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कविराज दयालदास सिंढायच और उनकी रचनाएं – गिरधरदान रतनू दासोड़ी

कविराज दयालदास सिंढायच और उनकी रचनाएं – गिरधरदान रतनू दासोड़ी

पूरा नामकविराज दयालदासजी संढायच
माता पिता का नामइनकी माता का नाम किसना किनियाणी व पिता खेतसिंहजी संढायच था
जन्म व जन्म स्थानखेतसिंहजी संढायच के घर वि. स. 1855 में हमारे आलोच्य ख्यातकार दयालदासजी संढायच का जन्म इनके पैतृक गांव वासी में हुआ।
स्वर्गवास
 
अन्य
  • दयालदासजी संढायच का ननिहाल कोलायत तहसील के गांव “भाणै रो गांव” में कनिया उदैरामजी के घर था। इनकी मां का नाम किसना किनियाणी था।
  • दयालदासजी के दो भाई और थे जिनके नाम क्रमशः जगरूपजी और मूळजी थे।

 जीवन परिचय

कविराज दयालदास सिंढायच और उनकी रचनाएं

राजस्थान की साहित्यिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना और विकास में चारण जाति की महनीय भूमिका रही है, इस बात को इतिहास और संस्कृति के लिए निरन्तर परिश्रम करने वालों ने खुले मन से स्वीकारा है, उन्होंने यह बात भी स्वीकारी है कि राजस्थान के उज्जवल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पक्ष को उद्घाटित करने के लिए चारणों का लिखित साहित्य एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिसका उपयोग बिना किसी पूर्वाग्रहों के करना चाहिए, क्योंकि जब तक डिंगल गीतों और छंदों के संदर्भों को काम में लेकर इतिहास नहीं लिखा जाएगा जब तक अपने कई उज्जवल पृष्ठ यों ही धुंधले रहेंगे।

सूजा बीठू रचित “राव जैतसी रो छंद” के प्रकाश में आने से पहले राती घाटी युद्ध की महत्ता और हमारे लिए एक गौरवपूर्ण अध्याय से हमारे कतिपय लोगों को छोड़कर ज्यादातर अनजान थे। यह ही कारण है कि जब तक चारण कवीश्वरों की लिखी सामग्री को संदर्भ रूप में काम नहीं लिया जाएगा तब तक हमारे यहां घटी अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं की ओर न तो ध्यान आकृष्ट होगा और न ही उनका सही और सम्यक रूपेण मूल्यांकन।

यह बात मैं मेरी तरफ से नहीं बल्कि डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ, डॉ.मनोहर शर्मा, डॉ. नरोत्तमदास स्वामी व झंवेरचंद मेघाणी जैसे ख्यातनाम मनीषियों के उद्गारों से आप को परिचित करवा रहा हूँ। डॉ. शक्तिदान कविया, डॉ. गिरजाशकर शर्मा, डॉ. भंवर भादाणी और ठा. नाहर सिंह तेमावास जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार भी यह बात सहज रूप से स्वीकारते हैं। डॉ. गिरजा शंकर शर्मा अपने आलेख ‘इतिहास में चारणी स्रोत’ में लिखते हैं-

“आज इतिहास लेखन में जो बदलाव आया है, विशेष रूप से समाज की छोटी से छोटी मान्यताओं, घटनाओं और जीवन मूल्यों का तत्कालीन समय के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ व संतुलित दृष्टि से अध्ययन के परिणाम स्वरूप चारणी शैली के इन स्रोतों का इतिहास लेखन में महत्व पहले की अपेक्षा काफी बढ़ गया है। अगर हम यह कहें कि सामन्ती युग में राजस्थान के सामाजिक जीवन की जानकारी के लिए ये स्रोत महत्वपूर्ण हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।”

डॉ. भंवर भादाणी तो एक कदम आगे बढकर लिखते हैं-

“इसलिए उनके द्वारा सृजित साहित्य न केवल तत्कालीन युग का इतिहास है बल्कि शासक वर्ग का सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य प्रस्थापनाओं एवं विचाारधारा का एक मात्र पुख्ता दस्तावेज है। “

काव्य के क्षेत्र में तो सैकड़ों चारण कवीश्वरों के नाम गिनाए जा सकते हैं, परन्तु राजस्थान के या इलाके विशेष के इतिहास को गद्य के रूप में गुंफित करने वाले चारण नर-रत्नों में कविराजा बाकीदासजी आशिया, श्यामलदासजी दधवाड़िया, चैनदानजी वणसूर, बुधजी आशिया, हमीरदानजी रतनू, किशनसिंहजी बारहठ एवं दयालदासजी संढायच सहित कई नाम गिनाए जा सकते हैं। जिनकी विद्वता और विषय की पकड़ प्रमाणिक और प्रसिद्ध रही है। विस्तारभय से हम यहाँ अन्य मनीषियों की बात नहीं करके केवल दयालदासजी संढायच की बात संक्षेप में करेंगे।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दयालदासजी उन्नीसवीं शताब्दी के ख्यातनाम ख्यात्कार, सम्मानित दरबारी, विश्वसनीय सलाहकार, प्रतिष्ठित कवि, श्रेष्ठ गद्य लेखक थे। प्रज्ञा और प्रतिभा के मणिकांचन संयोग के बूते आपने देशी रियासतों में जितना सम्मान पाया वो गौरवानुभूति बढ़ाने वाला है।

