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महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण

महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण

पूरा नामकवि सूर्यमल्ल मिश्रण (मीसण)
माता पिता का नामउनके पिता का नाम चण्डीदान तथा माता का नाम भवानी बाई था।
जन्म व जन्म स्थानजन्म बूंदी जिले के हरणा गाँव में 19 अक्टोबर 1815 तदनुसार कार्तिक कृष्ण प्रथम वि. स. १८७२ को हुआ था
स्वर्गवास
प्रसिद्द इतिहासकार मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार इनकी स्वर्गवास की तिथि वि.सं. 1925 आषाढ़ कृष्णा एकादशी (30th June 1868) है।
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 जीवन परिचय

राजस्थान के महान कवि सूर्यमल्ल मिश्रण (मीसण) का जन्म बूंदी जिले के हरणा गाँव में 19 अक्टोबर 1815 तदनुसार कार्तिक कृष्ण प्रथम वि. स. १८७२ को हुआ था। उनके पिता का नाम चण्डीदान तथा माता का नाम भवानी बाई था। उनके पिता अपने समय के प्रकांड विद्वान तथा प्रतिभावान कवि थे। बूंदी के तत्कालीन महाराजा विष्णु सिंह ने इनके पिता कविवर चण्डीदान को एक गाँव, लाख पसाव तथा कविराजा की उपाधि प्रदान की थी। बूंदी के राजा रामसिंह उनका बड़ा सम्मान करते थे। चंडीदान ने बलविग्रह, सार सागर एवं वंशाभरण नामक अत्यंत महत्त्व के तीन ग्रंथों की रचना की।

सूर्यमल्ल मिश्रण का जन्म जिस समय हुआ उस समय राजस्थान में राजपूत युग की आभा लगभग ढल चुकी थी। वीर दुर्गादास का समय बीत चुका था। सवाई जयसिंह, अजीत सिंह, अभय सिंह आदि ने अपने काल में राजपूती वैभव के लिए प्रयास किये थे, किन्तु मिश्रण के जन्म के समय उनका भी वक़्त बीत चुका था। उस समय राजस्थान मराठों के आक्रमण से त्रस्त था और अमीर खां जैसे व्यक्तियों के दुराचारों से त्राहि त्राहि कर रहा था। यहाँ के राजा आपसी वैमनस्य और अन्य अनियमित व्यवहारों से अपना ओज व तेज खो चुके थे। इसी अवसर का फायदा उठाते हुए अंग्रेज़ों ने दो तीन साल में ही राजस्थान पर अपना अधिकार कर लिया। राजस्थान के राजपूत सरदार अपनी वीरता और साहस को भूल चुके थे। ऐसे समय में सूर्यमल्ल मिश्रण का उदय हुआ।

वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि एवं असाधारण स्मरण शक्ति से संपन्न थे। इस महान कवि ने बाल्यकाल से ही कई विद्याओं का गहन ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्होंने स्वामी स्वरूपदास से योग, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक साहित्य आदि की शिक्षा प्राप्त की। आशानन्द से उन्होंने व्याकरण, छंदशास्त्र, काव्य, ज्योतिष, अश्ववैधक, चाणक्य शास्त्र आदि की शिक्षा प्राप्त की तथा मुहम्मद से फ़ारसी एवं एक अन्य यवन से उन्होंने वीणा-वादन सीखा। इस प्रकार सूर्यमल्ल मिश्रण को प्रारंभ से ही शैक्षिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक वातावरण मिला, जिससे उनमें विद्या, विवेक एवं वीरता का अनोखा संगम प्रस्फुटित हुआ। उनके जीवनकाल में ही उनके काव्य का प्रसार सम्पूर्ण राजस्थान एवं मालवा में हो चुका था। उनकी विद्वता तथा सत्यवक्ता व्यक्तित्व की धाक चहुँ ओर फ़ैल चुकी थी। बुद्धिजीवी समाज और राजदरबार में उनका अत्यंत सम्मान था। उन्हें बूंदी के पांच रत्नों में गिना जाता था। उनके द्वारा लिखे गए वीरता एवं ओज से परिपूर्ण गीत जनमानस द्वारा गाए जाते थे तथा इनसे राजा-महाराजा तथा राजपूत सरदार प्रेरणा प्राप्त करते थे। वे सदैव सत्य का समर्थन करते थे। सत्य के लिए उन्होंने बड़े से बड़े प्रलोभन को ठुकरा दिया, फलतः उनका “वंशभास्कर” ग्रन्थ भी अधूरा रह गया जिसे बाद में उनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने पूर्ण किया। प्रसिद्द इतिहासकार मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार इनकी मृत्यु की तिथि वि.सं. 1925 आषाढ़ कृष्णा एकादशी (30th June 1868) है।

