पूरा नाम | माँ करणीजी |
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माता पिता का नाम | माता देवलदेवी ओर पिताजी का नाम मेहाजी किनिया था |
जन्म व जन्म स्थान | करणीजी का जन्म 21 माह गर्भ में रहने के बाद वि.स. 1444 आसोज सुद सातम शुक्रवार को फलोदी के पास सुआप गाँव में हुआ |
स्वधामगमन | |
वि.सं. 1595 (1538 ई.) की चैत्र शुक्ला नवमी शनिवार को श्रीकरणीजी ज्योतिर्लीन हुए। | |
विविध | |
जीवन परिचय | |
श्री करणी माता का जीवन-वृत्तान्त श्री करणीमाता के पिता मेहाजी जो किनिया शाखा के चारण थे। उनको मेहा मांगलिया से सुवाप नामक गाँव उदक में मिला था, जो जोधपुर जिले की फलौदी तहसील में पडता है। मेहाजी को सुवाप गाँव मिलने से पहले यह गाँव सुवा ब्राह्मण की ढाणी कहलाता था। बाद में मेहाजी ने इस गाँव का नाम बदलकर सुवाप रखा था। इसी गाँव में लोकदेवी श्रीकरणीमाता का जन्म हुआ। मेहाजी किनिया का विवाह बाड़मेर के मालाणी परगने में अवस्थित वर्तमान बाड़मेर जिले के बालोतरा के पास आढ़ाणा (असाढ़ा) नामक एक प्राचीन गाँव के स्वामी माढा आढ़ा के पुत्र चकलू आढ़ा की पुत्री देवल देवी के साथ हुआ था। कुछ लोग इस प्राचीन गाँव का उल्लेख जैसलमेर की सीमा पर स्थित ओढाणिया गाँव के रूप में भी करते है जो कि एक शोध का विषय है। निष्कर्षतः यह विवाह वि.सं. 1422-23 के आस-पास हुआ था। इस आढ़ी देवल देवी को भी चारण जाति में शक्ति का अवतार माना जाता है। देवल देवी के गर्भ से मेहाजी को एक-एक करके पाँच पुत्रियाँ हुई और एक भी पुत्र नहीं हुआ था। इसी कारण से मेहाजी सदैव उदास रहा करते थे। एक दिन उन्होंने आद्य शक्ति हिंगलाज माता की यात्रा की जो पाकिस्तान के बलुचिस्तान प्रान्त में स्थित है। कहा जाता है कि भगवती श्री हिंगलाज ने उसकी श्रद्धा एवं भक्ति से प्रसत्र होकर उसे दर्शन दिया और वर मांगने को कहा तो मेहाजी ने हिंगलाज माँ को प्रणाम कर प्रार्थना की कि मैं चाहता हूँ कि मेरा नाम चले। देवी श्री हिंगलाज तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गयी। उसके बाद उनकी धर्मपत्नी देवलदेवी को गर्भ रहा। इस बार मेहाजी को पुत्र प्राप्ति की पूर्ण आशा थी। इसलिए प्रसूति काल के निकट आने पर उसे मोढी मूलाणी और अक्खा ईंदाणी नाम की दो दाइयों को देवलदेवी की सेवा में लगा दिया। परन्तु 10 मास समाप्त होने पर भी प्रसूति नहीं हुई। प्रतीक्षा करते-करते दसवाँ मास छोडकर 12वाँ-15वाँ मास भी समाप्त हो गया। इससे परिवार के सभी सदस्यों को चिन्ता होंने लगी। अन्त में अक्खा ईंदाणी यह कहकर चली गयी कि मैंने आज तक ऐसी प्रसूति नहीं देखी न जाने शिशु कब जन्म लेगा? अक्खा ईंदाणी तो चली गई और मोढी मूलाणी देवल देवी की सेवा करती रही। इसी चिन्ता में 20वाँ मास भी बीत गया तब तो और भी अधिक चिन्ता होंने लगी। एक रात्रि को देवल देवी को स्वप्न में साक्षात् दुर्गा ने दर्शन दिये और कहा कि धैर्य रख एक मास बाद मैं निज इच्छा से तुम्हारी कुक्षि से जन्म लूंगी। अक्खा ईंदाणी ने मेरी उपेक्षा की है अत: वह पुत्र सुख से वंचित रहेगी तथा मोढी मूलाणी को सर्वत्र सम्मान प्राप्त होगा तथा उसके कहे वचन फलीभूत होंगे क्योंकि उसने मेरी तन-मन से सेवा की है। वि.सं. 1444 को सुवाप गाँव में आश्विन शुक्ल सप्तमी के दिन शुक्रवार को ब्रह्म मुहूर्त्त में आढ़ी देवल देवी के गर्भ से 21 मास रहने के बाद लोकदेवी श्रीकरणीजी ने जन्म लिया। चकलू मांढावत री धिन आढ़ी देवल्ल। श्री करणीजी के जन्म के बारे में एक दोहा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है- चौदह सो चम्मालवे, सातम सुकरवार। गोरीचंद हीराचंद ओझा ने बीकानेर राज्य के इतिहास भाग-1 में पृ. सं. 62 पर करणीमाता का जन्म 20 सितम्बर, 1387 ई. होना लिखा है। करणी चरित्र के अनुसार:- उस युग में लडकी के जन्म को अशुभ समझा जाता था। पुत्री जन्म को अभिशाप मानने वालों के लिए रिधू बाईसा (श्रीकरणीजी) की यह प्रथम दण्डात्मक सीख थी, जो आज के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है। मेहाजी की बहिन द्वारा जो देवी श्रीकरणीजी का उपहास किया गया उसका प्रतिफल उसे तुरन्त ही मिल गया। लेकिन उनकी भूँआ देवी श्रीकरणीजी का चमत्कार नहीं समझ सकी और अंगुलियों के जुड़ने का कारण बादी आना समझ लिया। जन्म के तीसरे दिन नामकरण संस्कार हुआ और कन्या का नाम रिधूबाई रखा गया। नाम के अनुरुप ही मेहाजी के घर में रिद्धी-सिद्धी बढने लगी। रिधू बाई के जन्म से पूर्व पिता मेहाजी की साम्पत्तिक दशा साधारण थी। परन्तु उनके जन्म के साथ-साथ दिन प्रतिदिन पिता की समृद्धि बढने लगी। भूँआ की अंगुलियों को ठीक करना:- कई ग्रंथों में श्रीकरणीजी का श्रीकरणी नाम से प्रसिद्ध होने की घटना का उल्लेख हुआ। श्रीकरणीजी चरित्र, सेवा सुमन, श्री करणी अवतार आदि ग्रंथों में श्रीकरणीजी का नाम करणी पडने के पीछे भूआ का हाथ टूटा करना बतलाया गया है, जबकि सही बात यह है कि पाँच वर्ष की अवस्था में रिधूबाई (श्रीकरणीजी) ने भूँआ का टूटा हाथ ठीक किया तब उन्होंने रिधू बाई का नाम बदलकर करणी रखा और आगे रिधूबाई इसी नाम से विश्व में विख्यात हुई। पिता को जीवनदान देना:- सुवा ब्राह्मण को वरदान:- पिता को पुत्र प्राप्ति का वरदान:- श्री लाल बाई-फूल बाई माताजी का मंदिर:- श्री केसर बाई माता जी का मंदिर:- इन सभी बहिनों के बारे में एक दोहा प्रसिद्ध है जो राजस्थानी शक्ति काव्य में भँवरसिंह सामौर ने इस प्रकार लिखा है- लालां फूलां करनला, केहर गैंद गुलाल। मेहाजी किनिया के सात पुत्रियाँ होने के बाद भी एक भी पुत्र नहीं होने के कारण वे सदैव उदास दिखाई देते थे। गाँव के स्वामी की इस खिन्नता का प्रभाव गाँववासियों पर भी पड़ता दिखाई देता था। एक दिन संयोगवश श्रीकरणीजी की भूँआ सुवाप आयी हुई थी, उसने श्रीकरणीजी को कहा कि बाई तू जगत् को अपने दैविक चमत्कार दिखाया करती है, मुझको भी दो बार दिखा चुकी है। घर में महामाया के होते हुए भी पिता अपनी वंश रक्षा के लिए चिन्तित रहें, इससे अधिक और क्या दु:ख हो सकता है? श्रीकरणीजी ने उत्तर दिया कि पिताजी को मेरी ओर से कह दो कि पुत्र के लिये चिन्तित न हो, वे एक पुत्र चाहते हैं मैं दो पुत्र होने का वरदान देती हूँ। श्रीकरणीजी की भूँआ ने यह सूचना अपने भाई मेहाजी को सुनाई। मेहाजी और उसकी स्त्री देवल देवी भी अपनी पुत्री के मुँह से यह वचन पाकर खिल पडे। इसके कुछ ही दिन बाद देवल देवी को गर्भ प्राप्ति हुई और दसवें महिने पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम श्रीकरणीजी की आज्ञानुसार सातल अर्थात् सात बहिनों वाला रखा गया। इस पुत्र के जन्म की खुशी में मेहाजी ने कई दिनों तक खुशियाँ मनाई। आसपास के जागीरदारों तथा गाँव वालों को प्रसन्नता पूर्वक दावत दी गई और याचकों को भी मेहाजी द्वारा खूब दान दिया गया। इसके दो वर्ष बाद उनको दूसरा पुत्र भी प्राप्त हुआ जिसका नाम सारंग रखा। श्री करणीजी का विवाह:- इस प्रकार मेहाजी देवी श्रीकरणीजी का निर्देश पाकर साठिका गये तथा केलूजी बीठू के पुत्र देपाजी के साथ श्रीकरणीजी का विवाह सम्बन्ध तय हो गया। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी ओर से विवाह की तैयारियाँ शुरु कर दी। देपाजी को श्रीकरणीजी के रूप के बारे में सम्बन्ध के पहले से जानकारी थी। इसलिए वे इस सम्बन्ध से खुश नहीं थे। अतः वे पिता केलूजी की इच्छा के विरूद्ध केवल एक बहली, एक घोड़ा, और दो-चार व्यक्तियों को बारात में लेकर विवाह के लिये रवाना हो गये। केलूजी को पुत्र हठ के आगे झुकना पडा और उनकी इच्छा के विरूद्ध ज्यादा शान से बारात नहीं गई। वि.सं. 1473 (1416 ई.) आषाढ शुक्ल नवमी को श्रीकरणीजी का विवाह देपाजी बीठू के साथ साधारण रीति से सम्पन्न हुआ। उधर श्रीकरणीजी की माँ आढ़ी देवलदेवी द्वारा अपने पीहर आढ़ाणां गाँव जाकर अपने भाई को विवाह में उपस्थित होने और भात भरने के लिए निमन्त्रित किया गया। लेकिन श्रीकरणीजी के घमण्डी आढ़ा मामा माहेरा भरने, पाट उतारने तथा सेवरा देने के लिए विवाह में उपस्थित नहीं हुए। श्रीकरणीजी चंवरी मण्डप में फेरों के समय तक सेवरा देने के लिए आढ़ा सरदारों की प्रतीक्षा करती रही। विवाह में आढों द्वारा उपस्थित नहीं होने को श्रीकरणीजी ने अपना अपमान समझा तथा आढों पर क्रोधित होकर शाप दे दिया की तुम्हारी वंश वृद्धि नहीं होगी, उनका आढ़ाणा गाँव का निवास छूट जायेगा और वे इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहेंगे। इस तरह का शाप आढों को श्रीकरणीजी द्वारा दिया गया। मेहाजी ने विवाह में अपनी ओर से बहुत खर्चा किया और दहेज में दास-दासी, 200 साँढणी और लगभग 400 गायें और खूब सारे आभूषण दिये। परन्तु देपाजी ने यह सब कुछ लेने से इंकार कर दिया और बहाना किया कि द्विरागमन (गौना) के समय में हम आपका दिया हुआ दहेज स्वीकार करेंगे। इस प्रकार 29 वर्ष की आयु में श्रीकरणीजी ने जाति-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए विवाह करना स्वीकार किया। विवाह के बाद तीन-चार दिन तक बारात को रखकर मेहाजी ने वर-वधू को विदाई दी। श्रीकरणीजी को गायें अधिक प्रिय थी इसलिए 200 गायों को उन्होंने अपने साथ हठात् ले लिया। देपाजी का भ्रम निवारण करना:- अणदा (करणा) खाती को रक्षा का वचन देना:- जब अणदा की माँ अन्य गायों का दूध दोहकर वापस आती है तो दूध की हांडी को मुँह तक भरी देखकर श्रीकरणीजी से कहती है बाईजी आपने तो सारी हांडी पानी से भर दी। अब सुबह बिलौने में घी नहीं आयेगा, तब श्रीकरणीजी ने कहा कि मैंने तो पानी को छूआ भी नहीं तो दूध मैं कैसे डाल दिया? इस पर भी अणदे की माँ को विश्वास नहीं हुआ तो श्रीकरणीजी ने कहा कि इस दूध को अलग से जमा देना और सुबह इसका पृथक बिलौवना करना। इस पर अणदा की माँ ने ऐसा ही किया और सुबह जल्दी उस दूध के दही का बिलौना किया तो सारा दही घी में परिवर्तित हो गया। तब उसे विश्वास हुआ कि श्रीकरणीजी तो साक्षात् महाशक्ति का अवतार है। इस आश्चर्य को देखकर सारी स्त्रियाँ दूसरे दिन श्रीकरणीजी के समक्ष पहुँची और अपनी-अपनी इच्छानुसार वरदान प्राप्त किये। इस चमत्कारी घटना के बाद अणदा की माँ ने श्रीकरणीजी से कहा कि अणदा मेरा एक ही बेटा है जो कुँए में नीचे उतर कर उसे ठीक करने का काम करता है आप उसकी रक्षा करने का आशीर्वाद देकर मुझ पर कृपा करो। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि ‘उसे कहना कि जब विपदा में हो तब मुझे याद कर लेना’ इस तरह का वचन देकर श्रीकरणीजी व देपाजी ने वहाँ से साठिका के लिए प्रस्थान किया। साठिका पहुँचना:- देपाजी का दूसरा विवाह:- देपाजी स्वयं भी इस विवाह से प्रसन्न नहीं थे। वे सदैव खिन्न-चित्त रहते थे। श्रीकरणीजी ने एक दिन उनको कहा कि आप गृहस्थी चलाने के लिए मेरी छोटी बहिन गुलाब बाई से शादी कर लो। इस प्रस्ताव को देपाजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि गुलाब बाई सुन्दर एव रूपवती थी। देपाजी ने स्वयं गुलाब बाई को देख रखा था। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने देपाजी की स्वीकृति लेकर उनका विवाह वि.सं. 1474 (1417 ई.) के प्रारम्भ में गुलाब बाई से करवा दिया। इस बार देपाजी ने सहर्ष दहेज सामग्री स्वीकार कर ली, जो श्रीकरणीजी के साथ विवाह के समय अपने ससुराल में ही छोड आये थे। कुटुम्ब वृद्धि:- रेडीबाई की 11 वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गई थी। शेष चारों पुत्र श्रीकरणीजी के जीवनकाल तक जीवित रहे। देवायत को शाप देना: ससुराल साठिका का परित्याग करना:- अनेक तरह से प्रार्थना करने पर श्रीकरणीजी ने कहा कि पानी का स्वाद नमकीन अवश्य होगा परन्तु तुम लोगों को आवश्यकता के अनुसार पानी मिलता रहेगा। हाँ, पानी का खर्च बहुलता से नहीं कर सकोगे और श्रीकरणीजी ने उन्हें कहा कि मैं आज ही अपने गो धन के साथ यहाँ से प्रस्थान करुंगी। जहाँ भी आज का सूर्यास्त होगा, वहीं मेरा स्थायी निवास बन जायेगा। यह कहकर उन्होंने अपने दास-दासियों को आज्ञा दी कि हमारे सब पशुओं को लेकर तुम लोग जांगलू चले जाओ। वहाँ पहुँचने पर आगे कहाँ जाना होगा इसके लिए विचार किया जायेगा। सब परिकरों को आगे रवाना करके वि.सं. 1475 (1418 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को श्रीकरणीजी ने भोजन के पश्चात् अपने ससुर, सास, पति, देवर तथा दूसरे कुटुम्बियों के साथ ले गो धन के रक्षार्थ सदा के लिए साठिका गाँव का परित्याग कर दिया। श्रीकरणीजी अपराह्न में सपरिवार जांगलू पहुँची। जांगलू से चलकर श्रीकरणीजी जालों के जोहड में पहुँची। यहाँ पहुँचते-पहुँचते दिन अस्त हो गया। इस पर उन्होंने यहीं पर स्थायी निवास करने की आज्ञा दे दी। रात को वहीं विश्राम कर दूसरे दिन श्रीकरणीजी ने वहाँ झोंपडे खडे करने की आज्ञा दे दी। नेहड़ी का रोपण करना:- इस नेहड़ीजी मन्दिर की ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि इस प्रकार है कि जोहड में पहुँचने के बाद श्रीकरणीजी ने अपने सेवक गुणिया को सुबह खेजड़ी के वृक्ष की सूखी लकड़ी लाने को कहा। सेवक ने खेजड़ी की सूखी लकड़ी लाकर श्रीकरणीजी को दे दी। श्रीकरणीजी ने उस लकड़ी को जमीन में गाड दिया और उसके दही के छींट दिये। उसको श्रीकरणीजी ने बिलौने के लिए नेहड़ी के रुप में काम में लिया था। यह सूखी लकड़ी खेजड़ी का हरा वृक्ष बन गयी। वर्तमान में भी हरे वृक्ष के रुप में खडी है। बाद में महाराजा गंगासिंह ने यहाँ मन्दिर का निर्माण करवा दिया। श्रीकरणीजी द्वारा दिये दही के छींटे आज भी इस वृक्ष पर दिखाई देते हैं। इस वृक्ष की पुरानी छाल जाने पर नई छाल आती है उस पर भी दही के छींटे आ जाते हैं। इस तरह का चमत्कार जगदम्बा श्रीकरणीजी आज भी दिखा रही है। यह वृक्ष आज से 600 वर्ष पुराना हो जाने पर भी हरा भरा दिखाई दे रहा है। आधुनिक नेहड़ीजी के मन्दिर के पास श्रीकरणीजी ने 11 मास तक पर्णकुटियाँ बनाकर निवास किया और ये कुटियाँ श्रीकरणीजी की ढाणी के नाम से विख्यात हो गयी। देशनोक नगर की स्थापना:- राव रिड़मल को श्रीकरणीजी ने जांगलू का राजा बना दिया तब उसने श्रीकरणीजी को भेंट स्वरुप आधा राज्य भेंट करना चाहा, जिसे श्रीकरणीजी ने अस्वीकार कर दिया। अत्यधिक आग्रह करने पर श्रीकरणीजी ने गायों के चरने के लिए उस भूमि का चतुर्थांश स्वीकार किया जिसमें 10 गाँवों की भूमि के क्षेत्र सम्मिलित थे तथा इस क्षेत्र में 10 कुँए भी थे। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने जोहड की भूमि लेकर गायों के लिए चारे की समस्या का समाधान किया। वि.सं. 1476 (1419 ई.) वैशाख शुक्ल द्वितीया, शनिवार को श्रीकरणीजी ने अपनी ढाणी से एक कोस पूर्व में देशनोक नगर का शिलान्यास किया। श्रीकरणीजी की मान्यता आस-पास के गाँवों में फैल चुकी थी। इसलिए यहाँ अवसर पाकर इनके कई भक्त बस गये और यह बस्ती एक गाँव के स्वरुप में आ गयी, तो एक दिन राव रिड़मल ने जोहड में पहुँच कर श्रीकरणीजी से प्रार्थना की कि यह गाँव मेरे देश की ओट (पनाह) है इसलिए इसका नाम देशओट रखिये। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि यह गाँव तो देश का नाक है, इसलिए इसका नाम मैं देशनाक रखती हूँ। देशनाक शब्द बिगड़ कर बीकानेर निवासियों के उच्चारण-भेद के कारण पीछे से देशनोक बन गया। तब से यह नगर देशनोक कहलाता है। ससुर केलूजी का स्वर्गवास:- देपाजी का स्वर्गवास:- लक्ष्मण (लाखण) को जीवनदान देना:- “Rats Rule at Indian temple” Sharon Guynup and Nicolas Ruggia The legend goes that Karni Mata, a mystic matriarch from the 14th century, was an incarnation of Durga, the goddess of power and victory. At some point during her life, the child of one at her clansmen died. She attempted to bring the child back to life, only to be told by yama, the god of death, that he had already been reincarnated. Karni Mata cut a deal with yama : From that point forward, all of her tribes people would be reborn as rats until they could be born back into the clan. In Hinduism, death marks the end of one chapter and the beginning of a new one on the path to a soul’s eventual oneness with the universe. This cycle at transmigration is known as samsara and is precisely why Karni Mata’s rats are treated like royalty. The Vermin Brewing International We further read that the people believe those holy rats will be reincarnated into mystics and sadhus in their next life. Another source, however, claimed that the rats are children (or ‘kabas’) who died in a fever epidemic during the 14th or 16th Century. After receiving a plea from the grieving mothers to bring the children back, yama (the god of death) promised that the soul of every child would live on in the form of a rat. श्री करणी माता एवं समकालीन राजपूत राज्य(अ) श्रीकरणी माता एवं पूगल राज्य:- राव शेखा भाटी को वरदान:- हरिसिंह भाटी (पूगल का इतिहास में) ने पृ. 