इसी सम्मान के बलबूते आपने बीकानेर का देशी रियासतों में जो गौरव बढ़ाया वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। अतः दयालदासजी संढायच की प्रतिभा और प्रज्ञा की साररूप में जानकारी देना समीचीन रहेगा।

दयालदासजी के पूर्वज:-
दयालदासजी पर काम करने वालें सभी इतिहासकारों ने इनके पूर्वजों एवं जीवन के बारे कोई विशेष जानकारी देने का कष्ट नहीं उठाया है। प्रायः उन्हीं बातों का पिष्ट पोषण किया जो पूर्व में कही न कहीं संदर्भ रूप में आ चुकी थी। इस आलेख के माध्यम से हम दयालदासजी संढायच के जीवन एवं उनके पूर्वजों के बारे में संक्षेप जानकारी देना उचित समझतें हैं। ‘रामासणी रावजी री बही’, ‘बिराई रावल देव री बही’, और चारणों के कुल गुरू (उज्जैन) की बही के अनुसार आबू के पंवार वंशीय राजा सम का पुत्र ‘कवीदास’ किन्हीं कारणों से चारण बन गया।

इसी कवीदास की पांचवीं पीढी में ‘भांचळिया’ हुआ। जिससे चारणों की भाचळिया शाखा का प्रवर्तन हुआ। भाचळिया के एक बेटे का नाम संडायच था। इसी संडायच की संतति चारणों में संढायच कहलाती है। इस विषय में डॉ. शक्तिदान कविया लिखते हैं-
“चारणों की शाखाओं के निम्नांकित नाम उनके पूर्वजों अथवा आदि पुरूषों के ही सूचक है यथा आढा, सांदू, आशिया, देथा, रतनू, लालस, कविया, संडायच, रोहड़िया, देभल, कनिया, वणसूर, मीसण, मेहडू आदि-आदि। “

जब नाहड़राव पड़िहार ने पुस्कर तालाब खुदवाया उस समय गुजरात की ओर से संडायच भांचळिया की पांचवी पीढी की संतान नरसिंह भांचळिया वहां आया। नाहड़राव उसकी वीरता, साहस, वाकपटुता और चारणाचार के गुणों से प्रभावित होकर अपना ‘पोळपात’ बनाकर उन्हें 12 गाँवों सहित मंडोवर के दक्षिण की ओर मोगड़ा गाँव और संडायच की संतति में होने के खातिर उसे संडायच अर्थात महापराक्रमी के विरूद्ध से विभूषित किया-

भाचळियो नरसिंघ भड़, पुस्कर कियो पड़ाव।
विरद संडायच भाखियो, राजा नाहड़राव।।

नैणसी अपनी पुस्तक ‘मारवाड़ रै परगनां री विगत’ में इस विषय में लिखते हैं-
“मोगड़ो आदू नाहड़राव रो दत्त 1116 वि. काती सुद पूनम संडायच नरसिंघ नूं।“

यही बात साहित्य मनीषी कैलाशदानजी उज्ज्वल लिखतें हैं–

ताकव तुरंत तेड़ियो, सह नाहड़ सनमान।
सिंहढायच आयो सुभट, दियण तीरथ हित दान।।

इसी नरसिंह की बारहवीं पीढ़ी में गोपालजी संडायच हुए, जिनके तीन बेटे थे रानायजी, सोढ/सोढलजी और ऊदलजी। रानायजी का मोगड़े के भोमियों के साथ किसी बात को लेकर झगड़ा हुआ, जिसमें रानायजी के पारिवारिक सदस्यों के हाथों भोमियों के आदमी मारे गए। वैमनश्यता बढ जाने के कारण रानायजी अपने दोनों भाइयों के साथ मोगड़ा छोड़कर पोकरण के दक्षिण की ओर आए गाँव माड़वा में रहने लगे। रानायजी और ऊदलजी कई वर्षों बाद माड़वा गाँव छोड़कर अभी उजलां गांव हैं वहां रहने लगे। हालांकि ऊजल़ां गांव कहीं नोखाजी संढायच को तो कहीं लालोजी नोखावत को मिलने का उल्लेख मिलता है। नैणसी परगनां री विगत में लिखते हैं-
“दत्त रावळ गोईंद नरावत सूजो जोधावत रो, चारण लाले नोखावत जात सिंढायच नूं।“ तो कैलाशदानजी उज्ज्वल लिखते हैं-

जस पायो पूर्वज जिसौ, धन पायो नोखैह।
जमी फेर लिखदी जका, करी गया जोधैह।।

माड़वा गांव रानायजी के भाई सोढ गोपालोत के पुत्र अखाजी सोढावत को पोकरण राव हमीर जगमालोत ने सांसण में इनायत किया तथा उन्हें अपना पोळपात थापित किया-

