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भक्तिमति समान बाई (मत्स्य की मीराँ)

भक्तिमति समान बाई (मत्स्य की मीराँ)

पूरा नामभक्तिमति समान बाई (मत्स्य की मीराँ)
माता पिता का नामकवि रामनाथजी कविया की पुत्री थी
जन्म व जन्म स्थानविक्रम संवत् १८८२ में सियाली ग्राम में समानबाई का जन्म हुआ
स्वर्गवास
समानबाई ने संवत् १९४२ की श्रावण बदी अमावस्या के दिन अपनी नश्वर देह का परित्याग कर परम तत्व में स्वयं को विलीन कर दिया।
अन्य
  • रामनाथजी के परशुरामजी, हरगोविन्दजी एवं देवीदानजी नाम से तीन पुत्र थे। समानबाई रामनाथजी की सबसे छोटी एवं एक मात्र पुत्री थी
  • समानबाई की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही अपने पिता रामनाथजी द्वारा प्रारम्भ हुई।
  • समानबाई का विवाह अलवर राज्यान्तर्गत किशनगढ़ के पास माहुँद ग्राम के ठाकुर रामदयाल जी के साथ हुआ था जो प्रसिद्ध कवि उम्मेदसिंह जी पालावत के प्रपौत्र थे।

 जीवन परिचय

राजस्थान की पुण्यधरा में अनेक भक्त कवयित्रियों ने अपनी भक्ति भावना से समाज को सुसंस्कार प्रदान कर उत्तम जीवन जीने का सन्देश दिया है। इन भक्त कवियित्रियों में मीरां बाई, सहजो बाई, दया बाई जैसी कवियित्रियाँ लोकप्रिय रही है। इनकी समता में मत्स्य प्रदेश की मीराँ के नाम से प्रख्यात समान बाई का अत्यंत आदरणीय स्थान है। राजस्थान के ग्राम, नगर, कस्बों में समान बाई के गीत जन-जन के कंठहार बने हुए हैं।

पितृ कुल का परिचय:
समान बाई राजस्थानी के ख्याति प्राप्त कवि रामनाथजी कविया की पुत्री थी। रामनाथजी के पिता ज्ञान जी कविया सीकर राज्यान्तर्गत नरिसिंहपुरा ग्राम के निवासी थे। रामनाथ जी के अतिरिक्त ज्ञान जी के तीन पुत्र थे। इनका अवस्थानुक्रम से जालजी, खूमजी एवं शिवनाथजी नाम था। इन चारों भाईयों में शिवनाथजी एवं रामनाथजी अपनी विद्वता एवं काव्य प्रतिभा के कारण तत्कालीन तिजारा नरेश बलवन्तसिंह जी के कृपा-पात्र बने। बलवन्तसिंह जी ने ‘सियाली ग्राम’ शिवनाथजी को प्रदान किया। इसी सियाली ग्राम में समानबाई का जन्म विक्रम संवत् १८८२ में हुआ था। रामनाथजी एवं शिवनाथजी सियाली में ही निवास करने लगे थे किन्तु बलवन्तसिंह जी की मृत्यु के पश्चात अलवर नरेश विनय सिंहजी ने सियाली ग्राम जब्त करके बदले में रामनाथजी एवं शिवनाथ जी को सटावट ग्राम प्रदान किया परिणामत: रामनाथजी ने सटावट में रहना प्रारम्भ किया। रामनाथजी के वंशज अब भी इसी ग्राम में निवास करते है।

रामनाथजी के परशुरामजी, हरगोविन्दजी एवं देवीदानजी नाम से तीन पुत्र थे। समानबाई रामनाथजी की सबसे छोटी एवं एक मात्र पुत्री थी, इसलिए इनका लालन पालन अत्यन्त स्नेह-पूर्वक हुआ था। जैसा कि कहा जा चुका है, रामनाथजी स्वयं एक अच्छे कवि थे। इनके द्वारा रचित “द्रौपदी-विनय” एवं “गंगाजी के दोहे” में राजस्थानी साहित्य में कवि की भक्ति भावना और हृदय की सरसता भली प्रकार से व्यक्त हुई है।

समानबाई की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही अपने पिता रामनाथजी द्वारा प्रारम्भ हुई। ईश्वर भक्ति के संस्कार आपमें प्रारम्भ से ही थे। पिता की भक्तिभावना और काव्य-प्रतिभा ने इनके विकास मे और भी योग प्रदान किया। परिणामत: आप प्रारम्भ से ही स्वरचित गीतों तथा पदों के माध्यम से भगवच्चरणों में भाव-पुष्प अर्णित करने लगी।

पति कुल का परिचयः
समानबाई का विवाह अलवर राज्यान्तर्गत किशनगढ़ के पास माहुँद ग्राम के ठाकुर रामदयाल जी के साथ हुआ था जो प्रसिद्ध कवि उम्मेदसिंह जी पालावत के प्रपौत्र थे। उम्मेदसिंहजी जयपुर राज्य में शाहपुरा के पास स्थित हणूंतिया ग्राम में निवास करते थे। उम्मेदसिंहजी को तत्कालीन अलवर नरेश बख्तावरसिंह ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित हो अलवर के समीप भजीट एवं मदनपुरी ग्राम प्रदान किए एवं साथ ही सम्मानार्थ ताजीम भी दी। बिसाऊ के ठाकुर श्यामसिंहजी ने उन्हें झुंझनू में दिलावरपुर ग्राम भेंट किया। कालान्तर में उम्मेदसिंहजी के पौत्र रूपसिंहजी की मृत्यु के पश्चात उनके दत्तक पुत्र ठा. रामदयाल को माहुँद ग्राम प्रदान किया गया।

