पूरा नाम | कविराज दयालदासजी संढायच |
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माता पिता का नाम | इनकी माता का नाम किसना किनियाणी व पिता खेतसिंहजी संढायच था |
जन्म व जन्म स्थान | खेतसिंहजी संढायच के घर वि. स. 1855 में हमारे आलोच्य ख्यातकार दयालदासजी संढायच का जन्म इनके पैतृक गांव वासी में हुआ। |
स्वर्गवास | |
अन्य | |
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जीवन परिचय | |
कविराज दयालदास सिंढायच और उनकी रचनाएं राजस्थान की साहित्यिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना और विकास में चारण जाति की महनीय भूमिका रही है, इस बात को इतिहास और संस्कृति के लिए निरन्तर परिश्रम करने वालों ने खुले मन से स्वीकारा है, उन्होंने यह बात भी स्वीकारी है कि राजस्थान के उज्जवल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पक्ष को उद्घाटित करने के लिए चारणों का लिखित साहित्य एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जिसका उपयोग बिना किसी पूर्वाग्रहों के करना चाहिए, क्योंकि जब तक डिंगल गीतों और छंदों के संदर्भों को काम में लेकर इतिहास नहीं लिखा जाएगा जब तक अपने कई उज्जवल पृष्ठ यों ही धुंधले रहेंगे। सूजा बीठू रचित “राव जैतसी रो छंद” के प्रकाश में आने से पहले राती घाटी युद्ध की महत्ता और हमारे लिए एक गौरवपूर्ण अध्याय से हमारे कतिपय लोगों को छोड़कर ज्यादातर अनजान थे। यह ही कारण है कि जब तक चारण कवीश्वरों की लिखी सामग्री को संदर्भ रूप में काम नहीं लिया जाएगा तब तक हमारे यहां घटी अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं की ओर न तो ध्यान आकृष्ट होगा और न ही उनका सही और सम्यक रूपेण मूल्यांकन। यह बात मैं मेरी तरफ से नहीं बल्कि डॉ. रघुवीरसिंह सीतामऊ, डॉ.मनोहर शर्मा, डॉ. नरोत्तमदास स्वामी व झंवेरचंद मेघाणी जैसे ख्यातनाम मनीषियों के उद्गारों से आप को परिचित करवा रहा हूँ। डॉ. शक्तिदान कविया, डॉ. गिरजाशकर शर्मा, डॉ. भंवर भादाणी और ठा. नाहर सिंह तेमावास जैसे प्रसिद्ध साहित्यकार और इतिहासकार भी यह बात सहज रूप से स्वीकारते हैं। डॉ. गिरजा शंकर शर्मा अपने आलेख ‘इतिहास में चारणी स्रोत’ में लिखते हैं- “आज इतिहास लेखन में जो बदलाव आया है, विशेष रूप से समाज की छोटी से छोटी मान्यताओं, घटनाओं और जीवन मूल्यों का तत्कालीन समय के परिप्रेक्ष्य में तटस्थ व संतुलित दृष्टि से अध्ययन के परिणाम स्वरूप चारणी शैली के इन स्रोतों का इतिहास लेखन में महत्व पहले की अपेक्षा काफी बढ़ गया है। अगर हम यह कहें कि सामन्ती युग में राजस्थान के सामाजिक जीवन की जानकारी के लिए ये स्रोत महत्वपूर्ण हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।” डॉ. भंवर भादाणी तो एक कदम आगे बढकर लिखते हैं- “इसलिए उनके द्वारा सृजित साहित्य न केवल तत्कालीन युग का इतिहास है बल्कि शासक वर्ग का सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य प्रस्थापनाओं एवं विचाारधारा का एक मात्र पुख्ता दस्तावेज है। “ काव्य के