हमीर रांण सुप्रसन्न होय,
सूरज समो सुझाड़वो।
अखै नै गांम उण दिन अप्यो,
मोटो सांसण माड़वो।।

रानायजी संढायच की चौथी पीढी में पूंजोजी हुए और पूंजोजी के खेमराजजी और राघवजी हुए। खेमराजजी महाराजा रायसिंहजी बीकानेर के समय जांगल धरा में आकर धरनोक के पास रहने लगे। वहां महाराजा रायसिंहजी ने उन्हें रायथळिया गांव दिया। कालान्तर में यह गांव महाराजा सूरसिंहजी बीकानेर ने वि. स. 1672 में रातड़िया नाम से राघवजी संढायच के वंशज किसनाजी संढायच को सांसण कर दिया। इस संबंध में दयालदासजी अपनी ख्यात में लिखतें हैं-
“सं.1672वैसाख सुद 3नूं। पीछै रातड़ियौ किसनैजी नूं सांसण बगसियो।“

मध्यकालीन डिंगल कवियों में किसनाजी एक जाना-माना नाम हैं। खेमराजजी संढायच की दूसरी पीढ़ी में ठाकुरसी संढायच हुए और ठाकुरसी की दूसरी पीढ़ी में अजबोजी हुए। अजबाजी संढायच को महाराजा जोरावरसिंहजी बीकानेर ने वि. स. 1802 में वासी गांव इनायत किया। बीकानेर सांसणा री बही में लिखा है – महाराजा जोरावर सिंहजी रो दत्त गांव काल़ू री वासी संढायच अजबा वीरमोत नूं। “ अजबाजी के दानसिंहजी संढायच हुए जो स्वयं डिंगल के अच्छे गीतकार थे। दानसिंहजी संढायच के खेतसिंहजी संढायच हुए और खेतसिंहजी संढायच के घर वि. स. 1855 में हमारे आलोच्य ख्यातकार दयालदासजी संढायच का जन्म इनके पैतृक गांव वासी में हुआ। दयालदासजी के दो भाई और थे जिनके नाम क्रमशः जगरूपजी और मूळजी थे।

दयालदासजी संढायच का ननिहाल कोलायत तहसील के गांव “भाणै रो गांव” में कनिया उदैरामजी के घर था। इनकी मां का नाम किसना किनियाणी था। दयालदासजी अपने समय के प्रतिष्ठित और घनाढ्य व्यक्ति थे परन्तु उन्होंने तत्कालीन रइसों की तरह बहु पत्नी प्रथा को तिलांजली देकर मात्र एक शादी की थी। इनका ससुराल बीकानेर के प्रसिद्ध चारणों के गांवों में से एक सींथल़ (बीकानेर) गांव था। जिसके बारे में महाकवि दुरसाजी आढ़ा का कथन है-

सीयां हमीरां सांगड़ां, मिल़ियै जाझै मांम।
सांसण सींथल़ है सिरै, वीसासौ विसरांम।।

दयालदासजी संढायच के ससुर का नाम मूलचंदजी बीठू था तो इनकी जोड़ायत का नाम लिछमा बीठवण। दयालदासजी संढायच के चार पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः अजीतसिंहजी, बगसीरामजी, शिवबगसजी और अम्बादानजी था तथा एक पुत्री थी जिनका नाम अनुबाई था।

दयालदासजी के दो बेटों अजीतसिंह व शिवबगस की मृत्यु असामयिक रूप से इनके जीवन काल में ही हो चूकी थी। इनके बेटे बगसीराम की शादी दासोड़ी (बीकानेर) के रतनू आईदानजी दलावत की पुत्री के साथ हुई थी। इन्हीं बगसीरामजी संढायच की पुत्री रूपकंवर की शादी प्रसिद्ध इतिहासकार एवं महाराज सर प्रतापसिंहजी (जोधपुर) के ट्यूटर रामनाथजी रतनू के साथ हुई थी। ये ही रामनाथजी रतनू “इतिहास राजस्थान” नामक पुस्तक के लेखक और किसनगढ़ रियासत के दीवान थे।

दयालदासजी संढायच का जन्म प्रो. घनश्याम देवड़ा और डॉ. गिरजाशंकर शर्मा ने कूबिया गांव में होना लिखा है जो कि सही नहीं लगता। क्योंकि कूबिया महाराजा सूरतसिंहजी (बीकानेर) ने इनके पिता खेतसिंहजी संढायच को वि. सं. 1865 में दिया था। जबकि दयालदासजी का जन्म सभी ने वि.सं. 1855 में होना लिखा है। अर्थात कूबिया दयालदासजी के जन्म से दस वर्ष बाद मिला था। ऐेसे में हम कह सकते हैं कि दयालदासजी का जन्म इनके पैतृक गांव वासी में ही हुआ था। यह वासी गांव कालू (लूणकरणसर) के पश्चिमी की ओर आबाद है। यहाँ वि.सं. 1927 में दयालदासजी ने अपनी आराध्य देवी चालकनेच का मन्दिर बनाया था। जिसमें मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा समारोह में बीकानेर महाराजा सरदारसिंहजी स्वयं पधारे थे तथा मूर्ति इन्हीं के हाथों स्थापित हुई थीं। ऐसा उल्लेख मूर्ति के नीचे लिखे शिलालेख में किया गया है।

