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श्री करणी माता का इतिहास – डॉ. नरेन्द्र सिंह आढ़ा

श्री करणी माता का इतिहास – डॉ. नरेन्द्र सिंह आढ़ा

पूरा नाममाँ करणीजी
माता पिता का नाममाता देवलदेवी ओर  पिताजी का नाम मेहाजी किनिया था
जन्म व जन्म स्थानकरणीजी का जन्म 21 माह गर्भ में रहने के बाद वि.स. 1444 आसोज सुद सातम शुक्रवार को फलोदी के पास सुआप गाँव में हुआ
स्वधामगमन
वि.सं. 1595 (1538 ई.) की चैत्र शुक्ला नवमी शनिवार को श्रीकरणीजी ज्योतिर्लीन हुए।
विविध
 

 जीवन परिचय

श्री करणी माता का जीवन-वृत्तान्त

श्री करणीमाता के पिता मेहाजी जो किनिया शाखा के चारण थे। उनको मेहा मांगलिया से सुवाप नामक गाँव उदक में मिला था, जो जोधपुर जिले की फलौदी तहसील में पडता है। मेहाजी को सुवाप गाँव मिलने से पहले यह गाँव सुवा ब्राह्मण की ढाणी कहलाता था। बाद में मेहाजी ने इस गाँव का नाम बदलकर सुवाप रखा था। इसी गाँव में लोकदेवी श्रीकरणीमाता का जन्म हुआ।

मेहाजी किनिया का विवाह बाड़मेर के मालाणी परगने में अवस्थित वर्तमान बाड़मेर जिले के बालोतरा के पास आढ़ाणा (असाढ़ा) नामक एक प्राचीन गाँव के स्वामी माढा आढ़ा के पुत्र चकलू आढ़ा की पुत्री देवल देवी के साथ हुआ था। कुछ लोग इस प्राचीन गाँव का उल्लेख जैसलमेर की सीमा पर स्थित ओढाणिया गाँव के रूप में भी करते है जो कि एक शोध का विषय है। निष्कर्षतः यह विवाह वि.सं. 1422-23 के आस-पास हुआ था। इस आढ़ी देवल देवी को भी चारण जाति में शक्ति का अवतार माना जाता है।

देवल देवी के गर्भ से मेहाजी को एक-एक करके पाँच पुत्रियाँ हुई और एक भी पुत्र नहीं हुआ था। इसी कारण से मेहाजी सदैव उदास रहा करते थे। एक दिन उन्होंने आद्य शक्ति हिंगलाज माता की यात्रा की जो पाकिस्तान के बलुचिस्तान प्रान्त में स्थित है। कहा जाता है कि भगवती श्री हिंगलाज ने उसकी श्रद्धा एवं भक्ति से प्रसत्र होकर उसे दर्शन दिया और वर मांगने को कहा तो मेहाजी ने हिंगलाज माँ को प्रणाम कर प्रार्थना की कि मैं चाहता हूँ कि मेरा नाम चले। देवी श्री हिंगलाज तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गयी।

उसके बाद उनकी धर्मपत्नी देवलदेवी को गर्भ रहा। इस बार मेहाजी को पुत्र प्राप्ति की पूर्ण आशा थी। इसलिए प्रसूति काल के निकट आने पर उसे मोढी मूलाणी और अक्खा ईंदाणी नाम की दो दाइयों को देवलदेवी की सेवा में लगा दिया। परन्तु 10 मास समाप्त होने पर भी प्रसूति नहीं हुई। प्रतीक्षा करते-करते दसवाँ मास छोडकर 12वाँ-15वाँ मास भी समाप्त हो गया। इससे परिवार के सभी सदस्यों को चिन्ता होंने लगी। अन्त में अक्खा ईंदाणी यह कहकर चली गयी कि मैंने आज तक ऐसी प्रसूति नहीं देखी न जाने शिशु कब जन्म लेगा? अक्खा ईंदाणी तो चली गई और मोढी मूलाणी देवल देवी की सेवा करती रही। इसी चिन्ता में 20वाँ मास भी बीत गया तब तो और भी अधिक चिन्ता होंने लगी।

एक रात्रि को देवल देवी को स्वप्न में साक्षात् दुर्गा ने दर्शन दिये और कहा कि धैर्य रख एक मास बाद मैं निज इच्छा से तुम्हारी कुक्षि से जन्म लूंगी। अक्खा ईंदाणी ने मेरी उपेक्षा की है अत: वह पुत्र सुख से वंचित रहेगी तथा मोढी मूलाणी को सर्वत्र सम्मान प्राप्त होगा तथा उसके कहे वचन फलीभूत होंगे क्योंकि उसने मेरी तन-मन से सेवा की है।

वि.सं. 1444 को सुवाप गाँव में आश्विन शुक्ल सप्तमी के दिन शुक्रवार को ब्रह्म मुहूर्त्त में आढ़ी देवल देवी के गर्भ से 21 मास रहने के बाद लोकदेवी श्रीकरणीजी ने जन्म लिया।

चकलू मांढावत री धिन आढ़ी देवल्ल।
जिणरी कूंखें जलमिया, किनियाणी करनल्ल।

श्री करणीजी के जन्म के बारे में एक दोहा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है-

चौदह सो चम्मालवे, सातम सुकरवार।
आसोज मास उजालपख, आई लियो अवतार।।

गोरीचंद हीराचंद ओझा ने बीकानेर राज्य के इतिहास भाग-1 में पृ. सं. 62 पर करणीमाता का जन्म 20 सितम्बर, 1387 ई. होना लिखा है।

करणी चरित्र के अनुसार:-
श्रीकरणीजी के जन्म के समय उनकी माँ देवलदेवी कुछ समय के लिए मूर्छित हो जाती है और मूर्छित अवस्था मे वे साक्षात् दुर्गा को देखती है, जो असीम लावण्य और रूपवती थी। होश में आने पर देवल देवी को आभास होता है कि उसे लडकी हुई है। वह कन्या को देखती है, तो अपने पास में काली-कलूटी चौडे मुँह की स्थूल देह वाली पाती है। अतः देवल देवी स्वप्न की बात को भ्रम समझ जाती है। प्रसूति गृह से जब शिशु के रोने की आवाज मेहाजी के कानों में पडती है तब उन्होंने अपनी बहिन को उत्सुकतावश पूछा कि क्या हुआ लडका या लडकी? तो उसकी बहिन, जो उन दिनों पीहर आई हुई थी, ने हाथ का डूचका देते हुए कहा कि फिर पत्थर आ गया अर्थात् लडकी हुई है। इतना कहना हुआ कि उनकी पाँचों अंगुलियाँ ज्यों की त्यों जुडी हुई रह गयी और वापस नहीं खुल सकी।

उस युग में लडकी के जन्म को अशुभ समझा जाता था। पुत्री जन्म को अभिशाप मानने वालों के लिए रिधू बाईसा (श्रीकरणीजी) की यह प्रथम दण्डात्मक सीख थी, जो आज के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है। मेहाजी की बहिन द्वारा जो देवी श्रीकरणीजी का उपहास किया गया उसका प्रतिफल उसे तुरन्त ही मिल गया। लेकिन उनकी भूँआ देवी श्रीकरणीजी का चमत्कार नहीं समझ सकी और अंगुलियों के जुड़ने का कारण बादी आना समझ लिया।

जन्म के तीसरे दिन नामकरण संस्कार हुआ और कन्या का नाम रिधूबाई रखा गया। नाम के अनुरुप ही मेहाजी के घर में रिद्धी-सिद्धी बढने लगी। रिधू बाई के जन्म से पूर्व पिता मेहाजी की साम्पत्तिक दशा साधारण थी। परन्तु उनके जन्म के साथ-साथ दिन प्रतिदिन पिता की समृद्धि बढने लगी।

भूँआ की अंगुलियों को ठीक करना:-
वि.सं. 1449-50 (1392-93 ई.) की बात है उन दिनों श्रीकरणीजी की भूँआ पीहर आयी हुई थी। भूँआजी अन्य छः बहिनों की अपेक्षा रिधू बाई को बहुत प्यार करती थी। एक दिन वे रिधू बाई को स्नान करा रही थी। एक हाथ से भूँआ उनको ठीक से नहीं स्नान करा पा रही थी, तब रिधू बाई ने पूछा कि आप दोनों हाथों से क्यों नहीं स्नान करा रही है? तब भूँआ ने उनके जन्म के समय की सारी घटना सुनाई। फिर श्रीकरणीजी ने उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा कि आपका हाथ तो बिलकुल ठीक है, क्यों बहाना बनाती हो? यह कहना हुआ कि भूँआ का हाथ बिकुल भला-चंगा हो गया। उनके हाथ की अंगुलियाँ फिर से पूर्ववत् हो गयी। भूँआ का हाथ ठीक होंने से उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। भूँआ ने अपने भाई व भाभी को इस चमत्कार की बात बताई। इस घटना के बाद भूँआ ने कहा कि इस कन्या को साधारण न समझे, यह संसार मे अपनी कुछ करनी दिखलायेगी। तब भूँआ ने कन्या के जन्म के नाम रिधूबाई को बदलकर करणी नाम रख दिया। इस दिन के बाद से रिधूबाई श्रीकरणीजी के नाम से विश्व विख्यात हुई।

कई ग्रंथों में श्रीकरणीजी का श्रीकरणी नाम से प्रसिद्ध होने की घटना का उल्लेख हुआ। श्रीकरणीजी चरित्र, सेवा सुमन, श्री करणी अवतार आदि ग्रंथों में श्रीकरणीजी का नाम करणी पडने के पीछे भूआ का हाथ टूटा करना बतलाया गया है, जबकि सही बात यह है कि पाँच वर्ष की अवस्था में रिधूबाई (श्रीकरणीजी) ने भूँआ का टूटा हाथ ठीक किया तब उन्होंने रिधू बाई का नाम बदलकर करणी रखा और आगे रिधूबाई इसी नाम से विश्व में विख्यात हुई।

पिता को जीवनदान देना:-
वि.सं. 1450 (1393 ई.) को वर्षा ऋतु में मेहाजी अपने खेत से घर आ रहे थे। अधेरा हो जाने के कारण उनका पैर काले साँप के फन पर गिर गया। साँप ने मेहाजी को तत्काल डस लिया। अत्यधिक विषैले साँप के काटने के कारण थोडी दूर चलने के बाद वहीं गिर पड़े। अधिक रात होने पर भी मेहाजी के घर नहीं लौटने पर उनके परिवार के सदस्यों तथा नौकरों ने उनकी खोज-बीन करनी शुरु की तो मेहाजी उनको खेत के रास्ते में मृत पड़े मिले। उनको उठाकर घर लाया गया। रोशनी में देखने पर ज्ञात हुआ कि उनकी मृत्यु साँप के काटने से हुई है। साँप के काटने से मरे हुए व्यक्ति को तत्काल नहीं जलाते है। परिवार के सदस्यों का शोरगुल देखकर छः वर्षीय बालिका श्रीकरणीजी की नींद खुल गई। श्रीकरणीजी ने अपने पिता के समक्ष बैठकर साँप के दंश की जगह हाथ रख के कहा कि ‘उठिये पिताजी और अपने काम में लगिये’। इधर श्रीकरणीजी के हाथ का स्पर्श करना हुआ और मेहाजी के शरीर का विष पल भर में उतर गया, और वे तत्काल उठ खडे हुए। इस चमत्कार के साथ सर्व साधारण में यह चर्चा फैल गयी कि श्रीकरणीजी साक्षात् महाशक्ति जगदम्बा का अवतार है।

सुवा ब्राह्मण को वरदान:-
सुवाप गाँव मेहाजी किनिया को उदक में मिलने से पूर्व सुवा ब्राह्मण की ढाणी कहलाता था। सुवा ब्राह्मण उस गाँव का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति था। वह श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त था। उसने तीन विवाह किये, परन्तु वृद्धावस्था तक उसे संतान की प्राप्ति नहीं हुई। उसकी स्त्रियों को उनकी सगोत्री महिलाओं ने ताना दिया कि अब तुम्हारा धन कितने दिन का है, क्योंकि तुम्हारे तो कोई संतान नहीं है। अतः तुम्हारा धन हमारे परिवार में ही आयेगा। उन स्त्रियों ने श्रीकरणी के सामने हाजिर होकर रोते हुए यह घटना बतलाई। श्रीकरणीजी से उन स्त्रियों का दर्द सहा नहीं गया। तब उनको देवी ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। जिसके फलस्वरूप ठीक दस माह बाद सुवा के एक पुत्र हुआ, जिससे हर्षित होकर सुवा ने श्रीकरणीजी की खूब सेवा की।

पिता को पुत्र प्राप्ति का वरदान:-
मेहाजी के (देवल देवी के गर्भ से) पाँच कन्या श्रीकरणीजी से पूर्व हो चुकी थी। मेहाजी किनिया की छठी संतान के रूप में श्रीकरणीजी का जन्म हुआ। श्रीकरणीजी के जन्म के चार वर्ष बाद अर्थात् वि.सं. 1448 (1391 ई.) को देवल देवी के गर्भ से एक और कन्या हुई। इस तरह मेहाजी के कुल सात लड़कियाँ हो गई जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार है। लालबाई, फूलबाई, केसरबाई, गैंदाबाई (लालबाई), सिद्धिबाई, रिधूबाई (श्रीकरणीजी) तथा गुलाबबाई। ये सातों ही कन्याएँ चारण जाति में शक्ति का अवतार मानी जाती है, जिनकी राजस्थान तथा उसके बाहर प्रदेशों में खूब मान्यता है।

श्री लाल बाई-फूल बाई माताजी का मंदिर:-
श्री लाल बाई माताजी का जन्म वि. सं. 1424 को हुआ था कारण कि श्री किशोरसिंहजी बार्हस्पत्य के अनुसार श्री करणीजी के जन्म (वि.सं. 1444) के समय में लाल बाई की उम्र 20 वर्ष थी। इनका जन्म स्थान प्राचीन गाँव आढ़ाणा ही होगा कारण कि प्राचीन समय में पहली प्रसुति महिला के पीहर में ही होती थी। श्री लाल बाई-फूल बाई माताजी का मुख्य मंदिर चित्तौडगढ शहर के पास चन्देरिया रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर की दूरी पर भीलवाड़ा-चित्तौड़गढ़ मार्ग पर शक्तावतों के ठिकाणे पूठोली में स्थित है। मंदिर में लाल बाई-फूल बाई की मूर्ति के साथ उनके भाई सातल जी की मूर्ति स्थित है। चैत्र एव आश्विन नवरात्रा में यहाँ श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। शक्तावत राजपूतों के अलावा अन्य जाति के लोग भी दूर-दूर से दर्शनार्थ यहाँ आते है। लाल बाई-फूल बाई की मान्यता मेवाड, हाडोती एव मालवा में खूब है।

श्री केसर बाई माता जी का मंदिर:-
श्री केसर बाई सावर के शक्तावत राजपूतों की कुल देवी है। भीलवाडा-जयपुर मार्ग पर भीलवाड़ा से 30 किलोमीटर की दूरी पर सावर ठिकाना आता है। सावर ठिकाने की अन्तिम सीमा पर स्थित देवली से 4 किलोमीटर की दूरी पर पुरानी देवली गाँव में तालाब के किनारे देवल आढ़ी की तृतीय पुत्री केसर बाई का मंदिर स्थित है। इस तरह श्री करणीजी की सभी बहिनों को शक्ति के अवतार के रूप में आज भी पूजा जाता है।

इन सभी बहिनों के बारे में एक दोहा प्रसिद्ध है जो राजस्थानी शक्ति काव्य में भँवरसिंह सामौर ने इस प्रकार लिखा है-

