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1857 के स्वातंत्र्यवीर कानदासजी मेहडू

1857 के स्वातंत्र्यवीर कानदासजी मेहडू


पूरा नामस्वातंत्र्यवीर कानदासजी मेहडू
माता पिता का नामपिता का नाम केसरदान मेहडू
जन्म व जन्म भूमिसंवत 1867
देवलोकगमन
 
अन्य

जन्म:- संवत 1867  (बालवय मा माता ने पिता नु अवसान)।  

अभ्यास:- संवत 1867 मा, बाळ अवस्था मा भुज पाठशाला मा गया।

शिग्रविध्या अने कवि नो  इल्काब:- 18 वर्ष  पाठशाला माँ रही संवत  1890 माँ शिग्रविध्या अने  कवि नो इल्काब (भुज ना राजा तथा आचार्य श्री नी  कृपा थी मेळव्यो)। 

हिंगलाज यात्रा:- 1890 माँ अभ्यास पुरो करी हिंगलाज यात्रा ए गया। 

सामरखा माँ आगमन: – 1891 मा कच्छ ना राजा  तरफ थी लाख पसाव लई ने सामरखा आव्या।    

बोरियावी मा आगमन:- 1891 माँ बोऱियावी मा 11 एकर 20 गुंथा जमीन राखी कुवो बंन्धाव्यो तथा सामरखा मा हवेली बंन्धावी।

 जीवन परिचय

भारतीय इतिहास विषयक ग्रंथों का अवलोकन करने से एक बात सुस्पष्ट होती है कि हम भारत का प्रमाणभूत एवं क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत करने में सफल नहीं रहे हैं। हमारे यहाँ इतिहास एवं पुरातत्व विषयक दस्तावेज़ों के जतन करने का कार्य यथोचित रूप से नहीं हुआ है। आज भी भारतीय साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति विषयक अनेक बातें अप्रकट ही रही हैं। अतः आज भी इस क्षेत्र में विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है।

इतिहासकार अक्सर दस्तावेज़ों को प्राधान्य देते हैं। किंतु जब दस्तावेज़ उपलब्ध न हो तब इतिहास विषयक जानकारी देने वाले स्रोत भी देखने चाहिए। हमारे यहाँ अनेक कृतियाँ अनैतिहासिक मानकर नज़र अंदाज की गई हैं। निसंदेह इस प्रकार की कृतियों में अतिरंजना और कल्पना विलास अवश्य मिलता है किंतु उनमें सुरक्षित इतिहास को हम नहीं भूल सकते हैं। उसमें इतिहास साथ-साथ है। इस प्रकार के काव्यों का परीक्षण कर यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि इनमें कहाँ तक ऐतिहासिक सत्य प्रकट हुआ है। क्या वह इतिहास के पुनर्लेखन में अप्रस्तुत कड़ियों को जोड़ने में सहायक बन सकता है या नहीं?

भारत पर विदेशियों के आक्रमण की परंपरा सुदीर्घ नज़र आती है। अनेक विदेशी प्रजा यहाँ भारतीय प्रजा को परेशान करती रही है। इनमें ब्रितानियों ने समग्र भारतीय प्रजा और शासकों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। भारतीय प्रजा को जब अपनी ग़ुलामी का अहसास हुआ तो उन्होंने यथाशक्ति, यथामति विदेशी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इस आंदोलन की शुरुआत थी 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के प्रभावी संघर्षों तथा उनकी विफलता के कारणों के बारे में विपुल मात्रा मे ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। किंतु फिर भी, बहुत सी जानकारी, घटनाएँ, प्रसंग या व्यक्तियों के संदर्भ में ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। 1857 के संग्राम विषयक इतिहास की अप्रस्तुत कड़ियों को श्रृंखलाबद्ध करने हेतु इतिहास, साहित्य और परंपरा का ज्ञान तथा संशोधन की आवश्यकता है। इसके द्वारा ही सत्य के क़रीब पहुँचा जा सकता है। यहाँ 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में सहभागी चारण कवि कानदास महेडु की रचनाओं को प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है।

भारत में व्यापार करने के लिए आकर सत्ता हासिल करने वाले ब्रितानियों ने अपनी विलक्षण बुद्धि प्रतिभा से यहाँ की प्रजा पर अत्याचार किया था। राजा और प्रजा को विभाजित करके शासन चलाने की कूटनीति उन्होंने अपनाई थी। मगर ब्रितानियों को चारणों की बलिष्ठ बानी का अच्छी तरह परिचय हो गया था क्योंकि ब्रितानियों की कुटिल नीति को यथार्थ रूप से समझने वाले चारण कवियों ने क्षत्रियों को सचेत करने के प्रयास किए थे। किंतु दुर्भाग्य से क्षत्रिय जिस तरह से मुस्लिमों के सामने संगठित न हो पाये उसी तरह ब्रितानियों की कूटनीति को भी समझ नहीं पाये। जोधपुर के राजकवि बांकीदास आशिया ने भारतेन्दु हरिशचंद्र से भी पूर्व सन् 1805 में अपनी राष्ट्रप्रीति और स्वतंत्रता प्रीति का परिचय कराते हुए कहा है कि

आयौं इंगरेज मूलक रै ऊपर, आहंस खेंची लीधां उरां
धणियां मरे न दीधी धरां, धणियां उभा गई धरा…!
ब्रितानियों ने हमारे देश पर आक्रमण कर सभी के हृदय में से हिम्मत छिन ली है। पहले के क्षत्रियों ने वीरता से शहीद होकर भी धरती नहीं दी, किन्तु आज के इन पृथ्वीपतियों की उपस्थिति में ही धरती शत्रु के अधिकार में चली गई।

कविराज बांकीदाजी ने क्षत्रियों को उनके कुल की परंपरा की याद दिलाई कि, मातृभूमि पर आक्रमण होता हो, या नारी की इज्जत लूटी जा रही हो उस समय आप वीरता से लड़ते क्यों नहीं? अरे…! वर्षों से यहाँ बसे हुए मुस्लिमों की भी यह मातृभूमि है। अतः आपसी मतभेद भूलकर सबको एकजुट होकर प्रतिकार करना चाहिए देखिए-

महि जातां चीचातां महिला, ये दुय मरण तथा अवसाण;
राखो रे केहिकं रजपूती, मरद हिंदू के मुसलमाण…!
जब मातृभूमि पर आक्रमण होता या अबला की इज्जत लूटी जा रही हो – ये दोनों समय वीरता से लड़ने के अवसर हैं। इस समय हिन्दुओं या मुसलमानों में कोई तो अपनी वीरता-क्षात्रव्रत प्रदर्शित कर प्रतिकार कीजिए।

अलबत, पराधीनता जैसे सहज हो चुकी हो – उस तरह जोधपुर, जयपुर और उदयपुर जैसे बड़े-बड़े राजवीओं ने उदासीनता प्रदर्शित की। इतना ही नहीं ब्रितानियों की कूटनीति से प्रभावित राजवीओं ने सैन्य एवं शस्त्रों को भी छोड़ दिया और ब्रितानियों की शरण ली। इससे नारज कवि ने कहा कि,

पुर जोंधाण उदैपुर जैपुर, यह थाँरा खूटा परियाण;
औके गइ आबसी औके, बांके आसल किया बखाण…
जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के राजवी आपका वंश ही नामशेष हो गया। यह पृथ्वी पराधीन हो गई है, और जब अच्छा भविष्य होगा तब ही वापस आयेगी (स्वतंत्र होगी) बांकीदास ने यह उचित वर्णन किया है।