दयालदासजी की शिक्षा-दीक्षा:-
वैसे तो डॉ. गिरजाशंकर शर्मा का मानना सही है कि दयालदासजी की शिक्षा – दीक्षा की कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिलती परन्तु यह बात तो सभी मानते हैं कि दयालदासजी की शिक्षा-दीक्षा इनके पिता व पितामाह की देख-रेख में घर पर ही हुई थीं। संढायच दयालदासजी का परिवार एक संपन्न चारण परिवार था। इनके पिता खेतसिंहजी, पितामह दानसिंहजी और प्रपितामह अजबोजी अपने समय के प्रभावशाली चारण थे, जिनका सीधा प्रभाव मारवाड़ और मेवाड़ तक में था। इन्होंने अपनी प्रज्ञा प्रतिज्ञा और नीति निपुणता की पहचान मारवाड़ और बीकानेर के मध्य वैमनश्यता मिटाने हेतु दी थी जो सर्वविदित है। चाहे महाराजा जोरावरसिंहजी और बखतसिंह की बात हों चाहे सूरतसिंहजी और मानसिंहजी की बात, इन संढायच सपूतों ने अपनी सूझबूझ और राजनैतिक कौशल का परिचय देकर अपने प्रभा मण्डल में विस्तार किया था। ऐसे परिवार के संस्कारों से सींचित दयालदास डिंगल के साथ-साथ अंग्रेजी और फारसी की भी जानकारी रखते थे। काव्य के साथ-साथ इन्हें स्थानीय ही नहीं अपितु वैश्विक इतिहास की भी व्यापक जानकारी थी। इतिहास लेखन में दयालदास निष्णांत थे। बीकानेर कविराजा भैरूदानजी बीठू अपनी पुस्तक “चारण मीमासा मार्तण्ड” में लिखते हैं-

संडायच भो खेतसीदास,
अति बुद्धि निपुण नीति निकास।
दयालदास सुत जास जान,
तवारीख लिखन मांही सुजान।।

सम्मान और पद प्रतिष्ठा:-
दयालदासजी का परिवार बीकानेर राज परिवार से प्रगाढता के साथ जुड़ा हुआ था। ऐसे में इन्हें अपनी प्रतिभा प्रदर्शन हेतु कोई विशेष प्रयत्न नहीं करने पड़े थे। पारिवारिक पृष्ठभूमि के सहारे इनका सम्मान सहज रूप से बीकानेर दरबार में था। महाराजा सूरतसिंहजी, महाराजा रतनसिंहजी, महाराजा सरदारसिंहजी और महाराजा डूंगरसिंहजी के शासनकाल में दयालदासजी बहु सम्मानित व्यक्तित्व के रूप में सर्वविदित नाम था। महाराजा रतनसिंहजी तो इनके सहज व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि इन्हें अपना कविराजा बनाकर पद प्रतिष्ठा दी थी। ‘कविराजा’ उस समय अति सम्मानीय पद हुआ करता था, जिसे शासक व शासन की ओर से कई सम्मान प्राप्त थे। महाराज रतनसिंहजी ने इन्हें विधिवत अपना ‘कविराजा’ कब घोषित किया ऐसा उल्लेख अभी तक देखने में नहीं आया है। हाँ इनके बही-रावल शक्तिदान हेमदानजी की बही के अनुसार महाराजा रतनसिंहजी ने इन्हें वि.सं. 1901 में अपना कविराजा बनाया तथा मोकलेरा गांव इनायत किया था-
“संवत 1901 में महाराजा रतनसिंह इणांने मोकळेरा परगनो भंडाण रो दियो, दयालदास ने हाथी, मोतियां री कंठी बगसी। कविराजा पदवी दी। “

महाराजा रतनसिंहजी के देहावसान के बाद महाराजा सरदारसिंहजी भी इनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। वे इनका बहुत सम्मान करते थे। महाराजा सरदारसिंहजी ने भी इन्हें अपना ‘कविराजा’ बनाकर पूर्ववत पद व प्रतिष्ठा बनाए रखी। शक्तिदान हेमदानजी बिराई के अनुसार “फेर 1925 वि. साल महाराजा सरदार सिंह रतनसिंहघोत, हाथी, मोतियां री कंठी कविराजा की पदवी इनायत कियो अर सामी मिसल बैठण रो हुकम दियो। “

यही बात दयालदासजी संढायच के समकालीन डिंगल कवि मिनजी मोतीसर (सूडां री ढाणी) के गीत से भी इंगित होती है। गीत के अनुसार महाराजा सरदारसिंहजी ने दयालदासजी को वो ही सम्मान दिया जो विगत में जोधपुर महाराजा अभयसिंहजी ने कविराजा करनीदानजी कविया को दिया था–