लालां फूलां करनला, केहर गैंद गुलाल।
सिद्ध पातां मेहासूद, मोज बरीसण माल।।

मेहाजी किनिया के सात पुत्रियाँ होने के बाद भी एक भी पुत्र नहीं होने के कारण वे सदैव उदास दिखाई देते थे। गाँव के स्वामी की इस खिन्नता का प्रभाव गाँववासियों पर भी पड़ता दिखाई देता था। एक दिन संयोगवश श्रीकरणीजी की भूँआ सुवाप आयी हुई थी, उसने श्रीकरणीजी को कहा कि बाई तू जगत् को अपने दैविक चमत्कार दिखाया करती है, मुझको भी दो बार दिखा चुकी है। घर में महामाया के होते हुए भी पिता अपनी वंश रक्षा के लिए चिन्तित रहें, इससे अधिक और क्या दु:ख हो सकता है? श्रीकरणीजी ने उत्तर दिया कि पिताजी को मेरी ओर से कह दो कि पुत्र के लिये चिन्तित न हो, वे एक पुत्र चाहते हैं मैं दो पुत्र होने का वरदान देती हूँ। श्रीकरणीजी की भूँआ ने यह सूचना अपने भाई मेहाजी को सुनाई। मेहाजी और उसकी स्त्री देवल देवी भी अपनी पुत्री के मुँह से यह वचन पाकर खिल पडे। इसके कुछ ही दिन बाद देवल देवी को गर्भ प्राप्ति हुई और दसवें महिने पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम श्रीकरणीजी की आज्ञानुसार सातल अर्थात् सात बहिनों वाला रखा गया। इस पुत्र के जन्म की खुशी में मेहाजी ने कई दिनों तक खुशियाँ मनाई। आसपास के जागीरदारों तथा गाँव वालों को प्रसन्नता पूर्वक दावत दी गई और याचकों को भी मेहाजी द्वारा खूब दान दिया गया। इसके दो वर्ष बाद उनको दूसरा पुत्र भी प्राप्त हुआ जिसका नाम सारंग रखा।

श्री करणीजी का विवाह:-
श्री करणीजी की उम्र विवाह योग्य हो जाने पर भी उनका सम्बन्ध नहीं होने के कारण उनके पिता मेहाजी अत्यधिक चिन्तित रहने लगे थे। पिताजी की अधिक चिन्ता, सगे-सम्बन्धियों के तानों तथा जाति मर्यादा को बनाये रखने के लिए श्रीकरणीजी ने विवाह सम्बन्ध करना स्वीकार किया। उन्होंने सुवा ब्राह्मण की लडकी (जो उनकी सखी थी) के माध्यम से मेहाजी को कहलाया कि साठिका गाँव में केलूजी बीठू के यहाँ शिव ने अंशावतार लिया है, वहीं पर मेरा विवाह होगा।

इस प्रकार मेहाजी देवी श्रीकरणीजी का निर्देश पाकर साठिका गये तथा केलूजी बीठू के पुत्र देपाजी के साथ श्रीकरणीजी का विवाह सम्बन्ध तय हो गया। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी ओर से विवाह की तैयारियाँ शुरु कर दी। देपाजी को श्रीकरणीजी के रूप के बारे में सम्बन्ध के पहले से जानकारी थी। इसलिए वे इस सम्बन्ध से खुश नहीं थे। अतः वे पिता केलूजी की इच्छा के विरूद्ध केवल एक बहली, एक घोड़ा, और दो-चार व्यक्तियों को बारात में लेकर विवाह के लिये रवाना हो गये। केलूजी को पुत्र हठ के आगे झुकना पडा और उनकी इच्छा के विरूद्ध ज्यादा शान से बारात नहीं गई। वि.सं. 1473 (1416 ई.) आषाढ शुक्ल नवमी को श्रीकरणीजी का विवाह देपाजी बीठू के साथ साधारण रीति से सम्पन्न हुआ।

उधर श्रीकरणीजी की माँ आढ़ी देवलदेवी द्वारा अपने पीहर आढ़ाणां गाँव जाकर अपने भाई को विवाह में उपस्थित होने और भात भरने के लिए निमन्त्रित किया गया। लेकिन श्रीकरणीजी के घमण्डी आढ़ा मामा माहेरा भरने, पाट उतारने तथा सेवरा देने के लिए विवाह में उपस्थित नहीं हुए। श्रीकरणीजी चंवरी मण्डप में फेरों के समय तक सेवरा देने के लिए आढ़ा सरदारों की प्रतीक्षा करती रही। विवाह में आढों द्वारा उपस्थित नहीं होने को श्रीकरणीजी ने अपना अपमान समझा तथा आढों पर क्रोधित होकर शाप दे दिया की तुम्हारी वंश वृद्धि नहीं होगी, उनका आढ़ाणा गाँव का निवास छूट जायेगा और वे इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहेंगे। इस तरह का शाप आढों को श्रीकरणीजी द्वारा दिया गया।

मेहाजी ने विवाह में अपनी ओर से बहुत खर्चा किया और दहेज में दास-दासी, 200 साँढणी और लगभग 400 गायें और खूब सारे आभूषण दिये। परन्तु देपाजी ने यह सब कुछ लेने से इंकार कर दिया और बहाना किया कि द्विरागमन (गौना) के समय में हम आपका दिया हुआ दहेज स्वीकार करेंगे।

इस प्रकार 29 वर्ष की आयु में श्रीकरणीजी ने जाति-मर्यादा को ध्यान में रखते हुए विवाह करना स्वीकार किया। विवाह के बाद तीन-चार दिन तक बारात को रखकर मेहाजी ने वर-वधू को विदाई दी। श्रीकरणीजी को गायें अधिक प्रिय थी इसलिए 200 गायों को उन्होंने अपने साथ हठात् ले लिया।

देपाजी का भ्रम निवारण करना:-
वर-वधू सुवाप से साठिका के लिये रवाना हुए। मार्ग में पानी के लिए कष्ट नहीं हो इसलिये मेहाजी ने बहली और रथ के ओदण के नीचे छींके बंधवा कर पानी से भरी चार मिट्टी की मटकियाँ रखवा दी थी। बारात सुवाप से तीन-चार कोस ही दूर पहुँची थी कि देपाजी को प्यास लगी, तो देपाजी ने रथ से उतर कर पानी की भरी मटकियाँ टटोली परन्तु सभी मटकियाँ बिना फूटी होने के बावजूद भी खाली पड़ी थी। इस पर देपाजी को बडा आश्चर्य हुआ। इस पर श्रीकरणीजी ने रथ के अन्दर से आवाज दी कि आप पीछे मुड़कर देखें, पानी की तलाई पास ही नजर आ रही है। जैसे देपाजी ने पीछे मुड़कर देखा, भगवती की कृपा से तलाई स्वच्छ पानी से भरी हुई नजर आई। देपाजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। देपाजी ने स्वयं पानी पीकर प्यास बुझाई। उनके सेवकों ने भी पानी पिया तथा मटकों को भरकर वापस रखवा दिया, तथा गायों को भी पानी पिलाकर तृप्त कर दिया। देपाजी ने श्रीकरणीजी को पानी का पूछने के लिए जैसे ही रथ का पर्दा उठाया तो देखा कि वहाँ पर एक सिंह पर सवार, सूर्य का लावण्य धारण करने वाली रूप और सौन्दर्य की पूंजरूप श्री महाशक्ति स्वयं हाथ में त्रिशूल लिये हुए खडी है। यह देखते ही देपाजी दूर जा खड़े हुए तब श्री देवी ने कहा कि आपको मैंने अपना लौकिक और वास्तविक दोनों रूप बता दिये हैं। आप जिस रूप में चाहें मुझे देख सकते हैं, क्योंकि मेरा भौतिक रूप विरूप, काला रंग, मोटा और चौडा चेहरा है। मैं आपकी सहधर्मिणी अवश्य हूँ परन्तु मेरा यह भौतिक शरीर आपके उपभोग का साधन नहीं है। आप मुझसे गृहस्थ सम्बन्ध नहीं रख सकते। अपनी गृहस्थी के लिये आप मेरी छोटी बहिन गुलाब बाई से विवाह कर लेना और वह आपकी गृहस्थी को सम्भालेगी। मैं तो इस लोक में दीन-दुखियों पर अत्याचार करने वाले, सम्पत्तियों को लूटने वाले वे लोग, जो अपना कर्त्तव्य भूल गये हैं, उनको कर्त्तव्य का बोध कराने के लिए आई हूँ। मेरा पिछला अवतार आवड़जी का अधिक सुन्दर होने के कारण उनके कर्त्तव्यों की पूर्ति में कई बाधाएँ आयी थी। उनकी पुनरावृत्ति न हो, इस कारण श्री भगवती महामाया ने मुझे ऐसा भौतिक स्वरूप प्रदान किया है। इतना सुनकर श्रीकरणीजी पुनः अपने भौतिक रूप में आ गयी, जो अत्यन्त काला, विरूप, मोटा और चौडा चेहरा था, और कहा कि मुझको प्यास नहीं है।

अणदा (करणा) खाती को रक्षा का वचन देना:-
संध्याकाल के समय यह बारात सुवाप से लगभग 10 कोस की दूरी पर करणू गाँव मे जा रूकी। यहाँ करणा (अणदा) नाम का एक खाती रहता था। उसने श्रीकरणीजी के देवी चमत्कार की बातें सुन रखी थी और उसने कई बार सुवाप जाकर उनके दर्शन भी किये थे। जब उसे पता चला कि श्रीकरणीजी रथ में बैठकर अपने ससुराल साठिका जा रही है, तो उसने रास्ते में जाकर श्रीकरणीजी से निवेदन किया कि आज की रात आप सभी मेरे घर पर रूक कर इसे पवित्र कर दें। अत्यधिक आग्रह करने पर देपाजी ने करणा (अणदा) खाती के घर रुकना स्वीकार किया। श्रीकरणीजी समेत समस्त बाराती उसके घर गये। साँय का समय हो चुका था। अणदा के घर बहुत सारी गायें थी। श्रीकरणीजी अन्य स्त्रियों के साथ रसोई घर में बैठी हुई थी। अणदा की माँ ने कुछ गायों का दूध दोहने के बाद उसको गर्म करने के लिये चूल्हे पर रख दिया और दूसरी गायों का दूध दोहने के लिए जाते हुए श्रीकरणीजी को कह गई कि बाईसा आप दूध का ध्यान रखना। श्रीकरणीजी ने कहा तुम जाओ मैं ध्यान रखूंगी। श्रीकरणीजी गाँव की आई हुई अन्य स्त्रियों से बातचीत में लग जाती है। चूल्हे पर रखा दूध आँच पाकर उफनने की कगार पर आ जाता है। तब श्रीकरणीजी का ध्यान दूध की तरफ जाता है और इनके श्री मुख से ‘बस यहीं तक रुक जा’ शब्द निकलता है तभी उफनने वाला दूध वहीं रुक जाता है। आँच कम होने पर भी वह वापस नहीं बैठता।

जब अणदा की माँ अन्य गायों का दूध दोहकर वापस आती है तो दूध की हांडी को मुँह तक भरी देखकर श्रीकरणीजी से कहती है बाईजी आपने तो सारी हांडी पानी से भर दी। अब सुबह बिलौने में घी नहीं आयेगा, तब श्रीकरणीजी ने कहा कि मैंने तो पानी को छूआ भी नहीं तो दूध मैं कैसे डाल दिया? इस पर भी अणदे की माँ को विश्वास नहीं हुआ तो श्रीकरणीजी ने कहा कि इस दूध को अलग से जमा देना और सुबह इसका पृथक बिलौवना करना। इस पर अणदा की माँ ने ऐसा ही किया और सुबह जल्दी उस दूध के दही का बिलौना किया तो सारा दही घी में परिवर्तित हो गया। तब उसे विश्वास हुआ कि श्रीकरणीजी तो साक्षात् महाशक्ति का अवतार है। इस आश्चर्य को देखकर सारी स्त्रियाँ दूसरे दिन श्रीकरणीजी के समक्ष पहुँची और अपनी-अपनी इच्छानुसार वरदान प्राप्त किये। इस चमत्कारी घटना के बाद अणदा की माँ ने श्रीकरणीजी से कहा कि अणदा मेरा एक ही बेटा है जो कुँए में नीचे उतर कर उसे ठीक करने का काम करता है आप उसकी रक्षा करने का आशीर्वाद देकर मुझ पर कृपा करो। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि ‘उसे कहना कि जब विपदा में हो तब मुझे याद कर लेना’ इस तरह का वचन देकर श्रीकरणीजी व देपाजी ने वहाँ से साठिका के लिए प्रस्थान किया।

साठिका पहुँचना:-
दस-बारह दिन की यात्रा के बाद बारात सुवाप से साठिका गाँव पहुँची। देपाजी के पिता इस विवाह सम्बन्ध से अत्यन्त खुश थे क्योंकि वे देपाजी को शिव का अंशावतार ही समझते थे। अब तो उनकी खुशियाँ और भी बढ गयी क्योंकि श्रीकरणीजी के रूप में महाशक्ति जगदम्बा स्वयं उनके घर पुत्र वधू बनकर आयी। अतः शिवभक्त केलू इस सम्बन्ध से अत्यन्त हर्षित था। इसलिए उसने शिव-शक्ति के जोडे को बधाने का समुचित प्रबन्ध किया। देपाजी व श्रीकरणीजी को मोतियों से बधाया गया। इस तरह केलूजी ने उनका बडा भव्य स्वागत करवाया।

देपाजी का दूसरा विवाह:-
श्रीकरणीजी ने ससुराल आगमन के समय ही देपाजी को साक्षात् जगदम्बा स्वरूप में दर्शन देकर निज अवतार का उद्देश्य बताया था। साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि आप मुझसे गृहस्थ सम्बन्ध नहीं रख सकते। आप अपनी गृहस्थी चलाने के लिए मेरी छोटी बहिन गुलाब बाई से शादी कर लेना। इस तरह के विचार श्रीकरणीजी ने पूर्व में ही प्रकट कर दिये थे।

देपाजी स्वयं भी इस विवाह से प्रसन्न नहीं थे। वे सदैव खिन्न-चित्त रहते थे। श्रीकरणीजी ने एक दिन उनको कहा कि आप गृहस्थी चलाने के लिए मेरी छोटी बहिन गुलाब बाई से शादी कर लो। इस प्रस्ताव को देपाजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्योंकि गुलाब बाई सुन्दर एव रूपवती थी। देपाजी ने स्वयं गुलाब बाई को देख रखा था। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने देपाजी की स्वीकृति लेकर उनका विवाह वि.सं. 1474 (1417 ई.) के प्रारम्भ में गुलाब बाई से करवा दिया। इस बार देपाजी ने सहर्ष दहेज सामग्री स्वीकार कर ली, जो श्रीकरणीजी के साथ विवाह के समय अपने ससुराल में ही छोड आये थे।

कुटुम्ब वृद्धि:-
देपाजी को गुलाब बाई के साथ विवाह करने के तीन वर्ष पश्चात प्रथम पुत्र की प्राप्ति हुई जो वि.सं. 1477 (1420 ई.) वैशाख शुक्ल सप्तमी को हुआ। जिसका नाम देपाजी ने पुण्यराज (पूना) रख दिया। वि.सं. 1483 (1426 ई.) को माघ कृष्ण पंचमी को गुलाब बाई ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम नगराज (नगा) रखा गया। वि.सं. 1489 (1432 ई.) वैशाख कृष्ण द्वितीया को गुलाब बाई ने सिद्धराज (सीढा) नामक पुत्र को जन्म दिया। इन तीन पुत्रों के बाद वि.सं. 1495 (1438 ई.) वैशाख कृष्ण प्रतिपदा को गुलाब बाई ने एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम रेडी बाई रखा गया। यहाँ तक गुलाब बाई की एक प्रसूति के पश्चात् दूसरी प्रसूति तक बराबर छः वर्ष का अन्तर रहता चला आया था। परन्तु सबसे अन्त में उनको वि.सं. 1500 (1443 ई.) फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को कनिष्ठ सतान की प्राप्ति हुई। इस पुत्र का नाम लक्ष्मणराज (लाखण) रखा गया। इस अन्तिम प्रसूति का अन्तर पाँच वर्ष ही रहा। देपाजी को गुलाब बाई के उदर से चार पुत्र तथा एक पुत्री हुई। इन सभी संतानों को श्रीकरणीजी बहुत प्यार करती थी इस कारण ये सभी संतानें श्रीकरणीजी की ही संतान कहलाई।

