पूरा नाम | पद्मश्री भक्त कवि दुला भाया काग |
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माता पिता का नाम | पिताश्री का नाम भाया काग ओर मातृश्री का नाम धानबाई माँ था |
जन्म व जन्म स्थान | जन्म तुंबेल (परजिया चारण) कुल में सौराष्ट्र के महुवा के पास सोडवदरी गांव में 1958 कार्तिक वद अगियारस शनिवार 25 नवम्बर 1902 में हुआ। |
स्वर्गवास | |
वि.स. 2033 ता. 22 फरवरी 1977 | |
विविध | |
उनके द्वारा रचित “कागवाणी” 9 खंडो में प्रकाशित वृहत ग्रन्थ है जिसमे भक्ति गीत, रामायण तथा महाभारत के वृत्तांत और गांधीजी के दर्शन व भूदान आन्दोलन पर आधारित गीत संकलित हैं। | |
जीवन परिचय | |
दुला भाया काग (२५ नवम्बर १९०२ – २२ फ़रवरी १९७७) प्रसिद्ध कवि, समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका जन्म सौराष्ट्र के महुवा के पास सोडवदरी गांव में हुआ था। दुला भाया काग ने केवल पांचवी कक्षा तक पढाई करी तत्पश्चात पशुपालन में अपने परिवार का हाथ बंटाने में लग गए। उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी हिस्सा लिया। उन्होंने अपनी जमीन विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में दान दे दी। उनके द्वारा रचित “कागवाणी” 9 खंडो में प्रकाशित वृहत ग्रन्थ है जिसमे भक्ति गीत, रामायण तथा महाभारत के वृत्तांत और गांधीजी के दर्शन व भूदान आन्दोलन पर आधारित गीत संकलित हैं। उनकी रचनाओं का विषय अधिकतर भक्ति एवं परमार्थ होता था। उन्होंने गांधीजी तथा विनोबा भावे पर मर्सिये भी लिखे हैं। उन्हें वर्ष १९६२ में भारत सरकार ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मनित किया। हालाँकि उनकी अपनी शिक्षा केवल पांचवी कक्षा तक हुई परन्तु उनकी लिखी रचनाये प्राथमिक से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक पढाई जाती है। 25 नवम्बर 2004 को उनकी 102वीं जयंती पर भारतीय डाक तार विभाग ने उनकी स्मृति में 5 रुपये का टिकट जारी कर उन्हें सम्मानित किया। 22 फरवरी 1977 को उनका स्वर्गवास हुआ। प्रति वर्ष इस दिन उनके नाम से कागधाम में पांच पुरस्कार पूज्य मोरारी बापू द्वारा दिए जाते हैं। कवि श्री काग की कागवाणी(1) ( मर्म की मेहफिल और रूपक का भंडार) बीसवीं सदी में लोक साहित्य को उजागर करने का श्रेय श्री झवेरचंद मेघाणी को प्राप्त होता है। इसके साथ चारण परम्परा को एक नया रूप देने का कार्य कवि दुलाभाई काग ने किया। उनकी कविता धरती के अंदर से अंकुरित होते वृक्ष के समान है या फिर पत्थरों के अंदर से निकलती जलधारा के समान सहज, सरल एवं निर्मल है। कागवाणी की प्रस्तावना में कवि काग लिखते हैं, “काव्य रस की रसधारा में गोते खाते महान कवियों की भी आलोचकों ने साहित्यिक आलोचना की है, तो मैं तो निरा किसान हूँ, इसलिये मेरे काव्य में अनेक त्रुटियें होना स्वाभाविक है। इसमें कोई नई बात मुझे दृष्टिगत नहीं होती।” कवि काग अपनी मान्यता में दृढ़ निश्चय उजागर करते हुये कहते हैं, महामुनि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण लिखकर संस्कृत भाषा को लोकभाषा का प्राकृत रूप देने का प्रयास किया है। संस्कृत विद्वानों ने शुद्ध संस्कृत में लिखने के कार्य को खूब महत्त्व दिया, परन्तु साहित्य अनुरागीयों तक नहीं पहुंचा सके। साहित्य और भाषा लोक समूह में जन-जन हृदय में बस जाय, ऐसा कार्य चारण कवियों ने के करके लोक भाषा एवं प्राकृत को जोड़कर किया। श्री जयभिक्षु ने कवि काग का परिचय देते हुओ लिखा कि, वि.