अस चढियो राजा अभो, कवी चाढै गजराज।
पौहर हेक जलेब में, मौहर हलै महाराज।।

गीत शुद्ध और अविकल रूप से इस प्रकार है-

लगी झूल जरतार हाथ्यां कुनण झालरी,
तांम सिंणगार तोखार ताजा।
तवां विण भार दातार दयाला तनै,
रीझ भुज पूज सिरदार राजा।।1

ग्रंथ पढवेस कुंकम कलम रेख गुण,
भाग बधवेस अब ब्रह्म भाळै।
थळी धर देस राजेस मुरतब थयो,
अपै गजनेस रतनेस वाळै।।2

हाक बज नकीबां बधारै हवेली,
भुयण जस उबारै गुमर भीजा।
इण तरै तनै सुरतेसहर उधारै,
वांन ग्रंथ बधारै दान बीजा।।3

चाढं तो हस्त श्री हाथ ढोळै चमर,
दांन मोती कड़ा आथ दीधो।
सिंढायच काथ थारा बधै सिरोमणी,
कुरब निज हाथ बीकांण कीधो।।4

जबर सामाज साजां सझै जळेबां,
वाज कोतळ भड़ां लोर बहियो।
विद्या विध राज खेतल तणा बेखतां,
कामधजां धीस कविराज कहियो।।5

दयालदासजी के गांव:-
दयालदासजी व इनके पूर्वजों को बीकानेर व मेवाड़ की ओर से समय – समय पर गांव इनायत हुए थे। इनके प्रपितामह अजबाजी संढायच को, वासी तो कूबिया इनके पिता खेतसिंहजी संढायच को मिला था। इन्हीं खेतसिंहजी संढायच को मेवाड़ में भीमल गांव मेवाड़ महाराणा की ओर से भी प्राप्त था ऐसा इनके वर्तमान वंशज सवाईदानजी संढायच का मानना है। दयालदासजी संढायच को मोकळेरां के साथ अन्य 11 गांव और प्राप्त थे ऐसा इन्हीं सवाईदानजी संढायच का कहना है।
उस समय शायद बीकानेर में दयालदासजी संढायच की समकक्षता में कम ही चारण थे जिनके पास जागीरी के इतने गांव प्राप्त थे। बीकानेर महाराजा सरदारसिंहजी के कृपा पात्र व विश्वसनीय सलाहकार होने के कारण इन्हें रीवा व उदयपुर राज्य में बीकानेर का वकील भी नियुक्त किया गया था।

दयालदासजी की रचनाएँ:-
दयालदास बहुपठित, बहुश्रुत व बहुविज्ञ विद्धान व्यक्ति थे। इन्होंने जीवन पर्यन्त लिखा। अनवरत रूप से लिखने के कारण इन्हें अपने पारिवारिक कार्यों के सम्पादन हेतु भी समयाभाव था। इन्होंने “राठौड़ो” री ख्यात, ख्यात देशदर्पण, ख्यात आर्याख्यान कल्पद्रुम, पंवार-वंश-दर्पण, जस -रत्नाकर, करनी- चरित्र सहित कई फुटकर रचनाएं प्रणीत कर साहित्य एवं इतिहास जगत में अपना नाम अमिट लिख दिया। इनके रचना कर्म की संक्षेप में चर्चा करनी समीचीन रहेगी।

राठौड़ां री ख्यात:

दयालदासजी की सबसे प्रसिद्ध रचना है-‘राठौड़ां री ख्यात’। यह ख्यात, लेखक के अपने नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है अर्थात यह कृति “दयालदास री ख्यात” के नाम से ज्यादा जानी जाती है। डॉ. घनश्याम देवड़ा और डॉ. गिरजाशंकर शर्मा के अनुसार यह ग्रंथ 394 पृष्ठों का है। यह ख्यात दयालदासजी ने महाराजा सरदारसिंहजी के आदेशानुसार लिखी थी। उक्त ख्यात को दयालदासजी के कहे अनुसार देशनोक के बीठू चांवडै ने लिपिबद्ध की थी। मारवाड़ में राठौड़ राजवंश के संस्थापक राव सीहाजी से लेकर महाराजा रतनसिंहजी तक का वर्णन दयालदासजी ने इस ख्यात में किया है। इस ख्यात का एक भाग बीकानेर के मध्यकालीन इतिहास के रूप में राव बीका से लेकर महाराजा अनूप सिंह तक का इतिहास डॉ. दशरथ शर्मा के कुशल सम्पादन में छपा था जो आज अनुपलब्ध है। इसके तीसरे भाग में महाराजा सुजानसिंह से लेकर महाराजा रतनसिंह तक का इतिहास लिखा गया है। यह भी छप चूका है लेकिन प्रथम भाग अप्रकाशित है।

प्रथम भाग की पांडुलिपि अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में मौजूद है और इसकी एक प्रतिलिपि नटनागर शोध संस्थान सीतामऊ में है, जिसकी छायाप्रति दयालदासजी के वर्तमान वंशज सवाईदानजी संढायच के संग्रह में भी है। बीकानेर के मध्यकालीन इतिहास के रूप में सांगोपांग जानकारी देता यह ग्रंथ भाषा, शैली और लेखन कला की दृष्टि से उत्कृष्ट ग्रंथों की श्रेणी में आता है। डॉ. गिरजा शंकर शर्मा के अनुसार “पण जे इण ख्यात रो दूजी ख्यातां अर ऐतिहासिक ग्रंथां रै साथै सम्यक अध्ययन करियो जावै तो इणरो सांतरो महत्व सामी आवै। “