रेडीबाई की 11 वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गई थी। शेष चारों पुत्र श्रीकरणीजी के जीवनकाल तक जीवित रहे।

देवायत को शाप देना:
साठिका में बोहड बीठू के पुत्र घींघा बीठू का एक पोता था, जिसका नाम देवायत था। देवायत के पिता का नाम जगो था। देवायत के हिस्से में साठिका गाँव में तीसरा हिस्सा और मेघासर, झिणकली तथा इन्दोका गाँव आया था। देवायत बडा छल-कपटी था। उसने एक दिन श्रीकरणीजी से कहा कि साठिका में मेरे हिस्से में जो भूमि आ रही है वह नहीं के बराबर है। अत: आप कृपा करके एक भैंस के बैठने जितनी जमीन मुझे दे देवें। श्रीकरणीजी ने देवायत की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया तो उसने चमार के पास जाकर बड़ी भैंस का चमड़ा लेकर उसको बहुत बारीक चिरवाया और उस चमड़े को चेखा बीठू के खेत के मध्य बिछाकर एक कई सौ बीघा का चक्र बनाकर जमीन को नाप लिया, जिसमें उसने खुद का तालाब खुदवा लिया। अपनी भूमि को दूसरे के अधिकार में जाने से चेखा बीठू अत्यन्त दुखी होकर श्रीकरणीजी के पास आया और उन्हें उपालम्भ दिया। श्रीकरणीजी ने देवायत की कुटिलता को देखकर उसको यह शाप दिया कि तेरी वंश वृद्धि नहीं होगी और तेरे घर में सदा एक ही आदमी बना रहेगा।

ससुराल साठिका का परित्याग करना:-
मेहाजी द्वारा देपाजी को दहेज में बहुत सारे पशु दिये गये। इस कारण केलू बीठू के यहाँ बहुत सारा पशुधन हो गया इसलिए उससे अन्य बान्धव ईर्ष्या करते थे। साथ ही साठिका में पानी का एक कुआँ ही था। जिससे ग्रामवासियों की आवश्यकता बडी मुश्किल से पूरी होती थी। अब केलू जी के बहुत सारे पशु हो जाने से पानी की समस्या ग्रामवासियों को अखरने लगी। इस कारण बोहड के पोते आल्हा, जगा, भोजा और कालू की स्त्रियों ने श्रीकरणीजी से उनकी गायों को पानी पिलाने के लिए बारी बन्धी का आदेश दिया तथा यह बात कटूक्ति के रुप में उनके समक्ष रखी गई। इससे श्रीकरणीजी रुष्ट हो गई, और उन्होंने कहा कि इस कुँए का पानी खारा हो जायेगा और तुम लोगों को पानी की कमी अखरेगी। इस तरह से तुम लोग दुःख के दिन व्यतीत किया करोगे और हम वहीं पर निवास करेंगे जहाँ पर गौ तृप्त होकर अपनी प्यास बुझायेगी। दूसरे दिन सूर्य उदय होना ही था कि ग्रामवासियों को पानी खारा प्रतीत होने लगा एव उसकी अत्यधिक कमी महसूस होंने लगी। अत सारे ग्रामवासी भयभीत होकर श्रीकरणीजी से पानी में पुनः सुधार की प्रार्थना करने लगे।

अनेक तरह से प्रार्थना करने पर श्रीकरणीजी ने कहा कि पानी का स्वाद नमकीन अवश्य होगा परन्तु तुम लोगों को आवश्यकता के अनुसार पानी मिलता रहेगा। हाँ, पानी का खर्च बहुलता से नहीं कर सकोगे और श्रीकरणीजी ने उन्हें कहा कि मैं आज ही अपने गो धन के साथ यहाँ से प्रस्थान करुंगी। जहाँ भी आज का सूर्यास्त होगा, वहीं मेरा स्थायी निवास बन जायेगा। यह कहकर उन्होंने अपने दास-दासियों को आज्ञा दी कि हमारे सब पशुओं को लेकर तुम लोग जांगलू चले जाओ। वहाँ पहुँचने पर आगे कहाँ जाना होगा इसके लिए विचार किया जायेगा। सब परिकरों को आगे रवाना करके वि.सं. 1475 (1418 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को श्रीकरणीजी ने भोजन के पश्चात् अपने ससुर, सास, पति, देवर तथा दूसरे कुटुम्बियों के साथ ले गो धन के रक्षार्थ सदा के लिए साठिका गाँव का परित्याग कर दिया।

श्रीकरणीजी अपराह्न में सपरिवार जांगलू पहुँची। जांगलू से चलकर श्रीकरणीजी जालों के जोहड में पहुँची। यहाँ पहुँचते-पहुँचते दिन अस्त हो गया। इस पर उन्होंने यहीं पर स्थायी निवास करने की आज्ञा दे दी। रात को वहीं विश्राम कर दूसरे दिन श्रीकरणीजी ने वहाँ झोंपडे खडे करने की आज्ञा दे दी।

नेहड़ी का रोपण करना:-
सूर्यास्त के समय श्रीकरणीजी गोधन के साथ जिस स्थान पर पहुँची वह स्थान था, श्री नेहड़ीजी मन्दिर। (वर्तमान में यह मन्दिर श्री करणी मन्दिर देशनोक से दो कि.मी. दूर पश्चिम की तरफ स्थित है)

इस नेहड़ीजी मन्दिर की ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि इस प्रकार है कि जोहड में पहुँचने के बाद श्रीकरणीजी ने अपने सेवक गुणिया को सुबह खेजड़ी के वृक्ष की सूखी लकड़ी लाने को कहा। सेवक ने खेजड़ी की सूखी लकड़ी लाकर श्रीकरणीजी को दे दी। श्रीकरणीजी ने उस लकड़ी को जमीन में गाड दिया और उसके दही के छींट दिये। उसको श्रीकरणीजी ने बिलौने के लिए नेहड़ी के रुप में काम में लिया था। यह सूखी लकड़ी खेजड़ी का हरा वृक्ष बन गयी। वर्तमान में भी हरे वृक्ष के रुप में खडी है। बाद में महाराजा गंगासिंह ने यहाँ मन्दिर का निर्माण करवा दिया। श्रीकरणीजी द्वारा दिये दही के छींटे आज भी इस वृक्ष पर दिखाई देते हैं। इस वृक्ष की पुरानी छाल जाने पर नई छाल आती है उस पर भी दही के छींटे आ जाते हैं। इस तरह का चमत्कार जगदम्बा श्रीकरणीजी आज भी दिखा रही है। यह वृक्ष आज से 600 वर्ष पुराना हो जाने पर भी हरा भरा दिखाई दे रहा है।

आधुनिक नेहड़ीजी के मन्दिर के पास श्रीकरणीजी ने 11 मास तक पर्णकुटियाँ बनाकर निवास किया और ये कुटियाँ श्रीकरणीजी की ढाणी के नाम से विख्यात हो गयी।

देशनोक नगर की स्थापना:-
श्रीकरणीजी ने जांगलू के जोहड में निवास स्थान बनाया था, वह भूमि जांगलू के शासक कान्हा राठौड़ के अधिकार मे थी। जिसका श्रीकरणीजी ने वध कर दिया था तथा उसकी जगह राव रिड़मल को जांगलू का राजा बना दिया। इस घटना का विस्तृत अध्ययन तीसरे अध्याय में करेंगे।

राव रिड़मल को श्रीकरणीजी ने जांगलू का राजा बना दिया तब उसने श्रीकरणीजी को भेंट स्वरुप आधा राज्य भेंट करना चाहा, जिसे श्रीकरणीजी ने अस्वीकार कर दिया। अत्यधिक आग्रह करने पर श्रीकरणीजी ने गायों के चरने के लिए उस भूमि का चतुर्थांश स्वीकार किया जिसमें 10 गाँवों की भूमि के क्षेत्र सम्मिलित थे तथा इस क्षेत्र में 10 कुँए भी थे। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने जोहड की भूमि लेकर गायों के लिए चारे की समस्या का समाधान किया।

वि.सं. 1476 (1419 ई.) वैशाख शुक्ल द्वितीया, शनिवार को श्रीकरणीजी ने अपनी ढाणी से एक कोस पूर्व में देशनोक नगर का शिलान्यास किया। श्रीकरणीजी की मान्यता आस-पास के गाँवों में फैल चुकी थी। इसलिए यहाँ अवसर पाकर इनके कई भक्त बस गये और यह बस्ती एक गाँव के स्वरुप में आ गयी, तो एक दिन राव रिड़मल ने जोहड में पहुँच कर श्रीकरणीजी से प्रार्थना की कि यह गाँव मेरे देश की ओट (पनाह) है इसलिए इसका नाम देशओट रखिये। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि यह गाँव तो देश का नाक है, इसलिए इसका नाम मैं देशनाक रखती हूँ। देशनाक शब्द बिगड़ कर बीकानेर निवासियों के उच्चारण-भेद के कारण पीछे से देशनोक बन गया। तब से यह नगर देशनोक कहलाता है।

ससुर केलूजी का स्वर्गवास:-
वि.सं. 1500 (1443 ई.) के लगभग श्रीकरणीजी के शिव-भक्त ससुर केलूजी का स्वर्गवास हो गया। इस समय राव रिड़मल का पुत्र राव जोधा काहुनी गाँव में विद्यमान था। रिड़मल की भाँति राव जोधा भी श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त था, ज्योंही उसने केलू जी के स्वर्गवास का समाचार सुना, त्योंही मातमपुरसी के लिये अपने सब भाइयों सहित देशनोक पहुँचा। देपाजी ने अपने पिता के नुकते (मृत्युभोज) से अवसर पाकर अपने बडे पुत्र पुण्यराज के साथ साठिका पहुँचकर अपने बान्धव बोहड के वंशजों के साथ निज हिस्से का दाय भाग करवाया। जिसमें देवायतरों गाँव आधा देपाजी के भाग में आया और आधा भाग बोहड बीठू की संतान के अधिकार में रहा।

देपाजी का स्वर्गवास:-
वि.सं. 1511 (1454 ई.) ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को श्रीकरणीजी के पति देपाजी का देशनोक में स्वर्गवास हो गया। श्रीकरणीजी ने सामाजिक परम्परा के अनुसार अपनी अंगिया और लाल रंग की लोवड़ी उतार कर उसके स्थान कर कत्थई रंग की लम्बी बाँह की अंगरखी और उसी रंग की लोवड़ी धारण की। इस तरह श्रीकरणीजी ने 84 वर्ष तक वैधव्य जीवन व्यतीत किया।

लक्ष्मण (लाखण) को जीवनदान देना:-
देपाजी को गुलाब बाई के उदर से चार पुत्र हुए थे जिसमें से सबसे कनिष्ठ पुत्र लक्ष्मणराज (लाखण) बहुत छैल-छबीली प्रकृति वाला था। वह प्रायः इधर-उधर घूमने और अपने मित्रों से मिलने-जुलने में ही अपना जीवनयापन किया करता था। वि.सं. 1524 (1467 ई.) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को वह कोलायत कपिल मुनि का धाम देखने के लिए देशनोक से अपने साथियों के साथ गया था। वहीं स्नान करते समय उसकी डूबने से मृत्यु हो गयी। उसके मित्रों ने उसके शव को पानी में से बाहर निकाला और बैलगाडी में सुलाकर देशनोक लाये। लक्ष्मणराज की मृत्यु का समाचार सुनकर गुलाब बाई अत्यधिक विलाप करती हुई उसका शव श्रीकरणीजी के पास ले जाकर पुनः जीवित करने की प्रार्थना करने लगी। श्रीकरणीजी के आदेशानुसार उन्होंने उस शव को अपनी झोपड़ी में रखवा दिया और स्वयं उसी झोपडी में ध्यानमग्न होकर बैठ गयी और तीन दिन बाद लक्ष्मणराज पुन: जीवित होकर झोपडी से बाहर निकले जिससे सारे परिवार में अपार खुशी छा गयी। इस सम्बन्ध में यह जनश्रुति प्रख्यात है कि श्रीकरणीजी ने अपने पुत्र के प्राण वापस लाने के लिए धर्मराज के यहाँ पहुँचकर उस जीव को वापस मांगा, धर्मराज ने कहा यहाँ आने के बाद आज तक कोई वापस नहीं गया, श्रीकरणीजी ने कहा क्या आज से पहले कोई माँ अपने पुत्र को वापस लेने आयी थी? और उन्होंने विराट रुप प्रकट कर धर्मराज को दर्शन दिये और उसे कहा कि आज के बाद उनका कोई भी वंशज तुम्हारे यहाँ नहीं आयेगा, तब से देपावत बीठू (देपाजी के वंशज) मरकर काबा (श्रीकरणी मन्दिर का चूहा) और काबा मरकर देपावत बनने का क्रम जारी है। श्रीकरणीजी ने लक्ष्मणराज (लाखण) को पुनर्जीवित करके देपावतों के लिये कोलायत का तालाब त्याज्य कर दिया। इसका देपावत पूर्णतः पालन करते हैं और इस वर्जित तालाब के पानी को स्पर्श तक नहीं करते श्रीकरणीजी ने लक्ष्मणराज को पुनर्जीवित करके अपने चारों पुत्रों को आशीर्वाद दिया कि मेरी विद्यमानता में चारों पुत्रों में से किसी की मृत्यु नहीं होगी चाहे उनकी आयु कितनी ही अधिक हो जाये और बाद में ऐसा ही हुआ।


“Rats Rule at Indian temple”

Sharon Guynup and Nicolas Ruggia
NATIONAL GEOGRAPHIC CHANNEL
June 29th, 2004

The legend goes that Karni Mata, a mystic matriarch from the 14th century, was an incarnation of Durga, the goddess of power and victory. At some point during her life, the child of one at her clansmen died. She attempted to bring the child back to life, only to be told by yama, the god of death, that he had already been reincarnated.

Karni Mata cut a deal with yama : From that point forward, all of her tribes people would be reborn as rats until they could be born back into the clan.

In Hinduism, death marks the end of one chapter and the beginning of a new one on the path to a soul’s eventual oneness with the universe. This cycle at transmigration is known as samsara and is precisely why Karni Mata’s rats are treated like royalty.

The Vermin Brewing International
RESEARCH NEWS LETTER
First Published – 21 January, 1996
Last updated 06.07.2003

We further read that the people believe those holy rats will be reincarnated into mystics and sadhus in their next life. Another source, however, claimed that the rats are children (or ‘kabas’) who died in a fever epidemic during the 14th or 16th Century. After receiving a plea from the grieving mothers to bring the children back, yama (the god of death) promised that the soul of every child would live on in the form of a rat.


