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भक्तकवि महात्मा नरहरिदास बारहठ

भक्तकवि महात्मा नरहरिदास बारहठ

पूरा नामभक्त कवि श्री नरहरिदासजी बारहट
माता पिता का नामइनके पिता लखाजी बारहट
जन्म व जन्म स्थानइनका जन्म स. 1648  [ई. १५९१] में राजस्थान के नागौर जिले के मेड़ता उपखंड में स्थित टहला ग्राम में हुआ।
स्वर्गवास
 
अन्य
कीकावतीजी जाड़ा मेहड़ु की सुपुत्री थी व लक्खाजी को ब्याही थी। इनके दो पुत्र थे नरहरिदासजी व गिरधरदासजी, दोनो ही राज समाज व काव्य जगत मे प्रसिद्ध हुए। लक्खाजी व नरहरिदासजी दोनो ही पिता पुत्र अकबर व जंहागीर के सभासद थे

 जीवन परिचय

भक्त कवि श्री नरहरिदासजी बारहट महान पिता के महान पुत्र थे। इनके पिता लखाजी बारहट भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि एवं विद्वान् थे जिन्हें मुगल सम्राट अकबर ने बहुत मान दिया। जोधपुर के महाराजा सूरसिंह जी के ये प्रीतिपात्र थे। लखाजी के दो पुत्र थे। ज्येष्ठ गिरधरदासजी एवं कनिष्ठ नरहरिदासजी। इनका जन्म १५९१ ई. में राजस्थान के नागौर जिले के मेड़ता उपखंड में स्थित टहला ग्राम में हुआ। नरहरिदासजी बाल्यावस्था से ही बड़े होनहार एवं तेजस्वी थे। प्रारम्भ से ही नरहरिदासजी को अपने पूर्व के संस्कारों के कारण, भगवान की कथाओं और पौराणिक शास्त्रों में बहुत रूचि थी। वे जन्मजात भक्त थे। उनकी शिक्षा हेतु पिता लखाजी बारहट ने एक श्रेष्ठ विद्वान् पंडित गिरधरदास को दायित्व सौंपा। गुरु गिरधरदासजी दीक्षित व्याकरणाचार्य अष्टविधानी एवं तत्वग्यानी थे। मथुरा के भक्तिमय वातावरण में नरहरिदास ने संस्कृत, बृज, पिंगल एवं डिंगल का गहन अध्ययन किया। नरहरिदास जी ने अवतार चरित्र में कृष्ण अवतार के मंगलाचरण में अपने गुरु के लिये लिखा है :

“द्विज सत्‌गुरु गिरधर दीक्षित”

अपने सतगुरु की भक्ति, अभ्यास एवं सनिष्ठा की भावना के साथ सेवा करते हुए नरहरिदासजी ने व्याकरण, ज्योतिष, श्रीमद्‌भागवत, महाभारत एवं बाल्मीकि रामायण का अध्ययन किया एवं वेद और पुराणों का भी ज्ञान हासिल किया। युवावस्था की दहलीज में प्रवेश करते ही मथुरा में इनका विवाह हो गया। लखाजी की तीव्र इच्छा थी कि उनका पुत्र राजदरबारी कवि के रूप में मान सम्मान एवं यश की प्राप्ति करे परन्तु इनकी रुचि अध्यात्म की ओर थी। पिता के पास लाखों करोड़ों की सम्पत्ति होते हुए भी इनका ध्यान उस ओर कभी नहीं गया। पूजा पाठ, कथा श्रवण, सतसंग में ही इनकी रूचि शुरू से रही। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह जी प्रथम, नरहरिदासजी का खूब सम्मान करते थे। वे इनको गुरु तुल्य मानते थे।

श्रीमद्‌भागवत एवं वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करने के पश्चात इनकी इच्छा हुई कि भगवान की लीलाओं का गुणगान इन ग्रन्थों के आधार पर किया जाय। इस दृष्टिकोण से इन्होंने अवतार चरित्र ग्रन्थ की रचना की। इसमें भगवान के चौबीस अवतारों की कथाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। इनकी काव्य शैली पर लिखा जाए तो पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है। अवतार चरित्र में रामावतार की कथा वाल्मीकि रामायण को आधार बनाकर लिखी है। तुलसीकृत रामायण की रचना तो उनके काल में ही हुई थी। स्वयं द्वारा रचित अवतार चरित्र की 100 प्रतियाँ उन्होंने लिपिकों द्वारा लिखवाकर अलग-अलग स्थानों पर भेजी। इस पर इनको उस समय एक लाख रुपये खर्च करने पड़े।