उम्मेदसिंहजी के भाई बारहठ चैनरामजी थे जिन्हे अलवर नरेश ने अलवर के समीप ही गुजूकी ग्राम का अर्ध भाग दिया। अलवर महाराज से ही अनुरोध करके आपने अपने मित्र, गोविन्दपुरा निवासी उम्मेदरामजी पालावत को गुजूकी के समीप नंगला ग्राम दिलवाया।

जैसा कि कहा जा चुका है, उम्मेदसिंहजी एक अच्छे कवि के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। आपके द्वारा रचित मूसी महारानी का सती वर्णन छप्पय छन्द में लिखा हुआ एक मौलिक काव्य ग्रन्थ है। चाणक्य नीति एवं हितोपदेश आपकी अनूदित रचनाएँ है। अलवर नरेश बख्तावरसिंहजी के निधन पर आपने “बख्तावरसिंहजी के मरसिये” शीर्षक से शोक-काव्य की रचना की।

उम्मेदसिंहजी के पुत्र चंडीदानजी एवं पौत्र रूपसिंहजी थे। रूपसिंहजी के कोई सन्तान नही थी, अत: कवयित्री के पति रामदयाल जी को उन्होंने हणूंतियां से ही गोद लिया था। आगे चलकर रामदयाल जी भी नि:सन्तान रहे। रामदयालजी ने अपने भाई ठाकुर बालमुकुन्दजी के पुत्र गंगासिंहजी को गोद लिया। गंगासिंहजी के चार पुत्र हुए-बलवंतसिंहजी, फतहसिंहजी, उदयसिंहजी एवं किशोरसिंहजी।

पितृ कुल के समान पति कुल में भी श्रीमती समानबाई को अपनी भक्तिभावना के अनुरूप वातावरण प्राप्त हुआ। विवाह के उपरान्त ही अपने पति से हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए आपने कह दिया था कि मैं अपने इस नश्वर जीवन को भगवद् उपासना में ही लगाना चाहती हूँ। आपके पति ने न केवल समानबाई की इच्छा को स्वीकार अपितु उपासना मार्ग में पड़ने वाली उनकी प्रत्येक कठिनाई का निराकरण भी किया। अपने पति की इस महानता का वर्णन कवयित्री ने निम्नलिखित भावपूर्ण शब्दों में किया है।

शेष की सी रसना हो, बुद्धि हो गणेश की सी।
पति को सराहौ, युक्ति शारदा बतावै तो।

सम्मानबाई ने भी पति को परमेश्वर के रूप में स्वीकारा तथा हदय से उनकी सेवा की। पति के प्रति उनका प्रेम लौकिक मर्यादाओं तक सीमित न होकर आध्ययात्मिक भावनाओं तक व्यापक था। सेवक सेविकाओं से परिपूर्ण घर में भी वे पति सेवा स्वयं ही करती थी। ठा. रामदयालजी को रात्रि में प्राय: बहुत विलम्ब से भोजन करने की आदत थी। आप तब तक आटा लगाए हुए उनके आगमन की प्रतीक्षा करती रहती। सेवक सेविकाएं एवं अन्य परिजन निद्रा में निमग्न रहते। ऐसे एकान्त क्षणों में आप भगवद भक्ति में लीन हो जाती। यह समय आपके लिए ईश्वर उपासना का होता था। इस समय कभी-कभी भाव-विभोर ही भक्ति गीत रचना करने लगती। इस समय के रचे हुए आपके कुछ भजन बहुत सुन्दर तथा भक्तिपूर्ण बन पड़े है।

विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् आप थाणा के ठाकुर श्रीहणूँत सिंह की धर्मपत्नी भटियाणीजी के साथ मथुरा-वृन्दावन की यात्रा के लिए गई। वर्षा ऋतु की झीनी फुहारों के बीच झूला झूलते हुए बांके बिहारी तथा अनुरागमयी राधा की छवि आपके नेत्रों में समा गई। उसी समय अलौकिक आनन्दानुभूति के क्षणों में आपने भटियाणीजी के समक्ष प्रतिज्ञा की कि आज से सांसारिक मायामोह को तुणवत् त्याग कर सदैव ईश्वर भक्ति में ही लीन रहेंगी। भटियाणीजी ने वस्तुस्थिति की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि अभी आपके विवाह को अधिक समय नही हुआ है तथा वंश परम्परा के निर्वाह हेतु कोई सन्तान भी नहीं है, ऐसी स्थिति में यह प्रतिज्ञा कहां तक उचित है? किन्तु भटियाणीजी का यह कथन कमल-पत्र पर पड़ी पानी की बूंदों के समान निरर्थक रहा। आपने उसी स्थल पर अपनी आँखों पर पट्टी चढ़ा ली जो एक अपवाद को छोड़कर जीवन में कभी नहीं खुली। जिन आंखो में एक बार मनमोहन चितचोर की छवि समा गई उन आंखो से अन्य कुछ देखने की लालसा ही नहीं रही।

समानबाई में काव्य-रचना की ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा थी तथा आपने इस प्रतिभा का उपयोग सदैव ही ईश्वर गुणानुवाद हेतु ही किया। इस सम्बन्ध में आपके जीवन का एक संस्मरण बड़ा प्रेरणादायक है। एक बार आप इन पंक्तियों के लेखक के दादा बालाबक्शजी के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने हेतु गूजूकी ग्राम पधारी। वहां उपस्थित नारी समाज के अधिक आग्रह करने पर आपने उत्तर दिया कि मै ईश्वर के गुणगान के सिवा न कोई गीत रच सकती हूँ और न गा सकती हूँ तद्नुकूल आग्रह होने पर आपने दूल्हे राम को सम्बोधित करते हुए ‘बना’ गीतों की उसी समय रचना की जो काव्यत्व तथा माधुर्य के कारण अत्यन्त सुन्दर बन पड़े हैं।