श्री करणी माता एवं समकालीन राजपूत राज्य

(अ) श्रीकरणी माता एवं पूगल राज्य:-
जन्म से ही श्रीकरणी माता ने चमत्कारिक कार्य किये जिससे उनकी प्रसिद्धि धीरे-धीरे सम्पूर्ण मरू-प्रदेश में फैल गई। जोधपुर एवं बीकानेर के राठौड़ों की भाँति पूगल व जैसलमेर के भाटी शासक भी श्रीकरणीजी के अनन्य भक्त थे जिसमें जैसलमेर के रावल चाचग देव और बाद में रावल देवीदास भी श्रीकरणीजी के अनन्य भक्त हुए, देवी श्रीकरणीजी की प्रसिद्धि उनका आत्मिक ज्ञान, उच्च नैतिकवाद और व्यक्तिगत प्रभाव दूर-दूर तक फैला हुआ था। उनकी अच्छाइयों और दैविक शक्तियों का प्रचार सिंध और पंजाब प्रदेश तक में था, मुल्तान भी इनके प्रभाव से अछूता कैसे रहता? वहाँ के पीर और सिद्ध पुरुष इनके प्रति आदर की भावना रखते थे। इस प्रकार देवी श्रीकरणीजी का प्रभाव भाटी, राठौड़ और सांखलों के प्रदेशों को लांघकर हिन्दू मुसलमान के संकीर्ण दायरे से निकलकर दूर-दूर तक फैला हुआ था।

राव शेखा भाटी को वरदान:-
श्रीकरणीजी की प्रसिद्धि को सुनकर पूगल के शासक राव बरसल के राजकुमार शेखा भाटी ने भी मन ही मन देवी श्रीकरणीजी के दर्शन करने का विचार किया। अतिशीघ्र ही राजकुमार शेखा भाटी को अपने किसी शत्रु से बैर लेने के लिये जाना पड़ा। उसने श्रीकरणीजी के चमत्कारों के विषय में सुन रखा था इसलिये उसने युद्ध में जाने से पूर्व सुवाप गाँव पहुँचकर जीत के लिये श्रीकरणीजी से आशीर्वाद प्राप्त कर लेना उचित समझा। जिस समय कुमार शेखा सुवाप पहुँचा श्रीकरणीजी गाँव के फलसे पर ही अपने समय पिता मेहाजी के लिये भाता ले जाती हुई मिल गई। राजकुमार शेखा भाटी ने ऊँट से उतर कर श्रीकरणीजी के श्रीचरणों में प्रणाम किया और अपना परिचय देते हुए श्रीकरणीजी से युद्ध में विजय का वरदान प्राप्त किया। इस तरह राजकुमार शेखा भाटी ने प्रथम बार श्रीकरणीजी से वि.सं. 1459 (1402 ई.) में भेंट कर युद्ध में विजय का वरदान प्राप्त किया उस समय वह पूगल का राजकुमार था, अधिपति नहीं।

हरिसिंह भाटी (पूगल का इतिहास में) ने पृ. 283 पर लिखा है कि वि.सं. 1521 (1464 ई.) राव शेखा पूगल की राजगद्दी पर बैठे। अतः यह सही जान पडता है कि श्रीकरणीजी ने शेखा को विजयश्री का गाँव सुवाप में, जो वरदान दिया था, उस समय वे पूगल के राजकुमार थे।

शेखा भाटी के जल्दी मे होने के कारण श्रीकरणीजी ने उसी जगह पर (रास्ते में ही) अपने पिताजी का भाता खोलकर उसका व उसके 140 सैनिकों का आतिथ्य सत्कार किया। शेखा के आदेशानुसार उसके सब आदमी ऊँटों से उतर कर अपने-अपने बर्तन लेकर प्रसाद लेने हेतु कतार में बैठ गये। श्रीकरणीजी प्रत्येक सेनिक के सामने जाती और अपनी छोटी सी हंडिया में से उसके बर्तन में दही उडेल कर छबड़ी में से रोटी दे देती। आगे बढने पर हंडिया फिर दही से भर जाती और टोकरी में रोटियाँ भी फिर उतनी ही हो जाती, जिनको वे आगे वाले आदमी को दे देते। इस प्रकार प्रत्येक आदमी के सामने जाकर श्रीकरणीजी, उसे दही और रोटियाँ देती रही। जब सब सैनिकों का पेट भर गया तो वे कहने लगे, हमने इतना चिकना मलाईदार दही, इससे पहले कभी नहीं खाया। राव शेखा के शाकुनिक ने कहा कि दही खिला देने से अपशुकन हो गया है और जीत में मुझे शंका है। शाकुनिक की बात जब राजकुमार शेखा ने श्रीकरणीजी को बतलाई तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा शाकुनिक ठीक कहता है। उसके शकुनों का फल उसे ही मिलेगा। शेखा का जब उसके शत्रुओं से युद्ध हुआ तो शत्रु पक्ष के सभी सैनिक काम आये, लेकिन राव शेखा की ओर से केवल वह शाकुनिक ही काम आया। यह देखकर शेखा को बडा आश्चर्य हुआ और श्रीकरणीजी में उसका विश्वास और भी ज्यादा बढ गया। वापस आते समय शेखा भाटी सुवाप गाँव आया और श्रीकरणीजी के दर्शन किये। शेखा भाटी ने श्ररीकरणीजी के पिता मेहाजी से अनुरोध किया कि मुझे श्रीकरणीजी का धर्म-भाई बनना है। अधिक अनुरोध करने पर श्रीकरणीजी ने शेखा भाटी को राखी बांधकर उसे अपना धर्म-भाई बनाया। इस अटूट रिश्ते का निर्वाह आज तक भी भाटी राजपूत एवं किनिया चारण करते आये हैं।

राव शेखा तीन दिन तक सुवाप में ठहरे। वहाँ से रवाना होते समय उन्होंने श्रीकरणीजी से प्रार्थना की कि हे बहिन, अपने भाई पर एक कृपा और करो। आप सर्व शक्तिमान जगदम्बा हैं। अतः मुझे अमरत्व का वरदान देकर कृतार्थ करें। श्रीकरणीजी ने कहा अमरत्व तो संसार में किसी को प्राप्त नहीं हुआ है, जिसने जन्म लिया है उसको एक दिन मरना ही पडेगा यहाँ तक कि मुझे स्वयं को भी एक दिन देह को त्यागना होगा। परन्तु राव शेखा ने फिर प्रार्थना की कि हे बहिन। आप जगत माता जगदम्बा हो, सब कुछ कर सकती हो। इस पर श्रीकरणीजी ने अपने धर्म-भाई को वरदान दिया कि जब तक तुम अमावस्या के दिन आक के पेड के नीचे खींप की चारपाई पर बैठकर काले मेंढे का माँस नहीं खाओगे तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। जब तक तुम इन चारों चीजों का एक साथ उपयोग नहीं करोगे तब तक तुम अमर हो। यह वरदान प्राप्त करके राजकुमार शेखा हँसी-खुशी पूगल गये।

राव शेखा की बिजली से रक्षा करना:-
एक दिन पूगल के शासक राव शेखा दरबार लगाकर बैठे हुए थे और कवि-वृंद भाँति-भाँति की काव्य रचनायें सुना रहे थे। इतने में आकाश से विद्युतपात हुआ और राव शेखा के ठीक सर पर बिजली गिरी। उसी समय वह और उसके दरबारी देखते हैं कि श्रीकरणीजी उसके (राव शेखा) के निकट खडी है और राव शेखा को अपनी लोवड़ी की ओट में बिजली से बचा रही है जब बिजली लोवड़ी पर गिरकर वापस आकाश में चली गयी तो श्रीकरणीजी उसी समय अदृश्य हो गये यह देखकर सभी को बडा आश्चर्य हुआ। इस घटना से राव शेखा के चित्त में श्रीकरणीजी की भक्ति इतनी बढ गयी कि वह करीब चालीस कोस की दूरी से चलकर शुक्ल पक्ष की प्रत्येक चतुर्दशी को श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ पूगल से देशनोक आने लगा। इस तरह श्रीकरणीजी ने राव शेखा की बिजली से रक्षा कर अपने द्वारा दिये वचन का भी निर्वहन किया।

राव शेखा की मृत्यु:-
श्रीकरणीजी ने जब से शेखा को वरदान दिया था कि जब अमावस्या के दिन आक की छाया में खींप के बांण (बांध से) बुनी हुई खाट पर बैठकर काले मेंढे का माँस खाओगे तब ही तुम्हारी मृत्यु होगी तब से राव शेखा इन चारों संयोगों से बड़ा सावधान रहता था। एक दिन ऐसी घटना घटी कि वह शिकार खेलने के लिए पूगल से अपने साथियों के साथ निकला उस दिन अमावस्या थी संयोग से वह सूअर का पीछा करते-करते अपने साथियों से बिछुड गया। वह जंगल में एक पोहड राजपूत की ढाणी (टोले) पर गया। राजपूत ने राव शेखा की आवभगत की और उसने आँक की छाया में खाट डाल दी, माँस बनाकर शेखा को खिलाया। माँस खाने के पश्चात् राव शेखा को याद आया कि आज अमावस्या है, ऊपर देखा तो आँक की छाया फिर झटके से उठकर चारपाई को सभाला तो खींप की पाई। तब राजपूत को माँस का पूछा तो उसने बताया कि काले मेंढे का बनाया है राजपूत का इतना कहना हुआ, उसने कहा कि अब बुलावा आ गया। इसी समय उसके बिछुडे सैनिक भी आ गये, उसी समय शेखा भाटी मर गया और इस प्रकार श्रीकरणीजी द्वारा दिये गये वरदान से ही उसकी वि.सं. 1557 (1500 ई.) को मृत्यु हुई।

(ब) श्रीकरणी माता एवं जोधपुर राज्य:-

राव चूंडा:-
राव चूंडा, जो राठौड़ वीरमदेव का लडका था, ने वि.सं. 1462 (1405 ई.) को ईदा उपशाखा के पडिहारों से मंडोवर राज्य दहेज स्वरुप प्राप्त किया। राज्य प्राप्ति के दूसरे वर्ष अर्थात् वि. सं. 1463 (1406 ई.) में वह श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ सुवाप पहुँचा। उसने श्रीकरणीजी से सुखपूर्वक मारवाड़ राज्य पर शासन करने का वर प्राप्त किया। इस तरह वि.सं. 1463 (1406 ई.) से राठौड़ों को श्रीकरणीजी के देवी आशीर्वाद की प्राप्ति हुई जो बाद में कई पीढियों तक चलती रही।

रिड़मल का चूंडासर में निवास:-
वि.सं. 1473 (1416 ई.) में श्रीकरणीजी का विवाह होने से जब वे साठिका पहुँची तो राव रिड़मल शुक्ल पक्ष की प्रत्येक चतुर्दशी को चाँडासर से श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ साठिका जाया करता था, जब तक राव चूंडा विद्यमान रहा तब तक तो रिड़मल चुपचाप रहा। वि. सं. 1475 (1418 ई.) में अपने पिता राव चूंडा के मारे जाने पर वह (रिड़मल) मंडोवर पर अधिकार के प्रयास में लग गया।

जांगलू के अत्याचारी शासक राव कान्हा से तकरार:-
जब श्रीकरणीजी साठिका गाँव का परित्याग कर अपने परिवार के साथ जांगलू पहुँची। उस समय जांगलू का शासक राव चूंडा का पुत्र राव कान्हा था। साठिका गाँव से जांगलू 5 कोस दूर है। जांगलू पहुँचते ही श्रीकरणीजी के पशु प्यासे हो गये। इस पर श्रीकरणीजी के ग्वालों ने जांगलू के कुँए पर उनको पानी पिलाना चाहा। जिस पर राव कान्हा के सेवकों के साथ उनकी तकरार हो गयी। इसकी सूचना राव कान्हा के पास पहुँची। इस समय चूड़ासर से रिड़मल भी आया हुआ था। राव रिड़मल श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त था। उसने राव कान्हा से कहा कि चलो देवी श्रीकरणीजी के दर्शन कर आते हैं। इस पर राव कान्हा ने देवी श्रीकरणीजी की उपेक्षा करते हुए कहा कि ऐसी चारणियाँ बहुत घुमती-फिरती है, मैं किस-किस के दर्शन करता फिरु, तुम वरदान के भूखे हो इसलिए तुम चले जाओ मैं नहीं चलता। इस पर राव रिड़मल ने अकेले ही नगर के बाहर पहुँचकर श्रीकरणीजी के दर्शन किये और उनको साष्टांग प्रणाम किया। श्रीकरणीजी ने राव रिड़मल की कुशलता पूछी, इस पर उसने उत्तर दिया कि भुँआजी जिसके बैठने को कोई स्थान नहीं, ऐसे बिना भूमि वाले अनुपयोगी राजपूत की क्या कुशलता? उसकी यह बात सुनकर श्रीकरणीजी ने कहा कि यह सब भूमि मुझको तेरी ही दिखाई देती है, तेरे वंशजों और उनके राज्यों का विस्तार इतना अधिक फैलेगा कि न मालूम ऐसे कितने राज्यों का उसमें समावेश हो जायेगा। इस तरह का वरदान सुनकर रिड़मल श्रीकरणीजी के चरणों में गिर पड़ा।

श्रीकरणीजी के ग्वालों द्वारा उनके पशुओं को पानी पिलाने से हौज खाली हो गया। अतः श्रीकरणीजी ने सोचा इससे नगर के सारे पशु प्यासे रह जायेंगे। अत: उन्होंने राव रिड़मल की घोड़ियों को लाव से जुतवा कर हौज भरवाया। इसको देखकर वहाँ खडे लोग आश्चर्यचकित हो गये क्योंकि घोडियों का ताव से जुत कर आगे चलना सर्वथा असम्भव होता है।

अपने पशुओं को पानी पिलाकर श्रीकरणीजी जांगलू से चलकर जालों के जोहड में (जाल वृक्षों के जंगल में) पहुँची, और यहीं पर अपना स्थायी निवास बना दिया। यह स्थान सांखला राजपूतों के शासन काल से घोडों के चरने के लिए सुरक्षित रखा जाता था।

राव कान्हा के सेवकों ने श्रीकरणीजी के स्थायी रुप से जोहड में निवास करने का विचार देखकर राव कान्हा को कहा कि श्रीकरणीजी के स्थायी निवास से जोहड ऊजाड हो जायेगा, सारी घास उनके पशु खा जायेंगे। इस पर राव कान्हा कुद्ध हो गया। सिंढायच दयालदास ने ख्यात देशदर्पण में लिखा है कि-‘अर जिणां दिनां में जांगलू 125 गाँवां सू कानै चूंडावत रै छै सु करनीजी मवेसी लेर जांगलू रा बीड़ में चरावण साव साठीकै सूं पधारिया। राव कानै इणा नूं मनै किया। या मानी नही। तरा माताजी रौ धन जांगलू पीवण आयो सु कानाजी रा आदमियां कानाजी रा हुकम सं पीवण दीनो नहीं। जीसै मंडोवर सूं रिड़मलजी करणीजी रा दरसण सारु जांगलू आया। दरसण कियो। करणीजी रो धन पीयां बिना ऊभो छो आ बात सुण रिड़मलजी घोडा जोतार ऊपर माताजी रो धन पायो। ‘

‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में मुहता नैणसी ने पृ. 385-86 पर इस प्रकार लिखा है-

तठा पठै कितराहेक दिन ताऊ राव कान्है मडोवर राज कीयौ। पछै राव कान्हौं जांगलू साषला ऊपर गयौ छै। तिण समै चारणी करणी कान्हा नु आषा आण बदावण लागी। तरै कान्हौं कही-इणा आषा लीयां कासु हुवै? तरै चारणी कह्यो इणा आषा लीयां राज कमायी होय।

तरै कान्हो कह्यो-राव मांहांरौ कोई आषा सारे छै नहीं राज मांहारी तपसीया रौ छै। तरै चारणी कोप कीयौ। कह्यौ-जो इतरा दिन में राज जाय तो आषा जांणजौ, राज गमायौ। तठा पछै कितराहेक दिन मांहे राव सतै चूंडावत रावत रिणधीर चूंडावत भेलौ हुवौ नै कान्हा कनै मंडोवर लीयौ।

इस तरह मुहंता नैणसी के अनुसार स्पष्ट है कि राव कान्हा ने जांगलू के सांखलों पर आक्रमण करते समय देवी श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति की अवहेलना की। जिसकी वजह से उसका मंडोवर का शासन उससे छिन गया। सम्भवतः इससे क्रुद्ध होकर ही राव कान्हा श्रीकरणीजी को जांगलू के अपने अधिकार क्षेत्र मे ठहरने नहीं देना चाह रहा था। इसलिए उसकी श्रीकरणीजी से तकरार हुई।

राव रिड़मल को नौकोटी मारवाड़ का शासक बनने का वरदान देना:-
जांगलू के जोहड में राजोलाव और अणखोळाव नाम के दोनों तालाबों में पानी सूख गया था। अतः श्रीकरणीजी ने अपने सेवकों को जांगलू के कुँए से पशुओं को पानी पिलाने के लिए भेजा। राव कान्हा श्रीकरणीजी के जोहड में स्थायी निवास करने से पहले ही नाराज था उसने अर्जुन एवं बीजा नाम के ऊदावत राठौड़ों से श्रीकरणीजी के सेवकों को भगवा दिया। इस तरह श्रीकरणीजी के पशु प्यासे ही जोहड में आ गये। इस घटना का समाचार सुनकर राव रिड़मल चूंडासर से जांगलू आया और राव कान्हा को उपालम्भ देते हुए कहा कि तुम्हें मुझसे अथवा श्रीकरणीजी से कोई परेशानी है, गायों से नहीं, गायें तो हिन्दू मात्र के लिये पूज्य है, उनको प्यासी रखकर तुने पाप क्यों कमाया?

