चारण शक्ति

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माँ जीवणी (सिहमोही)

माँ जीवणी (सिहमोही)

पूरा नाममाँ जीवणी (सिहमुही)
माता पिता का नाममाँ जीवणी माँ का जन्म पिता धानोजी नैया चारण एवम माता बायांबाई के घर
जन्म व जन्म स्थानगुजरात के कच्छ में चारण (गढ़वी) परिवार में हुआ था
स्वधामगमन
 
विविध
 

 जीवन परिचय

चारण शक्ति आई जीवणी (सिहमुही) द्वारा दुराचारी बाकर खान शेख का वध.


आई जीवणी माँ का जन्म पिता धानोजी नैया चारण एवम माता बायांबाई के घर गुजरात के कच्छ में चारण (गढ़वी) परिवार में हुआ था।

कच्छ में पानी की समस्या के कारण, धानोजी चारण अपने परिवार एवम कुछ चारणों सहित स.1788 के आसपास गुजरात में सरधार नामक स्थान के पास आकर बस गए,

इस समय जीवणी माँ की आयु 17 वर्ष थी, आई जीवणी तप तेजवंता एव दैवीय गुणो से विभूषित थे, आसपास के क्षेत्रों में आई जीवणी पर आस्था बढ़ने लगी। आई जीवणी साक्षात जगदम्बा का स्वरूप थी।

स. 1789 के आसपास राजकोट में मुस्लिम शासक द्वारा सरधार नामक स्थान का जिम्मा बाकर खान शेख को दिया, दुराचारी बाकरखान विषय-लंपट प्रवर्ति का था, वह अपनी प्रवर्ति के अनुसार सरधार में अत्याचार करने लगा

उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर कुछ लोग आई जीवणी के पास आये और फ़रियाद की माँ इस दुराचारी से आप ही रक्षा करो
जगदम्बा स्वरूप आई जीवणी ने
आश्वासन दिया कि निश्चिंत रहो इस दृष्ट का अंतिम समय निकट है,

एक समय आई जीवणी अपने पिता धानाजी चारण के साथ सरधार गये थे वहां दुष्ट बाकरखांन के सिपाहियों ने आई जीवणी को देखा, एवम
सिपाही बाकरखांन के पास जाकर आई कि प्रशंसा करने लगा दुराचारी बाकरखान लालायित हो उठा, तभी सिपाही ने कहा लोग कहते है वो कोई करामात वाली है

विनाश काले विपरीत बुद्धि

दुराचारी बाकर खान ने सिपाहीयो को आदेश दिया कोई भी करामात वाली हो उसको पेश करो

दूसरी तरफ आई जीवणी के पिता को अहसास हो गया था, आज दुराचारी बाकर शेख का अंत समय निकट है। एका-एक आई जीवणी की मेघ गम्भीर गर्जना से आकाश से थर्रा उठा पिता धानाजी ने आई जीवणी के
दिव्य रूप को प्रणाम किया,
हे जोगमाया धन्य कर दिया आपने जगदम्बा आई जीवणी (सिहमोह) दुष्ट का का विनाश करने निकल पड़े सभी दिशाओं में गर्जना गूंज उठी

आकाशे वादली काळी, उजळी लोवड़ियाली
खीजंता नागण काळी, कड़का विज रा पड़े
जीवणी सिह पे चढ़े

बाकरखान के सिपाही आई जीवणी का विकराल रूप देख थर थर काँपने लगे एवम जान बचाकर भागने लगे, एकाएक सिह रूप को देख सभी थर्रा उठे, आस पास के लोग आई कि जय जयकार करने लगे, आई ने गर्जना कर के कहा – दुष्ट बाकर तेरा अंत निकट है

जब बाकर ने आई को देखा तो डर के मारे काँपने लगा और भागने लगा, आई जीवणी सिह का रूप धर आई दुष्ट की तरफ बढ़े ओर दुष्ट बाकर की जीवन लीला को एक ही प्रहार में समाप्त कर दिया, चारो तरफ आई जीवणी की जयकार होने लगी जय हो आई जीवणी जय सिहमोह

आई जीवणी द्वारा सिह रूप लेकर बाकर का वध करने के कारण आई को सिहमोह नाम से पूजा जाता हैं, ततपश्चात आई जीवणी सभी लोगो को आश्वस्त करती है कि अब मेरा उद्देश्य पूरा हुआ और अब मुझे मृत्यु लोक छोड़ कर जाना होगा
सरधार के दक्षिण में जहां आज जीवणी सिहमोह मा मंदिर है वहां चंदन के लकड़ी की अग्नि शैया तैयार की गई मंगल गीत गाये गए, चारण जगदम्बा की उपासना के छंद गाने लगे और माँ त्रिसूल धारण कर सूर्यनारायण को प्रणाम कर सभी को आशिर्वाद दे कर पद्मासन में बिराज कर इस भौतिक देह को त्याग अनन्त में विलीन हुई

आई जीवणी (सिहमोह) का मंदिर गुजरात राज्य में सरधार किले के दक्षिण दिशा में राजकोट – भावनगर धोरी मार्ग पर स्थित है।


गुजरात व राजस्थान में देवी जीवणी पर अटूट आस्था है

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आई जीवणी माँ के पिता का नाम धानोजी चारण (नैया) ओर मातृश्री का नाम बायांबाई, आई माँ के माता के पिता का नाम भायोभाई जामंग था, आई के पिता का मूल स्थान कच्छ। कच्छ में बार-बार दुष्काळ के कारण वे अपने माल – मवेशी लेकर अन्य चारणों के साथ सौराष्ट्र आ गये और जहाँ पानी की सुविधा थी, वहाँ रहने लगे। स. 1788 के आसपास, उन्होंने घांस और पानी की अच्छी सुविधाएं देखकर सरधार के पास आकर बस गए, आई श्री जीवणी मां की उम्र उस समय 17वर्ष के आस पास थी। आई मां बहुत ही स्वरूपवान, ओर दृढ़ मनोबल वाले थे, जगदंबा के समर्पित उपासक, तप – तेजवंता, तपस्वी, चारण वटवाले व दिव्य प्रतिभा से संपन्न थे। आसपास के क्षेत्रों में आई जीवणी पर आस्था बढ़ने लगी। उनके चेहरे से मानो सूर्यनारायण की किरणें झलक रही हो। माता-पिता, कुल-परिवार तथा अन्य लोग उन्हें जगदम्बा का अवतार मानते थे। बचपन से ही उन्हें आई कह कर संबोधित किया करते थे। वह अक्सर अपने पिता के साथ घी बेचने और मवेशियों के लिए खनन और अनाज कपास खरीदने के लिए सरधार जाया करते थे। उनके दिव्य तेज से चमकते जगतम्बा जैसे रूप को देखकर सभी लोग हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक उन्हें प्रणाम करते। आई जीवणी जगदम्बा का स्वरूप है उनकी यह कीर्ति धीरे-धीरे सर्वत्र फैलने लगी। इसलिए आसपास के गाँवों से लोग उनके दर्शन के लिए धानाभाई गढ़वी के वहां आने लगे। आई जीवणी और उनका परिवार तीर्थयात्रियों का खूब सत्कार करते थे भोजन करवाते। कुछ ही समय में जन-समाज में उनकी दिव्यता और उनके पर्चोओं का वातावरण छाने लगा।