सं. 1973 में 17 वर्ष की आयु में फूटी यह सरस्वती कभी मंद गति से कभी वेग से हिलोरें लेती निरंतर बहती ही रही। इसने अनेक अकताराओं को सदा गुन्जायमान रखा। अनेक सभाओं में इनके काव्य गीतों ने गर्जना भरी, एवं अनेक रात्रियों में इनकी भजन रचनाओं ने लोगों के हृदय को झंझोरा है। पाषाण को भी पिघाल देने की क्षमता कवि काग की रचनाओं में है। इसीलिये इनकी रचनाओं को रूपक का भंडार और मर्म की मेहफिल कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। अज्ञान के अंधकार को गुरुकृपा से ही दूर किया जा सकता है। इस हेतु दीपक एवं सूर्य की उपमा देते हुये कहते हैं : कोटि दीपक परगट करो, अनेक महंत, मठाधीश एवं गादीपति कितने ढकोसले वाले और खोखले हैं, उस हेतु उनके विचार दृष्टव्य हैं : जीव ने नथी पुण्य है के पाप जरे, वर्तमान समय में समाज के लोग अंधविश्वास में डूबे हुये जब कवि काग को नजर आते हैं तो बड़े मार्मिक शब्दों में कवि ने उन्हें मार्गदर्शन दिया। मंदिरों के वैभवशाली ठाठ एवं छप्पन भोग देखकर कवि काग का हृदय कानदास मणेक के समान तिलमिला उठता है| धरे थाल पूजारी त्यां बेऊ समे, सत्य की उपासना प्रभु प्राप्ति का मार्ग है। इसकी पुष्टि करते कवि काग उपदेश की वाणी में कहते हैं, “छोड़े दे संसार में, असत्य की उपासना।” घटाई दे घट में भरी, चारणी साहित्य में व्रजभाषा व वाक्य रचना का उपयोग सामान्य था जिसका प्रभाव उपरोक्त पंक्तियों में दृष्टव्य है। कवि काग धर्म के साथ व्यवहार कुशल होने का आव्हान करते हैं। कुलीन व्यक्ति जन्म से नहीं परन्तु सत्कर्म से अपनी पहचान बनाते हैं। यह बात उन्होंने बड़े ही सरल ढंग से कही : सदा निज धर्म संभाळे, इसी भांति फकीर का वर्णन करते समय उनके रूपकों में, उपमेय और उपमान दोनों निखर उठते हैं। गुणों का वर्णन बिना उपमा के अस्पष्ट एवं अधूरा लगता है: ऐनुं नाम फकीर जेनी मेरू सरखी धीर, ईश्वर की अनगिनत शक्तियों को प्रत्यक्ष देखते हुये भी मनुष्य उसके अस्तित्व पर संदेह करता है तब कवि की जिज्ञासा एक अनोखी एवं अद्भुत अभिव्यक्ति प्रस्तुत करती है :- कळा अपरंमार वाळा ! ऐमों पोचे नहीं विचार कवि काग ने महाभारत एवं रामायण के प्रसंगो पर भी बड़ी मार्मिक रचनायें लिखी। सती सीता की जीवन व्यथा उन्होंने करूण रस में बड़े ही सुन्दर शब्दों में की है : सखी रे! सवारे शणगार उतारिया गोकुल की गोपिका के विरह को काग ने वेदना भरी वाणी में दर्शाया है: कृपा करो कांनजी काळा ! गोपी के समान ही बड़े सरल भाव से कवि पीपावाव के रणछोड़जी की स्तुति करते हुये मानवी मर्यादा का निरूपण बड़े ही सुन्दर ढंग से करते है :- वदे गुण भुजंग वेदं विशालं, कवि काग और कवि श्री राजेन्द्र शुक्ल की रचनाओं में कितना सामंजस्य है उसका उदाहरण दृष्टव्य है कोनी दीवासली? कोना देवता ? पंचतत्व का सबसे दैदिप्यमान तत्व अनि पोषक एवं संहारक है। नश्वरता