चारण शक्ति

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ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ

ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ

पूरा नामठाकुर कृष्णसिंह बारहठ
माता पिता का नामपिता का नाम ओनासिंहजी और माता का नाम शृंगारकुँवर था जो कविराजा श्यामलदासजी की बड़ी सहोदरा थीं। इस रिश्ते से कविराजा श्यामलदासजी उन के मामा हुए।
जन्म व जन्म स्थानजन्म शाहपुरा राज्यान्तर्गत उनके पैतृक गाँव देवपुरा में फाल्गुन सुदी एकम शुक्रवार वि. सं. 1906 तदनुसार सन् 1850 को हुआ था।
स्वर्गवास
देहावसान सन् 1907 में जोधपुर में हुआ।
अन्य
राजस्थान में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की अलख जगाने वाले तथा अपनी तीन पीढ़ियों को क्रांतियज्ञ में आहूत करने वाले ठाकुर केसरी सिंह बारहठ व जोरावरसिंह बारहठ इनके पुत्र थे। ये शाहपुरा राजाधिराज नाहरसिंह की तरफ से उदयपुर महाराणा सज्जनसिंह के दरबार में वकील थे। उदयपुर महाराणा, कृष्णसिंह की योग्यता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने कृष्णसिंह को शाहपुरा राजाधिराज की तरफ से वकील होने के साथ-साथ अपना सलाहकार भी नियुक्त कर दिया। कृष्णसिंह के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने लिखा है कि वे महर्षि दयानन्द सरस्वती के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे। प्रथम, अमर-शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, द्वितीय, महान क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा, मांडवी (गुजरात) जिन्हें महर्षि ने बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए आक्सफोर्ड भिजवाया था। और तृतीय कृष्णसिंहजी, जिनके साथ उनकी गाढ़ी मैत्री थी।

 जीवन परिचय

ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ का जन्म सन 1849 में शाहपुरा में हुआ था। राजस्थान में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की अलख जगाने वाले तथा अपनी तीन पीढ़ियों को क्रांतियज्ञ में आहूत करने वाले स्वनाम धन्य ठाकुर केसरी सिंह बारहट व जोरावर सिंह बारहठ इनके सुपुत्र थे।

ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ विरचित पुस्तक “चारण-कुल-प्रकाश” का संपादन इनकी प्रपोत्री श्रीमती राजलक्ष्मी देवी “साधना” जी ने किया है जिसमे अपने सम्पादकीय में उन्होंने अपने प्रपितामह के बारे में निम्न वर्णन किया है जो उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत है।

मेरे प्रपितामह श्री कृष्णसिंहजी बारहठ, अर्द्ध-स्वतंत्र राज्य शाहपुरा के प्रतोली-पात्र (पोळपात), उच्च-कोटि के इतिहासकार, कवि एवं मनीषी थे । वे हिन्दी, संस्कृत, डिंगल, पिंगल के अच्छे कवि और धुरंधर विद्वान् एवं अँगरेजी भाषा के जानकार थे। वे समाज सेवी थे। उनका स्वाध्याय विराट था। बारहठ कृष्णसिंहजी ने (1) महाकवि सूर्यमलजी के महान् ग्रंथ ‘वंशभास्कर’ की उदधि-मंथिनी टीका, पृष्ठ सं. 5000 (2) बारहठ कृष्णसिह का जीवन चरित्र और राजपूताना का अपूर्व इतिहास (तीन खण्ड), पृष्ठ सं. 1000, (3) डिंगल भाषा का प्रथम शब्द-कोष, जिसमें उन्होनें अस्सी हजार शब्द एकत्रित किये थे और उसकी विशद भूमिका भी लिखी थी (4) “चारण कुल प्रकाश”, एवं (5) मेवाड़ गजेटियर आदि कई ग्रंथ लिखे थे। वे कई भाषाओं के विद्वान एवं उन्नीसवीं शदी के उत्तराद्ध के राजपूताना के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ थे। मेरे प्रपितामह केवल इतिहासकार, श्रेष्ठ कवि एवं विद्वान् ही नहीं थे, अपितु तत्कालीन राजपूताना के शीर्ष राजनीतिज्ञों में से थे, जिनसे उदयपुर महाराणा साहिब के अतिरिक्त जोधपुर एवं कोटा जैसे बड़े राज्यों के नरेश भी सलाह- मशवरा किया करते थे। वे बहुश्रुत थे। उनकी प्रज्ञा जागृत हो चुकी थी, उनकी मेधा बहु-आयामी थी। कृष्णसिंहजी ने राजस्थानी (डिंगल) के सर्व-प्रथम “शब्द- कोश” का संकलन किया था और उन्होंने अस्सी हजार शब्द एकत्रित किए थे, जो “राजस्थान- रिसर्च- सोसाइटी”, कलकत्ता में संग्रहीत हैं। बीकानेर के प्रसिद्ध विद्वान्, श्री अगरचन्दजी नाहटा ने, जब उक्त सोसाइटी से यह “शब्द- कोश” माँगा तो उन्हें केवल तीस हजार शब्द ही प्राप्त हो सके, जिन्हें “शार्दूल रिसर्च सोसाइटी”, बीकानेर में जमा करा दिए गये। इस कोश का नाम था “कृष्ण नाम-माला डिंगल-कोश”। सौभाग्य-वश, इसकी भूमिका भी “चारण साहित्य शोध संस्थान”, अजमेर में विद्यमान है। इसकी भूमिका इतनी विशद् है कि टीकाकार कृष्णसिंहजी की असाधारण विद्वत्ता को भलीभाँति प्रदर्शित करती है। स्वनाम – धन्य कृष्णसिंहजी ने जोधपुर – निवास के दौरान चारण जाति का इतिहास भी लिखा था। इसके पूर्व, किसी अन्य विद्वान् द्वारा इतना विस्तार पूर्वक चारण जाति का इतिहास नहीं लिखा गया था। यद्यपि चारण जाति अपनी विद्वत्ता के लिए प्रसिद्ध है। अन्य किसी भी जाति में इतनी विद्वत्ता और नैसर्गिक काव्य-सृजन की शक्ति नहीं पायी जाती। शास्त्रों ने कहा है “विद्वान् सो हि देवाः” अर्थात् जो विद्वान् है, वही देवता है। लौकिक में भी चारणों को “चारण- देवता” कह कर सम्बोधित किया जाता है।

कृष्णसिंहजी ने महाकवि सूर्यमल्ल विरचित “वंश- भास्कर” की “उदधि-मथिनी टीका” की भूमिका में लिखा है कि महाभारत के रचनाकार, महर्षि वेदव्यास के पश्चात् पिछले पाँच हजार वर्षों में भारतवर्ष में, सूर्यमल्ल जैसा विद्वान् नहीं हुआ! सूर्यमल्ल, संस्कृत, प्राकृत, पैशाची आदि छह भाषाओं के असाधारण कोटि के विद्वान् थे। ऐसे ग्रंथ की टीका करने का महत् कार्य कोई विलक्षण विद्वान् ही कर सकता था और यह मेरे प्रपितामह का वैदुष्य ही था, जो ऐसे महत्-कार्य को सफलता- -पूर्वक सम्पन्न कर सके !

श्री कृष्णसिंहजी बारहठ, शाहपुरा राजाधिराज नाहरसिंहजी की तरफ से उदयपुर महाराणा सज्जनसिंहजी के दरबार में वकील थे। महाराणा सहिब, कृष्णसिंहजी की योग्यता से बहुत प्रभावित और प्रसन्न थे। उन्होंने कृष्णसिंहजी को शाहपुरा राजाधिराज की तरफ से वकील होने के साथ-साथ अपना सलाहकार भी नियुक्त कर दिया। ऐसा दोहरा कर्त्तव्य निर्वहन, कोई असाधारण बुद्धि-सम्पन्न विद्वान् पुरुष ही कर सकता है! वायसरॉय लॉर्ड रिप्पन, जब महाराणा सज्जनसिंहजी को के.सी. एस. आई. की उपाधि देने चितौड़ आये, तब कृष्णसिंहजी के पाँव में नारू निकला हुआ था, जिससे वे चलने-फिरने में असमर्थ थे इसलिए महाराणा साहिब ने कृष्णसिंहजी का हाथ खींच कर उन्हें अपने पास बग्गी में बैठा कर चित्तौड़ ले गये।

महाराणा साहिब की इससे बढ़ कर और क्या कृपा हो सकती थी?

कृष्णसिंहजी बचपन से ही फलित्-ज्योतिष, तीर्थ-स्थानों में स्नान आदि से पुण्यार्जन प्राप्त करना, माता-पिता की मृत्यु के बाद भोज देना और दान-दक्षिणा से स्वर्ग-प्राप्त करने आदि प्रचलित सिद्धान्तों को मानने के एकदम विरुद्ध थे। उनकी मान्यता केवल एक निराकार पूर्ण ब्रह्म में थी। उन्होंने अन्यत्र लिखा है- “भैरव भवानी आदि, और भ्रम जाल ऐसे कॉचे को न मानों, मानों एक साँचे को॥” उसी समय, सन् 1883 में नव-युग के पुरोधा, महर्षि दयानन्द सरस्वती का सर्व प्रथम आगमन चितौड़ में हुआ। राजपूताना में महर्षि का यह प्रथम पद-चाप था! महर्षि से मिलते ही कृष्णसिंहजी की सब शंकाओं का समाधान हो गया और उन्होंने महर्षि के सभी सिद्धान्त आत्मसात् कर लिए। एक बार महर्षि और एक मौलवी के मध्य वैदिक-धर्म और इस्लाम धर्म की श्रेष्ठता पर बहस हुई तो महाराणा साहिब ने कृष्णसिंहजी को एक मध्यस्थ नियुक्त किया एवं दूसरे मध्यस्थ थे, लावा-सरदारगढ़ के विद्वान् ठाकुर मनोहरसिंह। मौलवी की क्या औक़ात थी कि वह महर्षि जैसे बुद्धि-मार्त्तण्ड के सामने ठहर सकता! कृष्णसिंहजी ने महर्षि को महाराणा साहिब की तरफ से उदयपुर पधारने का निवेदन किया तो महर्षि, उदयपुर पधारे और उन्हें “नौ-लखा-बाग” में ठहराया गया, जहाँ पर महाराणा साहिब, प्रति-दिन नियमित रूप से महर्षि से मनुस्मृति, न्याय, वैशेषिक, दर्शन, मीमांसा आदि दर्शन – शास्त्र पढ़ने जाते थे। उनके साथ कृष्णसिंहजी भी जाते और महर्षि के चरणों में बैठ कर ज्ञानार्जन किया। महर्षि नौ माह तक उदयपुर बिराजे। यहीं पर महर्षि ने ‘“सत्यार्थ-प्रकाश” की द्वितीयावृत्ति तैयार की और चारों वेदों की टीकाएं लिखीं, जिन्हें मनीषी समर्थदानजी ने वैदिक यंत्रालय, अजमेर से प्रकाशित किया। मनीषी समर्थदानजी, एक उच्च कोटि के विद्वान् थे। राजपूताना में महर्षि के प्रभाव में सबसे अधिक आने वाले गणमान्य राज-पुरुषों में महाराणा साहिब सज्जनसिंहजी के अतिरिक्त शाहपुरा के राजाधिराज नाहरसिंहजी और जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंहजी के अनुज, महाराज कर्नल सर प्रतापसिंहजी, जो जोधपुर के दीवान एवं सर्वे-सर्वा थे। उन्होंने जोधपुर के प्रशासन और शिक्षण-संस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन कर, महर्षि के सिद्धान्तों को साकार रूप प्रदान किया।