इस तरह, स्वतंत्रता के चाहक कवि के द्वारा स्पष्ट रूप से कटु सत्य सुनाने के बावजूद भी अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ने पर निराश हुए कवि ने अंत में कृष्ण की प्रार्थना की है कि पंचाली की विकटबेला पर सहाय करने वाले हे द्वारकाधीश! ब्रितानियों का मुँह काला कर कलकत्ता पुनः वापस दिलाइए। इन क्षत्रियों की धरती का रक्षण कीजिए। इन ब्रितानियों के दलों ने हाहाकार मचा रखा है तब आप सबका रक्षण कीजिए, और आगे कहते हैं-

भारखंड सामो भाली जे, वछां सुरभिया दिन वालीजे,
पाध बधा दासा पाली जे, गोपीवर टोपी गालीजे…!
हे गोपीवर हे द्वारिकाधीश आप कृपा कर भारत खंड पर अभी दृष्टि करें। गायों और बछड़ों के सुख के दिन वापस कीजिए (अर्थात् आप पुनः गोकुल में आएं) हिन्दुओं का पगड़ी बांधने वाले दासों का जतन कीजिए, और इन टोपीवाले (ब्रितानियों) का विनाश करें।

बूंदी के राजकवि सूर्यमल्लजी वीर रस के अनन्य उपासक थे। किन्तु उस समय उनकी काव्यधारा रूपी भागीरथी को झेलने वाले कोई शंकर रूपी राजसी नहीं मिला। अतः आगम की संज्ञा परख चुके कवि ने वीरसतसई की रचना की किन्तु, योग्य प्रतिसाद नहीं मिलने से उसे अधूरी ही छोड़ दी।

कवि ने अपने राष्ट्रप्रेमी मित्रों को निजी तौर से पत्र लिखकर ब्रितानियों के काले कारनामों से वाकिफ किया था और सबको संगठित होने के लिए प्रेरित किया था। उनके द्वारा रचित काव्य वीरसतसई का यह दोहा तो राजस्थान और गुजरात में अति प्रसिद्ध हुआ है।

इला ने देणी आपणी, हालरिये हलुराय;
पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई माय,
क्षत्राणियाँ – माताएँ अपने पुत्रों को पालने में सुलाकर लोरी में ही वीरता का महत्व समझाती हैं और मातृभूमि कभी भी दुश्मनों को नहीं देने के लिए कहती हैं तथा वीर मृत्यु की महिमा दर्शाती हैं।

अलबत, उस समय की विकट परिस्थिति में क्षत्रिय एक बनकर प्रतिकार नहीं कर सके, वीरता की बात सुनने, समझने और युद्ध भूमि में प्रतिकार करने की ताक़त खो बैठे हुए समाज को कवि ने उपालंभ रूपेण कटु जहर का पान तो करवाया लेकिन यह औषधि कामयाब न हुई। क्षत्राणी के मुख में रखी हुई इस उपालंभपूर्ण बानी में कवि की मनोवेदना प्रकट होती हुई नज़र आती है।

कंत धरै किम आविया, तेगां रो धण त्रास;
लहंगे मूझ लुकी जिए, बैरी रो न बिसास…!
हे पतिदेव! आप दुश्मनों की तलवार के प्रहार के भय से डर कर घर आये हैं? यदि ऐसा है तो दुश्मनों का कोई भरोसा नहीं, आप मेरे वस्त्रों में छिप जाइए।

ब्रिटिश जैसी विलक्षण प्रजा चारणों की कुल परंपरा और उनकी शबद शक्ति से वाफिक न हों यह संभव नहीं है। वे अच्छी तरह जानते थे कि क्षत्रियों को युद्धभूमि में केसरिया कराने वाले, अंतिमश्वास तक जीवन मूल्यों के जतन के लिए प्रयास करने वाले चारण ही हैं। अतः उन्होंने क्षत्रियों खासकर राजवीयों को चारणों से दूर करने की नीति अपनाई। उनको व्यभिचारी, विलासी और प्रजापीड़क बनाने के लिए अंग्रेजी शिक्षा का जहर पिलाया। राजा को राजकवि तथा प्रजा से विमुख बना दिया।

कूटनीतिज्ञ ब्रितानियों ने राजा और प्रजा दोनों को लूटने की नीति अपनाई। अतः शंकरदान सामोर ने बहुस्पष्ट रूप से ब्रितानियों की नीति खुली कर दी है।

महल लूटण मोकला, चढया सुण्या चंगेझ;
लूटण झूंपा लालची, आया बस अंगरेज,
भारतवर्ष पर चंगेजखान जैसे अनेक दुश्मन इसके पूर्व आये और उन्होंने राजमहलों में लूट चलाई है। किन्तु गरीबों को लूटने के लालची केवल ब्रिटिश ही है।

1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में कविराज शंकरदान सामोर ने लोककवि बनकर पूरे राजस्थान का ध्यान आकर्षित किया। उस समय बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा और जयपुर जैसे बड़े राज्यों ने हिम्मत प्रदर्शित नहीं की, किन्तु शंकरदानजी ने अपना चारणधर्म अदा करते हुए स्पष्ट रूप से सरेआम मशालजी का काम किया उन्होंने बीकानेर के सरदारसिंह राठौड़ को उपालंभ दिया कि,

देख मरे हित देस रे, पेख सचो राजपूत;
सिरदरा तोनै सदा, कहसी जगत कपूत
जो मातृभूमि के मानार्थ शहीद होता है वही सच्चा राजपूत है, किन्तु हे देशद्रोही सरदारसिंह राठोड़ आपको तो सभी कपूत के रूप में ही पहचानेंगे।

लाज न करे चोडेह लड, देस बचावण दिन;
बलिदानां बिन बावला, राजवट कदी रहे न…
हे सरदारसिंह तुम अभी भी समय को पहचान कर नारी की तरह डरना, लजाना छोड़कर खुलेआम मैदान में आ जाओ। यह समय तो देश को बचाने का है। अरे मूर्ख राजवट क्षत्रियवट बलिदान के बिना कभी नहीं रहती है।

भरतपुर के वीरों ने दर्शाये हुए अप्रतिम शौर्य की प्रशंसा करता हुआ यह काव्य तो लोकगीत बनकर पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हुआ था।

फिरंगा तणी अणवा फजेत, करवानै कस कस करम;
जण जण बण जंगजीत, लडया ओ धरा लाडला
फिरंगीयो-ब्रितानियों की फजीहत, पराजित करने हेतु एक-एक शूरवीरों ने कमर कसी और युद्ध में कूद पडे। इस धरा के लाडले ऐसे एक-एक वीर संग्रामजीत योद्धा बन लड़े।

भरतपुर की भव्य शहादत की तारीफ करते हुए कवि ने मानो ब्रितानियों को चेतावनी दी कि तुम्हारी सत्ता अब यहाँ नहीं चलेगी। अतः तुम वापस जाओ। कवि ने भरतपुर के राजवी को दशरथ नंदन कह कर देशप्रेम का लोक हृदय में कैसा स्थान होता है यह दर्शाया है, देखिए:

गोरा हटजया भरतपुर गढ बांको,
नंहुं चालेलो किलै माथै बस थांको;
मत जांणिजे लडै रै छोरो जाटां को,
ओतो कुंवर लडै रे दसरथ जांको;
हे गोरे ब्रितानियों यहाँ से तुम वापस चले जाओ, क्योंकि भरतपुर का गढ़ किला अजेय है। उस पर भी तुम्हारा प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम यह मत मानना कि तुम्हारे विरूद्ध मात्र जाट योद्धा ही लड़ते है। वे तो दशरथनंदन ऐसे भगवान राम ही हैं।

भरतपुर और अन्य राज्यों में व्याप्त क्रान्ति की ज्वाला शांत पड़ने लगी है। अतः कवि ने इस अवसर का स्वागत कर देश को आजादी दिलाने के लिए सबको उत्प्रेरित किया, फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा-ऐसा भी कहा। किन्तु भारतवर्ष की गुलामी की जंजीरें टूटी नहीं थी। इस बात पर समाज ने गौर नहीं किया था यथा-