की बात के साथ शेष रह जाती है राख। अविनाश व्यास की रचना “राख नां रमकड़ा” और हरिहर भट्ट की, “अंकज दे चिनगारी” जैसी मार्मिक रचनायें कवि काग की भक्ति भावना से मेल खाती है। ये आध्यात्मिकता एवं दर्शनशास्त्र का ज्ञान देती है। काग की लोक साहित्य एवं दूहों की रचनायें भी अद्वितीय है। चूहे और सर्प के रूपक के साथ कवि प्रमाणित सत्य प्रदर्शित करते हैं: दीपावे दर ने, अनहद मेनत आदरी, परिश्रम कोई करे और उस परिश्रम का फल कोई और भोगे, यह कैसी विडम्बना है ? इस पहेली को कवि ने उपरोक्त दोहे से प्रकृति के नियम को समझाया है कि, “चूहा अपनी सुरक्षा हेतु बड़े परिश्रम से अपना बिल खोदता है. परन्तु सर्प आकर उसका भक्षण करके बिल में अपना घर कर लेता है।” सर्प की प्रवृति विषैली है। उसको भी उदरपूर्ती हेतु चूहे का भक्षण करना पड़ता है। यह प्रकृति का नीयम है। विष सर्प के साथ ही जन्म लेता है। विष के बिना सर्प ही कैसा इन दोनों के चोली दामन का साथ प्रकृति ने कर दिया तो उसको कोई कितना ही प्रयास करे मिटा नहीं सकता। इस तथ्य को बड़े ही सुन्दर शब्दों में कवि ने दर्शाया है : – ऐ कुल झेरी (जहरी) आप (ऐमां) “कवि कहता है, हे काग! शिवजी की जटामें गंगा की धारा है और सर्प भी है पर गंगा की पवित्र धारा भी सर्प के विष का नाश नहीं कर सकती। शिव के शीश पर चंद्रमा भी विराजमान है परन्तु चंद्र की शीतलता भी सर्प के विष को मिटा नहीं सकती। यह तो प्राकृतिक नीयम है इसे कोई मिटा नहीं सकता।” भाग्य बड़ा या पुरुषार्थ, इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं। कर्म का फल किस प्रकार मिलता है। यह किसी से छुपा नहीं है। कवि काग एक असामान्य घटना दर्शाकर और किस्मत का बड़ा सुन्दर दृष्टांत सर्प और चूहे के छोटे से रूपक द्वारा प्रस्तुत करते हैं : ऐरू मळियौ आर, एक रात्रि में किसी जोगी ने सर्प को पकड़ा और उसे छाबड़े के नीचे रखकर सो गया। छाबड़े में रोटी के सूखे टुकड़े थे। सर्प रोटी के टुकड़े खाता नहीं। भूख से व्याकुल वह छटपटा रहा था। उधर चूहे को रोटी की सुगन्ध आई। बड़े परिश्रम से उसने उस छाबड़े को अपने पेनै दांतां से काटा और रोटी तक पहुंचने हेतु अंदर प्रवेश किया। भूखे सर्प ने चूहे का भक्षण करके, चूहे द्वारा बनाये गये छेद से बाहर निकल गया। कवि बड़ा ही दार्शनिक प्रश्न करता है, परिश्रम बड़ा या किस्मत? इसी भांति समाज कंटक व्यक्तियों की तुलना कुल्हाड़ी से करते हुये कहते हैं कि कुल्हाड़ी अकेली वृक्ष को नहीं काट सकती। जब तक उसको चलाने हेतु पीछे डंडा न हो। वही हाल सज्जन पुरुषों का है। डंडे रूपी सज्जन पुरुषों को आगे करके उनकी ओट में दुर्जन पुरुष कुकृत्य करते हुने अंततोगत्वा सज्जन पुरुषों का ही नाश करके अपना वर्चस्व स्थापित करके मौज उड़ाते है : हातो भांग्यो होय (तो) कुवाड़ी बीजो करे, “चालाक पुरुष दूसरों को हाथ में लेकर डंडे की भांति उपयोग करके उनके हाथों से ही पूरे कुल का विनाश कर देते है। डंडे बिना कुल्हाड़ी चल ही नहीं सकती। ब्रह्मांड की अगाध सीमायें और उस पर टिमटिमाते तारामंडल और ग्रहां को देखकर कवि विस्मित होकर कहता है ऊभो विण थंभ आभ, लांखु ग्रह लटक्या करे “बिना थंभे के आकाश किस