कृष्णसिंहजी के सम्बंध में इतिहासकारों ने लिखा है कि वे महर्षि दयानन्द सरस्वती के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे। यानी प्रथम, अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द और द्वितीय, महान क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा, माँडवी (गुजरात) जिन्हें महर्षि ने बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड भिजवाया था। और तृतीय थे कृष्णसिंहजी, जिनके साथ उनकी गाढ़ी मैत्री थी। श्यामजी कृष्ण वर्मा तत्कालीन भारतवर्ष के सबसे बड़े बैरिस्टर थे, जिनकी सीधी पहुँच, वाइसरॉय, फॉरेन एवं पोलिटिकल सेक्रेट्री, ए.जी.जी., राजपूताना, माउंटआबू के यहाँ थी। कृष्णसिंहजी के प्रयासों से ही श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा को उदयपुर में “महद्राज- सभा” का सदस्य बनाया गया था और उदयपुर में रेल्वे लाइन लाने का श्रेय भी श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा को ही जाता है। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लन्दन प्रवास के दौरान ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में “INDIA HOUSE” जैसी महत्वपूर्ण संस्था बनाई, जहाँ वीर सावरकर आदि जाने-माने स्वतंत्रता सेनानियों ने काम किया।

बैरिस्टर श्यामजी कृष्ण वर्मा अँगरेजी हुकूमत से शख्त ख़िलाफ़ थे इसलिए ब्रिटिश गवर्मेंट ने उन्हें भारत से निष्काषित कर दिया, तब वे लन्दन चले गये। इंग्लैण्ड की सरकार ने भी श्यामजी कृष्ण वर्मा को वहाँ से निष्काषित कर दिया तो वे फ्रांस चले गए। फ्रांस से भी जब उनको निष्काषित कर दिया गया तो वे अन्तर्राष्ट्रीय शरण स्थली स्विट्जरलैण्ड चले गए और वहीं उन्होंने अंतिम स्वाँस ली। दो साल पूर्व, गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, स्वनामधन्य श्यामजी कृष्ण वर्मा की अस्थियों को स्वदेश, माँडवी ले आए। सन् 1936 में जब पं. जवाहरलाल नेहरू, उनकी सह- धर्मिणी श्रीमती कमला नेहरू का इलाज कराने के लिए स्विट्जरलैंड गए तो वहाँ उनकी मुलाक़ात श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। नेहरूजी ने इस मुलाक़ात के सम्बंध में अपनी AUTOBIOGRAPHY में लिखा है “THERE, I MET THE LION OF THE INDIAN REVOLUTIONARIES, SHYAMJI KRISHAN VERMA.”

ब्रिटिश सरकार ने जैसी कार्यवाही श्यामजी कृष्ण वर्मा के विरुद्ध की थी वैसी ही कार्यवाही उदयपुर के पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स ने कृष्णसिंहजी के विरुद्ध की। कृष्णसिंहजी के खिलाफ कर्नल माइल्स) ने शिकायतें, ए.जी.जी. कर्नल ट्रेवर, माउण्ट आबू से कीं। सन् 1893 में कर्नल ट्रेवर का एक SECRET खरीता उदयपुर के पोलिटिकल एजेन्ट के नाम आया, जिसमें उसने लिखा था कि किशनसिंह चारण के ख़यालात अँगरेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ हैं इसलिए ऐसे शख्स का महाराणा की सेवा में रखा जाना वाजिब नहीं। उसे फ़ौरन महाराणा की सेवा से निकाल दिया जाए। पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स ने देवली कैन्टोन्टमेंट-स्थित, शाहपुरा के पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल थोरन्टन को लिखा कि किशनसिंह चारण, उदयपुर में महाराणा को बहकाता है और वहाँ शाहपुरा में राजाधिराज को बहकाता होगा इसलिए उसे शाहपुरा से भी निकाल दिया जाय। इस प्रकार, कृष्णसिंहजी को उनकी कर्म-भूमि उदयपुर और जन्म-भूमि शाहपुरा, दोनों स्थानों से निकाल दिया गया। यह स्पष्ट रूप से देश निकाला ही था। कृष्णसिंहजी की अन्तरात्मा को इस बात का पूर्वाभास हो गया था कि उन पर एक दिन बहुत बड़ी आफ़त आने वाली है इसलिए उन्होंने जोधपुर के दीवान महाराज कर्नल सर प्रतापसिंहजी से, जो रियासत के सर्वेसर्वा थे, पूछा कि यदि उन्हें महाराणा उदयपुर की सेवा से निकाला जाए तो क्या वे उन्हें जोधपुर में शरण दे देंगे? इस पर कर्नल सर प्रतापसिंहजी ने, जो अँगरेजी सरकार में सबसे अधिक प्रभावशाली भारतीय माने जाते थे, कृष्णसिंहजी को बड़ा सटीक जवाब दिया कि “वे हमेशा क़ाबिल आदमियों की तलाश में रहते हैं और आप बहुत-बहुत क़ाबिल आदमी हैं, सो आप जब चाहें तब जोधपुर आ जावें। मैं खुशी से रख लूँगा!” जोधपुर महाराजा जसवंतसिंहजी तो कृष्णसिंहजी पर पहले से ही इतने प्रसन्न थे कि जब कृष्णसिंहजी ने, जोधपुर महाराजकुमार सरदारसिंहजी की सगाई उदयपुर महाराणा फतहसिंहजी की राजकुमारी के साथ करायी तो कृष्णसिंहजी की योग्यता से प्रसन्न होकर उन्हें पीढ़ियाँ – पर्यन्त पाँवों में स्वर्णाभूषण पहिनने की इज्जत बक्षीस की थी, जो उस समय बहुत बड़ी इज्जत का प्रतीक मानी जाती थी। महाराजा जसवंतसिंहजी, राईका बाग पैलेस के “अठ-पहलू महल” में कृष्णसिंहजी को अपने साथ बैठा कर, चाँदी के थाळों में भोजन किया करते थे और उनसे अपने अन्तर्मन की गुप्त बातें तक करते थे!

श्री कृष्णसिंहजी का कृतित्व महान् था। उनके कृतित्व के दो महत्वपूर्ण – स्थल हैं। प्रथम, सूर्यमल्ल मिश्रण – विरचित ‘वंश-भास्कर’ की “उदधि – मंथिनी टीका, जो पाँच हजार पृष्ठों में है और द्वितीय, “बारहठ कृष्णसिंह का जीवन चरित्र और राजपूताना का अपूर्व इतिहास” जो तीन खण्डों में है पृष्ठ सं. 983 व सम्पादकीय के 34 पृष्ठ हैं।

अपने समय का सच्चा इतिहास लिखने का साहस अभी तक किसी ने नहीं किया था। कृष्णसिंहजी ने अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए जैसा इतिहास लिखा, वैसा अभी तक किसी विद्वान् ने नहीं लिखा और न आगे किसीके द्वारा लिखे जाने की सम्भावना है! उपरोक्त सत्य – इतिहास को लिखने के लिए कृष्णसिंहजी ने यह युक्ति निकाली कि इस इतिहास को उनके मरणोपरान्त प्रकाशित कराया जाय और अपनी “वसीहत” में इसके लिए पाँच हजार रुपये अलग रखे एवं लिखा कि, जब यह इतिहास प्रकाशित होगा तो उनके सम्बंध में किसी का क्रोध करना वृथा होगा, मैं उन क्रोध – कर्ताओं की सीमा से बाहर जा चुका होऊँगा। ऐसा अति – मानवीय, दृढ़ संकल्प करके अपने समय का सत्य इतिहास लिखना, बिरले मनस्वियों का ही काम है !

इस इतिहास का सम्पादन श्री फतहसिंहजी मानव ने 84 से 89 की उम्र में कठोर परिश्रम के बाद संपूर्ण किया। इस अवधि में वे कम्प्यूटर के पास प्रति – दिन नौ – नौ घण्टे तक बैठा करते थे। इस इतिहास का लोकापर्ण पद्मश्री रानी लक्ष्मी कुमारीजी चूंडावत ने मार्च, सन् 2009 में किया। संक्षेप में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि इस इतिहास को राजस्थान के तीन शीर्ष – विद्वानों ने विश्व – स्तरीय WORLD – CLASS DOCUMENT माना है।

प्रबुद्ध पाठकों की सूचनार्थ इस इतिहास के प्रकाशन व प्राप्ति स्थान की जानकारी पुस्तक के अन्तिम पृष्ठ पर अलग से दी गई है।

पाठकगण क्षमा करें कि प्रस्तावना कुछ लम्बी हो रही है, जिसका कारण यह है कि श्री कृष्णसिंहजी, इतनी उच्च – कोटि के विद्वान् थे कि उनके कृतित्व पर सम्यक् प्रकाश डालना बहुत आवश्यक है। जब, मूल विषय “चारण – कुल- प्रकाश” पर दृष्टि डालते हैं तो यह लिखने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज से 110 वर्ष पूर्व, जैसी विशद् जानकारी चारण जाति के इतिहास के सम्बंध में कृष्णसिंहजी को थी, वैसी किसी अन्य विद्वान् को शायद ही हो! एक सौ बीस उप – जातियों – वाली, चारण जाति के इतिहास को कृष्णसिंहजी ने आदि-कवि वाल्मीकि विरचित “वाल्मीकि रामायण”, “श्रीमद् भागवत्” और “महाभारत” जैसे आर्ष – ग्रंथों के आधार पर लिखा है। इन आर्ष – ग्रन्थों में स्थान – स्थान पर, चारणों को देव-जाति यानी “सिद्ध एवं चारणों” को एक साथ माना गया। चारण जाति का मुख्य पेशा “चारयंति कीर्तिम् इति चारणाः” रहा है। यानी जो सत्य कीर्ति, यश का वर्णन करे। चारण जाति सदा क्षात्रियों के साथ रही है। चारणों का खान – पान, रीति – रिवाज़ आदि सब क्षत्रियों के समान रहा है। “वाल्मीकि- रामायण” में उल्लेख है कि जब वीर हनुमान लंका दहन करके समुद्र के इस पार लौटे तो उन्हें इस बात की बड़ी चिन्ता हुई कि कहीं लंका दहन के साथ माता जानकी का “अशोक वाटिका” में दहन तो नहीं हो गया? इस पर आकाश – गामी चारण ऋषियों ने हनुमान को आश्वस्त किया कि “जानकी न दग्धेति” यानी जानकी नहीं जलीं, वे सुरक्षित हैं। तब हनुमान को शांति मिली।