283 पर लिखा है कि वि.सं. 1521 (1464 ई.) राव शेखा पूगल की राजगद्दी पर बैठे। अतः यह सही जान पडता है कि श्रीकरणीजी ने शेखा को विजयश्री का गाँव सुवाप में, जो वरदान दिया था, उस समय वे पूगल के राजकुमार थे। शेखा भाटी के जल्दी मे होने के कारण श्रीकरणीजी ने उसी जगह पर (रास्ते में ही) अपने पिताजी का भाता खोलकर उसका व उसके 140 सैनिकों का आतिथ्य सत्कार किया। शेखा के आदेशानुसार उसके सब आदमी ऊँटों से उतर कर अपने-अपने बर्तन लेकर प्रसाद लेने हेतु कतार में बैठ गये। श्रीकरणीजी प्रत्येक सेनिक के सामने जाती और अपनी छोटी सी हंडिया में से उसके बर्तन में दही उडेल कर छबड़ी में से रोटी दे देती। आगे बढने पर हंडिया फिर दही से भर जाती और टोकरी में रोटियाँ भी फिर उतनी ही हो जाती, जिनको वे आगे वाले आदमी को दे देते। इस प्रकार प्रत्येक आदमी के सामने जाकर श्रीकरणीजी, उसे दही और रोटियाँ देती रही। जब सब सैनिकों का पेट भर गया तो वे कहने लगे, हमने इतना चिकना मलाईदार दही, इससे पहले कभी नहीं खाया। राव शेखा के शाकुनिक ने कहा कि दही खिला देने से अपशुकन हो गया है और जीत में मुझे शंका है। शाकुनिक की बात जब राजकुमार शेखा ने श्रीकरणीजी को बतलाई तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा शाकुनिक ठीक कहता है। उसके शकुनों का फल उसे ही मिलेगा। शेखा का जब उसके शत्रुओं से युद्ध हुआ तो शत्रु पक्ष के सभी सैनिक काम आये, लेकिन राव शेखा की ओर से केवल वह शाकुनिक ही काम आया। यह देखकर शेखा को बडा आश्चर्य हुआ और श्रीकरणीजी में उसका विश्वास और भी ज्यादा बढ गया। वापस आते समय शेखा भाटी सुवाप गाँव आया और श्रीकरणीजी के दर्शन किये। शेखा भाटी ने श्ररीकरणीजी के पिता मेहाजी से अनुरोध किया कि मुझे श्रीकरणीजी का धर्म-भाई बनना है। अधिक अनुरोध करने पर श्रीकरणीजी ने शेखा भाटी को राखी बांधकर उसे अपना धर्म-भाई बनाया। इस अटूट रिश्ते का निर्वाह आज तक भी भाटी राजपूत एवं किनिया चारण करते आये हैं। राव शेखा तीन दिन तक सुवाप में ठहरे। वहाँ से रवाना होते समय उन्होंने श्रीकरणीजी से प्रार्थना की कि हे बहिन, अपने भाई पर एक कृपा और करो। आप सर्व शक्तिमान जगदम्बा हैं। अतः मुझे अमरत्व का वरदान देकर कृतार्थ करें। श्रीकरणीजी ने कहा अमरत्व तो संसार में किसी को प्राप्त नहीं हुआ है, जिसने जन्म लिया है उसको एक दिन मरना ही पडेगा यहाँ तक कि मुझे स्वयं को भी एक दिन देह को त्यागना होगा। परन्तु राव शेखा ने फिर प्रार्थना की कि हे बहिन। आप जगत माता जगदम्बा हो, सब कुछ कर सकती हो। इस पर श्रीकरणीजी ने अपने धर्म-भाई को वरदान दिया कि जब तक तुम अमावस्या के दिन आक के पेड के नीचे खींप की चारपाई पर बैठकर काले मेंढे का माँस नहीं खाओगे तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। जब तक तुम इन चारों चीजों का एक साथ उपयोग नहीं करोगे तब तक तुम अमर हो। यह वरदान प्राप्त करके राजकुमार शेखा हँसी-खुशी पूगल गये। राव शेखा की बिजली से रक्षा करना:- राव शेखा की मृत्यु:- (ब) श्रीकरणी माता एवं जोधपुर राज्य:- राव चूंडा:- रिड़मल का चूंडासर में निवास:- जांगलू के अत्याचारी शासक राव कान्हा से तकरार:- श्रीकरणीजी के ग्वालों द्वारा उनके पशुओं को पानी पिलाने से हौज खाली हो गया। अतः श्रीकरणीजी ने सोचा इससे नगर के सारे पशु प्यासे रह जायेंगे। अत: उन्होंने राव रिड़मल की घोड़ियों को लाव से जुतवा कर हौज भरवाया। इसको देखकर वहाँ खडे लोग आश्चर्यचकित हो गये क्योंकि घोडियों का ताव से जुत कर आगे चलना सर्वथा असम्भव होता है। अपने पशुओं को पानी पिलाकर श्रीकरणीजी जांगलू से चलकर जालों के जोहड में (जाल वृक्षों के जंगल में) पहुँची, और यहीं पर अपना स्थायी निवास बना दिया। यह स्थान सांखला राजपूतों के शासन काल से घोडों के चरने के लिए सुरक्षित रखा जाता था। राव कान्हा के सेवकों ने श्रीकरणीजी के स्थायी रुप से जोहड में निवास करने का विचार देखकर राव कान्हा को कहा कि श्रीकरणीजी के स्थायी निवास से जोहड ऊजाड हो जायेगा, सारी घास उनके पशु खा जायेंगे। इस पर राव कान्हा कुद्ध हो गया। सिंढायच दयालदास ने ख्यात देशदर्पण में लिखा है कि-‘अर जिणां दिनां में जांगलू 125 गाँवां सू कानै चूंडावत रै छै सु करनीजी मवेसी लेर जांगलू रा बीड़ में चरावण साव साठीकै सूं पधारिया। राव कानै इणा नूं मनै किया। या मानी नही। तरा माताजी रौ धन जांगलू पीवण आयो सु कानाजी रा आदमियां कानाजी रा हुकम सं पीवण दीनो नहीं। जीसै मंडोवर सूं रिड़मलजी करणीजी रा दरसण सारु जांगलू आया। दरसण कियो। करणीजी रो धन पीयां बिना ऊभो छो आ बात सुण रिड़मलजी घोडा जोतार ऊपर माताजी रो धन पायो। ‘ ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में मुहता नैणसी ने पृ. 385-86 पर इस प्रकार लिखा है- तठा पठै कितराहेक दिन ताऊ राव कान्है मडोवर राज कीयौ। पछै राव कान्हौं जांगलू साषला ऊपर गयौ छै। तिण समै चारणी करणी कान्हा नु आषा आण बदावण लागी। तरै कान्हौं कही-इणा आषा लीयां कासु हुवै? तरै चारणी कह्यो इणा आषा लीयां राज कमायी होय। तरै कान्हो कह्यो-राव मांहांरौ कोई आषा सारे छै नहीं राज मांहारी तपसीया रौ छै। तरै चारणी कोप कीयौ। कह्यौ-जो इतरा दिन में राज जाय तो आषा जांणजौ, राज गमायौ। तठा पछै कितराहेक दिन मांहे राव सतै चूंडावत रावत रिणधीर चूंडावत भेलौ हुवौ नै कान्हा कनै मंडोवर लीयौ। इस तरह मुहंता नैणसी के अनुसार स्पष्ट है कि राव कान्हा ने जांगलू के सांखलों पर आक्रमण करते समय देवी श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति की अवहेलना की। जिसकी वजह से उसका मंडोवर का शासन उससे छिन गया। सम्भवतः इससे क्रुद्ध होकर ही राव कान्हा श्रीकरणीजी को जांगलू के अपने अधिकार क्षेत्र मे ठहरने नहीं देना चाह रहा था। इसलिए उसकी श्रीकरणीजी से तकरार हुई। राव रिड़मल को नौकोटी मारवाड़ का शासक बनने का वरदान देना:- दूसरे दिन राव रिड़मल ने जोहड में जाकर श्रीकरणीजी को प्रणाम किया और निवेदन किया कि इस भूमि का मालिक राव कान्हा है इसकी जगह मैं होता तो आपको आधा राज्य भेंट कर देता, मेरे अधिकार में चूंडासर में कुछ भूमि है, वहाँ पधारकर आप ठहरिये, मैं आपकी सेवा करुंगा। रिड़मल की इस भक्ति से श्रीकरणीजी ने प्रसन्न होकर कहा कि शीघ्र ही तू नौकोटी मारवाड़ का शासक बनेगा और राव कान्हा को उसकी दुष्टता का फल मिलेगा वह निवंश रहेगा, यदि परमात्मा की इच्छा यहीं पानी करने की हुई तो हमको चूंडासर जाकर क्या करना है? श्रीकरणीजी के श्रीमुख से वरदान सुनकर राव रिड़मल उनके पैरों में गिर पडा और श्रीकरणीजी की आज्ञा लेकर चूंडासर चला गया। उसी रात जोहड में इतनी जोर से वर्षा हुई कि राजोबाव और अणखोबाव पानी से लबालब भर गये। इस वर्षा से गायों के लिए पानी और घास हो गया और गायें सुखपूर्वक रहने लगी। सिंढायच दयालदास के अनुसार, ‘ माताजी रिड़मल नू वर दियो। तारा रिड़मलजी कैयो म्हारे जमी आवै तो 10 (दस) गाँवां री सींब सू ओ बीड आप री भेट छै। पछै रिड़मलजी मेवाड गया। ‘ अर्जुन और बीजा को गीदड़मुँह बनाना:- राव कान्हा का वध:- ऐसी चमत्कारिक घटनााओं पर आज के वैज्ञानिक युग में सहज ही विश्वास नहीं किया जाता परन्तु ‘लक्ष्मण रेखा’ और खम्भे से नृसिंह के प्रकट होने की अति प्राचीन कथाओं पर श्रद्धा और विश्वास तो अब भी अडिग रुप से बना हुआ है। लोकोत्तर देवी चमत्कार ही लौकिक घटनाओं को देवत्व से अनुप्रमाणित करते है। श्री करणी माताजी के हाथ की सन्दूकड़ी (मंजुषा) आज भी देशनोक के तेमडाराय मंदिर में पूजा हेतु रखी हुई है जिसका एक पाया खंडित है। इस मंदिर की सेवा-पूजा लाखण (लक्ष्मणराज) के वंशजों द्वारा की जाती है। मारवाड़ रा परगना री विगत (मुंहता नैणसी) में पृ. 385-86 पर लिखा गया है कि मंडोवर के शासक कान्हा द्वारा श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति की अवहेलना की गई, जिसकी वजह से उसका मंडोवर का राज्य छीन गया। जिससे सम्भवत. कान्हा क्रुद्ध हो गया और अपने अधिकार वाले क्षेत्र जांगलू से श्रीकरणीजी को भगाना चाहता था। जिससे श्रीकरणीजी ने उसे शाप दे दिया और वह मारा गया। जिसकी पुष्टि ख्यात देश दर्पण (सिंढायच दयालदास) में पृ. 17 जोधपुर री ख्यात (सं. रघुवीरसिंह) में पृ. 42, जोधपुर राज्य का इतिहास (जी.एच.ओझा) में पृ. 214-15, श्रीकरणी चरित्र (किशोरसिंह बार्हस्पत्य) में पृ. 43-45 आदि ऐतिहासिक ग्रंथों तथा श्रीकरणीजी सम्बन्धित ग्रंथों एव डिंगल साहित्य से भी होती है। रिड़मल का जांगलू का राजा बनना:- श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से रिड़मल का मंडोवर पर अधिकार:- श्रीकरणीजी से मंडोवर विजय का वरदान लेकर राव रिड़मल ने रावसत्ता को पराजित कर मंडोवर पर भी अधिकार कर लिया। इससे पूर्व भी श्रीकरणीजी के वरदान से उत्साहित होकर उसने प्रयत्न किया था। परन्तु उनकी (श्रीकरणीजी की) दी हुई अवधि का पालन न करने के कारण असफल हो गया। वि. सं. 1484 (1427 ई.) को राव रिड़मल ने मंडोवर पर अधिकार किया। राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर (राज.) के सौजन्य से- 01 गाँव देसणोक सासण श्री करणीजी नु राया राव श्री रिणमलीजी रो दत्त श्री करणीजी सु कान्है चांडावत रे राज थका श्री रिणमलजी अरज कीवी म्हारे जायगा हुवै तो दस गाँव सासण आपरी नजर करु ते सु या रा मनोरथ माताजी सिध कीया ताहा रा रावा कयो अबे गांव हाजर छ तद माताजी कयो पीहर दस गाँवां रो एवज ले गाँव पूगतो करो तद दस गाँवां री सीम भेली कर देसणोक गाँव दीनो। चेत सुद 7 सवत् 1487 रा दोहा- राजस्थान अभिलेखागार, बीकानेर से प्राप्त वि. सं. 1671 की सासण की बही से भी ज्ञात होता है कि श्रीकरणीजी ने राव रिड़मल को वरदान दिया जिसकी वजह से वह जांगलू व मंडोवर का शासक बना और उसने दस गाँवों की सीम मिलाकर एक गाँव देशनोक उनको अपने वचनानुसार भेंट किया। राव रिड़मल का मारा जाना:- चूड़ा अजमल आविया, मांडू हूँ धक आग। डूम द्वारा दिये गये संकेत को समझकर जोधा अपने सात सौ सवारों और सभी 24 भाइयों के साथ मंडोवर की तरफ भागा। चूंडा सिसोदिया ने उसका पीछा किया। मंडोवर पहुँचते-पहुँचते जोधा के साथ केवल सात ही सवार बचे और मंडोवर पर चित्तौड के चूंडा सिसोदिया का अधिकार हो गया। इस प्रकार से वि.सं. 1495 (1438 ई.) में परास्त और विवश होकर जोधा काहुनी गाँव में जाकर रहने लगा, जो वर्तमान में बीकानेर से 10 कोस की दूरी पर स्थित है। मंडोवर पर जोधा का अधिकार:- जोधपुर के नगर एवं दुर्ग की स्थापना:- राव जोधा ने जोधपुर के किले की नींव श्रीकरणीजी के हाथों से शिलारोपण कराकर सम्पत्र करवाई थी जिसका उल्लेख प्राचीन ख्यातों एव डिंगल-गीतों में अनेक जगह स्पष्ट मिलता है। मुहता नैणसी कृत ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ भाग प्रथम में परिशिष्ट 1 (क) ‘कमठा री विगत’ पृ. 559 पर भी इसका उल्लेख हुआ है। ‘श्री जोधपुर रो किलो स. 1515 रा जेठ सुद 11 सनीवार राव जोधाजी नीम दीवी। श्रीकरनीजी पधार नै सो विगत-पहला तो चौबुरजो जीवरखो कोट करायी, चिड़ीया-टूंक ऊपर। ‘ उपर्युक्त ख्यात में उल्लेखित तथ्य पूर्णतः सही है और इसकी पुष्टि प्राचीन साहित्यिक गीतों से होती है। महाराजा मानसिंह के समकालीन कवि खेतसी बारहठ कृत करणीजी विषयक डिंगल गीत ‘ बड़ौ सांणौर’ में इसका स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार है- तापियौ नाथ चिड़िया तबै ठौड़ तद, समूरत मापियौ नकूं सोधै। मुहता नैणसी कृत ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ भाग तृतीय में पृ. 70 पर भी उल्लेख हुआ है कि गढ की स्थापना के अवसर पर करणीजी ने स्वयं पधारकर जोधा को आशीर्वाद दिया था। इसकी साक्षी का एक प्राचीन गीत भी मिलता है- विमल देह धरयां, सगत जंगलधर बिराजै, जिस स्थान पर यह किले की नींव रखी गई उस स्थान पर जोधा ने एक पुख्ता दिवार बनवाई और उसका नाम ‘ राव जोधा का फलसा’ रखा। उस समय राव जोधा ने श्रीकरणीजी को भेंट कर अपने समस्त भाइयों सहित पगडियाँ उनके चरणों में रखी। जोधा और उसके परिवार जनों ने अनन्त काल तक राज्य स्थिर रहने का वरदान मांगा। तब श्रीकरणीजी ने कहा संसार नश्वर है, जो कुछ बनता है वह बिगडता भी है, यह नियम अटल है, फिर भी मेरा वरदान है कि 28 पीढियों तक तुम्हारी संतानें इस पृथ्वी का उपयोग करेंगी। बाद में, वे लोग भोमिये होकर ही रहेंगे। जोधा के प्रार्थना करने पर श्रीकरणीजी कुछ दिन वहीं पर रही और फिर दो-तीन दिन अमरा बारहठ की विनती पर मथाणिया में ठहरी। जिसका अध्ययन चतुर्थ अध्याय में किया जायेंगा। मथानिया से खारी (पलासनी) होते हुए श्रीकरणीजी सुन्धामाता के दर्शन करने गये। वहाँ से सीधे देशनोक लौट गये। (स) श्रीकरणीमाता एवं बीकानेर राज्य:- राव बीका द्वारा जोधपुर का परित्याग करना:- बीका को श्रीकरणीजी द्वारा वरदान देना:- शेखा को रंगकुँवरी के विवाह का प्रस्ताव:- दयालदास री ख्यात के अनुसार अरु जिणां दिनां मैं सांखलो नापौ चीतोडसूं जांगलू आयौ, सू औ पण जोधपुर हाजर है। पीछे इण बीकैजीनूं सोय तनै परणावसा। पीछे सेखौ राव पूगलरी तैनू श्रीकरणीजी सोयापमैं भाई कैय वतलायौ हौ अरु वर दियौ हौ सू सेखौ पण चवदसनै श्रीकरणीजी रौ दरसण करण, देसणोक आवै। तद श्रीकरणीजी दूजी चवदस सैखैनूं कयौ, ‘सेखा, थारी बेटी रंगकवर बीकौनूं परणाय। बीकैरो प्रताप घणौ वधसी। ” तद सैखे कयौ ” और तौ आप कहौ सौ माथे ऊपर है पण आ वात तौ कबूल नहीं। ” तद श्रीकरणीजी कयौ, ‘ रै सेखा, तैं जेडा हजारों बीकै रा पायनामी हुसी। ” इस प्रकार उक्त ख्यात से स्पष्ट होता है कि श्रीकरणीजी ने राव शेखा को वि.सं. 1522 कार्तिक सुदी 14 को अपनी पुत्री रंगकुँवरी का विवाह बीका से करा देने का कहा था क्योंकि वि.सं. 1522 की आश्विन सुदी चतुर्दशी तक बीका जोधपुर से देशनोक के लिये आ चुका था। ख्यात में अगली चतुर्दशी को श्रीकरणीजी ने शेखा को अपनी पुत्री बीका से ब्याह देने का कहा गया है। इसी तरह उक्त सभी ग्रंथों में श्रीकरणीजी द्वारा शेखा को अपनी पुत्री रंगकुँवरी का विवाह बीका से करा देने का कहा गया है। राव शेखा का मुलतान में कैद होना:- एक दिन शेखा की स्त्री ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी से राव शेखा को जेल से छुडाने के लिये निवेदन किया। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि यदि रंगकुँवरी का विवाह बीका से करना तुम्हें स्वीकार हो तो शेखा जेल से मुक्त हो सकता है। शेखा की स्त्री ने अपने पुत्र हरु भाटी, परिवार और स्वजनों से परामर्श करके श्रीकरणीजी से निवेदन किया कि रंगकुँवरी का विवाह तो आपकी इच्छानुसार राव बीका से कर देंगे लेकिन राव शेखा की अनुपस्थिति में कन्यादान कौन करेगा? इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि तुम विवाह की तैयारी करो, कन्यादान के समय राव शेखा को जेल से छुडाकर लाना मेरा काम है। श्रीकरणी द्वारा शेखा भाटी को कैद से मुक्त करवाना:- दयालदास के अनुसार पीछे फैरा लैणरी वखत श्रीकरणीजी मुलतान पधार राव सैखैजीनूं लाया। अरु कवर बीकैजीनूं परणाया। मुंशी सोहनलाल के अनुसार- रसूम शादी होने लगी कन्यादान के वक्त जब दुलहिन के बाप की जरुरत हुई तो करणीजी आनन् फानन में मुलतान गई और शेखू को ले आई। कैप्टन पी. डब्ल्यु. पाउलेट के अनुसार- “Karniji flew off to multan brought shekho and caused him to complete the marriage” कविराज श्यामलदास के अनुसार- पूंगल के भाटी शैखा ने श्रीकरणी देवी के समझाने से अपनी बेटी बीका को ब्याह दी। सिंढायच दयालदास के अनुसार (ख्यात देश दर्पण पृ. 