बात लगभग संवत् 1789 की है जब आई जीवाणी की उम्र अठारह वर्ष की थी। उस समय राजकोट के मुस्लिम शासक की ओर से बाकरखान नामक शेख शासन चला रहा था। दुराचारी बाकरखान विषय – लपट प्रवर्ति का था, वह अपनी प्रर्वती के अनुसार सरधार में अत्याचार करने लगा।

उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर कुछ लोग आई जीवणी के पास आये और फरियाद की माँ इस दुराचारी से आप ही रक्षा करो। उस दुराचारी के बारे में सुनकर आई माँ कि आत्मा काँप उठी। उन्होंने आश्वस्त किया कि उस दुष्ट व्यक्ति के पापों का घड़ा अब भर चुका है। जगदंबा आपके दुखों को पल भर में दूर कर देंगी।

इस विषम परिस्थिति में किसी का क्या कर्तव्य हो सकता है? वह विचार आई मां के ह्रदय में घूमने लगा। उन्होंने गहन आत्मचिंतन किया और उस चिंतन के अंत में उन्होंने धार्मिक मर्यादाओं के पालन के लिए, लोगों के कल्याण के लिए किसी भी कीमत पर अपना बलिदान देकर शेख बाकर के उत्पीड़न और अन्याय को समाप्त करने का दृढ़ निर्णय लिया। बाद में एक दिन वह अपने पिता के साथ खरीदारी करने सरधार गये। जब घी व्यापारी के साथ हिसाब-किताब का हिसाब-किताब चल रहा था तो शेख बाकर के एक नौकर ने आई मां को देखा। उसकी बुरी नजर और संदिग्ध हरकतों को देखकर व्यापारी के पेट में दर्द होने लगा। उस व्यापारी के मन में आई मां के प्रति बहुत सम्मान था। सर्वे चारणों को सम्मान की दृष्टि से देखता था। इसलिए उन्होंने धानाभाई गढ़वी को एक तरफ बुलाया और सब कुछ समझाया और उसे चेतावनी दी कि वह अब से आई जीवणी को सरधार में न लाए। इसलिए धाना गढवी ने अन्य सभी काम छोड़कर और जल्दी से आई मां के साथ नेस (घर) चले गए। वहां आई मां ने पिता से पूछा कि बापू, वह घी वाला अकेले में आपसे क्या कह रहा था? पिता ने उत्तर दिया कि बेटा, तुम्हारे जानने के लिए कुछ भी नहीं है। तो आई मां ने कहा नही बापू! तुम न भी कहो तो भी मैं सब समझ गई हूं। वह तुम्हें शेख से सावधान रहने को कह रहा था, लेकिन बापू! आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है, उस शेख के दिन अब पूरे हो गये। माँ जगदम्बा ने इसका निर्णय कर लिया है और मुझे यह कार्य सौंपा है। यह सुनकर धाना गढ़वी ने कहा कि बेटा तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन हम सत्ता के खिलाफ क्या कर सकते हैं? हमें जल्द से जल्द यहां से निकलना होगा, क्योंकि इसमे आबरू और जान को जोखिम का सवाल है।’ इसलिए हमें ऐसा जोखिम नहीं लेना है| यह सुनकर आई माँ की आंखों में चमक आ गई और उसकी गहरी आवाज से गूंजते हुए पता चला कि, ‘पिताजी! जब धर्म पर आक्रमण होता है, जब स्त्री-बहनों को लूट रहे होते हैं, हम भय से भर जाते हैं, यदि हमने ये कदम उठा लिये तो चारणधर्म कहाँ रहेगा? चारण आई को डर और ख़तरा कैसा? और हम मरेंगे भी नहीं…जोखिम नहीं उठाएंगे तो नव लाख लोबडीयाळी का वारिस कौन कहेगा? बापू! माताजी ने मुझे इस अधर्मी को जड़ से उखाड़ने का आदेश दिया है और मैंने माताजी के आदेश का पालन करने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने की कसम खाई है और वह प्रतिज्ञा कल पूरी होगी।”
धाना गढ़वी तो आई मां के इस समय के दिव्य स्वरूप देखकर, चारणत्व के गौरव से भरपूर उनकी अभयवाणी सुनकर दिग्मूढ हो गए। माँ और परिवार के सभी सदस्य भी प्रभावित और स्तब्ध हो गए। माता-पिता को अपनी पुत्री के आई जीवणी महाविराट शक्ति जगदम्बा का दर्शन हुआ। सभी आई माँ के चरणों में गिर पड़े और धाना गढ़वी ने अपनी पगड़ी उतार आई के चरणों में दो हाथ जोड़कर बोले की, माँ जगदम्बा! हम आपको पहचान ना सकें। वह हमारी अज्ञानता है, अब आपकी जो इच्छा वह हमारी-हम सबकी इच्छा। इस बातचीत के बाद आई माँ पद्मासन ध्यान में बैठ गए। समाधिस्थ हुए।