क्षेत्र में तो सैकड़ों चारण कवीश्वरों के नाम गिनाए जा सकते हैं, परन्तु राजस्थान के या इलाके विशेष के इतिहास को गद्य के रूप में गुंफित करने वाले चारण नर-रत्नों में कविराजा बाकीदासजी आशिया, श्यामलदासजी दधवाड़िया, चैनदानजी वणसूर, बुधजी आशिया, हमीरदानजी रतनू, किशनसिंहजी बारहठ एवं दयालदासजी संढायच सहित कई नाम गिनाए जा सकते हैं। जिनकी विद्वता और विषय की पकड़ प्रमाणिक और प्रसिद्ध रही है। विस्तारभय से हम यहाँ अन्य मनीषियों की बात नहीं करके केवल दयालदासजी संढायच की बात संक्षेप में करेंगे। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दयालदासजी उन्नीसवीं शताब्दी के ख्यातनाम ख्यात्कार, सम्मानित दरबारी, विश्वसनीय सलाहकार, प्रतिष्ठित कवि, श्रेष्ठ गद्य लेखक थे। प्रज्ञा और प्रतिभा के मणिकांचन संयोग के बूते आपने देशी रियासतों में जितना सम्मान पाया वो गौरवानुभूति बढ़ाने वाला है। इसी सम्मान के बलबूते आपने बीकानेर का देशी रियासतों में जो गौरव बढ़ाया वह किसी से छुपा हुआ नहीं है। अतः दयालदासजी संढायच की प्रतिभा और प्रज्ञा की साररूप में जानकारी देना समीचीन रहेगा। दयालदासजी के पूर्वज:- इसी कवीदास की पांचवीं पीढी में ‘भांचळिया’ हुआ। जिससे चारणों की भाचळिया शाखा का प्रवर्तन हुआ। भाचळिया के एक बेटे का नाम संडायच था। इसी संडायच की संतति चारणों में संढायच कहलाती है। इस विषय में डॉ. शक्तिदान कविया लिखते हैं- जब नाहड़राव पड़िहार ने पुस्कर तालाब खुदवाया उस समय गुजरात की ओर से संडायच भांचळिया की पांचवी पीढी की संतान नरसिंह भांचळिया वहां आया। नाहड़राव उसकी वीरता, साहस, वाकपटुता और चारणाचार के गुणों से प्रभावित होकर अपना ‘पोळपात’ बनाकर उन्हें 12 गाँवों सहित मंडोवर के दक्षिण की ओर मोगड़ा गाँव और संडायच की संतति में होने के खातिर उसे संडायच अर्थात महापराक्रमी के विरूद्ध से विभूषित किया- भाचळियो नरसिंघ भड़, पुस्कर कियो पड़ाव। नैणसी अपनी पुस्तक ‘मारवाड़ रै परगनां री विगत’ में इस विषय में लिखते हैं- यही बात साहित्य मनीषी कैलाशदानजी उज्ज्वल लिखतें हैं– ताकव तुरंत तेड़ियो, सह नाहड़ सनमान। इसी नरसिंह की बारहवीं पीढ़ी में गोपालजी संडायच हुए, जिनके तीन बेटे थे रानायजी, सोढ/सोढलजी और ऊदलजी। रानायजी का मोगड़े के भोमियों के साथ किसी बात को लेकर झगड़ा हुआ, जिसमें रानायजी के पारिवारिक सदस्यों के हाथों भोमियों के आदमी मारे गए। वैमनश्यता बढ जाने के कारण रानायजी अपने दोनों भाइयों के साथ मोगड़ा छोड़कर पोकरण के दक्षिण की ओर आए गाँव माड़वा में रहने लगे। रानायजी और ऊदलजी कई वर्षों बाद माड़वा गाँव छोड़कर अभी उजलां गांव हैं वहां रहने लगे। हालांकि ऊजल़ां गांव कहीं नोखाजी संढायच को तो कहीं लालोजी नोखावत को मिलने का उल्लेख मिलता है। नैणसी परगनां री विगत में लिखते हैं- जस पायो पूर्वज जिसौ, धन पायो नोखैह। माड़वा गांव रानायजी के भाई सोढ गोपालोत के पुत्र अखाजी सोढावत को पोकरण राव हमीर जगमालोत ने सांसण में इनायत किया तथा उन्हें अपना पोळपात थापित किया- हमीर रांण सुप्रसन्न