जनश्रुति के अनुसार अवतार चरित्र लिखने का एक कारण अथवा निमित्त और भी था। नरहरिदासजी के कोई संतान नहीं थी। इससे उनकी पत्नी हमेशा चिंतित रहती थी। परन्तु नरहरिदासजी हमेशा कहा करते थे कि जो भगवान की इच्छा होगी वही होगा। यदि भाग्य में पुत्र नहीं लिखा है तो इसे भी हरि इच्छा समझकर सब्र करना चाहिये। पति के उपदेश से पत्नी को सांत्वना मिलती और वे भी भक्तिभाव में अपना जी लगाती। नरहरिदासजी के बड़े भाई गिरधरदासजी की पत्नी झगड़ालू स्वभाव की थी। कहते हैं एक बार बड़े भाई की पत्नी नरहरिदासजी की पत्नी से लड़ पड़ी और ताना मारा कि – “तुम तो निसंतान हो। तुम्हारी संपत्ति के मालिक तो एक दिन मेरे बच्चे बनेंगे।“ अपनी जेठानी के मुंह से निकले कड़वे वचनों से नरहरिदासजी की पत्नी को बहुत आघात लगा। उन्होंने अपने पति से कहा कि जेठानी इस प्रकार तानें देकर मुझे सता रही है। तुम्हारी पीढ़ी चले और मुझे बांझ होने की पीड़ा मिटे इसलिये तुम दूसरा विवाह करके अपना वारिस पैदा करो ताकि अपने आँगन में भी बच्चों की किलकारियें सुनाई दे और जेठानी की जुबान बंद हो जाये।

पत्नी की बात सुनकर नरहरिदासजी खूब हंसे। हंसते हुए अपनी पत्नी से कहा कि – “तुम तो पागल हो गई हो। पुत्र हो तो क्या और न हो तो क्या फर्क पड़ता है। जो लोगों के उलाहनों से प्रताड़ित हो जाय वह निर्बल होता है। उसकी आस्था में कमी आती है। उनके कहने पर तुमको ध्यान नहीं देना चाहिये। उन्होंने तो भूल कर दी पर हमको दुःखी होकर वापस उनको कुछ कहना शोभा नहीं देता। भाई की संतान अपनी ही तो संतान है।“ इस प्रकार अपनी पत्नी को भांत-भांत से समझाया पर वह तो अपनी जिद पर अडिग ही रही कि कुछ भी हो दूसरा विवाह करके अपना वारिस पैदा करो ताकि वंश की वृद्धि हो।

थोड़ी देर तो नरहरिदासजी चुप रहे। विचार करके कहा, “देखो! कुछ भी हो जाय, मैं दूल्हा बनकर दूसरी बार घोड़े पर नहीं बैठूंगा। पर यदि तेरी यही इच्छा है कि मेरा नाम चलता रहे तो तेरी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।”

पत्नी ने पूछा “यह कैसे संभव होगा?”

नरहरिदासजी बोले कि – “जगदीश्वर अपने पर प्रसन्न है। उन्होंने अपनी भक्ति से प्रसन्न होकर मुझे एक पुत्र देने का वरदान दिया है। पर वह पुत्र तेरी कोख से जन्म न लेगा।“

पत्नी बोली, “मुझे तो आपकी बात कुछ समझ में नहीं आती। कुछ स्पष्ट तो कहो, तुम्हारी बात का तात्पर्य क्या है?”