233)- नै अठै श्रीकरणीजी मुलतान सू पूगल कोस 335 तीन सै छै सु पोहर 1 में सेहरां री वखत राव सेखैजी ने लाया नै सेखैजी रे हाथ सूं सेहेरां दियारा। K.M.Panikkar book ‘His Highness The Maharaqja of Bikaner a biography’; Page No 4; “soon after his refusal Sekho was captured ……. Helping to release her father.” इतिहासकारों में इस घटना के समय को लेकर गहरा विरोधाभास दिखाई पडता है। किशोरसिंह बार्हस्पत्य (श्रीकरणी चरित्र) ने वि. सं. 1539 हरिसिंह भाटी (पूगल का इतिहास) ने वि. सं. 1526 तथा दयालदास सिंढायच (ख्यात देश दर्पण) ने वि. सं. 1521 माना है। ये सभी संवत् गलत प्रतीत होते हैं क्योंकि बीकानेर के इतिहास के समस्त स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि राव बीका के रंगकुँवरी की कोख से लूणकर्ण का जन्म वि. सं. 1526 माघ सुदी 10 को हुआ। अतः हरिसिंह भाटी और किशोरसिंह बार्हस्पत्य का बताया संवत् पूर्णतः गलत है इसी तरह दयालदास का संवत् भी गलत प्रतीत होता है क्योंकि वि. सं. 1521 को तो बीका ने जोधपुर का भी परित्याग नहीं किया था। समस्त स्त्रोतों का शोधपूर्वक अध्ययन करते हैं तो यह घटना वि. सं. 1524-25 के आस-पास की प्रतीत होती है क्योंकि बीका ने वि. सं. 1522 आश्विन सुदी 10 को जोधपुर का परित्याग किया। फिर कुछ महिनों बाद शेखा मुलतान में पकडा गया और कैद में डाल दिया गया। कहा जाता है कि शेखा भाटी करीब दो वर्ष तक मुलतान की कैद में रहा। अत: सही प्रतीत होता है कि श्रीकरणीजी ने शेखा को वि. सं. 1524-25 के आसपास कैद से मुक्त कराया होगा और उसकी पुत्री का विवाह बीका से करवाया। जिससे बीका को लूणकर्ण नामक पुत्र वि. सं. 1526 माघ सुदी 10 को हुआ। बीका का रंगकुँवरी के साथ विवाह कराना:- बीकानेर राज्य का इतिहास भाग-1 में इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने राव शेखा को बीका द्वारा मुलतान की कैद से छुडवाना बताया है जो उनकी इतिहास लेखन में भारी भूल कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रथम प्रश्न उपस्थित होता है कि बीका ने केवल रंगकुँवरी से विवाह के खातिर अपनी जान जोखिम में क्यों डाली? जबकि राव शेखा ने स्पष्ट रुप से अपनी बेटी रंगकुँवरी के विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। अगर वह राव शेखा को छुडाकर भी ले आता तो भी शेखा रंगकुँवरी का विवाह उसके साथ करने वाला नहीं था। दूसरा प्रश्न यह है कि वि. सं. 1524-25 (1467-68 ई.) के आस-पास बीका इतना शक्तिशाली कैसे हो गया? जो कि मुलतान जैसे सशक्त राज्य से टक्कर ले सके। जबकि दो वर्ष पूर्व जब वह जोधपुर छोडकर आया था। तब उसके पास सिर्फ 100 सवार थे और कुछ गाँव चूंडासर के थे और 84 गाँव जांगलू प्रदेश के थे। दो-तीन वर्षो में उन्होंने ऐसी कौनसी सेना का संगठन कर लिया जो जांगलू से 200 मील दूर मुलतान राज्य पर आक्रमण कर सकती थी? उनके बीच में लम्बा चौडा रेगिस्थान और पूगल का राज्य पडता था, जहाँ पानी एवं रसद की अनेक कठिनाइयाँ थी। बीका के आर्थिक साधन नगण्य थे जबकि मुलतान का हुसैन खा लगा बहुत शक्तिशाली था, बीका की शक्ति इतनी नहीं थी कि वह मुलतान को जीत सके, न ही कभी बीकानेर के इतिहास में किसी ने मुलतान को जीता है। यदि बीका ने मुलतान पर अधिकार किया यह भी मान ले तो वह ऐसे ऊपजाऊ और सरसब्ज क्षैत्र को छोडकर वापस रेगिस्तान (जांगलू प्रदेश) में क्या लेने आया था? जबकि अभी तक उसने अपना नया राज्य भी स्थापित नहीं किया था। बीका के लिए तो जांगलू में रहो या मुलतान में दोनों ही प्रदेश नये थे। बीका मुलतान ही बसा रहता, ताकि आने वाली पीढियों को अकाल और अभाव से राहत मिलती। ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन करने तथा उस समय की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो सही प्रतीत होता है कि राव बीका उस समय इतना शक्तिशाली नहीं था और बीका बिना किसी वजह क्यों अपनी जान जोखिम में डालकर मुलतान से शेखा को छुडाने का प्रयास करता? यदि वह ऐसा करता तो सम्भवतः स्वयं भी मुलतान की कैद में होता। ऐतिहासिक ग्रंथ दयालदास री ख्यात भाग-2 में पृ. 4-5, बीकानेर राज्य का गजेटियर (पाउलेट महोदय) में पृ. 2-3, तारीख बीकानेर (मुंशी सोहनलाल) में पृ. 91-92, ख्यात देश दर्पण (सिंढायच दयालदास) में पृ. 232, पूगल राज्य का इतिहास (हरिसिंह भाटी) में पृ. 286-290, श्रीकरणी चरित्र (किशोरसिंह बार्हस्पत्य) में पृ. 78-83; राजस्थान के सूरमा (तेजसिंह तरूण) के पृ. 48 आदि ग्रंथों तथा श्रीकरणीजी से सम्बन्धित समस्त ऐतिहासिक एव काव्य ग्रंथों में श्रीकरणीजी द्वारा राव शेखा को मुलतान से छुडाकर लाने तथा बीका के साथ रंगकुँवरी का विवाह कराने का उल्लेख मिलता है। यही कारण है कि जिसकी वजह से तो वि.सं. 2004 (1947 ई.) तक मुलतान से ‘मामाजी का सिलाड’ श्रीकरणीजी को चढाने के लिए देशनोक आती थी, नहीं तो मुलतान के मुसलमानों का हिन्दू देवी श्रीकरणीजी को खाजरु (बलि हेतु बकरा) भेजने से क्या तुक? अर्थात् मुसलमान के पीरों एव मुसलमानों ने श्रीकरणीजी की अद्भुत दैवी शक्ति को माना जिसकी वजह से खाजरु देशनोक श्रीकरणीजी को चढाने के लिए भेजते थे। भारत विभाजन के बाद ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो गई कि यह प्रथा बन्द हो गई। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने राव शेखा से लूट-मार की प्रवृत्ति छुडवाई तथा भाटियों एव राठौड़ों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करवा दिये जिससे बीका का साम्राज्य स्थापित करने का काम सरल हो गया। श्रीकरणीजी की आज्ञा से राव बीका और शेखा के पुत्र हरु ने परस्पर एक दूसरे की सहायता करने की प्रतिज्ञा की। कहा जाता है कि मुलतान से पूगल पहुँचकर श्रीकरणीजी ने किले के पूर्वी प्रवेश द्वार पर विश्राम किया और द्वार की दाहिनी दिवार के पास अपने हाथ से त्रिशूल को जमीन में गाडकर स्थापित किया और वचन दिया कि जब तक यह त्रिशूल यहाँ गडा रहेगा तबतक पूगल में भाटियों का राज बना रहेगा। यह पिछले 500 वर्षों से उसी स्थान पर गडा हुआ है। कहते है कि जब इसे देवी श्रीकरणीजी ने भूमि में गाडा था तब उसकी ऊँचाई आदमी के बराबर थी, अब जमीन से केवल एक या डेढ फुट ऊपर है। राव शेखा के द्वारा अपने मंत्रियों को निर्वासित करना:- बीका का देशनोक निवास:- तब बीका सपरिवार चाडासर से देशनोक आकर रहने लगा। वहीं पर वि. सं. 1526 (12 जनवरी, 1470 ई.) को माघ शुक्ल 10 को बीका की पत्नी रंगकुँवरी ने पुत्र को जन्म दिया जो आगे बीकानेर के इतिहास में लूणकर्ण के नाम से गद्दी पर बैठा। बीका ने इस नवजात शिशु के जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन और चूंडाकर्ण आदि संस्कार श्रीकरणीजी के हाथ से कराये। इस तरह बीका सपरिवार वि.सं. 1531 (1474 ई.) तक अर्थात पूरे छः साल तक देशनोक श्रीकरणीजी की सेवा में रहा। वि.सं. 1531 (1474 ई.) के अन्त में श्रीकरणीजी ने बीका और कांधल को आज्ञा दी कि अब समय अनुकूल है कि तुम यहाँ से कोडमदेसर चले जाओ और वहाँ अपने उपास्य देव भैरव की स्थापना करो और इसी को तुम अपने राज्य की स्थापना समझना। बीका ने श्रीकरणीजी के आदेशानुसार कोडमदेसर जाकर भैरव की स्थापना की। (जिसे बीका मंडोवर से अपने साथ लाया था।) और बीका सकुटुम्ब कोडमदेसर में रहने लगा। यहाँ बीका का रहना भाटियों को चुभता था अत उन्होंने बाघोड़ों के साथ मिलकर छेडखानी करना शुरु कर दी। तब बीका ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी को अपना हाल बताया। श्रीकरणीजी ने उसे कुछ समय तक शान्ति धारण करने का आदेश दिया। जांगलू प्रदेश की तत्कालीन स्थिति एवं उस पर श्रीकरणीजी का मन्तव्य:- तब श्रीकरणीजी ने निश्चय किया कि जब तक यहाँ किसी प्रबल शासक के अधिकार में एक बड़े राज्य की स्थापना नहीं हो जाती तब तक इन दुष्ट लुटेरों की लुटक प्रवृतियों पर अंकुश नहीं लग सकता। जब बीका मंडोवर से देशनोक उनके पास आया तो उन्होंने उसको सदुवंशी और योग्य जानकर अपने मन्तव्यानुसार वृहद् राज्य का संस्थापक बनाने का निश्चय किया ताकि प्रजा को सुख-समृद्धि की प्राप्ति हो सके। बीका का भाटियों से युद्ध:- इसके बाद बीका कोडमदेसर जाकर अपने काका कांधल और भाई बीदा तथा अन्य सरदारों को लेकर युद्ध की तैयारी करने लगा। उधर कलिकर्ण ने राव शेखा को युद्ध में सम्मिलित होने के लिये कहलाया, लेकिन उसे श्रीकरणीजी ने उस युद्ध में सम्मिलित न होने की सलाह दी। जिसके कारण उसने कलिकर्ण को सिर में अत्यधिक पीड़ा होने का बहाना बनाते हुए मना कर दिया। तब भाटी समझ गये कि उसे श्रीकरणीजी ने ही रोका है अत उन्होंने कलिकर्ण को देशनोक श्रीकरणीजी के पास आशीर्वाद के लिए भेजा तो श्रीकरणीजी ने उसे कहा कि तुम इस युद्ध में तिल-तिल की तरह कटकर मरकर प्रशंसा प्राप्त करोगे। इस प्रकार वि.सं. 1535 (1478 ई.) में भाटियों और बीका के बीच कोडमदेसर का युद्ध हुआ जिसमें भाटियों की हार हुई और कलिकर्ण 300 साथियों सहित वीरतापूर्वक लडता हुआ काम आया। बीका को जांगलू में निवास करने का आदेश:- श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से बीका का जाटों पर आधिपत्य:- 1. गोदारा पांडू के अधिकार में लाधडिया तथा शेखसर 2. सारण पूला के अधिकार में भाड़ंग 3. कसवां कंवरपाल के अधिकार में सीधमुख 4. बेणीवाल रायसाल के अधिकार में रायसलाना 5. पूनिया काना के अधिकार में बडी लूंधी 6. सीहागां चोखा के अधिकार में सूंई 7. सोहुवा अमरा के अधिकार में धानसी परन्तु इन जाट राज्यों में आपस में झगडा चलता रहता था वि.सं. 1540 (1483 ई.) को शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को बीका श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक आया। तब उन्होंने कहा कि इन जाट राज्यों में परस्पर विरोध बढेगा यदि इनमें से कोई गुट तुमसे सहायता माँगे तो इंकार मत करना। इस प्रकार बीका ने श्रीकरणीजी का आशीर्वाद लेकर देशनोक से वापस जांगलू को प्रस्थान किया। कुछ दिनों बाद देवयोग से ऐसी घटना घटी कि भाड़ंग का पूला सारण ने रायसाल, कवरपाल, पूनिया काना आदि जाटों के साथ लाधड़िया तथा शेखसर के स्वामी पांडू गोदारा पर चढाई करने की सलाह की। पांडू गोदारा घबराकर बीका की शरण में चला गया। बीका ने श्रीकरणीजी के आदेशानुसार उसको सहायता का आश्वासन दिया अत: उनमें से किसी की भी हिम्मत उस पर चढाई करने की नहीं पड़ी। फिर सब मिलकर पूला सारण के नेतृत्व में सिवाणी के स्वामी नरसिंह जाट के पास गये और उसे पांडू पर चढा लाये, जिस पर पांडू अपने बहुत से साथियों के साथ निकल गया। बीका तथा कांधल उस समय सीधमुख पर आक्रमण करने गये हुए थे। पांडू ने उनके पास जाकर सब समाचार कहे और सहायता की याचना की। उन्होंने तुरन्त पूला का पीछा किया और सीधमुख से दो कोस पर नरसिंह आदि को जा घेरा। बीका का आगमन सुनते ही उस गाँव के जाट उससे आ मिले और वह स्थल उसे बता दिया जहाँ नरसिंह सोया हुआ था। बीका ने नरसिंह को जगाकर कहा उठ जोधा का पुत्र आया है। नरसिंह ने तत्काल वार किया, पर वह खाली गया। तब बीका ने एक ही बार में उसका काम तमाम कर दिया। अनन्तर अन्य जाट आदि भी भाग गये तथा रायसल, कंवरपाल, पूला आदि ने, जो बीका के मारे तंग हो रहे थे, आकर क्षमा मांग ली। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से जाटों के सब ठिकाने बीका के अधिकार में आ गये। बीकानेर गढ एवं नगर की स्थापना:- पनरै सै पैतालवै, सुद वैसाख सुमेर। इस अवसर पर बीका ने श्रीकरणीजी को आमंत्रित किया परन्तु उनकी ओर से उनका पुत्र पुण्यराज समारोह में सम्मिलित हुआ। उसने बीका का राजतिलक किया और श्रीकरणीजी की प्रसादी के रुप में झड़बेरी के पाँच पत्ते व आशीर्वाद दिया। राज्याभिषेक के दूसरे दिन बीका सपरिवार देशनोक पहुँचा। वहाँ उसने श्रीकरणीजी को प्रणाम किया, उनकी प्रदक्षिणा की तथा नजर भेंटकर आशीर्वाद मांगा। तब श्रीकरणीजी ने उसे सुखपूर्वक राज्य करने का आशीर्वाद दिया। साथ ही गरीबों पर कभी अन्याय न करने की सलाह दी और कहा कि यहीं के शासकों की लूंटकवृत्ति पर अंकुश लगाने के निमित्त इस शक्तिशाली राज्य की स्थापना हुई है। साथ ही राव कांधल, जो बिना किसी प्रत्युपकार की आशा से तुम्हारी सेवा कर रहा है, उसकी सेवाओं को स्मरण रखना और राव बीदा को उन्होंने कहा कि तू बीका का छोटा भाई है, बडे भाई की सेवा करना और उसको अपना स्वामी समझना छोटे भाई का कर्तव्य है एक राज्य में दो राजा शासन नहीं कर सकते। तुझको बीका की अधीनता स्वीकार करनी होगी। शुद्ध अन्तःकरण से तू उसकी सेवा करता रहना। यदि तुझमें या तेरी सन्तान में राज्य के विरुद्ध दुष्ट विचार उत्पन्न होंगे तब तो तुझको हानि सहन करनी होगी, परन्तु निरर्थक ही बीका या उसकी सन्तान तुझको हानि पहुंचायेगी तो उस हानि का बदला उनको भी मिलेगा। श्रीकरणीजी से आशीर्वाद एवं सदुपदेश लेकर बीका, कांधल तथा बीदा आदि परिवार के सदस्यों ने बीकानेर को प्रस्थान किया। बीदा को छापर-द्रोणपुर दिलाना:- बीदा के बीकानेर पहुँचने पर, बीका ने अपने पिता जोधा से कहलाया कि यदि आप सहायता दें तो फिर बीदा को द्रोणपुर का इलाका दिला देवें। जोधा ने एक बार रानी हाडी के कहने से बीदा से लाडनू मांगा था, परन्तु उसने देने से इंकार कर दिया। इस कारण उसने बीका की इस प्रार्थना पर कुछ ध्यान न दिया। तब बीका ने स्वयं सेना एकत्र कर कांधल, मंडला आदि के साथ बरसल पर चढाई कर दी। इस अवसर राव शेखा, सिंघाणे का सरदार तथा जोइये आदि भी उसकी सहायता के लिये आये। नापा साखला, पडिहार बेला आदि को बीकानेर की रक्षा करने के लिए वहीं छोड दिया गया तथा बीका ने दल-बल सहित कूच किया और नापा सांखला के बसाये गाँव नापासर में डेरा डाला। बीका की सेना में पूगल का शासक राव शेखा अपने पुत्र हरु सहित सम्मिलित था। बीका ने हरु भाटी को अपनी तरफ से देशनोक श्रीकरणीजी के पास युद्ध करने की आज्ञा प्राप्ति के लिए भेजा। तब हरु भाटी ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी के दर्शन किये तथा बीका की तरफ से हाथ जोड़कर अर्ज किया कि युद्ध में सफलता का आशीर्वाद दो। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि कुँवर बीका की विजय होगी, फौज लेकर प्रस्थान करो। इस पर नापासर से बीका द्रोणपुर की ओर अग्रसर हुआ तथा वहीं से चार कोस की दूरी पर उसकी फौज के डेरे हुए। सारग खाँ उन दिनों वहीं था। एक दिन बाघा को, जो बरसल का सहायक था, एकान्त में बुलाकर बीका ने उसे उपालम्भ देते हुए कहा कि काका कांधल तो ऐसे हैं कि जिन्होंने जाटों के राज्य को नष्ट कर बीकानेर राज्य को बढाया और तू (कांधल का पुत्र) मोहिलों के लिए मेरे ऊपर ही चढकर आया है ऐसा करना तेरे लिए उचित नहीं। तब तो वह भी बीका का मददगार बन गया ओर उसने वचन दिया कि वह मोहिलों को पैदल आक्रमण करने की सलाह देगा, जिनके दाई ओर सारग खाँ की सेना रहेगी तथा ऐसी दशा में उन्हें पराजित करना कठिन न होगा। दूसरे दिन युद्ध में ऐसा ही हुआ, फलतः बीका की विजय हुई। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से वि. सं. 1546 (1489 ई.) को छापर-द्रोणपुर के युद्ध में बीका की विजय हुई। कुछ दिन वहाँ रहने के उपरान्त बीका ने छापर-द्रोणपुर का अधिकार बीदा को सौंप दिया और स्वयं बीकानेर लौट गया। जोधा का बीका को पूजनीक चीजें देने का वचन देना:- बीका की जोधपुर पर चढाई:- इस प्रकार बीका श्रीकरणीजी से सदुपदेश लेकर जोधपुर पहुँचा। सूजा ने स्वयं गढ के भीतर रहकर कुछ सेना उसका सामना करने के लिए भेजी, परन्तु अधिक देर तक बीका की फौज के सामने ठहर न सकी। अनन्तर बीका की सेना ने जोधपुर के गढ को घेर लिया। जोधपुर के जागीरदारों को जब मालूम हुआ कि श्रीकरणीजी की ऐसी इच्छा है कि पूजनीक चीजें राव बीका टीकाईपन के कारण उसी की होनी चाहिए तो राव सूजा ने पूजनीक चीजें राव बीका को देकर सौख्य स्थापित कर लिया। सूजा जोधपुर का स्वामी बना तथा बीका अपने टीकाईपन की चीजें लेकर देशनोक श्रीकरणीजी के दर्शन करके बीकानेर गया। बीका का वरसिंह को अजमेर की कैद से छुड़ाना:- बीका का खंडेले पर आक्रमण:- बीका की रेवाड़ी पर चढ़ाई:- बीकानेर लौटकर सुखपूर्वक राज्य करते हुए वि. सं. 