धाना गढ़वी के नेस में, जब आई माँ अपने पिता के साथ उपरोक्त बातचीत में शामिल थे, तब दूसरी ओर, सरधार में, आई माँ के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद, बाकर शेख का सिपाही उसके पास पहुंचा और बाकर शेख से आई माँ कि प्रशंसा करने लगा, हुजूर आज मेने जन्नत की हुरसे भी खूबसूरत औरत देखी, जिसकी पूरी तारीफ जुबान से नही हो सकती, बाकर शेख ने उन्हें बीच में ही रोका और पुछा, बहुत खूब, बहुत अच्छा, मगर वह कौन है तो कहता ही नहीं। हजुरिये ने जवाब दिया कि हुजूर! हमारे यहां सरधार मे चारण लोगों का एक नेस है, पड़ाव है, वहां एक जवान कुंवारी औरत हर दिन यहां सरधारा मे घी बेचने ओर खरीदी करने के लिए आती है। अगर वो आपके हरम में आ जाए तो बस उजाला ही उजाला छा जाएगा। तो बाकर शेख ने कहा, ऐसा! तो देखो कल तुम दस-बारह आदमी तैयार रहना और जब वह नूर-जहाँ आये तब उसे यहाँ मेरे पास बुला लाना ओर कहना कि शेख साहब को घी की जरूरत है, इसलिए लिये रूबरू बात करने के लिए बुलाते हैं। हजुरिया ने उत्तर में कहा के, मालिक ! हम लोग तो तैयार रहेगे मगर लोग कहते हैं, मानते भी है कि वह दैवी है – माताजी है, और करामतवाली है। बाकर शेख उत्तर दिया के, अरे हिन्दू लोग तो मूर्ख होते हैं, कैसी करामत! ओर कौन देवी – माताजी ? यह सब वहम की बाते है। जो हो सो हो, आखिर है तो औरत ना ? इसलिए लिये वह आये तब यहाँ बुला लाना। ओर अगर न आये तो पकड़ कर आना समझा ? हजुरियों बोल्यो, हां हजूर ! नही आयेगी तो पकड़ कर लायेंगे।

अगली सुबह दूसरे पहर के प्रारंभ में स्नान-ध्यान-पूजन से निवृत्त होकर माँ जीवणी सरधार के लिए प्रस्थान किया। उनके साथ धाना बापू भी थे। साथ ही नेस के सभी लोगों को इस मामले के बारे में पता चल गया है, अत: नेस के सभी शक्तिशाली भाई और सभी स्त्रियाँ भी चारणत्व और चारण प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अपनी इष्ट जगदम्बा की मर्यादा भंग होने से पहले ही मर जाने का निर्णय लेकर आई के पीछे चलने लंगी। आई माँ ने उन्हें हिदायत दी कि आप जल्दबाजी में कोई कदम न उठाएं। मैं उस शेख से हिसाब समझूंगी, अगर मेरी तरफ से कोई सुझाव हो तो ही आपको आगे बढ़ना है, नहीं तो आपको साक्षी बनकर देखना ही होगा। जगदंबा अपना काम खुद करेगी, सभी ने आई माँ के आदेशों का पालन किया। जब आई माँ वगैरह सरधार पहुंचे तो शेख का नौकर अपने दस जैसे साथियों के साथ इंतजार में खडा था, उसने आई को दूर से आते देखा, इसलिए वह बाकर शेख के पास भागा और गांव के बीच में, दरबारगढ़ में अपने मेड़ी के बाजार की मुख्य सड़क पर, शेख को एक गोख के पास लाया और बाजार में दूर से आ रहे आई माँ पर अपनी उंगली उठाई और कहा, ‘देखो! ‘वह नूरजहाँ – जिन्नात की रोशनी आरही है।’ बाकर शेख आई का दिव्य अलौकिक रूप, मृगपति जैसी राजसी चाल और तेज की किरण वाली दिव्य प्रतिभा को देखकर आश्चर्यचकित हो गया, लेकिन विनाश समय विपरीत बुद्धि, उस न्याय ने पर्दा नहीं उठाया उसकी अज्ञानता का, कामुकता के दलदल में फंसकर उस पापी ने आदेश दिया, जाओ जाओ, जल्दी जाओ और वाह नूर महताब-जिन्नत की परी को यहां बुला लाओ। आदेश मिलते ही वह हजूरीया दौड़कर अपने साथियों के साथ आई माँ के पास पहुंचा और आई माँ से कहा, आपको शेख साहब बुला रहे हैं तो चलो हमारे साथ चलो चलो। (आई माँ के साथ बाकर शेख के लोग बात कर रहे थे, यह सब जानकर ग्रामीण के सभी लोग इकट्ठा होने लगे। स्थिति को समझने के बाद वे बात करने लगे कि क्या करना चाहिए) इसी बीच आई माँ ने हजूरीये को जवाब दिया कि अगर मैं नहीं आऊँगी तो तुम क्या करोगे? तो हजूरीये ने कहा कि अगर तुम नहीं आओगे तो तुम्हें पकड़ कर लें जायेगे। तो आई तिरस्कारपूर्ण और गंभीर स्वर में कहा,ऐसा! पकड़कर ले जाओगे? पकड़ने वाला कौन है? यह कहकर उसने अपने दोनों हाथों को रगड़ा और रगड़ते ही उसके अंगों से आग की चिंगारियां निकलने लगीं और आई माँ विकराल रूप धारण कर लिया। यह देखकर पकड़ने के लिए आये सभी भागे। वहाँ आई माँ ज़ोर से चुनौती दी, तुम्हारा बाकर शेख कहाँ है? कहा है विषयलंपट शेख कहाँ है? मैडी ऊपर? यह कह कर वह स्वयं शेख की माढ़ मेड़ी के आँगन में घुस गए और सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। ऊपर देखा तो बाकर शेख जरिया के रेशमी कपड़े पहने हुए थे, हिरामोती हार से सजा हुआ था, सुगंधित तेल से नहाया हुआ था, बिस्तर पर डेढ़ इंच के रेशमी गद्दे पर तकिया बिछाया हुआ था, और अपनी मूंछें मोड़ रखी थीं। उसने सीढ़ी में हंगामा सुना और जब उसने आई माँ का विकराल रूप देखा तो वह झिझक गया। आई माँ ने वहां चुनौती दी! बाकर शेख! क्या तू रूप का आनंद लेना चाहता हैं? आओ आओ। चारण आई का रूप कैसा होता है ये देख ले, इतना कहकर आई माँ ने नरसिंह का रूप धारण कर लिया और भयंकर गर्जना करते हुए बाकर शेख पर झपट की। बाकर ने भागने की कोशिश की, लेकिन आई माँ, जो नरसिंह बने हुए हाथों के झटके से उसे मार गिराया। जैसे ही वह खड़ा हुआ, एक और हाथल (पंजा) उसके सिर पर लगा और वह पीछे गिर गया। आई उस पर चढ़ बैठे। बाकर शेख की मोतिया मर गए उसके होश हवास उड़ गए। उसने मौत के मुंह से बचने के लिए संघर्ष किया, लेकिन सब व्यर्थ गया और नरसिंह रूप बने हुए सिंहमुखी आई जीवणी ने उसकी छाती फाड़ दी। उन्हें यमधाम भेज दिया। उसे उठाकर नीचे रास्ते पर फैक दिया और फिर से गगन गजावती डणक दी।