होय, रानायजी संढायच की चौथी पीढी में पूंजोजी हुए और पूंजोजी के खेमराजजी और राघवजी हुए। खेमराजजी महाराजा रायसिंहजी बीकानेर के समय जांगल धरा में आकर धरनोक के पास रहने लगे। वहां महाराजा रायसिंहजी ने उन्हें रायथळिया गांव दिया। कालान्तर में यह गांव महाराजा सूरसिंहजी बीकानेर ने वि. स. 1672 में रातड़िया नाम से राघवजी संढायच के वंशज किसनाजी संढायच को सांसण कर दिया। इस संबंध में दयालदासजी अपनी ख्यात में लिखतें हैं- मध्यकालीन डिंगल कवियों में किसनाजी एक जाना-माना नाम हैं। खेमराजजी संढायच की दूसरी पीढ़ी में ठाकुरसी संढायच हुए और ठाकुरसी की दूसरी पीढ़ी में अजबोजी हुए। अजबाजी संढायच को महाराजा जोरावरसिंहजी बीकानेर ने वि. स. 1802 में वासी गांव इनायत किया। बीकानेर सांसणा री बही में लिखा है – महाराजा जोरावर सिंहजी रो दत्त गांव काल़ू री वासी संढायच अजबा वीरमोत नूं। “ अजबाजी के दानसिंहजी संढायच हुए जो स्वयं डिंगल के अच्छे गीतकार थे। दानसिंहजी संढायच के खेतसिंहजी संढायच हुए और खेतसिंहजी संढायच के घर वि. स. 1855 में हमारे आलोच्य ख्यातकार दयालदासजी संढायच का जन्म इनके पैतृक गांव वासी में हुआ। दयालदासजी के दो भाई और थे जिनके नाम क्रमशः जगरूपजी और मूळजी थे। दयालदासजी संढायच का ननिहाल कोलायत तहसील के गांव “भाणै रो गांव” में कनिया उदैरामजी के घर था। इनकी मां का नाम किसना किनियाणी था। दयालदासजी अपने समय के प्रतिष्ठित और घनाढ्य व्यक्ति थे परन्तु उन्होंने तत्कालीन रइसों की तरह बहु पत्नी प्रथा को तिलांजली देकर मात्र एक शादी की थी। इनका ससुराल बीकानेर के प्रसिद्ध चारणों के गांवों में से एक सींथल़ (बीकानेर) गांव था। जिसके बारे में महाकवि दुरसाजी आढ़ा का कथन है- सीयां हमीरां सांगड़ां, मिल़ियै जाझै मांम। दयालदासजी संढायच के ससुर का नाम मूलचंदजी बीठू था तो इनकी जोड़ायत का नाम लिछमा बीठवण। दयालदासजी संढायच के चार पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः अजीतसिंहजी, बगसीरामजी, शिवबगसजी और अम्बादानजी था तथा एक पुत्री थी जिनका नाम अनुबाई था। दयालदासजी के दो बेटों अजीतसिंह व शिवबगस की मृत्यु असामयिक रूप से इनके जीवन काल में ही हो चूकी थी। इनके बेटे बगसीराम की शादी दासोड़ी (बीकानेर) के रतनू आईदानजी दलावत की पुत्री के साथ हुई थी। इन्हीं बगसीरामजी संढायच की पुत्री रूपकंवर की शादी प्रसिद्ध इतिहासकार एवं महाराज सर प्रतापसिंहजी (जोधपुर) के ट्यूटर रामनाथजी रतनू के साथ हुई थी। ये ही रामनाथजी रतनू “इतिहास राजस्थान” नामक पुस्तक के लेखक और किसनगढ़ रियासत के दीवान थे। दयालदासजी संढायच का जन्म प्रो. घनश्याम देवड़ा और डॉ. गिरजाशंकर शर्मा ने कूबिया गांव में होना लिखा है जो कि सही नहीं लगता। क्योंकि कूबिया महाराजा सूरतसिंहजी (बीकानेर) ने इनके पिता खेतसिंहजी संढायच को वि. सं. 1865 में दिया था। जबकि दयालदासजी का जन्म सभी ने वि.सं. 1855 में होना लिखा है। अर्थात कूबिया दयालदासजी के जन्म से दस वर्ष बाद मिला था। ऐेसे में हम कह सकते हैं कि दयालदासजी का जन्म इनके पैतृक गांव वासी में ही हुआ था। यह वासी गांव कालू (लूणकरणसर) के पश्चिमी की ओर आबाद है। यहाँ वि.