आयो अवसर आज, प्रजा पख पुराण पालग;
आयो अवसर आज, गरब गोरा रो गालण;
आयो अवसर आज, रीत राखण हिंदवांणी;
आयो अवसर आज, रण खाग बजाणी;
काल हिरण चूक्या कटक, पाछो काल न पावसी,
आजाद हिन्द करवा अवर, अवसर इस्यो न आवसी,
आज प्रजा का रक्षक बनकर उसका निर्वाह करने का अवसर आया है। आज तो इन गोरे ब्रितानियों के अपराजित होने के अभियान को दूर करने का अवसर आया है। आज तो हिन्दुओं के कुल की परंपरा और नीति-रीति बनाये रखने का समय आया है। आज तो युद्धभूमि में वीरता से तलवार घुमाने का अवसर आया है। आज इस पल का लाभ लेना सैनिक चूक जायेंगे तो फिर ऐसा समय नहीं आएगा। हिन्दुस्तान को आजाद करने के लिए ऐसा अवसर फिर कभी भी नहीं मिलेगा। इसीलिए सब वीरता से लड़ लीजिए।

कविराज शंकरदान सामोर की काव्यबानी में लोगों को शस्त्र की ताकत का दर्शन हो यह बात स्वाभाविक है। राष्ट्रप्रेमियों के लिए शंकरदान सामोर के गीत कुसुमवत् कोमल थे मगर देशद्रोहियों के लिए तो वह बंदूक की गोली समान है। इसीलिए तो किसी ने कहा है कि –

संकरिये सामोर रा, गोली हंदा गीत;
मितर सच्चा मुलक रा, रिपुवां उल्टी रीत
कविराज शंकरदान सामोर के गीत तो बंदूक की गोली जैसे हैं। वह देशप्रेमियों के लिए मित्रवत है। लेकिन देशद्रोहियों के वह कट्टर दुश्मन है।

कानदास महेडु ने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य में गुजरात के राजवीओं को ब्रितानियों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए प्रेरित किया हो और इसके कारण उनको फाँसी की सजा फरमाई गई हों ऐसी संभावनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों के विरूद्ध शस्त्र उठाने वाले सूरजमल्ल को उन्होंने आश्रय दिया था। इसके कारण उनका पाल गाँव छीन लिया गया था। इस संदर्भ में कुछेक दस्तावेज भी उपलब्ध होते हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् श्री रमणलाल धारैया ने यह उल्लेख किया है कि “खेडा जिले के डाकोर प्रदेश के ठाकोर सूरजमल्ल ने 15 जुलाई 1857 के दिन लुणावडा को मदद करने वाली कंपनी सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था। बर्कले ने उनको सचेत किया था किन्तु सूरजमल्ल ने पाला गांव की जागीरदार और अपने मित्र कानदास चारण और खानपुर के कोलीओं की सहायता से विद्रोह किया था। मेजर एन्डुजा और आलंबन की सेना द्वारा सूरजमल्ल और कानदास को पकड़ लेने के बाद उनको फाँसी की सजा दी गई और सूरजमल्ल मेवाड की ओर भाग निकले थे। आलंबन और मेजर एडूजा ने पाला गांव का संपूर्ण नाश किया था।”

डॉ. आर. के. धारैया ने “1857 इन गुजरात” नामक ब्रिटिश ग्रंथ में भी उपर्युक्त जानकारी दी है। और अपने समर्थन के लिए Political department volumes में से आधार प्रस्तुत कर यह जानकारी दी है। इससे जानकारी मिलती है कि कानदास महेडु ने 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान दिया था। अलबत्ता यहाँ Kandas Charan और Pala का अंग्रेजी विकृत नाम है।

ब्रितानियों ने हमारे अनेक गाँवों के नाम अपने ढंग से उल्लेखित किये हैं। इसके लिए यहाँ बोम्बे, बरोडा, खेडा, अहमदाबाद, भरूच, कच्छ इत्यादि संदर्भों को उद्धृत किया जा सकता है। इससे यह पता लगता है कि कानदास महेडु अर्थात् कानदास चारण और Pala अर्थात् पाला एक ही है।

‘चरोतर सर्वे संग्रहे’ के लेखक पुरूषोत्तम शाह और चंद्रकांत कु. शाब भी यह उल्लेख करते है किं “कानदास महेडु सामरखा 1813 में संत कवि के रूप में सुप्रसिद्ध हुएं थे। 1857 के आंदोलन के बाद उनको आंदोलनकारियों को मदद करने के कारण पकड़ लिया गया था। कहा जाता है कि कवि ने जेल में देवों और दरियापीर की स्तुति गा कर अपनी जंजीरें तोड़ डाली थीं। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उनको छोड़ दिया था।”

1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में कानदास का गाँव जप्त कर लेने के दस्तावेजी आधार भी हैं। कवि ने कैद मुक्त होने के बाद अपना गांव वापस प्राप्त करने हेतु किया हुआ पत्राचार भी मिलता है। सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के चारण साहित्य हस्तप्रत भंडार में कानदास महेडु के इस प्रकार के दस्तावेज संग्रहीत हैं। अपने आप को ब्रितानियों की कैद से मुक्त करने हेतु दरियापीर की स्तुति करते हुए रचे गए छंद भी मिलते हैं।

ब्रितानियों ने कानदास को कैद कर उनको गोधरा की जेल में रखा था और उनके हाथ-पाँव में लोहे की भारी जंजीरें डालकर अंधेरी कोठरी में रखा गया था। अतः कवि ने अपने आपको मुक्त करने के लिए दरियापीर की स्तुति के छंद रचे और ब्रितानियों के सामने ही उनके कदाचार तथा अनुचित कार्यों को प्रकट किया। इन छंदो में कुछेक उदाहरण उद्धृत हैं-

अचणंक माथे पडी आफत, राखत केदे सोंप्यो;
वलि हलण चलण अति त्रिपति थानक जपत थियो;
दुल्ला महंमद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो…
अचानक मुझ पर मुश्किल आई और कैद किया गया जहाँ बंधनों के कारण हवा में हलनचलन अति कष्टदायी बन गया और साथ ही मेरा गाँव (पाड़ला) भी जप्त किया गया। इस प्रकार मेरा मन घनघोर चिंताग्रस्त हुआ। इस परिस्थिति में ताकत कहां तक चल सकती थी। दरियापीर मेरी सहायता कर मेरी जंजीर तोड़ो।

भूडंड कोप्यो भूरो, धार केहडो तिण घड़ी;
लोहा रा नूधी दियां लंगर, कियो कबजे कोटडी;
तिणे परे जडिया सखत ताला, उपर पैरो आवगो
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो…
धरती के खंभे जैसा दृष्ट ब्रिटिश अमलदार मुझ पर कोपायमान हुआ उस समय मेरी स्थिति कैसी हुई? हाथ-पाँव में लोहे की जंजीरें बाँधकर मुझे अंधेरी कोठरी में डाला गया और सख़्त ताला बंदी के उपरांत चौकीदार तैनात किया गया है। अतः हे दरियापीर मेरी मदद कीजिए।

ब्रितानियों के सामने ही उनकी भाषा, वेशभूषा अभक्ष्य खानपान आदि का उल्लेख करतें हुए कवि कहते हैं-

कलबली भाषा पेर कुरती, महेर नहीं दिल मांहिया;
तोफंग हाथ ने सीरे टोपी, सोइ न गणे सांइया;
हराम चीजां दीन हिंदु, लाल चेरो तण लगो
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो…
जो समझ में न आए ऐसी (कलबली) भाषा बोलते है और कुर्ता (पटलून) पहनते हैं वे निर्दयी और निष्ठुर हैं। हाथ में बंदूक और सिर पर टोपी रखते हैं, हिन्दू और मुसलमानों के लिए जो अग्राह्य है उस गाय और सुअर का मांस वे खाते हैं और लाल चहरे वाले हैं।