1561 आषाढ सुदी 5 (17 जून, 1504 ई.) सोमवार को बीका का देहान्त हो गया। बीका को बीकानेर राज्य की स्थापना एवं उसके सुदृढीकरण में श्री करणीजी के वरदान पर इतिहासकारों के दृष्टिकोण:- 1. इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा ने ‘ राजस्थान का इतिहास’ में पृ. 255-56 पर लिखा है कि बीका को इस अभियान में करणीदेवी का वरदान प्राप्त हो गया तो उसका काम सरल बन गया। बीका इतने बडे भू-भाग का स्वामी बनने का सभी श्रेय श्रीकरणीमाता को देता था। 2. इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने ‘ बीकानेर राज्य का इतिहास’ प्रथम खड में पृ. 111 पर लिखा है कि बीका करणीजी का अनन्य उपासक था और राज्य की वृद्धि को उसी की कृपा का फल समझता था। 3. इतिहासकार दीनानाथ खत्री ने ‘ बीकानेर राज्य का संक्षिप्त इतिहास’ में पृ. 9 पर लिखा है बीका करणीजी का अनन्य उपासक था। 4. इतिहासकार हरिसिंह भाटी ने ‘पूगल राज्य का इतिहास’ में पृ. 285 पर लिखा है बीका अपने समूह साथियों के साथ जांगलू की राह पर थे, उन्हें सौभाग्य से देशनोक स्थान पर देवी करणीजी के दर्शन हुए उनसे साक्षात्कार हुआ, देवी ने उन्हें सफलता के लिए आशीर्वाद दिया। बीका को वृहद राज्य का संस्थापक बनने का श्रीकरणीजी द्वारा वरदान देने का उल्लेख बीकानेर राज्य का इतिहास भाग-1 (गौरीशंकर हीराचंद ओझा) में पृ. 92, पूगल राज्य का इतिहास (हरिसिंह भाटी) में पृ. 285, राजस्थान का इतिहास (गोपीनाथ शर्मा) में पृ. 255-56, बीकानेर राज्य का संक्षिप्त इतिहास (दीनानाथ खत्री) में पृ. 9, दयालदास री ख्यात भाग 2 (सं. दशरथ शर्मा) में पृ. 4, बीकानेर राज्य का गजेटियर (पाउलेट) में पृ. 2, वीर विनोद (कविराजा श्यामलदास) द्वितीय भाग खण्ड 2 में पृ. 478, तवारीख बीकानेर (मुंशी सोहनलाल) में पृ. 91, चारणा री बातां (ठाकर नाहरसिंह जसोल) में पृ. 17, राजस्थान के सूरमा (तेजसिंह तरूण) में पृ. 49; His Highness the Maharaja of Bikaner a Biography by K.M.Pannikar; Page No 3-4; The relations of the house of Bikaner with the central powers(1465-1949) by Dr.Karni Singh; Page No 21-22; Prince, Patriot P parliamentarian biography of Dr.Karni Singh Maharaj of Bikaner by Rima Hooja; Page No 5 आदि ग्रंथों में हुआ है। राव लूणकर्ण:- महाराणा रायमल की पुत्री से विवाह:- नारनोल पर चबाई और लूणकर्ण का मारा जाना:- दयालदास के अनुसार, पीछे सं. 1583 फौज कर नारनौल ऊपर पधारणै री त्यारी करी तारा श्रीकरनीजी आप बीकानेर पधारिया। तद रावजी श्री लूणकरणजी करनीजी रै डेरै दरसण करण आया। तारा श्रीकरनीजी फुरमायौ लूणकरण अबार नारनौल ऊपर जावण री समै नहीं है। पण रावजी मानी नहीं। तद श्रीकरनीजी कयौ तूं नारनौल जावै है, क्यूंई जैतसीनूं दियौ चाहिजे। तद रावजी जैतसी पर विराजी हा सू तमकर कयौ, जैतसी नूं काई दूं भाटा के? तारां श्रीकरनीजी फुरमायौ, हमें लाल, अै भाठा जैतसी रेईज रैहसी। सू करनीजी तौ भविसतरी वात जाणता हा, हूणहार टलै नहीं। अरु रावजी इण वातनूं जाणी नहीं। दरसण कर गढ दाखल हुवा। श्रीकरनीजी वैलमैं विराज देसणोक पधारिया। राव जैतसी:- पातलियो परताप रुडो रतनसी, देवी श्रीकरणीजी के मुख से निकले हुए वाक्य भविष्य में उन राजकुमार के साथ इसी तरह फले कि उस दिन से जैतसी के वंशज तो राज्य के अधिकांश स्वामी रहते चले आये हैं। परतापसी के वंशजों की केवल एक ही कोटरी ‘तलवा’ गाँव में है, उनकी आमदनी भी 500 रुपया वार्षिक है। रतनसी के वंशज जागीर और कुल में सबसे श्रेष्ठ हैं परन्तु वंश वृद्धि अधिक नहीं है और बैरसी की संतान सदा से वीर होती आई है। जब ढोसी नामक स्थान में पिता लूणकर्ण के मारे जाने का समाचार जैतसी के पास बीकानेर पहुँचा तो जैतसी ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। वि.सं. 1583 (1526 ई.) आसोज सुदी 14 को राव जैतसी ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी के दर्शन किये और वि.सं. 1584 (1527 ई.) आसोज सुदी 10 को जैतसी ने अपने पिता को नारनोल लडाई में धोखा देने वाले कल्याणमल पर चढाई की तथा कल्याणमल को भगाकर जैतसी ने द्रोणपुर की गद्दी पर बीदा के पौत्र सागा को, जो संसारचंद का पुत्र था, बैठाया। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से राव जैतसी ने कल्याणमल को हराकर भगा दिया। जोधपुर के राव गांगा की सहायता करना:- (द) श्रीकरणी माता एवं जैसलमेर राज्य:- बीकानेर तथा जैसलमेर का सीमा विवाद:- राव जैतसी का अदीठ रोग ठीक करना:- एक बार श्रीकरणीजी तेमडाराय दर्शनार्थ जा रही थी। उस समय जैसलमेर का महारावल जैतसी था, जो उस समय अदीठ फोड़े से पीडित था। उसने अन्त समय नजदीक जानकर श्रीकरणीजी के दर्शन की इच्छा व्यक्त की। महारावल जैतसी ने जब श्रीकरणीजी के तेमडाराय पधारने का समाचार सुना तो वे अदीठ से व्याकुल होते हुए भी श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ एक मंजिल सामने आये और उनके दर्शन करके चरणों में शीश झुकाकर बोले, मुझे अन्त समय में आपने दर्शन देकर मेरे पर बडा उपकार किया क्योंकि अब मेरी मृत्यु निकट है। श्रीकरणीजी ने उसी समय उनकी पीठ पर हाथ फेर कर वरदान दिया कि तुम्हारी मृत्यु इस रोग से नहीं होगी और रोग आज से ठीक होने लगेगा। उसी समय श्रीकरणीजी की कृपा से महारावल जैतसी की पीडा जाती रही और वे निरोग होने लगे। दयालदास के अनुसार श्यामलदास के अनुसार- कैप्टन पी. डबल्यू पाउलेट के अनुसार- मुंशी सोहनलाल के अनुसार- इस पर महारावल ने कृतार्थ होकर एक गाँव श्रीकरणीजी को भेंट किया। श्रीकरणीजी ने वह गाँव उसी समय एक सोलंकी राजपूत को प्रदान कर दिया। श्रीकरणीजी 15 दिन तक जैसलमेर में बिराजी और फिर तेमडाराय के दर्शन किये। श्रीकरणीजी तेमडाराय के दर्शन करके वापस लौट रही थी तो उक्त सीमा विवाद का झगडा नहीं सुलझा तो दोनों ओर के पंच पंचायती के लिए श्रीकरणीजी को रास्ते में मिले और अपना-अपना पक्ष रखने लगे। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि इस समय तुम दोनों शांत रहो, यह तलाई किसी के भी अधिकार मे नहीं रहेगी। यहाँ दोनों राज्यों का गोधन चरा करेगा। अन्त में उसी तलाई के निकट मैं अपना शरीर छोड़ूंगी। जिस स्थान पर मेरा शरीर पात होगा। वहीं दोनों राज्यों का त्रिपटा समझा जायेगा। इस फैसले से दोनों ही पक्ष उस समय शांत हो गये और श्रीकरणीजी वहाँ से चलकर देशनोक पहुँची। गुम्भारे का निर्माण:- दयालदास के अनुसार, पीछे स. 1594 चैत्र वद 2 नै श्रीकरनीजी आपरै हाथ सूं गुंभारौ कियौ, बिनां तगारी। नै जालारा लकड़ दिया ऊपर। कुटुम्बियों को महाप्रयाण बाबत् बताना:- जैसलमेर प्रवास तथा बन्ना भक्त को दृष्टि देना:- दयालदास के अनुसार, सू अेक आंधौ सुथार थौ, अवस्था बरस 80 मैं, तिणरै घरे जाये श्री करनीजी कयौ, तूं म्हारी मूरत घडदे। तद सुथार कयौ, माता हूं तौ आंधौ हुवौ, सूझै नहीं, पण म्हारा बेटा माथैरै ताण घड देसी। तद श्री करनीजी कयौ, म्हारै सामौ जोय। तारा सुथार सामौ जोयौ नै सामौ जोवतां आंख्यांरौ जाल आघौ हुवौ। नै बालकरी निजर हुई। नै सुथार हाथ जोड प्रदक्षणा दीनी। पीछे श्रीकरनीजी उठेसूं विधा हुवा सू खारौड़ै देवल खनै गया। नै देवल बूट सूं मिलिया। कैप्टन पी.डबल्यू पाउलेट के अनुसार, She likewise cured an aged carpenter of blindness, by causing him to attempt to look at her. मुंशी सोहनलाल के अनुसार, इसी तरह यह भी एक रिवायत है कि श्री करनीजी के बचन से एक ना बीना बीना हो गया। भोमजी बीठे ने लिखा है- सुरत जखम सूथार, आध हींणे वृध ऊमर। तेमडाराय दर्शन करके खारौडा जाना:- स. नारायणसिंह भाटी ने जैसलमेर री ख्यात में लिखा है-देवल देवी चारण जाति में अवतरित लोक देवी मानी जाती है जिसने जैसलमेर के महारावल घडसी को अदीठ (कैंसर) की पीडा से मुक्ति दिलाई थी तथा देवल देवी के आदेशानुसार उसने घडसीसर नामक तालाब का निर्माण करवाया। (तवारीख जैसलमेर पृ. 41) जैसलमेर री ख्यात में पृ. 48 पर इस प्रकार लिखा है कि रावलजी घडसीजी घड़सीसर तालाब बंधायो देवल चारणी सकत को अवतार छौ सो कुकमरौ वाटकौ लेकर धर दिवी जिणी जागा पाल नाखी वर दीनो पाणी सुसे नहीं। इसके बाद खारोडा (सिंध, पाकिस्तान) से रवाना होकर श्रीकरणीजी गाँव बूगटी पहुँची। वहाँ हरबूजी साँखला ने, जिनकी गिनती पंच पीरों में की जाती है, श्रीकरणीजी को अपने यहाँ ठहराया और दो दिन तक सेवा का लाभ उठाया। श्रीकरणीजी का ज्योतिर्लीन होना:- सूर्योदय का समय था। श्रीकरणीजी ने स्नान करने की इच्छा प्रकट की और अपने पुत्र पुण्यराज को रथ के नीचे से घड़ा निकालने को कहा। पुण्यराज ने घड़ा देखा तो खाली था उनहोंने माताजी से निवेदन किया कि घड़ा तो खाली है। इस पर श्रीकरणीजी ने अपने सेवक की उपस्थिति में पुण्यराज को आदेश दिया कि जाओ धीनेरू (खराढ्या) तलाई से घडा भर लाओ। पुण्यराज घडा भरने के लिए चले गये। पीछे से श्रीकरणीजी ने रथवान सारंगिया विश्नोई को कहा कि मेरी झारी निकालो, उसमें कुछ पानी है। सारंगिया ने झारी निकाली उसमें कुछ पानी था। श्रीकरणीजी ने उससे कहा कि उसमें जो पानी है वह मेरे शरीर पर उडेल दो। यह कहकर श्रीकरणीजी वहीं पर तीन पत्थरों की चौकी बनाकर उस पर स्नान करने के लिए बैठ गई। रथवान सारंगिया विश्नोई ने झारी लेकर उसका पानी उन पर उडेल दिया। ज्योंही झारी का पानी उनके भौतिक शरीर पर गिरा त्यों हि उनके शरीर से एक ज्वाला निकली और उस ज्वाला में उसी क्षण उनका वह भौतिक शरीर अदृश्य हो गया। वहाँ कुछ भी नहीं था। ज्योति में ज्योतिर्लीन हो गये। इस प्रकार वि.सं. 1595 (1538 ई.) की चैत्र शुक्ला नवमी शनिवार को श्रीकरणीजी ज्योतिर्लीन हुए। दयालदास ने लिखा है – पनरै सै पिच्याणवै चैत सुकल गुरु नम। संवत् 1595 चैत सुद 9 वृहस्पतवार श्रीकरनीजी जोगा अग्निसूं परम धाम पधारिया। अरु सुथार बूढौ देवली देसणोक ले आयौ। तद मूरत गुंभारै मैं पधराई। सं. 1595 चैत्र सुद 14 सनीवार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र प्रतिष्ठा हुई। श्यामलदास ने लिखा है- कैप्टन पी. डब्ल्यू. पाउलेट ने लिखा है- मुंशी सोहनलाल ने लिखा है- उक्त सभी ग्रंथों में श्रीकरणीजी द्वारा वि. सं. 1595 चैत्र सुदी नवमी को योग शास्त्र विधि से देह त्यागने का लिखा है। श्री करणीजी के ज्योर्तिलीन होने के विषय में दयालदास री ख्यात भाग-2 पर पृ. 53 पर वि. सं. 1595 चैत्र सुद 9 बृहस्पतिवार (गुरुवार) के दिन श्री करणीजी का योगशास्त्र विधि से परमधाम पधारने का लिखा है और वि. सं. 1595 चैत्र सुद 14 शनिवार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में श्री करणीजी की मूर्ति की प्रतिष्ठा देशनोक में होना बताया। यदि वि. सं. 1595 चैत्र सुदी नवमी को गुरुवार था तो वि. सं. 1595 की चतुर्थदशी (14) को शनिवार नहीं आ सकता। पंचाग की सहायता से व शोधपूर्वक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि श्री करणीजी वि. सं. 1595 की चैत्र सुदी नवमी शनिवार के दिन ज्योर्तिलीन हुए और वि. सं. 1595 की चैत्र सुदी चवदस गुरुवार के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में श्री करणीजी की मूर्ति की देशनोक मंदिर में स्थापना हुई थी। इस सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है- बरस डेढ सौ छह मास, दिन उपरान्त दोय। श्रीकरणीजी के ज्योतिर्लीन होने के सम्बन्ध में एक कवित्त दयालदास री ख्यात भाग 2 (सं. दशरथ शर्मा) में पृ. 53 पर इस प्रकार है- उठी अंग सूं आग जोत रिव किरण समाणी, जब पुण्यराज पानी लेकर पहुँचा तो आगे सारंगिया विश्नोई और उनके नौकर को रोता हुआ पाया। पुण्यराज इससे समझ गया कि माताजी ने अपना शरीर छोड़ दिया है इसलिये वह भी रोने लगा। कहते है कि पुण्यराज को उस समय आकाशवाणी सुनाई दी कि हमने इतने ही दिन तक अपने शरीर को रखना उचित समझा था, तुम लोग यही से देशनोक शीघ्र पहुँचो। आज से चौथे दिन एक भक्त बन्ना खाती मेरी मूर्ति लेकर देशनोक में गुम्भारे के बाहर सोया हुआ मिलेगा, उसके सिर के नीचे मेरी मूर्ति होगी। उस मूर्ति को मेरे बनाये हुए गुम्भारे में स्थापित कर देना। मैं हमेशा उस मूर्ति में रहूंगी जिसे जो कुछ अरदास करनी हो वह उस मूर्ति के सामने करे। जो दिल से पुकारेगा उसकी प्रार्थना मैं अवश्य सुनूंगी। ये आकाशवाणी सुनकर वे लोग देशनोक के लिये रवाना हो गये। देशनोक पहुँचकर सारी घटना लोगों को कह सुनाई। धीनेरु तलाई के पास जो कि देशनोक से 35 मील दूर है, श्रीकरणीजी के ज्योतिर्लीन होने की जगह पक्का मंदिर बना हुआ है तथा वहाँ अब भी सेवा पूजा होती है। वहाँ ओरण भूमि छोड़ दी गई और इस प्रकार श्रीकरणीजी ने बीकानेर तथा जैसलमेर राज्यों की सीमा का विवाद समाप्त कर दिया। आकाशवाणी के अनुसार ठीक चौथे दिन बन्ना खाती श्रीकरणीजी की मूर्ति लिये गुफा के आगे सोया हुआ मिला और वि.सं. 1595 (1538 ई.) की चैत्र शुक्ल 14 गुरुवार को वह मूर्ति श्रीकरणीजी के आदेशानुसार उनकी गुफा में स्थापित कर दी गई जो आज भी मौजूद है तथा तब से निरन्तर इसकी सेवा पूजा सुव्यवस्थित ढंग से होती चली आ रही है। श्री करणी माता की शिक्षाएँ एवं संदेशइस अध्याय में हम श्रीकरणी माता के चारित्रिक गुणों को समझने का प्रयास करेंगे जिसके कारण वे जन साधारण में पूजी जाती है। इन चारित्रिक गुणों में उनके मानवतावादी दृष्टिकोण, वचन निर्वाहता, शरणागत वत्सलता, गो-रक्षा संस्कृति, मातृ-भूमि प्रेम तथा न्यायप्रियता जैसे महान् गुण हैं जिनका अध्ययन करेंगे तथा उनके दैविक स्वरुप को जानने का प्रयास करेंगे। (अ) मानवतावादी दृष्टिकोण:- 01. प्रेतात्मा का कल्याण करना:- 02. साठिका गाँव में बिच्छू उत्पन्न न होने का वरदान देना:- 03. ननिहाल वाले आढो को शाप मुक्ति की राह बताना:- इस शाप का पता उनके ननिहाल वाले मामा को चला तो वे साठिका गाँव पहुँचे और श्रीकरणीजी के ससुर केलूजी से मिले और उन्हें आढ़ाणां गाँव में पधारने के लिए आमंत्रित किया तथा विवाह के समय किसी कारणवश नहीं पहुँचने के लिए क्षमा याचना की और उन्होंने केलू जी को सकुटुम्ब आढ़ाणां गाँव पधारने का अनुरोध करने लगे। तब श्रीकरणीजी ने अपने मामा को अपने पास बुलवाया तथा कहा कि तुम व्यर्थ की बातें बहुत बना लेते हो। मैं तुम्हारे यहाँ नहीं चलना चाहती हूँ। इस पर जब मामाजी ने हाथ जोड़कर श्रीकरणीजी से प्रार्थना की देवी आप साक्षात् भगवती का अवतार हो आप हमारी नासमझी में की गई भूल को क्षमा कर दो। आपके विवाह में उपस्थित न होकर हमनें बडी गलती कर दी है। हमारी आर्थिक दशा दिन-दिन बिगड रही है। इस पर जब मामा ने अधिक मिन्नतें की तो श्रीकरणीजी को उनके मामा पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता। लेकिन तुम इतनी दूर से चलकर मेरे पास आये हो इसलिए मैं तुम्हें शाप मुक्ति की राय दे सकती हूँ। तुम लोगों को अपना पैतृक गाँव आढ़ाणां को छोडकर बाहर तो जाना ही पडेगा। लेकिन तुम्हारी सन्तान पहाड़ों में पहुँचकर निवास करने लगेगी तब तुम्हारी आर्थिक स्थिति में सुधार हो जायेगा। इस प्रकार श्रीकरणीजी से राय लेकर उनके मामा अपने गाँव गये। श्रीकरणीजी का शाप अक्षरशः सत्य हुआ। आढ़ाणां गाँव वाले आढों की संतान दिनों-दिन नत होती गयी। वे लोग घर-घर फिरने लगे और उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। एक बार अकाल के समय राज्य के कामदार आढ़ाणां गाँव में अनाज खरीदने आया, जो किसी तकरार के कारण, कानोजी आढ़ा के हाथों से मारा गया। इस कारण राज्य के कोप से डरकर मेहाजी तथा कानोजी दोनों भाई सपरिवार अपना गाँव छोडकर सोजत परगने के गाँव धूंदला में आ बसे थे। लेकिन इनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि मेहाजी को अत्यधिक निर्धनता के कारण सन्यास लेना पडा तथा उनके पुत्र दुरसा आढ़ा को बाल्यकाल में एक सीरवी किसान के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। इस तरह श्रीकरणीजी के शाप के कारण आढों से उनका पैतृक गाँव आढ़ाणां छूट गया तथा उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। लेकिन जब दुरसा आढ़ा सिरोही के पर्वतीय प्रदेश में आया तो उसका भाग्योदय हो गया। उसे सिरोही के राव सुरताण ने अपना पोलपात बना दिया और आढों को सिरोही जिले में झाँकर (देवलपुर), ऊंड, पेशुवा, वरायल गाँव जागीर में मिल गये। इस प्रकार पार्वत्य प्रदेश में आ जाने से दुरसा आढ़ा की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ हो गई। उसे मध्यकालीन चारण कवियों में सर्वाधिक धन प्राप्त हुआ। अतः श्रीकरणीजी के आशीर्वाद के फलस्वरुप आज भी जो आढ़ा शाखा के चारण पर्वतीय प्रदेश के गाँवों में निवास कर रहे हैं उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ बनी हुई है तथा वे आढ़ा चारण जो मरु प्रदेश में निवास कर रहे हैं उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर बनी हुई है वे दरिद्रता पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। श्रीकरणीजी का वचन अब भी सत्य प्रतीत हो रहा है और पर्वतीय प्रदेश के आढों के गाँव झांकर (सिरोही), ऊंड (सिरोही), पेशुआ (सिरोही), वरायल (सिरोही), रायपुरिया (पाली), पांचेटीया (पाली) में निवास करने वाले आढ़ा सरदार खुशहाली पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहें हैं। 