नरहरिदासजी गंभीर होकर बोले, “मैं जिस पुत्र के जन्म हेतु कह रहा हूँ वह दूसरों की भांति मरेगा नहीं, वह सदा अमर रहेगा। पत्नी तो विस्मित होकर नरहरिदासजी का मुंह निहारती रही। उसकी समझ में कुछ नहीं आया।“

पत्नी के विस्मय को दूर करते हुए नरहरिदासजी बोले, “परम कृपालु श्री हरि की प्रेरणा से मैं एक ग्रन्थ रचने जा रहा हूं जिसमें भगवान के चौबीस अवतारों की कथा होगी। यह ग्रन्थ इतना अद्‌भुत बनेगा कि युगों-युगों तक लोग इसका पठन एवं श्रवण करेंगे। सभी इस ग्रन्थ का आदर करेंगे एवं इससे भक्ति रस का अमृतपान करते हुए अपने जीवन का कल्याण करेंगे।“

इसके पश्चात् नरहरिदासजी पुष्कर क्षेत्र में थोड़े समय तक रहे और वहां अवतार चरित्र लिखना प्रारम्भ किया। यह ग्रन्थ बादशाह शाहजहां के काल में संवत 1733 के आषाड़ कृष्णा अष्टमी मंगलवार के दिन पुष्कर में संपूर्ण हुआ, इस बात का उल्लेख नरहरिदासजी ने ग्रन्थ के अंत में किया। स्वभाव से वे बड़े विनम्र थे। इसका परिचय हमें ग्रन्थ के प्रारम्भ में मिलता है –

चारण जाति सुं बारहठ, नरहर मत अनुसार,
मैं सागर पैरन लयौ, कहन चरित अवतार।।
चारण जाति में बारहठ शाखा का मैं नरहरि, मेरी अल्प बुद्धिनुसार श्री हरि के अवतारों का चरित्र लिखने हेतु प्रयास कर रहा हूं जो कार्य सागर को तैर कर पार करने जैसा कठिन है।

अपने कुटम्ब कबीले, सगे संबन्धियों, एवं आश्रितों के साथ इनका व्यवहार हमेशा सौहार्दपूर्ण रहा। धार्मिक अनुष्ठानों में इन्होंने लाखों रुपये खर्च किये। गरीबों, साधु संतों एवं विद्वानों को दान देकर अपने को धन्य समझते और किसी को भी अपने यहां से निराश होकर जाने नहीं देते। काशी, प्रयाग, पुष्कर आदि धार्मिक स्थानों पर अनेक बार यज्ञादि करके दान पुण्य देकर ब्राह्मणों को सतुष्ट किया। अन्नदान भी इन्होंने खूब किया।

वे उच्चकोटि के विद्वान थे। काशी में विद्वजनों की सभा में पादपूर्ती स्पर्धा में नरहरिदासजी ने सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में अपनी पहचान बनाई। नरहरिदासजी कवि, उच्चकोटि के भक्त, विचारक एवं सही माने में नेक इंसान थे।

“अवतार-चरित्र” नरहरिदासजी का सर्वाधिक प्रसिद्ध महाकाव्य एवं अमर रचना है।  इस ग्रन्थ के आधे से अधिक भाग में रामावतार एवं शेष में अन्य अवतारों का यथाक्रम वर्णन किया गया है। ग्रन्थ-रचना के समय एवं स्थान के बारे में जानकारी देते हुए कवि ने लिखा है-

सतरह सौ तैतीस, नियत संवत उतरायन।
रितु ग्रीष्म आषाढ मास, पख कृष्ण सुपावन।।
बनि आवै तिथि भौमवार, सिद्ध जोग सुमंगल।
पहु करनी परसिद्ध, मध्य पूजत भुवमंडल।।
अवतार चरित्र चौबीस ऐ, विजय सुयश जग विथ्थर्यो।
कविदास दास नरहरि सुकवि, कृत उद्धार अपनो कर्यो।।
अर्थात् वि.स. १७३३ के आषाढ मास की कृष्ण पक्ष तृतीया, मंगलवार को पुष्कर के पवित्र क्षेत्र में अपने उद्धार के लिए चौबीस अवतारों की कथा से युक्त इस “अवतार चरित्र” ग्रन्थ का प्रणयन किया गया।