शाखा न खत्री नहीं सौदर वैश ब्रम व कुल वहे;
हाले न मुसलमान हींदवी, कवण जाति तिण कहे,
असुध्य रहेवे खाय आमख, नाय जलमां होय नगो
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो…
जिसके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे कर्म नहीं है। हिन्दू या इस्लाम धर्म को मानते नहीं हैं, उसे किस जाति का मानना चाहिए। वे ब्रिटिश अपवित्र रहन-सहन, भ्रष्ट करने वाले और मांसाहारी है और निर्लज्जता से जल में नग्न स्नान करते हैं।

इस तरह, कवि ने पाँच भियाखरी छंद, नौ गिया मालती छंद और एक छप्पय की रचना कर ब्रितानियों की उपस्थिति में दरियापीर की स्तुति की। लोक मान्यता के अनुसार इस छंद को बोलते समय तीन-तीन बार कानदासजी की जंजीर टूट गई। किन्तु लोक मान्यता को हम ज्यादा महत्व न दें फिर भी यह घटना ब्रितानियों के सम्मुख ही उनके कदाचार, अत्याचार और असंस्कारिता को खुले आम प्रकट करने की कवि की हिम्मत, उनकी निडरता और सत्यप्रिय स्वभाव की प्रतीति कराती है।

ग्यारह मास की जेल के बाद कवि कानदासजी पर कानूनी कारवाई हुई, उनको प्राणदंड की सजा हुई, उनको तोप के सामने खड़ा रखा गया किन्तु तोप से विस्फोट नहीं हुआ। इससे या और कुछ कारण से कवि को ब्रितानियों ने मुक्त किया, उनका पाला गांव वापस नहीं किया।

सजा मुक्त हुए कानदासजी को वडोदरा के श्री खंडेराव गायकवाड़ ने अपने यहाँ राजकवि के रूप में रखा। उत्तरावस्था में उनका मान-सम्मान वृद्धि होने पर लूणावाड़ा के ठा. दलेलसिंह ने संदेश भेजा कि आपको पाला गांव वापस देना है, उसे स्वीकार करने हेतु पधारकर लूणावाड़ा की कचहरी पावन कीजिए। अलबत्ता दलेलसिंह ने 1857 में ब्रितानियों को मदद कर मातृभूमि के प्रति गद्दारी की थी, इसीलिए, कवि ने गांव वापस प्राप्त करने के बजाए उपालंभ युक्त दोहा लिखकर भेजा-

रजपूतां सर रूठणो, कमहलां सूं केल;
तू उपर ठबका तणो, मारो दावो नथी दलेल

इस तरह कवि ने व्यंजनापूर्ण बानी में दलेलसिंह को अक्षत्रिय घोषित किया, क्षत्रिय को डाँटने का चारण का अधिकार है।

कानदास महेडु ने सर्वस्व को दाव पर रखकर मातृभूमि को आजाद करनें के प्रयत्न किये हैं। इसी कारण से ही ब्रितानियों ने स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान कवि को कैद में रखकर उनको भारतीय प्रजा से अलग कर दिया गया ताकि वे काव्य सृजन द्वारा समाज में तद्नुरूप माहौल का निर्माण कर न सके।

ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजित सिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजित सिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजित सिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजित सिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। इनकी क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-

मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;
गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत

कानदास महेडु एवं अजित सिंह गेलवाने ने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।

जिस तरह पंचमहाल को जगाने का काम कानदास चारण और अजित सिंह गेलवा ने किया। इसी तरह ओखा के वाघेरो को प्रेरित करने का काम बाराडी के नागाजी चारण ने किया। 1857 में ब्रितानियों के सामने हथियार उठाने वाले जोधा माणेक और मुलु माणेक को बहारवटिया घोषित करके ब्रितानियों ने बड़ा अन्याय किया है। सही मायने में वह स्वतंत्रता सेनानी थे। आठ-आठ साल तक ब्रितानियों का प्रतिकार करने वाले वाघेर वीरों को ओखा प्रदेश की आम-जनता का साथ था। इस क्रांति की ज्वाला में स्त्री-पुरुषों ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी। आख़िर जब वह एक छोटे से मकान में चारों ओर से घिर गए थे, तब उनको हथियार छोड़ शरण में आने के लिए कहा गया। सिर्फ़ पाँच लोग ही बचे थे। सब को पूछा गया कि क्या किया जाय? तो तीन लोगों ने शरणागति ही एक मात्र उपाय होने की बात कही। मगर नागजी चारण ने हथियार छोड़ के शरणागत होने के बजाय अंतिम श्वास तक लड़ने की सलाह दी। चारों ओर से गोलियाँ एवं तोप के गोलों की आवाज़ उठ रही थी। उसी क्षण नागजी ने जो गीत गाया, वह आज सौ साल के बाद भी लोगों के रोम-रोम में नई चेतना भरता है। जोधा माणेक और मुलु माणेक हिंदू वाघेर थे, इतना ही नहीं इस गीत को गाने वाला भी चारण था। इसीलिए ओखा जाबेली शब्द का प्रयोग हुआ था। आज उसका अपभ्रंश पंक्ति में ‘अल्ला बेली’ गाया जाता है। नागजी चारण ने हथियार छोड़ने के बजाय वीरता से मर मिटने की बात करते हुए गाया था कि…

ना छंडिया हथियार, ओखा जा बेली;
ना छंडिया हथियार, मरवुं हकडी वार,
मूलूभा बंकडा, ना छंडिया हथियार…

चारण कवियों कि यह विशिष्ट पंरपरा रही है कि मातृभूमि के लिए या जीवनमूल्यों के लिए अपने प्राण की आहुति देने वाले की यशगाथा उन्होंने गायी है, इनाम, या अन्य लालच की अपेक्षा से नहीं।

इस तरह चारण साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि विदेशी और विधर्मी शासकों के सामने चारण कवियों ने सबसे पहले क्रांति की मशाल प्रज्जवलित की है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम से बावन वर्ष पूर्व 1805 में ही बांकीदास आशिया ने ब्रितानियों के कुकर्मो का पर्दाफाश किया था। जोधपुर के राजकवि का उत्तरदायित्व निभाते हुए भी बांकीदास ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आवाज उठाकर अपना चारणधर्म-युगधर्म निभाया था। 1857 से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक शताधिक चारण कवियों ने अपनी सहस्त्राधिक रचनाओं द्वारा भारत के सांस्कृतिक एवं चारणों की स्वातंत्र्य प्रीति का परिचय दिया है।

1857 में स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब फडनवीस के साथ साथ हर प्रांत में से जिन लोगों ने अपने-अपने प्राणों की आहुती दी है, उनका इतिहास में उल्लेख हो इसीलिए भारतीय साहित्य से या अन्य क्षेत्र से प्राप्त कर विविध आधारों का उपयोग करके नया इतिहास सच्चा इतिहास आलेखित हो यही अभ्यर्थना।

~डॉ. अंबादान रोहड़िया
प्रोफेसर, गुजराती विभाग
सौराष्ट्र युनिवर्सिटी, राजकोट

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૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્યવીર : કાનદાસ મહેડુ
ડૉ. અંબાદાન રોહડિયા

