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कविराज दुरसाजी आढ़ा

कविराज दुरसाजी आढ़ा

पूरा नामदुरसाजी आढ़ा
माता पिता का नामदुरसाजी आढ़ा की माताजी धनीबाई बोगसा व पिताजी मेहाजी आढ़ा,
जन्म व जन्म स्थानवि.स. 1592 में माघ सुदी चवदस को मारवाड़ राज्य के सोजत परगने के पास धुन्धला गाँव में जन्म हुआ था
स्वर्गवास
१६५५ ई. में स्वर्गवासी हो गये
अन्य
 

 जीवन परिचय

दुरसाजी आढ़ा का जन्म चारण जाति में वि.स.1592 में माघ सुदी चवदस को मारवाड़ राज्य के सोजत परगने के पास धुन्धला गाँव में हुआ था। इनके पिताजी का मेहाजी आढ़ा हिंगलाज माता के अनन्य भक्त थे जिन्होंने पाकिस्तान के शक्ति पीठ हिंगलाज माता की तीन बार यात्रा की। मां हिंगलाज के आशीर्वाद से उनके घर दुरसाजी आढ़ा जैसे इतिहास प्रसिद्ध कवि का जन्म हुआ। गौतम जी व अढ्ढजी के कुल में जन्म लेने वाले दुरसाजी आढ़ा की माता धनी बाई बोगसा गोत्र की थी जो वीर एवं साहसी गोविन्द बोगसा की बहिन थी। भक्त पिता मेहाजी आढ़ा जब दुरसाजी आढ़ा की आयु छ वर्ष की थी, तब फिर से हिंगलाज यात्रा पर चले गये। इस बार इन्होनें संन्यास धारण कर लिया। कुल मिलाकर दुरसाजी आढ़ा का बचपन संघर्ष एवं अभाव ग्रस्त रहा। बगडी के ठाकुर ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें अपनी सेवा में रख लिया यहीं पर इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। इनको अपने जीवनकाल में अपरिमित धन, यश एवं सम्मान मिला।

दुरसाजी आढा व दत्ताणी युद्ध सम्बन्धी भ्रामक धारणाओं पर शोध कार्य
दत्ताणी का युद्ध वि.स.1640 (ई.सं.1583) को कार्तिक सुदि 11 के दिन सिरोही के महाराव सूरताण व दूसरी तरफ मारवाड के रायसिंह चन्द्रसेनोत, मेवाड़ के जगमाल सिसोदिया, दांतीवाडा के कोलीसिह की सम्मिलित सेना के बीच में हुआ।

इस युद्ध में मारवाड की सम्मिलित सेना के रायसिंह चन्द्रसेनोत, जगमाल सिसोदिया, कोलीसिह अपने बहुत से सैनिकों के साथ काम आये। इस युद्ध में राव सूरताण की सेना के सेनानायक समरा देवडा व दुदाजी आशिया के रण कौशल के आगे मारवाड की सेना नहीं टिक सकीं तथा राव सूरताण के शौर्य, पराक्रम व कुशल नेतृत्व की जीत हुई।

इस युद्ध का विस्तार से वर्णन जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह व मनोहर सिंह राणावत पृष्ठ संख्या 116-118), मुहणोत नैणसी की ख्यात के पृष्ठ संख्या 86 में, मुहणोत नैणसी कृत मारवाड रा परगना री विगत भाग 1 के पृष्ठ संख्या 89, दयालदास री ख्यात भाग 2 पृष्ठ संख्या 107-09 में हुआ है जिसमें कहीं भी दुरसाजी आढा द्वारा दत्ताणी के युद्ध में भाग लेने का उल्लेख नहीं हुआ है। अर्थात मारवाड के इतिहास के इन स्रोतों में दुरसाजी आढा द्वारा शाही सेना की तरफ से युद्ध में आने का उल्लेख नहीं हुआ है। इसके साथ यह बात भी पूर्णतया मिथ्या सिद्ध होती है कि दुरसाजी आढा इस युद्ध में घायल हुए और इन्होंने सुरताण के सामने अपने प्राण बचाने के लिए कहा कि कहा कि मैं चारण हूँ और इसके प्रमाण के रूप में इन्होंने “धर रावां जश डूगरा” वाला दोहा कह कर राव सूरताण को प्रसन्न किया जिसके फलस्वरूप सूरताण ने प्रसन्न होकर पेशवा, साल, शेरूवा, पेरूवा व रिचोलडा नामक पांच गांव सांसण में दिए। उक्त गांव तो दत्ताणी युद्ध के तेईस साल बाद यानि वि.स.1663 को प्राप्त हुए। अर्थात दुरसाजी आढा का सूरताण से सम्पर्क पहली बार इस समय ही हुआ था। क्योंकि मारवाड के सुप्रसिद्ध आऊवा धरणा के समय इनकी उपस्थिति मारवाड के कवि के रूप में होती है। यदि वे सूरताण के पोलपात बन गये होते तो आऊवा धरणे के बाद बीकानेर क्यों जाते?