ख्यात देश दर्पण:
ख्यात देश दर्पण दयालदासजी ने वैद मेहता राव जसवंत सिंह के आदेश से लिखी थीं। इस ख्यात को दयालदासजी के लिखाए अनुसार रिद्धकरण ने लिपिबद्ध किया था। इस ख्यात में दयालदासजी ने बीकानेर में राठौड़ राज की स्थापना से लेकर महाराजा रतनसिंह तक का इतिहास लिखा है। यह ख्यात दो भागों में विभक्त है। एक में बीकानेर राज की स्थापना से लेकर महाराजा सरदारसिंह के शासन काल का वर्णन है। तो द्वितीय खण्ड में बीकानेर के पट्टों के गांवों का वर्णन है। इस ग्रंथ से तत्कालीन बीकानेर की आर्थिक और सामाजिक स्थितियों की विश्वसनीय व सांगोपांग सूचनापरक जानकारी लेखक ने अपने इस ग्रंथ में दी है। उक्त ग्रंथ यथा नाम तथा गुण को प्रदर्शित करता है।

आर्याख्यान कल्पद्रुम:
दयालदासजी बीकानेर महाराजा डूंगरसिंहजी के भी कविराजा थे। ऐसा प्रमाण महाराजा द्वारा प्रदत्त एक मोहर से मिलता है। यह मोहर इनके वंशज सवाईदानजी के संग्रह में है। जिसमें लिखा हुआ है-

“महाराजा डूंगरसिंहजी, दवागीर कवराज दयालदास”

इन्हीं महाराजा के आदेशों की पालना में दयालदासजी ने ‘आर्याख्यान कल्पद्रुम’ की रचना की थी। वि.सं. 1934 में लिखी गई इस ख्यात में दयालदासजी ने सम्पूर्ण भारत का इतिहास लिखना शुरू किया था। ‘आर्याख्यान कल्पद्रुम’ को दयालदासजी ने तीन खण्डों में लिखने की योजना बनाई थी परन्तु यह ग्रंथ पूर्ण नहीं हो सका। इस ग्रंथ में लेखक ने बीकानेर के साथ-साथ मारवाड़, मेवाड़, जयपुर, अलवर आदि का इतिहास लिखने की मेहनत की थी। राठौड़ों, के साथ गहलोतों, तवरों, कच्छावा, पंवारों, बाघेलों के साथ जैन बौद्ध व मुसलमानों का भी इतिहास लिखने का कुछ हद तक प्रयत्न किया था। इस ख्यात की एक पांडुलिपि इनके वंशज सवाईदानजी संढायच के संग्रह में भी मौजूद है। यह ग्रंथ अन्य पहले वाले ग्रंथों से थोड़ा हटकर है।

पंवार-वंश-दर्पण:

दयालदासजी ने पंवारों की उत्पति इनके इतिहास व कीर्ति योग्य गाथा को गद्य की जगह पद्य में प्रणीत किया है। दयालदासजी ने उक्त ग्रंथ नारसर के ठाकुर अजीतसिंहजी के कहने से लिखा था। दयालदासजी के पूर्वज भी पंवार क्षत्रियों से चारण बने थे। अतः उक्त ग्रंथ विरचित करने का एक कारण यह भी था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा इस ग्रंथ को पंवारों के इतिहास की जानकारी हेतु एक महत्वपूर्ण ग्रंथ मानते हैं। यह ग्रंथ भले ही छोटा है परन्तु सारभूत है।

जस रत्नाकर:
“जस-रत्नाकर” ग्रंथ की रचना दयालदासजी ने बीकानेर महाराजा रतनसिंहजी की गुण ग्राहकता को अमरता प्रदान करने हेतु की थी। पद्य में रचित इस ग्रंथ में रतनसिंहजी और इनके पूर्वजों के सुयश की सौरभ को संचरित किया है। ‘जस-रत्नाकर’ की अभी तक दो प्रतियां देखने में आई हैं। एक अभय जैन ग्रंथालय और दूसरी अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में है। ‘जस-रत्नाकर” में डिंगल की वनिस्पत पिंगल का प्रभाव प्रत्यक्षतः देखने में आता है। इस रचना में दयालदासजी ने अलंकारों, संगीत व काव्य कमनीयता को उकेरा है। दोनों प्रतियों का प्रारंभ अलग-अलग ढंग से होता है। डॉ. गिरजा शंकर शर्मा के अनुसार अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर की प्रति का प्रारंभ इस कवत्त से होता है-

आद विश्व अखलेस, अलख अविनासी अव्यय।
भयेव नाम अभोज, जगत कती सुब्रह्म जय।
जिह भरिय भय जान, भयव कश्यप प्रजेस भुव।
तेज-पुंज सुत तिनह, सगुन जुत आद्यदेव सुव।
ईक्ष्वाक नृपत ताकै भयव, विकुम क्रीत जग विस्तारिया।
जिन बंस कमंध रतनेस जग, अवनी सुजस बहुअनुसारिया।।