ભારત પર વિદેશીઓનાં આક્રમણોની એક સુદીર્ધ પરંપરા દૃષ્ટિગોચર થાય છે. અનેક વિદેશી પ્રજાઓ અહીં આવીને ભારતીય પ્રજાને પરેશાન કરતી રહી. તેમાં છેલ્લે અંગ્રેજોએ પોતાની નાગચૂડમાં સમગ્ર ભારતીય પ્રજા અને તેના શાસકોને લાઈ લીધા. ભારતીય પ્રજાને પોતાની ગુલામ દશાનું ભાન થતા તેઓએ યથાશક્તિ – યથામતિ વિદેશી હકુમત સામે જેહાદ જગાવી. આવી જેહાદનો પ્રથમ પ્રયોગ એટલે ૧૮૫૭નો સ્વાતંત્ર્યસંગ્રામ. ૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્યસંગ્રામમાં ભાગ ભજવનાર પરિબળો તેમજ તેની નિષ્ફળતાનાં કારણો અંગે વિપુલ માત્રામાં ઐતિહાસિક ગ્રંથો લખાયા છે. આમ છતાં ઘણી બધી વિગતો, પ્રસંગો કે વ્યક્તિઓ સંદર્ભે પ્રમાણભૂત વિગતો ઉપલબ્ધ થતી નથી. ૧૮૫૭ના સંગ્રામ વિષયક ઇતિહાસની ખૂટતી કડીઓને શંખલાબદ્ધ કરવા માટે ઇતિહાસ, સાહિત્ય અને પરંપરાનું જ્ઞાન તથા સંશોધન જરૂરી છે. એ દ્વારા જ સત્યની વધુ નજીક પહોંચી શકાશે. અહીં ૧૮૫૭ના સ્વાસંત્ર્ય સંગ્રામમાં ભાગ લેનાર ચારણકવિ કાનદાસ મહેડુના જીવન અને કવન વિષયક વિગતો રજૂ કરવાનો ઉપરક્ય છે.

કાનદાસનો પરિચય:-
ખેડા જિલ્લાના સામરકા ગામના વતની કાનદાસના પિતાનું નામ કેસરદાન હતું અને તેઓ મહેડુ શાખાના ચારણ હતા. બાલ્યાવસ્થામાં જ માતાપિતાની છત્રછાયા ગુમાવનાર કાનદાસને તેમનાં વિધવા ફૂઇએ ઉદૃરેલા. કિશોરાવસ્થામાં જ ચારણ સહજ સાહિત્યપ્રીતિ ધરાવતા કાનદાસ વ્રજભાષા પાઠશાળામાં અભ્યાસ કરવા ગયેલા, ત્યાં અઢાર વર્ષ સુધી કાવ્યાભ્યાસ કરીને પારંગત બનેલા કાનદાસને ભૂજના મહારાવે કવિપદ આપીને યથોચિત સન્માન કર્યું. સામરખા આવીને સ્થાયી થયેલા કવિને આમોદ, શિયોર, ગાજણા, દેવગઢ બારિયા, ભાદરવા. લુણાવાડા, ભાવનગર અને વડોદરા રાજ્ય સાથે ઘનિષ્ઠ સંબંધો હતા. તેમાંયે તેઓએ ગાજણા અને ભાવનગર મહારાજામાં સંતાનોને તો કાવ્ય શિક્ષણનો અભ્યાસ પણ કરાવેલો, તો ગાજણાના રાજકુંવરી રૂપાળીબાના લગ્ન દેવગઢ બારિયાના મહારાઓલ પૃથ્વીરાજજી સાથે કરાવી આપેલા. દેવગઢના ચૌહાણ રાજવંશ સાથે ગાજણાના સોલંકી રાજવંશને એ પૂર્વે વૈવાહિક સંબંધો ન હતા, પરંતુ કવિરાજે ઉભય રાજવીઓને સમજાવીને આ સંબંધ દ્વારા સંગઠિત થવા સમજાવેલા. તેમના પ્રતિભાથી પ્રભાવિત થયેલા મહારાઓલે કાનદાસજીને દેવગઢ બારીયા સાથે આવવા વિનંતી કરી અને ત્યાં રાજના કારભારી તરીકે રાખવા કાનદાસજીને મહારાઓલ પૃથ્વીરાજજીના જીવનચરિત્ર પર ‘શોભાસાગર’ નામનો ગ્રંથ રચેલો. આ સમય દરમિયાન જ તેને ભાદરવાના ઠા. સરદારસિંહ વાઘેલાનો પરિચય થયેલો. શ્રી રતુદાનજીએ નોંધ્યા મુજબ, ‘લુણાવાડા’ રાજ્ય તરફથી લાળશ શાખાના ચારણોને પાલા ગામ મળેલું. એના કેસર લાળશ અને તેના દીકરા અજુભાઈ લાળસ જેવા પ્રતાપી પુરુષો થયેલા. કાનદાસજીના સમયમાં પાલામાં લાળશ શાખાનો વંશ ન રહેતાં એક વિધવા બાઈ અને એક પુત્રી હતાં. તેમણે પોતાના એ પુત્રીનાં લગ્ન કાનદાસના પુત્ર વિસાભાઈ સાથે કરીને વીસાભાઈને પાલા ગામનો વારસો આપલો જેને મરાઠી સૂબાએ અને લુણાવાડાના ઠાકોરે પણ માન્ય રાખેલ. આથી કાનદાસે પોતાનું રહેણાંક પાલામાં કર્યું. ૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્યસંગ્રામ દરમિયાન અંગ્રજોએ પાલા ગામ જપ્ત કરેલું અને કવિએ કેદ કરેલા. છેવટે કવિને તો કે મુક્ત કર્યા, પરંતુ તેમનુ પાલા ગામ તો પાછું ન જ આપ્યું, ઉત્તરાવસ્થામાં કવિને વડોદરાના મહારાજા ખંડેરાવે રાજ્યાશ્રય આપીને પોતાને ત્યાં રાખેલા. કાનદાસ મેહડુંનું ૧૮૫૭ના પ્રથમ સ્વાતંત્ર્યસંગ્રામમાં ગુજરાતના રાજવીઓને અંગ્રેજો વિરૂદ્ધ બળવો કરવા પ્રેર્યા હોય અને એ કારણે જે તમને કેદ કરીને ફાંસીની સજા ફરમાવી હોય તેવી શક્યતા છે. વળી, અંગ્રેજો સામે શસ્ત્ર ઉઠાવનાર સુરજમલને તેમણે આશ્રય ખાપેલો. થાથી તેમનું પાલા ગામ પણ જપ્ત થયેલું. આ અંગેના કેટલાક દસ્તાવેજી આધારો પણ ઉબલબ્ધ થાય છે. પ્રસિધ્ધ ઈતહિસવિદ શ્રીરમણાલ ધારૈયો નોંધ્યું છે કે, ખેડા જિલ્લાના ડાકોર પરદેશના ઠાકોર મૂલજમલ્લે ૧૫ જુલાઈ . ૧૮૫૭ના રોજ લુણાવાળાને મદદ કરતી કંપની સરકાર વિરુદ્ધ બળવો કર્યો, બર્કલે તેને ચેતવ્યા, છતાં સૂરજમલ્લે પાલા ગામના જાગીરદાસ અનો પોતાના મિત્ર કાનદાસ ચારણ અને ખાનપુરના કોળીઓની સહાયથ બંડ કર્યું, મેજર એન્ડઝા પાલા ગામની સંપૂર્ણ નાશ કર્યો.

ડૉ. આર. કે. ધારૈયાએ ૧૮૫૭ ઈશા દુજરાત નામના તેમનાગ્રંથમાં પણ પૃષ્ઠ નં. 30 પર ઉપર્યુક્ત વિગતો આલેખી છે. ડૉ. ધારૈયાએ પોતાના સમર્થન માટે ‘Political Department Volumes’ ના આધારો રજૂ કરીને વિગતો આપી છે . આથી શ્રદ્ધેય માહિતી મળે છે કે કાનદાસ મહેડુએ ૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્ય સંગ્રામમાં યોગદાન આપેલુ અલ્બત્ત, અહીં Kandas Charan અને Pala એ પાલાનું અંગ્રેજી વિકૃત નામ છે.