बाकर का महल, मेडी, मालीया कांप उठे और मैं सिंहमोही – जीवणी माढ मेडी से गर्जना करते करते नीचे आये और बाकर की सेना भाग गई, उसकी पत्नीयां भय और आश्चर्य से स्तब्ध थे। नगर की सारी हिन्दू प्रजा इस ओर दौड़ पड़ी। सबसे पहले धानो गढ़वी और चारणो नृसिंह बने हुए आई मां के पैर छुए। इतने में बाकर के बीवी बच्चे, उसकी सेना ने भी आई माँ के पैर छुए। गाँव के आगेवान, महाजनों सभी एकत्र हो गये। जय माताजी, जय माताजी के जयकारे गूंजने लगे। सभी ने हाथ जोड़े और पैर छूने लगे, लेकिन बच्चे आई माँ का शेर रूप देखकर डर गए थे, इसलिए आई जीवणी माँ ने अपली लीला पूर्ण की और एक इंसान का रूप धारण किया, दोनों हाथ उठाकर उन सभी को आशीर्वाद दिया और फिर कहा, ‘ बाकर शेख को उसके पापों की सज़ा मिल गई है. प्रजा की पीड़ा दूर करने के लिए मुझे उसे मारना पड़ा और मेरे जीवन का कर्तव्य, आपको उसकी पीड़ा से मुक्ति दिलाने का कर्तव्य आज पूरा हो गया। माताजी – जगदंबा मुझे अपने पास बुला रही है, इसलिए मैं आप सभी को, माता-पिता और परिवार के सदस्यों को, सभी चारणों की और सरधार के लोगों से अब सदा के लिए विदाय लूगी। मेरे को सती होना है, इसलिए किसी को कोई दुःखी होना नहीं है। मैं इस शरीर को छोड़कर पूरे ब्रह्मांड में, आप सभी के बीच व्याप्त हो जाऊंगी। छोटे से शरीर को छोड़कर ब्रह्मांड का स्वागत करते हुए मैं जग जननी के स्वरूप से एक हो जाऊंगी। इसलिए मेरा शरीर तो नहीं रहेगा लेकिन मैं आपके साथ रहूंगी। ताकि किसी को दुःख लगाना नही है। किसी को कोई आँसू बहाने नहीं, अस्तु ! अब तुरंत चिता तैयार करो। ‘यह कहते हुए आई माँ हमेशा की तरह अपने परिवार, माता-पिता से मिले।

इस बीच, सरदार के दक्षिण की ओर, जहां आई मां का स्थानक है, वहां चंदन, शमी, पीपल, उबरों, वड़ आदि जैसे पवित्र पेड़ों की लकड़ी की एक चिता रचाई गई। नारियल, टोपरा से सजाकर घी का सिचन करने में आया। इस तरफ आई माँ ने सोलह शृंगार किया। हाथ में त्रिशूल धारण किया, शरनाई ने वातावरण को सिन्धुदा की ध्वनि से भर दिया। ढोल गरजने लगे। सुवासनो, दासियाँ मंगल गीत गाने लगीं। चारण नेस के बच्चों और बहनों ने चर्ज़ो गाना शुरू कर दिया। चारणों ने चरजों और छंद का जाप करना शुरू कर दिया। आकाश धूप से भर गया। अबिल-गुलाल की एली मची और आई जीवणी माँ बड़े समारोह के साथ चिंतास्थल पधारे। चिंता की विधिवत पूजा की गई, परिक्रमा की गई और गंगा जल छिड़का गया। उन्होंने स्वयं हाथ जोड़कर सूर्यनारायण, दिव्य आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी को नमस्कार किया। सबसे पहले भीड़ की ओर हाथ जोड़ने के बाद उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया और जय जगदंबा, जय जगदंबा की धुन गूंज उठी। आई माँ चिता पर चढ़ गए, उस पर पद्मासन बैठाया गया। जगदंबा को याद किया, जुड़े हुए हाथों से अग्निशिखाएँ प्रज्वलित हो उठीं। पुनः धृतधाराओं को सींचन हुआ और जय जगदम्बा जय जगदम्बा के उद्घोष के साथ ज्वालाओं ने जगदम्बा प्रथम आई जीवणी के भौतिक शरीर को घेर लिया। सरधार के किले के दक्षिण की ओर, राजकोट-भावनगर राजमार्ग पर, आई सिंहमोही – आई जीवणी की डेरी है।

आई कि यह डेरी जीर्ण हो गई। जेतपुर के पास गाँव लूणागरी के गढ़वी श्री देवराजभाई नैया ने एक अच्छा प्रयास किया, फंड एकत्रित कर जीर्ण डेरी को जीर्णोद्धार किया है…

~सन्दर्भ – मातृ दर्शन (पिंगलशीभाई पी. पायक)