भगवान विष्णु के अवतारों का वर्णन करते हुए कवि लिखते हैं-

विसद आदि वाराह भए सनकादिक स्वामी।
भए जग्य अवतार, नर सुनारायण नामी।।
कपिल सुदत्तात्रेय, रिषभ, ध्रुव, पृथु हयग्रीवा।
कुरम सफर नृसिंघ, द्विजजु वामन हरदेवा।।
हुव हंस मन्वंतर धनव्तरहि, जामदग्नि, जग व्यास जय।
रघुनाथ कृष्ण अरु बुद्ध प्रभु भू ऐते अवतार भए।।

तेईस अवतारों के अनन्तर कलियुग में होने वाले चौबीसवें कल्कि अवतार के स्वरूप एवं अवतार के हेतु का संकेत करते हुए नरहरिदास लिखते हैं-

विदित तीन अरू बीस, भए अवतार अगंजिय।
सत त्रेता द्वापर संजोग, कारुण्य रूप किय।।
अब कलजुग के अंत, हेतु अवतार सुहे हैं।
धर्म कर्म मख ध्यान, जवै निर्मूल नसैहैं।।
भवतव्य पुन्य विस्तार भुव, हठ असेष जवनेस हति।
अखलेस स्वेत हय आरूहति, प्रभु कल्की त्रयलोक पति।।

अवतार चरित्र में कवि ने २२ प्रकार के छंदों का प्रयोग किया। ग्रन्थ रचना का आधार एवं कितने छंदों में इसका कलेवर समाविष्ट है, उल्लेख करते हुए कवि का कथन है –

सोरह सहसरू आठ सै, इकसठ ऊपर आन।
छंद अनुष्टुप कर सकल, पूरण ग्रंथ प्रमान।।
मैं जोई सुन्यों पुरान मह, क्रम सोइ बर्नन कीन।
श्रोता पाठक हेत सों, पावै भक्ति प्रवीन।।
अर्थात् सोलह हजार आठ सौ इकसठ अनुष्टुप छंदों में पुराणों में वर्णित-क्रम के अनुसार ही “अवतार चरित्र” में मैंने अवतारों का वर्णन किया है, जिसके प्रेमपूर्वक श्रवण या पठन करने वाले श्रोता या पाठक प्रभु की भक्ति प्राप्त करेंगे।

भक्त कवि ने इस कृति को मुक्ति का मार्ग एवं स्वर्गका सोपान बताया है। शर्त है सच्ची श्रद्धा एवं भगवान के प्रति प्रेम की-

अवतार गीता ईश्वरी, करि भक्त कवि नरहरि करी।
यह मुगति मारग मानिए सोपान स्वर्गसु जानिए।।
यह सहित सर्द्धा उच्चरे, पुनि सो न भव बंधन परै।
सम साध जो बाँचै सुनै, अति प्रेम नेमहि आपुनै।।
सोइ संत जोत समाय है, पै पुनर्जन्म न पाय है।

कवि नरहरि ने अपने ग्रन्थ “अवतार चरित्र” को एक सरोवर के रूप में कल्पित कर एक सुन्दर रूपक बाँधा है-

भगति पाल अनभंग, राम गीता मानस्सर।
निज सर्धा सोपान भाव मिल नीर गहर भर।।
तहां अर्थ तर तरल, विविध नव रस जु विहंगम।
अद्भुत उक्त तरंग, सफर बहुछंद सु संगम।।
डर नाहि दुष्ट अघ दुयन को, सज्जन ज्ञान सुसंग रे।
कर सर बिहार नरहर कहें, हंस माहें जा मूढ रे।।
इस सरोवर में न टूटने वाली भक्तिरूपी पाल (दीवार) है, श्रद्धारूपी सोपान, गहरे भावरूपी जल एवं अर्थ रुपी वृक्ष एवं नौ रस कलरव करते पक्षी, अद्भुत उक्तियाँ इसकी तरंगे एवं छंद क्रीड़ारत मछलियाँ हैं। सज्जन एवं ज्ञानके सुसंग से दुष्ट एवं पापों का भय भी नहीं है, अतः हे मेरे मनरूपी हंस! तू इस रामगीतारूपी मानसरोवर में विहार कर।