“ચરોતર સર્વસંગ્રહના લેખકો પુરુષોત્તમ છે. શાહ અને ચંદ્રકાંત કુ. શાહ પણ નોંધે છે કે, કાનદાસ મહેડુ ૧ સમરખા જ, ઈ. સ. ૧૮૧૩ , સંત કવિ તરીકે જાણી બનેલા હેવાય’ છે કે તેમણે દેવ અને દરિયાઈ પીરની સ્તુતિ પોકારીને જેલમાં બેડીઓ તોડી નાખેલી. આથી ખુશ જઈને તેમને છૂટા કરવામાં આવેલાં.

ડૉ. નિર્મલા આસનાની પણ નોંધે છે કે, ઈ. સ. ૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્ય સંગ્રામમાં કવિ કાનદાસને ક્રાંતિકારીઓને મદદ કરવાના આરોપમાં ગિરફતાર કરવામાં આવેલા. કહેવાય છે કે કવિએ જેલમાં દેવો? અને દરિયાપીરની સ્તુતિ ગાઈને પોતાની બેડીઓ તોડી નાખેલી. આ ચમત્કારથી પ્રભાવિત થઈને અંગ્રેજ સરકારે તેમને છોડ઼ મૂકેલા.

૧૮૫૭ના સ્વાતંત્ર્યસંગ્રામમાં કાનદાસનું ગામ જપ્ત કર્યાની વિગતને દસ્તાવેજી આધારો પણ છે. કવિએ કેદમુક્ત થયા પછી પોતાનું ગામ પાછું મેળવવા માટે કરેલ પત્રવ્યવહારના કાગળો પણ મળી આવ્યા છે. સૌરાષ્ટ્ર યુનિવર્સિટીના ચારણી સાહિત્ય હસ્તપ્રત ભંડારમાં કાનદાસ મહેડુના આવા દસ્તાવેજી પત્રો સચવાયા છે. પોતાને અંગ્રેજોની કેદમાંથી મુક્ત કરાવવા માટે કાનદાસે રચેલા દરિયાપીરની સ્તુતિન છંદો પણ મળી આવે છે.

અંગ્રેજોએ કાનદાસને કેદ પકડીને તેમને હાથે એ પગે લોખંડનીભારે બેડીઓ પહેરાવીને ગોધરાની જેલમાં અંધાર કોટડીમાં પૂર્યા. આથી કવિએ પોતાને છોડાવવા માટે દરિયાપીરની સ્તુતિ કરતાં છંદો ૨ચ્યા અને અંગ્રેજોની સામે જ તેમનાં અનાચાર અને અનુચિત કાર્યોને જાહેર કર્યા. એ છંદોમાંથી બે ત્રણ ઉદાહરણ જોઈએ :

અચલક માથે પડી આફત, સખત કેદે સોંપ્યો;
વળિ હલણ ચલણ અતિ વિપત્તિ થાનક જપત થિયો.

‘કહ્યું કે, ‘તમે તો તમારી ઉપસ્થિતિમાં જ પૃથ્વીરૂપી તમારી પત્નીને એનો સૈન્યરૂપી ઘાઘરો અને સાડી કાઢીને પરાયે હાથે ચૂંથાવી. ભારપૂર્વક કહીશ તો તમે મને ચાડીખોર કહેશો, પણ છે સ્વર્ગવાસી! ભૂતલીન રાજવીઓ! જુઓ તમારા કુળમાં પાકેલ કપુતોને કારણે આજે પૃથ્વીરૂપી પુત્રવધૂ તદ્દન નગ્ન દશામાં આવી ગઈ છે.

કાનદાસનો સમય:-
સામરખા ગામના વતની કાનદાસ કેશરદાન મહેડન જન્મ વિ.સં. ૧૮૬૯માં થયો હોવાની વિગતો મળે છે. અલબત્ત, પ્રાભે કેટલાક વિદ્વાનોએ વિ. સં. ૧૮૦૦ નો ઉલ્લેખ કર્યો છે, પરંતુ વિશેષ સંશોધન પછી તેઓએ પણ ઉપર્યુક્ત સાલને સ્વીકારી છે.

કાનદાસજીને પોતાના મૃત્યુ સમયની આગાહી થઈ ગયેલી વિ. સં. ૧૯૨૫ના વૈશાખ સુદ છઠ્ઠના દિવસે પોતાના પુત્રોને આજ્ઞાઆપી, ડાયરાની ઉપસ્તથિતિમાં ચોકો તૈયાર કરાવી ને જાતે જ તેમાં સુતા અને યોગી માફક દેહત્યાગ કર્યો. “આમ, કવિએ વિ. સ. ૧૮૬૯ થી ૧૯૨૫ ઈ. સ. ૧૮૧૩ થી ૧૯૬૯):’ સુધીનું આયુષ્ય ભોગવેલું.

કાનદાસ મહેડુનું સાહિત્યસર્જન:-
ભૂજની વ્રજભાષા પાઠશાળામાં અઢાર વર્ષ અભ્યાસ કરનાર કાનદાસ મહેડુએ વિપુલ ર્ત્રામાં સાહિત્ય સર્જન કર્યું છે, અલબત્ત, તેમના, સાહિત્ય સંદર્ભે હજુ પણ વિશેષ સંશોધનની આવશ્યકતા છે, પરંતુ હાલ તેમની પાસેથી મળેલી પંદરેક કૃતિઓ ઉપલબ્ધ થાય છે. જેની હસ્તપ્રતો પણ સૌરાષ્ટ્ર યુનિવર્સિટીના ચારણી સાહિત્ય હસ્તપ્રત ભંડારમાં ઉપલબ્ધ થાય છે.

  • (૧)કાશી વિશ્વનાથના છંદ (૩૯૧/૬૩૨૭).
    (૨)રાધાજીની તિથિઓ (૫૭/પ૩૬૨)
    (૩)હનુમાન સ્તવનના છંદ (૪૨/૨૨૫૧ અને ૨૭૨/૫૩૬૨)
    (૪)ભાવગનરના રાજવી વજેસિંહનું ગીત (પ૩/૨૩૭૯)
    (૫) કાગડા હંસનું કવિતા (૬૯/૨૯૪૯)
    (૬) ભાદરવા ઠા. જાલમસિંહના બારમાસ (૯૩/૨૬૮૬)
    (૭) દરિયાપીરના છંદ (૨૫૪/૫૨૫૩, ૨૮૭/૫૫૪૬, ૨૮૭/૫૫૮૮)
    (૮) વાળોવડના મૂળજી પટેલનું ગીત (૨૬૩/૪૩૮૩).
    (૯) નારસિંહ ચૌહાણનાં મરસિયા (૨૭૨/૪૫૪૨ અને ૨૭૨/૫૧૮૮)
    (૧૦) અમોદના રાજવંશ અંગેનો અનામી ગ્રંથ (૩૦૩/૫૫૩૫ અને ૨૭૬/૫૪૦૯).
    (૧૧) શોભાસાગર, દેવગઢ બારિયાના રાજવી પૃથ્વીરાજવિષયક ગ્રંથ (૨૭૪/૫૪૦૭)
    (૧૨) આઈ ખોડિયારનો છંદ (૨૭૨/૫૨૫૪).
    (૧૩) ક્ષાત્રધર્મ પ્રબોધનું ગીત (રતુદાન રોહડિયાના અંગત સંગ્રહમાંથી).
    (૧૪) રજપૂતાણીને ઉપાલંભનું ગીત (રતુદાન રોહડિયાના અંગત સંગ્રહમાંથી)
     (૧૫) લુણાવાડા ફતેસિંહના છંદ (૨તુદાન રોહડિયાના અંગત સંગ્રહમાંથી).
     (૧૬) સરદાર સિંહ વાઘેલાનાં કાવ્યો (રતુદાન રોહડિયાના અંગત સંગ્રહમાંથી)
     (૧૭) ખેતરપાળનો છંદ (૨૬૬/ ૫૦૯૯)
     (૧૮) અનામી ગ્રંથ, શિહોરના રાજવી પ્રતાપસિંહ વિષયક ગ્રંથ, (૨૮૫/૫૫૩૫)
     (૧૯) સૂર્વસ્તવન (૬૪/૨૫૧૦,૭/૨૯૩)
    (૨૦) રામચંદ્રજીના છંદ (પ૭/ર૪૬૦)
     (૨૧) બળિયાદેવનું ગીત (સામતસિંહ મહેડુના અંગત સંગ્રહમાંથી)
     (૨૨) ભીમનાથ મહંતનું ગીત (સામત સિહ મહેડુના અંગત સંગ્રહમાંથી)
    (૨૩) નાનીબાનું ગીત (સામતસિંહ મહેડુના અંગત સંગ્રહમાંથી)
    (૨૪) વડોદરાના ખંડેરાવ ગોયકવાડના છંદ (૩૯૧/૬૩૩૪)
    (૨૫) પૃથ્વીરાજનાં રાણી રૂપાળીબાનું ગીત (સામતસિંહ મહેડુના અંગત સંગ્રહમાંથી)
    (૨૬) બાલાસિનોરના નવાબનું ગીત (ચતુરદાનજી મહેડુના અંગત સંગ્રહમાંથી)