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આઈ જીવણી –
આઈ જીવણીના પિતાનું નામ ધાનોભાઈ નૈયા, આઈનાં માનું નામ બાયાંબાઈ, આઈના માતાના પિતાનું નામ ભાયોભાઈ જામંગ, આઈના પિતાનું મૂળ વતન કચ્છ. કચ્છમાં વારંવાર દુષ્કાળ પડતાં તેઓ પોતાના માલ ઢોર હાંકીને બીજા ચારણો સાથે સૌરાષ્ટ્રમાં આવેલા અને ખડ – પાણીની સગવડ હોય ત્યાં નેસ બાંધીને રહેતા. સં. ૧૭૮૮ આસપાસ તેઓ સરધારની સીમમાં ખડ-પાણીની સારી સગવડ જોઈને નેસ બાંધીને રહેવા આવેલાં. આઈ જીવણીની ઉંમર તે વખતે ૧૭ વરસ લગભગની હતી. આઈ બહુ સ્વરૂપવાન, શરીરે ખડતલ અને દૃઢ મનોબળવાળાં હતાં. જગદંબાનાં એકનિષ્ઠ ઉપાસક, તપ-તેજવંતા, ચારણ વટવાળા, દૈવી પ્રતિભાથી વિભૂષિત હતાં. એમને અંગેઅંગથી દિવ્ય રૂપની છટા પ્રસરતી. એમના મુખમંડળમાંથી જાણે સૂર્યનારાયણનાં કિરણો પ્રતિબિંબિત થતાં. માતા-પિતા, કુળ – કુટુંબ અને અન્ય સૌ એમને જગદંબાનો અવતાર માનતાં. નાની વયથી જ એમને આઈ કહીને સંબોધતાં. તેઓ ઘણીવાર પિતાની સાથે ઘી વેચવા તથા માલ ઢોર માટે ખાણ-દાણ કપાસિયા ખરીદવા સરધાર જતાં. એમનું દિવ્ય તેજથી દીપતું સ્વરૂપ જોઈ સૌ લોકો તેમને વિનયપૂર્વક હાથ જોડી વંદન કરતા. આઈ જીવણી જગદંબા સ્વરૂપ છે એવી તેમની કીર્તિ ધીરે ધીરે સર્વત્ર પ્રસરવા લાગી, એટલે આસપાસનાં ગામોમાંથી લોકો તેમનાં દર્શન માટે ધાના ગઢવીના નેસે આવવા લાગ્યા. આઈ જીવણી તથા તેમના કુટુંબીજનો દર્શનાર્થીઓનો ખૂબ સત્કાર કરતા, જમાડતા. થોડા વખતમાં જન-સમાજમાં એમની દિવ્યતાની અને એમના પરચાઓની વાતોનું વાતાવરણ જામવા લાગ્યું.

સંવત ૧૭૮૯ લગભગ જ્યારે આઈ જીવણીની ઉંમર અઢાર વર્ષની હતી ત્યારની આ વાત છે. એ વખતે રાજકોટના મુસલમાન શાસક તરફથી સરધારના વહીવટદાર તરીકે બાકરખાન નામનો એક શેખ હકૂમત ચલાવતો હતો. જુવાન વયનો એ શેખ ઘણો વિષયલંપટ, હીન પ્રકૃતિનો, રૂપ યૌવનનો રસિયો હતો. વિષયસેવનને એ સ્વર્ગસુખ માનતો. પ્રજાની અનેક બહેન-દીકરીઓ, કુળવધૂઓની લાજમર્યાદા એણે લોપેલી. અનેક બાઈઓ બહેનો એ કારણે આપઘાત કરી મરી ગયેલી. એના એ જુલ્મથી પ્રજા ત્રાસી ગયેલી. દરમિયાન કેટલાક ત્રાસિતોની હકીકતો-ફરિયાદો આઈ જીવણી પાસે પણ પહોંચેલી. એ જુલ્મોની વાતો સાંભળીને આઈનો આત્મા કળકળી ઊઠેલો. એમણે ફરિયાદીને આશ્ર્વાસન આપેલું કે, એ દુષ્ટના પાપોનો ઘડો હવે ભરાઈ ચૂક્યો છે. જગદંબા થોડા વખતમાં જ તમારા દુ:ખનું નિવારણ કરશે.

આ વિષમ પરિસ્થિતિમાં પોતાનું શું કર્તવ્ય હોઈ શકે? એ વિચાર તેમના મન-હૃદયમાં રમવા લાગ્યો. એમણે ઊંડું આત્મમંથન આદર્યું અને એ મનોમંથનને અંતે જનસમાજના કલ્યાણ માટે, ધર્મ-મર્યાદાના પાલન માટે, ગમે તે ભોગે જરૂર લાગે તો પોતાનું આત્મબલિદાન આપીને પણ શેખ બાકરના જુલ્મોનો, એની અનીતિનો અંત આણવાનો દૃઢ નિર્ણય કર્યો. બાદ એક દિવસ પોતે પિતાની સાથે ખરીદી કરવા સરધાર ગયેલાં. ત્યાં ઘીના વેપારી સાથે હિસાબની સમજાવટ ચાલતી હતી ત્યારે શેખ બાકરનો એક હજૂરિયો આઈને જોઈ ગયો. તેની દુષ્ટ નજર તથા શંકાસ્પદ હિલચાલ એ વેપારીના જોવામાં આવતાં તેના પેટમાં ફાળ પડી. એ વેપારીને આઈ તરફ ખૂબ પૂજ્યભાવ હતો. સર્વે ચારણોને એ માનની દૃષ્ટિએ જોતો. એટલે તેણે ધાના ગઢવીને એક બાજુ બોલાવીને બધી વાત સમજાવી અને ચેતવણી આપી કે હવેથી કોઈ વખત આઈ જીવણીને સરધારમાં લાવશો નહીં. એટલે ધાના ગઢવી બીજાં કામ પડતાં મૂકીને ઉતાવળ કરીને આઈ સાથે પોતાને નેસ જતા રહ્યા. ત્યાં આઈએ પિતાને પૂછ્યું કે બાપુ, એ ઘીવાળા તમને ખાનગીમાં શું કહેતા હતા ? પિતાએ ઉત્તર આપ્યો કે બેટા, એમાં તમારે જાણવા જેવું કાંઈ નથી. એટલે આઈ બોલ્યાં કે ના બાપુ ! તમે ન કહો તો પણ હું બધું સમજી ગઈ છું. એ તમને શેખથી ચેતતા રહેવાનું કહેતા હતા, પણ બાપુ ! તમે કોઈ ચિંતા કરશો નહીં. એ શેખના દિવસ હવે પૂરા થયા છે. મા જગદંબાએ એનો ફેંસલો કરવાનું નક્કી કર્યું છે અને એ કામ મને સોંપ્યું છે. એ સાંભળીને ધાના ગઢવી બોલ્યા કે બેટા, આઈ તારી વાત સાચી, પણ સત્તા સામે આપણે શું કરી શકીએ ? આપણે તો જેમ બને તેમ અહીંથી જલદી ઉચાળા ભરીને જતા રહેવું છે, કારણ કે આમાં તો આબરૂનો સવાલ અને જાનનું જોખમ. એટલે એવું જોખમ આપણે ખેડવાનું ન હોય. એ સાંભળીને આઈની આંખોમાંથી તેજ વરસ્યાં અને મેઘગંભીર સ્વરથી ગાજતી આત્માના ઊંડાણની એમની વાણી પ્રગટી કે, ‘બાપુ ! ધર્મ પર ધાડ આવતી હોય, બાઈઓ – બહેનોનાં શિયળ લૂંટાતાં હોય ત્યારે ભયથી ઉચાળા ભરીએ, પારોઠનાં પગલાં ભરીએ તો પછી ચારણધર્મ ક્યાં રહેશે ? ચારણ ને આઈને વળી ભય કેવો ને જોખમ કેવું ? અને આવે ટાણે પણ મોત ન આંગમીએ… જોખમ ન ઉઠાવીએ તો પછી નવ લાખ લોબડી આળાઉના વારસ પણ કોણ કહેશે ? બાપુ ! આ અધર્મીને ઉખેડી નાખવાની માતાજીએ મને આજ્ઞા કરી છે અને માતાજીની એ આજ્ઞાનું પાલન કરવા માટે મારા જીવનનું બલિદાન આપવાની પણ મેં પ્રતિજ્ઞા કરી છે અને એ પ્રતિજ્ઞા આવતી કાલે પૂરી થશે.’ ધાના ગઢવી તો આઈનું એ સમયનું દિવ્ય સ્વરૂપ જોઈને, ચારણત્વના ગૌરવથી ભરપૂર એમની અભયવાણી સાંભળીને દિગ્મૂઢ થઈ ગયા. માતા તથા સૌ કુટુંબીજનો પણ પ્રભાવિત થઈ સ્તબ્ધ થઈ ગયાં. માતા-પિતાને પોતાના પુત્રી આઈ જીવણીમાં જગ આખાને વીંટી વળેલ મહાવિરાટ શક્તિ જગદંબાનાં દર્શન થયાં. સૌ આઈના પગમાં પડી ગયા અને ધાના ગઢવી પાઘડી ઉતારી આઈને ચરણે મૂકી બે હાથ જોડી બોલ્યા કે, મા જગદંબા ! અમે તમને ઓળખ્યાં નોતાં. એ અમારું અજ્ઞાન છે. હવે આપની જે ઇચ્છા તે મારી – અમારી સૌની ઇચ્છા. આ વાતચીત બાદ આઈ પદ્માસન વાળી ધ્યાનમાં બેઠાં. સમાધિસ્થ થયાં.