जब मोटा राजा उदयसिंह के खिलाफ दुरसाजी आढा ने वि.स.1643 चैत मास में आऊवा का सुप्रसिद्ध धरणा किया उसके बाद बचे चारणों ने मोटा राजा उदयसिंह से नाराज होकर मारवाड से पलायन किया और इसी कडी में उन्होंने बीकानेर की और रुख किया जहाँ उन्हें बीकानेर के रायसिंह जी ने वि.स.1645 में सांसण के रूप में चार गांव व एक करोड़ पसाव देकर सम्मान दिया। इसके बाद दुरसाजी आढा महाराव सूरताण के शौर्य से प्रभावित होकर वि.स.1663 में सिरोही रियासत में आये। राव सूरताण उनकी वीरता व काव्य बल से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने दुरसाजी आढा को पोळपात बनाकर उन्हे पेशुआ, शेरूवा, पेरूआ, साल व रिचोलडा नामक पांच गांव सांसण में देकर उन्हें सिरोही में ही रहने का अनुरोध किया। अर्थात दत्ताणी युद्ध सम्बन्धी दुरसाजी आढा का घायल हो जाना व घायलावस्था में दोहा बोलकर सूरताण को प्रसन्न करना; ये बात पूर्णतया मिथ्या, काल्पनिक व मनघड़न्त है। पेशवा का ताम्र पत्र, जिसके अनुसार पेशवा का सांसण उन्हें वि.स.1663 को प्राप्त हुआ, इस सम्बन्ध में सबसे ठोस व पुरातात्विक प्रमाण है।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार हुकमसिंह भाटी शोध पत्र (वैचारिकी सितम्बर – अक्टूबर 2016 के पृष्ठ संख्या 53-55) के अनुसार भी उक्त शोध की पुष्टि होती है। उनका कहना है कि दुरसाजी आढा कायर नहीं था कि अपने जीवन की भीख मांगता। उनका मानना है कि दत्ताणी युद्ध का दुरसाजी सम्बन्धी प्रवाद बाद में जोडा गया है।

अर्थात आऊवा धरणे के बाद दुरसाजी आढा का अन्य रियासतों की तरफ आना-जाना हुआ जिस क्रम में वे सब से पहले रायसिंह बीकानेर के पास वि.स.1645 व तत्पश्चात मेवाड़ के महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद महाराणा अमरसिंह के आग्रह पर मेवाड़ गयें जहाँ उन्होंने दुरसाजी आढा को रायपुरिया गांव वि.स.1656 जेठ सुद 12 को सांसण में दिया। तत्पश्चात वे वि.स.1663 में सिरोही के राव सूरताण के दरबार में आये तब उन्होंने ये दोहा कहा जिससे राव सूरताण बेहद प्रसन्न हुआ और पेशवा आदि पांच गांव सांसण में देकर इन्हें सिरोही का पोळपात बनाया।

दुरसाजी आढा एवं उनके वंशजों को प्राप्त सांसण में जागीरे

  • 1. धुंदला
  • 2. नातल कुडी (दुरसाजी आढा को मारवाड रा परगना री विगत भाग 1 पृ स 82)
  • 3. पांचेटिया (वि.स.1677 काती सुद 7 को गजसिंह द्वारा दुरसाजी आढा को)
  • 4. जसवन्तपुरा (दुरसाजी आढा द्वारा मोतीसर को भेट किया। इस सम्बन्ध में सूराजी मोतीसर कहा छप्पय इस प्रकार है।