आँखों पर पट्टी बांधने के बाद से आपकी रचनाओं को लिखने के लिए एक लेखक सर्वदा उपस्थित रहता था। भावोन्मेष की स्थिति में आपके मधुर कण्ठ से जब भी कोई भक्ति-रचना मुखरित होती तभी लेखक द्वारा उसे लिपिबद्ध कर लिया जाता था। आप प्रतिदिन प्रात: एक स्वरचित भजन बनाकर अपने इष्टदेव को सुनाती एवं तत्पश्चात् दैनिक कार्यक्रम प्रारम्भ करती।

सांसारिकता से उपराम ग्रहण करने के पश्चात समानबाई ने अपने पति से अनेक बार दूसरा विवाह करने का आग्रह किया किन्तु ठा. रामदयालजी उनके आग्रह को बड़ी चतुराई से टालते गये। समानबाई के समान सती, तथा ईश्वरानुरागी अर्धांगिनी को पाकर उन्होने अपना जीवन धन्य समझा। आपकी महानता इसी से स्पष्ट है कि आपने समानबाई की अलौकिक भावनाओं को लौकिक कल्मषों से यावज्जीवन दूर रखा। महानता के प्रति गरिमा की इस भावना ने उनके जीवन को भी महान बना दिया।

पीछे कहा जा चुका है कि सन्तान के अभाव में ठा. रामदयाल जी ने हणूंतिया ग्राम के अपने भाई ठा. बालमुकुन्द के पुत्र गंगासिंह जी को गोद लिया था। जिस दिन गंगासिंहजी का जन्म हुआ उसी दिन समानबाई ने अपने घर में पुत्र जन्म जैसा ही उत्सव मनाया। बालक गंगासिंह जब ५ वर्ष के हुये तभी से समानबाई ने उन्हे अपने पास रखा तथा पुत्रवत् स्नेह प्रदान किया। कहा जाता है कि जब गंगासिंहजी को गोद लिया गया तो वात्सल्य के प्रबल वेग के कारण आपने आखों की पट्टी हटाकर पुत्र की ओर देखा। वयस्क होने पर गंगासिंहजी समानबाई की चर्चा करते हुए कहते थे कि वात्सल्य से परिपूर्ण वैसे सुन्दर, विशाल नेत्र मैंने अन्यत्र कहीं नही देखें।

समानबाई अपने पति को परमेश्वर मानकर उनसे आत्मिक प्रेम करती थी। इस सम्बन्ध में मैं आपके जीवन की एक अविस्मरणीय संस्मरण के उल्लेख करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। सतीत्व धर्म पर चर्चा करते हुए आपने एक बार पूर्व चर्चित सहेली भटियाणीजी से कहा कि सती के होते हुए पति का निधन हो ही नहीं सकता। संयोगवश इस कथन के कुछ ही दिन बाद ठा. रामदयालजी अस्वस्थ हो गए। कुछ समय पश्चात् उनकी स्थिति बड़ी चिन्ताजनक हो गई। समानबाई के सिवा अन्य सब परिजन तथा उपचार करने वाले चिकित्सक उनके जीवन के प्रति निराश हो गए किन्तु समानबाई के दैनिक कार्यक्रम में कोई व्यवधान नहीं हुआ। उन्होंने परिवार के अन्य सदस्यों को सांत्वना देते हुये कहा कि “जब तक मेरा यह नश्वर शरीर है, ठाकुर साहब का कोई अनिष्ट नहीं होगा।” किन्तु ठाकुर साहब की अवस्था और भी बिगड़ती गई। ऐसी स्थिति में समानबाई ने गज की पुकार पर नंगे पैर दौड़ने वाले तथा दुष्टों से द्रौपदी की लाज बचाने वाले भक्तवत्सल भगवान को टेर लगाई:-

अब हरि आओ जी भीर परी।
भीर परी राणी रूक्मणी पै, जिण प्रभु आण बरी।
भीर परी द्रोपद तनया पै, सारी अनन्त करी।
कहत ‘समान’ सुणो ब्रजनन्दन, अबला पुकार करी।

इस करुण पुकार के कुछ समय पश्चात ही ठा. साहब के स्वास्थ्य में क्रमश: सुधार हुआ और कुछ समय पश्चात् वे पूर्ण स्वस्थ हो गये। सतीत्व की जो परिभाषा आपने स्थापित की थी परमात्मा की कृपा से आपने अपने जीवन में उसका निर्वाह भी किया। अपने पति के जीवन काल में ही हरि भक्ति में लीन रहने वाली समानबाई ने संवत् १९४२ की श्रावण बदी अमावस्या के दिन अपनी नश्वर देह का परित्याग कर परम तत्व में स्वयं को विलीन कर दिया।

काव्य-रचनायें:
भावना की तीव्रता, आत्म-समर्पण की आकुलता तथा आलम्बन के प्रति प्रेमातिरेक के कारण भक्ति-काव्य में कथाक्रम के क्रमिक विकास के स्थान पर एकान्तिक माधुर्यानुभूति को ही अधिक महत्व मिल पाया है। परिणामत: भक्त-कवियों ने भावनातिरेक के क्षणों की अभिव्यक्ति प्रबन्ध काव्य या खण्डकाव्य की रचना द्वारा न करके, विविध मुक्तकों के द्वारा ही की है। विषय-वैविध्य तथा काव्य-रूप की द्रष्टि से आपके मुक्तक-काव्य का अध्ययन निम्नलिखित वर्गीकरण के अनुसार किया जा सकता है:-