आधार पर टिका हुआ है और असंख्य तारे किस आधार पर टिमटिमा रहे है। इसका उत्तर मिलता ही नहीं।” इस आधार पर अपनी इस उक्ति पर प्रश्न करते हैं : चांदो ने सूरज नाम, ” ज्योतिषि को पूछकर चांद और सूरज नाम रखा परन्तु दोनों एक दूजे के विपरीत है। एक शीतल है दूसरा आग उगलता है। उसी प्रकार राम और रावण की एक राशि होते हुए भी, एक राक्षस गुणी है दूसरा देवगुणी। इसका कारण समझ में नहीं आता । श्री गोकुलदास रायचुरा अपनी प्रस्तावना में कवि काग की महत्ता दर्शाते लिखते हैं: जिस प्रकार तीव्र ताप से धधकती धरती वर्षा की राह देखती है और मोर अपने पंख फैलाकर छटा बिखेरता है उसी प्रकार पाप में डूबी इस धरती को उबारने हेतु कोई अवतारी पुरुष जन्म लेता है। उस विकट घड़ी में सच्चा कवि अपनी कलम एवं कंठ से त्रसित मानव को मार्गदर्शन देकर अपना कवि धर्म निभाता है। वो विद्वान हैं, मानवत्ता के पुजारी है। कविता की कामधेनु उन्हें ईश्वरीय प्रसाद के रूप में प्राप्त हुई है। जिसने कवि काग की कविता उनके कंठ से न सुनी हो या फिर मेरूभा गढवी की घेघूर राग में और रतिलाल व्यास की तलपदी फलक में न सुनी वह निश्चय ही गुजरात की मूल परम्परा के वैभव से वंचित ही रहा। (2) “नमो हिन्द ना पाटवी संत नेता’ गांधीयुग के लोक कवि तरीके काग का योगदान सराहनीय है। कागवाणी के तीसरे भाग के आमुख में श्री गोकुलदास रायचुरा के शब्दों में कवि काग पर गांधी का प्रभाव दर्शाता है। कवि के साथ प्रथम मिलन, उनका जीवन पर्यन्त नाता रहा। कवि काग के गांधी विषयक काव्यों हेतु श्री झवेरचंद मेघाणी लिखते हैं : गांधीजी पर अनेक कवियों ने अपनी रचनायें लिखी परन्तु कवि काग की कवितायें सुनने के पश्चात यह मेरा दृढ़ निश्चय है कि गांधीजी के जीवन पर इतनी बारीकी से लोकवाणी में किसी भी कवि ने नहीं लिखा। इनकी शैली अनूठी एवं मार्मिक है। गांधीजी के व्यक्तित्व एवं कार्य पद्धति को उजागर करते “केनां नमन” काव्य, हिन्द की दुर्दशा एवं उनका दुःख दूर करने हेतु महात्मा को समर्पित ये पंक्तियें बड़े सबल ढंग से प्रस्तुत की : दोहा इस दोहे में गांधीजी के कृशकाय शरीर की तुलना सुदामा से की परन्तु उनकी शोभा हिन्द के नूर कहकर की। सुदामा दरिद्र है परन्तु नारायण का उपासक है, भक्त है। राष्ट्र की तुलना प्रभु से करते हुअ गांधी को हिन्द के नूर से संबोधित किया है। आगे कहते हैं: (छंद भुजंग प्रयात) कवि काग ने उपरोक्त पंक्तियें सन् 1934 में लिखकर गांधीजी को श्रद्धांजलि अर्पित की वे देश को स्वतंत्रता दिलवायेंगे। सुदामापुरी पोरबंदर के किनारे पर जन्मा यह महात्मा देश का पाटवी राजकुमार है, संत है, लोकनेता है। थोड़े ही शब्दों में कवि ने गांधीजी का चित्र बड़े ही सटीक ढंग से प्रस्तुत किया। कवि गांधीजी के आदर्श को निम्न प्रकार दर्शाता है: तुं ही मात ना घोर दुःख धवायो, परतन्त्रता एवं गरीबों के दुःख निवारण हेतु महासंग्राम छेड़कर अग्रिम पंक्ति (हरोल) में आगेवान रहकर लड़ने वाले इस महात्मा का देश में जागृति फैलाने का अनुपम योगदान था। राष्ट्र में आये मूलभूत परिवर्तन का कवि ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में सटीक वर्णन किया है। हिंद स्वराज के नायक