जीवनकाल में ही उनकी ख्याति इतनी विस्तृत हो गयी थी कि बड़े बड़े राजा, प्रतिष्ठित कवि एवं विद्वान उनके दर्शन को लालायित रहते थे। ये सब उनकी सत्यप्रियता और विद्वता के फलस्वरूप था, इसमें किसी प्रकार का स्तुतिपरक कार्य नहीं था। उनकी सत्यनिष्ठता इतनी प्रगाढ़ थी कि वे अपने आश्रयदाता की कमियाँ और दोष बताने में भी भय नहीं करते थे। कहा जाता है कि बूंदी के महाराव रामसिंह ने सूर्यमल्ल मिश्रण से अपने वंश का इतिहास ‘वंशभास्कर’ लिखने के लिए कहा तो वे इस शर्त के साथ राजी हुए कि जो सही होगा वही लिखा जाएगा, परन्तु महाराव के दोषों का वर्णन करने के कारण दोनों में मनमुटाव हो गया, जिससे ये ग्रंथ “वंशभास्कर ” अधूरा ही रह गया।

सूर्यमल्ल मिश्रण वस्तुतः राष्ट्रीय विचारधारा तथा भारतीय संस्कृति के पुरोधा रचनाकार थे। उनको आधुनिक राजस्थानी काव्य के नवजागरण का पुरोधा कवि माना जाता है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से मातृभूमि के प्रति प्रेम, आज़ादी हेतु सर्वस्व लुटाने की भावना का विकास करने तथा राजपूतों में विस्मृत हो चुकी वीरता की भावना को पुनः जाग्रत करने का कार्य किया। जब 1857 का स्वाधीनता संघर्ष प्रारम्भ हुआ तो उसमे तीव्रता व वीरता पोषित करने में इस कवि की रचनाओ का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा। बूंदी के इस साहित्यकार सूर्यमल्ल मिश्रण ने अपनी कृतियों अथवा पत्रों के माध्यम से गुलामी करने वाले राजपूत शासकों को धिक्कारा है। उन्होंने पीपल्या के ठाकुर फूलसिंह को लिखे एक पत्र में राजपूत शासकों की गुलामी करने की मनोवृत्ति की कटु आलोचना की थी।

राजस्थान में वीरता पोषित करने के कारण सूर्यमल्ल मिश्रण के विचारों एवं रचनाओं को ”राजस्थान में राष्ट्रीयता की संवृद्धि का सर्वप्रथम प्रेरक” माना जाता है। वीरता के संपोषक इस वीररस के कवि को ‘वीर रसावतार’ कहा जाता है। महाकवि सूर्यमल्ल की प्रतिभा और विद्वता का पता तो इस बात से ही चल जाता है कि मात्र 10 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने ‘रामरंजाट’ नामक खंड-काव्य की रचना कर दी थी। सूर्यमल्ल मिश्रण के प्रमुख ग्रन्थ ‘वंशभास्कर’ एवं ‘वीर सतसई’ सहित समस्त रचनाओं में चारण काव्य-परम्पराओं की स्पष्ट छाप अंकित है। वे चारणो की मिश्रण शाखा से सम्बद्ध कवि थे। राजस्थान में अत्यंत लोकप्रिय, मान्य एवं यशस्वी कृति “वंश भास्कर” उनकी कीर्ति का आधार ग्रन्थ था। कुछ इतिहासकार इसे ऐतिहासिक दृष्टि से पृथ्वीराज रासो से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। साहित्यिक दृष्टि से इस ग्रन्थ की गणना 19 वीं सदी के महाभारत के रूप में की जाती है। अधूरा होते हुए भी यह अत्यंत विस्तृत ग्रन्थ लगभग तीन हज़ार पृष्ठों का है। संभवतया इससे बड़ा ग्रन्थ हिंदी में दूसरा कोई नहीं है। इस कृति में मुख्यत: बूंदी राज्य का इतिहास वर्णित है, किन्तु प्रसंगानुसार अन्य राजस्थानी रियासतों के राजाओं, वीरों तथा प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओ का भी वर्णन इसमें किया गया है। इस डिंगल / पिंगल काव्य रचना में बूंदी राज्य के विस्तृत इतिहास के साथ साथ उत्तरी भारत का इतिहास तथा राजस्थान में मराठा विरोधी भावना को भी पोषित एवं संवर्धित किया गया है। युद्ध वर्णन की जैसी सजीवता इस ग्रन्थ में है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। राजस्थानी साहित्य के अत्यंत चर्चित इस ग्रन्थ की टीका कृष्णसिंह बारहट ने की है।