सं. 1927 में दयालदासजी ने अपनी आराध्य देवी चालकनेच का मन्दिर बनाया था। जिसमें मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा समारोह में बीकानेर महाराजा सरदारसिंहजी स्वयं पधारे थे तथा मूर्ति इन्हीं के हाथों स्थापित हुई थीं। ऐसा उल्लेख मूर्ति के नीचे लिखे शिलालेख में किया गया है। दयालदासजी की शिक्षा-दीक्षा:- संडायच भो खेतसीदास, सम्मान और पद प्रतिष्ठा:- महाराजा रतनसिंहजी के देहावसान के बाद महाराजा सरदारसिंहजी भी इनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। वे इनका बहुत सम्मान करते थे। महाराजा सरदारसिंहजी ने भी इन्हें अपना ‘कविराजा’ बनाकर पूर्ववत पद व प्रतिष्ठा बनाए रखी। शक्तिदान हेमदानजी बिराई के अनुसार “फेर 1925 वि. साल महाराजा सरदार सिंह रतनसिंहघोत, हाथी, मोतियां री कंठी कविराजा की पदवी इनायत कियो अर सामी मिसल बैठण रो हुकम दियो। “ यही बात दयालदासजी संढायच के समकालीन डिंगल कवि मिनजी मोतीसर (सूडां री ढाणी) के गीत से भी इंगित होती है। गीत के अनुसार महाराजा सरदारसिंहजी ने दयालदासजी को वो ही सम्मान दिया जो विगत में जोधपुर महाराजा अभयसिंहजी ने कविराजा करनीदानजी कविया को दिया था– अस चढियो राजा अभो, कवी चाढै गजराज। गीत शुद्ध और अविकल रूप से इस प्रकार है- लगी झूल जरतार हाथ्यां कुनण झालरी, ग्रंथ पढवेस कुंकम कलम रेख गुण, हाक बज नकीबां बधारै हवेली, चाढं तो हस्त श्री हाथ ढोळै चमर, जबर सामाज साजां सझै जळेबां, दयालदासजी के गांव:- दयालदासजी की रचनाएँ:- राठौड़ां री ख्यात: प्रथम भाग की पांडुलिपि अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में मौजूद है और इसकी एक प्रतिलिपि नटनागर शोध संस्थान सीतामऊ में है, जिसकी छायाप्रति दयालदासजी के वर्तमान वंशज सवाईदानजी संढायच के संग्रह में भी है। बीकानेर के मध्यकालीन इतिहास के रूप में सांगोपांग जानकारी देता यह ग्रंथ भाषा, शैली और लेखन कला की दृष्टि से उत्कृष्ट ग्रंथों की श्रेणी में आता है। डॉ. गिरजा शंकर शर्मा के अनुसार “पण जे इण ख्यात रो दूजी ख्यातां अर ऐतिहासिक ग्रंथां रै साथै सम्यक अध्ययन करियो जावै तो इणरो सांतरो महत्व सामी आवै। “ ख्यात देश दर्पण: आर्याख्यान कल्पद्रुम: “महाराजा डूंगरसिंहजी, दवागीर कवराज दयालदास” इन्हीं महाराजा के आदेशों की पालना में दयालदासजी ने ‘आर्याख्यान कल्पद्रुम’ की रचना की थी। वि.सं. 1934 में लिखी गई इस ख्यात में दयालदासजी ने सम्पूर्ण भारत का इतिहास लिखना शुरू किया था। ‘आर्याख्यान कल्पद्रुम’ को दयालदासजी ने तीन खण्डों में लिखने की योजना बनाई थी परन्तु यह ग्रंथ पूर्ण नहीं हो सका। इस ग्रंथ में लेखक ने बीकानेर के साथ-साथ मारवाड़, मेवाड़, जयपुर, अलवर आदि का इतिहास लिखने की मेहनत की थी। राठौड़ों, के साथ गहलोतों, तवरों, कच्छावा, पंवारों, बाघेलों के साथ जैन बौद्ध व मुसलमानों का भी इतिहास लिखने का कुछ हद तक प्रयत्न किया था। इस