(१) पाठ्यमुक्तक तथा (२) गेयमुक्तक (गीतकाव्य)

पाठ्य-मुक्तक के अन्तर्गत वे मुक्तक हैं जिनमें कथानक का क्रमिक विकास दिखाई देता है। इनकी रचना कवयित्री ने सवैये, कवित्त तथा पद्धरी छन्दों में की है। गेयमुक्तक वे हैं जिनमें कथानक के क्रमिक विकास के स्थान पर ईश्वर के प्रति आत्मनिवेदन और राम तथा कृष्ण की विश्वमोहिनी छवि का सरस वर्णन है। गेयता तथा आत्माभिव्यंजकता के कारण इन्हें गेयमुक्तक अथवा गीतकाव्य कहना समीचीन है।

पाठ्य़-मुक्तक:
काव्य-रचना के प्रारम्भ में कवयित्री ने भगवान के भक्त-हितकारी स्वरूप का स्मरण किया है। इन मुक्तकों में कवयित्री ने गज की करूण पुकार पर वाहन छोड़कर दौड़ते हुए विष्णु का भक्त भयहारी स्वरूप, अत्याचारी हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से भक्तवर प्रहलाद को मुक्ति दिलाने वाले सर्वव्यापी नृसिंह, बालक ध्रुव के भोलेपन पर रीझने वाले दयालु परमात्मा, इन्द्र के कोप से ब्रज को उबारने वाले बाँके बिहारी तथा अहिल्या, केवट, शबरी तथा गीध का उद्धार करने वाले मर्यादापुरूषोत्तम राम के भक्तिपूर्ण प्रसंगों का भावपूर्ण वर्णन किया है। प्रत्येक प्रसंग के अन्त में कवियित्री ने अपनी अन्तर्वेदना तथा भक्ति-प्राप्ति की कामना व्यक्त की है। परिणामत: ये सभी प्रसंग अत्यन्त मार्मिक तथा रचयित्री को हृदयोच्छ्वासों से सजीव बन गए हैं।

पाठ्यमुक्तकों के अन्तर्गत अन्य रचना है ‘पतिशतक’। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ठ है, प्रस्तुत “शतक” में कवियत्री ने एक सौ कवित्तों की रचना की किन्तु उनमें से केवल ६ कवित्त प्राप्य है, जो कि प्रशंसा करते हुए उन्हें ‘दया के समेत राम’-रामदयाल माना है जो उनके शब्दों में दशरथनन्दन राम से भी अधिक दयालु है। कवयित्री की इस भावानुभूति तथा मान्यता पर यथावसर आगे विचार किया जायेगा।

‘उपमा श्री कृष्ण’ तथा “उपमा श्रीमती राधिका’ के प्रकरण में कवयित्री ने श्रीकृष्ण तथा राधा की अनुपम छवि का अंकन करते हुए परम्परागत तथा नवीन उपमानो के सुन्दर चित्र प्रस्तुत किये हैं। श्री कृष्ण का सौन्दर्य-वर्णन करते समय समानबाई ने न केवल उनकी बाह्य रूप माधुरी तथा साज-सज्जा की छवि ही अंकित की अपितु उनकी भक्तहितकारी हृदय-छवि को भी सामने रखा है। सुषमामयी राधा की छवि को अंकन हेतु तो कवयित्री ने उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षाओं की झड़ी लगा दी है। राधा के छवि-चित्रण में समानबाई का काव्य-कला वैभव अपनी सम्पूर्ण समृद्धि के साथ व्यक्त हुआ है।

गीत काव्य:
समानबाई के गीत अत्यन्त भावपूर्ण बन पड़े हैं। इन गीतों में कहीं आत्म निवेदन और ईश-महिमा का भावपूर्ण चित्रण है तो कहीं भगवान् राम तथा कृष्ण की रूप-छवि का अंकन है। इन सभी गीतों में साहित्यिकता के साथ-साथ लोक-रूचि का भी सुन्दर समन्वय बन पड़ा है। यही कारण है कि ये गीत सम्पूर्ण राजस्थान में लोक परम्परा द्वारा अपनाये गये है।

इन गीतों के प्रारम्भ में टेक या स्थाई है तथा गाते समय गीत के बीच-बीच में इस स्थाई को दुहराया जाता है। प्रत्येक गीत के अन्त में कवयित्री ने अपने नाम की छाप लगाकर एक निजत्व की भावना प्रकट की है। विषय-वैविध्य के अनुसार इन गीतों को हम तीन वगों में विभाजित कर सकते है:-

१. भक्ति गीत, २. बधाई गीत तथा ३. वैवाहिक गीत (बना)

भक्तिगीतों में कवयित्री ने अपनी तुच्छता तथा परमात्मा की महानता का वर्णन किया है। वस्तुत: भगवान के अवतार धारण करने का कारण भक्तों की रक्षा तथा दुष्टों का दलन ही तो है। क्या ऐसे दीनबन्धु इस शरणागत की रक्षा नहीं करेंगे ? अपने भक्तिगीतों में रचयित्री ने अपने भाव-पुष्प भगवान के चरणों में अर्पित किये हैं।