चारणों की एक सौ बीस (बीसा-सौ) उप-जातियाँ एवं उनके याचकों – रावल, मोतीसर, गोइन्दपोता आदि के बारे में आज के विद्वानों की कितनी जानकारी है – सो वर्तमान के एक जाने – माने विद्वान् से जब पूछा गया तो उन्होंने सूक्ष्म में जवाब दिया, “बहुत थोड़ा” । कृष्णसिंहजी को उनके मूल – पुरुष बारूजी से लेकर सोलह पीढ़ी तक के पूर्वजों के नाम स्मरण थे, जब कि आज के पढ़े – लिखे नौजवानों से पूछें तो उन्हें दादा के आगे, तीसरी पीढ़ी के पूर्वज का नाम बताने में भी कठिनाई महसूस होती है ! इसका सीधा मतलब यह है कि आज – कल के शिक्षित युवकों में अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की, मन में कोई अभिरुचि ही नहीं है। सही दृष्टि से देखा जाय तो वास्तव में यह वृत्ति बड़ी घातक है।

चारणों का सब व्यवहार क्षत्रियों के समान है। जब क्षत्रिय राजाओं या सामन्तों में ‘“बिखा” पड़ता यानी घोर विपत्ति, विषम-स्थिति आती तो चारण, उन्हें अपने यहाँ सपरिवार बड़ी सुरक्षा एवं सम्मान के साथ रखते और पुन: राज्य दिलाने में भी मदद करते थे. जिसका प्रतीक यह प्राचीन दोहा प्रसिद्ध है:-

चूँडा ! ना’ वे चींत, काचर काळाऊ तणाँ।
भूप थयौ भैभीत, मंडोवर रा माळियाँ ॥
भावार्थ:- “हे चूण्डा ! तुम्हें काळाऊ गाँव में वे काचरे खाने वाली बातें याद नहीं हैं! आज, मंडोर के राज – महलों में रहते हुए तुम उन बातों को भूल गए!

चारण जाति और क्षत्रियों में अविभाज्य रिश्ता है। एक बार संयोगवशात् तीर्थराज पुष्कर में जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह और जोधपुर के महाराजा अभयसिंह शामिल हुए तो दोनों नरेशों ने ग्राम, आलावास, (तहसील सोजत, जिला पाली) के कविराजा करनीदान कविया से पूछा “कविराजजी ! यह बताइये कि हम दोनों में से कौन बड़ा है?” इस पर कविराजा ने निवेदन किया कि आप मुझसे सत्य – बात क्यों कहलवाना चाहते हैं? इस पर दोनों रईसों ने पुनः आग्रह किया, कि नहीं आप जैसी है वैसी, सच्ची – सच्ची बात, बेहिचक होकर कहिये। इस पर कविराजा करनीदानजी ने यह प्रसिद्ध दोहा कहा :-

पत जैपर जोधाण – पत, दोनूँ ही थाप – उथाप।
कूरम मा डीकरो, कमधज मार्यो बाप॥
भावार्थ:- आप जयपुर और जोधपुर के स्वामी, दोनों अपने – अपने व्यवहार में बिल्कुल एक समान हैं यानी जयपुर के स्वामी महाराजा सवाई जयसिंहजी ने तो अपने बड़े पुत्र को मारा और जोधपुर के स्वामी महाराजा अभयसिंह ने अपने पिता महाराजा अजीतसिंह को मारा। (वास्तव में यह पितृ-घात, अभयसिंह के छोटे भ्राता, नागोर के स्वामी महाराज बख्तसिंह ने बादशाह औरंगजेब के कहने से की थी। दोनों ही नरेश अपने – अपने कुकृत्यों की स्पष्ट बात सुनकर स्तब्ध रह गये ! सत्य की वाणी शाश्वत् होती है! यही चारण जाति की विशेषता है।

चारणों की वंश-परम्परा के अनुसार उनका कर्त्तव्य ही यह था कि जो क्षत्रिय अपने स्वाभाविक कर्त्तव्य को भूल जाते, उन्हें अपनी काव्य – मय प्रखर वाणी से कशाघात (चाबुक) लगाते यानी निन्दा करते और वीरता के कामों पर उनका यश करके उन्हें अमर कर देते थे। सुयोग्य राजपूत नरेशों ने भी चारणों की प्रशंसा में, कविता की है। रतलाम के राठौड़ नरेश बलवंतसिंहजी ने कहा :-

“जोगो किंण हि न जोग, सह जोगो कीधो सुकव।
लूँठा चारण लोग, तारण क्षत्रियाँ तणाँ॥”
भावार्थ:- मैं तो किसी योग्य नहीं था लेकिन ऐसे लूटे (बड़े) चारण कवियों ने मुझे सब तरह से योग्य बना दिया। वास्तव में क्षत्रियों को तारने वाले, चारण लोग ही हैं।

उदयपुर के महाराणा राजसिंहजी ने “राज-समंद” जैसे विशाल सरोवर का निर्माण करवा कर उसकी प्रशस्ति में जो छप्पय लिखा, वह निम्न प्रकार है:-

कहाँ राम कहाँ लखण नाम रहिया रामायण,
कहाँ कृष्ण बलदेव, प्रगट भागोत पुरायण।
वाल्मीक सुक व्यास जे, कथा कविता न करता,
कुंण स्वरूप सेवता, ध्यान मन कँवण धरता॥
“राजसी” कहे जग रांण रौ, सुणों सजीवन अक्खरां।
जग अमर नाम चाहो जिका, पूजो पाँव कवेशरां॥

महाराणा राजसिंह ने राजसमंद की पाळ पर संगमर्मर के पत्थर पर उपरोक्त ‘छप्पय’ उत्कीर्ण करवाया था ।

चारणों की जैसी पहचान जोधपुर के काव्य – प्रेमी और विद्वान् महाराजा मानसिंहजी ने की, वह अपने आप में अद्वितीय है। यहाँ पर, महाराजा मानसिंहजी ने जिन शब्दों में चारणों की अभ्यर्थना की, वह दोहा नीचे लिखा जाता है :-

“चारण भाई क्षत्रियाँ, ज्याँ घर खाग तियाग।
खाग तियागा बाहिरा, वां सूँ लाग न बाग॥”
भावार्थ:- वे क्षत्रिय, चारणों के लिए भाई के समान हैं, जिनके घरों में खाग यानी वीरता और त्याग दोनों हैं। लेकिन जिन क्षत्रियों के यहाँ खाग यानी वीरता और त्याग दोनों ही नहीं है, उनके साथ चारणों का कोई लेना – देना नहीं।

महाराजा मानसिंहजी पर जैसी विपत्ति पड़ी, वैसी शायद ही किसी अन्य नरेश पर पड़ी हो ! जोधपुर महाराजा भीमसिंहजी, उनके प्राणों के प्यासे थे और उन्हें मार देना चाहते थे। इस पर, महाराजा मानसिंहजी भाग कर जालोर के अजेय किले में चले गये। वे नाथ सम्प्रदाय को मानने वाले थे, जिनके आदि – गुरु जलंधरनाथजी थे। उनके आशीर्वाद से ही मानसिंहजी को कालान्तर में जोधपुर का राज्य पुनः प्राप्त हुआ था। जालोर के घेरे (सम्वत् 1860, तदनुसार सन् 1803) में महाराजा मानसिंहजी के साथ सत्रह चारण निरन्तर रहे और महाराजा को उस घोर विपत्ति – काल को धैर्य के साथ बिताने के लिए प्रेरणा देते रहे एवं आर्थिक मदद भी दी। महाराजा मानसिंहजी ने इसीलिए चारण जाति को बहुत नज़दीक से परखा था एवं उनके घरों के आचार – व्यवहार की भी परीक्षा की थी, जिसके सम्बंध में यह प्रसिद्ध गीत कहा :-

गीत
आछा गुण कहण बाँण – पण आछी, मोटम- बुध में नको मणाँ।
राजाँ सुजस चहूँ जुग राखे, ताकव दीपक सभा तणाँ॥1॥
भोपाळ बाताँ हद भावै, सबद सुणावै घणाँ सकाज।
डील – दराज़ दीसता डारण, राजा बिच सोहै कवराज॥2॥
राजी सर्व सभा ने राखै, सहज सभावां घणाँ सिरै धजवड़ बहता।
मारका धूताँ, किव रजपुताँ अमर करै॥3
आखै “मान” सुणों अधपतियाँ, क्षत्रियाँ कोई न कीजों,
खीज वरदायक मद – बहता वारण, चारण बड़ी अमोलक चीज॥4॥
भावार्थ:- सद्गुणों की प्रशंसा करने वाले, जिनकी काव्य पढ़ने की शक्ति अद्भुत हैं, वे राजन्य – वर्ग का यश चारों दिशाओं में फैलाते हैं, ऐसे चारण कवि, सभा में दीपक के समान हैं। उनकी तर्कपूर्ण बातें, राजाओं को बहुत अच्छी लगती हैं। क्योंकि वे सदा सत्य – वाणी बोल कर प्रोत्साहन दिलाते हैं। चारण लोग शरीर से बड़े हृष्ट-पुष्ठ होते हैं और ये कविराजा, राजाओं की सभा में बड़े शोभायमान होते हैं। ध्वजा – धारी और ऐसे वीर कवि, राजपूतों को अपनी वाणी से अमर कर देते हैं। महाराजा ‘“मानसिंह” कहता है, है राजन्यगण! आप मेरे कहने पर क्रोध न करें। इस वरदान को देने – वाले चारण, समाज संरचना में बड़ी अमोलक थाती हैं।

वीर दुर्गादास राठौड़ ने अपने एक गीत में कहा है कि हम क्षत्रियों में वीरता का उद्रेक, संस्कृत के श्लोकों से नहीं, अपितु चारणों की डिंगल-भाषा के छंदों द्वारा ही होता हैं।

एक बार जोधपुर महाराजा मानसिंहजी के समय में वर्षा ऋतु समीपवर्ती “कायलाणां” झील पर गोठ का आयोजन किया गया, जिसमें महाराजा साहिब के भाई- बेटे, सपरिवार निमंत्रित किए गए थे और बाकी बड़े – बड़े सामंत एवं कविराजजी भी थे। महाराणी साहिबा के रथ के ठीक पीछे घोड़े पर बैठे हुए कविराजा बांकीदासजी चल रहे थे। अनायास, महाराणी साहिबा के हाथ की अँगुलियाँ, रथ के पर्दे के बाहर दिख गयीं। कविराजजी ने आव देखा न ताव, घोड़ा हाँकने के चाबुक को महाराणी साहिबा की अँगुलियों पर दे मारा। महाराणी साहिबा को गुस्सा आना स्वाभाविक था कि मारवाड़ में ऐसा कौन शख्स है, जो मारवाड़ की स्वामिनी की अँगुलियों पर चाबुक लगाने का दुस्साहस करे? उन्होंने किले पर पहुँचते ही महारानी साहिबा ने इस सारी घटना को महाराजा साहिब से शिकायत करके महाराजा साहिब से अर्ज करते हुए का कि हुजूर! आप कविराजा बाँकीदासजी को अपनी सेवा से निकाल दें। इस पर महाराजा साहिब ने महाराणी साहिबा को सांत्वना देते हुए समझाया कि महाराणीजी! आप थोड़ी शांति रखें एवं फिर कहा कि मैं आप जैसी नौ महाराणियाँ तो एक दिन में ला सकता हूँ लेकिन मारवाड़ में बाँकीदास, जैसा कोई दूसरा एक भी आदमी नहीं है, उसे देश निकाला कैसे दूं? आप शाँति रखें। आज से दो शताब्दी पूर्व, ऐसी राज – व्यवस्था थी, जोधपुर के राज्य में!