दूसरे दिन राव रिड़मल ने जोहड में जाकर श्रीकरणीजी को प्रणाम किया और निवेदन किया कि इस भूमि का मालिक राव कान्हा है इसकी जगह मैं होता तो आपको आधा राज्य भेंट कर देता, मेरे अधिकार में चूंडासर में कुछ भूमि है, वहाँ पधारकर आप ठहरिये, मैं आपकी सेवा करुंगा। रिड़मल की इस भक्ति से श्रीकरणीजी ने प्रसन्न होकर कहा कि शीघ्र ही तू नौकोटी मारवाड़ का शासक बनेगा और राव कान्हा को उसकी दुष्टता का फल मिलेगा वह निवंश रहेगा, यदि परमात्मा की इच्छा यहीं पानी करने की हुई तो हमको चूंडासर जाकर क्या करना है? श्रीकरणीजी के श्रीमुख से वरदान सुनकर राव रिड़मल उनके पैरों में गिर पडा और श्रीकरणीजी की आज्ञा लेकर चूंडासर चला गया। उसी रात जोहड में इतनी जोर से वर्षा हुई कि राजोबाव और अणखोबाव पानी से लबालब भर गये। इस वर्षा से गायों के लिए पानी और घास हो गया और गायें सुखपूर्वक रहने लगी।

सिंढायच दयालदास के अनुसार, ‘ माताजी रिड़मल नू वर दियो। तारा रिड़मलजी कैयो म्हारे जमी आवै तो 10 (दस) गाँवां री सींब सू ओ बीड आप री भेट छै। पछै रिड़मलजी मेवाड गया। ‘

अर्जुन और बीजा को गीदड़मुँह बनाना:-
राव कान्हा श्रीकरणीजी पर रिड़मल को वरदान देने से नाराज था। उसने श्रीकरणीजी को जोहड से निकालने के लिए जांगलू के कुँए पर उनके पशुओं को पानी नहीं पीने दिया। फिर भी श्रीकरणीजी ने जोहड़ में स्थायी निवास के इरादे को नहीं त्यागा तो उसने नाराज होकर अर्जुन और बीजा ऊदावत भाइयों को श्रीकरणीजी को अविलम्ब जोहड से निकाल देने के लिये भेजा। अर्जुन और बीजा ने श्रीकरणीजी को जोहड से निकल जाने के लिये जब असभ्यतापूर्ण शब्द कहे और बिल्कुल अभद्र व्यवहार किया तो श्रीकरणीजी ने उनसे नाराज होकर कहा कि ‘गीदड़मुँहों यहाँ से भाग जाओ’। श्रीकरणीजी के ऐसा कहते ही अर्जुन और बीजा के मुँह गीदड़ों जैसे हो गये। उनके जांगलू पहुँचने पर जब राव कान्हा ने उनके मुँह गीदड़ों की शक्ल में देखे तो वह क्रोधित होकर स्वय युद्ध में जाने की तैयारी करने लगा।

राव कान्हा का वध:-
दूसरे दिन वि. सं. 1475 (1418 ई.) फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को सुबह राव कान्हा 50 सवारों को साथ ले, स्वयं हाथी पर बैठ, श्रीकरणीजी को निकालने के लिये जोहड पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने केलू जी और श्रीकरणीजी से अत्यधिक अपशब्दों का प्रयोग करते हुए जोहड छोडकर कहीं अन्यत्र चले जाने के लिए कहा। श्रीकरणीजी ने कहा कि कान्हा मैं तेरा न कोई नुकसान करती हूँ न तुझसे कोई बाँट बटाती हूँ और न तुझे किसी तरह से परेशान करती हूँ फिर तुम बिना किसी कारण के मुझको क्यों परेशान करते हो? लेकिन कान्हा ने कहा कि मैं कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हूँ। तुम सब अपने पशुओं को लेकर इसी समय यहाँ से चले जाओ। श्रीकरणीजी ने कहा कि मैं आवड़माता की सेविका हूँ उसी की प्रेरणा से यहाँ आयी हूँ अपनी इच्छा से नहीं। आवड़माता की सेवा की इस सन्दूकड़ी (करण्ड) को उठवाकर यदि तुम गाड़ी में रखवा दो तो मैं बिना किसी विलम्ब के अभी यहाँ से चली जाऊंगी। कान्हा ने अपने सेवकों को सन्दूकड़ी उठवाकर गाड़ी में रख देने का आदेश दिया। अनेक सेवकों ने सन्दूकड़ी को उठाने का प्रयास किया। लेकिन सन्दूकड़ी उठाना तो दूर रहा, हिली तक नहीं। इस पर कान्हा ने अपने हाथी से खींचवाया। हाथी के खींचने से भी सन्दूकड़ी नहीं हिली। लेकिन इस खींचातानी में उसका (सन्दूकड़ी) का एक पाया टूट गया। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि यह करण्ड का पाया नहीं टूटा है, बल्कि कान्हा तेरी उम्र खण्डित हो गई है। यह सुनकर कान्हा और भी ज्यादा क्रोधित हो गया और कहने लगा तेरे जैसी जादू-टोना करने वाली सैकडों औरतें देखी है। तेरी इन बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होगा। यदि तू वास्तव में देवी का रुप है, तो बता मेरी मृत्यु किस दिन होगी? श्रीकरणीजी ने कहा मूर्ख हठ करके अपना नुकसान क्यों करना चाहता है? लेकिन कान्हा बार-बार हठ पूर्वक अपनी मृत्यु का समय पूछने लगा। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि आज के छठवें महीने तेरी मृत्यु है। लेकिन जब कान्हा ने बार-बार हठ करके मृत्यु का समय तुरन्त बताने के लिये कहा तो श्रीकरणीजी ने क्रोधित होकर जाल के वृक्ष की एक लकड़ी तोड़ी और उससे एक रेखा जमीन पर खींच कर कहा, जैसे ही तू इस रेखा को उलांघेगा, तेरा अन्त हो जायेगा। कान्हा ने रेखा उलांघने के लिये तुरन्त घोडे की ऐड लगाई। रेखा को उलांघते ही सामने से एक सिंह ने प्रकट होकर कान्हा को थप्पड मारा जिससे उसी समय उसके प्राण पखेरु उड गये। इस दृश्य से भयभीत होकर अर्जुन और बीजा बिना मारे ही मर गये। शेष सब सेवक सिंह के भय से भयभीत होकर वहाँ से बेतहासा भागे। आगे जाकर जब उन्होंने पीछे मुडकर देखा तो वहाँ सिंह की जगह स्वयं श्रीकरणीजी को हाथ में त्रिशूल लिये खडे देखा।

ऐसी चमत्कारिक घटनााओं पर आज के वैज्ञानिक युग में सहज ही विश्वास नहीं किया जाता परन्तु ‘लक्ष्मण रेखा’ और खम्भे से नृसिंह के प्रकट होने की अति प्राचीन कथाओं पर श्रद्धा और विश्वास तो अब भी अडिग रुप से बना हुआ है। लोकोत्तर देवी चमत्कार ही लौकिक घटनाओं को देवत्व से अनुप्रमाणित करते है। श्री करणी माताजी के हाथ की सन्दूकड़ी (मंजुषा) आज भी देशनोक के तेमडाराय मंदिर में पूजा हेतु रखी हुई है जिसका एक पाया खंडित है। इस मंदिर की सेवा-पूजा लाखण (लक्ष्मणराज) के वंशजों द्वारा की जाती है।

मारवाड़ रा परगना री विगत (मुंहता नैणसी) में पृ. 385-86 पर लिखा गया है कि मंडोवर के शासक कान्हा द्वारा श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति की अवहेलना की गई, जिसकी वजह से उसका मंडोवर का राज्य छीन गया। जिससे सम्भवत. कान्हा क्रुद्ध हो गया और अपने अधिकार वाले क्षेत्र जांगलू से श्रीकरणीजी को भगाना चाहता था। जिससे श्रीकरणीजी ने उसे शाप दे दिया और वह मारा गया। जिसकी पुष्टि ख्यात देश दर्पण (सिंढायच दयालदास) में पृ. 17 जोधपुर री ख्यात (सं. रघुवीरसिंह) में पृ. 42, जोधपुर राज्य का इतिहास (जी.एच.ओझा) में पृ. 214-15, श्रीकरणी चरित्र (किशोरसिंह बार्हस्पत्य) में पृ. 43-45 आदि ऐतिहासिक ग्रंथों तथा श्रीकरणीजी सम्बन्धित ग्रंथों एव डिंगल साहित्य से भी होती है।

रिड़मल का जांगलू का राजा बनना:-
उसी दिन रिड़मल श्रीकरणीजी के पास आया। श्रीकरणीजी ने कहा कि रिड़मल मैंने जांगलू में तुझसे कहा था कि जो जमीन तू देख रहा है वह सब एक दिन तेरी होगी। आज से वह जमीन तेरी है और तू जांगलू का राजा हुआ। तू कुछ समय पश्चात् मंडोवर की गद्दी का भी मालिक बनेगा। यह कहकर उन्होंने अपनी ही कुटिया में रिड़मल को जांगलू और मंडोवर के राजा के रुप में अपने हाथ से राजतिलक कर दिया। इसके बाद श्रीकरणीजी ने उसे जांगलू यह कहकर भेजा कि यदि कान्हा की माँ तुझसे कोई शर्त स्वीकार करावें तो तू मान लेना। जांगलू जाने पर कान्हा की माँ ने कहा कि रिड़मल यदि तू छापे में मेरी सेवा करने का प्रण करे तो मैं तुझको अपना दत्तक पुत्र बना लूँ। श्रीकरणीजी के आदेशानुसार रिड़मल ने यह शर्त स्वीकार कर ली और वि.सं. 1475 (1418 ई.) फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को जांगलू का राजा बन गया।

श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से रिड़मल का मंडोवर पर अधिकार:-
श्रीकरणीजी ने साठिका परित्याग कर जोहड में जाते हुए मार्ग में कुछ देर जांगलू में विश्राम किया तो राव रिड़मल भी वहीं विद्यमान था। उसने वहाँ श्रीकरणीजी से नौकोटी मारवाड़ का स्वामी बनने का वर प्राप्त किया था। जांगलू के अत्याचारी शासक राव कान्हा का श्रीकरणीजी के द्वारा वि.सं. 1475 (1418 ई.) फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को वध हुआ। उसके पश्चात् जांगलू का शासक राव रिड़मल बना।

श्रीकरणीजी से मंडोवर विजय का वरदान लेकर राव रिड़मल ने रावसत्ता को पराजित कर मंडोवर पर भी अधिकार कर लिया। इससे पूर्व भी श्रीकरणीजी के वरदान से उत्साहित होकर उसने प्रयत्न किया था। परन्तु उनकी (श्रीकरणीजी की) दी हुई अवधि का पालन न करने के कारण असफल हो गया। वि. सं. 1484 (1427 ई.) को राव रिड़मल ने मंडोवर पर अधिकार किया।

राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर (राज.) के सौजन्य से-
बीकानेर के महाराजा सूरसिंह के समय की वि.सं. 1671 की एक बही जिसकी नकल वि.सं. 1817 में उतारी गई है, उसमें राव रणमल से लगाकर बीकानेर के राजाओं की ओर से समय-समय पर चारणों को सासण रुप में दिये गये 50 गाँवों का विवरण उपलब्ध है इसके बाद चार गाँव और दिये गये है। (महाराजा सूरतसिंह के समय में)

01 गाँव देसणोक सासण श्री करणीजी नु राया राव श्री रिणमलीजी रो दत्त श्री करणीजी सु कान्है चांडावत रे राज थका श्री रिणमलजी अरज कीवी म्हारे जायगा हुवै तो दस गाँव सासण आपरी नजर करु ते सु या रा मनोरथ माताजी सिध कीया ताहा रा रावा कयो अबे गांव हाजर छ तद माताजी कयो पीहर दस गाँवां रो एवज ले गाँव पूगतो करो तद दस गाँवां री सीम भेली कर देसणोक गाँव दीनो। चेत सुद 7 सवत् 1487 रा

दोहा-
सांसण थप्पि सुकाज, देसाणो रणमल सुदत्त।
रिणमलवालो राज, सधरि कियो मेहासूद।।

राजस्थान अभिलेखागार, बीकानेर से प्राप्त वि. सं. 1671 की सासण की बही से भी ज्ञात होता है कि श्रीकरणीजी ने राव रिड़मल को वरदान दिया जिसकी वजह से वह जांगलू व मंडोवर का शासक बना और उसने दस गाँवों की सीम मिलाकर एक गाँव देशनोक उनको अपने वचनानुसार भेंट किया।

राव रिड़मल का मारा जाना:-
महाराणा मोकल के शत्रुओं को मारकर रिड़मल बालक कुंभा के नाम पर शासन करने लगा। मेवाड के उमरावों को यह बात असह्य लग पडी। उन्होंने दादी हंसकुँवरी से इस बात की शिकायत की। दादी हंसकुँवरी ने गुप्त रुप से चूंडा सिसोदिया को मांडू से बुलवा दिया और राव रिड़मल के षड्यंत्रों का पूरा विवरण उसको कह सुनाया। वि.सं. 1495 (1438 ई.) को महपा पँवार, अक्का चाचावत और उसकी माता (रिड़मल की रखेल) ने मिलकर षड्यंत्र से रिड़मल की हत्या कर दी। राव रिड्‌मल ने मरते-मरते महपा पँवार और अक्का चाचावत को मार डाला। राव रिड़मल का ज्येष्ठ पुत्र जोधा उस समय हवेली में सोया हुआ था। जोधा को सचेत करने के लिए रिड़मल के पक्षपाती एक डूम ने जोर से दोहा उचारा-

चूड़ा अजमल आविया, मांडू हूँ धक आग।
जोधा रणमल मारिया, भाग सकै तो भाग।।

डूम द्वारा दिये गये संकेत को समझकर जोधा अपने सात सौ सवारों और सभी 24 भाइयों के साथ मंडोवर की तरफ भागा। चूंडा सिसोदिया ने उसका पीछा किया। मंडोवर पहुँचते-पहुँचते जोधा के साथ केवल सात ही सवार बचे और मंडोवर पर चित्तौड के चूंडा सिसोदिया का अधिकार हो गया। इस प्रकार से वि.सं. 1495 (1438 ई.) में परास्त और विवश होकर जोधा काहुनी गाँव में जाकर रहने लगा, जो वर्तमान में बीकानेर से 10 कोस की दूरी पर स्थित है।