शुभ कार्य होने पर आनन्द प्रकट करने वाली वाणी ही बधाई कहलाती है। अति शुभ समाचार की सर्वप्रथम सूचना को भी बधाई कहते है। लीलाबिहारी श्री कृष्ण के जन्म की सूचना पाते ही आनन्दातिरेक में डूबी हुई ब्रजवनिताएँ बधाई गीत गाती है। भला जिस ईश्वर के दर्शन हेतु बड़े-बड़े ऋषि, देवगण तृषित हों, वे स्वयं ब्रजभूमि में अवतार धारण करें, इससे बढ़कर बधाई की और क्या बात हो सकती है? इस प्रसंग में रचे गये सभी गीत “बधाई गीत” के नाम से अभिहित किये गये हैं।

विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले मांगलिक गीतों को राजस्थानी में बना कहते है। दूल्हे के वेश में मुसज्जित युवक राजस्थानी में बनड़ा या बना कहलाता है तथा दुल्हिन के वेश मे सज्जित लड़की बनडी या बनी कहलाती है। इन गीतों में भी वर वेश में सुशोभित राम वधू वेश में छविमान जानकी के सौदर्य का वर्णन किया गया है। कवियित्री ने राम-जानकी के ब्राह्य सौंदर्य के साथ उनके आन्तरिक आह्लाद और माधुर्य को भी व्यक्त किया है। इन गीतों में राजस्थानी जन-जीवन की परम्परायें साकार हो उठी हैं।

काव्य वैभव: पाठ्यमुक्तक:
समानबाई ने अपनी काव्य-रचना का प्रारम्भ करते हुए सर्व-प्रथम भक्ति सम्बन्धी विविध पौराणिक प्रसंगों का भावपूर्ण वर्णन किया है। इन प्रसंगों के बीच-बीच में कवयित्री ने अन्य भक्त कवियों के समान स्वयं के दुर्गुणों से परिपूर्ण जीवन का उल्लेख करते हुए भगवत्कृपा की याचना की है। भावावेश में निमग्न कवयित्री सर्वतोभावेन भगवान की शरणागति चाहती है। परन्तु काम क्रोधादि मनोविकारों के बन्धन भी तो दुस्तर हैं। परिणामत: वह अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए परमात्मा को टेरती है:-

हरि काम रू क्रोध रू मोह महा, अब तो यह मोहि दुखावत है।
स्वयं जानत हूँ यह पंथ कुपंथ, पै जोरत मोहि चलावत है।
यह जीव है एक, ये बूंद मिलै, बहु भाँति ते त्रास दिखावत है।
सुनिये घनश्याम ‘समान’ कहै, मम चित तो आपको चाहत है।

प्रहलाद रूपी जीवात्मा हिण्यकश्यप रूपी राजा एवं मद-मत्सर आदि सभासदों से घिरी हुई है। हे परमपिता! अब आप ही हृदय-खंभ में से अवतरित हो इसका उद्धार कीजिये। इसके सिवा छुटकारे का अन्य कोई उपाय नहीं:-

हरिणाकुश मो मन राज भयो, मद मत्सर आदि सभा सगरी।
प्रहलाद ही जीव फस्यो इन नै, हरि और न जान दे एक घरी।
हिय खंभ पखानहुँ ते प्रगटो, करिये अब बेग सहाय हरी।
सुनिये घनश्याम ‘समान’ कहै, चरणाँ अरविन्द में आन परी।

कवयित्री की अन्तःवेदना कितनी मार्मिकता के साथ व्यक्त हुई है ? भावना के तीव्र आवेग के साथ ही प्रहलाद-उद्धार की कथा के रूपक का निर्वाह अत्यंत आलंकारिक और मर्मस्पर्शी बन पड़ा है।

परमात्मा के प्रति सहज और अनवरत अनुराग ही भक्ति है तथा नि:शेष रूप से भगवच्चरणों में समर्पण ही भक्ति की पराकाष्ठा है। समर्पण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है अंहकार की। अहं के नष्ट हुए बिना शरणागति भाव उत्पन्न नहीं हो सकता तथा बिना शरणागति के भक्ति-प्राप्ति असम्भव है। परमात्मा की शरणागति के बिना भक्ति-प्राप्ति असम्भव है। न जाने परमात्मा के अनुग्रह से कब मेरा अहं नष्ट होगा और कब भक्ति रूपी अमृत-लता हृदयस्थल में लहलहायेगी:-

अभिमान जितै मन मांहि तितै हि, विनम्र बिनै न हुवै ध्रुव बात।
बिन ही तो विनम्र विनै के किये शरणागति भाव हिये न भरात।
बिन हो शरणागति भक्ति कहाँ, बिन भक्ति न भक्तहि वत्सल आत।
अभिमान ‘समान’ न आन अरी, मम श्री भगवान सों क्यों न नसात।

इस अहं के नष्ट होते ही भगवान स्वयं भक्त को अपनी शरण में ले लेते हैं। केवल एक बार सच्चे हृदय से उन्हें टेरने की देर है फिर तो वे पल मात्र की भी देर नही लगाते। गज के मुंह से ‘हरि’ का हकार ही निकला था कि भक्तहितकारी शेष-शय्या को त्यागकर दौड़ पड़े:-

आयो हकार गयन्द गरैन, गुविन्द हकारि गिराह संहारयो।

भक्ति-भाव की पराकाष्ठा वहीं परिलक्षित होती है जहाँ कवयित्री के प्राण उस मोहिनी मूर्ति के दर्शन बिना अकुला उठते है और समानबाई की विरह वेदना मार्मिकता के साथ व्यक्त हो उठती है। भीलनी की प्रतीक्षा धन्य है जिसने भगवान राम के दर्शन पाकर अपने को कृतार्थ किया था। हे अधमोद्धारक। मेरे प्राण भी आपको चाहते है। मुझ पर यह कृपा कब होगी:-