सूर्यमल्ल मिश्रण के वीर सतसई ग्रन्थ को भी राजस्थान में स्वाधीनता के लिए वीरता की उद्घोषणा करने वाला अपूर्व ग्रन्थ माना जाता है। अपने इस ग्रन्थ के पहले ही दोहे में वे “समे पल्टी सीस” का घोष करते हुए अंग्रेजी दासता के विरुद्ध विद्रोह के लिए उन्मुख होते हुए प्रतीत होते हैं। यह सम्पूर्ण कृति वीरता का पोषण करने तथा मातृभूमि की रक्षा के लिए मरने मिटने की प्रेरणा का संचार करती है। यह राजपूती शौर्य के चित्रण तथा काव्य शास्त्र की दृष्टि से उत्कृष्ट रचना है।

सूर्यमल्ल मिश्रण के मुख्य ग्रन्थ:
1. वंशभास्कर
2. वीर सतसई
3. धातु रूपावली
4. बलवद विलास (बलवंत विलास)
5. रामरंजाट
6. छन्दोमयूख
7. सतीरासो



महाकवि सूर्यमल्लजी रो पत्र !

विक्रम संवत 1914 मिति पौष शुक्ला प्रतिपदा (एकम) के दिन महाकवि सूर्यमलजी मिश्रण का लिखा पत्र जिसमें उनकी अंग्रेजो के प्रति विरोधी व राजाओं के प्रति आक्रोश तथा मातृभूमि के प्रति चिन्ता झलकती है। यह पत्र अपने परममित्र पीपल्या ठाकुरफूलसिंहजी को लिखा है।

“………यौ तो शरीर जीं अर्थ लाग्यौ आछो लागै ऊं माथै आयां तौ तृण सों भी तुच्छ गिण्यो जावै छै सो तो ठीक ही छै तीको तौ म्हानै भी निश्चित भरोसौ छै परन्तु ऊं अर्थ बिना और समै मे सदा ही यौ शरीर प्रयत्नपूर्वक रक्ष्या करवा को छै अर ई नै अर्थ लगाबौ की समय तो परमेश्वर ने पलटायौ छै कदाचित राज्य जिसा सुक्षत्रियां का तथा राज्य के लारै लागा इमास्ता कातरां रा ए शरीर कै ही अर्थ लागैतो एक योगी ज्ञानी भक्तकै भी या होई तो सौना मं सूगंध होई
ज्यों अत्यन्त शोभा पावै तींसौ परमेसर या बात मिलावै तो उत्तमोत्तम छै पण अल्प परिकर वाला तो आपणै जिस्या साराही ई बात न चावां
छां पण आपणै तो केवल सुरग प्राप्ति अर अरै कीर्ति को यो ही फल छै अर ये राजा लोग देश पति जमीका ठाकर छै जै सारा ही हिमाऴा का गऴ्या ही निसर्या सौ चालीस सौ लैरे साठ अर सतर बवसतांई पाछै पटक्या छै तो भी गुलाम करै छै पण यौ म्हारौ बचन राज याद राखोगा कि जै अबके (अंग्रेज) रह्यो तो ईको गायो ईसा पूरो करसी अर जमींका ठाकर कोई भी न रैसी
सब ईसाई हो जासी तीसो दूरदेसी बिचारो अब फायदो कोई केभी नही पण आपणौ आछो दन होय तौ विचारै अर राय जसौ सुह्रत म्हारै होय तो बङाई तरीकै लिखी जावै ती सूं थोङी मे भी बहुत जाण लेसी।
विज्ञेषु अलमति पौष शुक्ल प्रतिपदा
ज्युजुर्वेदांगभू 1914 मिति विक्रमांर्क शक संग त्या लिपिरियम्।“