मंडोवर पर जोधा का अधिकार:-
तदन्तर जोधा ने अपने मौसा सैत्रावा के रावत लूणा के पास जाकर 200 घोडे मांगे। महाराणा का आश्रित होने के कारण रावत ने तो इंकार कर दिया, परन्तु उसकी पत्नी ने किसी तरह से 140 घोडे दिलवा दिये। सवारों को साथ लेकर जोधा मंडोवर पहुँच गया। परन्तु पीछे से चूंडा सिसोदिया भी दबाता हुआ चला आ रहा था। इसलिये अपना बहुत सा सामान लेकर जोधा श्रीकरणीजी के पास चला गया। वहाँ जाकर उनसे अपनी दुःख गाथा श्री करणीजी को सुनाई। श्रीकरणीजी ने कहा कि रिड़मल ने लोभ के वश अपना विवेक खो दिया था और मुझसे कुछ भी नहीं पूछा। उसने अपने भानजे का राज्य हथियाना चाहा, यह अन्याय था, इसलिये उसका नाश हुआ। इसके बाद जोधा श्रीकरणीजी की आज्ञा से काहुनी गाँव में चला गया और वहाँ उसने अपने पिता रिड़मल का नुक्ता (मृत्यु भोज) किया जिसमें सभी प्रमुख राठौड़ सरदार एकत्र हुए और उन्होंने जोधा को मारवाड़ का स्वामी स्वीकार किया। इस अवसर पर पगडी के दस्तुर के लिए जोधा ने श्रीकरणीजी को निमंत्रित किया। श्रीकरणीजी की ओर से उनके तीनों पुत्र पुण्यराज, नगराज और सिद्धराज तथा झगडू डोसी आये, राजतिलक श्रीकरणीजी के बड़े पुत्र पुण्यराज ने किया और श्रीकरणीजी के दिये हुए झडबेरी के पाँच पत्ते जोधा को दिये। उसने उन पत्तों को सिर पर चढाया। इसके बाद उसने काहुनी से देशनोक जाकर श्रीकरणीजी के चरणों में प्रणाम किया यह घटना कार्तिक कृष्ण 5 वि.सं. 1496 (1439 ई.) की है। श्रीकरणीजी ने जोधा को आदेश दिया कि जब तक मैं न कहूँ तब तक मंडोवर की ओर मत जाना। इस कारण उसको 12 वर्ष तक काहुनी में ही रहना पडा। तदन्तर वि.सं. 1510 (1453 ई.) में श्रीकरणीजी ने उसको आज्ञा दी कि अब समय ठीक आ गया है इसी समय मंडोवर पर कूच कर दो। इस पर जोधा अपने सभी राठौड़ों को साथ लेकर मंडोवर के लिये रवाना हुआ। मार्ग में पडने वाले सभी राजपूत जागीरदार अपना-अपना दलबल लेकर उसके साथ हो लिये। यह सैन्य बल रात्रि के समय मंडोवर पहुँचा। वहाँ सिसोदिया का अधिकार था परन्तु कालू मांगलिया नामक व्यक्ति, जो जोधा का परम विश्वस्त साथी था, छद्म रुप से सिसोदियों में मिलकर रहता था। उसने जोधा को कहा कि किले में प्रवेश करने के लिए यह रात्रि का समय ही सबसे उपयुक्त है। अत 1,000 सैनिकों सहित जोधा तो किले के द्वार पर ही रहा और 9,000 सैनिक रात के अंधेरे में किले के चारों ओर फैल गये। कालू मांगलिया ने चित्तौड से आया हुआ विशेष संदेश पहुँचाने के लिये किलेदार से द्वार खुलवा दिया। तुरन्त ही वहाँ जोधा ने अपने 1,000 सवारों और मांगलिया सहित दुर्ग में प्रवेश कर लिया। उसके सभी सैनिकों ने सिसोदिया रक्षकों पर हमला बोल दिया जिसमें 500 मेवाडी सैनिक मारे गये तथा मंडोवर पर जोधा का अधिकार हो गया। इसी तरह चौकड़ी थाना के रक्षकों को भी राठौड़ों ने मार दिया या भगा दिया। ठाकुर नाहरसिंह जसोल ने चारणा री बाता के पृ. 17 पर लिखा है कि, देवी करणीजी रे प्रताप सूँ जोधा ने मारवाड़ अर बीका ने बीकानेर रो राज मिल्यो।

जोधपुर के नगर एवं दुर्ग की स्थापना:-
इस प्रकार श्रीकरणीजी के वरदान से वि.सं. 1510 (1453 ई.) में मंडोवर पर पुनः राठौड़ों का अधिकार स्थापित हो गया। जब 5 वर्ष में राज्य अच्छी तरह जम गया तो जोधा ने मंडोवर से 5 मील की दूरी पर स्वच्छ पानी के एक पहाडी झरने के पास दुर्ग और नगर निर्माण की बात सोची। उस स्थान पर चिडियानाथ योगी रहता था। उसने जोधा के मन में अनेक आकांक्षाए उत्पन्न करने की चेष्टा की, परन्तु जोधा को श्रीकरणीजी की शक्ति पर पूर्ण विश्वास था इसलिये वह अपने निश्चय से विचलित नहीं हुआ। उसने किले की आधारशिला श्रीकरणीजी से ही रखवाने का मन्तव्य बनाया और एक आमंत्रण पत्र लिखकर मथानिया गाँव के अमरा चारण और तिंवरी के पुरोहित के हाथ उनके (श्रीकरणीजी) के पास भेजा। श्रीकरणीजी ने इस आमंत्रण पत्र को स्वीकार किया और देशनोक से मंडोवर आये। तब राव जोधा ने गाँव चौपासनी तक पगमण्डणा बिछाकर उनका स्वागत किया और वि.सं. 1515 (1458 ई.) ज्येष्ठ सुदी ग्यारस शनिवार को उन्होने उस पर्वत पर जहाँ आज जोधपुर बसा हुआ है, अपने हाथ से किले की नींव रखी।

राव जोधा ने जोधपुर के किले की नींव श्रीकरणीजी के हाथों से शिलारोपण कराकर सम्पत्र करवाई थी जिसका उल्लेख प्राचीन ख्यातों एव डिंगल-गीतों में अनेक जगह स्पष्ट मिलता है।

मुहता नैणसी कृत ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ भाग प्रथम में परिशिष्ट 1 (क) ‘कमठा री विगत’ पृ. 559 पर भी इसका उल्लेख हुआ है।

‘श्री जोधपुर रो किलो स. 1515 रा जेठ सुद 11 सनीवार राव जोधाजी नीम दीवी। श्रीकरनीजी पधार नै सो विगत-पहला तो चौबुरजो जीवरखो कोट करायी, चिड़ीया-टूंक ऊपर। ‘

उपर्युक्त ख्यात में उल्लेखित तथ्य पूर्णतः सही है और इसकी पुष्टि प्राचीन साहित्यिक गीतों से होती है। महाराजा मानसिंह के समकालीन कवि खेतसी बारहठ कृत करणीजी विषयक डिंगल गीत ‘ बड़ौ सांणौर’ में इसका स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार है-

तापियौ नाथ चिड़िया तबै ठौड़ तद, समूरत मापियौ नकूं सोधै।
अचल मेहासधू हुकम तद आपियौ, जदै गढ थापियौ राव जोधो।।
अबद पनरोतरै समत पनरै इला, वाघ चढणोतरै वेद वरनी।
गेह बड़ भाग किनियां तणै गोत रै, कला साजोत रै रुप करनी।।

मुहता नैणसी कृत ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ भाग तृतीय में पृ. 70 पर भी उल्लेख हुआ है कि गढ की स्थापना के अवसर पर करणीजी ने स्वयं पधारकर जोधा को आशीर्वाद दिया था। इसकी साक्षी का एक प्राचीन गीत भी मिलता है-

विमल देह धरयां, सगत जंगलधर बिराजै,
धान देसांणा श्री हथां थाया,
उठै कवि भेजियो, राव करवा अरज,
जोधपुर पधारे जोगमाया।

जिस स्थान पर यह किले की नींव रखी गई उस स्थान पर जोधा ने एक पुख्ता दिवार बनवाई और उसका नाम ‘ राव जोधा का फलसा’ रखा। उस समय राव जोधा ने श्रीकरणीजी को भेंट कर अपने समस्त भाइयों सहित पगडियाँ उनके चरणों में रखी। जोधा और उसके परिवार जनों ने अनन्त काल तक राज्य स्थिर रहने का वरदान मांगा। तब श्रीकरणीजी ने कहा संसार नश्वर है, जो कुछ बनता है वह बिगडता भी है, यह नियम अटल है, फिर भी मेरा वरदान है कि 28 पीढियों तक तुम्हारी संतानें इस पृथ्वी का उपयोग करेंगी। बाद में, वे लोग भोमिये होकर ही रहेंगे। जोधा के प्रार्थना करने पर श्रीकरणीजी कुछ दिन वहीं पर रही और फिर दो-तीन दिन अमरा बारहठ की विनती पर मथाणिया में ठहरी। जिसका अध्ययन चतुर्थ अध्याय में किया जायेंगा। मथानिया से खारी (पलासनी) होते हुए श्रीकरणीजी सुन्धामाता के दर्शन करने गये। वहाँ से सीधे देशनोक लौट गये।

(स) श्रीकरणीमाता एवं बीकानेर राज्य:-

राव बीका द्वारा जोधपुर का परित्याग करना:-
एक दिन राव जोधा दरबार में बैठा हुआ था, बीका भीतर से आया और काधल के पास बैठ गया। बीका और काधल आपस में कान में बात करने लगे। जोधा ने यह देखकर पूछा आज चाचा भतीजे क्या सलाह कर रहे हैं? क्या कोई नया ठिकाना जीतने की बात हो रही है? कांधल ने उत्तर दिया आपके प्रताप से यह भी हो जायेगा। उन दिनों जांगलू का नापा साखला भी दरबार में आया हुआ था। उसने बीका से कहा परगना जांगलू बिलोचों के आक्रमण से कमजोर हो गया है और कुछ सांखले उसका परित्याग कर अन्यत्र चले गये हैं। यदि आप चाहें तो वहाँ सरलता से अधिकार किया जा सकता है। राव जोधा को भी यह बात पसन्द आयी और उसने बीका तथा कांधल को नापा सांखला के साथ जाकर नया राज्य स्थापित करने के लिए आज्ञा दे दी। तब बीका ने अपने चाचा कांधल, रुपा, माडण, मडला, नाथ भाई जोगा, बीदा, पडिहार बेला, नापा साखला, महता लाला, लाखण, बच्छावत, महता वरसिंह तथा अन्य राजपूतों के साथ वि.सं. 1522 (30 सितम्बर, 1465 ई.) आश्विन सुदी 10 को जोधपुर से नये साम्राज्य की स्थापना का प्रण लेकर प्रस्थान किया। कहते हैं इस अवसर पर बीका के साथ 100 घोडे तथा 500 राजपूत थे।

बीका को श्रीकरणीजी द्वारा वरदान देना:-
बीका अपने पूर्वज चूंडा, रिड़मल तथा पिता जोधा की तरह श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त था। अतः मंडोवर होता हुआ बीका सीधा देशनोक पहुँचा, जहाँ उसने श्रीकरणीजी के दर्शन किये और अपना जोधपुर परित्याग का मन्तव्य बतलाया। तब श्रीकरणीमाता ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि तेरा प्रताप जोधा से सवाया बढेगा और बहुत से भूपति तेरे चाकर होंगे। राव बीका ने तत्पश्चात् श्रीकरणीजी के आदेशानुसार तीन वर्ष चूड़ासर में निवास किया।

शेखा को रंगकुँवरी के विवाह का प्रस्ताव:-
वि.सं. 1522 (1465 ई.) कार्तिक सुदी 14 को पूगल का स्वामी शेखा भाटी, जो श्रीकरणीजी का परम भक्त था, श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक आता है। उस दिन श्रीकरणीजी ने शेखा भाटी को कहा कि तू अपनी पुत्री रंगकुँवरी का विवाह बीका से करवा दे क्योंकि बीका का प्रताप बहुत बढेगा। तब शेखा भाटी ने कहा कि बाईजी (श्रीकरणीजी) आपका आदेश शिरोधार्य है किन्तु मुझे यह बात मंजूर नहीं है क्योंकि मैं पूगल जैसे विशाल राज्य का अधिपति हूँ और बीका अपने पिता के राज्य का निर्वासित राजकुमार है। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि तेरे जैसे हजारों बीका के सेवक होंगे तू कितनी ही डींगें हाक रंगकुँवरी का विवाह तो बीका ही के भाग्य में लिखा है, तेरा विरोध कब तक चलता है? इस पर राव शेखा श्रीकरणीजी के पैर छूू कर पूगल को रवाना हुआ।

दयालदास री ख्यात के अनुसार अरु जिणां दिनां मैं सांखलो नापौ चीतोडसूं जांगलू आयौ, सू औ पण जोधपुर हाजर है। पीछे इण बीकैजीनूं सोय तनै परणावसा। पीछे सेखौ राव पूगलरी तैनू श्रीकरणीजी सोयापमैं भाई कैय वतलायौ हौ अरु वर दियौ हौ सू सेखौ पण चवदसनै श्रीकरणीजी रौ दरसण करण, देसणोक आवै। तद श्रीकरणीजी दूजी चवदस सैखैनूं कयौ, ‘सेखा, थारी बेटी रंगकवर बीकौनूं परणाय। बीकैरो प्रताप घणौ वधसी। ” तद सैखे कयौ ” और तौ आप कहौ सौ माथे ऊपर है पण आ वात तौ कबूल नहीं। ” तद श्रीकरणीजी कयौ, ‘ रै सेखा, तैं जेडा हजारों बीकै रा पायनामी हुसी। ”

इस प्रकार उक्त ख्यात से स्पष्ट होता है कि श्रीकरणीजी ने राव शेखा को वि.सं. 1522 कार्तिक सुदी 14 को अपनी पुत्री रंगकुँवरी का विवाह बीका से करा देने का कहा था क्योंकि वि.सं. 1522 की आश्विन सुदी चतुर्दशी तक बीका जोधपुर से देशनोक के लिये आ चुका था। ख्यात में अगली चतुर्दशी को श्रीकरणीजी ने शेखा को अपनी पुत्री बीका से ब्याह देने का कहा गया है। इसी तरह उक्त सभी ग्रंथों में श्रीकरणीजी द्वारा शेखा को अपनी पुत्री रंगकुँवरी का विवाह बीका से करा देने का कहा गया है।

राव शेखा का मुलतान में कैद होना:-
कुछ दिनों बाद ऐसा संयोग हुआ कि पूगल का राव शेखा भाटी, जो बड़ा लुटेरा था और इधर-उधर लूट-मार किया करता था। श्रीकरणीजी ने उसे कई बार लूट-मार का धंधा छोड़ देने का उपदेश भी दिया था। फिर भी वह अपनी वृत्ति से बाज नहीं आया। एक बार 25 ऊटों पर सवार होकर मुलतान की ओर चला गया। वहाँ से लूट-मार कर जब लौट रहा था तो वहाँ के सुबेदार की सेना से उसकी मुठभेड़ हो गई जिसमें उसके बहुत से साथी काम आये तथा वह पकडा गया और उसे मुलतान की कैद में डाल दिया गया। जहाँ अनुमानतः दो वर्ष तक उसे वहाँ कैद में रहना पडा।

एक दिन शेखा की स्त्री ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी से राव शेखा को जेल से छुडाने के लिये निवेदन किया। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि यदि रंगकुँवरी का विवाह बीका से करना तुम्हें स्वीकार हो तो शेखा जेल से मुक्त हो सकता है। शेखा की स्त्री ने अपने पुत्र हरु भाटी, परिवार और स्वजनों से परामर्श करके श्रीकरणीजी से निवेदन किया कि रंगकुँवरी का विवाह तो आपकी इच्छानुसार राव बीका से कर देंगे लेकिन राव शेखा की अनुपस्थिति में कन्यादान कौन करेगा? इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि तुम विवाह की तैयारी करो, कन्यादान के समय राव शेखा को जेल से छुडाकर लाना मेरा काम है।

श्रीकरणी द्वारा शेखा भाटी को कैद से मुक्त करवाना:-
इधर पूगल में बीका तोरण मार कर फेरों के लिये अन्दर बैठा हुआ था कि उधर राव शेखा ने जेल के दो वर्षो के असह्य कष्टों से परेशान होकर जेल से मुक्त कराने के लिये श्रीकरणीजी से मार्मिक शब्दों में प्रार्थना की। श्रीकरणीजी दैविक शक्ति से अतिशीघ्र मुलतान पहुँची और जेल मे शेखा से कहने लगी यदि तुम शपथ पूर्वक प्रतिज्ञा करो कि भविष्य में डकैती जैसा घृणित कार्य नहीं करोगे और गरीबों को कभी नहीं सताओगे तो तुम्हें अभी बन्धन मुक्त किया जा सकता है। शेखा ने श्रीकरणीजी के पैर छुकर शपथ लेते हुए विश्वास दिलाया कि भविष्य में वह डकैती और गरीबों को सताये जाने का काम नहीं करेगा। इस पर श्रीकरणीजी ने उसको बन्धन मुक्त कराके अपनी दैविक शक्ति के बल पर क्षण भर में पूगल पहुँचा दिया। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने वि. सं. 1524-25 (1467-68 ई.) में शेखा भाटी को मुलतान की कैद से मुक्त कराया।

दयालदास के अनुसार

पीछे फैरा लैणरी वखत श्रीकरणीजी मुलतान पधार राव सैखैजीनूं लाया। अरु कवर बीकैजीनूं परणाया।

मुंशी सोहनलाल के अनुसार-

रसूम शादी होने लगी कन्यादान के वक्त जब दुलहिन के बाप की जरुरत हुई तो करणीजी आनन् फानन में मुलतान गई और शेखू को ले आई।

कैप्टन पी. डब्ल्यु. पाउलेट के अनुसार-

“Karniji flew off to multan brought shekho and caused him to complete the marriage”

कविराज श्यामलदास के अनुसार-

पूंगल के भाटी शैखा ने श्रीकरणी देवी के समझाने से अपनी बेटी बीका को ब्याह दी।

सिंढायच दयालदास के अनुसार (ख्यात देश दर्पण पृ. 233)-

नै अठै श्रीकरणीजी मुलतान सू पूगल कोस 335 तीन सै छै सु पोहर 1 में सेहरां री वखत राव सेखैजी ने लाया नै सेखैजी रे हाथ सूं सेहेरां दियारा।

K.M.Panikkar book ‘His Highness The Maharaqja of Bikaner a biography’; Page No 4; “soon after his refusal Sekho was captured ……. Helping to release her father.”