ज्याग करै वळजोड, ••••••••••••••••••••••••••
पत वरन व्रवे जसवंतपुरौ, दीधौ ठुकराई दुरस।

  • 5. गोदावास (मारवाड रा परगना री विगत भाग 1 पृष्ठ संख्या 484 वि.स.1702 में महाराजा जसवन्तसिंह द्वारा पौत्र महेश दास को),
  • 6. हिंगोला खूर्द ( किसना दुरसावत ने मारवाड रा परगना री विगत भाग 1 पृष्ठ संख्या 262),
  • 7. लुंगिया (वि.स.1674 को मेडता के शासक सूरताण जैमलोत द्वारा दुरसाजी आढा को जो डूंगरसी सादुळोत व देईदांन जगमालोत के बंट आया)
  • 8. पेशुआ (राव सूरताण द्वारा वि.स.1663 जो पुत्र भारमलजी के बंट आया)
  • 9. साल (राव सूरताण द्वारा 1663)
  • 10. वराल (राव अखैराज द्वारा पौत्र महेशदासजी को )
  • 11. शेरूवा (राव सूरताण द्वारा दिया जो दुरसाजी ने शिव मंदिर को भेट किया सन्दर्भ फतहसिह मानव)
  • 12. पेरूआ (राव सूरताण द्वारा दिया गया जो दुरसाजी ने शिव मंदिर को भेट किया सन्दर्भ फतहसिह मानव)
  • 13. झांखर (राव राज सिह द्वारा वि.स.1674 मगसर सुदि पंचमी गुरुवार को जो जगमाल के बंट आया)
  • 14. ऊंड (यह गांव इनके पौत्र महेश दास को मिला वि.स.1699 चैत सुद दशम को),
  • 15. दुणलौ (आसकरण देवीदासोत द्वारा मारवाड रा परगना री विगत भाग 1 के पृष्ठ संख्या में 78-79, 82)
  • 16. रायपुरिया (महाराणा अमर सिह से वि.स.1656 जेठ सुद 12 को)
  • 17. डूठारिया (वि.स.1722 चैत्र सुद 5 शुक्रवार को महाराणा राजसिंह ने दुरसाजी के पौत्र महेश दासजी को)
  • 18. कांगडी (महाराणा अमरसिंहने)
  • 19. तासोल (वि.स.1686 चैत्र वदी 11 शनिवार को महाराणा जगतसिह द्वारा दुरसाजी आढा के पुत्र किशना आढा को)
  • 20. सिसोदा (दुरसाजी आढा के वंशज किशना आढा को महाराणा भीमसिंह ने वि.स.1818 चैत बदी पंचमी के दिन)
  • 21. दागलो (शक्तिसिंह उदेसींगोत द्वारा दुरसाजी आढा को दिया जो सार्दूलजी के बंट आया मारवाड रा परगना री विगत भाग 1 पृ स 550)
  • 22. रिचोलडा (राव सूरताण द्वारा सन्दर्भ फतहसिह मानव ओपा आढा काव्य संचयन पृष्ठ संख्या 21)
    इनके अलावा बीकानेर के राजा रायसिंह ने इनको चार गांव सांसण में दिये थे जिनकी पुष्टि दयालदास की ख्यात भाग 2 के पृष्ठ संख्या 118 से होती है। उक्त में से करीब 11 सांसणों के ताम्र पत्र अभी भी उनके वंशजों के पास ऐतिहासिक धरोहर के रूप में पड़े हैं जो की इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। अभी उनके कई ताम्र पत्र प्रकाश में आने बाकी है।

दुरसाजी आढा को इनाम के रूप में प्राप्त नकद धन राशि
करोड पसाव के पुरूस्कार
१ करोड पसाव रायसिंह जी बीकानेर ने
१ करोड पसाव राव सूरताण सिरोही ने
१ करोड पसाव मानसिह आमेर ने
१ करोड पसाव महाराणा अमरसिंह मेवाड ने
१ करोड पसाव महाराजा गजसिंह मारवाड ने
१ करोड पसाव जाम सत्ता ने
३ करोड पसाव अकबर बादशाह ने दिये जिन्हे जनकल्याण में खर्च किये अर्थात् तालाबो, कुओ, बावडियों इत्यादि के निर्माण में व्यय किया।