रघुवीर निहारि के नीर भये द्रग, हाथ सुंताहि उठावत है।
नहीं छोडत भूमि गहे पद द्वै, तिहि प्रेम की थाह न पावत है।।
दुहुँ और अनन्द प्रवाह भरयो, तिहि देख के शेष सराहत है।
कबहू हम पै ये कृपा न भई, हमहू यह आज लौं चाहत है।।

नाम और गुण की असमानता तो काका हाथरसी जैसे कवि के लिए हास्य रस का आलम्बन बन सकती है किन्तु कवयित्री को तो ‘दयालु राम’ ही पति रूप में मिले थे। उनका नाम ही राम दयाल नही था, उनके गुण भी नामानुरूप ही थे:-

“जेते नाम देखे सुने, सब विपरीत रीत। जैसो नाम तैसो गुण, पति में प्रसिद्ध है।”

तभी तो कवयित्री ने “दशरथ अजिर बिहारी राम” से दया के समेत राम को श्रेष्ठता प्रदान की है। पति शतक में कवयित्री ने इस भावना को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है:-

राम ने चढाय के, आकाश तै गिराय दई, खील खील होने का, किया था काम तैने तो।
परबे ना पाई, धर झेल लही बीच माही, तैने तो गिराई, पर मेरो भी हो राम तो।
कहत “समान”, यह दया के समेत ‘राम’, कोरो राम होतो, तो ये जीव कौन थामतौ।

समानबाई की भक्ति-साधना में उनके पति ने जो योगदान दिया था उसकी झलक समानबाई के जीवन-परिचय में दी जा चुकी है। गिरिधर गोपाल के रंग में रंगी मीरा के समान समानबाई को अपने समय के किन्ही ‘तुलछीदास’ के समक्ष–

घर के स्वजन हमारे जेते, सबन उपाधि मचाई।
साधु संग अरू भजन करत मोहि, देत कलेस महाई।

जैसी कठिनाई प्रस्तुत करने का अवसर ही नहीं आया था। आपके पति ने तो सर्वदा ही आपकी भक्ति भावनाकुल आचरण किया तथा आपको प्रत्येक सुविधा प्रदान की थी। ऐसे पति की तो सराहना भी तभी हो सकती है जब स्वयं सरस्वती ऐसा करने की योग्यता प्रदान करे-

पति को सराहौं, युक्ति शारदा बतावै तो।

पातिव्रत्य तथा ईश्वर—भक्ति के एक ही स्थल पर सुखद संयोग का यह अनुपम उदाहरण समानबाई के जीवन तथा काव्य में देखने को मिलता है। गोपियों का उद्धव को ‘मन नाही दस बीस’ का सम्बोधन तो वस्तुतः निराकार ईश्वरोपासना की तुलना में मनमोहन की साकार प्रेम-भावना को प्रकट करने की सार्थकता रखता है। अन्यथा तो ईश-भक्ति में बाधक व्यक्ति “कोटि बैरिन सम त्याज्य” तथा साधक व्यक्ति “परम सनेही” लगता है। भक्त-कवि कबीर इसीलिए तो गोविन्द के समक्ष गुरू की बलिहारी जाते है क्योंकि गुरू ही उन्हे ईश्वर से मिलाता है। इसी भावनानुरूप समानबाई ने अपने भक्ति-पथ को सत्प्रयास रूपी पुष्पों से आच्छादित करने वाले रामदयाल को राम से श्रेष्ठ माना है–

श्रीकृष्णोपमा-प्रसंग में कवयित्री ने लीलाधाम कृष्ण की अनुपम छवि का अलंकार पूर्ण वर्णन किया है। श्री कृष्ण के अद्वितीय सौंदर्य के समक्ष सभी प्राकृतिक उपमान तुच्छ हैं। उपमेय के द्वारा उपमान की हीनता बताकर कवयित्री ने स्थल-स्थल पर व्यतिरेक अलंकार द्वारा कृष्ण के अलौकिक सौदर्य की और संकत किया है:-

उपमादक दीखत मोहि भान, जामे में अंतर एक जान।
हुअ जेठ धाम थिर चर दहाय, सम तेज आप शान्तिक सुभाय।।
उपमा इक दीजत निशा नाथ, सोहू समता नहीं पाय साथ।
हुअ पक्ष अन्त घटि बढ़त जात, रावरी कला दिन-दिन बढ़ात।।

यद्यपि ये सभी उपमाएँ मदनगोपाल के लिए ही उपयुक्त है परन्तु पति को परमेश्वर मानने वाली स्त्रियाँ भी इनका प्रयोग पति के लिए करें तो उचित है:-

यह उपमा है सब कृष्ण योग, ओरन कूँ लिखनूं है अजोग।
पति परमेश्वर समझे जू तीय, उनकूं है लिखनूं वाज बीय।।

‘राधिका शरीरोपमा’ प्रकरण में कवयित्री ने कृष्णानुराग में रंजिता राधारानी की रूप माधुरी का मनोरम चित्रण किया है। राधा की छवि अनुपम है। उनके प्रत्येक अंग की सुषमा पर सौदर्य के सारे उपमान न्यौछावर है। नीले रंग के झीने वस्त्रों मे दमकता हुआ उनका उज्ज्वल तन ऐसे शोभायमान हो रहा है जैसे श्यामधन में चमकती हुई बिज्जु छटा, चारो तरफ से जरी से जडी हुई ओढनी के किनारे ऐसे झिलमिला रहे है मानो नीचे आसमान में चन्द्रोदय होने पर फैलता हुआ किरण जाल! मुख के दोनो तरफ झुकी हुई बालों की पटिटयां ऐसी सुहा रही है मानो चन्द्र को ढकने के लिए दो तरफ से श्यामवर्ण घन छा रहे हों। कवयित्री ने राधा के अनिंद्य सौंदर्य पर उत्प्रेक्षाओं की झड़ी लगा दी है:-