तुलसी ने रामचरित मानस प्रणयन का मुख्य हेतु जहाँ स्वान्त: सुखाय माना है वहीं नरहरिदास ने अपने ग्रंथ अवतार-चरित्र का मुख्य हेतु परहिताय बताया है। नरहरिदासजी के भक्त-हृदय में इस बात की कसक थी कि अल्प बुद्धिवाले एवं कलि-मल विमूढ़चेता जन शास्त्ररूपी नाव पर सवार होकर कैसे भवसागर पार करेंगे? ऐसे लोगों के लिए उन्हीं की भाषा में इस भवसागर से संतरण हेतु (इस अवतार-चरित्र रूपी) सेतु का निर्माण किया है। कवि की लोकमंगलकामना वन्दनीय है: –

दधि रूपी जग देखि, जीव बहु बूडत जाणें।
विष्णु आदि कवि व्यास, विबुध बांणी बाखाणे।।
सास्त्र नाव समान, पिंडत खेवट होई पारं।
तुच्छ बुद्धि कलि तिके, अजत डोले केवारं।।
तिहिउदधि सीस अवतार जस, सेत बांधि नरहर सुकव।
उद्धरे आप पुनि जन अवर, भणि चढ उतरे पार भव।।

नरहरिदास निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे। साथ ही वे विष्णु के सभी अवतारों के प्रति समान रूपसे श्रद्धावनत थे, फिर भी श्रीराम के चरित्र का वर्णन करने में उन्होंने अपनी वाणी को अधिक विस्तार दिया है। नरहरिदास ने भगवान् के सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वतंत्रस्वतंत्र, लोकरक्षक एवं शरणागतरक्षक तथा उद्धारकरूप को प्रमुख रूप से चित्रित किया है: –

अनगनित गुन अप्रमेय आदि जुहेत थिति जुग नाशनं।
नित रमानयन कटाक्ष निरवधि सुख अशेष विलासनं।।
दुख देव मुनि भवभूत दारुन नियत विविधि विनाशनं।
परब्रह्म राम नमामि पूरण पुरुष जोति प्रकाशनं।।
विधि विष्णु रुद्र पुनीत विग्रह भेद प्रतिमा भाशए।
तुम त्रिगुनमय अनुसरत आतम पुरुष प्रकृति प्रकाशए।।
तुम दिवस पति जलपात्र दाइक सोपि सोषक संम्मते।
तुम गुरहुते गुरु गरुडगामी तन्नमामि पती पते।।

दशशीस के भुजवीस खंडन कीन गमन सकोपए।
आजानुभुज तन मनुज आकृति रन विजय पन रोपए।।
धरनी उधार विहार वारिधि जपत नित मुनिगन जयं।
दुख हरन दीननि अभय दायक तन्नमाति त्रिलोकयं।।
जिहि जोति निगमहु अगम जानत अमित एक अखंडए।
जपि ब्रह्मरुद्र जुगादि जोगी खोज कृत नवखंडए।।
चितहू न आचित दृग अगोचर रहे हेरि ऋशेश्वरं।
सोइ देह धरि मोकहँ दिखाये तम्नमामि नरेश्वरं।।

भक्त कवि नरहरिदास द्वारा लिखित अनेक ग्रंथों का विवरण विभिन्न संग्रहालयों पुस्तकालयों एवं शोध ग्रंथों से प्राप्त होता है। इनमें अवतार चरित्र के अलावा वाणी वैशिष्ठ सार गीता, दशमस्कन्ध भाषा प्रमुख है। शूरवीरों के शौर्य पूर्ण गीत एवं राय अमरसिंह जी रा दूहा भी महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें अमर सिंह राठौड् की जीवनी से संबंधित ५०७ सौरठे है। इसकी हस्तलिखित प्रति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी बीकानेर में उपलब्ध है।

अवतार चरित्र महाकाव्य मध्ययुग की महान रचना है। अलग-अलग अवतारों के बारे में अनेक कवियों ने अपनी लेखनी के द्वारा काव्य रचनायें लिखी, परन्तु चौबीस अवतारों के बारे में एक कवि द्वारा एक महाकाव्य की रचना नरहरिदास बारहठ ने की है। अवतार चरित्र की अनेक प्राचीन पांडुलिपियों में सभी चौबीस अवतारों के अत्यधिक आकर्षक रंगीन चित्र भी देखे गए हैं।