लाख पसाव के पुरूस्कार
दुरसाजी को कई लाख पसाव मिले जिन्हे सिरोही महाराव राजसिंह, अखेराजजी, मुगल सेनापति मोहबत खान व बैराम खान से प्राप्त हुए।

आउवा धरणा के अग्रज आढा
दुरसाजी आढा में अन्याय के खिलाफ लडने की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी। इस घटना का उल्लेख मुंहता नैणसी री लिखी मारवाड रा परगनां री विगत भाग 1 के पृष्ठ संख्या 78-79 पर हुआ है। “आढा दुरसौ नै दुणलौ रा आसकरण देवीदासोत रौ दीयौ थौ। पछै दुरसौ बाहारट अखा कन्है गयौ। पछै अखौ भलौ हुऔ। मोटौ राजा गुजरात नुं चालतौ हुतौ। आय सोजत डेरौ थौ। ऊठै काजेसर माहादेव चारणां तागो कीयौ। बारहठ अखौ भांण रौ घणा चारणां सुं मुवौ। घणा जणां गलै घाती। दुरसै गलै घाती थी, सु ऊबरियौ। संवत 1643 रा चैत माहे इतरा गांव लोपाणा परगनै जोधपुर रा।”

दुरसाजी आढा के नेतृत्व में आउवा का धरणा वि.स.१६४३ के चैत्र मास के शुक्ल पक्ष को कामेश्वर महादेव के मंदिर में हुआ था। इनके धरणे में इनके मुख्य सहयोगी अक्खाजी बारहठ आदि समकालीन चारण थे।

अतिविशिष्ट सम्मान प्राप्त दुरसाजी आढा

  • अचलेश्वर शिव मंदिर आबू पर्वत – आबू पर्वत के अचलेश्वर जी के शिव मंदिर में जहां शिवजी के अंगूठे की पूजा की जाती है वहां मंदिर में शिव जी के सामने नंदी के पास दुरसाजी आढा की पीतल की मूर्ति लगी हुई है जिस पर लगे लेख के अनुसार इनकी जीवित अवस्था में इस मूर्ति की स्थापना हुई। ऐसा सम्मान किसी कवि को नही मिला। इस मूर्ति पर वि.स.1686 (आषाढादि)(ई स 1630 वैशाख सुदि 5 का लेख है। आषाढादि गुजरात की गणना के अनुसार (राजपूताना के हिसाब से श्रावण) से प्रारंभ होने वाला वर्ष या संवत्। इस पीतल की मूर्ति के लेख पर शक संवत् 1552 लिखा है जिससे स्पष्ट है कि यह मूर्ति चैत्रादि वि.स.1687 (आषाढादि 1686 में बनी थी
  • पद्मनाथ मंदिर सिरोही – पैलेस के सामने इस मंदिर के बाहर हाथी पर सवार इनकी मूर्ति भी बडी महत्वपूर्ण है जो विष्णु मंदिर के बाहर लगी हुई है जो सदियो से उनके अतुल्य सम्मान का प्रतीक है जो दत्ताणी के युद्ध के बाद दुरसाजी आढा के सम्मान में स्थापित की गई थी।