सन् 1805 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के जनरल लेक ने भरतपुर पर तोपों और बन्दूकों से हमला किया। राजपूताना में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का यह प्रथम सशस्त्र- आक्रमण था । भरतपुर का किला अजेय था, जो मुग़ल बादशाहों द्वारा भी जीता नहीं जा सका था। लेकिन अँगरेजों ने “आडा – टीला – वाले” (तिरछे-तिलक लगाने – वाले) महंत को रिश्वत देकर किले के सब भेद जान लिए, जिसके बाद अँगरेजों ने भरतपुर के अजेय किले को जीत लिया। कविराजा बाँकीदास ने भरतपुर के राजा की वीरता की भूरि – भूरि प्रशंसा करते हुए, एक भविष्य – द्रष्टा की तरह निम्नलिखित “गीत” कहा :-

आयो इंगरेज मुलक रै ऊपर, आहँस लीधा खेंचि उरा।
धणियाँ मरै न दीधी धरती, धणियाँ ऊभाँ गई धरा॥१॥
फौजाँ देख न कीधी फौजाँ, दोयण किया न खळा-डळा।
खवाँ – खाँच चूड़ै खावंद रै, उणहिज चूड़ै गई इळा॥२॥
छत्रपतियाँ लागी नह छाँणत, गढ़पतियाँ धर परी गुमी।
बळ नह कियो बापड़ा बोता, जोताँ-जोताँ गई ज़मी॥३॥
दुय चत्रमास बाजियो दिखणी, भोम गई सो लिखत भवेस।
पूगौ नहीं चाकरी पकड़ी, दीधौ नहीं मरैठाँ देस॥४॥
बजियो भलो भरतपुर वाळो, गाजै गजर धजर नभ गोम।
पहिलाँ सिर साहब रो पड़ियो, भड़ ऊभाँ नह दीधी भोम॥५॥
महिं जाताँ चींताताँ महलाँ, औ दुय मरणा तणाँ अवसाँण।
राखो रै किहिंक रजपूती, मरद हिन्दू की मुसलमान॥६॥
पुर जोधाण, उदैपुर, जैपुर, पह थाँरा खूटा परमाण।
आंकै’ गई आवसी आंकै, “बांके” आसल’ किया बखाँण॥७॥
भावार्थ:- अँगरेज नामक शैतान हमारे देश पर चढ़ आया है। देश रूपी शरीर की सारी चेतना को उसने अपने खूनी अधरों से सोख लिया है। इसके पहिले धरती के स्वामियों ने मर कर भी धरती को दुश्मन के हवाले नहीं किया था और आज यह स्थिति आ गई है कि धरती के स्वामी ज़िन्दा हैं और धरती उनके हाथ से चली गई। दुश्मन की फ़ौजों को सामने देख कर भी उन्होंने अपनी फ़ौजों को तैयार नहीं किया। दुश्मन बड़े मजे से उनका विनाश करते रहे लेकिन वे दुश्मन का नाश नहीं कर सके। अक्षत चुड़ले का सुहाग धारण किए, पति की मौजूदगी में ही पृथ्वी, सुहाग समस्त प्रतिमानों सहित, दूसरों के अधिकार में चली गई।

धरती के छिन जाने से न तो छत्रपतियों ने लज्जा का अनुभव किया न गढ़पतियों ने ही इसे अपनी अपकीर्ति समझा। प्राणों की कुशलता में ही उन्होंने सब कुछ भर पाया। बेचारे अभ्यागतों ने अवरोध तक प्रकट नहीं किया। वे देखते रहे और ज़मीन उनके हाथ से जाती रही। दक्षिण देश – वाले मरहठों ने आठ महीनों तक डट कर अँगरेजों का मुकाबिला किया। लेकिन इस पर भी वे अपने देश को नहीं बचा सके, यह उनके वश के परे की बात थी। मजबूर हो कर उसने दूसरी जगह चाकरी मंजूर करली परन्तु अपने जिन्दा हाथ से धरती को अँगरेजों के हवाले नहीं किया।

भरतपुर – वालों ने खूब सामना किया। शरीर छोड़ दिया पर जीते जी किले को नहीं छोड़ा। तोपों का जवाब तोपों से देने वालों की कीर्ति, आज दिन तक भी नभ में सर्वत्र गर्जन – तर्जन का रूप धारण किए हुए है। तोप के मुँह से निकली हुई आग आज भी उनकी प्रतिष्ठा को प्रज्वलित कर रही है। सबसे पहिले फ़िरंगी साहब का सिर जमीन पर गिरा और उन वीरों के पाँव तब तक ज़मीन पर टिके रहे, जब तक अपनी ज़मीन पर से दुश्मन का अधिकार नहीं हटा। इस तरह मरने के सुअवसर मनुष्य को ज़िन्दगी में केवल दो ही बार मिलते हैं, एक तो, उस वक्त ज़िन्दा रहना व्यर्थ हो जाता हैं जब देश की धरती को कोई विदेशी हथियाना चाहता हो। दूसरे, उस वक्त, मरना जरूरी हो जाता है जब कि दुःख में पड़ी हुई किसी अबला की करुण चीत्कार सुनाई दे ! देश और जननी की रक्षा करना किसी जाति – विशेष की बपौती नहीं है। आज देश पर भयंकर आपत्ति छाई हुई है। अरे, तुम मनुष्य हो ! कुछ तो वीरता दिखलाओ ! देश की आजादी के लिए क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, सब बराबर हैं!

जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के स्वामियो ! तुम्हारा सब गौरव और शौर्य मानो ख़त्म हो गया है !” बाँकीदास” आशिया कहता है कि किसी मनहूस घड़ी में भारत वासियों की राज – सत्ता विदेशियों हस्तगत हुई थी लेकिन फिर जब कोई मंगल – मयी ऐसी ही शुभ घड़ी आयेगी तो गयी हुई राज – सत्ता उन्हें पुनः मिल जायेगी।

कविराजा बांकीदासजी, एक क्राँतिद्रष्टा एवं सिद्ध-हस्त कवि थे। उनकी उपरोक्त भविष्यवाणी को सत्य होने में पूरे 142 वर्ष लगे, जब भारतवर्ष, अंततः 15 अगस्त, सन् 1947 को ब्रिटिश सत्ता की पराधीनता पूर्ण स्वतंत्र हुआ।

महाराजा मानसिंहजी, जोधपुर ने अपनी पारदर्शी दृष्टि से चारण जाति की प्रशंसा में जितना कहा, अन्य और किसी नरेश ने नहीं कहा। इस सम्बंध में निम्न दोहा प्रसिद्ध है:-

अकल विद्या चित ऊजळा, अधिका घर आचार।
बधता रजपूतों बिचै, चारण बाताँ चार॥1॥
भावार्थ:- चारण जाति, राजपूतों से इन चार बातों में बढ़कर हैं:- यानी बुद्धि, विद्या, उज्वल-चित्त और शुद्ध आचरण।

महाराजा मानसिंहजी, जैसा वदान्य और उदार नरेश राजस्थान में तो क्या, भारतवर्ष में भी नहीं हुआ ! उन्होंने चारणों को साठ ग्राम बक्षीस किये थे।

रतलाम नरेश महाराजा बलवंतसिंहजी राठौड़ के गुरु, स्वामी स्वरूपदासजी दादूपंथी संत थे, जो पूर्वाश्रम में देथा-गोत्र के चारण थे। उन्होंने ‘पाण्डव – यशेन्दु – चंद्रिका” नामक एक वीर रस का ग्रन्थ लिखा, जो महाभारत का सूक्ष्म स्वरूप है और छन्द बहुत ही उच्च कोटि के हैं। जब महाराजा बलवंतसिंहजी का अंतिम समय आया तो उन्होंने अपने सद्गुरु को इन मार्मिक शब्दों के साथ स्मरण किया:- “सेवक री सतराम, अंदाता छेड़ली अबै।” यानी मेरे अन्नदाता सद्गुरु स्वरूपदासजी को मेरा यह अंतिम – वंदन मालूम हो ! इस शूक्ष्म सम्बोधन मात्र से ज्ञात होता है कि राजपूत नरेश, किस श्रद्धा की दृष्टि से चारणों को देखते थे! महात्मा स्वरूपदासजी, महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण के गुरु थे। बीसवीं सदी के इटली के प्रसिद्ध विद्वान् और भारतविद्, टेस्सिटोरी ने लिखा है “THE CHARANS – ARE FRIENDS, PHILOSPHER AND GUIDE TO THE RAJPUTS” यानी चारण जाति, राजपूतों के मित्र, दार्शनिक और पथ – प्रदर्शक है।

गत शताब्दी में मेवाड़ में बाठरड़ा ग्राम के ठाकुर सिसोदिया राजर्षि गुमानसिंहजी, एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक – पुरुष हुए हैं, उन्होंने चारणों के सम्बंध में एक मार्मिक “मनोहरम्” छंद कहा, जो इस प्रकार है:-

नीति मग चालै ताहि, कुम्भथल हथ्थल दे,
बप्प-बप्प! बोलि कहि, मन को बढ़ातो को?
कुमति कुदान भरै, आलस जंजीर जरै,
थांन सु आलान छोरि, जंगम पै जातो को?
रम्य-काव्य तोदन ले, घेरि गम्य- चत्वर में,
हेरि हेरि मर्म-बोल, तोमर लगातो को?
चारण सुहस्तिप न, होते तो “गुमान” कहै,
स्वामी-कुल कुम्भी हमें, रोकि राह लातो को?
भावार्थ:- चारण जाति हमेशा से नीति की राह पर चलने वाली रही है। उनके सिवाय, क्षत्रिय – रूपी मद – मस्त हाथी के मस्तक पर बैठ कर महावत के समान अंकुश लगा कर बापो !-बापो ! बोल कर, अन्य कौन क्षत्रियों के उत्साह को बढ़ाता? दुर्बुद्धि और आलस्य की जंजीरों से जकड़े हुए, उन क्षत्रियों को अपने स्थान से मोड़ कर संग्राम – भूमि में कौन लाता? अपनी उत्साह – वर्द्धिनी वाणी से जोश दिला कर अन्य कौन हाथी के अंकुश लगाता? “गुमानसिंह” कहता है कि यदि चारणों, जैसे सुयोग्य पुरुष, महावत नहीं होते तो इस क्षत्रिय जाति-रूपी मस्त हाथी को पुनः अपने रास्ते पर कौन लाता ?