नूतन तन पट पहरै अनूप, साक्षात जानि रम्भा स्वरुप।
पट झीन नील तन जग मगाय, जनु बीज श्यामधन नही समाय।।
जरि कोर किरनि चहुँधा विसाल, जनु चन्द्र उदय छवि छुटा जाल।
दुहुँ ओर झुकी पटियों अनूप, राशि में जु श्याम बद्दल सरूप।।

समान बाई की उत्प्रेक्षाएं परम्परागत ही हों अथवा उनमें सौन्दर्य को अभिव्यंजित करने वाली मौलिक सूझ-बूझ और कल्पना शक्ति का अभाव हो, ऐसा नहीं है। कुछ उत्प्रेक्षाएँ तो इतनी नवीन, युक्ति संगत और सौन्दर्याभिव्यंजक है कि मन मुग्ध हो उठता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है।

राधिकाजी की पीठ रूपी स्वर्ण-पटि्टका पर क्रीड़ा करती हुई वेणी सर्पिणी के समान सुशोभित हो रही है। मुक्ता जाल से सुसज्जित वेणी का सौंदर्य ऐसा लगता है मानो दुग्ध स्नात काल सर्पिणी पर दूध की बूंदें झिलमिला रही हो। मुख के दोनों तरफ सामने की और से पड़ी हुई लटें मानों मुखचन्द्र से अमृत पान हेतु सर्पिणी की दो पुत्रियां लिपट रही हों। इन लटों की घुंघराली छबि ऐसी लगती है मानो अमृत खींचने में शक्ति लगाने के कारण इन नागिन-पुत्रियों के शरीर पर मरोड़ या ऐंठन पड़ गई हो

बैनी मनु अहिनी सी लखाय. सो पीठ कनक पाटी रमाय।
मुक्तानिजाल तापै फबन्त, पय किय सनान नागणी दिपंत।।
ताकीजु सुता दुहुँ और आय, राशि सुधा लोभ लपटी सुभाय।
खैंचत पियूष जनु करत जोर, परि अंग परेठे ठौर ठौर।।

गीतकाव्य:
समानबाई द्वारा रचित गीतों मे वैवाहिक गीत (बनाँ) अत्यधिक लोकप्रिय हुए हैं। इन गीतों में राजस्थानी वैवाहिक परम्पराओं का सजीव चित्रण मिलता है। कवयित्री ने विवाहोत्सव पर बान बैठने से लेकर उबटन, तोरण, कॉमण, भाँवर, कुंवर कलेवा, जुआ तथा विदाई आदि सभी अवसरानूकूल गीतों की रचना कर राजस्थानी जीवन के उल्लास को व्यक्त किया है। इन सभी गीतों के आलम्बन “दूल्हे वेश में सजे हुए दशरथ नन्दन राम” हैं। भगवान राम स्वयं एक राज पुरूष थे। यदि उनके वैवाहिक गीत राजवंशीय परम्पराओं से युक्त हों तो और भी स्वाभाविक तथा मनोहर लगते है। विवाह के विविध अवसरों पर गाए जाने वाले कुछ गीतों का सौन्दर्य द्रष्टव्य है।

वर वेश में सुशोभित राम अपने भाइयों सहित तोरण-द्वार पर विद्यमान है। दो श्याम तथा दो गौर वर्ण वाले दशरथ पुत्रों मे मुक्ता लड़ियों से सुसज्जित पेचे पर सेहरा धारण किए हुए राम का सौंदर्य तो अद्वितीय है-

राजा जनकजी री पोल आया फूटरा बना, रूपरा घणाँ
दोय भाई साँवला, दोय उजला घणा।
सारा में सिरदार राघोराय जी बना।
सीस तो सिर पेच सोहै, सेहरा घणा।
मोतियाँ री लूम लागी, हीरा जी पना।।

तोरण द्वार पर राम का आगमन सुनकर स्त्रियाँ झरोखों में से झुक झुक कर राम की छवि को देखती है। वधू जानकी राम के अनुपम सौंदर्य को देखकर मुदित हो उठती है। राम के मुख पर मन्द स्मिति तथा सिया के मुख पर आह्लाद की झलक देख सखियों में पारम्परिक छेड़छाड़ तथा अनियारे नेत्रों से कटाक्ष पात की प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो उठती है। निम्नलिखित पंक्तियों में उनकी उमंग तथा प्रसन्नता का कितना अन्तरंग और स्वाभाबिक चित्रण हुआ है

बना री मदील मिजाज करे छे।
सिया निरखत मोद भरे छे।
सबहि सखी उठि चली महल में, सबही झरोकां झुके छे।
आ छवि देख्याँ राम बना की, बनिता मोद करें छे।
सबही सखी घूंघट में हँस वै, राम बनूँ मुलकै छे।
एक सखी छानेंसी बोली, सियाजी कोड करे छे।