जब कि अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर की प्रति का प्रांरभ उक्त दोहों से होता है।

वंदू गनपत वीरवर, भणव सदा मम भाग।
हरिहर अंबे हंस सदा, देव पंच सुखदाय।।
गिरा वंदू गोविन्द गुर, रिध दायक गणराज।
वरणू सौभा रठवरां, दीजै उक्त दराज।।

इस ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य विषय महाराजा रतन सिंह के राज काज का वर्णन है।

सुजस बावनी:
महाराज रतनसिंहजी के अनुज और महाराजा सूरतसिंहजी के तृतीय राजकुमार लक्ष्मणसिंहजी के उदात्त चारू चरित्र की चन्द्रिका चतुर्दिक चमकाने हेतु कविवर दयालदासजी ने ‘सुजस बावनी’ रचकर उदार मना लक्ष्मणसिंहजी के क्षत्रियत्व व औदार्य के गुणों को गुंफित कर अपने कवि कर्म के दायत्वि का निर्वहन किया था। आलंकारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस रचना में पद्य के साथ-साथ टीका भी दी गई है। सरस और सहज ग्राह्य शब्दावली में प्रणीत रचना टकशाली है-

सूरतनंद मौजां समंद, भूप रतन लघु भ्रात।
पातां लखमण पाळगर, वातां सुजस विख्यात।।

दूहा कूरम जूहारो सरणै राखियों तिण मुदा रा-
बठोठ के शेखावत सरदार डूंगजी और जंवारजी अपने समय के क्षत्रिय गुणों से मंडित वीर थे। जिनकी वीरता से अंग्रेजी सत्ता भी आतंकित थी। उक्त दोनों वीर अंग्रेजों से सुरक्षित रहने हेतु सबल स्थान पर शरण की मंशा से जोधपुर व बीकानेर की तरफ आए। डूंगजी ने जोधपुर तथा जंवारजी ने बीकानेर शरण लेना तय किया। भेदियों के भेद देने से डूंगजी को जोधपुर महाराजा तखतसिंहजी ने शरण देने से मना कर दिया था परन्तु महाराजा रतनसिंहजी बीकानेर ने अंग्रेजी सत्ता के आतंक से अशंकित रहकर जंवारजी को शरण दी थी। जिसके संबंध में किसी कवि का एक दोहा प्रसिद्ध है-

………………….., उजर अली आंबेर।
रतन जंवारो राखियों, बंकै बीकानेर।।

इस साहसपूर्ण कार्य की प्रशंसा दयालदासजी ने बिना किसी पूर्वाग्रह के की है।

भले ही दयालदासजी महाराजा रतनसिंहजी के कृपापात्र, विश्वासपात्र व दरबारी कवि थे परन्तु उक्त घटना के वर्णन से उनकी गुणग्राहकता व साहसपूर्ण कार्य से तत्कालीन परिस्थितियों से उदासीन समाज को एक संदेश देने की मंशा प्रकट होती है-

कोप इन्द्र अंगरेज के, ज्यूं ब्रज समो जुहार।
राख्यों हर भूपत रतन, धूप अडर कर धार।।

रतनाकर भयनाख रूख, सुत बलि संभु सिहाय।
कूरम भड़ जुवहार के, भूप रतन भए भाय।।

कंबू लाट श्रुत ज्वार कहि, पुन सु हिंद जळधीप।
कमधज रतन उधार किम, मछ अवतार महीप।।

कुढ मघवा पै कुशळ, हिमकर जेम महेस।
कमधज जतन जुहार कूं, राख्यों नृप रतनेस।।

दोहे अद्यावधि अप्रकाशित है।

फुटकर डिंगल गीत:
दयालदासजी ने कई डिंगल गीत लिखे जो भाव व भाषा की दृष्टि से प्रांजल हैं। इन गीतों की वर्णन विशदता व आलंकारिक छटा को देखकर कह सकते हैं कि दयालदासजी एक कुशल गीतकार भी थे, जिन्होंने अपने समकालीन प्रेरणास्पद व्यक्तियों पर डिंगल गीत रचकर कविवर किसना आढा के उक्त कथन को सार्थकता प्रदान की है-

अधिकारी गीतां अवस, चारण सकव प्रचंड।
कोड़ प्रकारां गीत की, मुरधर भासा मंड।।

सहज, सरस व सारभूत शब्दावली में गुंफित दयालदासजी के डिंगल गीतों में से एक गीत उदाहरणार्थ देना उचित जान पड़ता है। वैद मेहता हिन्दूमल पर रचित एक डिंगल-गीत को अविकल रूप से दे रहा हूं। जिसके चार दोहाले हैं। कहीं-कहीं से पांडुलिपि में अक्षर टूट गए हैं। वैद हिन्दूमलजी कूटनीतिज्ञ, स्वामीभक्त, वीर व कुशल प्रशासक थे। महाराजा सूरतसिंहजी व रतनसिंह के विश्वास पात्र भी थे। रतनसिंहजी ने इन्हें मुख्यमंत्री बनाकर महाराव का खिताब भी दिया था। 42 वर्ष की अल्पायु में ही हिन्दूमलजी की मृत्यु हो गई थी। महाराजा में इनकी चिर स्मृति बनाए रखने हेतु हिन्दूमल-कोट बनाया था। गीत में हिन्दूमल के इन्हीं गुणों को उकेरा गया है।