एवं शिल्पी, महात्मा गांधी की कार्यशैली पर कवित्त लिखता है: तुं ही युद्ध मां, नाहि तोपां धड़ाका, अहिंसक युद्ध का अनोखा पक्ष। न तो तोपों के धड़ाके न तलवारों से मारकाट, न कहीं लाशों के ढेर जहां गिद्ध मंडराये……. गांधीजी की अहिंसा की उपासना एवं अन्याय के सामने सिर न झुकाने का संकल्प उनके दृढ़ निश्चय एवं निर्भीक व्यक्तित्व को उजागर करता है। आजादी के इस कठिन एवं लम्बे अभियान हेतु गांधीजी को कितनी यातनायें सहनी पड़ी उसका वर्णन देखिये: सुन्घवा समो तुं कडा मां तळाणो, सुन्यवा की पौराणिक कथा को आधार करते हुये कवि कहता है कि, स्वेच्छा से अनेक यातनायें सहते हुऐ, गांधीजी राज्यसत्ता और विरोधियों के प्रहार के बीच जूंझ रहे हैं। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार गन्ने का रस निकालने हेतु दो पाटों के बीच उसे निचोड़ा जाता है। परन्तु गांधीजी तनिक भी विचलित न होते हुअ सभी यातनायें सहज भाव से झेलते हुने दृढ़ निश्चय से अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ते हैं। 1931 में विलायत में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गये गांधीजी के प्रवास हेतु कवि कहता है: तुंही म्हेल, दुःशासने ना अंजाणो, लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में केवल एक धोती में जाकर अपने देश की गरीबी हालत का संदेश दिया। अंग्रेज सरकार की तुलना दुशासन की उपमा देकर करी जिन्ना की मुस्लिम राष्ट्र की मांग एवं अम्बेडकर की दलितों हेतु अलग मतदान मंडल की मांग गांधीजी बड़े शांत भाव से सुनते हैं। परन्तु बड़ी ही निर्भीकता से उनका खंडन भी करते हैं। गांधीजी का एकमात्र लक्ष्य था स्वराज। इस हेतु कवि कहता है: भूख्यां बाळ के मा मने भात दे ने, गरीबों और दलितों का हित जिसके हृदय में बसा हुआ है, ऐसे महात्मा पर देश के करोड़ों लोगों को इतना भरोसा है कि वे कहते हैं कि हमारी आजादी एवं रोटी के लिये यह दुबला पतला इंसान जूंझ रहा है। उसकी विजय निश्चित है। कविवर रवीन्द्रनाथ ने लिखा था, “दीन-दुःखियों की झोंपड़ी में जाकर उनके साथ घुलमिल कर उनके चेहरों पर विश्वास की मुस्कान देकर गांधीजी उनके ही बनकर रह गये।” नेता जब लोगों के साथ घुलमिल कर एकाकार हो जाते हैं तो प्रजा और उनके बीच की दूरीयाँ मिट जाती है। और प्रजा से हमेशा ऐसे नेताओं को पूर्ण सहयोग मिलता है। गांधीजी की इस शक्ति को बिरदाते हुये कवि कहता है: महाशक्ति नो घोघ तुं ? बंध जाडा, 1930 के दशक में गांधीजी का प्रभाव देश में व्यापक था। उनका एक-एक शब्द लोगों के हृदय में कंपन पैदा करता था। उनको बार-बार प्रशासन द्वारा कारावास में इसीलिये भेजा जा रहा था कि उनका प्रभाव कम पड़े परन्तु जिस प्रकार पहाड़ों के बीच से जलधारा फूट पड़ती है उसी प्रकार आजादी का यह आंदोलन रंग पकड़ रहा था। कवि देश के गरीबों के हित में स्वराज की दुहाई देता है। गरीबों को भोजन मिले इस हेतु गांधीजी संघर्ष कर रहे हैं। अपनी मातृभूमि के दुःख के कारण गांधीजी को रात में नींद नहीं आती है। यह कहकर कवि गांधीजी के पुरुषार्थ एवं कटिबद्धता को श्रद्धान्जलि अर्पित करता है। उनके सबल नेतृत्व का वर्णन करते हुये कवि कहता है: तुंही