तोरण के अवसर पर ही वधू परिवार की कामिनियाँ दूल्हे पर कॉमण करती है। पद्मश्री सीताराम लालस ने कॉमण शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत “कार्मण” से मानी है जिसका अर्थ जादू-टोना या वशीकरण है। इन कॉमण-क्रियाओं का उद्देश्य दूल्हे को दुल्हिन के वशीभूत बनाना है। जानकी की भ्रातृ जाया राम को सिया का वशवर्ती बनाए रखने हेतु तोरण-द्वार पर कॉमण करने आई हैं। ज्योंही वे कॉमण मंत्र पढ़कर राम की और अभिमंत्रित अक्षत फेंकती है कि राम जानकी के प्रेम-पाश में बन्दी बन जाते हैं-

आज तो जनक लली की भौजाई।
बनांजी पै कॉमण करवा नै आई।।
सुव्रण थाल अबीध्या मोती, चावल उड़द मिलाई।
केसर अगर कपूर सुपारी, पान पतासा राई।।
मंत्र पढ़ि पढ़ि अक्षत बगावै, मोहि लोनी चतुर लुगाई।
जनक लली के पाँव पलौटे, लछमणजी को भाई।।

भाँवरे पड़ने के बाद नम्बर आता है दूल्हे की योग्यता-परीक्षा का। सभी कामनियां दूल्हे को बुद्धू बनाकर उसकी हँसी उड़ाने का प्रयास करती है। इस उद्देश्य से दुलहिन वेश में सुशोभित सियाजी के हाथों में बंधे हुए डोरड़े की गाँठे खोलने के लिए राम से कहा जाता है। इधर राम मन्द मुस्कान के साथ “कॉकण” की गांठे खोलने के लिए बढ़ रहे है उधर सुन्दरियां राम को इंगित करते हुए व्यंग्य की मीठी-मीठी चुटकियाँ ले रही है-

हँस खोलत दुलहो राम सिया कर डोरो री।
मिथिलापुर की कामिणी, रेशम गाँठ घुलाय।
जद चतराई जाणस्याँ, खोलो श्रीरघुराय।।
कुँवरि को डोरो री।।
रूप देख आनन्द भयो, तर्क करत सब बाम।
कर में कर सौहे नहीं, तुम हो तन के स्याम।।
सिया तन गोरो री।।

कृष्ण गीतकाव्य:
समानबाई ने अपने गीतों में कृष्णलीला के विविध प्रसंगों का सरस वर्णन किया है। श्रीकृष्ण का तो जन्म ही मानो ब्रज-वासियों को लीलामृतपान कराने हेतु हुआ था। बाललीला, दानलीला, फागलीला एवं रासलीला के विभिन्न चित्र इन गीतों में मिलते हैं। कृष्ण-जन्म के समय नन्द बाबा के घर उत्सव मनाया जा रहा है, इसकी एक झलक निम्नलिखित बधाई गीत में देखिये:-

नन्दघर भयो री आनन्द आज।
हाँरी सखि, सकल सुख नँद भवन माँहीं, पुत्र बिन बेकाज।
मनहुँ सूखत खेत ऊपर, बरसियो घन गाज।
पलँग पर घनश्याम पौढ़े, होत मंगल राज।

कृष्ण बड़े होने लगते है। उनकी चेष्टाएँ बचपन की देहरी को लाँघ कर किशोर अवस्था की और बढ़ने लगती है। इनका प्रारम्भ होता है माखन-चोरी के प्रसंग से। ब्रज-युवतियाँ कामना करती है कि कृष्ण उनके यहाँ माखन चुराने आये। अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर वे नटखट कृष्ण की ढ़िठाई का उपालम्भ देने माता यशोदा के यहां पहुंचती है। इन दोनो ही स्थितियों में कृष्ण-प्रेम से परिपूर्ण गोपियों के हृदय की झलक मिलती है। इसी क्रम में ‘दानलीला’ के अन्तर्गत कृष्ण और गोपियों का सरस और वाकचातुर्यपूर्ण संवाद प्रस्तुत किया गया है।

प्रेम–चित्रण के अन्तर्गत समानबाई ने राधा-कृष्ण मिलन के मधुर क्षणों को मुखर अभिव्यक्ति दी है। इस प्रेम व्यापार के चित्रण हेतु कवयित्री ने ब्रज के कुंजों और यमुना की कछारों के स्थान पर राजमहलों के वातावरण को चुना है। सम्भवत: यह रीतिकालीन काव्य एवं राजघरानों के जीवन का प्रभाव हो, जिसे समानबाई ने पार्श्ववर्ती वातावरण से सहज ही ग्रहण कर लिया हो। इन पदों में कृष्ण का परकीया प्रेम एवं नायिका द्वारा दिये गये उपालम्भों का रीतिकालीन परम्परानुसार चित्रण मिलता है।

‘फागलीला’ के अन्तर्गत कवयित्री ने राधा-कृष्ण के प्रेम और सौंदर्य का सजीव चित्रण किया है। फाग खेलने हेतु कृष्ण को आया देख, नारी सुलभ लज्जा के कारण राधा छिपने की चेष्टा करती है। इस समय काले बालों से युक्त काल सर्पिणी सी वेणी धारण किये राधिका का आनन सूर्योदय के समय छिपते हुए शरद शशि के समान सुशोभित हो रहा है:-

आवत मोरी गलियन में गिरधारी।
राधे लुखत लाज की मारी।
उदय प्रभाव शरद शशि आनन, श्रीफल युगल सँवारी।
अलक बंक त्राटक सिर ओपै, धरे नागणी कारी।

सामान बाई ने पारिवारिक मर्यादाओं का निर्वाह करते हुए भी भगवद्भक्ति द्वारा जीवन की सार्थकता पाने का स्तुत्य प्रयास किया था।

~~वासुदेव सिंह (गुजुकी-अलवर)


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