नरहरिदास बारहठ अपनी विद्वता और भक्ति महाकाव्य अवतार चरित्र के कारण अत्यधिक प्रतिष्ठित व पूजनीय कवि थे। मध्यकाल और उसके पश्चात् भी श्रेष्ठ संस्कारवान व प्रतिष्ठित परिवारों एवं राजघरानों में पुत्री की शादी के अवसर पर अवतार चरित्र की प्रति दहेज के रूप में दी जाती थी, ताकि नव दम्पत्ति और परिवारजन भक्ति के श्रेष्ठ संस्कारों से संस्कारित हों।
नरहरिदास बारहठ की विद्वता ने उनके जीवन को सरल व लोक ग्राह्य बना दिया। इस कारण उनकी आम लोगों में जितनी प्रतिष्ठा थी, उतनी ही प्रतिष्ठा राज दरबारों में थी। राजस्थान व देश में शूरवीरता में पूथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौड्, राणा सांगा ने जितनी प्रतिष्ठा प्राप्त की, भक्ति साहित्य में भक्त शिरोमणि मीरां, हरिरस के रचयिता ईसरदास और अवतार चरित्र महाकाव्य के रचयिता नरहरिदास ने भी आमजन के मन में अत्यधिक श्रद्धा अर्जित की।

अवतार चरित्र में अनेक छंदों का प्रयोग कवि द्वारा किया गया है, जिनमें से प्रमुख छंद है-छप्पय, कवित्त, घनाक्षरी, पद्धरी, उधोर, भुजंगप्रात, नाराच दोहा, सोरठा, द्विअक्षरी, सवैया, शार्दूल विकीणतम, गाथा आदि प्रमुख है।

राजस्थान के प्रमुख चारण कवियों को जिन छंदों के प्रयोग में दक्षता प्राप्त थी, उनके बारे में दोहा जनश्रुति में प्रसिद्ध है: –

स्वरूप कवित्त, नरहर छप्पय सूरजमल के छंद।।
गहरी गमक गणेश की रुपक हुकमीचंद।।

उक्त दोहे के अनुसार नरहरिदास ‘छप्पय’ के प्रयोग में सिद्ध हस्त थे। एक बानगी देखिये:

छप्पय छंद
दिघ्घनालि गोला सदिघ्घ, छोहहिं मनु छूट्यौ।
मिलि अशेष निसि गगन, मग्ग तारा जनु टूट्यौ।।
राम सरासन बान, मनहु मोख्यो रिपु मारन।
कनकाचल दिग दछन कर्यो किधौगमन सकारन।
जानकी दरस अभिलाष जिय छीजत जुग भर छनहिछन।
करि रूप वीर हनुमंत कौ मानहु धायौ राम मन।।

अवतार चरित्र में कवि ने अलंकारों का बहुत सुंदर प्रयोग किया। व्याज स्तुति अलंकार का उदाहरण द्रष्टव्य है:-

मोहि देखि कहा कृत मन मलीन,
लै करै अंग ही अंग लीन।
मम वचन सुनहु सीता समोह,
कहा राम काज एतौ अदोह।
आकास वास देखै न कोई,
समपेखै वातुल होय सोई।
कृतघन कुदानि कन्या कुकंत,
अर्पेस सर्व तिहि छलै अंत।
मुंडा जटीन कौ महामित्र,
चाहै अनाथ रीझै चरित्र।

इसी प्रकार रूपक अलंकार का यह उदाहरण द्रष्टव्य है:-

देखत ही पुर डाढ्यो, काहु न कछू है काढ्यो,
बालक बिछौहें बिललात फिरै बालिका।
झरोखा अटारी घर-आंगन कराल झाल,
चौंकि चौंकि भामिनी पलावी गजचालिका।
रहित उपान जातुधानन की वल्लभा जे,
पायनि पयादी सदा पौढे सुख पालिका।
अग जग जान्यो रविचक्र में उजारो भयो,
केसरी के नंद ऐसी पूजी दीपमालिका।

महाराणा राजसिंह चरित्र में केशरी सिंह बारहठ ने महाराणा को नरहरिदास का शिष्य लिखा है।