यह पत्र उनकी दूरंदेशी देशभक्ति उच्च स्तर की नैतिकता आदि बातों को दर्शाता है।

प्रेषित: राजेंद्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)



रतलाम के उमराव श्रवण के ठाकुर जोरावरसिंहजी ने सूर्यमल्लजी को जो पत्र लिखा था, उसमें बहुत से पद्य लिखे हुए हैं, जिनमें से कुछ यहां ध्यान देने योग्य हैं—

कर उद्यम भैलो कियो, सदबिद्या सामाज।
सूजा चंडीदान सुत, रंग तोनै कविराज।।अध्य्वसायपूर्वक सदविद्याओं का समाज तूने इकट्ठा किया है। हे चंडीदान के पुत्र कविराज सूरजमल! तुझे धन्य है।

बणै न लिखतां बीनती, कागद हंदी कोर।
सूरजमल तो ज्यूं सुकवि, आवै नजर न और।।
कागज़ की कोर पर मुझसे विनती लिखते नही बनता। हे सूरजमल! तेरा-जैसा सुकवि और कोई नजर नही आता।

जोर कमन्ध कर जोड़, अरज प्रबंध आखै असो।
मीसण कुळ रा मोड़, अब दरसण दीजै अवस्।।
राठौड़ जोरावर सिंह हाथ जोड़ करके इस प्रकार अपनी प्रार्थना निबद्ध करके कहता है कि हे मिश्रणकुल के शिरोमणि ! अब अवश्य दर्शन देना।

प्रेषित: कृष्णपालसिंह राखी



महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण नै शत शत वंदन। विनम्र श्रद्धांजलि।

सुण्यां सबद सण्णाट, सिंह सूतोड़ा झिझकै।
भण्यां लगै बण्णाट, मगज री नाड़ां तिड़कै।।
भिड़कै भिड़मल भट्ट, साद कवि रौ सांभळतां।
झपट हबीड़ै झट्ट, रिपू नै बळ वापरतां।।
सूता व्है सुख सैज, छोड देवै गळबायां।
गवरा करै गुमेज, पीव पर समर सिधायां।।
मावां रै मुख तेज, थणां छूटै पय धारां।
सूरा करै न जेज, सूंततां सिर तलवारां।।
भेड़ां जावै भाग, करै अरिदल अरड़ाटा।
सूरजमल रा छंद, बजावै रण बण्णाटा।।
~~नवल जोशी


 

महाकवि द्वारा लिखी अथवा उनसे सम्बंधित रचनाओं व संस्मरणों के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं| पढने के लिए नीचे शीर्षक पर क्लिक करें-

  1. वंश-भास्कर अपूर्ण क्यों रह गया? – डॉ. ओंकारनाथ चतुर्वेदी
  2. महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण पर जारी डाक टिकट (दि. १९/१०/१९९०)
  3. नायिका शिख नख वर्णन (राम रंजाट)
  4. सूर्यमलजी का मौजी स्वभाव
  5. कवित्त – मालव मुकुट बलवंत ! रतलामराज
  6. सूर्यमल्ल मीसण: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
  7. त्रिकूटबंध गीत – वंश भास्कर
  8. भ्रमरावली – वंश भास्कर
  9. आउवा सत्याग्रह – वंश भास्कर
  10. सूर्यमल्ल जी मीसण रा मरसिया – रामनाथ जी कविया
  11. स्वामी गणेशपुरी कृत सूर्यमल्ल स्तुति
  12. दुव सेन उदग्गन – वंश भास्कर
  13. महादेव स्तुति – महाकवि सूर्यमल्ल मीसण (वंश भास्कर)
  14. ऐसा छोड़ने वाला नहीं मिलेगा

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