ધાના ગઢવીના નેસમાં જ્યારે આઈ પોતાના પિતા સાથે ઉપર્યુક્ત વાતમાં ગૂંથાયેલાં હતાં, ત્યારે બીજી બાજુ સરધારમાં આઈ અંગે પૂરી જાણકારી મેળવીને બાકરશેખનો હજૂરિયો તેની મેડીએ પહોંચેલો અને બાકર શેખને કહેતો હતો કે હજૂર, આજ મૈંને જિન્નત કી હૂરસે ભી જ્યાદા ખૂબસૂરત ઔરત દેખી, જિસકી પૂરી તારીફ જબાન સે નહીં હો સકતી, ઉસકા ગુલાબ જૈસા મુલાયમ ગોરા ગોરા ગુલબદન, ખીલે હુએ કમલોંસી બડી બડી રસીલી આંખે, પતલીસી કમર, પૂનો કે ચાંદ જૈસા સુહાવના ગોલ મુખડા, ક્યા કહું હૂજુર ! ખૂબસૂરતી કા ફવારાહી સમઝ લીજીએ. બાકર શેખે તેને વચ્ચેથી જ અટકાવીને કહ્યું કે, બહુત ખૂબ, બહુત અચ્છા, મગર વહ કૌન હૈ સો તો કહતા હી નહીં. હજૂરિયાએ જવાબ આપ્યો કે, હુજૂર ! હમારે યહાં સરધારકી હદમેં ચારન લોગોંકા એક નેસ હૈ, પડાવ હૈ, વહાંકી એક જવાન કુંવારી ઔરત હરરોજ યહાં સરધારમેં ઘી બેચને ઔર ખરીદી કરને કે લિયે આતી હૈ. સારે જહાં કા નૂર ખુદા તા-અલાને ઉસકે બદનમેં ભર દિયા હૈ. અગર વો આપકે હરમમેં આ જાય તો બસ ઉજાલા હી ઉજાલા છા જાયેગા. એટલે બાકર શેખે કહ્યું કે, ઐસા ! તો દેખો કલ તુમ દશ-બારહ આદમી તૈયાર રહના ઔર જબ વહ નૂરે-જહાં આયે તબ ઉસે યહાં મેરે પાસ બુલા લાના. કહના કિ શેખ સાહેબ કો ઘીકી જરૂરત હૈ, ઇસ લિયે રૂબરૂ બાત કરને કે લિયે બુલાતે હૈં. હજૂરિયાએ ઉત્તરમાં કહ્યું કે, માલિક! હમ લોગ તો તૈયાર રહેંગે મગર લોગ કહેતે હૈં, માનતે ભી હૈ કિ વહ દૈવી હૈ – માતાજી હૈ ઔર કરામતવાલી હૈ. બાકર શેખે ઉત્તર આપ્યો કે, ‘અરે હિન્દુ લોગ તો મૂરખ હોતે હૈં – કૈસી કરામત ! ઔર કૌન દેવી ?

માતાજી ? યે તો સબ વહમકી બાતે હૈ. જો હો સો હો. આખિર હૈ તો ઔરત ના ? ઇસ લિયે જબ વહ આયે તબ યહાઁ બુલા લાના. ઔર અગર ન આયે તો પકડ કર આના સમઝા ? હજૂરિયો બોલ્યો, હાં હજૂર ! નહિ આયેગી તો પકડ કર લાયેંગે.’