इस सम्बंध में मेरे पितामह, क्रांतिकारी ठाकुर केसरीसिंहजी बारहठ, कोटा, का एक छंद दृष्टव्य है :-

॥मनोहरम्॥
‘चारण वही है, जो स्वतंत्रता-उपासक हो,
वाणी का वरद-पुत्र, जाने सत्य-तत्त्व को।
अभय अडोल, अवलम्ब निज शक्ति पर,
क्षत्रिन को पाठ देत, व्यापक ममत्व को।
साहस की ज्वाला फूँ कि, मुर्दे जगाय देत,
नाशवान् देह दै, खरीदें अमरत्व को।
वीर रस निर्झर, बहाय बिथराय स्वयं,
न्हाय के दिखाय देत, मरन महत्व को॥”

वर्तमान समय में भी प्रबुद्ध – क्षत्रियों का सोच, चारण जाति के प्रति बड़ा सकारात्मक रहा है।
उदाहरणार्थ, राजर्षि उम्मेदसिंहजी राठौड़, ग्राम धवली, तहसील गुलाबपुरा, जिला भीलवाड़ा, की मान्यता है कि जिन क्षत्रियों के ठिकानों का सम्बंध चारण – सरदारों के साथ रहा, वे आज भी पूर्व – वत् अक्षुण्ण बने हुए हैं लेकिन जिनका सम्बंध चारण – सरदारों से टूट गया, वे ठिकाने छिन्न – भिन्न हो गए। इस सम्बंध में क्षात्र धर्म के जाज्वल्यमान नक्षत्र एवं मरुधरा के रत्न, सम्माननीय श्री जसवंतसिंहजी जसोल, एम.पी., जिन्होंने पूर्व में राष्ट्र के संचालन में तीन अति – महत्वपूर्ण मंत्रालयों, यानी रक्षा, विदेश एवं वित्त के सफल मंत्री रहकर देश का गौरव बढाया एवं भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, महात्मा ईशरदासजी (ईशरा परमेसरा) प्रणीत पुस्तक “गुण – निन्दा – स्तुति” (डिंगल साहित्य शोध संस्थान, 138 सुन्दर नगर, नई दिल्ली-110003 मूल्य 101/-) के सम्पादकीय पृष्ठ सं. 8व 9 पर क्षत्रियों के साथ चारणों के शाश्वत् सम्बंधों की दिशा में बहुत यथार्थ लिखा है कि ‘चारण, सदैव ही हमारी असीम श्रद्धा के पात्र रहे हैं। घरों में साथ रहने का उन्हें अधिकार था और प्रश्न कर खरी – खरी सुनाने का या खरे खरे शब्दों में मार्ग दिखाने का, यह उन्हें जन्म – जात अधिकार रहा। प्रज्ञाचक्षु विजयदानजी (ग्राम सरवड़ी, तहसील सिवाना, जिला बाड़मेर) हमारे साथ रहते थे, उन्होंने भी कितना कुछ दिया मुझे ! उन्होंने ही कहा था” कभी भूलना मत, स्वयं आदर नहीं करोगे तो दूसरा क्यों सम्मान दें?” उन्होंने ही चेताया, अपने संस्कारों के प्रति होश जगते रहने का, इसीलिए आस्था का, श्रद्धा का ऐसा भाव, यह सहज लगाव, आदर, चारण जाति और समाज से मुझे बचपन से रहा। क्या दुनिया में कोई ऐसा समाज है, जिसके पास सरस्वती की इतनी बड़ी देन हो कि वह पीढ़ी – दर – पीढ़ी, एक के बाद एक, विलक्षण कवि और ज्ञानी, समाज को देता रहे! दुनिया में एक ही समाज में ऐसा, जिसमें भगवान् की कृपा से इतने गुण मिलें! यह तो एक दैवी – सम्पदा है, मानवीय नहीं। वह केवल चारण समाज ही है!”

उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ सं. XV व XVI में आगे इसी सम्बंध में सम्पादक मंडल ने लिखा है, विगत शताब्दियों में एक हजार वर्ष के लम्बे समय तक डिंगल साहित्य और राजस्थान के स्वर्णिम इतिहास को चारणों की ओजस्विनी वाणी ने बहुमूल्य और बेजोड़ गौरव प्रदान किया है।

“वे योद्धा के साथ शत्रुओं पर शस्त्राघात करते, संधि-समझौते में गम्भीर व सही मंत्रणा देते, राज – दरबार में काव्य-पाठ करते, आखेट में सही निशाना लगाते। यह सब राजस्थान की गौरव गाथाओं में मिलता है। उनकी वाणी, कायरों के लिए सदा विष और वीरों के लिए अमृत रही है। “कम्पेहियो कायरों, मन शूर उमंगी।” वे विवादों को सुलझाते और समझौते का पालन कराते रहे हैं। जो भटके हैं, उनके लिए चारणों के बोल, कर्त्तव्य – बोध के मंत्र रहे और अस्वस्थ मन-वालों के लिए धनवन्तरि की औषधि के समान, कायरों को चेताना, चेते हुओं को लड़ाना और लड़ते हुओं को झुंझाना, उनके द्वारा रचित डिंगल साहित्य व उनकी प्रेरणास्पद-वाणी का कौशल रहा है। उस वाणी में शक्ति बिराजती, उनके गीत, गीता के श्लोकों के समान रहे। महाभारत में भगवान् श्रीकृष्ण को क्षात्र धर्म से विमुख हुए अर्जुन को कर्त्तव्य-बोध करवाने के लिए अठारह अध्यायों का उपदेश देना पड़ा परन्तु चारणों ने केवल अपने एक “गीत” के चार चरणों के बल पर ही अनेक अर्जुनों को उनके निज व राज-धर्म का कर्तव्य पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनके गीतों ने वीरों को अपने शरीर के प्रति निर्लिप्त, कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा और स्वर्ग की प्रबल आकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रेरित किया है। ऐसे चारण समाज का इतिहास बेजोड़ है।”

प्रकृति ने केवल चारण जाति को ही ऐसी विलक्षण बुद्धि दी है और उनकी वाणी में अद्भुत शक्ति प्रदान की है। इस पृष्ट भूमि में ग्रंथ – कर्ता कृष्णसिंहजी के – ज्येष्ठ पुत्र केसरीसिंहजी का राजस्थान की एक महत्वपूर्ण घटना से सीधा सम्बंध है। वह इस प्रकार है:-

महर्षि दयानंद सरस्वती के शिष्य, जोबनेर ठाकुर कर्णसिंहजी की हवेली, जयपुर में मलसीसर के विद्वान् ठाकुर भूरसिंहजी शेखावत, ठाकुर हरिसिंहजी लाडखानी, खरवा राव राष्ट्रवर गोपालसिंहजी, खण्डेला ठाकुर एवं कोटा के ठाकुर केसरीसिंहजी बारहठ, किसी गम्भीर-मंत्रणा में व्यस्त हैं। विषय है, सन् 1903 की प्रथम जनवरी, जब भारत के महत्वाकाँक्षी और साम्राज्यवादी वाइसरॉय लॉर्ड कर्जन द्वारा आहूत “दिल्ली-दरबार”, जो ब्रिटिश सम्राट एड्वर्ड सप्तम् के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में आयोजित हो रहा है। उस समय, देश की राजधानी कलकत्ता थी लेकिन मुगल काल में भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली थी और इसके पूर्व, प्राचीन समय में हस्तिनापुर राजधानी थी, जो दिल्ली का ही पूर्व- नाम था। देश वासियों की मान्यता में यह बात गहरी पैठी हुई है कि जिस शक्ति का शासन और आधिपत्य दिल्ली के तख्त पर है, वही सही मायने में देश का शासक और अधिपति है। वायसरॉय लॉर्ड कर्जन के जहन में भी यह बात जंच गयी थी कि दिल्ली में बरतानिया के प्रभुत्व एवं शक्ति के प्रदर्शन करने पर ही भारतवासियों की आँखें चुंधिया जायेंगी, उनका हौसला पस्त हो जायेगा और वे हमेशा-हमेशा के लिए अंगरेजों की दासता स्वीकार करने के लिए विवश हो जायेंगे! बीसवीं शदी के प्रारम्भ में ग्रेट ब्रिटेन ही एक मात्र विश्व- शक्ति थी, जिसके साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था!