मौलवी दीन नी बांग दीधी, जिस प्रकार अजान की बांग मुसलमान को उसके नमाज पढ़ने की याद दिलाती है उसी प्रकार गांधीजी के आव्हान से देश में इतनी जागृति आ गई है,। मानो उनकी आवाज ईश्वर तक पहुंच गई हो। उसकी गूंज पूरे विश्व में गूंज उठी। सदीयों से शोषण करने वाली सरकार हिल गई। अंग्रेज सरकार की तुलना दुःशासन एवं दैत्यों के राज्य से करके कवि ने गांधी युग के राष्ट्र प्रेम को निडर रूप से प्रस्तुत किया। गांधी वंदना के अतिरिक्त समाज में जो कुरीतियें थी एवं आज भी है, उसके लिये कवि के हृदय में पीड़ा एवं आक्रोश है। समग्र समाज और उसका प्रत्येक अंग यदि इस स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्ण रूप से योगदान न करे तो राष्ट्र का नवनिर्माण संभव नहीं। तत्कालीन रजवाड़ों के नरेशों का चारण कवि यशोगान करते थे, उस समय कवि काग राज्याश्रित कवियों को खरी खोटी सुनाई:- सुणियां गीत सागर पार जई, आजादी के 63 वर्ष पश्चात भी आज के शासकों के प्रजा ये ही पंक्तियां फिर से सुनावे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कवि न्याय मांगता है, शासकों से कुशासन के स्थान पर सुशासन की अपेक्षा करता है। इसी प्रकार कवि कागने उस समय के सरकारी अधिकारियों को भी आड़े हाथों लेते हुओ फटकारा है ओक पापीया पेट रे कारणिये, समाज में पसरती व्यापक कुरीतियों से दुःखी कवि ने व्यापारी वर्ग को भी आड़े हाथों लिया: अति लांधणीया भूरा सावज ना, कवि की यह फटकार उस समय के व्यापारी वर्ग हेतु ही नहीं थी, परन्तु आज के व्यापारी वर्ग हेतु भी उतनी ही प्रासंगिक है। आजादी का मीठा स्वाद सभी को प्राप्त हो ऐसे सर्वोदय समाज की रचना बिना, गांधी युग का स्वप्न अधूरा ही रह जायेगा। कवि काग उस जमाने के आदर्शों को अपनी रचनाओं में उजागर करके लोक कवि के रूप में निखर आये। (3) कवि काग लिखते हैं, “रामायण” तो मेरे रोम-रोम में रम रहा ग्रन्थ है। कवि ने रामायण के प्रसंगों को अपने काव्य एवं दोहों में उजागर किया है। श्रीराम को प्रभु अवतार माना गया है, परन्तु राम में सामान्य मानवीय गुण अवगुणों का निरूपण करके उसका निचोड़ प्रस्तुत करने का दुर्लभ कार्य कवि काग ने अपनी रचनाओं में किया है। कवि काग जब केवट द्वारा कहलवाते हैं, “पग म्हनें धोवाद्यो ने रघुरायजी” तो एक साधारण जन के हृदय से निकली श्रद्धा व भक्ति की भावना दर्शाते हुऐ, उसकी चतुराई को भी उजागर करते हैं। भवसागर पार करवाने वाले भगवान को नदी पार करवाने वाला नाविक “आपण धंधा भाईजी” कहकर मजदूरी लेने से मना करता है, यह कल्पना अद्भुत है। तुलसीकृत रामायण में गृहराज निषाद की प्रभु के पैर धोने की विनती का सुन्दर वर्णन है परन्तु नदी पार करवाने की मजदूरी स्वीकार न करने का कारण निषादराज कहते हैं: नाथ आजु मैं काह ना पावा, मिटे दोष दुःख दारिद दावा, कवि काग का केवट कहता है: तमने हुं गंगा पार करूं केवट और रामजी के संवाद में, ईश्वर और मनुष्य का ऐकाकार कितने सहज रूप से प्रस्तुत किया है। यह कवि काग की कविता का सौन्दर्य है। काग की ऐसी ही कल्पना उनकी “कांकरी” नामक रचना में दृष्टिगोचर होती है। राम नाम से पत्थर तैरे और गिलहरियों ने रेत के कण डालकर तर्पण