की करीब तीन-चार घंटे बातचीत हुई। हम सब पास की निर्जन कोठरी में बैठे-बैठे दम थामकर जमीन आसमान की बातें सोचने लगे, संदेह हुआ कि अबकी बार प्रताप फूट पड़ेगा। पीछे मुकदमा आरंभ होने पर जब हम सबको प्रायः दिनभर इकट्ठा रहने का सुयोग मिला तब मालूम हुआ कि सच ही प्रताप का मन बहुत विचलित हो गया था। यहां तक कि अंत में एक दिन प्रताप ने, पुलिस से-कह दिया कि वे एक दिन और सब बातों पर विचार कर लें फिर कहना होगा तो कह देंगे। किंतु अगले दिन जब पुलिस प्रताप से मिलने आई, प्रताप बोले-‘देखिये बहुत सोचा-विचारा अंत में तय किया है कि कोई बात नहीं खोलूंगा। अभी तक तो केवल मेरी ही माता कष्ट पा रही है, किंतु यदि मैं गुप्त बातें प्रकट कर दूं तो और भी कितने ही लोगों की माताएं ठीक मेरी माता के समान दुख पाएंगी, एक मां के बदले और कितनी माताओं को तब हाहाकार करना होगा। ‘ मन के एक बार नीचे फिसल पड़ने पर उसे फिर अपनी जगह लौटा लाना कितना कठिन कार्य है, यह चिंताशील व्यक्ति ही समझ सकते हैं।

नहीं मालूम आज भारत में कितने ऐसे पिता हैं, जो सरदार केशरीसिंह की तरह सब जान-बूझकर अपने और अपनी संतान को इस प्रकार देश के कार्य में बलि दे सकेंगे। भारत का दुर्भाग्य है कि प्रताप सा युवक आज इस जगत में नहीं है। बरेली जेल में अंग्रेजों का दण्ड भोगते-भोगते उसका नश्वर शरीर उस दिव्य आत्मा का साथ न निबाह सका। इसी प्रताप के साथ मैं दिल्ली गया था और कई दिन तक इकट्ठे काम करने का अवसर पाया था। उस समय प्रताप की आयु लगभग बाईस बरस की रही होगी। दिल्ली में, हमने इस यात्रा में कितना काम किया यह दूसरे परिच्छेद में लिखा जायेगा।

. . . प्रताप के साथ इस बार दिल्ली में रहते समय मैंने इन्हीं बालमुकुन्दजी के साथ बातचीत की थी। . . . दिल्ली के विप्लव दल के दो मुख्य कार्यकर्ता श्रीयुत अवधबिहारी और श्रीयुत अमीरचन्द उत्तर भारत के अनेक विप्लवियों की अपेक्षा बहुत अंशों में श्रेष्ठ थे। . . . अमीरचन्द और अवधबिहारी के साथ मेरी वैसी घनिष्टता न हुई थी; कारण कि वे पहले ही पकड़े गये। किंतु इस बार प्रताप के साथ दिल्ली आकर लक्ष्मीनारायण और खास्ताजी के खूब घनिष्ट रूप से मिलने का अवसर पाया। . . . अवधबिहारी और अमीरचन्द के पकड़े जाने पर दिल्ली के विप्लव दल का कार्यभार लक्ष्मीनारायण और गणेशीलाल पर आ पड़ा। . . . मैं इस बार प्रताप के साथ दिल्ली आने के पहले और भी कई बार दिल्ली आया था और तब से ही देखता था कि अवधबिहारी आदि की गिरफ्तारी के बाद से दिल्ली में हमारा काम प्रायः कुछ भी आगे नहीं बढ़ रहा था। . . . इन सब कारणों से अनेक प्रकार से विप्लव की चेष्टा विफल होने के बाद हम और प्रतापसिंह नये सिरे से कार्य चलाने के लिये दिल्ली आये। हमारे दिल्ली आने का यह भी एक कारण था। क्रीडक साहब के दिल्ली में न रहने से हमें अपना एक विशेष कार्य अंत में स्थगित ही रखना पड़ा, किंतु दिल्ली की विप्लव समिति के पुनर्गठन में हम पूर्ण उद्यम से लग गये।