इस दरबार में शामिल होने के लिए लॉर्ड कर्जन ने देश के सभी राजा – महाराजाओं, नवाबों, जमींदारों, बड़े उद्योगपतियों एवं शिक्षा के क्षेत्र में शीर्ष पुरुषों को निमंत्रित किया। आमंत्रित सभी पुरुषों को “दिल्ली दरबार” का निमंत्रण प्राप्त करने में बड़ी खुशी हो रही थी लेकिन आर्य – कुल-कमल-दिवाकर, हिन्दुआ- सूर्य, महाराणा उदयपुर ही भारतवर्ष में एक मात्र ऐसी हस्ती थी, जिनके शक्तिशाली पुरखों ने मुगल बादशाहों की अपार सैन्य शक्ति के सन्मुख सफलता पूर्वक पीढ़ियों तक लोहा लिया लेकिन कभी भी दिल्ली के तख़्त के सामने अपना सिर नहीं झुकाया एवं समस्त हिन्दू – जाति के मस्तक को गौरव के साथ सदा ऊंचा रखा। इस समय, हिन्दुआ – सूर्य – महाराणा फतहसिंहजी थे, जिनकी नस-नस में महाराणा प्रताप एवं महाराणा राजसिंह का अनम्र-रक्त प्रवाहित हो रहा था, जिन्होंने कभी किसी विजातीय सम्राट के सामने झुकना नहीं रखा था। लेकिन इस बार, लॉर्ड कर्जन के दरबार में सम्मिलित होने की देश में महाराणा फतहसिंहजी को ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि, लॉर्ड कर्जन सम्मुख झुकना अनिवार्य हो जायगा। यदि महाराणा फतहसिंहजी के सामने झुकते हैं तो यह उनकी महान वंश-परम्परा पर कलंक एकटी लगने जैसा होगी और इसके साथ ही समग्र हिन्दू – जाति के स्वाभिमान की भी मानों इतिश्री हो जायगी। अस्तु, महाराणा फतहसिंजी को दिल्ली – दरबार में सम्मिलित होने से रोकने के लिए ही राजस्थान के उपरोक्त चंद सपूत, जयपुर में जोबनेर की हवेली में बैठे हुए गम्भीर मंत्रणा कर रहे थे कि इस विषम-समस्या को कैसे हल किया जाय? वास्तव में सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि निरंकुश राजा – महाराजाओं को प्रजा – जन कैसे रोकें? प्रजा के पास इसके लिए ऐसी कोई शक्ति नहीं थी। उपरोक्त मंत्रणा में अन्ततः यही निश्चय ठहरा कि ब्रिटिश सत्ता के सैन्य – बल से लोहा लेने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती, पीछे रही केवल कलम की ताक़त, सो एक पुरानी कहावत है- “जहाँ करवाल (तलवार) काम न आये, वहाँ कलम सम्भालो।” अतः मलसीसर ठाकुर भूरसिंहजी, ठाकुर कर्णसिंहजी, हरिसिंहजी लाडख़ानी और खरवा राव साहिब गोपालसिंहजी ने एकमत होकर, केसरीसिंहजी बारहठ से कहा कि आप लोगों की वाणी और कलम में ही ऐसी दिव्य – शक्ति है, जो असम्भव को भी सम्भव बना सके और पूर्व में भी आपके पूर्वजों ने कई बार ऐसे असम्भव काम कर दिखाये हैं! इस पर, केसरीसिंहजी ने कहा कि वे अपना कर्त्तव्य पालन तो कर लेंगे परन्तु उनकी कलम से निःसृत उद्बोधन को महाराणा साहिब तक पहुँचायेगा कौन? इस पर मेम्बर्स ने यह दायित्व अपने सिर पर लिया।

महाराणा साहिब फतहसिंहजी की स्पेशल ट्रेन उदयपुर से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर चुकी थी। बड़े-बड़े स्टेशनों पर जनता, अपने स्वामी का हार्दिक स्वागत कर रही थी। सरेरी के छोटे-से स्टेशन पर केसरीसिंहजी बारहठ द्वारा डिंगल (राजस्थानी ) भाषा में लिखित तेरह सोरठे, “चेतावनी के चूंगट्ये” के नाम से, जो अब इतिहास – प्रसिद्ध हैं, महाराणा साहिब को नज़र किये गये और दीवान बलवंतसिंह कोठारी ने उन्हें पढ़ कर महाराणा साहिब को सुनाया ! इन सोरठों को सुनते ही महाराणा साहिब जोश में आकर एकाएक उठ खड़े हुए और दीवान को हुक्म दिया कि स्पेशल ट्रेन को वापिस उदयपुर लौटाओ! परम-गम्भीर महाराणा ने कहा, “यदि ये सोरठे, हमें उदयपुर में मिल जाते तो हम रवाना ही नहीं होते! खैर, अब आगे होगा सो देखा जायेगा।” शेष तो इतिहास का हिस्सा है।

अन्ततः, महाराणा फतहसिंहजी, वायसरॉय लार्ड कर्जन के उस “दिल्ली – दरबार” में शामिल नहीं हुए! इस खुशी में कलकत्ता के प्रथम हिन्दी दैनिक समाचार – पत्र के सम्पादक पं. झाबरमल्ल शर्मा ने लिखा, “ख़ास कुर्सी तो खाली ही थी!” जयपुर के प्रसिद्ध विद्वान् पं. हरिनारायणजी पुरोहित ने इस दरबार के शानदार आयोजन के सम्बंध में अपनी दैनिक डायरी में लिखा “BEST IN THE EAST” यानी अभी तक भारतीय उप – महाद्वीप में ऐसे भव्य शाही – दरबार का आयोजन नहीं हुआ। सीतामऊ के राजकुमार, प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रघुवीरसिंहजी ने लिखा, “जिस समय महाराणा फतहसिंहजी को लेकर स्पेशल- ट्रेन दिल्ली से उदयपुर की ओर गर्व से सरपट दौड़ रही थी, उसीके साथ ही राजस्थान में नव-युग का सूत्रपात हुआ!”

मेरे पितामह, ठाकुर केसरीसिंहजी बारहठ द्वारा लिखे गये, उन तेरह सोरठों में से चार सोरठे नीचे उद्धृत किए जारहे हैं:-

सौराष्ट्री (सोरठे), दोहे [सिंधु राग में]
पग-पग भम्या पहाड़, धरा छाँडि राख्यो धरम।
(ईंशू) महाराणा र मेवाड़, हिरदै बसिया हिन्द रै॥
भावार्थ:- जंगलों और बीहड़ों में दर-बदर होकर, पैदल भटकते फिरे और राज्य का मोह छोड़ कर, धर्म की रक्षा की इसीलिए “महाराणा” और ‘मेवाड़”, ये दोनों शब्द सदा-सदा के लिए भारत-वासियों के हृदय में बस गये।

औरां आसान, हाकाँ हरवळ हालणों।
(पण) किम हालै कुळ रांण, (जिंण) हरवळ शाहाँ हाँकिया॥२॥
भावार्थ:- दूसरे राजाओं के लिए तो यह बात आसान होगी कि वे शाही सवारी में हाँके जाने पर, आगे-आगे बढ़ते चलें क्योंकि यह उनके पूर्वजों के समय से होता आया है किन्तु प्रतापी गुहिल वंश उस तरह कैसे चलेगा, जिसने कभी बादशाहों को भी अपनी हरोल में हाँक लिये थे!

सिर झुकिया सह शाह, सींहासण जिण सामने।
(अब) रळणों पंगत राह, फाबै किम तोने फता!॥
भावार्थ:- जिनके लिये सहज है, वे राजा झुक-झुक कर वायसरॉय को नज़राने दिखायेंगे परन्तु हे फतहसिंह! तेरे हाथ में तलवार होते हुए भी वह नज़राने के लिये वाइसरॉय के सम्मुख कैसे पसरेगा?

देखे अंजस दीह, मुळकैलो मन ही मनाँ।
दम्भी गढ़ दिल्लीह, सीस नमन्तों सीसवद!॥
भावार्थ :- हे सिसोदिया! तेरे सिर को अपने सामने झुकता हुआ देख कर, दिल्ली का वह दम्भी लाल किला, इस अवसर को अपने लिए धन्य मान कर अहंकार – वश मन ही मन मुस्करायेगा !

उपरोक्त पृष्ठों में दिया गया विवरण मेरे पितामह राजस्थान केसरी ठाकुर केसरीसिंहजी, कोटा के सम्बंध में गत शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों का है और यह रचना स्वतंत्रता संग्राम का एक विशिष्ठ स्वर्णिम परिच्छेद है, जिसके लिए प्रसिद्ध इतिहासकार राजकुमार रघुवरीसिंहजी, सीतामऊ ने सत्य ही लिखा है कि राजस्थान में नव-युग सूत्र- पात इसी घटना से होता है। लेकिन इसके पूर्व भी मेरे पुण्य-श्लोक पूर्वजों की वीरता के अनेक किस्से इतिहास – प्रसिद्ध हैं। मेरे पूर्वजों ने ग्यारह पीढ़ी तक शाहपुरा के राजाधिराज की सेवा में अपना बलिदान दिया था। किसी भी वंश के लिए यह कोई साधारण बात नहीं है!, मैं अपने उन दो महान् पूर्वजों का उल्लेख किये बिना इस आलेख को अस्तु, अपूर्ण ही समझँगी और वे हैं मेरे वंश-वृक्ष के आदि-पुरुष बारूजी सौदा, जिनकी माता देवी बरवड़ीजी थीं। वे गुजरात में सौराष्ट्र प्रदेश के खोड निवासी थे और दूसरे थे वीर नरूजी, जो बादशाह औरंगज़ेब के समय में उदयपुर के प्रसिद्ध जगदीश मंदिर की देव-मूर्तियों के भञ्जन करते समय बादशाही इक़्क़ों से लड़ते हुए झूझार हुए। उन दोनों के सम्बंध में इतिहास – सम्मत विवरण देना प्रासंगिक होगा, जो निम्न प्रकार है:-

ने विक्रमी संवत् चौदहवीं में दिल्ली के सुलतान मोहम्मद तुग़लक महाराणा गढ लक्ष्मणसिंह को परास्त कर चित्तौड़ का किला छीन लिया था। उस युद्ध में महाराणा गढ़ लक्ष्मणसिंह अपने युवराज अरिसिंह सहित मारे गये और छोटे राजकुमार अजयसिंह घायल होकर बाहर निकले, जो महाराणा बन कर चित्तौड़ वापिस लेने के प्रयास में ही स्वर्गवासी हो गये। महाराणा हमीरसिंह चित्तौड़ को पुनः विजय करने के युद्ध करते रहे परन्तु विफल रहे इसलिए अपनी देह- त्यागने हेतु तीर्थ क्षेत्र द्वारिका की ओर जा रहे थे तब धांगधरा के पास मेरे वंश के आदि – पुरुष देथा बारू के घर पर रात्रि को मेहमान रहे। जब बारू ने महाराणा हमीरसिंह से आगे जाने का अभिप्राय पूछा तो महाराणा ने अपने देह – परित्याग का निश्चय बताया। इस पर बारू की माता श्री बरबड़ीजी ने, जो अन्नपूर्णा का अवतार मानी जाती थीं- महाराणा को आश्वत् किया कि वे वापस चित्तौड़ जायँ, उन्हें चित्तौड़ राज्य पुनः मिल जायगा! इस पर महाराणा ने जवाब दिया कि उनकी सवारी में केवल एक घोड़ा बाकी बचा है और थोड़े – से सेवक शेष रहे हैं इसलिए चित्तौड़ पुनः लेना कैसे सम्भव होगा? इसके उत्तर में मां बरवड़ी ने कहा कि उनका पुत्र बारू पाँच सौ घोड़े लेकर आपके पास आयेगा, जिन्हें रख लेना। मेवाड़ में क्षत्रिय बहुत हैं, उन्हें एकत्रित कर लेना और जो तुम्हारी सगाई का प्रस्ताव आये, उसे स्वीकार कर लेना। महाराणा हमीरसिंह को मां बरबड़ी के वचनानुसार चित्तौड़ का राज्य पुनः मिल गया! शेष तो इतिहास है।