किया, यह बात जगजाहिर है। पर यहां तो एक नई बात नजर आती है: कुळ रावण तणो नाश कीधा पछी, प्रभु के नाम से दंभ चले, शोषण हो, चमत्कारों का मायाजाल रचा जावे, लोगों में अंधविश्वास व्याप्त हो, ऐसा वातावरण युगों-युगों से चलता आया हैं कवि कहता है: ऐज विचार मां आप ऊभा थया, स्वयं की परीक्षा करनी कितनी कठिन है। स्वयं के अंदर का राज कोई जान ले तो ? यह प्रश्न मानव को अपारदर्शक पड़दे के पीछे छुपने हेतु प्रेरणा देता है। जब मन शंका और अविश्वास से व्याकुल होने लगता है, तब मानव उससे छुटकारा पाने हेतु छटपटाता है। अंतरमन में गोते खाते व्यक्ति को समाज अकेला कब छोड़ता है ? चतुर हनुमानजी बधुंय समजी गया, कवि समग्र घटना के साक्षी बनने का हनुमानजी को श्रेय देते हैं। वायु स्वरूप सर्वत्र विद्यमान, हनुमानजी राम को अकेला कैसे छोड़ सकते हैं। वे तो हर पल हरक्षण राम के ही पास में रहना चाहते हैं। पहरेदारों की नजर बचाकर मायावी अहिरावण – महिरावण ने राम लक्ष्मण का हरण कर लिया था तब उनको छुड़ाने की युक्ति हनुमानजी ने ही निकाली थी। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ ऐसे राम सेवक हनुमान प्रभु का ध्यान सदैव रखते हैं। इसीलिये स्वामीभक्त कहलाते हैं। कवि काग अपनी कल्पना रूपी पतंग को थोड़ी ढील देकर उसे और ऊपर चढ़ाते हैं। तीर सागर तणे वीर ऊभा रव्हा, सामान्य जन स्वयं की परीक्षा करते समय यह चिन्ता करते हैं कि इसका परिणाम क्या आयेगा। उस समय डर और अनिश्चितता उसके चेहरे पर छा जाते हैं। भय एवं कौतुहल के मिश्रित भाव से वह चारों और नजर घुमाता है और अपने को अकेला पाता है। उसे कोई देखता तो नहीं। वृक्ष की ओट में छुपे हनुमान विस्मय से देखते हैं, अब प्रभु क्या करेंगे? फेंकता काकरी तुरंत तळीये गई, “राम के मन में यह शंका थी कि क्या यह कांकरी तैरेगी ? पर कांकरी न तैरी । वह डूब गई। दशरथ नंदन राम को आघात पहुंचा। उनका सत्व कोई चोर लुटेरा ले गया, ऐसा उन्हें आभास हुआ। जो चीज मन में हो और वह क्रियान्वित न हो तो पश्चाताप होता है, दुःख होता है। राम का चेहरा ग्लानी से मुर्झाता नजर आया तब पेड़ की ओट से हनुमानजी प्रकट होते हैं : चरणां में जई कपि हाथ जोड़ि कहे, पतित उद्धारण नाम तिहारो और अमंगल को मंगल करने वाले रामजी के विरुद्ध की दुहाई देकर दासत्व स्वीकार कीये हनुमानजी पूछते हैं “कि यह विचार आपके मन में कैसे आया ?” कवि इसका उत्तर नहीं देता पर पाठक स्वयं समझ सकता है कि इसका कारण राम के मन की शंका है। सामन्य मानव के समान राम को समझते, कवि किस रोचक एवं कलात्मक ढंग से राम की महत्त्वता स्थापित करते हैं : तारनार बनी नीर मां धकेलो, हनुमानजी क्षमायाचना करते कहते हैं कि हे प्रभु! आप रक्षक हो, तारणहार हो, अशरण को शरण देने वाले शरणागत हो, दीनदयाल हो, मोक्षदाता हो, तो जिसकी बांह आपने थाम ली उसे आप कैसे मझधार में बेसहारा फेंक सकते हो ? उसको आपके बिना कौन आश्रय देगा ? प्रभु को मानवीय पक्ष से निकालकर देवत्व पक्ष में ले जाने की क्षमता एवं कल्पनाशक्ति कवि काग में है। मनुष्य अवतार में शरीर धारण करने से प्रभु में मानव के गुण अवगुण दृष्टीगोचर होते हैं। “कांकरी” काव्य के अतिरिक्त कवि काग