કાનદાસ મહેડુએ રચેલા ઉપર્યુક્ત કાવ્યોમાંથી ઐતિહાસિક મૂલ્યો ધરાવતા બે – ત્રણ ગ્રંથોનો સંક્ષેપમાં પરિચય મેળવીએ.

(૧) શોભાસાગર:
દેવગઢ બારિયાના રાવ પૃથ્વીરાજ ચૌહાણ વિષયક આ ગ્રંથમાં ચૌહાણ રાજવંશનો વિસ્તૃત પરિચય અપાયો છે. કાનદાસજીએ ચૌહાણોમાં થઈ ગયોલા પ્રતાપી રાજવીઓની યશગાથીનું સ્મરણ કરાવીને પૃથ્વીરાજને પ્રેરણા પૂરી પાડી છે. કવિરાજે પૃથ્વીરાજ ચૌહાણ, રણથંભોરમાં અલાઉદ્દીન સામે લડનાર હમીર ચૌહાણ, દિલહીના બાદશાહ સામેં વીરતાથી લડનાર અચળદે ખીચી (ચૌહાણ) અને ગુજરાતના સુલતાન સામે યુદ્ધ કરનાર પાવાગઢના પ્રતાપ (પતઈ) નાં પરાક્રમોને કલાત્મક રીતે વર્ણવ્યા છે.

છંદશાસ્ત્રના પ્રકાંડ પંડિત કાનદાસ મહેડુએ પ૬૯ કડીમાં આ ગ્રંથ રચ્યો છે. તેમણે બિયાખરી , ગાહા, કવિત, દોહા, ઝૂલણા અને ભુજંગપ્રયાત છંદનો કલાત્મક વિનિયોગ કરીને પોતાની છંદ શક્તિનો પરિચય કરાવ્યો છે.

(૨) આમોદ રાજવંશનો ગ્રંથ:
આમોદના રાજવી જીતસિંહ યાદવ વિષયક આ ગ્રંથ ૩પ૦ કડીમાં રચાયો છે. કાનદાસજીના હસ્તાક્ષરમાં જ આ ગ્રંથની એક હસ્તપ્રત મળે છે. જેમાં પ્રારંભનાં કેટલાંક પૃષ્ઠો મળતાં નથી. પ્રસ્તુત ગ્રંથમાં કવિએ આમોદની રાજગાદી માટે ઠાકુર જીતસિંહ અને દાજીભાઈ યાદવ વચ્ચે થયેલ યુદ્ધ પ્રસંગને આલેખ્યો છે. કવિએ આમોદ રાજવંશમાં થઈ ગયેલા પ્રતાપી પૂર્વજોની વિગતો પણ અહીં આપી છે. શ્રી હમીરજી યાદવ અને હિંમતસિંહ યાદવનાં પરાક્રમોનો ઉલ્લેખ કરીને કવિએ તેના સંતાનોને પ્રેરણા પૂરી પાડી છે. કવિએ પ્રારંભે ૧૩૬ છંદ સુધી આમોદ રાજવંશનો વિસ્તૃત પરિચય રજૂ કર્યા પછી યુદ્ધવર્ણન આલેખ્યું છે. આમ, ઐતિહાસિક દૃષ્ટિએ આ ગ્રંથ પણ મહત્ત્વનો છે.

(૩) અનામી ગ્રંથ
કાનદાસજી રચિત પ્રસ્તુત ગ્રંથનું કોઈ નામ મળતું નથી, પરંતુ ગ્રંથમાં મહીકાંઠાના પ્રદેશમાં આલે શિયોરના રાજવી પ્રતાપસિંહ દીપસિંહના પરાક્રમોનું વર્ણન છે. વડોદરાના ગાયકવાડ રાજાએ શિયોર પર આક્રમણ કરતાં પ્રતાપસિંહે વીરોચિત રીતે તેમનો સામનો કરીને વિજય મેળવ્યાનો પ્રસંગ અહીં આલેખાયો છે. અલબત્ત, પ્રસ્તુત ગ્રંથની હસ્તપ્રતપણ જીર્ણ હાલતમાં અને અપૂર્ણ મળેલ છે, ચારણી સાહિત્યના પ્રખર સંશોધક અને તજજ્ઞ શ્રી રતુદાનજી રોહડિયા ના મતાનુસાર આ ગ્રતનું શીર્ષક ‘પ્રતાપસાગર’ છે.

કાનદાસ મહેડુની સાહિત્યાસાધનાનો સંક્ષેપમાં પરિચય મેળવ્યા પછી કાનદાસ અને ૧૮૫૭ ના’. સ્વતંત્ર્ય સંગ્રામ સંદર્ભે માહિતી મેળવીએ.

થારી વેળા ધરા ચૂંથાડી, સેન ઘાઘરો કાઢી સાડી;
ચાવી કહું તો લાગે ચાડી, જુવો સસરા વઉ ઉંધાડી.

સ્વાતંત્ર્ય પ્રિય કાનદાસજીએ ક્ષત્રિયોને પોતાની તેજાબી વાકધારા દ્વારા અંગ્રેજ વિરુદ્ધ સંગ્રામ માંડવા માટે જાહેમાં ઉપાલંભયુક્તકાવ્યો સંભળાવેલાં. તેઓએ આ સંગ્રામમાં ભારતીય પ્રજા હિન્દુ, મુસલમાનને એક બનીને અંગ્રેજ હકુમતેને તોડવા માટે પ્રેરક સાહિત્ય અને કાવ્યો રચ્યાં, પરંતુ ભાગ્યવશાત્ ક્ષત્રિયો નિષ્ફળ રહ્યા. આથી કવિએ આવા કાયપુત્રોને જન્મ આપનાર ક્ષત્રિયાણી – રજપૂતાણીને પણ ઉપાલંભ આપીને ક્ષાત્રધર્મ ત્યજનારા કાપુરુષોને જન્મ જન આપવાની શિખામણ મર્મયુક્ત બાનીમાં આપી છે. જુઓ :

‘કરતાર કીરત સનમુખ દશ કાણી, શાણી બાત તણા નહી શ્રત;
પાળે નહિ કુળ રીત પુરાણી, એવા રાણી ક્યોં જાયા રજપૂત’

કાનદાસ મહેડુએ સર્વસ્વના ભોગે પણ માતૃભૂમિને આઝાદ કરાવવાનો પ્રયત્ન કર્યો છે. આ કારણે જ અંગ્રેજોએ સ્વાતંત્ર્યસંગ્રામ દરમિયાન કવિને કેદમાં રાખીને તેમને ભારતીય પ્રજાથી અલગ કરી દીધા હશે. જેથી તેઓ કાવ્યસર્જન દ્વારા સમાજમાં એ માટેનું વાતાવરણ તૈયાર ન કરે. આવા કવિનું સાહિત્ય અને તેમાં રહેલ ઐતિહાસિક વિગતોને પ્રકાશમાં લાવીને તેમાંથી ઐતિહાસિક સત્ય શોધવા પ્રયત્ન થાય તેવી અપેક્ષાસહ.