दूसरी घटना है विक्रमी संवत् १७३६ की माघ कृष्णा पञ्चमी की, जब बादशाह औरंगजेब स्वयं बड़ी फ़ौज लेकर उदयपुर पर आक्रमण हेतु पहुँचा। उस समय, महाराणा राजसिंहजी ने सामरिक दृष्टि से उदयपुर में रह कर युद्ध करना उचित नहीं समझा इसलिए उदयपुर को खाली कर पश्चिम के दुर्गम पहाड़ों में चले गये। महाराणा साहिब ने नरूजी को अपने साथ चलने की आज्ञा दी, तब नरूजी का जनाना रथ में बैठ कर रवाना हुआ और नरूजी घोड़े पर आरूढ होकर महाराणा के साथ जाने लगे तो किसी ने ताना दिया कि “बारहठजी! जिस द्वार पर हट कर के नेग लेते थे, उसे आज बिना हट किये ही कैसे छोड़ते हो?” यह सुनते ही नरूजी घोड़े से उतर गये और अपने कुटुम्ब के लोगों को महाराणा साहिब के साथ भेज दिया एवं स्वयं महलों की “बड़ी पोळ” पर बैठ गये। इसके बाद, जब बादशाह के इक्के ताज़ख़ां और कहिल्ला खां ने उदयपुर के प्रसिद्ध “जगदीश मंदिर” की मूर्तियाँ तोड़ने के लिए आक्रमण किया तो नरूजी अपने चुने हुए बीस सेवकों के साथ उन बादशाही इक्को पर टूट पड़े और युद्ध करते हुए काम आये। नरूजी का मस्तक धड़ से गिरने के बाद भी उन्होंने तलवार चला कर शत्रुओं का संहार किया इसलिए वे “झँझार” कहलाये। राजस्थान में यह प्रसिद्ध है, कि जो वीर बिना मस्तक के युद्ध में लड़ता है, उसे झूझार कहा जाता है। झुंझार भी बिरले वीर ही होते हैं ! नरूजी की स्मृति में जगदीश मंदिर के पीछे एक चबूतरा बना हुआ है, जहाँ वीर – नरूजी का मस्तक गिरा, वहाँ पर आज़ादी के पूर्व तक यानी उदयपुर रियासत के ज़माने तक वीर – नरूजी की स्मृति में दीपक जलाया जाता था। नरूजी की स्मृति में प्राचीन गीत के दो दोहे द्रष्टव्य हैं:-

आखा’ पीळा किया ऊजळा, सौदो रोदां कळा सज।
करग माँडिया नेग कारणें, क़लम खाँडिया नेग कज॥१॥
उदियापुर सौदे अजरायल’, कलमां हूँथ भाराथ कियो।
दत लेतो आवे दरवाजे, देवल जावे मरण दियो॥२॥

ऐसा महान् विरुद कितने वीरों को मिलता है! मेरे इन दोनों पुरुखों की प्रशस्ति में निम्नलिखित दो दोहे प्रस्तुत हैं:-

माथो दे भिड़िया बिन माथे, चितौड़े’ दीधी चीतौड़।
बारू और नरू सौदा री, जग में कुंण करसी होड़॥१॥
चारण देव तारण महपतियाँ, चारण तणीं करै कुंण होड।
सगत्यां जनम देवणां समरथ, नमन करो सब ही कर जोड़॥२॥
भावार्थ:- अपने स्वामी महाराणा के लिए नरूजी, अपना मस्तक देकर भी केवल धड़ से ही युद्ध करते रहे और बारूजी ने चित्तौड़ के स्वामी महाराणा को पुनः चित्तौड़ का राज्य दिलाया। ऐसे वीर पुरुष-पुङ्गवों की संसार में कौन समता कर सकता है? चारणों ने तो राजा-महाराजाओं की रक्षा की है, उन चारणों की भला कौन बराबरी कर सकता है? जिस जाति की स्त्रियाँ, शाक्तियों को जन्म देती हैं, उस चारण जाति को सब ही वन्दना करो !

कृष्णसिंहजी ने ” वंश – भास्कर” की “उदधि मंथिनी” टीका (पाँच हजार पृष्ठ), “डिंगल शब्द-कोश”, “चारण-कुल प्रकाश”, इत्यादि के अतिरिक्त ग्यारसौ पृष्ठों का ग्रंथ “बारहठ कृष्णसिंह का जीवन – चरित्र और राजपुताना का अपूर्व इतिहास” लिखा।

यहाँ पर यह लिखना समीचीन होगा कि कृष्णसिंहजी, अनेक मानवीय सद्गुणों से ओत-प्रोत थे। वे अपनी मातुः श्री शृंगारकँवरजी, जो कविराजा श्यामलदासजी की बड़ी सहोदरा थीं, पिताश्री अवनाड़सिंहजी एवं विद्यागुरु परमहंस स्वामी सीतारामजी महाराज के परम भक्त थे। वे अनुशासन – प्रिय, अध्ययन – शील एवं समय के प्रति अति – पाबन्द थे एवं और किसी भी प्रकार का नशा नहीं करते थे और न वे कभी ताश, शतरंज, गंजीफ़ा इत्यादि खेलते थे और न उनको कोई व्यसन ही था। उन्होंने समय की इतनी क़द्र की इसीलिए वे अपने जीवन में अपनी कलम से समाज को इतना विशाल साहित्य एवं इतिहास दे सके ! कृष्णसिंहजी के बड़े पुत्र केसरीसिंहजी अपने पितुः श्री (कृष्णसिंहजी) के सम्बंध में कहा करते थे कि “काकासा, लेखन – कार्य रात – दिन इतना ज्यादा करते थे कि सर्दी की मौसम में भी वे अपना दाँया हाथ लिहाफ़ के बाहर रखते थे और दिन में वे कभी विश्राम नहीं करते थे। केवल वैशाख और ज्येष्ठ के महीनों में काम करने की जगह पर ही लेट कर केवल आधे घण्टे तक विश्राम कर लिया करते थे।

“चारण कुल प्रकाश’ पढ़ने पर पाठक स्वयं यह अनुमान लगा सकेंगे की श्री कृष्णसिंहजी को तत्कालीन चारण समाज की अवस्था एवं हमारी अवन्नति के मुख्य कारणों को लेकर कितनी वेदना थी। हम निज गौरव को पहचान सकें तथा किन उपायों को अपनाकर पुन: उन्नति की ओर बढ़ सके इस हेतु अथक प्रयास कर उन्होंने ” ‘चारण कुल “प्रकाश” की रचना की और सन् 1902 में इसे प्रकाशित कराया।

मैं पुनः एक बार अपने सुधी पाठकों से क्षमा माँगते हुए अपनी लेखनी को विराम देने से पूर्व, यह लिखने का साहस करती हूँ कि कृष्णसिंहजी का कृतित्व इतना विशाल था कि उसको थोड़े में समाविष्ट करना असम्भव था।

मेरे “सम्पादकीय” में जिन दो महानुभावों के सहयोग से पूर्व में प्रकाशित ‘चारण-कुल- प्रकाश” की मूल प्रतियाँ प्राप्त हुईं, उन्हें धन्यवाद देना बहुत आवश्यक है। उक्त पुस्तक की एक प्रति श्री प्रह्लादसिंहजी सौदा, उदयपुर ने प्राप्त कर मेरे पास भेजी। दूसरी प्रति गुजरात (राजकोट) से चारण कवि प्रवीणभा हरसुरभा मधुड़ा (गाँगणीया) ने भेजी। यह प्रति उन्होंने भाई श्री हुसैनखाँनजी एस. टी. ड्राइवर ध्रांगध्रा (यह प्रति चारण बनैसिंह कालीदान फुनड़ा ग्राम जाडियाणा, ताहवका, पाटडी से प्राप्त की थी) इन सज्जनों की में आभारी हूँ।

चारण कवि प्रवीणभा हरसुरभा मधुड़ा (गांगणीया) ने अपने पत्र में लिखा है कि भाई हुसैनखांनजी को चारण जाति के साथ बड़ा लगाव है। इसके लिए भाई हुसैनख़ानजी को लाख-लाख धन्यवाद है। इस पुस्तक के प्रकाशन में मेरे चि. डॉ. सिद्धार्थ देव, M.S. एवं चि. भँवर वाग्मीकुमार का सहयोग भी सराहनीय रहा है इसलिए उन्हें भी हार्दिक शुभाशिष देती हूँ।

(राजलक्ष्मी देवी ‘साधना’ )

गणेश चतुर्थी 19 सितम्बर 2012

“गुरु कृपा “, 102, पञ्चरत्न कॉम्पलेक्स, बेदला रोड़,
उदयपुर – 313001 (राज.)
फोन: 02942450638
मोबाइल : 093144-67790

सन्दर्भ – ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ, शाहपुरा द्वारा विरचित
”चारण – कुल – प्रकाश” [सम्पादक – राज लक्ष्मीदेवी “साधना”]


 

मेरे प्रपितामह स्वनामधन्य कृष्णसिंहजी ने आज से सवा सौ वर्ष पूर्व तत्कालीन राजपूताना का सत्य इतिहास ‘बारहठ कृष्णसिंह का जीवन चरित्र और राजपूताना का अपूर्व इतिहास’ नामक लिखना प्रारम्भ किया था। उस समय वे उदयपुर महाराणा सज्जनसिंहजी के दरबार में शाहपुरा राजाधिराज नाहरसिंहजी की तरफ से वकील थे। महाराणा ने उन की योग्यता से प्रसन्न हो कर तनख्वाह मुकर्रर कर उन्हें अपने विश्वासपात्र मर्जीदानों में ले लिया था। ऐसा दोहरा दायित्व निभाना वास्तव में बड़ी टेढ़ी खीर थी। मेरे प्रपितामह का जन्म शाहपुरा राज्यान्तर्गत उनके पैतृक गाँव देवपुरा में फाल्गुन सुदी एकम शुक्रवार वि. सं. 1906 तदनुसार सन् 1850 को हुआ था। उनके पिता का नाम ओनासिंहजी और माता का नाम शृंगारकुँवर था जो कविराजा श्यामलदासजी की बड़ी सहोदरा थीं। इस रिश्ते से कविराजा श्यामलदासजी उन के मामा हुए। कृष्णसिंहजी ने विद्याध्ययन शाहपुरा में परमहंस सीतारामजी से किया। कृष्णसिंहजी ने अपने माता-पिता और गुरु की वन्दना इस ग्रंथ के तीनों भागों में ‘मंगलाचरण’ के रूप में अनन्य श्रद्धा से की है। कृष्णसिंहजी शाहपुरा राजाधिराज के वंशानुगत पोळपात (प्रतोलीपात्र) थे एवं राज्य में उन के साथ बड़ी इज्जत का बरताव था । कृष्णसिंहजी शुरू से ही अन्धविश्वास, पाखण्ड, मूर्ति पूजा, फलित ज्योतिष आदि में विश्वास नहीं रखते थे। उनकी मेधा में नव चेतना की अरुणिम रश्मियों का प्रकाश पहुँच चुका था और उन को वैसा ही समर्थ अवलम्बन स्वामी दयानन्द सरस्वती के रूप में प्राप्त हो गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती देश में नव जागरण के पुरोधा और स्वातंत्र्य के अग्रदूत थे। राजपूताना में उन का सर्वप्रथम आगमन सन् 1882 में चित्तौड़ में हुआ था और वहीं कृष्णसिंहजी का साक्षात्कार उन से हुआ। उस के बाद उदयपुर प्रवास में उन्होंने महाराणा सज्जनसिंहजी के साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती से मनुस्मृति, न्याय, दर्शन, वैशेषिक आदि शास्त्रों का अध्ययन किया और ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। सुप्रसिद्ध इतिहासकार जयचंद्रजी विद्यालंकार ने उनकी गणना स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रमुख शिष्यों श्यामजी कृष्ण वर्मा बार-एट-लॉ व स्वामी श्रद्धानन्द के साथ की है।