दुरसाजी आढा साक्षीकर्त्ता(परठवार) के रूप में मूल्यांकन
दुरसाजी आढा का दत्ताणी खेत में योद्धा के रूप में लडने का उल्लेख उक्त ग्रंथों में नहीं हुआ है, किन्तु उनके प्रयास से ही मारवाड व सिरोही की दत्ताणी युद्ध के बाद मैत्री हुई थी। इनको साक्षीकर्त्ता (परठवार) मानकर दोनो रियासतें मैत्री भाव रखने के लिए वचनबद्ध हुई थी। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार महाराज सूरसिंहजी के अहमदाबाद से वापस लौटते समय महाराज कंवर गजसिंहजी, भाटी गोयन्दासजी आदि सामने आये थे। तब सिरोही सारों ही के साथ भेला हुआ और राजाजी, कंवरजी, भाटी गोयन्दास मानावत, भैरवदास, चारण दुरसाजी आढा इन सभी ने मिलकर जोधपुर व सिरोही राज्य के आपसी वैर को समाप्त किया। इसकी लिखत वि.स.१६६९ की जेठ सुद ९ सिरोही में लिखी गई। महाराज सूरसिंहजी व महाकंवर गजसिंहजी के वचनानुसार सिरोही के राजसिंह जी के वैर को समाप्त किया। समझौते के तहत सारणेश्वर के बीच में दत्ताणी के युद्ध में मारे गये २९ राजपूतों के भाईयों व बेटों को नारेल झीलाए यानि सम्बध तय हुआ। न केवल राजपूतों के सम्बंध हुए बल्कि बारहठ जी के वैर के बदले में ईसर बारठ जी के बेटे से दलाजी आसियां की बेटी परणायी गई। अर्थात दोनो पक्ष महादेव सारणेश्वर जी व दुरसाजी आढा को साक्षी मानकर वचन बद्ध हुए। इस वैर समाप्ती में दुरसाजी आढा की भूमिका बडी महत्वपूर्ण थी। जोधपुर राज्य की ख्यात के पृष्ठ संख्या 145-149 तक में इसका बडा विस्तृत वर्णन है और जगह जगह दुरसाजी आढा के लिए परठवार (साक्षी कर्ता) के रूप उल्लेख होना निश्चित ही उनके विराट व्यक्तिव का द्योतक है।

वि.स.1674 भाद्रपद सुदि 9 को कुंवर गजसिंह (जोधपुर वाले) ने जालोर को विजय कर वहां के थाने पर भाटी गोपालदास आसावत और भाटी दयालदास को नियत किया, तो महाराव राजसिंह ने दुरसाजी आढा, परवतसिंह रूद्रसिघोत सिसोदिया, देवडो रामो भैरवोत, चीबो दूदो मेहरोत, सहा तेजपाल ने मिलकर कहलाया, कि यदि तुम पृथ्वीराज को सिरोही की हद से निकाल दो तो हम तुमको 14 गांव देगे। इन सामन्तों ने मिलकर बात कुंवर गजसिंह को मालूम करवाई और उनकी स्वीकृति होने पर भाटी दयालदास जोधपुर की फौज के साथ पृथ्वीराज पर चढा और उसे उसने सिरोही राज्य से निकाल दिया, जिससे खूंणी परगने के 14 गांव जोधपुर वालों को दिये गये। दुरसाजी आढा द्वारा सिरोही महाराव राजसिंह के विद्रोही पृथ्वीराज के विरूद्ध मदद के परिणामस्वरूप उसी साल यानि वि.स.1674 को माघ सुद पंचमी गुरुवार के दिन राजसिंह ने दुरसाजी आढा पर प्रसन्न होकर झांकर गांव सांसण में दिया।

दुरसाजी आढा अपनी प्रख्यात कृति बिरद छिहत्तरी में कहते है।

मन अकबर मजबूत, फूट हिन्दवां बेफिकर।
काफ़र कोम कपूत, पकडूं राण प्रतापसी।।
अर्थात्- हिन्दूओं (राजाओं) की आपसी फूट के कारण अकबर के मन में मजबूती (हिम्मत)आ गई और बेफिक्र हो गया। कवि हिन्दूओं के उन राजाओं को कपूत(कुपुत्र)कह रहा है जो राणा प्रतापसिंह को पकड़ने के लिए अकबर का साथ दे रहे हैं।

इसी भाव के कारण दुरसाजी आढा ने जोधपुर व सिरोही रियासत में आपसी समझौता कराने का प्रयास किया। इस समझौते के साक्षी स्वरूप दुरसाजी आढा की मूर्तियां अचलेश्वर मंदिर व पद्मनाथ मंदिर में स्थापित हुई और चारण जो शिव के गण थे जो नंदी चारने के कारण चारण कहलाये। अतः आबू के अचलेश्वर मंदिर में नंदी के पास दुरसाजी आढा की जीवित अवस्था में मूर्ति लगी। ऐसा अद्वितीय सम्मान सुदीर्घ भारतीय इतिहास में दुरसाजी के अलावा किसी अन्य कवि को नहीं प्राप्त हुआ।

~डा. नरेन्द्र सिंह आढा झांकर
इतिहास व्याख्याता रा. उ. मा. वि. घरट सिरोही


 

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  1. कविराज दुरसाजी आढ़ा – जीवन परिचय

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