. . . हम लोग दिल्ली में एक मकान भाड़े पर लेकर प्रायः पंद्रह दिन रहे। दिल्ली से राजपूताना बहुत दूर नहीं है, मैं दिल्ली में ही रहा और प्रताप को दो बार जयपुर भेजा। हमारी इच्छा थी कि राजपूताना के कुछ युवकों को दिल्ली में लाकर दिल्ली के विप्लव केन्द्र को सुगठित कर डालें। प्रताप राजपूताना में कार्य करते और मैं दिल्ली के कार्यकर्ताओं के साथ मिलता-जुलता और उनमें से अपने दिल के मुताबिक आदमी छांटता। इस प्रकार दिल्ली में कुछ दिन काम करने के फलस्वरूप खास्ता जी के मन में बुझी हुई आग फिर प्रज्वलित हो गई। . . . इस प्रकार जिस समय दिल्ली का कार्य क्रमशः आगे बढ़ने लगा मैं भी ठीक उसी समय खूब बीमार पड़ गया। लाचार प्रताप को संग लेकर मैं बंगाल चला आया। मेरे नाम उस समय वारंट निकल आया, इसलिए युक्त प्रदेश में न रहकर बंगाल आना ही ठीक समझा।

. . . बारी का बुखार लेकर प्रताप के साथ बंगाल से मैं अपने केन्द्र में आ उपस्थित हुआ। बंगाल में हमारी विप्लव समिति का केन्द्र था कलकत्ता के निकट एक गाँव। अनेक कारणों से उस गांव का नाम अब भी नहीं लिखा जा सकता। इसी स्थान में मुझे पन्द्रह दिन तक खाट पर पड़े रहना पड़ा और इसी स्थान के युवकों ने उस समय बड़े यत्न से मेरी सेवा शुश्रूषा की। प्रताप मुझे बंगाल में छोड़कर राजपूताना चले गये। बात थी कि मैं स्वस्थ होने पर राजपूताना जाऊंगा और इस बार बड़े यत्न के साथ राजपूताना में विप्लव के केंद्र स्थापित करने होंगे। परंतु जब उनके साथ मेरी भेंट हुई, तब हम दोनों ही जेल में थे।”

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शाबास बहादुर

जब चांदनी चौक से लॉर्ड हार्डिंग का हाथी पर सवार होकर जुलूस निकल रहा था, उस समय उनके साथ हाथी पर ‘लेडी हार्डिंग’ भी सवार थी। हाथी के हौदे पर बम का धमाका हुआ। झटका लगा और वह आगे की ओर गिर गई। बम के धमाके से भीड़ निस्तब्ध होकर चुप हो गई। जब लॉर्ड हार्डिंग ने जुलूस को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया उस समय लेडी हार्डिंग के अनुसार भीड़ में से लोग चिल्लाने लगे और आवाज लगा रहे थे-‘शाबास बहादुर। ‘

उत्तर प्रदेश पुलिस के डी. आई. जी. श्री पी. बैम्बले ने बम कांड में दी अपनी गवाही में कहा कि-“मैंने चांदनी चौक में ईस्ट इंडिया रेलवे बुकिंग
ऑफिस को पार किया तो पीछे एक खतरनाक धमाके की आवाज सुनाई दी। मैं समझ गया कि यह बम विस्फोट है। इसी के साथ छज्जे से आवाज सुनाई दी-‘शाबास मारा’। यह आवाज सराहना की हर्ष अनुभव की थी।”

 

हम सब हार गये वह विजय हुआ : क्लीवलैंड

कुंवर प्रताप बारहठ रास बिहारी बोस के साथी को जब बनारस षड्यंत्र में गिरफ्तार किया गया तब ब्रिटिश पुलिस व गुप्तचर विभाग के अधिकारियों ने गहन शारीरिक यातनायें देकर पूछताछ की। पूछताछ के पश्चात ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग के निदेशक सर आर्चीबाल्ड क्लीवलैंड, दिल्ली ने बनारस जेल में कुंवर प्रताप बारहठ को यातनायें देकर कठोरता से गहन पूछताछ के पश्चात टिप्पणी की कि-“मैंने आज तक प्रताप सिंह जैसा वीर और विलक्षण बुद्धि वाला युवक नहीं देखा। उसे सताने में हमने कोई कसर नहीं रखी पर वह टस से मस नहीं हुआ। हम सब हार गये वह विजयी हुआ।”