इतिहासकारों में इस घटना के समय को लेकर गहरा विरोधाभास दिखाई पडता है। किशोरसिंह बार्हस्पत्य (श्रीकरणी चरित्र) ने वि. सं. 1539 हरिसिंह भाटी (पूगल का इतिहास) ने वि. सं. 1526 तथा दयालदास सिंढायच (ख्यात देश दर्पण) ने वि. सं. 1521 माना है। ये सभी संवत् गलत प्रतीत होते हैं क्योंकि बीकानेर के इतिहास के समस्त स्त्रोतों से ज्ञात होता है कि राव बीका के रंगकुँवरी की कोख से लूणकर्ण का जन्म वि. सं. 1526 माघ सुदी 10 को हुआ। अतः हरिसिंह भाटी और किशोरसिंह बार्हस्पत्य का बताया संवत् पूर्णतः गलत है इसी तरह दयालदास का संवत् भी गलत प्रतीत होता है क्योंकि वि. सं. 1521 को तो बीका ने जोधपुर का भी परित्याग नहीं किया था। समस्त स्त्रोतों का शोधपूर्वक अध्ययन करते हैं तो यह घटना वि. सं. 1524-25 के आस-पास की प्रतीत होती है क्योंकि बीका ने वि. सं. 1522 आश्विन सुदी 10 को जोधपुर का परित्याग किया। फिर कुछ महिनों बाद शेखा मुलतान में पकडा गया और कैद में डाल दिया गया। कहा जाता है कि शेखा भाटी करीब दो वर्ष तक मुलतान की कैद में रहा। अत: सही प्रतीत होता है कि श्रीकरणीजी ने शेखा को वि. सं. 1524-25 के आसपास कैद से मुक्त कराया होगा और उसकी पुत्री का विवाह बीका से करवाया। जिससे बीका को लूणकर्ण नामक पुत्र वि. सं. 1526 माघ सुदी 10 को हुआ।

बीका का रंगकुँवरी के साथ विवाह कराना:-
इस समय बीका और रंगकुँवरी फेरों में बैठे थे। हथलेवे का समय था। श्रीकरणीजी ने शेखा के हाथ में कन्या का हाथ देकर वर के हाथ में रखवा दिया और उसको सपत्नीक मंडप में बैठाकर उसके हाथ से कन्यादान करवाया। बिना किसी बाधा के राव शेखा के हाथ से विवाह सम्बन्धित सभी कार्य सम्पन्न हो गये।

बीकानेर राज्य का इतिहास भाग-1 में इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने राव शेखा को बीका द्वारा मुलतान की कैद से छुडवाना बताया है जो उनकी इतिहास लेखन में भारी भूल कहे तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

प्रथम प्रश्न उपस्थित होता है कि बीका ने केवल रंगकुँवरी से विवाह के खातिर अपनी जान जोखिम में क्यों डाली? जबकि राव शेखा ने स्पष्ट रुप से अपनी बेटी रंगकुँवरी के विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। अगर वह राव शेखा को छुडाकर भी ले आता तो भी शेखा रंगकुँवरी का विवाह उसके साथ करने वाला नहीं था।

दूसरा प्रश्न यह है कि वि. सं. 1524-25 (1467-68 ई.) के आस-पास बीका इतना शक्तिशाली कैसे हो गया? जो कि मुलतान जैसे सशक्त राज्य से टक्कर ले सके। जबकि दो वर्ष पूर्व जब वह जोधपुर छोडकर आया था। तब उसके पास सिर्फ 100 सवार थे और कुछ गाँव चूंडासर के थे और 84 गाँव जांगलू प्रदेश के थे। दो-तीन वर्षो में उन्होंने ऐसी कौनसी सेना का संगठन कर लिया जो जांगलू से 200 मील दूर मुलतान राज्य पर आक्रमण कर सकती थी? उनके बीच में लम्बा चौडा रेगिस्थान और पूगल का राज्य पडता था, जहाँ पानी एवं रसद की अनेक कठिनाइयाँ थी। बीका के आर्थिक साधन नगण्य थे जबकि मुलतान का हुसैन खा लगा बहुत शक्तिशाली था, बीका की शक्ति इतनी नहीं थी कि वह मुलतान को जीत सके, न ही कभी बीकानेर के इतिहास में किसी ने मुलतान को जीता है। यदि बीका ने मुलतान पर अधिकार किया यह भी मान ले तो वह ऐसे ऊपजाऊ और सरसब्ज क्षैत्र को छोडकर वापस रेगिस्तान (जांगलू प्रदेश) में क्या लेने आया था? जबकि अभी तक उसने अपना नया राज्य भी स्थापित नहीं किया था। बीका के लिए तो जांगलू में रहो या मुलतान में दोनों ही प्रदेश नये थे। बीका मुलतान ही बसा रहता, ताकि आने वाली पीढियों को अकाल और अभाव से राहत मिलती।

ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन करने तथा उस समय की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो सही प्रतीत होता है कि राव बीका उस समय इतना शक्तिशाली नहीं था और बीका बिना किसी वजह क्यों अपनी जान जोखिम में डालकर मुलतान से शेखा को छुडाने का प्रयास करता? यदि वह ऐसा करता तो सम्भवतः स्वयं भी मुलतान की कैद में होता।

ऐतिहासिक ग्रंथ दयालदास री ख्यात भाग-2 में पृ. 4-5, बीकानेर राज्य का गजेटियर (पाउलेट महोदय) में पृ. 2-3, तारीख बीकानेर (मुंशी सोहनलाल) में पृ. 91-92, ख्यात देश दर्पण (सिंढायच दयालदास) में पृ. 232, पूगल राज्य का इतिहास (हरिसिंह भाटी) में पृ. 286-290, श्रीकरणी चरित्र (किशोरसिंह बार्हस्पत्य) में पृ. 78-83; राजस्थान के सूरमा (तेजसिंह तरूण) के पृ. 48 आदि ग्रंथों तथा श्रीकरणीजी से सम्बन्धित समस्त ऐतिहासिक एव काव्य ग्रंथों में श्रीकरणीजी द्वारा राव शेखा को मुलतान से छुडाकर लाने तथा बीका के साथ रंगकुँवरी का विवाह कराने का उल्लेख मिलता है। यही कारण है कि जिसकी वजह से तो वि.सं. 2004 (1947 ई.) तक मुलतान से ‘मामाजी का सिलाड’ श्रीकरणीजी को चढाने के लिए देशनोक आती थी, नहीं तो मुलतान के मुसलमानों का हिन्दू देवी श्रीकरणीजी को खाजरु (बलि हेतु बकरा) भेजने से क्या तुक? अर्थात् मुसलमान के पीरों एव मुसलमानों ने श्रीकरणीजी की अद्‌भुत दैवी शक्ति को माना जिसकी वजह से खाजरु देशनोक श्रीकरणीजी को चढाने के लिए भेजते थे। भारत विभाजन के बाद ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो गई कि यह प्रथा बन्द हो गई।

इस प्रकार श्रीकरणीजी ने राव शेखा से लूट-मार की प्रवृत्ति छुडवाई तथा भाटियों एव राठौड़ों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करवा दिये जिससे बीका का साम्राज्य स्थापित करने का काम सरल हो गया। श्रीकरणीजी की आज्ञा से राव बीका और शेखा के पुत्र हरु ने परस्पर एक दूसरे की सहायता करने की प्रतिज्ञा की।

कहा जाता है कि मुलतान से पूगल पहुँचकर श्रीकरणीजी ने किले के पूर्वी प्रवेश द्वार पर विश्राम किया और द्वार की दाहिनी दिवार के पास अपने हाथ से त्रिशूल को जमीन में गाडकर स्थापित किया और वचन दिया कि जब तक यह त्रिशूल यहाँ गडा रहेगा तबतक पूगल में भाटियों का राज बना रहेगा। यह पिछले 500 वर्षों से उसी स्थान पर गडा हुआ है। कहते है कि जब इसे देवी श्रीकरणीजी ने भूमि में गाडा था तब उसकी ऊँचाई आदमी के बराबर थी, अब जमीन से केवल एक या डेढ फुट ऊपर है।

राव शेखा के द्वारा अपने मंत्रियों को निर्वासित करना:-
राव शेखा भाटी के यह विवाह नहीं चाहते हुए भी हो गया। इस पर शेखा ने अपने प्रधान गोगली भाटी, पाऊ भाटी और उपाध्याय को बुलाकर कहा कि मेरा पुत्र तो अनुभवविहिन नवयुवक था, लेकिन तुम लोगों ने वृद्ध अनुभवी होकर मेरी पुत्री का विवाह सम्बन्ध बीका के साथ स्थिर करने की अनुमति क्यों दी, अब वह किस राज्य में पहुँचकर अपना सेहरा खोलेगी? मैं इस सम्बन्ध में प्रारम्भ से ही विरुद्ध था, फिर भी तुमने जानबुझ के मेरी इच्छा के विरूद्ध कार्य किया। इसलिये तुम तीनों मेरे राज्य में लौटकर फिर कभी न आना। ये तीनों मंत्री सीधे देशनोक श्रीकरणीजी के पास गये। इनको श्रीकरणीजी ने बीका की सेवा में भेज दिया। बीका ने कुछ वर्ष उनको अपने पास रखकर बीकानेर राज्य की स्थापना के अनन्तर देशनोक के समीप ‘जेगलो’ गाँव गोगली भाटी को, ‘गीगासर’ और ‘आँबासर’ पाऊ भाटी को तथा ‘मेघासर’ और ‘कोल्हासर’ उपाध्याय को देकर उनका पट्टा कर दिया। वे गाँव अब तक उनके वंशजों के अधिकार में चले आ रहे है।

बीका का देशनोक निवास:-
वि.सं. 1525 (1468 ई.) की नवरात्रि में बीका तथा कांधल श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक आये। श्रीकरणीजी के दर्शन करके बीका ने उनसे निवेदन किया कि चाँडासर (चूंड़ासर) में हम बिना हाथ पैर हिलाये बैठे-बैठे थक गये हैं। वहाँ हमारा मन नहीं लगता। तब श्रीकरणीजी ने उनको सपरिवार देशनोक आकर निवास करने का आदेश दिया।

तब बीका सपरिवार चाडासर से देशनोक आकर रहने लगा। वहीं पर वि. सं. 1526 (12 जनवरी, 1470 ई.) को माघ शुक्ल 10 को बीका की पत्नी रंगकुँवरी ने पुत्र को जन्म दिया जो आगे बीकानेर के इतिहास में लूणकर्ण के नाम से गद्दी पर बैठा। बीका ने इस नवजात शिशु के जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन और चूंडाकर्ण आदि संस्कार श्रीकरणीजी के हाथ से कराये। इस तरह बीका सपरिवार वि.सं. 1531 (1474 ई.) तक अर्थात पूरे छः साल तक देशनोक श्रीकरणीजी की सेवा में रहा। वि.सं. 1531 (1474 ई.) के अन्त में श्रीकरणीजी ने बीका और कांधल को आज्ञा दी कि अब समय अनुकूल है कि तुम यहाँ से कोडमदेसर चले जाओ और वहाँ अपने उपास्य देव भैरव की स्थापना करो और इसी को तुम अपने राज्य की स्थापना समझना। बीका ने श्रीकरणीजी के आदेशानुसार कोडमदेसर जाकर भैरव की स्थापना की। (जिसे बीका मंडोवर से अपने साथ लाया था।) और बीका सकुटुम्ब कोडमदेसर में रहने लगा। यहाँ बीका का रहना भाटियों को चुभता था अत उन्होंने बाघोड़ों के साथ मिलकर छेडखानी करना शुरु कर दी। तब बीका ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी को अपना हाल बताया। श्रीकरणीजी ने उसे कुछ समय तक शान्ति धारण करने का आदेश दिया।

जांगलू प्रदेश की तत्कालीन स्थिति एवं उस पर श्रीकरणीजी का मन्तव्य:-
उस समय जांगलू देश की स्थिति बहुत खराब थी। वहाँ उस समय अधिकांश बेठवासिया खाँप के ऊदावत राठौड़, जाट, मुसलमान, भाटी तथा सांखला राजपूतों के छोटे-छोटे राज्य थे, जो आस-पास के प्रदेश में प्रजा को लूटते थे। इस लूट-मार से प्रजा इतनी तंग थी कि वर्ष भर में 10 दिन भी लोग चैन से नहीं बैठ सकते थे। इस प्रकार लूट-खसोट से तंग आकर जनता श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति में विश्वास के कारण देशनोक आकर अपना दुखडा रोया करती थी।

तब श्रीकरणीजी ने निश्चय किया कि जब तक यहाँ किसी प्रबल शासक के अधिकार में एक बड़े राज्य की स्थापना नहीं हो जाती तब तक इन दुष्ट लुटेरों की लुटक प्रवृतियों पर अंकुश नहीं लग सकता। जब बीका मंडोवर से देशनोक उनके पास आया तो उन्होंने उसको सदुवंशी और योग्य जानकर अपने मन्तव्यानुसार वृहद् राज्य का संस्थापक बनाने का निश्चय किया ताकि प्रजा को सुख-समृद्धि की प्राप्ति हो सके।