04. मृत उदावत वर को जीवनदान देना:- 05. मथाणियाँ गाँव वालों के लिए वरदान देना:- दूसरे दिन श्रीकरणीजी ने अमरा बारहठ को कहा कि तेरी सन्तान बहुत अधिक बढेगी और आपस में लडती-भिडती रहेंगी, इसलिये तेरे इस गाँव का शासन पत्र किसके अधिकार में रहेगा, इस पर तूने कभी विचार किया है क्या? यह सुनकर अमरा बारहठ ने वह जागीर का ताम्र-पत्र देवी श्रीकरणीजी को दे दिया और कहा कि माँ आप जैसा कहो वैसा मैं करने के लिए तैयार हूँ। कहा जाता है कि देवी श्रीकरणीजी ने जागीर का ताम्र-पत्र अपने हाथों से मन्दिर में रखवा दिया और उसके ऊपर चबूतरे का निर्माण करवा दिया और उस पर अपनी पादुकाएँ रख दी ताकि देव मन्दिर होने के कारण उसको खोदकर शासन पत्र को कोई निकाल न सके। इस तरह श्रीकरणीजी ने अपने भक्त अमराजी बारहठ के वंशजों में भविष्य में होंने वाली तकरार की सम्भावना खत्म करके दूरदर्शिता का कार्य किया। वि. सं. 1515 (1458 ई.) से मथाणियाँ वालों को दिये गये वरदान का देवी श्रीकरणीजी आज भी निर्वाह कर रही है और यहाँ के लोगों मे आज भी ऐसा दृढ विश्वास है कि अपने वचनानुसार नित्य सवेरे सवा पहर श्रीकरणीमाता मढ में विराजमान रहती है। श्रीकरणीजी द्वारा अमराजी बारहठ को भाई कह कर सम्बोधित किया गया था अतः आज भी श्रीकरणीजी के वंशज किनिया शाखा के चारण तथा अमराजी के वंशज अमरावत बारहठ इस पवित्र रिश्ते को निभा रहें है। इन दोनों गौत्र (अमरावत बारहठ तथा किनिया) के चारण आज भी इस पवित्र रिश्ते को निभाते हुए आपस में वैवाहिक सम्बन्ध भी नहीं करते हैं। जनश्रुति के आधार पर शंकरोत बारहठों का मानना है कि श्री करणीजी मथानिया से खारी खुर्द पधारी थी और अपने हाथों से थिराजी का भाई-बँट करवा कर खारी का विभाजन किया। श्रीकरणीजी ने अपने हाथों से माताजी का थांन स्थापित किया जो आज भी गवली के रुप में स्थित है, जिसकी पूजा की जाती है। (ब) वचन निर्वाहता:- 01. मांगलिया राजपूतों को वरदान देना:- 02. अणदा खाती की रक्षा करना:- इस घटना के समय में श्री करणीजी ने खारोडा (सिंध वर्तमान में पाकिस्तान) में बैठे-बैठे अपने भक्त अणदा का मारवाड़ के आऊ (फलोदी के निकट) में उद्धार करते हुए उसकी जीवन रक्षा करते है। जिसके साक्ष्य का एक प्राचीन दोहा मिलता है- आऊ में टूटी बरत, पैसारे पैठाँह। 03. झगडू शाह की रक्षा करना:- वि.सं. 1516 के भाद्रपद शुक्ल दशमी गुरुवार को झगडू समुद्र पार से व्यापार करके घर लौट रहा था तो समुद्र में भयंकर तूफान आ गया जिससे उसकी नांव डांवाडोल होने लगी। झगडू शाह ने अपने जीवन को संकट में देखकर श्रीकरणीजी से रक्षा की पुकार की। उस समय श्रीकरणीजी देशनोक में गायों का दूध निकाल रही थी और पास ही उनकी सास खडी हुई थी। देवी श्रीकरणीजी ने झगडू की पुकार सुनते ही बाँया हाथ बढाकर दैविक शक्ति से उसकी नाव को खींचकर किनारे ले आयी और दाहिने हाथ से गाय की दुहारी करती रही। गाय का दूध निकालने के बाद उन्होंने अपनी अंगिया को निचौडा तो उनकी सास ने उनकी अंगिया के भीगी होने का कारण पूछा, तो श्रीकरणीजी ने कहा कि सेठ झगडू की नाव तूफान में फँस गयी थी। उसको खींचकर समुद्र के तट पर लाने में समुद्र के पानी से मेरी अंगिया भीग गयी थी, उन्होने अंगिया निचोड़ते हुए कहा कि ‘ जा बाड़े में बस जा’, अर्थात् बाडे में समा जा। उनके ये शब्द सुनकर उनके पास खडे सेवक ने उनसे पूछा कि आप किसको बाडे में समा जाने का कह रही हो। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि देशनोकवासियों को भविष्य में मकान आदि के निर्माण के लिए पानी की आवश्यकता होगी तो यह समुद्र का खारा पानी मात्र 10-15 फीट खोदने पर मिल जायेगा। परन्तु इसको खोदने से पहले बाडा बनाना होगा। इस तरह आज भी देशनोकवासियों को जब मकान आदि के निर्माण के लिए पानी की आवश्यकता होती है तो पहले बाडा बनाकर मात्र 15-20 फीट खोदने पर खारा पानी मिल जाता है जबकि यहाँ का जलस्तर 350-400 फीट नीचे होने पर भी देवी श्रीकरणीजी की कृपा से खारा पानी मकान निर्माण आदि कार्यो के लिए थोड़ा सा खोदने पर मिल जाता है कार्य पूर्ण होने पर उस गड्डे को बूर दिया जाता है। बीकानेर की तवारीख (मुंशी सोहनलाल) ने पृ. 23 पर लिखा है-देशनोक कसवा के अन्दर छोटी कुइया घरों में बनी हुई है उनमें देखा गया महज आठ-दस हाथ अमीक पानी है लेकिन इन चाहातखाम का पानी शोर (खारा) है-सितह जमीन में कुछ तफावत पाया नहीं जाता। वाशिंद गान इसको करणीजी की बरकत दुआ से बयान करते हैं। ऐसा ही उल्लेख बीकानेर के इतिहास (जेम्स टॉड कृत) के पृ. 65 पर हुआ है। इस तरह श्रीकरणीजी ने अपने भक्त झगडू की डूबती नाव को किनारे लाकर उसके प्राण बचाये। साथ ही देशनोकवासियों के लिए मकान आदि के निर्माण करने हेतु आसानी से खारा पानी भी सुलभ करवा दिया। भगवती श्री करणी माता ने झगडू शाह की नाव को अरब सागर के तट पर गांधीधाम से करीब 15 किमी दूर वीरा गाँव में किनारे लगाया था। इस स्थान पर झगडू शाह ने करीब 550 वर्ष पूर्व हरसिद्धी माता के नाम से श्री करणी माता का मंदिर बनाया था, इस मन्दिर के वाम पक्ष में झगडू शाह और उसकी दोनों पत्नियों की मूर्तियाँ भी लगी हुई है। इस प्राचीन मंदिर के पास में मां करणीजी के भक्त किशन कुमार नवलखा जी ने करणी माता का सफेद संगमरमर से नया मंदिर 2018 ई में बनवाया है। किशन कुमार नवलखा(जैन) राजस्थान के बीकानेर जिले की नोखा तहसील के जैसलसर गाँव के हैं जो काठमांडू में व्यवसाय करते हैं । इस तरह देवी श्रीकरणीजी द्वारा उसकी रक्षा करने पर वह उनका दृढ आस्थक बन गया और समय-समय पर श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक आया करता था। (स) शरणागत वत्सलता:- 01. भूरा भंसाली को सनाथ बनाना:- शाम को जब श्रीकरणीजी के बड़े पुत्र पुण्यराज (पूनाजी) घर आये तो उस अपरिचित बालक को देखकर उन्होंने श्रीकरणीजी से पूछा कि यह लड़का किसका है? तो उन्होंने कहा कि यह मेरा भूरिया बेटा है। इस तरह श्रीकरणीजी ने भूरा भंसाली नामक अनाथ बच्चे को अपनाकर सनाथ कर दिया तथा उसे कभी भी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी। उन्होंने न केवल अनाथ बच्चे को शरण दी बल्कि उसके साथ वत्सलता पूर्वक व्यवहार भी किया। अब भूरा भंसाली श्रीकरणीजी के परिवार का सदस्य बन गया। न केवल श्रीकरणीजी बल्कि परिवार के सभी सदस्य बालक की सुख सुविधा का ध्यान रखते थे। समय के साथ भूरा वयस्क हो गया। भूरा भी हर समय श्रीकरणीजी की सेवा में लगा रहता था, जो दूर-दूर से श्रीकरणीजी के दर्शन करने के लिये आते थे उनका वह बहुत ध्यान रखता था। एक दिन श्रीकरणीजी ने भूरा से पूछा कि तू मेरी ही सेवा में बैठा रहेगा या अपनी घर गृहस्थी भी बसायेगा। तो इस पर उसने कहा कि मैं अब तक अपने माता-पिता का मौसर (मृत्यु-भोज) नहीं कर पाया हूँ। अत. समाज वाले मुझे कैसे अंगीकार करेंगे तब उसे श्रीकरणीजी ने कहा कि तुम मौसर की तैयारी करो। भूरा को श्रीकरणीजी पर पूर्ण विश्वास था उसने चूल्हे पर छोटी सी कडाई चढाकर हलवा तैयार किया तथा अपने सारे समाज को और गाँव वालों को निमंत्रण दे दिया। इस तरह सारी तैयारी करके भूरा श्रीकरणीजी को बुलाने के लिए उनके पास गया तब श्रीकरणीजी ने उसे अपनी पुरानी लोवड़ी देते हुए कहा कि इसे हलवे की कडाई पर ओढा देना और मैं स्वयं तेरे घर आकर प्रसादी ग्रहण करुंगी। भूरा ने श्रीकरणीजी की लोवड़ी को कडाई पर ओढा दी। श्रीकरणीजी ने भूरा भंसाली के घर पधार कर भोजन ग्रहण किया। फिर बाद में उसके सभी समाज वालों तथा गाँव वालों को भोजन कराया। श्रीकरणीजी के प्रताप से उसका हलवा अखूट हो गया तथा उसने अपने माता-पिता का मौसर किया। उसके बाद अपने समाज की लडकी से विवाह कर दिया। भूरा भंसाली देवी श्रीकरणीजी की वात्सल्यता से पहले तो सनाथ हो गया फिर उनके आशीर्वाद से उसकी घर गृहस्थी बस गयी। आज भी देशनोक गाँव में भूरा भंसाली के वंशज निवास कर रहे हैं और ये श्रीकरणीजी को अपनी कुलदेवी मानते है। भूरा के वंशजों के वर्तमान में देशनोक में सवा सौ घर हैं। 02. सींथल गाँव के बीठूओं की सहायता करना:- जब ऊदावतों के अन्याय के विरूद्ध लूणा ने तीन बार तागा किया, परन्तु वह प्रत्येक बार जीवित बच गया। इस पर वह दुःखी होकर देशनोक श्रीकरणीजी की शरण में पहुँच गया और अपना दुखड़ा उनको सुनाया और कहा कि मैंने अन्याय के विरुद्ध तीन बार तागा किया परन्तु मैं प्रत्येक बार बच गया इससे देश भर में मेरी बदनामी फैल चुकी है। मैं किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा हूँ। इस पर श्रीकरणीजी ने लूणा को सलाह दी कि तू यहाँ से सीधा नापासर चला जा। वहाँ बहुत सारे साँखले (राजपूत) एकत्रित हुए हैं, तू भी उनके मेहमानों में शामिल हो जाना। वे तुझसे भोजन ग्रहण करने का आग्रह करे तो तू उनसे यह वचन लेना कि अगर मेरी मृत्यु हो जावे तो तुम लोग मुझे सींथल गाँव ले जाकर ऊदावतों के द्वार पर जला देना। जब तू भोजन करेगा तो खीर में केश आ जाने से तेरी मृत्यु हो जायेगी और सांखला राजपूत तुम्हें सींथल ले जाकर ऊदावतों के द्वार पर जला देंगे और पीछे से मैं सारा काम संभाल लूंगी। श्रीकरणीमाता के निर्देशानुसार लूणा बीठू सीधा नापासर चला गया। वहाँ जाकर वह साँखलों के आये हुए मेहमानों में सम्मिलित हो गया। उससे भोजन का आग्रह किया तो उसने साँखलों से उक्त वचन ले लिया। देवी संयोग से लूणा की खीर में केश आ गये जो उसके गले में उलझ गये जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। सभी साँखलों ने मिलकर अपने वचनानुसार उसके शव को सींथल गाँव ले जाकर ऊदावतों के द्वार पर जला दिया। साँखलों को अधिक संख्या में देखकर ऊदावतों ने घरों से बाहर निकलने का साहस नहीं किया। संध्या के समय साँखले वापस नापासर चले गये। तब ऊदावत बाहर आकर लूणा बीठू की भस्म को फैंकने लगे तभी श्रीकरणीजी वहाँ उनको त्रिशूल लिये हुए दिखाई दी। श्रीकरणीजी ने ऊदावतों को युद्ध के लिए ललकारा, परन्तु श्रीकरणीजी को सामने पाकर उनकी आगे बढने की हिम्मत नहीं हुई। श्रीकरणीजी ने सब ऊदावतों का वध कर दिया। उनमें से एक ऊदावत श्रीकरणीजी का भक्त था, उसे उन्होंने छोड दिया। वह भागकर सीधा देशनोक पहुँचा और उसने श्रीकरणीजी से निवेदन किया कि मातेश्वरी मैं तो आपका भक्त हूँ मैं दूसरे ऊदावतों के साथ नहीं हूँ उन्हें अपने किये का फल मिल गया। कृपा कर मुझ पर आप दया करें। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि मैं सींथल गाँव में एक भी ऊदावत को रहने नहीं दूंगी। तू मेरा भक्त है और तू मेरी शरण में आया है इसलिये मैं तुझे जो कहूँ वह कर। तू सींथल से अपना सामान बैलगाडी में लाद कर चला जा। जहाँ तेरी बैलगाडी की सोल टूटे वहाँ पर तू बस जाना। वह ऊदावत राजपूत श्रीकरणीजी के निर्देशानुसार अपना सामान सींथल से बैलगाडी में लाद कर चल दिया। रास्ते में जिस स्थान पर उसकी सोल टूट गयी वहीं पर बस गया। उस स्थान पर उसके नाम से शोभा नाम का एक गाँव बस गया और वह उस गाँव का स्वामी बन गया। कुछ समय बाद वहाँ एक गाँव आबाद हो गया। इस तरह श्रीकरणीजी ने शरणागत ऊदावत को जहाँ सींथल में उसके हिस्से 10-20 बीघा भूमि आती थी। श्रीकरणीजी की कृपा से वह पूरे गाँव का स्वामी बन गया, आज भी उसके वंशज शोभा गाँव में निवास कर रहें है। इसी तरह से श्रीकरणीजी ने अपनी शरण में आये हुए लूणा बीठू को ऊदावतों के विरुद्ध सहायता देकर उनके अत्याचारों से उसे मुक्ति दिलाई। साथ ही अपने भक्त शोभा ऊदावत को माफ करके उसे पृथक गाँव का स्वामी बना दिया। 03. मन्दार के मोकल मोहिल की रक्षा करना:- गौ-रक्षा संस्कृति:- युवावस्था में श्रीकरणीजी का विवाह हुआ तो उनके पिता मेहाजी ने उन्हें दहेज में बहुत सारे पशु दिये जिसमें 400 गायें तथा 200 साँढणियाँ सम्मिलित थी। जब श्रीकरणीजी के पति देपाजी ने कारणवश ये सब पशु लेने से इंकार कर दिया तो भी श्रीकरणीजी ने अपनी प्रिय गायों को हठात् अपने साथ साठिका ले लिया, जिनकी सख्या 200 थी। श्रीकरणीजी के ससुर केलूजी भी पशुपालक ही थे। उनके घर भी बहुत सारे पशु थे और श्रीकरणीजी अपने साथ 200 गायें और लेकर आ गयी। श्रीकरणीजी के पति देपाजी ने उनकी बहिन गुलाब बाई से दूसरा विवाह किया तब मेहाजी ने बहुत सारी गायें और पशु उनको दहेज में दिये जिसे देपाजी अपने साथ साठिका ले आये। इस प्रकार केलू जी बीठू के यहाँ बहुत बडी पशुओं की भीड हो गई। जिससे साठिका गाँव में पशुओं के लिए पेयजल संकट आ पडा। क्योंकि साठिका गाँव में एक ही पानी का कुआँ था जिसमें इतना अधिक पानी नहीं था और गाँव वालों के भी बहुत सारे पशु थे। एक बार पानी की बात को लेकर श्रीकरणीजी की उनके कुटुम्बियों से बहस हो गयी जिसका वर्णन हम दूसरे अध्याय में कर चुके हैं। इस प्रकार वि. सं. 1475 (1418 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को भोजन के पश्चात् अपने ससुर, सास, पति, देवर तथा दूसरे कुटुम्बियों को साथ लेकर गोधन की रक्षा के लिए सदा के लिए साठिका गाँव का परित्याग कर दिया। यदि श्रीकरणीजी चाहती तो मांगलियों के कुँए में पशुओं के लिए अखूट पानी किया था उसी तरह साठिका के कुँए में भी अखूट पानी कर सकती थी लेकिन श्रीकरणीजी के अवतार का उद्देश्य बीकानेर एव जोधपुर राज्य की स्थापना करके मरु-प्रदेश के लोगों को लूट-खसोट तथा अत्याचारों से मुक्ति दिलाना था। श्रीकरणीजी ने गो रक्षा के लिए साठिका गाँव को छोडकर जांगलू के जोहड में अपना स्थायी निवास बना दिया। वहाँ उस समय राव कान्हा का राज था। जांगलू का राजा राव कान्हा अपना कर्तव्य भूल गया था। उसने श्रीकरणीजी की गायों को अपने राज्य में चारा-पानी के लिए मना कर दिया था तथा उन्हें अपने राज्य की सीमा से निकालने लगा। इस तरह श्रीकरणीजी ने उसे हिन्दू धर्म का कर्तव्य भूलते देखकर गायों पर अत्याचार न करने को कहा। फिर भी नहीं माना तो उसको श्रीकरणीजी ने अपने हाथों से मार डाला जिसका विस्तारपूर्वक अध्ययन हमने तीसरे अध्याय में किया है। गायों के लुटेरे सूजा मोहिल तथा कालू पेथड़ का वध करना:- एक दिन श्रीकरणीजी पूगल गयी हुई थी, पीछे से ये दोनों उनकी अनुपस्थिति में 25 लुटेरों को साथ लेकर देशनोक के ओरण में पहुँचे। इस समय श्रीकरणीजी का ग्वाला दशरथ मेघवाल (एक अछूत जाति) उनकी गायों को देशनोक के ओरण में चरा रहा था। इन लुटेरों ने वहाँ पहुँचकर उनकी गायों को घेर लिया इनमें एक बच्छराज नामक सांड था उसने गायों के चारों और दौड-दौड कर उनको बाहर जाने से रोकता रहा और जो लुटेरा गायों पर हमला करता उस को दौडकर टक्कर मारता। इस प्रकार बच्छराज के हमलों से तंग आकर सूजा मोहिल ने बरछे से कई प्रहार करके उसे मार डाला। उधर दशरथ मेघवाल कालू पेथड का मुकाबला कर रहा था, जो गायों को घेर के आगे बढ रहा था। कालू पेघड ने दशरथ मेघवाल को लडाई में मार दिया। उपर्युक्त घटना की सूचना अन्य ग्वालों ने भागकर देशनोकवासियों को दे दी। इस पर लक्ष्मणराज की पुत्री साँपू ने श्रीकरणीजी को पुकार लगाई की दादी तू तो रावों के कार्य सिद्ध करती फिरती है और राव तेरी ही गायों को घेर कर ले जा रहें हें। जिस चन्द्रभागा गाय का दूध तुझको अधिक प्रिय था आज वह अन्य गायों के साथ बरछों के प्रहार सहन करती हुई ले जाई जा रही है। यदि कहीं सुनती हो तो शीघ्र आना। साँपू की पुकार सुनकर श्रीकरणीजी घटना स्थल पर पहुँची और उन्होंने सूजा मोहिल को ललकारा कि दुष्ट हिन्दू होकर तूने बैल के वध का पाप अपने सिर पर लिया है। ऐसे कलंकी और अधर्मी को अधिक जीने की आवश्यकता नहीं है। अपने किये का फल पा, यह कहकर उन्होंने उसकी छाती में एक त्रिशूल का वार किया, जिससे वह वहीं ढेर हो गया। श्रीकरणीजी ने सूजा मोहिल का वध करके उसके गाँव को नष्ट किया तथा भग्गू और सीलवा के मध्य में देशनोक से 12 कोस दक्षिण पर कालू पेथड को जा घेरा और सब साथियों सहित उसका वहीं पर वध कर दिया। इस तरह श्रीकरणीजी ने लुटेरों से अपनी गायों की रक्षा करके देशनोक लेकर आ गयी। जिस जगह कालू पेथड अपने साथियों सहित मारा गया उस स्थान पर अब एक रेतीला टीला है और उसको अब भी कालिया का डूंगर कहते है। श्रीकरणी चरित्र तथा करणी प्रकाश ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि श्रीकरणीमाता उक्त घटना के समय पूगल गयी हुई थी। इन ग्रन्थों में उल्लेख आता है कि उस समय पूगल के राव शेखा की पुत्री रंगकुँवरी का बीका के साथ विवाह हो रहा था। अतः यह घटना वि. सं. 