कृष्णसिंहजी हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी के विद्वान् थे और डिंगल एवं पिंगल के उत्तम कवि थे। उन्होंने संस्कृत में अनेक श्लोकों की रचना की। वे अपने समय के माने हुए राजनीतिज्ञ एवं इतिहासकार थे। सभी रियासतों में उन का बड़ा सम्मान था। जोधपुर महाराजा जसवंतसिंहजी ने उन्हें पाँव में सोना (स्वर्णाभूषण) प्रदान किया जो उस ज़माने में बड़ा सम्मान सूचक था।

प्रस्तुत ग्रंथ तीन भागों में है और एक हजार पृष्ठों में है। इसके अतिरिक्त कृष्णसिंहजी ने महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण – कृत ‘वंशभास्कर’ की ‘उदधि-मंथिनी टीका’ लिखी। यह ग्रंथ ‘महाभारत’ के आकार का है उनकी एक और महती कृति थी ‘कृष्ण नाममाला डिंगल कोश’ जिस में अस्सी हजार शब्द संकलित किये गये थे। विधि की विडम्बना है कि वह ग्रंथ हमेशा के लिए विलुप्त हो चुका और उस की स्मृति- मात्र शेष रही है।

महाराणा सज्जनसिंहजी उदयपुर की सेवा में रहते हुए और स्वामी दयानंद सरस्वती के सिद्धान्तों को आत्मसात् करने के बाद सन् 1882 में जब कृष्णसिंहजी की उम्र बत्तीस वर्ष की थी, उनके मानस में एक ऐसे सार्थक संकल्प का उदय हुआ कि उन्हें कोई ऐसा काम करना चाहिए जिस से मरणोपरान्त उन का नाम विद्वानों के जिह्वाग्र पर रहे। इस कार्य हेतु सब पहलुओं पर विचार करने के बाद यह निश्चय किया कि साधारणतया मनुष्य के लिए अपने समय का सत्य इतिहास लिखना असम्भव होता है इसलिए वे वर्तमान समय के राजपूताना का सत्य इतिहास लिखेंगे। परन्तु यह कार्य बहुत दुरूह था इसलिए उन्होंने इस सम्बंध में महाराणा सज्जनसिंहजी की अनुमति प्राप्त की और उन्हें सभी तथ्यों से अवगत कराया कि इसमें आपके गुण और दोष यथार्थ रूप से लिखे जायेंगे। अतः यदि इतनी सहनशीलता हो और मेरे मरण पश्चात् इसे नष्ट नहीं करें तो मैं इस इतिहास का लिखना प्रारम्भ करूं। गुणज्ञ महाराणा ने सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी और ऐसी ही अनुमति शाहपुरा राजाधिराज नाहरसिंहजी ने प्रदान की। यह इतिहास गुप्त रूप से लिखा गया जो लेखक ने आजन्म किसी को नहीं दिखाया एवं प्रस्तुत इतिहास का प्रकाशन उन के मरणोपरान्त होना था। इस इतिहास में केवल सत्य ही लिखा जायगा इस के लिए उन्होंने संकल्प के अनुरूप ही कठोर नियम पालन करने की यह शपथ ली “मैं (बारहठ कृष्णसिंह) शपथ – पूर्वक नियम करता हूँ कि ईर्षा, द्वेष, असूया, लोभ, क्रोध, भय, प्रीति आदि कारणों से मिथ्या लेख कदापि नहीं लिखूंगा।”

सन् 1892-93 में कई राजनीतिक कारणों से उदयपुर का पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल माइल्स महाराणा फतहसिंहजी के इतना ख़िलाफ़ हो गया कि उसने महाराणा के राज्याधिकार को दो साल की अवधि के लिए छीनने हेतु अपनी गुप्त रिपोर्ट एजेन्ट टू दी गवर्नर जनरल कर्नल ट्रेवर को प्रेषित कर दी। इस पूरे षड्यंत्र की जड़ में था रियासत का दीवान पन्नालाल मेहता जिस पर कर्नल माइल्स का वरद हस्त था इसलिए वह बेख़ौफ़ हो कर महाराणा के विरुद्ध काम करता था। उसने कर्नल माइल्स को यहाँ तक भड़काया कि यदि वे किशनजी और बलवंतसिंह मेहता को अलग करवा दें तो “महाराणा साहब लाचार होकर आप से दब जावें और जो आप कहें वह कर लेवें।” इस कुचक्र की परिणिति ए. जी. जी. कर्नल ट्रेवर के खरीते दिनांक 01 मई 1893 के रूप में हुई जिस के अनुसार महाराणा साहब को सख्त चेतावनी दी गयी और कृष्णसिंहजी को महाराणा की नौकरी एवं उदयपुर से निष्कासित कर दिया गया। उधर, कर्नल माइल्स ने देवली के पोलिटिकल एजेन्ट थॉरन्टन से कह कर उन्हें शाहपुरा से निकलवा दिया और वकालत से भी हटा दिया। उस ज़माने में कृष्णसिंहजी जैसे सभ्रान्त व्यक्ति के लिए अँगरेज सरकार के हुक्म से रियासत से निकाले जाने को बड़ी बदनामी का द्योतक माना जाता था।

कृष्णसिंहजी जैसे प्रबुद्ध पुरुष के लिए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि उन पर निकट भविष्य में कोई बड़ी विपत्ति आने वाली है। अतः जब वे महाराणा साहब की तरफ से गुप्त मंत्रणा हेतु जोधपुर के मुसाहिब – आला महाराज सर प्रतापसिंहजी के पास भेजे गये तो उन्होंने सर प्रतापसिंहजी को सारी परिस्थिति से वाक़िफ़ कर महाराजा जसवंतसिंहजी से मौखिक आश्वासन प्राप्त कर लिया था कि उदयपुर से निकाले जाने की सूरत में उन्हें जोधपुर में रख लिया जायेगा। अतः मई सन् 1893 में उदयपुर और शाहपुरा से निकाले जाने के साल भर बाद वे जोधपुर चले गये। वहाँ उन्हें सन् 1898 में पक्षाघात हो गया और उसी के साथ प्रस्तुत इतिहास के लिखने पर विराम लग गया। दैवी कृपा से क़रीब तीन साल बाद उन्हें ऐसी घातक बीमारी से मुक्ति मिल गयी। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने दो महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किये जिन का उल्लेख उपरोक्त पंक्तियों में किया गया है। मेरे प्रपितामह का देहावसान सन् 1907 में जोधपुर में हुआ।

प्रस्तुत इतिहास प्रारम्भ करने के साथ ही कृष्णसिंहजी ने निश्चय कर लिया था कि इस का प्रकाशन उन के मरणोपरांत कराया जाये और इस हेतु पाँच हजार रुपये भी अलग रख दिये थे जो उस समय के लिहाज़ से पर्याप्त थे। लेकिन उस समय अँगरेजों के राज्य में और देशी रियासतों में ऐसे सत्य इतिहास को छापने के लिए कोई भी मुद्रणालय मालिक हिम्मत नहीं कर सकता था। अतः सन् 1947 में देश के आज़ाद होने और सन् 1949 में रियासतों के विलीनीकरण तक इस इतिहास को सूर्य की रोशनी दिखाना असम्भव था।

प्रपितामह के निधन के सात साल बाद ही उन के बड़े पुत्र केसरीसिंहजी, छोटे जोरावरसिंहजी और पौत्र कुँवर प्रतापसिंह देश के स्वातंत्र्य संग्राम में सर्वतोभावेन कूद पड़े और सशस्त्र क्रांति के अग्नि पथ का वरण किया। फलस्वरूप, उन पर राजद्रोह और फौजदारी कानून के अंतर्गत संगीन मुकद्दमे चलाये गये। जोरावरसिंहजी फ़रार हो गये और आजन्म गिरफ्तार नहीं किये जा सके। पकड़े जाने की सूरत में उन्हें फाँसी के तख़्ते पर झूलना था। केसरीसिंहजी को आजन्म काला पानी (अण्डमान्स) की सज़ा हुई। प्रताप को पाँच साल की सज़ा भोगने के लिए बरैली सेंट्रल जेल के Solitary-Cell में रखा गया। वहीं पर अमानुषिक अत्याचारों को सहते- सहते उस ने अपने प्राणों की बलि दी एवं उसे जेल परिसर में क़ब्र में दफना दिया गया। केसरीसिंहजी को सुदूर हजारी बाग सेंट्रल जेल के Solitary-Cell में बन्द रखा गया और प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद सन् 1919 में उन्हें मुक्त किया गया। उन का देहावसान अगस्त सन् 1941 में हुआ।

एक तरफ अँगरेज सरकार का दमन और दूसरी तरफ उस के दबाव से शाहपुरा राजाधिराज नाहरसिंहजी द्वारा प्रपितामह की पुश्तैनी जागीर, गढ़-नुमा हवेली और समस्त चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। इस प्रकार सारा परिवार छिन्न-भिन्न हो कर पार्थिव दृष्टि से सर्व लुंठित हो गया था। ऐसी विकट परिस्थिति में प्रस्तुत इतिहास को नष्ट होने से मेरी दादी माँ माणिक कँवरजी ने बचाया। उन्होंने सब कुछ छोड़ कर पितुः श्री की इस अमूल्य थाती को अपने आँचल में छिपा कर हमेशा के लिए गृह त्याग किया। मुझे प्रसन्नता है कि वही आज एक शताब्दी बाद आप के सम्मुख प्रस्तुत है। इस के साथ ही मेरे प्रपितामह द्वारा अठारह वर्ष – पर्यन्त किया गया अथक परिश्रम और सत्य लेखन साकार हो रहा है। यह ईश कृपा और सत्य की जय है।

नगेन्द्रबाला
25-06-2008


 

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