બીજે દિવસે સવારના બીજા પહોરની શરૂઆતમાં સ્નાન – ધ્યાન – પૂજાથી નિવૃત્ત થઈને આઈ જીવણીએ સરધાર તરફ પ્રયાણ કર્યું. ધાના બાપુ પણ તેમની સાથે જ હતા. ઉપરાંત નેસમાં સર્વને આ બાબતની જાણ થઈ ગયેલી. એટલે નેસના સર્વે સશક્ત ભાઈઓ તથા સર્વે બાઈઓ પણ ચારણવટની, ચારણી પ્રતિષ્ઠાની રક્ષા કરવા માટે, પોતાના ઇષ્ટ જગદંબાનાં માન – મર્યાદાનો ભંગ થાય તે પહેલાં મરી મટવાના નિર્ણય સાથે આઈની પાછળ ચાલવા લાગ્યા. આઈએ તેમને સૂચના આપી કે, તમારે કોઈએ કંઈ ઉતાવળું પગલું ભરવાનું નથી. એ શેખની સાથેનો હિસાબ હું સમજી લઈશ. મારા તરફથી સૂચન થાય તો જ તમારે આગળ વધવું, નહિ તો તમારી સાક્ષી બનીને જોયા કરવાનું છે. જગદંબા એનું પોતાનું કાર્ય પોતે જ કરશે. સૌએ આઈની આજ્ઞા માથે ચડાવી. આઈ વગેરે સરધારમાં પહોંચ્યાં ત્યાં શેખનો હજૂરિયો તેના દસેક સાથીઓ સાથે રાહ જોતો ઊભો હતો. તેણે દૂરથી આઈને આવતાં જોયાં એટલે તે દોડીને બાકર શેખ પાસે પહોંચ્યો અને ગામની વચ્ચે દરબારગઢની તેની મેડીના બજારના મુખ્ય રસ્તા પર ગોખમાં શેખને તેડી લાવ્યો અને બજારમાં દૂરથી આવી રહેલ આઈ તરફ આંગળી ચીંધીને બોલ્યો કે, ‘દેખિયે હજૂર ! વહ નૂરેજહાઁ – જિન્નત કી રોશની આ રહી હૈ.’ આઈનું દિવ્ય અલૌકિક રૂપ, મૃગપતિ જેવી ગૌરવભરી ચાલ અને તેજ તેજના અંબારવાળી દિવ્ય પ્રતિભા જોઈને બાકર શેખ છક્ક થઈ ગયો, પણ વિનાશ કાળે વિપરીત બુદ્ધિ, એ ન્યાયે તેનાં અજ્ઞાનનાં પડળ ઊઘડ્યાં નહીં. કામુકતાના કાદવમાં ખૂંચેલા એ પાપાત્માએ હુકમ કર્યો કે, જાઓ જાઓ, જલદી જાઓ ઔર વહ નૂરે મહતાબ-જિન્નત કી પરી કો યહાં બુલા લાઓ. આજ્ઞા થતાં તો એ હજૂરિયો દોડ્યો અને પોતાના સાથીદારો સાથે આઈની પાસે પહોંચ્યો અને આઈને કહ્યું કે, આપકો શેખ સાહબ બુલા રહે હૈં તો ચલો હમારે સાથ ચલો. (આઈની સાથે બાકર શેખના માણસો વાતો કરે છે તે જાણીને ગામ લોકો ભેળા થવા લાગ્યા. પરિસ્થિતિનો ખ્યાલ કરી શું કરવું તેની વાતો કરવા લાગ્યા) દરમિયાન આઈએ હજૂરિયાને ઉત્તર આપ્યો કે, હું ન આવું તો તમે શું કરશો ? એટલે હજૂરિયાએ કહ્યું કે, નહિ આઓગી તો પકડ કર લે જાયેંગે. એટલે આઈ તિરસ્કારભર્યા ગંભીર સ્વરે બોલ્યાં, એમ ! પકડીને લઈ જશો ? કોણ પકડનાર છે ? એમ કહીને આઈએ બંને હાથ મસળ્યા, ઘસ્યા ત્યાં તો આઈ જીવણીના અંગ પ્રત્યંગથી અગ્નિના તણખા ઝરવા લાગ્યા અને આઈએ વિકરાળ રૂપ ધારણ કરી લીધું. તે જોઈને પકડવા આવેલા ભાગ્યા. ત્યાં આઈએ ગગન ગજવતો પડકાર કર્યો, ક્યાં છે તમારો બાકર શેખ ? ક્યાં છે એ વિષયલંપટ શેખ ? મેડી ઉપર ? એમ કહેતાં કહેતાં પોતે શેખની માઢ મેડીના પ્રાંગણમાં દાખલ થયાં અને ધમધમધમ દાદરો ચડવા લાગ્યાં. ઉપર જઈને જુએ છે તો બાકર શેખ જરિયાની રેશમી કપડાં પહેરી, હીરામોતીના હારથી શણગારાઈને અત્તર તેલ ફુલેલમાં ગરકાવ થઈને પલંગ પરના દોઢ હાથના રેશમી ગાદલા પર તકિયાને અઢેલીને, મૂછોને વળ દેતો પડ્યો હતો. તે દાદરાના ધમધમાટને સાંભળીને ઊભો થઈને આઈને ભેટવાની ઇચ્છાથી સામો આવ્યો, પણ આઈનું વિકરાળ રૂપ જોઈને તે ખચકાણો. ત્યાં આઈએ પડકાર કર્યો ! બાકર શેખ ! તારે રૂપ માણવું છે ? આવ હાલ્યો આવ. ચારણ આઈનું રૂપ કેવું હોય તે જોઈ લે. એમ કહેતાં તો આઈએ નરસિંહરૂપ ધારણ કર્યું અને ભયંકર ગર્જના કરી બાકર શેખ પર ઝપટ કરી. બાકર ભાગી નીકળવાનો પ્રયત્ન કરવા ગયો, ત્યાં હાથનો ઝપાટો લગાવીને નરસિંહ બનેલા આઈએ તેને પાડી દીધો. તે ઊભો થવા ગયો ત્યાં બીજી હાથલ (પંજો) તેના માથા પર પડી અને તે પછડાયો. આઈ તેના પર ચડી બેઠાં. બાકર શેખના મોતિયા મરી ગયા. તેના હોશહવાસ ઊડી ગયા. મોતના મુખમાંથી છૂટવાના ફાંફા માર્યા, પણ બધું વ્યર્થ ગયું અને નરસિંહરૂપ બનેલાં એ સિંહમુખી આઈ જીવણીએ તેની છાતી ચીરી નાખી. તેને યમધામમાં મોકલી દીધો. ઉપાડીને નીચે રસ્તા પર ફેંક્યો અને ફરીને ગગન ગજાવતી ડણક દીધી. બાકરના મહેલ, મેડી, માળિયાં ધ્રૂજી ઊઠ્યાં અને આઈ સિંહમોઈ – જીવણી માઢ મેડીએથી ગર્જના કરતાં કરતાં નીચે ઊતર્યાં અને બાકરનું લશ્કર તેની શિરબંધી, તેની બીબીઓ ભય આતંક આશ્ર્ચર્યથી વિમૂઢ બની દોડી આવ્યાં. આ બાજુ શહેરની સર્વ હિન્દુ પ્રજા દોડી આવી. સૌ પ્રથમ ધાનો ગઢવી અને ચારણો નૃસિંહ બનેલાં આઈને પગે લાગ્યાં. એટલે બાકરનાં બીબી બચ્ચાં, તેના લશ્કરવાળા પણ સૌ પગે લાગ્યાં. ગામના આગેવાનો, મહાજનો સૌ ભેળા થઈ ગયા. જય માતાજી, જય માતાજીના ઘોષ ગાજવા લાગ્યાં. સૌ હાથ જોડી પગે લાગવા માંડ્યા, પણ બાળકો, આઈનું સિંહ સ્વરૂપ જોઈને ગભરાતાં હતાં એટલે આઈ જીવણીએ પોતાની લીલા સંકેલી લીધી અને પૂર્વવત્ મનુષ્યશરીર ધારણ કરીને બંને હાથ ઊંચા કરી સૌને આશીર્વાદ આપ્યા અને પછી બોલ્યાં, ‘બાકર શેખને એનાં પાપોની સજા થઈ છે. પ્રજાના દુ:ખના નિવારણ માટે મારે તેને સંહારવો પડ્યો છે અને મારું જીવનકર્તવ્ય, તમને એના ત્રાસમાંથી મુક્ત કરવાનું કર્તવ્ય આજે પૂરું થયું છે. માતાજી – જગદંબા મને પોતાની પાસે બોલાવી રહ્યાં છે. એટલે હું તમારી સૌની, માતા-પિતા તથા કુટુંબીજનોની, સૌ ચારણોની અને સરધારની પ્રજાની હવે સદા માટે વિદાય લઈશ. મારે સતી થવું છે, તેથી કોઈએ કાંઈ દિલગીર થવાનું નથી. હું આ શરીર છોડીને આખા વિશ્ર્વમાં, તમારામાં સૌમાં વ્યાપી જઈશ. નાનું ખોળિયું છોડીને બ્રહ્માંડને આવકારતાં જગ જનનીના સ્વરૂપ સાથે એક થઈશ. એટલે મારું શરીર નહીં હોય પણ હું તમારી સાથે જ રહીશ. માટે કોઈએ દુ:ખ લગાડવાનું નથી. આંસુ પાડવાનાં નથી. અસ્તુ. હવે તરત જ ચિતા તૈયાર કરાવો.’ આટલું બોલી આઈ પોતાના કુટુંબીજનો, માતા-પિતા સૌને યથાયોગ્ય રીતે મળ્યાં.