ख्यात की एक पांडुलिपि इनके वंशज सवाईदानजी संढायच के संग्रह में भी मौजूद है। यह ग्रंथ अन्य पहले वाले ग्रंथों से थोड़ा हटकर है। पंवार-वंश-दर्पण: जस रत्नाकर: आद विश्व अखलेस, अलख अविनासी अव्यय। जब कि अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर की प्रति का प्रांरभ उक्त दोहों से होता है। वंदू गनपत वीरवर, भणव सदा मम भाग। इस ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य विषय महाराजा रतन सिंह के राज काज का वर्णन है। सुजस बावनी: सूरतनंद मौजां समंद, भूप रतन लघु भ्रात। दूहा कूरम जूहारो सरणै राखियों तिण मुदा रा- ………………….., उजर अली आंबेर। इस साहसपूर्ण कार्य की प्रशंसा दयालदासजी ने बिना किसी पूर्वाग्रह के की है। भले ही दयालदासजी महाराजा रतनसिंहजी के कृपापात्र, विश्वासपात्र व दरबारी कवि थे परन्तु उक्त घटना के वर्णन से उनकी गुणग्राहकता व साहसपूर्ण कार्य से तत्कालीन परिस्थितियों से उदासीन समाज को एक संदेश देने की मंशा प्रकट होती है- कोप इन्द्र अंगरेज के, ज्यूं ब्रज समो जुहार। रतनाकर भयनाख रूख, सुत बलि संभु सिहाय। कंबू लाट श्रुत ज्वार कहि, पुन सु हिंद जळधीप। कुढ मघवा पै कुशळ, हिमकर जेम महेस। दोहे अद्यावधि अप्रकाशित है। फुटकर डिंगल गीत: अधिकारी गीतां अवस, चारण सकव प्रचंड। सहज, सरस व सारभूत शब्दावली में गुंफित दयालदासजी के डिंगल गीतों में से एक गीत उदाहरणार्थ देना उचित जान पड़ता है। वैद मेहता हिन्दूमल पर रचित एक डिंगल-गीत को अविकल रूप से दे रहा हूं। जिसके चार दोहाले हैं। कहीं-कहीं से पांडुलिपि में अक्षर टूट गए हैं। वैद हिन्दूमलजी कूटनीतिज्ञ, स्वामीभक्त, वीर व कुशल प्रशासक थे। महाराजा सूरतसिंहजी व रतनसिंह के विश्वास पात्र भी थे। रतनसिंहजी ने इन्हें मुख्यमंत्री बनाकर महाराव का खिताब भी दिया था। 42 वर्ष की अल्पायु में ही हिन्दूमलजी की मृत्यु हो गई थी। महाराजा में इनकी चिर स्मृति बनाए रखने हेतु हिन्दूमल-कोट बनाया था। गीत में हिन्दूमल के इन्हीं गुणों को उकेरा गया है। प्रगट हुतो नृप राज गजराज खूनीपुणां, दवा कज राज जोध मंड डाकदर, तोर अंगरेज अवसांण ओखद तदन, कमंध तज लाज राखी इल़ा अमर कथ, करणी-चरित्र: फुटकर रचनाएँ: कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दयालदासजी का स्थान राजस्थान के उन्नीसवीं शताब्दी के लेखकों में आदरणीय व अग्रगण्य है। गद्य के गजरे में बीकानेर के यशस्वी इतिहास को गूंथकर जो सुवास भरी वो आज भी महकती हुई तरोताजा है। नामचीन ख्यातकार, गजब के गीतकार, विश्वसनीय सलाहकार व प्रखर प्रतिभा के धनी दयालदासजी बीकानेर रियासत के देदीप्यमान नक्षत्र थे। जिन्होंने अपनी, प्रभा का प्रकाश चतुर्दिक फैलाया। ऋषि ऋण परिशोध की भावना से शोध के क्षेत्र में अभिरूचि रखने वालों को ऐसे मनीषी के साहित्यिक व ऐतिहासिक रचनाओं के शोध हेतु अग्रसर होना चाहिए ताकि इनकी लुप्त प्राय रचनाएं प्रकाश में आ सकें। ~~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी” *संदर्भ:–
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