सुर सत्रह मिति लगन सक, बुधजन तत्य बुलाइ।
बहु कवि नरहर बारहठ, इतश्री पुष्कर आइ।।

राजस्थान के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. हीरालाल माहेश्वरी ने अपनी पुस्तक जाम्भोजी, विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य, में एक भक्तमाल का उल्लेख किया है, जिसमें महाकवि नरहरिदास का वर्णन यों मिलता है-

बारहट ईसरदास जिणी हरिरस हरिगुण गायो।
बारहट नरहरदास औतारचरित बणायो।।
बारहट तेजसी जांणी कही कथा कवि वांणी।
बारहट अलू जांणी जिणी लियो विष्णु पिछांणि।।
बारहट तो बारे वहै, खेत न खूंदे पार का।
अंनचीथे उझड़ बहै, लक्षण सेई गंवार का।।

नरहरिदास बारहठ के संबंध में बुधजी आशिय द्वारा रचित यह छप्पय अत्यधिक प्रसिद्ध है-

ईसर बारठ एक, दूजो नरहर दाखूं।
तीजो तेजसी अलू, जिसे चौथो कर भाखूं।।
पंचम आसौ प्रकट, छटौ केसौ चावै।
सांया जिन सातामों, कान्ह आठमो कहावै।।
नवमौ हमीर जाहर नरां, दसमों माधवदासियौ।
तारजै मुझ्झ इतरा तरण, एकज बुधियों आसियौ।।

परसराम चारण द्वारा रचित भगतमाल में भी नरहरिदास का वर्णन इस प्रकार मिलता है-

ई अलू करमानंद, आणंद सूरदास पुनि संता।
मांडण जीवा केसव, माधव नरहर दास अनंता।।

संत पनायम कबीर पंथी, ग्राम चूड़िया वालों ने एक दोहे में नरहरिदास बारहठ का वर्णन यों किया-

रँग बारठ ईसर अलू, नरहर माधोदास।
साँइयै तेजम सारखा, रँग आणँद गुण रास।।

नरहरिदास बारहठ को वीर रसावतार महाकवि सूर्यमल्ल मीसण ने अपने सुविख्यात ग्रंथ वंश भास्कर में स्मरण करते हुए लिखा कि-

चारण नरहरिदास, कुंभकरण पूरण सुकवि।
ईसरदास रू आस, बदरिदास हुकमेसपुनि।।
ऐसो कोउ चारन अपर भाषा कविवर भोन।
जाकी कविता भक्तिजुत, कीर्ति लहत चहुँ कोन।
।।वंशभास्कर।।

नरहरिदास की प्रशस्ति में महाराजा मानसिंह जोधपुर ने लिखा है:-

पिंगल डिंगल संस्कृत, सक्यो न कोउ सोध।
इण अवतार चरित्र रो, पूरौ मोहि प्रबोध।।

“नरहरिदास बारहठ व उनका अहिल्या उद्धार” नामक निबंध में श्री राजेन्द्र बारहठ ने यह उल्लेख किया है कि कलकत्ता में श्री पूरणचंद नाहर के संग्रह में भी नरहरिदास बारहठ से संबंधित निम्नलिखित चार दोहे उपलब्ध है-

मोटइ मनि मोटइ सुकवि, जग मोटई जस वास।
मरूधर धर सुरतरू समो, दाखां नरहरदास।।१।।
कीरति कमला कर कमल, वपु संतान आवास।
दिन दिन तो अे दीपता, दाखां नरहरदास।।२।।
भरह पिंगल मुण भाखतऊ, छह रितु बारह मास।
सुर गुरु हूंता क्यूं सरस, दाखां नरहरदास।।३।।
लाखां सुत लाखां लहण, ईहग पूरण आस।
गढव्यां सिरिहरि गढ़पती, दाखां नरहरदास।।४।।

नरहरिदास की भक्ति रस की कविता की धारा में स्नान करना इतना ही पर्मार्थपूर्ण है जैसा गंगा में स्नान करना। अवतार चरित्र के पठन से एवं उसे यथार्थ रूप में समझकर ही नरहरीदासजी की विद्वता को परखा जा सकता है। गृहस्थी होते हुये भी सच्चे अर्थ में वे त्यागी पुरुष थे। पूरा जीवन अनास्तिक भाव से जीये और चारण कुल को उज्जवल बनाकर अपने जीवन को सार्थक बनाया।