प्रताप बारहठ ने पूछताछ में सर क्वीवलैंड से कहा कि-“मेरी मां को रोने दो जिससे सैंकड़ों को न रोना पड़े। यदि मैंने दल का भेद खोल दिया तो यह मेरी वास्तविक मृत्यु होगी और मेरी माता का अमिट कलंक होगा।”

कुंवर प्रताप बारहठ को बनारस षड्यंत्र कांड में दोष सिद्ध माना गया और पांच वर्ष की कठोर कारावास की सजा से दंडित किया। उन्हें बरेली की जेल में रखा गया, जहां शारीरिक यातनाएं दी गईं।

यातनाओं से त्रस्त कुंवर प्रताप बारहठ बरेली के कारागृह में २४ मई, १९१८ को शहीद हो गये। उनके बारे में बरेली कारागृह के बंदी रजिस्टर के पृष्ठ संख्या १०६/१०७ में निम्नलिखित विवरण लिखित है-

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प्रतापसिंह सुपुत्र केसरीसिंह
रजिस्टर नं. 1-1-1916 To 31-12-1916
रजिस्टर का पेज नं. १०६/१०७


नाम कैदी : प्रताप सिंह
सजा की अवधि : 5 साल की सख्त कैद
रजिस्टर नं. कैदी : जेल में पहले आये ६५९२
दुबारह का नं. १०३१७
चालवचलन : अच्छा
उम्र : 18 वर्ष
पेशा : नौकरी
जात : चारण
पिता का नाम : केसरी सिंह
रियासत व जिला : रियासत-शाहपरा, जिला-अजमेर
सजा कहाँ से पड़ी : स्पेशल सेशन जज बहादुर बनारस
सजा की तारीख : १४-२-१९१६
रिहाई : १३-२-१९२१ को होनी थी
बा हिसार रहे सहरा सूट में फूट हो गया।
मरने की तारीख : २४-५-१९१८ मर गये
चेहरा : गोल चेहरा
रंग : गोरा (गन्दमी)
होलिया : नाक पर एक दाग, होठ (मोटे) खुर्द,
दाहिने बाजू पर एक तिल, दाहिने पैर की
पिंडली पर एक दाग, सकरमनी सद दाग
ऊर्द खुर्द
लम्बाई : ५ फीट १ इंच
वजन : १०२ सेर
समय : दुपहर के बाद

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क्रांतिवीर शहीद प्रतापसिंह बारहठ के प्रति कवियों / लेखकों के उद्गार (शीर्षक पर क्लिक करें):

  • कुळ चारण लुळ नमन करै – कवि गिरधर दान रतनू “दासोडी
  • अमर शहीद प्रताप बारहठ रै प्रति- गिरधरदान रतनू दासोड़ी
  • भारत री छत्राणी – डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”
  • प्रताप की बलिदान कहानी – मनुज देपावत (देशनोक)
  • शहीद कुंवर प्रतापसिंहजी माथै गीत चित इलोल़ – कवि वीरेन्द्र लखावत
  • रोवै तो रोवै भला तोडूं कोनी रीत, जननी सूं ज्यादा मनैं जन्म भौम सूं प्रीत – प्रह्लादसिंह कविया प्रांजल
  • अमर सहीद कुंवर प्रतापसिंह बारहठ- प्रहलादसिंह “झोरड़ा”
  • ना रात वो संगीन थी, ना रात वो रंगीन थी- जितेन्द्र चारण
  • अरी दळ अंग्रेज रा जुलमां करता जाय – कवि राजन झणकली
  • अमर शहीद कुंवर प्रतापसिंह बारहठ

 

प्रतापसिंह बारहठ फ़ोटोज़

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