प्रगट हुतो नृप राज गजराज खूनीपुणां,
– -ग संदुरां वीर वांनो।
लंगर लज वींटियों ऐम द्वारेलसुत,
मसत मकर सत- हसत मानो।।

दवा कज राज जोध मंड डाकदर,
जेण पथ हूंत तज राज आवै।
तजै लज राज मदडांण सुको तुरत,
दुस टो- – वीजै गजराज दावै।।

तोर अंगरेज अवसांण ओखद तदन,
गरळ हत रोग ज्यांन गायौ।
मीन मदहीण हुय रूप तंबा महण,
अगड गढ छौ चैगांन आयौ।।

कमंध तज लाज राखी इल़ा अमर कथ,
समरकथ न राखी देर सींदू।
मान नृप दुरद मद रोग मेटण वीखभ,
हुवो हद राव महाराव हींदू।।

करणी-चरित्र:
लोक पूज्य चारण देवी करनीजी का गद्य में गुंफित इतिहास, दयालदासजी ने इतिहासकार की दृष्टि से लिखा है। करनी जी से संबंधित पद्यात्मक रचनाओं को छोड़ दिया जाए तो “करणी-चरित्र” करनी जी के इतिहास को उदघाटित करने वाली यह प्रथम कृति है। इस रचना की महत्ता को इंगित करते हुए डॉ. गिरजाशंकर शर्मा सही ही लिखते हैं- “गद्य अर पद्य में रचित दयालदास द्वारा लिखित “करणी चरित्र” करणी जी रै इतिहास सूं संबंधित रचानावां में महताऊ रचना है। किशोर सिंह ब्राहस्पत्य की कृति ‘करणी चरित्र’ की आधार सामग्री व ऐतिहासिक घटनाओं का पुष्टिकरण दयालदास के इसी लघु ग्रंथ से किया गया है।

फुटकर रचनाएँ:
इन महत्वपूर्ण रचनाओं के अलावा दयालदासजी की कई रचनाएँ विभिन्न संग्रहालयों में संग्रहीत हैं। जिनमें उल्लेख्य हैंं दूहा हजूर साहिबां रा, दूहा जोधपुर रा घणी राजा तखत सिंह रा, राव राजा बने सिंह रा कवत्त, हरजस, नवरत्नां रा नव कवत्तां री टीका, व अजस इक्कीसी आदि।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दयालदासजी का स्थान राजस्थान के उन्नीसवीं शताब्दी के लेखकों में आदरणीय व अग्रगण्य है। गद्य के गजरे में बीकानेर के यशस्वी इतिहास को गूंथकर जो सुवास भरी वो आज भी महकती हुई तरोताजा है। नामचीन ख्यातकार, गजब के गीतकार, विश्वसनीय सलाहकार व प्रखर प्रतिभा के धनी दयालदासजी बीकानेर रियासत के देदीप्यमान नक्षत्र थे। जिन्होंने अपनी, प्रभा का प्रकाश चतुर्दिक फैलाया। ऋषि ऋण परिशोध की भावना से शोध के क्षेत्र में अभिरूचि रखने वालों को ऐसे मनीषी के साहित्यिक व ऐतिहासिक रचनाओं के शोध हेतु अग्रसर होना चाहिए ताकि इनकी लुप्त प्राय रचनाएं प्रकाश में आ सकें।

~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान
दासोड़ी तह. कोलायत, बीकानेर – 334302

*संदर्भ:–
चारण साहित्य परम्परा -सं. श्यामसिंह रत्नावत
मारवाड़ रै परगनां री विगत -सं. डॉ. नारायण सिंह भाटी
प्रा. स. सा सं संस्थान दासोड़ी का संग्रह
बीकानेर सांसणां री विगत – राज. राज्य अभि. बीकानेर
चारण मीमासा मार्तण्ड – कविराजा भैरूदान – स – डॉ. गुमानसिंह बीठू
राठौड़ा री ख्यात – सं. डॉ.दशरथ शर्मा
ख्यात देशपदपर्ण – सं. डॉ. गिरजाशंकर शर्मा
अप्रकाशित सवाईदान सिंढायच निजि संग्रह
पंवार देशदर्पण – सं. डॉ.दशरथ शर्मा
अनूप संस्कृत पुस्तकालय
अभय जैन ग्रंथालय की प्रति जिसमें जस रत्नाकार के साथ सुजस बावनी सहित कई अन्य रचनाएँ भी हैं।
सिंढायच दयालदास ले. डॉ. गिरजाशंकर शर्मा
चारण-चिंतन-सं. शुभकरण देवल
चारण-चंद्रिका-सं. गिरधरदान रतनू दासोड़ी


 

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