नरहरा भज्या न्यारा, एकधारा निरधारा,
चार वीशां अवतारा वणाव्या सुचाह,
महाबाहु लखानंद चारणां रा सिरमोड़,
सारधारा विद्वान काशी में सराह- 17।।
अर्थात चारण जाति में महात्मा कवि नरहरिदास जी हुए। संसार में रहते हुये भी संसार से पृथक रहकर निश्चयपूर्वक एकाग्रह वृति से श्री हरि का भजन किया एवं शुद्ध प्रेम भाव से चौबीस अवतार की कथा रूप में अवतार चरित्र ग्रंथ की रचना की। श्री लखाजी बारहट के अजानबाहु पुत्र चारण जाति के सिरमौर हैं। उनकी विद्वता की प्रशंसा काशी के विद्वानों तथा पंडितों ने की है। वे महान आत्मा के रूप में इस संसार में अवतरित हुए।

भक्त कवि श्री नरहरिदास बारहठ के भगवत अनुराग रूपी स्याही में भीगी कलम ने जो शब्द समुच्चय कागज पर उतारा है, उसने नरहरिदास को राजस्थानी भक्ति साहित्यिक रिक्थ के संवाहक के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

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भक्तकवि महात्मा नरहरिदास जी बारहठ रचित अथवा उनसे सम्बंधित रचनाओं अथवा आलेख पढ़ने के लिए नीचे शीर्षक पर क्लिक करें –

  • शिव स्तुति – महात्मा नरहरिदास बारहट
  • ध्रुव स्तुति – महात्मा नरहरिदास बारहट

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संस्कार के प्रेरक चारण महापुरूषों की माताओं की भी चारणो के व्यक्तित्व व गुणो के विकास मे महत्वपुर्ण भुमिका रहती थी। हालांकी चारणो मे देवियों के अतिरिक्त एतिहासिक महिला पात्रो की जानकारी कम ही संरक्षित रही, फिर भी कुछ उदाहरणो मे एक कीकावती जी का उदाहरण प्रमुख है

महान ग्रन्थ “अवतार चरित” के रचियता नरहरिदास बारहठ की पुज्य माता कीकावती का इतिहास में अपना स्थान है जिन्होने अपना सारा धन दीन-दुःखियो को बांटने मे लगा दिया। संवत १७८७ मे दुर्भिक्ष अकाल में इन्होने अपने संचित धन से अकाल पीड़ितों की अपार सहायता की थी इस प्रसंग के कई कवित्त मिलते हैं।

अन्नाभाव मे दुःखित माताओ ने अपने कलेजे की कोर शिशुओं को निरालम्ब छोड़ दिया, पतियों ने प्रियाओं को छोड़ दिया व अन्न की खोज मे पत्नियों ने अपने पति का त्याग कर दिया। ऐसी विषम निराश्रित स्थिति मे कीकावती ने अन्नदान कर बुभुक्षितों की सहायता की। मारवाड़ के निवासी अपने ग्रामो को त्याग कर प्राण रक्षा के लिये मेवाड़ मालवा सिरोही बागड़ आदि चले गये पर भेरोंदा के निवासियों को कीकावती ने अन्नाभाव मे अन्यत्र नहीं जाने दिया जिसका साक्षी है यह गीत:-

पडै़ रोर चंहु ओर, कणह कणह सम कीधौ।
वेचि वेचि नर वैंत, लौभ लाधौ तंहा लीधौ।।
मेदपाटि माळवी, सतरि सोरठि सिरोही।
दखि बागड़ी दखिणाधि, मुणे गुज्जर मुररोही।।
एतला देस चाले संहु, नगर भैरूंदे निहट्टिया।
जगि वार तेण जड्डा धरहि, कीका एन मुकता किया।।

कीकावतीजी जाड़ा मेहड़ु की सुपुत्री थी व लक्खाजी को ब्याही थी। इनके दो पुत्र थे नरहरिदासजी व गिरधरदासजी, दोनो ही राज समाज व काव्य जगत मे प्रसिद्ध हुए। लक्खाजी व नरहरिदासजी दोनो ही पिता पुत्र अकबर व जंहागीर के सभासद थे

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