સંદર્ભ નોંધ :

  • ૧. રતુદાન રોહિડાય “હિરાકણી’, પૃ.૬૭ પ્રથમ આવૃતિ – ૧૯૮૯.
    ૨. (અ) પુરુષોત્તમ છ. શાહ: ‘ચરોતર સર્વ સંગ્રહ’ ભાગ-૨, પૃ-૬૪૮.
    (બ) ડૉ. નિર્મલા આસનાની: કચ્છકી વ્રજભાષા પાઠશાળા એવમ્ ઉસસે સંબદ્ધ કવિઓ કા કૃતિત્વ પૃ.૨૨૯, પ્રથમ આવૃત્તિ – ૧૯૯૬.
    (ક) સંદર્ભ નોંદ – ૧ પ્રમાણે, પૃ.૬૫.
    ૩ . રતુદાન રોહડિયા: ગુજરાતના ચારણી સોહિત્યનો ઈહિતાસ પૃ. ૪૭૭
    ૪. સંદર્ભ નોંધ-૨ (અ), ૨ (બ) અને ૨ (ક) મુજબ
    ૫. (અ) શ્રી આર. કે. ધારૈયા ગુજરાત નો દીપોત્સવી અંક વિ. સં. ૨૦૨૮
    (બ) સંપાદક: હરિપ્રસાદ શાસ્ત્રી: ગુજરાતનો રાજકીય અને સાંસ્કૃતિક ઈતિહાસ, ભાગ- ૮, પ્રવિણચંદ્ર પરીખ, પૃ. ૨૫૦
    (ક) બરોડા રેસીડેન્સી રેકોર્ડ, વોલ્યુમ નં. ૪૩, વર્ષ ૧૮૫૭, પૃ. ૨૦૧ – ૨૦૪
    ૬. (અ) પોલિટિકલ ડિપાર્ટમેન્ટ વોલ્યુમ નં. ૪૬, વર્ષ ૧૮૫૭, પૃ. ૧૪૩ – ૧૪૪
    (બ) પોલિટિકલ ડિપાર્ટમેન્ટ વોલ્યુમ નં. ૪૩, વર્ષઃ ૧૮૫૭, પૃ. ૨૦૧/૨૦૪
    ૭. સંદર્ભ નોંધ ૨ (અ), પ્રમાણે.
    ૮. સંદર્ભ નોંધ ૨ (બ) પ્રમાણે
    ૯. (અ) સંદર્ભ. ‘બ) સંદર્ભ – નોંધ ૧ પ્રમાણે, પૃ.૭૧ ઝવેરચંદ મેઘાણી: ચારણો અને ચારણી સાહિત્ય. પૃ. ૭૯ છે,
    ૧૦. સંદર્ભ નોંધ – ૧ પ્રમાણે, પૃ.૭૫
    ૧૧. સંદર્ભ નોંદ – ૩ પ્રમાણે, પૃ.૨૨૦
    ૧૨. સંદર્ભ નોંધ- ૨ (બ) પ્રમાણે, પૃ. ૨૨૬

પ્રોફેસર, ગુજરાતી વિભાગ, સૌરાષ્ટ્ર યુનિવર્સિટી, રાજકોટ. મો. : ૯૪૨૮૫ ૩૦૦૦૫.

प्रकाशन:- मेहडू परिवार तथा यंग चारण चारणोतर अलायन्स (YCCA). पुस्तक द्वारा जानकारी प्राप्त

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क्रांतिकारी कानदासजी मेहड़ू परिचय

जन्म:– संवत 1867  (बालवय मा माता ने पितानु अवसान)।  

अभ्यास:- संवत 1867 मा, बाळ अवस्था मा भुज पाठशाला मा गया।

शिग्रविध्या अने कवि नो  इल्काब:- 18 वर्ष पाठशाला माँ रही संवत 1890 माँ शिग्रविध्या अने  कवि नो इल्काब (भुज ना राजा तथा आचार्य श्री नी  कृपा थी मेळव्यो)। 

हिंगलाज यात्रा:- 1890 मा अभ्यास पुरो करी हिंगलाज यात्रा ए गया। 

सामरखा माँ आगमन: – 1891 मा कच्छ ना राजा  तरफ थी लाख पसाव लई ने सामरखा आव्या।    

बोरियावी मा आगमन:- 1891 माँ बोऱियावी मा 11 एकर 20 गुंथा जमीन राखी कुवो बंन्धाव्यो तथा सामरखा मा हवेली बंन्धावी।

विवाह-
   1893 मा वालोवड गामे देथा माँ प्रथम लग्न कर्यु,
   1895 मा मुवाड़ा नांधु मा बीजु लग्न कर्यु
   1901 मा रामोदड़ी मा वरसड़ा मा त्रीजु लग्न कर्यु

  • संवत 1912 मा पाड़ला विसभाई ने दहेज़ माँ आप्यु।
  • संवत 1915 मा पाड़ला राजद्रोह थी खालसा थयु।
  • संवत 1917 शिवराजपुर वगेरे 12 गाम।
  • संवत 1917 थी 1923 देवगढ़ ना दिवान।
  • संवत 1923 थी 1925 वड़ोदरा गायकवाड़ ना राजकवि।
  • संवत 1925 मा 58 वर्ष नी वये अवसान पाम्या।
  • संवत 1897 माँ प्रथम पुत्र विसाभाई महेड़ू नो जन्म अने संवत 1932 मा 35 वर्ष नी वये विसाभाई नुं अवसान। (मोसाळ – नांधू)
  • संवत 1899 माँ बीजा पुत्र हलुभाई महेड़ू नो जन्म अने  संवत 1954 मा 55 वर्ष नी वये हलुभाई महेड़ू नुं अवसान (मोसाळ – नांधू)
  • संवत 1900 मा त्रिजा पुत्र ऊमाभाई महेड़ू नो जन्म अने संवत 1976मा 76 वर्ष नी वये ऊमाभाई महेड़ू नुं अवसान (मोसाळ – देथा)
  • संवत 1901 माँ प्रथम पुत्री श्री रूपालिबा माँ नो जन्म अने संवत 1995 मा 94 वर्ष नी वये श्री रूपालिबा माँ नुं अवसान। (मोसाळ – नांधू)
  • संवत 1903 माँ चोथा पुत्र रतनसिंह महेड़ू नो जन्म अने  संवत 1974 माँ 71 वर्ष नी वये रतनसिंह महेड़ू नुं अवसान। (मोसाळ – नांधू)
  • संवत 1905 मा पाँचमा पुत्र दौलतसिंह महेड़ू नो जन्म अने संवत 1947 मा 42 वर्ष नी वये दौलत सिंह महेड़ू नुं अवसान (मोसाळ – वरसड़ा)
  • संवत 1910 मा बीजा पुत्री जीजीबाई नो जन्म अने संवत 1920 मा 10 वर्ष नी वये जीजीबाई नुं अवसान। (मोसाळ – वरसड़ा)

 प्रेषक:- नीतिनदान महेड़ू सामरखा

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