દરમિયાન સરધારની દક્ષિણ બાજુએ હાલે જ્યાં આઈનું સ્થાનક છે ત્યાં ચંદન, શમી, પીપળ, ઉંબરો, વડ વગેરે પવિત્ર વૃક્ષોનાં કાષ્ઠોની ચિતા રચાણી. નારિયેળ, ટોપરાથી તેને સજાવવામાં આવી અને તે પર ઘીનું સિંચન કરવામાં આવ્યું. આ બાજુ આઈએ સોળે શણગાર સજ્યા. હાથમાં ત્રિશૂળ ધારણ કર્યું. શરણાઈઓએ સિંધૂડાના સ્વરો રેલાવી વાતાવરણને ભરી દીધું. ત્રાંબાળુ ઢોલ ગર્જવા લાગ્યા. સુવાસણો, કુમારિકાઓ મંગળ ગીતો ગાવા લાગી. ચારણ નેસની બાળાઓ-બહેનો ચરજો ગાવા લાગી. ચારણો ચાડાઉ ચરજો અને છંદો બોલવા લાગ્યા. ધૂપોના ધમરોળથી આકાશ છવાયું. અબીલ-ગુલાલની એલી મચી અને આઈ જીવણી મોટા સમારોહ સાથે ચિતાસ્થાને પધાર્યાં. ચિત્તાની વિધિવત્ પૂજા કરી, તેની પ્રદક્ષિણા કરી, ગંગાજળનો તેના પર છંટકાવ કર્યો. પોતે સૂર્યનારાયણને, વિશ્ર્વરૂપ આકાશને, વાયુને, અગ્નિને, જળને, પૃથ્વીને હાથ જોડી નમસ્કાર કર્યા. જનમેદની તરફ પ્રથમ હાથ જોડ્યા પછી હાથ ઊંચા કરી આશીર્વાદ આપ્યા અને જય જગદંબા, જય જગદંબાની ધૂન ગર્જી ઊઠી. આઈએ ચિતા પર આરોહણ કર્યું. તેના પર પદ્માસનવાળી બિરાજમાન થયાં. જગદંબાનું સ્મરણ કર્યું. આહ્વાન કર્યું. હાથ મસળ્યા તેમાંથી અગ્નિશિખાઓ પ્રગટી ઊઠી. ફરીને ધૃતધારાઓનું સિંચન થયું અને જય જગદંબા જય જગદંબાના સ્વરોની મંગળધૂન સાથે જગદંબા આઈ જીવણીના ભૌતિકશરીરને અગ્નિજ્વાળાઓએ લપેટી લીધું. સરધારના કિલ્લાની દક્ષિણ બાજુએ રાજકોટ-ભાવનગર ધોરીમાર્ગને કાંઠે એ સ્થાન પર આઈ સિંહમોઈ-આઈ જીવણીની દેરી છે.

આઈની એ દેરી ર્જીણ થઈ ગયેલી. જેતપુર પાસેના ગામ લૂણાગરીના ગઢવી શ્રી દેવરાજભાઈ નૈયાએ સારી જહેમત ઉઠાવી ફંડફાળો કરીને ર્જીણ દેરીનો ર્જીણોદ્ધાર કરાવ્યો છે…

~सन्दर्भ – मातृ दर्शन (पिंगलशीभाई पी. पायक)

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