की “ऊंघ भागे” काव्य रचना में दूसरी प्रकार की कल्पना हमें नजर आती है। लंका के समुद्र तट पर राम सेना ने पड़ाव डाला। प्रति दिन रात्रि के समय राम के चरण दबाने की सेवा का लाभ अंगद और हनुमानजी ले रहे हैं :- अंगद वनराज, ने मित्र हनुमानजी, शंका और वहम का प्रभाव मन पर पड़ता है। शांत पानी में कंकरी पड़ते ही जैसे लहरें उठती है उसी प्रकार हनुमानजी के मनमें शंका उठने लगी। अंगद भी कार्यकुशल एवं नीतिवान है। उसके मन में भी शंका जागृत हुई। दोनों के मन चित में शंका की तरंगे हिलोरें खाने लगी। क्या शंका पैदा हुई इसका खुलासा कवि करता है : हाथ जोड़ि करी विनती हरि ने हनुमानजी और अंगद को राम से शिकायत है। वे कहते हैं हम तो आपके पुराने दास हैं। हम जब आपके पैर दबाते हैं तो आराम से आप नींद लेते हैं, और कल के दिन विभीषण आपकी शरण में आया उससे नींद लेते-लेते आप बातें भी कर लेते हैं और उसकी ओर प्यार भरी नजरों से भी देख लेते हैं। हम पुराने सेवकों के बाद में आया यह राक्षस कुल का प्राणी राम का प्रिय कैसे बन सकता है। इतना भेदभाव क्यों प्रभु ? इतना भेदभाव क्यों ? हनुमान और अंगद की मनोवेदना बढ़ जाती है। वे ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगते हैं। वे राम से फिर कहते हैं : आपना मुख तणी वात सुणवा तणुं, अंगद और हनुमानजी ने अपनी मन की व्यथा रामजी को कह सुनाई। राम का प्रेम विभीषण पर विशेष क्यों उसके साथ बातें करने का क्या तात्पर्य । क्या कारण है कि हम वानरों से तो मौन रहें और विभीषण से बातें करें ? प्रश्न स्वाभाविक थे और उनका उत्तर भी आज का आज, तत्काल चाहते थे ताके शंका समाधान हो जाय। यहां सेवक और स्वामी के बीच अनन्य प्रेम और ऐकाधिकार की भावना दृष्टव्य है। काव्य के अंत में इस सामान्य शंका का समाधान कवि रामजी के मुख से करवाकर हनुमानजी और अंगद को संतुष्ट कर देते हैं। रामजी कहते हैं: – मुज तणे काज जीव्या करो जगत मां राम उनके प्रिय सेवकों के समर्पण की भावना को समझते हुये कहते हैं कि तुम्हारा जीवन ही मेरी सेवा हेतु समर्पित है। तुम मेरे प्रिय हो। आगे कहते हैं : सत्य थी कहुं हुं, नीरखतां भय मने, “शत्रु (रावण) का भाई भक्त अवश्य है पर है शत्रु खेमे का, इस कारण मन में शंका रहती है। अतः नींद लेते-लेते कभी आंख खोलकर उससे बात कर लेता हूँ। तुम तो मेरे अपने हो अतः जब तुम पैर दबाते हो तो निश्चित होकर मैं नींद ले लेता हूँ। विभीषण तो अभी आया ही है वह पराया है। अत: उसकी उपस्थिति में सचेत रहना आवश्यक है।” भगवान राम का स्पष्टीकरण कितना तार्किक है। समाज और परिवार के व्यवहार में आत्मीय स्वजनों और मित्रों के मन में शंका पैदा होना स्वाभाविक है। उसके साथ ही नीति यह कहती है कि पूर्ण परिचित कोई न हो तब तक उससे सावधान भी रहना आवश्यक है। राम का यह तर्क कितना नीति संगत है। हरीन्द्र दवे का यह तर्क कितना सार गर्भित है, ‘अपने संबन्धों में कमी नहीं होती, परन्तु संबन्धों से अधिक अपेक्षायें होती हैं।’ यह मत हनुमान राम संवाद में अक्षरस खरा उतरता है। आत्मीय भाव – पूर्व अग्र सचिव श्री |
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जे हो जे हो काग बापू 🙏🙏🙏🙏🙏