1524-25 (1467-68 ई.) की होगी। गाय के बछड़े को पुन: जीवित करना:- मातृ-भूमि प्रेम:- उन दिनों इस देश में और कई छोटे-छोटे राज्य भी थे जिनमें अधिकांश बैठवासिया खाँप के ऊदावत राठौड़, राजपूत, जाट, मुसलमान थे उपरोक्त राजपूत, जाट और मुसलमान सब के सब पक्के डाकू थे। आस-पास की प्रजा को लूट कर उसके धन पर अपना उल्लू सीधा करना ही इनका मुख्य कर्तव्य था। यह प्रदेश उन दिनों हिसार सूबा के अन्तर्गत पड़ता था। दिल्ली के लोदी सम्राट के वहाँ राजस्व (खिराज) यहाँ के शासक जमा कराते थे। श्रीकरणी जी जांगल प्रदेश में शांति, सद्भावना और भाई-चारे का वातावरण स्थापित करना चाहती थी। वे आपस के स्थानीय झगडे, मन-मुटाव, छोटी-मोटी झड़पें धोखाधड़ी आदि निपटा कर एक सुन्दर वातावरण बनाने की पक्षधर थी। चारण जाति की होने के कारण श्रीकरणीजी सभी राजपूत जातियों में पूजनीय थी और सब इनका मान-सम्मान करते थे इनके कहने और करने में फर्क नहीं होने से यह सभी की श्रद्धा का पात्र थी। इनका मुख्य ध्येय लोगों में धैर्य, सहनशीलता, अहिंसा और नैतिकता का प्रचार करने का था। इनका उपदेश था कि बदले की भावना छोडो, आपस में रक्तपात नहीं करो, झगडों और विवादों का आपस में या पंचायत से समाधान करो। राजपूतों को अहंकार का त्याग करना चाहिए, इसी के कारण इनकी अनेक पीढियों का क्षय हुआ था। उपर्युक्त राज्यों के शासक आपस मे सदैव एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते-झगड़ते रहते थे। इन लड़ाई-झगड़ों तथा लूटमार से प्रजा इतनी तंग थी कि वर्षभर में दस-दिन भी लोग चैन से नहीं बैठ सकते थे। इन राज्यों की लूट-खसोट से तंग वहाँ की प्रजा श्रीकरणीजी को शक्ति का अवतार मानने के कारण, देशनोक पहुँच कर अपना दुखड़ा रोया करती थी। इसलिए उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि इन सब लुटेरे राज्यों का नाश कर इनके स्थान पर जब तक किसी बडे राज्य की स्थापना न हो जाय, तब तक न तो ये लोग अपनी क्रूर प्रवृति से बाज आयेंगे और न प्रजा भी सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकेगी। जब कुँवर बीका जोधपुर से चलकर देशनोक पहुँचा तब उन्होंने इसी को इस वृहत राज्य के शासक के अनुरुप समझ कर उसी के लिये उक्त राज्य की स्थापना को उचित समझा। तथा राव बीका ने श्रीकरणीजी की सहायता से बीकानेर का एक प्रबल राज्य स्थापित कर लिया। न्यायप्रियता:- 1. सच-झूठ का न्याय करना:- 2. डोसी को शाप देना:- श्रीकरणीजी ने एक दिन पूनाजी से पूछा कि कुँए का नाम रख लिया तब पूनाजी ने कहा कि रख लिया (पूनासर के सन्दर्भ में कहा) तब श्रीकरणीजी ने उसे कहा कि रख दिया तो राख ले। इतना कहना हुआ कि दूसरे दिन सुबह पूनाजी ने अपने कुँए में झाँक कर देखा तो उन्हें पानी की जगह राख-राबड़ी मिली। इस घटना से वे एक दम घबरा गये और वे श्रीकरणीजी के पास जाकर माफी मांगने लगे और उन्होंने अपने कुँए का नाम बदलकर देपासर रख दिया तब जाकर उनके कुँए का पानी सही हुआ। पूनाजी ने जब कुँए का नाम देपासर रखा तब कहा कि माँ इससे तो कुँए में चारों भाइयों का हिस्सा हो जायेगा। तब देवी श्रीकरणीजी ने कहा कि सभी भाइयों का हिस्सा हो जाने से भाई चारा बढेगा। तेरे को कोई हानि नहीं होगी। यह कहते हुए श्रीकरणीजी ने भूरा भंसाली तथा जगडू डोसी को चारों भाइयों में भूमि का बराबर हिस्सा करने का आदेश दिया। इस कार्य में जगडू डोसी ने बडे पुत्र पूनाजी (पुण्यराज) का हिस्सा कुछ अधिक रख दिया। इस पर श्रीकरणीजी ने जगडू डोसी को तीन-चार बार टोका भी था फिर भी उसने श्रीकरणीजी के बात की परवाह नहीं की तो श्रीकरणीजी ने रुष्ट होकर कहा कि ‘मेरा डोसी न तो घटेगा न बढेगा’। श्रीकरणीजी के श्रीमुख से निकले वचन का परिणाम यह है कि देशनोक गाँव में निवास कर रहे डोसी जाति का वंश न तो बढता है न घटता है। आज भी उनकी जाति के 2-3 घर ही हैं। जो आज से 600 वर्ष पहले थे। 3. राव बीका को उपदेश देना:- राव बीका ने श्रीकरणीजी के आदेश की पालना की जिससे राठौड़ राज्य आपस में नष्ट होने से बच गये तथा राव बीका जोधपुर से पूजनीक चीजें प्राप्त करके बीकानेर लौट आया जिसका विस्तारपूर्वक वर्णन हम तृतीय अध्याय में कर चुके हैं। इस प्रकार श्रीकरणीजी के चरित्र से सम्बन्धित ऐतिहासिक घटनाओं का अध्ययन करते हैं, तो हमें देवी श्रीकरणीजी की न्यायप्रियता दृष्टिगत होती है। देवी श्रीकरणीजी ने सदैव न्याय का ही साथ दिया है। उपर्युक्त तीनों घटनाएँ देवी श्रीकरणीजी को न्यायप्रिय सिद्ध करती है। श्री करणी माता का समाज सुधार में योगदान(अ) सर्व-धर्म समभाव एवं जातिगत भेद मिटाने का प्रयास:- 1. सर्व-धर्म समभाव का प्रयास:- फिर श्रीकरणीजी का आशीर्वाद लेकर सरवर पीर मुलतान वापस लौट गया और नवाब हुसैन लगा से देवी श्रीकरणीजी के करामात की प्रशंसा की और श्रीकरणीजी को अपनी बहिन के रुप में लोवड़ी का टुकडा नवाब को दिखाया। इस प्रकार से श्रीकरणीजी एक पहर में 335 कोस दूर मुलतान से पूगल राव शेखा को कैद से छुडा कर ले आई। और राव शेखा के हाथ से उसकी बेटी रंगकुँवरी का विवाह बीका से करवाया। यह घटना वि.सं. 1524-25 की है इस समय श्री करणी जी ने चील (सवळी) का रूप धारण करके शेखा को मुलतान से पूगल पहुँचाया था। आज भी सरवर पीर के वंशज मुलतान में श्रीकरणीजी के हाथ की सहनाणी के रुप में लाल कपड़ा बांधते हैं और श्रीकरणीजी के वंशज काले रंग के धागे की राखडी गले में रखते है। सरवर पीर की इच्छा से देवी श्रीकरणीजी ने उसकी धर्म बहिन बनना स्वीकार किया था। मुलतान के पीरों की परम्परागत गद्दी ने इस बहिन-भाई के पवित्र रिश्ते को, हिन्दू मुसलमान का भेदभाव बरते बिना, सन् 1947 ई. तक साल दर साल निभाया। उन्होंने श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति में विश्वास बनाये रखा तथा प्रत्येक वर्ष आसोज माह के नवरात्रों में बकरों की एक जोडी देवी श्रीकरणीजी को चढाने के लिये मुलतान से देशनोक भेजा करते थे। मुलतान के पीरों की परम्परागत गद्दी द्वारा भेजी जाने वाली बकरों की जोडी को देशनोक के श्रीकरणीजी के वंशज ‘मामेजी री सिलाड’ के नाम से पुकारते थे और नवरात्रों में इस सिलाड के देशनोक पहुँचने का भक्तगण बडी उत्सुकता से इन्तजार करते थे। सन् 1947 ई. के बाद में राजनैतिक बाधाओं के कारण यह सिलाड आनी बंद हो गई। इसे चालू रखने के लिये न तो मुलतान के पीर शिष्यों ने प्रयास किये और न ही देशनोक के चारण बन्धुओं ने इस विषय में कोई रुचि दिखाई। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने सर्व-धर्म समभाव का ऐसा प्रयास किया जिसमें साम्प्रदायिक सद्भाव की ऐसी अनूठी परम्परा दिखाई दे रही है जिसकी आज के परिप्रेक्ष्य में नितांत आवश्यकता है। श्रीकरणीजी में उच्च श्रेणी की अलौकिक शक्तियाँ तथा चमत्कारिक व्यक्तित्व होते हुए भी उन्होंने बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सरवर पीर के मात्र बाई नाम से सम्बोधित करते ही उसे उचित सलाह दी जिससे उसकी मुलतान वापसी पर इज्जत रह गई।।श्रीकरणीजी ने इसके साथ ही उसकी बहिन बनना भी स्वीकार किया जो उस धार्मिक संकीर्णता के काल की अनूठी मिसाल है। 2. गऊ रक्षक दशरथ मेघवाल को सम्मान दिलाना:- एक बार श्रीकरणीजी पूगल गई हुई थी, तो पीछे से सूजा मोहिल तथा कालू पेथड़ उनकी गायों को घेर के ले गये। इन लुटेरों से संघर्ष करते हुए दशरथ मारा गया’ जिसका विस्तारपूर्वक अध्ययन चतुर्थ अध्याय में किया जा चुका है। अपने प्रिय गौ सेवक दशरथ की मौत का श्रीकरणीजी को अत्यन्त दुःख हुआ। इस पर श्रीकरणीजी ने अपने पुत्रों को बुला के आज्ञा दी कि मेरे स्वर्गवास के उपरान्त जहाँ मेरा स्थान बनाया जाये ठीक उसके सामने दशरथ मेघवाल के स्थान की स्थापना की जाये, और दोनों समय उसकी आरती की जाय। वह हमारी गायों की रक्षा करते हुए मारा गया है अर्थात् गायों के लिये उसने अपना बलिदान दिया है इसलिए वह देवयोनि को प्राप्त हुआ है। श्रीकरणीजी के आदेश के अनुसार ही करणीजी मंदिर देशनोक में दशरथ का स्थान बनाया गया जो मंदिर में सिंह द्वार के भीतर दाहिनी ओर बना हुआ है। दशरथ के स्थान की पूजा भी दोनों समय होती है वह कोतवाल कहलाता है। आज से करीब 600 वर्ष पूर्व अछूत जाति के दशरथ को यह सम्मान दिलाना अपने आप में श्री करणी माता का अद्वितीय कार्य के समान था। उस युग में भोमियों के रूप में सिर्फ राजपूत आदि उच्च जातियों की पूजा की जाती थी। जहाँ बाबा रामदेव जी ने अछूतों के उद्धार के लिए कार्य किया था वहीं श्री करणी माता ने उन्हें समाज में सम्मान दिलाया। 3. चारण जाति में भेदभाव मिटाने का प्रयास:- बीका उस समय अपने काका कान्धल के साथ जांगलू में सैन्य तैयारी कर रहा था। कान्धल को गुजराती युवक जीवराज का पता लगा। कान्धल को उत्तम नस्ल के घोडों की आवश्यकता थी। उसने बीड में जाकर जीवराज के घोडे देखे तो उसे सभी घोडे पसंद आ गये। उसने मोल-भाव करके सभी घोडे एक साथ खरीद लिये जिसकी भारी रकम बनी। कान्धल ने उसका अधिकांश नकद चुका दिया, शेष राशि को कुछ समय बाद लौटाने का वादा किया। कान्धल ने जीवराज को कहा कि जब तक मैं तुम्हें शेष राशि नहीं लौटा देता तब तक मेरे अधिकार की छोटडिया गाँव की भूमि अपने पास रखो। काछेला चारण जीवराज सूंघा छोटडिया गाँव में आकर रहने लगा। छोटडिया के आस-पास मारु चारणों के अनेक गाँव है, वे उसके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं करते थे। उनमें से किसी ने जीवराज को ताना मारा कि तुम काछेला चारण हो, घोडे एवं घी बेचते फिरते हो, हम तुम्हारे साथ बेटी व्यवहार नहीं करेंगे। जीवराज सूंघा एक स्वाभिमानी चारण था, उसने सोचा ऐसी संकीर्ण मनोवृत्ति वाले लोगों के बीच रहना उचित नहीं जो चारण को चारण नहीं मानते। वह सीधा कान्धल के पास गया और उनसे निवेदन किया कि मैं अपने गाँव धोलिया (गुजरात) जा रहा हूँ। मुझे मेरी बकाया राशि दो अपनी छोटडिया की जमीन सम्भालों। कान्धल ने जीवराज को रुखा उत्तर दिया। इस पर जीवराज कान्धल की कोटडी के सामने धरने पर बैठ गया और अन्न जल त्याग दिया। चारण को धरने पर बैठा देख कान्धल सोच में पड गया। कोई चारण न्याय प्राप्त करने के लिए उसके द्वार पर धरना दे दे, यह कान्धल के लिए एक अशोभनीय घटना थी। कान्धल ने मामले को गम्भीरता से लेते हुए कुँवर बीका को श्रीकरणीजी के पास देशनोक भेजा। श्रीकरणीजी ने अपना संदेशवाहक भेजकर जीवराज को अपने पास देशनोक बुलवाया। श्रीकरणीजी ने जीवराज से कहा कि कान्धल और बीका चारणो का समादर रखने वाले भले राजपूत है। इनके द्वार पर धरना क्यों देते हो? जीवराज मारु चारणों के व्यवहार से बडा खिन्न था। उसने श्रीकरणीजी के समक्ष अपनी व्यथा प्रकट कर दी और कहा कि जब थली के मारु चारण उसे चारण नहीं मानते, उसके साथ समानता का व्यवहार नहीं करते, बेटी व्यवहार करने को तैयार नहीं तो मैं ऐसे चारणों के बीच रहकर क्या करुंगा थोथी थली में बसने की बजाय अपने गोधन को लेकर गुजरात लौट जाना ही मेरे हित में है। मैं अपनी बकाया रकम लेना चाहता हूँ इसलिए मैंने कान्धल के द्वार धरना दिया है। श्रीकरणीजी जीवराज के स्वाभिमान और पुरुषार्थ से प्रभावित हुई और उसे यथोचित आश्वासन देते हुए कहा कि चारण एक धारण अर्थात् चारण सब समान है, जैसे मारु है, वैसे ही काछेला, जो भेद बुद्धि रखते हैं वे मूढ हैं इन मूर्खों की बातों की ओर ध्यान मत दो। तुम तो सच्चे चारण हो। गोकुल के गोपाल हो, जो गायों की सेवा कर रहे हो, चिन्ता छोडो और छोटडिया जाकर सुखपूर्वक रहों। यह समझों मैंने तुमको अपना लिया है जिसे मैं अपना लूंगी उसे सब अपना लेंगे, सब तुम्हारा ही घर है भीतर जाकर भोजन करो। श्रीकरणीजी ने बीका को कहा कि तुम आनन्द से जांगलू जाओ, चारण को मैंने मना लिया है। बीका श्रीकरणीजी को प्रणाम कर जांगलू लौट गया। इसके पश्चात् श्रीकरणीजी ने चारण जाति में भेद मिटाने के लिए साहसिक कदम उठाया और अपने पुत्र लक्ष्मण (लाखन) की बडी पुत्री साँपू का विवाह काछेला युवक जीवराज के साथ कर दिया। श्रीकरणीजी को अपनी पोती साँपू से विशेष लगाँव था। कहा जाता है कि साँपू को विदाई के समय श्रीकरणीजी ने कहा था कि मैं आठ पहर में एक बार छोटडिया आऊँगी। वही विश्वास आज भी साँपू के वंशजों में चला आ रहा है। कहा जाता है कि एक बार श्रीकरणीजी अपनी पोती साँपू से मिलने छोटडिया आयी थी तब छोटडिया के गुवाड में जिस स्थान पर रथ से उतरी वहीं श्रीकरणी मंदिर बना हुआ है तथा गाँव में पानी के अभाव को देखते हुए श्रीकरणीजी ने स्वयं जाकर कुँए का स्थान बताया, वहीं कुआँ खोदने पर अमृत जैसा मीठा अथाह जल निकला। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने अपनी चारण जाति में भेंट को मिटाने का प्रयास किया और स्वयं मारु चारण होते हुए भी अपनी पोती सॉपू का विवाह काछेला चारण जीवराज के साथ कर दिया। उस काल मे, जब मानव-मात्र में ऊँच-नीच, जाति-पाँति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी, इनके द्वारा चारण एक धारण का उपदेश आप में अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। जिसकी आज के परिपेक्ष में माँ करणी जी के उपदेश पर अमल करने की आवश्यकता नितान्त जान पड़ती है। श्रीकरणीजी के जीवनकाल का अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है उन्होंने धार्मिक विद्वेष तथा जातिगत ऊँच-नीच को कभी प्रश्रय नहीं दिया यही कारण था कि उन्होंने सरवर पीर को अपना धर्म-भाई बनाया तथा दशरथ मेघवाल को अपनी सेवा में रखकर उसे समुचित सम्मान दिलाया। उन्होंने कभी राजा-रंक में भेद नहीं समझा। उनके दरबार में चूंडा, रिड़मल, जोधा, बीका, नरा, लूणकर्ण, जैतसी, शेखा भाटी, हरु भाटी, रावल चाचगदेव तथा रावल देवीदास को वही सम्मान था, जो कि अणदा खाती, झगडूशाह, दशरथ मेघवाल, भूरा, भंसाली, थम्सू खाँ दन्तानी तथा सूवा ब्राह्मण को था। उनके दरबार में सभी जातियों और वर्गो के लोगों को समान भाव से देखा जाता था। आज भी श्रीकरणीजी मंदिर देशनोक में इसी परम्परा का निर्वाह किया जाता हैं। मंदिर का किलेदार साँखला राजपूत थे। पूजारी चारण है। खजांची सुथार है। और निरखी ओसवाल वैश्य है। दिया-बत्ती के लिए वसीर खाँ, बाबू खाँ पिजारा रुई देता हैं प्रसाद भी लेता हैं। नाई मशाल जलाता है, मुसलमान तेली मीठा तेल (तिलों का) देता है। इस प्रकार देशनोक के श्रीकरणी मंदिर में सभी जातियों एव धर्मों के लोग श्रीकरणीजी की श्रद्धा भाव से नैमित्तिक पूजन कार्य को करते हैं। ऐसा सर्व-धर्म समभाव का उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता हैं। (ब) नारी उत्थान में योगदान:- 1. पुत्र-पुत्री में भेद मिटाने का प्रयास:- 2. पर्दा प्रथा विरोधी:- 3. लोक कल्याण की भावना:- मारवाड़ के शासक राव चूंडा, राव रिड़मल तथा राव जोधा जो तीन पीढियों से श्रीकरणीजी के प्रति अटूट भक्ति और विश्वास रखते आ रहे थे उस भक्ति की परिणिति कुँवर बीका को बीकानेर जैसे वृहद स्वतन्त्र राज्य का स्वामी बनाने पर हुई। जांगलू का यह प्रदेश उस समय सोलह छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। जो आपसी वैमनस्य से निरन्तर एक दूसरे से लड़ते रहते थे। प्रजा इन सारे कहरों को सहन करती थी। इन राज्यों के स्वामी, मुसलमान, जाट और राजपूत थे, जो डाकू ज्यादा और प्रजापालक कम थे। समाज में बढती अराजकता को खत्मकर जनकल्याण हेतु सुशासन की स्थापना करने के लिए श्रीकरणीजी ने राव बीका को बृहद् राज्य का संस्थापक बनने का वरदान दिया जिसके फलस्वरुप उस प्रदेश के सभी सोलह राज्य नवस्थापित राज्य में एक होकर सदा के लिये विलीन हो गये। कुँवर बीका हर घडी में श्रीकरणीजी के आशीर्वाद और मार्गदर्शन के लिये आया करता था। उसे श्रीकरणीजी हमेशा जनकल्याण के कार्य करने की सलाह देती रहती थी। बीका के जनकल्याण की भावना से प्रभावित होकर श्रीकरणीजी उसे उत्तरोत्तर सफलता का आशीर्वाद देती रही। जिसके फलस्वरुप बीकानेर जैसे मजबूत और विशाल राज्य को स्थापित किया। श्रीकरणीजी हमेशा राजपूत राजाओं को जनकल्याण की सलाह देती थी। उन्होंने अपने धर्म भाई पूगल के राजा राव शेखा को डकैती जैसे पृणित अपराध के कार्य को छोड़ने की शर्त पर ही कैद से मुक्त कराया था। साथ ही जब राव जोधा अपने पिता राव रिड़मल के मारे जाने के बाद श्रीकरणीजी की शरण में पहुँचा तब उन्होंने उसे कहा कि रिड़मल ने लोभ के वश में अपना विवेक खो दिया था और मुझसे कुछ नहीं पूछा। उसने अपने भानजे का राज्य हथियाना चाहा था, यह अन्याय था इसीलिए उसका नाश हुआ तुम अपने पिता की तरह लोभ मत रखना, गरीबो व असहायों की सहायता करते रहना। इस तरह उन्होंने राव जोधा को भी समय-समय पर नेक सलाह दी ताकि जोधपुर राज्य की प्रजा भी सुख-पूर्वक रह सकें। इसी तरह राव जोधा की मृत्यु के बाद जब राव बीका के मन में लोभ की भावना उठी तब उसे श्रीकरणीजी ने नेक सलाह दी जिससे राठौड् शक्ति का नाश होने से बच गया। श्रीकरणीजी ने यहाँ तक कि अपने अन्य समय में भी जनकल्याण का कार्य किया और उन्होंने जैसलमेर व बीकानेर राज्यों के विवादित सीमा स्थल पर अपनी देह त्याग दी। चूंकि दोनों राज्यों के शासकों में श्रीकरणीजी के प्रति दृढ आस्था थी। इसलिए उन्होंने उस विवादित क्षेत्र को ओरण भूमि मे बदल दिया ताकि श्रीकरणीजी को प्रिय लगने वाले पशु-पक्षी अपनी भूख शान्त कर सकें। इस प्रकार जिस विशाल मरु जांगलू प्रदेश में जहाँ कभी अराजकता और उत्पीडन ने जन-जन को अभिशप्त कर रखा था वहाँ श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से जोधपुर व बीकानेर जैसे दो सुदृढ विशाल राज्यों की स्थापना हो गयी जिससे जनता के लूट-खसोट आदि अमानवीय अत्याचार समाप्त हो गये। यही कारण है कि जिसकी वजह से श्रीकरणीजी के प्रति आज भी जनमानस में दृढ आस्था बनी हुई हैं। 4. पर्यावरण संरक्षण में योगदान:- श्रीकरणीजी द्वारा देशनोक में ओरण स्थापना करना:- वि.सं. 1444 में श्रीकरणीजी ने लोक हितार्थ अवतार लेकर तत्कालीन जांगल प्रदेश को अपनी कर्मस्थली बनाया तथा जोधपुर व बीकानेर राज्यो की सुदृढ़ स्थापना के अलावा मानव मात्र एवं पशु-पक्षियों के संवर्द्धन हेतु देशनोक में करीब 10,000 बीघा में ओरण की स्थापना की व जिन आयनाओं (परम्पराओं) को स्थापित किया उनमें बेर वृक्षों व गोचर भूमि की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। राजस्थान के लोक देवी देवताओं के साथ ओरण स्थापना एवं वृक्ष पूजा की परम्परा सदा से रही हैं। श्रीकरणीजी के नाम पर अनेकानेक गाँवों व मन्दिरों के साथ-साथ ओरण (रक्षित वन) भी स्थापित हैं। जिनका प्राचीन ‘मिसल बन्दोवस्त’ से लेकर वर्तमान राजस्व जमा बन्दियों में बाकायदा खाते कायम हैं। आज के युग में पर्यावरण सुरक्षा का अनुपम आदर्श:- माँ श्रीकरणीजी की अगम्य दूरदर्शिता:- ओरण की आयाना (परम्परा):- 2. हरे वृक्ष की लकड़ी काटना तो दूर दातुन तोडना भी वर्जनीय है। 3. ईधन के रुप में सूखी लकड़ी को काम में लेना मना हैं। 4. ओरण सीमा व गाँव में चूल्हे के अलावा किसी भी प्रकार का प्रदूषण मना है। 5. कसाई खाना व पशु बंध्याकरण सर्वथा मना हैं। 6. कुम्हार का आवा व धोबी की भट्टी लगाना भी मना हैं। 7. ओरण में अभयदान था, स्टेट टाईम में कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो ओरण सीमा में प्रवेश के बाद बीकानेर राज्य का कोई भी कानून लागू नहीं होता था। 8. पशु चराने व बेर तोडने पर किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लगेगा। देशनोक गाँव के लिए ओरण का वरदान:- इसी प्रकार अनगिनत बेर वृक्षों से हजारों मन रसीले मीठे बरे फल भी बहुतायत में मिल जाते हैं। विटामिन सी से भरपूर स्वादिष्ट इन फलों को तोडने हेतु किसी पर कोई मनाही नहीं थी जिसको जिसको जितना चाहिये ले जाए, अनेक गरीब व्यक्ति बेर बेचकर अपना पेट पालन करते हैं। आज कोई भी सरकार या संस्था करोडों रुपये खर्च करके भी इतने विस्तृत भू भाग में इतनी बडी सख्या में वृक्षारोपण नहीं कर सकती। यह तो माँ करणीजी का चमत्कार ही है। ओरण की सुरक्षा:- वर्तमान व भावी पीढी में ओरण के प्रति जागृति पैदा हो इस हेतु कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को घरों में दीप मालिका करके व ओरण परिक्रमा का विशाल सामूहिक आयोजन व अन्य कार्यक्रम रखकर प्रतिवर्ष वर्षगांठ मनाई जाये तो यह एक अच्छी शुरुआत होगी। ओरण परिक्रमा में हजारों लोग प्रतिवर्ष जाते हैं लेकिन इस आयोजन को और विशाल पैमाने पर किया जाए तथा ओरण सुरक्षा के प्रति जनमानस में जागृति पैदा की जाने की जरुरत हैं। श्रीकरणी से सम्बन्धित कुछ लोक आस्था के वृक्ष:- 1. सुवाप गाँव का जाल वृक्ष:- 2. सुवाप गाँव का करणी झूला वृक्ष एवं पीपल का पेड:- 3. नेहड़ी जी का खेजड़ी का वृक्ष:- 4. कालू गाँव का खेजड़ी का वृक्ष:- 5. छोटडिया गाँव की करणी खेजड़ी:- 6. कीतासर गाँव का रोहिड़े का वृक्ष:- इस प्रकार श्रीकरणीजी से सम्बन्धित कुछ ऐतिहासिक वृक्ष विभिन्न क्षेत्रों में आज भी मौजूद है। जिसका अध्ययन हमने ऊपर किया है। ये सभी वृक्ष आज भी लोक आस्था के कारण पूजे जाते हैं और ये शताब्दियों से हरे-भरे लहराते हुए हमें पर्यावरण के प्रति प्रेम व जागृति का श्रीकरणीजी का संदेश दे रहे हैं, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है। श्री करणी माता का धार्मिक एवं सांस्कृतिक योगदानश्रीकरणीजी ने अपनी दैविक शक्ति के बल पर जोधपुर व बीकानेर जैसे सुदृढ राज्यों की स्थापना करवाई जिसके परिणामस्वरुप सुशासन की स्थापना हुई और प्रजा को लूट-खसोट तथा अमानवीय अत्याचारों से मुक्ति मिली। श्रीकरणीजी ने अपने तपोबल से कई तरह के समाज सुधार के कार्य किये जिससे समाज को सही दिशा मिली। उनके अवतरण का देश, धर्म, संस्कृति, समाज, स्थापत्य, चित्रकला तथा मूर्तिकला आदि सभी क्षेत्रों में स्पष्ट प्रभाव दिखाई पडता है। धार्मिक क्षेत्र में प्रभाव:- श्रीकरणीजी के अवतरण के समय तक भारत पर इस्लाम का आधिपत्य हो गया था। दिल्ली पर उस समय तुगलक शासकों का शासन था तथा भारत के कई भागों में मुस्लिम राज्यों की स्थापना हो चुकी थी। श्रीकरणीजी के जन्म से पूर्व भारत पर महमूद गजनवी तथा मुहम्मद गौरी के आक्रमण हो चुके थे जिससे हिन्दू धर्म की अभूतपूर्व क्षति हुई। इन आक्रमणों के पश्चात् भारत में इस्लामिक राज्य की स्थापना से तो और भी हिन्दू धर्म एव संस्कृति की कमर टूट गई। मुस्लिम शासक अपना शासन कुरान और हदीस के नियमों से चलाते थे चूंकि कुरान और हदीस मुसलमान शासकों को अपने शासन में हिन्दुओं को रहने की अनुमति नहीं देते थे, और उन्हें इस्लाम या मृत्यु दोनों में से एक का चुनाव करने को कहते थे, इसलिए उलेमा लोग समय-समय पर सुल्तानों पर दबाव डालते थे कि शरीअत के कानूनों का पालन किया जाये, और हिन्दुओं को या तो मुसलमान बना दिया जाय या उनका निर्ममतापूर्वक वध कर दिया जाय। धर्मान्ध उलेमाओं द्वारा सुल्तानों पर इस प्रकार के दबाव डालने के अनेक समकालीन तवारीखों के पृष्ठों में मिलते है। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल (1296-1316 ई.) में काजी मुगिसउद्दीन ने यह माँग की थी उसने कहा था कि चूंकि हिन्दू पैगम्बर के सबसे कट्टर शत्रु है इसलिए खुदा ने स्वयं ही हिन्दुओं का पूर्ण दमन करने का आदेश दिया है। पैगम्बर ने कहा है कि वे या तो इस्लाम स्वीकार करें और नहीं तो उन्हें कत्ल कर दिया जाय या गुलाम बना लिया जाय और राज्य उनकी सम्पत्ति जब्त कर ले। केवल महान् विद्वान अबूहनीफ ही हिन्दुओं पर जजिया लगाने की अनुमति देते हैं, जबकि अन्य विद्वानों का यही मत है कि मृत्यु या इस्लाम के सिवा उन्हें और कोई रास्ता नहीं है। मुसलमान शासकों द्वारा उस समय हिन्दुओं पर कठोर अत्याचार किये, उन पर जजिया कर लगाया, उन्हें सार्वजनिक रुप से उपासना करने और धार्मिक प्रचार करने की भी अनुमति नहीं दी। उन पर कुछ कानूनी अयोग्यताएँ भी लाद दी गयी थी। उदाहरण के लिए मुसलमानों के विरुद्ध मुकदमों में उनके प्रमाणों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक और सिकन्दर लोदी जैसे धर्मान्ध सुल्तानों के शासनकाल में तो हिन्दू न अच्छे वस्त्र पहन सकते थे, न घोडे पर सवार हो सकते थे, और यहाँ तक कि अच्छे हथियार भी नहीं रख सकते थे, कभी-कभी तो उन्हें पान तक नहीं खाने दिया जाता था, और न मुसलमानों जैसे वस्त्र ही पहनने दिये जाते थे। शरीअत के अनुसार हिन्दुओं को नये मंदिर बनाने और पुराने मंदिरों की मरम्मत करने देना वर्जित था। केवल युद्ध या सैनिक अभियानों के समय ही नहीं बल्कि शांतिकाल में भी हिन्दुओं के मंदिर गिरा दिये जाते थे, और उनकी देव मूर्तियों के टुकडे-टुकडे कर दिये जाते थे। सल्तनत काल में भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य तो चरम सीमा पर था, साथ ही समाज में लूट-खसोट का भयंकर वातावरण था। सम्पूर्ण हिन्दू धर्म में छुआछूत की भावना चरमोत्कर्ष पर थी, परन्तु पश्चिमी राजस्थान के जांगल प्रदेश की स्थिति तो और भी गम्भीर थी। कहते हैं कि जब-जब पृथ्वी पर पाप बढता है, धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है। तब देवता पृथ्वी पर मनुष्य रुप में अवतरित होते हैं और सत्पुरुषों का उद्धार और दूषित कर्मो का नाश करके धर्म की स्थापना करते हैं और वे जनता के दुःख का निवारण करके अपने उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् ज्योर्तिलीन हो जाते है। यह ईश्वरीय भक्ति भक्तों तथा अवतारों के रुप में अवतीर्ण होती रही है। वि. सं. (1400-1600) के बीच भारत में इस प्रकार के बहुत अवतार हुए हैं। ऐसे संकटकाल में श्रीकरणीजी ने वि.सं. 1444 (1387 ई.) को अवतार लिया और अनेक चमत्कारिक कार्य किये, जिसमें बीकानेर व जोधपुर राज्यों की स्थापना प्रमुख था, जिसके फलस्वरुप छोटे-छोटे राज्य समाप्त हो गये और प्रजा के दुःखों का अन्त हो गया। श्रीकरणीजी ने देवी अवतार द्वारा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को नष्ट होने से बचाने का काम भी किया है क्योंकि इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा जो बडे पैमाने पर हिन्दू मंदिरों को तोड़ा गया जिससे हिन्दू धर्म के अनुयायियों में अपने धर्म के प्रति घोर निराशा की भावना उत्पन्न हो गई थी और वे इस्लाम की तरफ आकर्षित होने लगे थे। ऐसे समय श्रीकरणीजी ने हिन्दू धर्म में देवी अवतार धारण करके हिन्दुओं के मन में अपने धर्म के प्रति आस्था व विश्वास बनाये रखवाया। श्रीकरणीजी ने कई चमत्कारिक कार्य किये जिससे हिन्दुओं को भी अपने धर्म के प्रति गौरव का अनुभव होता रहा और वे अपने धर्म से जुड़े रहे। समय-समय पर हिन्दू धर्म में होने वाले अवतारों के कारण ही आज भी भारत में बहुसंख्यक हिन्दू मतावलम्बी हैं। श्रीकरणीजी एव अन्य लोक देवियों के अवतरण के कारण हिन्दू धर्म के शक्ति सम्प्रदाय का भी व्यापक प्रचार हुआ और शाक्त मतावलम्बियों की सख्या में अप्रत्याशित बढोतरी हुई। विभिन्न राजवंशों के उत्थान में इन लोक देवियों ने चमत्कारी भूमिका निभाई जिससे शासकों द्वारा इन लोक देवियों की स्मृति में अतुल धन लगाकर इनके भव्य मंदिरों के निर्माण करवाये। श्रीकरणीजी ने अपनी चमत्कारिक शक्ति से कई लौकिक एवं अलौकिक कार्य किये जिससे हिन्दू धर्म एव संस्कृति के प्रति लोगों का दृढ विश्वास बना रहा। श्रीकरणीजी की दैवीय शक्ति के कारण ही उन्हें आज भी विश्व में इतनी प्रसिद्धि मिल रही है। समूचे विश्व की निगाह में श्रीकरणीजी का विशेष महत्व है श्रीकरणीजी मंदिर देशनोक (बीकानेर) आज किसी अजूबे से कम नहीं है। जहाँ हजारों की तादात में चूहे (काबा) होने के बावजूद भी प्लेग जैसी बीमारी का नामोनिशान नहीं है। यह बात समूचे विश्व को आश्चर्यचकित कर देने वाली है। प्लेग बीमारी मुख्य रुप से चूहों से फैलती है। आज के वैज्ञानिक युग में यह बात जरुर आश्चर्यचकित कर देने वाली है कि जब सूरत में प्लेग की बीमारी फैली हुई थी तो कई लोग प्लेग से ग्रसित होकर श्रीकरणीजी मंदिर देशनोक (बीकानेर) पहुँचे और मंदिर में चूहों (काबों) को पिलाने वाला दूध पिया जिससे उनकी प्लेग की बीमारी दूर हो गई। ऐसा ही व्यक्ति मेरे गुरु सुल्तानसिंहजी डाबी (पिण्डवाडा) को मिला तथा उनसे इस अछूत चमत्कार की चर्चा करते हुए सुनाया। तब सुल्तानसिंहजी डाबी ने उक्त घटना को मुझे बताया। (उन्हें पता था कि मैं पी.एच.डी. कर रहा हूँ) श्रीकरणीजी मंदिर में हजारों चूहे (काबे) सदियों से विचरण कर रहे फिर भी प्लेग यहाँ से कोसों दूर रहा है। यही कारण जिसकी वजह से श्रीकरणीजी विश्व में लोकप्रिय हो रही है और नेशनल ज्योग्राफी चैनल तथा रिसर्च स्कॅालर के लिये चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसे कई चमत्कारिक कार्य श्रीकरणीजी अपने ज्योर्तिलीन के बाद भी कर रही हैं ऐसी दृढ आस्था एव विश्वास जनमानस में देखने को मिल रहा है। यही कारण है कि श्रीकरणीजी की गिनती विश्व की प्रसिद्ध लोक देवियों में हो रही है और उनके हजारों मंदिर अविभक्त भारत में देखने को मिल रहे हैं। श्रीकरणीजी के मंदिर राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, असम, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, सिंध, बलुचिस्तान आदि भागों में देखने को मिल सकते हैं। साहित्यिक क्षेत्र में प्रभाव:- चारण जाति में उत्पन्न हुई लोकपूज्य देवियों में श्रीकरणीजी की प्रसिद्धि सर्वाधिक है। उनकी प्रसिद्धि के प्रवाडे भी अनेक हैं। श्रीकरणीजी की प्रसिद्धि के सम्बन्ध में एक दोहा डिंगल में इस प्रकार प्रचलित है। मोती समो न ऊजलौं, चंदण समो न काठ। डा. हीरालाल माहेश्वरी ने मेहा बीठू द्वारा रचित ‘करणीजी रा छंद’ का उल्लेख किया है जो अब से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व सोलहवीं शताब्दी (ई.) के उत्तरार्द्ध की रचना है। आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व के कवि रामदान लालस (सन् 1761-1825 ई.) द्वारा रचित ‘करणी रुपक’ भी मिलता है जिसका मूल पाठ साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित (1999 ई.) ‘राजस्थानी शक्ति काव्य’ ग्रंथ के 23 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है। चिरजाएँ दो प्रकार की होती है। एक को ‘सिंघाऊ’ कहते हैं जिसमें देवी के चरित्रों का वर्णन और प्रशंसा आदि का समावेश रहता है। दूसरी चाडाऊ कहलाती है। इसमें देवी के प्राचीन चरित्रों को उसको स्मरण दिला कर यह प्रार्थना की जाती है कि जिस प्रकार तूने अमुक भक्त की सहायता की थी उसी प्रकार तू मेरी भी सहायता कर। एक बार अलवर के महाराजा बख्तावरसिंह द्वारा शिकार किया घायल सूअर मालाखेडा दरवाजे के बाहर चमेली बाग में किसी रसूलशाही फकीर के तकिए में जा घुसा। अतः वह फकीर बहुत नाराज हुआ और उसने महाराजा को बद्दुआ दी जिससे उनके पेट में घोर पीडा उत्पन्न हो गई। अनेक उपचार किये गये, परन्तु पीडा शान्त नहीं हुई। दूत के द्वारा फकीर से माफी भी मांगी गई परन्तु वह (फकीर) टस से मस नहीं हुआ और महाराजा बख्तावरसिंह दर्द से तडफडा रहे थे। उस समय दुःखी होकर उन्होंने कहा, देखो एक मामूली फकीर की बद्दुआ से मैं इतना दुःख पा रहा हूँ मेरे धर्म में इतने देवी-देवता हैं, वे सब कहाँ गये, जो मेरी रक्षा नहीं कर रहे? उस समय महाराजा के पास हणुतिया गाँव के उम्मेदराम पालावत भी बैठे थे, वे महाराजा के कृपापात्र भी थे तथा श्रीकरणीजी के दृढ आस्तिक थे। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के देवी-देवता बहुत प्रबल और समर्थ हैं, वे तुरन्त ही आपका कष्ट निवारण कर सकते हें, परन्तु इसके लिए आपको दिल में उनके प्रति दृढ आस्था और विश्वास होना आवश्यक है। यदि आप चाहें तो मैं अभी श्रीकरणीजी का आह्वान करके चिरजा (प्रार्थना) करुँ, जिससे तत्काल आपकी उदर पीड़ा शान्त होती नजर आयेगी। महाराजा ने कहा मैं तो दर्द के मारे बेहाल हो रहा हूँ तुम कुछ भी ऐसा करो जिससे मेरा दर्द मिटे और मुझे फकीर के सामने न जाना पडे, मेरी प्रतिष्ठा को भी आँच न आवे। अब उम्मेदरामजी ने गुगल की आहुति देकर ज्योति प्रज्वलित की और चाडाऊ चिरजा (स्तुति) का पाठ आरम्भ कर दिया। कुछ ही समय बाद एक सफेद चील महल के मुंडेर पर आ बैठी। उम्मेदरामजी ने महाराजा को कहा कि बाहर चल कर चील रुप में देवी श्रीकरणीजी के दर्शन कीजिये, देवी ने जिस रुप में पूगल के राव शेखा भाटी को मुलतान में दर्शन देकर मुक्त कराया था। उसी रुप में आपको रोग मुक्त करने पधारी है। महाराजा ने बाहर चील रुपिणी शक्ति को प्रणाम किया और कुछ ही मिनटों में उनके पेट का दर्द बिल्कुल ठीक हो गया। शार्दूलसिंह कविया ने अपनी पुस्तक में कवि उम्मेदराम पालावत के वंशज ठा. फतहसिंह माहुंद के सौजन्य, वो छंद प्राप्त किये हैं, जो कवि ने राजा बख्तावरसिंह के स्वास्थ लाभ के लिए श्रीकरणीजी की स्तुति स्वरुप कहे थे। ।।छप्पय।। डा. श्यामसिंह रत्नावत (चारण साहित्य परम्परा) के अनुसार इस संकट से मुक्त होने पर महाराजा बख्तावरसिंहजी ने इसको श्रीकरणीजी की कृपा का प्रसाद माना। (द्रष्टव्य “Alwar and its Arts Treasures” by T.Handley, surgeon Major) इस सम्बन्ध में दो राजस्थानी दोहे एक ऐतिहासिक तलवार की मूँठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है, जो वहाँ (अलवर) के संग्रहालय में प्रदर्शित है। दोहे इस प्रकार है- धम धम बाग त्रमांगला, हुवै नकीबां हल्ल पीडा शान्त होने पर महाराजा ने स्वस्थता का अनुभव किया और श्रीकरणीजी के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए महाराज बख्तावरसिंह ने 25,000 रुपये का चढावा देशनोक भेजा, जिसमें एक जोड़ी जड़ाऊ पादुका, एक जोड़ी सोने के किवाड, जडाऊ पत्र, स्वर्ण चौकी और चौब छड़ी शामिल है। इन वस्तुओं की उपस्थिति आज भी उक्त घटना की सत्यता और महाराजा की दृढ भक्ति भावना का परिचय दे रही है। यह घटना श्रीकरणीजी के ज्योर्तिलीन के बाद की है। चिरजाओं के अलावा छंदपरक काव्य रुप में भी चारण शक्ति काव्य विपुल मात्रा में रचा गया है। छंदपरक शक्ति काव्यों के अतिरिक्त विशिष्ट छंदों यथा गीत, दोहा, सोरठा, कवित्त, नीसांणी, रोमकंध, कुंडलिया, चन्द्रायणा, रेणकी, त्रिभंगी, शिखरिणी, चौपाई, रासौ, इन्दव आदि छंदों में भी अनेक शक्ति काव्य लिखे गये हैं। गीत छंद राजस्थानी का अपना विशिष्ट और बेजोड छंद है। शक्ति विषयक गीत हजारों की संख्या में है। दोहा भी राजस्थानी का लाडला छंद है देवियों सम्बन्धी दोहों की कोई गिनती ही नहीं है। इन दोहों की अन्तर्कथाएँ भी बडी रोचक है। दोहा काव्यों में खींदल कृत ‘आवड़जी रा दूहा’ लधोजी कृत ‘कालका जी रा दूहा’, अज्ञात कवि कृत ‘जमानां रा दूहा’ (मंहमाय वाहक), ‘करणीजी रा दूहा’ आदि उल्लेखनीय रचनाएँ है। सोरठा काव्यों में रामनाथ कविया कृत ‘करणीजी रा सोरठा’ एव ‘पाबूजी रा सोरठा’ प्रसिद्ध है। स्थापत्य कला के क्षेत्र में श्रीकरणीजी का योगदान:- 1. देशनोक नगर की स्थापना:- 2. कुएँ एवं तालाबों के निर्माण में योगदान:- श्रीकरणीजी के समय में सर्वप्रथम वि.सं. 1514 (1457 ई.) में देशनोक में पुण्यराज ने कुँआ खुदवाया, जो श्रीकरणीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे (गुलाब बाई से उत्पन्न) इस कुएँ का नाम श्रीकरणीजी की इच्छानुसार ‘देपासर’ रखा गया। इसी प्रकार पुण्यराज ने देवायतरा ग्राम में अपने हिस्से की भूमि में एक तालाब खुदवाया जो ‘पूनासर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। वि.सं. 1515 (1458 ई.) में श्रीकरणीजी ने देशनोक में एक कुँआ खुदवाया जो ‘करणीसर’ के नाम से जाना जाता है तथा श्रीकरणीजी द्वारा देवायतरा गाँव में एक तालाब का निर्माण भी करवाया जो ‘करणी सागर’ कहलाता है। देवायतरा गाँव का आधा भाग भाई बंट में देपाजी के हिस्से में आया था। वि.सं. 1516 (1459 ई.) में श्रीकरणीजी के देवर ‘डेढा’ ने अपने नाम पर देशनोक में एक कुँआ खुदवाया और उसका नाम ‘ डेढासर’ रखा। 3. दुर्ग निर्माणों में भूमिका:- इसी तरह राव जोधा के पुत्र राव बीका ने भी अपने पिता की तरह वि.सं. 1542 (1485 ई.) में श्रीकरणीजी के हाथों से बीकानेर नगर तथा दुर्ग की नींव का पत्थर रखवाया। पुराने गढ में जहाँ श्रीकरणीजी के हाथ से शिलान्यास करवाया गया, वहीं श्रीकरणीजी का मंदिर बना हुआ है, जहाँ उनकी प्रतिमा का पूजन नियमित रुप से हुआ करता है। जोधपुर एवं बीकानेर जैसे सुदृढ दुर्गों की नींव श्रीकरणीजी द्वारा रखने का विस्तारपूर्वक उल्लेख तृतीय अध्याय मे किया जा चुका है। 4. गुम्भारा निर्माण करना:- विश्व प्रसिद्ध श्री करणी माता मंदिर, देशनोक (बीकानेर):- श्री करणीजी लाखन की आत्मा को यमलोक से धर्मराज को यह कह कर वापस लाई थी कि आज से जिस किसी मेरे वंशज की मृत्यु होगी, उसे काबा (चूहा) बनाकर अपने मंदिर में रख लूंगी। इसीलिए आज भी श्री करणीजी मंदिर में काबों (चूहों) को बहुत पवित्र समझा जाता है और इनका इतना ध्यान रखा जाता है। श्री करणीजी मंदिर देशनोक में भी करणी माता की मूर्ति वि.सं. 1595 चैत्र शुक्ल चतुर्दशी गुरुवार को देशनोक मंदिर के गुम्भारे में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में प्रतिष्ठापित किया गया था तब से इस मूर्ति का नियमित पूजन किया जाता है। बन्ना खाती द्वारा निर्मित श्री करणीजी की मूर्ति जैसलमेर के पीले रग के पत्थर की बनी हुई है और इस पर शिल्प कार्य बहुत बारीकी से किया गया है। मूर्ति का मुँह लम्बोतरा है, सिर पर मुकुट, कानो में कुंडल, दाहिने हाथ में त्रिशुल जिसके नीचे महिष का सिर पोया हुआ है। बाँये हाथ में नरमुंड लटक रहा है। गले मे आड (एक आभूषण), वक्षस्थल पर मोतियों की दुलडी माला और दोनों हाथों में चूडियाँ धारण की हुई है। लहंगे और साडी पर पहिनने अथवा ओढने के समय जो प्राकृतिक सल पड जाते हैं, उन सलों को दिखाने के लिये चुनावट दी हुई है और साड़ी पर फूल खुदे हुए हैं, लहँगा अधिक घेरदार नहीं है। मूर्ति की ऊँचाई लगभग दो फीट है। सिंदूर चढाते रहने के कारण पूर्ति के पाषाण की रंगत दिखाई नहीं देती है। केवल चार बडी पूजनों के समय राज्य की ओर से गोटा किनारी का लहँगा और साड़ी बनकर आती है और पोशाक धारण कराई जाती है शेष दिनों में केवल सिंदुर चढ़ा रहता है मूर्ति का पदस्थल भूमि से चार अंगुल ऊँचा है। श्री करणी माता की मूर्ति उनकी इच्छानुसार उनके हाथ के बनाये हुए गुम्भारे में स्थापित की गई है। श्री करणीजी की मूर्ति के बायीं ओर पाँचों मूर्तियाँ उनकी बहिनों की है और दाहिनी ओर की सातों मूर्तियाँ आवड़ माता आदि सातों बहिनों की है। (i) श्री आवड् माता एवं इन्द्र बाईसा का मंदिर:- (ii) श्री मानूबाई का मंदिर:- (iii) दशरथ का चबूतरा:- (iv) जूझारों की मूर्तियाँ:- श्री करणी मंदिर के निर्माण में बीकानेर शासकों का योगदान- 1. राव जैतसी का निर्माण कार्य- बीकानेर रियासत के चौथे शासक राव जैतसी (वि.सं. 1583-1598) ने श्री करणीजी के आशीर्वाद स्वरुप मुगल बादशाह बाबर के पुत्र कामरान को राती घाटी के युद्ध में परास्त किया था। सैनिकों की कमी के बावजूद भी जैतसी ने श्री करणीजी के आशीर्वाद से कामरान को वि.सं. 1595 (1538 ई.) आसोज सुदी 6 को युद्ध में परास्त किया। इस समय तक श्री करणीजी ज्योर्तिलीन हो चुके थे। श्री करणीजी के प्रताप से युद्ध में विजय के उपलक्ष में जैतसी ने देशनोक पहुँचकर गुम्भारे के ऊपर कच्ची ईंटों का मंदिर (मढ) बनवाया। 2. सूरसिंह का निर्माण कार्य- बीकानेर के आठवें शासक महाराज सूरसिंह (वि. सं. 1671-1688) ने देशनोक श्री करणी मंदिर में गोल भढ़ के चारों ओर चौकर मण्डप बनवाया। उन्होंने परिक्रमा और मढ़ के सामने अन्तराल मण्डप भी बनवाया जिसके तीन ओर दरवाजें है, जिन पर देवी-देवताओं से चित्रित चाँदी के किवाड़ चढ़े हुए है। 3. सूरत सिंह का निर्माण कार्य- बीकानेर के सत्रहवें शासक महाराज सूरतसिंह (वि.सं. 1844-1885) एक बार जोधपुर से बीकानेर लौट रहे थे। रास्ते में श्री करणीजी के दर्शनार्थ देशनोक रुके। परन्तु मंदिर के सामने जाकर अपनी सवारी में बैठे-बैठे ही हाथ जोडकर बीकानेर को रवाना हो गये। बीकानेर पहुँचते ही सूरतसिंह के पेट में जोर से पीडा होने लगी जो धीरे-धीरे असह्य हो गई। पीडा की बात सुनकर लोगों ने महाराजा सूरतसिंह को बताया कि आपने श्री करणीजी की अवज्ञा की है क्योंकि आप अपनी सवारी में बैठे-बैठे ही श्री करणीजी को प्रणाम करके लौट आये थे। महाराजा ने अपनी इस अज्ञानतापूर्ण अवज्ञा को स्वीकार किया और माँ श्री करणीजी से अपने अपराध के लिए क्षमा याचना की तथा अपनी गलती के पश्चाताप में श्री करणीजी का मढ़ पक्का बनवाने की प्रार्थना की। श्री करणीजी की कृपा से सूरतसिह की पीडा उसी समय शांत हो गई। इस चमत्कार का अनुभव करते हुए दूसरे ही दिन महाराजा पुनः देशनोक पहुँचे। श्री करणीजी के दर्शन करके पूजन करवाया। उसके बाद उन्होंने वि.सं. 1882 (1825 ई.) को राव जैतसी द्वारा बनवाये गये कच्चे मढ़ के स्थान पर पक्का गुम्बददार मंदिर, उसके चारों ओर एक पक्का परकोटा व मंदिर का सिंह द्वार बनवाया तथा देपालसर (चुरू) के किले को तोडकर वही से लाये लोहे के बडे किंवाड सिंह द्वार पर चढाये और चाँदी के नकारों की एक जोडी भेंट की जिसके साथ ही महाराज सूरतसिंह ने शास्त्रोक्त रीति से श्री करणीजी के पूजन की व्यवस्था की जो आज तक चली आ रही है। 4. गंगासिंह का निर्माण कार्य- बीकानेर के 21 वें शासक महाराजा गंगासिंह (वि.सं. 1944-2000) ने सन् 1906 ई. में मंदिर के भीतर प्रांगण में संगमरमर के चौके जडवाये और परिक्रमा सुधारी। उन्होंने मध्य द्वार की छत पर सुनहरा चित्रांकन भी करवाया। इनके समय में कच्चे चौके पर लाल पत्थर के चौके लगाये गये थे जिन्हें हटाकर अब संगमरमर के सुन्दर टाईल्स लगा दिये गये है। महाराजा गंगासिंह श्री करणीजी के अनन्य भक्त थे। इनके समय में दी बैंक ऑफ बीकानेर की जो स्थापना हुई थी, उसके हर चैक पर श्री करणीजी का चित्र रहता था। इन्होंने अपने पौत्र (सादुल सिंह के ज्येष्ठ पुत्र) का नाम ही श्री करणीजी के नाम पर करणीसिंह रखा था। 5. डूंगर सिंह का योगदान- बीकानेर के 20वें महाराजा डूंगरसिंह (वि.सं. 1929-1944) वि.सं. 1934 (1877 ई.) में भूज ब्याह कर जात देने के लिए देशनोक आये तो उन्होंने श्री करणीजी मंदिर में सोने का तोरण (जो मूर्ति के ऊपर लगा हुआ है), सोने के कटहरे (जो मूर्ति के दोनों बगलों में लगे हुए है) तथा सोने का चन्द्रहार (जो डूंगरसिंह की महारानी जाडेची ने भेंट किया) भेंट किया। 6. श्री करणी मंदिर के निर्माण में श्रद्धालुओं का योगदान- देशनोक श्री करणी मंदिर में बीकानेर राजाओं के अतिरिक्त अन्य श्रद्धालुओं द्वारा भी निर्माण कार्य एवं भेंट चढाने का उल्लेख मिलता है। देशनोक में श्री करणीजी की छठीं शत जयन्ती (वि.सं. 2044) के अवसर पर मंदिर के सिंह द्वार के अग्रभाग में जस्ते के चमकदार विशाल कपाट भूरा भंसाली के वंशज सेठ दीपचंद भूरा द्वारा चढाये गये। गुम्भारे के ऊपर गुम्बजदार मंदिर के किवाड अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह द्वारा भेंट किये गये थे। पखा शाल में एक मन चार सेर वजन वाला वीरघट झिलाय के ठाकुर गोवर्धनसिंह द्वारा भेंट किया हुआ है। ड्योढी के बाहर वाले चौक में बने तिबारों में एक ऊँचा तिबारा भोमजी चम्पावत द्वारा बनाया गया था, जिसे भोमजी की शाल कहा जाता है। श्री करणी मंदिर के सिंह द्वार के दोनों ओर संगमरमर से निर्मित दो बैठे सिंहों की मूर्तियाँ जो अत्यन्त बारीक काम के लिए प्रसिद्ध है, बीकानेर के सेठ चाँदमल ढढ्डा द्वारा बनवाई गई थी, ढढ्डा ने ही संगमरमर का कलात्मक सिंह द्वार बनवाया था। मंदिर और देशनोक रेल्वे स्टेशन के बीच इनके द्वारा एक पक्की धर्मशाला भी बनवाई हुई है। मंदिर के सिंह द्वार का शिल्प देखने योग्य है, सिंह द्वार के शिल्पी हीरा नाम के सुथार थे। सिंह द्वार पर काबों की मनोरम पंक्तियाँ, केवडे के पत्तों में लिपटी सर्पाकृतियाँ, पूंगी बजाते सपेरे, वनस्पति और जीव-जन्तुओं का सजीव अंकन वास्तव में चित्ताकर्षक है। 2. नेहड़ी जी का मंदिर देशनोक:- भक्त कुन्दनमल सोनी, देशनोक ने नेहड़ीजी मंदिर में नवीन निर्माण कार्य करवाया है। जिससे मंदिर का स्वरुप बहुत सुन्दर एव चित्ताकर्षक हो गया है। 3. श्री करणी मंदिर सुवाप (जन्मस्थली):- एक बार जोधपुर महाराजा मानसिंह के दिवान इन्द्रराज सिंघवी सुवाप गाँव से होकर जा रहे थे। उस समय ढोल व नगारे बजाये गये। कुछ ग्रामीणों ने दीवान को समझाते हुए कहा कि यह श्री करणीजी की जन्मस्थली है यहाँ ढोल व नगारे श्री करणीजी के बजते हैं लेकिन दीवान इन्द्रराज सिंघवी अहंकार की बातें करने लगा और ढोल नगारे बजते रहे। जब दीवान आगे चला तो घोडे से नीचे गिर गया। इस तरह वह कई बार गिरा, तब उसको श्री करणीजी का चमत्कार समझ में आया। उसने श्री करणीजी थान पर जाकर माफी माँगी। उसने वि.सं. 1863 को गाँव की ऊँची टेकरी के ऊपर श्री करणीजी के मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर का पूर्ण निर्माण जन सहयोग से सुखदेव किनिया ने करवाया। सुखदेव किनिया के बाद 1993 ई. में डा. गुलाबसिंह जागाँवत बल्लूपुरा हाल जयपुर ने श्री करणीजी की जन्म स्थली सुवाप के मंदिर निर्माण का कार्य हाथ में लिया। डा. साहब ने भी करणीजी को शीश महल में बिठाया। निज मंदिर में सोने का काम, शीश महल, चौक, मुख्य द्वार का जिर्णोद्धार बिना जन सहयोग से स्वयं ने करवाया। सुवाप में श्री करणीजी की मूर्ति चार भुजा वाली है। यहाँ की मूर्ति में श्री करणीजी का बाल स्वरुप है। मूर्ति के ऊपर श्री करणीजी के विवाह का तोरण रखा हुआ है। आश्विन शुक्ल सप्तमी को सुवाप में श्री करणीजी की जयन्ती के अवसर पर विशाल मेला भरता है। मेले की शुरुआत सोहनदान जी रातडिया की प्रेरणा से डा. गुलाब सिंह जागाँवत ने सन् 1991 से शुरु की। आज जयन्ती के अवसर पर हजारों लोग दर्शनार्थ आते है। मेहाजी की चौकी-श्री करणीजी मंदिर के पास पूर्व में एक चबूतरा बना है। जहाँ पूर्व में मेहाजी का घर था। यहीं श्री करणीजी ने जन्म लिया था। आवड़जी का गुम्भारा-यह स्थान सुवाप श्री करणी मंदिर से दक्षिण पश्चिम में बना हुआ है। इस मंदिर को स्वयं श्री करणीजी ने अपने हाथों से बनाया था। इस मंदिर में आवड़ माँ की सातों बहिनों साथ श्री करणीजी पूजा करती थी। शेखा की जाल-श्री करणीजी ने अपने बाल्यकाल में पूगल के राजकुमार शेखा भाटी की फौज जो जिस जाल के वृक्ष के नीचे अपने पिताजी के भाते से जिमवाया था। वह जाल का वृक्ष आज भी सुवाप में हरा-भरा है। यह जाल का वृक्ष श्री करणीजी की कीर्ति की गाथा गा रहा है। 4. श्री करणीजी का मंदिर-साठिका (ससुराल):- श्री करणीजी के साठिका मंदिर में तोरण की पूजा की जाती है। वर्तमान साठिका में श्री करणीजी का सुन्दर एवं भव्य मंदिर बनाया गया है। 5. श्री करणी मंदिर गडियाला (परमधाम):- परमधाम गडियाला की पावन भूमि पर श्री करणीजी सैंकडों वर्षों तक कच्चे थान पर विराजमान रही। वि.सं. 2015 को शक्ति अवतार करणीकोट वाली श्री सायर माँ ने श्री करणीजी के इस पावन धाम की नींव रखी। इसके बाद जनसहयोग से मंदिर निर्माण हुआ। गडियाला के पटवारी अमरसिंह भाटी ने श्री करणीजी की दिव्य प्रेरणा से मंदिर का विकास करवाया। मंदिर में वृक्षारोपण, जल का टाँका और जल विशाल टंकी बनाई गई। चैत्र मास की शुक्ल नवमी को यहाँ भी करणीजी का मेला भरता है जिसमें दूर-दूर से यात्री आते है। देशनोक के भक्त कुंदनमल सोनी ने गड़ियाला मंदिर को वर्तमान में शिखरनुमा बनवाया है। जिससे मंदिर की भव्यता एवं सुन्दरता बढ गई है। श्री करणीजी का वंश वृक्ष
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