बीका का भाटियों से युद्ध:-
वि.सं. 1535 (1478 ई.) में बीका ने कोडमदेसर तालाब के पास गढ बनवाने का आयोजन किया, जिस पर पूगल के राव शेखा ने कहलाया कि यहाँ गढ न बनाकर जांगलू की हद में बनाओ परन्तु बीका ने इस पर ध्यान नहीं दिया। तब सब भाटियों ने मिलकर उसे वहाँ से हटाने की सलाह की और शेखा से कहा अब तो अपनी भूमि जाने का भय है इसलिए शीघ्र कोई प्रबन्ध करना चाहिए परन्तु शेखा ने कहा कि मैं प्रकट रुप से सहायता नहीं दे सकता, तुम ही कुछ उपाय करो। तब भाटियों ने मिलकर जैसलमेर के रावल केहर के छोटे पुत्रों में से कलिकर्ण को, जो 80 वर्ष का था, सहायता के लिये बुलवाया। उसने 2,000 सैनिकों की सेना सहित आकर बीका पर चढाई की। इधर बीका की भाटियों से युद्ध करने के लिये श्रीकरणीजी से आज्ञा लेने गया। बीका ने देशनोक पहुँचकर श्रीकरणीजी को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि युद्ध तो अनिवार्य है भूमि इतनी सस्ती वस्तु नहीं होती कि बिना रक्त बहाये ही उस पर कोई शासन का अधिकारी बन सकें।

इसके बाद बीका कोडमदेसर जाकर अपने काका कांधल और भाई बीदा तथा अन्य सरदारों को लेकर युद्ध की तैयारी करने लगा। उधर कलिकर्ण ने राव शेखा को युद्ध में सम्मिलित होने के लिये कहलाया, लेकिन उसे श्रीकरणीजी ने उस युद्ध में सम्मिलित न होने की सलाह दी। जिसके कारण उसने कलिकर्ण को सिर में अत्यधिक पीड़ा होने का बहाना बनाते हुए मना कर दिया। तब भाटी समझ गये कि उसे श्रीकरणीजी ने ही रोका है अत उन्होंने कलिकर्ण को देशनोक श्रीकरणीजी के पास आशीर्वाद के लिए भेजा तो श्रीकरणीजी ने उसे कहा कि तुम इस युद्ध में तिल-तिल की तरह कटकर मरकर प्रशंसा प्राप्त करोगे। इस प्रकार वि.सं. 1535 (1478 ई.) में भाटियों और बीका के बीच कोडमदेसर का युद्ध हुआ जिसमें भाटियों की हार हुई और कलिकर्ण 300 साथियों सहित वीरतापूर्वक लडता हुआ काम आया।

बीका को जांगलू में निवास करने का आदेश:-
इतना होने पर भी भाटियों ने बीका को तंग करना न छोडा। तब बीका देशनोक श्रीकरणीजी के पास आया तो उन्होंने उसे जांगलू में जाकर रहने का आदेश दिया और उसने वहाँ 10 वर्ष तक निवास किया। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आदेशानुसार वह जांगलू में रहकर अपनी सेना का पुर्नगठन करने लगा तो वहाँ पर भी बेठवासिया खाँप के ऊदावत राजपूतों को बीका का अभ्युदय सहन नहीं हुआ। उनमें कालू पेथड़ तथा सूजासर का सूजा मोहिल था। वे लूट-मार करके बीका को परेशान करने लगे, तो बीका ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी को अपना हाल सुनाया। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि इन लुटेरों में दो व्यक्ति मुख्य है जिनका नाम कालू पेथड और सूजा मोहिल है। सारे ऊदावत इनके नेतृत्व में लूट-खसोट किया करते हैं। ये दोनों कुछ समय बाद मेरे हाथों से मारे जायेंगे। इनके मारे जाने से तेरा राज्य दृढ हो जायेगा। इस प्रकार सात्वना पाकर बीका जांगलू चला गया।

श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से बीका का जाटों पर आधिपत्य:-
जगल प्रदेश में जाटों के छोटे-छोटे सात राज्य थे।

1. गोदारा पांडू के अधिकार में लाधडिया तथा शेखसर

2. सारण पूला के अधिकार में भाड़ंग

3. कसवां कंवरपाल के अधिकार में सीधमुख

4. बेणीवाल रायसाल के अधिकार में रायसलाना

5. पूनिया काना के अधिकार में बडी लूंधी

6. सीहागां चोखा के अधिकार में सूंई

7. सोहुवा अमरा के अधिकार में धानसी

परन्तु इन जाट राज्यों में आपस में झगडा चलता रहता था वि.सं. 1540 (1483 ई.) को शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को बीका श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक आया। तब उन्होंने कहा कि इन जाट राज्यों में परस्पर विरोध बढेगा यदि इनमें से कोई गुट तुमसे सहायता माँगे तो इंकार मत करना। इस प्रकार बीका ने श्रीकरणीजी का आशीर्वाद लेकर देशनोक से वापस जांगलू को प्रस्थान किया।

कुछ दिनों बाद देवयोग से ऐसी घटना घटी कि भाड़ंग का पूला सारण ने रायसाल, कवरपाल, पूनिया काना आदि जाटों के साथ लाधड़िया तथा शेखसर के स्वामी पांडू गोदारा पर चढाई करने की सलाह की। पांडू गोदारा घबराकर बीका की शरण में चला गया। बीका ने श्रीकरणीजी के आदेशानुसार उसको सहायता का आश्वासन दिया अत: उनमें से किसी की भी हिम्मत उस पर चढाई करने की नहीं पड़ी। फिर सब मिलकर पूला सारण के नेतृत्व में सिवाणी के स्वामी नरसिंह जाट के पास गये और उसे पांडू पर चढा लाये, जिस पर पांडू अपने बहुत से साथियों के साथ निकल गया। बीका तथा कांधल उस समय सीधमुख पर आक्रमण करने गये हुए थे। पांडू ने उनके पास जाकर सब समाचार कहे और सहायता की याचना की। उन्होंने तुरन्त पूला का पीछा किया और सीधमुख से दो कोस पर नरसिंह आदि को जा घेरा। बीका का आगमन सुनते ही उस गाँव के जाट उससे आ मिले और वह स्थल उसे बता दिया जहाँ नरसिंह सोया हुआ था। बीका ने नरसिंह को जगाकर कहा उठ जोधा का पुत्र आया है। नरसिंह ने तत्काल वार किया, पर वह खाली गया। तब बीका ने एक ही बार में उसका काम तमाम कर दिया। अनन्तर अन्य जाट आदि भी भाग गये तथा रायसल, कंवरपाल, पूला आदि ने, जो बीका के मारे तंग हो रहे थे, आकर क्षमा मांग ली। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से जाटों के सब ठिकाने बीका के अधिकार में आ गये।

बीकानेर गढ एवं नगर की स्थापना:-
जाटों पर विजय के बाद बीका देशनोक आया। श्रीकरणीजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि अब वह समय आ चुका है इसलिए तुम्हें अपने राज्य की स्थापना का श्रीगणेश करना चाहिए। तब बीका के सहयोगी नापा सांखला ने शुकन विचार देखकर और श्रीकरणीजी की स्वीकृति से नागौर, मुलतान और अजमेर के मार्ग जहाँ आकर मिलते है, वहाँ पर दुर्ग एवं नगर बनाने का कार्य प्रारम्भ हुआ। रातीघाटी नामक स्थान पर वि.सं. 1542 (1485 ई.) में बीका ने भी अपने पिता जोधा की तरह श्रीकरणीजी के हाथों अपने गढ की नींव रखवा दी, पुराने गढ़ में जहाँ श्री करणीजी के हाथ से शिलान्यास करवाया गया, वहीं श्रीकरणीजी का मंदिर बना हुआ है, जहाँ उनकी प्रतिमा का पूजन नियमित रुप से हुआ करता है। वि. सं. 1542 (1485 ई.) से लेकर वि. सं. 1545 (1488 ई.) तक नगर-निर्माण का कार्य होता रहा। जब दुर्ग और नगर की रचना पूर्ण हो चुकी। तो वि.सं. 1545 (1488 ई.) वैशाख शुक्ल द्वितीया शनिवार को बीका ने अपने नाम से बीकानेर नगर और दुर्ग की प्रतिष्ठा का संस्कार और उत्सव किया। दयालदास की ख्यात देश दर्पण के पृ. 20 पर एक प्राचीन दोहा मिलता है जो इस प्रकार है-

पनरै सै पैतालवै, सुद वैसाख सुमेर।
थावर बीज थरपियौ, बीको बीकानेर।।

इस अवसर पर बीका ने श्रीकरणीजी को आमंत्रित किया परन्तु उनकी ओर से उनका पुत्र पुण्यराज समारोह में सम्मिलित हुआ। उसने बीका का राजतिलक किया और श्रीकरणीजी की प्रसादी के रुप में झड़बेरी के पाँच पत्ते व आशीर्वाद दिया। राज्याभिषेक के दूसरे दिन बीका सपरिवार देशनोक पहुँचा। वहाँ उसने श्रीकरणीजी को प्रणाम किया, उनकी प्रदक्षिणा की तथा नजर भेंटकर आशीर्वाद मांगा। तब श्रीकरणीजी ने उसे सुखपूर्वक राज्य करने का आशीर्वाद दिया। साथ ही गरीबों पर कभी अन्याय न करने की सलाह दी और कहा कि यहीं के शासकों की लूंटकवृत्ति पर अंकुश लगाने के निमित्त इस शक्तिशाली राज्य की स्थापना हुई है। साथ ही राव कांधल, जो बिना किसी प्रत्युपकार की आशा से तुम्हारी सेवा कर रहा है, उसकी सेवाओं को स्मरण रखना और राव बीदा को उन्होंने कहा कि तू बीका का छोटा भाई है, बडे भाई की सेवा करना और उसको अपना स्वामी समझना छोटे भाई का कर्तव्य है एक राज्य में दो राजा शासन नहीं कर सकते। तुझको बीका की अधीनता स्वीकार करनी होगी। शुद्ध अन्तःकरण से तू उसकी सेवा करता रहना। यदि तुझमें या तेरी सन्तान में राज्य के विरुद्ध दुष्ट विचार उत्पन्न होंगे तब तो तुझको हानि सहन करनी होगी, परन्तु निरर्थक ही बीका या उसकी सन्तान तुझको हानि पहुंचायेगी तो उस हानि का बदला उनको भी मिलेगा। श्रीकरणीजी से आशीर्वाद एवं सदुपदेश लेकर बीका, कांधल तथा बीदा आदि परिवार के सदस्यों ने बीकानेर को प्रस्थान किया।

बीदा को छापर-द्रोणपुर दिलाना:-
राव कांधल की पुत्री का विवाह राणा मेघा मोहिल के साथ हुआ था। उससे बरसल और नरबद नाम के दो लडके हुए। इनके अधिकार में छापर-द्रोणपुर था। राव जोधा ने छापर-द्रोणपुर का इलाका बरसल से लेकर वहाँ का अधिकार अपने पुत्र बीदा को दे दिया था। बरसल अपना राज्य खोकर अपने भाई नरबद को साथ ले दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी के पास चला गया। उस समय उसके साथ कांधल का ज्येष्ठ पुत्र बाघा भी था। बहुत दिनों बाद जब उनकी सेवा से सुल्तान प्रसन्न हुआ तो उसने बरसल का इलाका उसे वापस दिलाने के लिए हिसार के सूबेदार सारग खाँ को 5,000 सैनिक देकर उसके साथ कर दिया। जब फौज द्रोणपुर पहुँची तो बीदा ने उसका सामना करना उचित न समझा, अतएव बरसल से सुलह कर अपने भाई बीका के पास बीकानेर चला गया और छापर-द्रोणपुर पर पीछे से बरसल का अधिकार हो गया।

बीदा के बीकानेर पहुँचने पर, बीका ने अपने पिता जोधा से कहलाया कि यदि आप सहायता दें तो फिर बीदा को द्रोणपुर का इलाका दिला देवें। जोधा ने एक बार रानी हाडी के कहने से बीदा से लाडनू मांगा था, परन्तु उसने देने से इंकार कर दिया। इस कारण उसने बीका की इस प्रार्थना पर कुछ ध्यान न दिया। तब बीका ने स्वयं सेना एकत्र कर कांधल, मंडला आदि के साथ बरसल पर चढाई कर दी। इस अवसर राव शेखा, सिंघाणे का सरदार तथा जोइये आदि भी उसकी सहायता के लिये आये। नापा साखला, पडिहार बेला आदि को बीकानेर की रक्षा करने के लिए वहीं छोड दिया गया तथा बीका ने दल-बल सहित कूच किया और नापा सांखला के बसाये गाँव नापासर में डेरा डाला। बीका की सेना में पूगल का शासक राव शेखा अपने पुत्र हरु सहित सम्मिलित था। बीका ने हरु भाटी को अपनी तरफ से देशनोक श्रीकरणीजी के पास युद्ध करने की आज्ञा प्राप्ति के लिए भेजा। तब हरु भाटी ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी के दर्शन किये तथा बीका की तरफ से हाथ जोड़कर अर्ज किया कि युद्ध में सफलता का आशीर्वाद दो। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि कुँवर बीका की विजय होगी, फौज लेकर प्रस्थान करो।

इस पर नापासर से बीका द्रोणपुर की ओर अग्रसर हुआ तथा वहीं से चार कोस की दूरी पर उसकी फौज के डेरे हुए। सारग खाँ उन दिनों वहीं था। एक दिन बाघा को, जो बरसल का सहायक था, एकान्त में बुलाकर बीका ने उसे उपालम्भ देते हुए कहा कि काका कांधल तो ऐसे हैं कि जिन्होंने जाटों के राज्य को नष्ट कर बीकानेर राज्य को बढाया और तू (कांधल का पुत्र) मोहिलों के लिए मेरे ऊपर ही चढकर आया है ऐसा करना तेरे लिए उचित नहीं। तब तो वह भी बीका का मददगार बन गया ओर उसने वचन दिया कि वह मोहिलों को पैदल आक्रमण करने की सलाह देगा, जिनके दाई ओर सारग खाँ की सेना रहेगी तथा ऐसी दशा में उन्हें पराजित करना कठिन न होगा। दूसरे दिन युद्ध में ऐसा ही हुआ, फलतः बीका की विजय हुई। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से वि. सं. 1546 (1489 ई.) को छापर-द्रोणपुर के युद्ध में बीका की विजय हुई। कुछ दिन वहाँ रहने के उपरान्त बीका ने छापर-द्रोणपुर का अधिकार बीदा को सौंप दिया और स्वयं बीकानेर लौट गया।

जोधा का बीका को पूजनीक चीजें देने का वचन देना:-
सारंग खाँ को मार कांधल का बदला लेकर जोधा और बीका वापस लौट रहे थे, तो उनके डेरे द्रोणपुर में हुए। वही राव जोधा ने बीका को अपने पास बुलाकर कहा कि बीका तू सपूत है, अतएव तुझसे एक वचन मांगता हूँ। बीका ने उत्तर दिया कहिये, आप मेरे पिता है, अतएव आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। जोधा ने कहा एक तो लाडनू मुझे दे दे और दूसरा अब तुने अपने बाहुबल से अपने लिए नया राज्य स्थापित कर लिया है, इसलिए जोधपुर के लिए अपने भाइयों से राज्य के लिए दावा न करना। बीका ने इन बातों को स्वीकार करते हुए कहा मेरी भी एक प्रार्थना है। मैं बडा पुत्र हूँ अतएव तख्त, छत्र आदि तथा आपकी ढाल-तलवार मुझे मिलनी चाहिये। जोधा ने इन सब वस्तुओं को जोधपुर पहुँच कर भेज देने का वचन दिया। अनन्तर दोनों ने अपने-अपने राज्य की ओर प्रस्थान किया।

बीका की जोधपुर पर चढाई:-
वि.सं. 1547 (1490 ई.) को राव जोधा का देहांत हो जाने पर सातल जोधपुर की गद्दी पर बैठा। परन्तु वह अधिक दिनों तक राज्य न कर पाया था कि मुसलमानों के हाथों से मारा गया। उसके कोई सन्तान न होने से उसके बाद उसका छोटा भाई सूजा गद्दी पर बैठा। यह समाचार मिलते ही बीका ने राज्य चिन्ह आदि लाने के लिए पडिहार बेला को सूजा के पास जोधपुर भेजा, परन्तु सुजा ने ये वस्तुए देने से इंकार कर दिया। जब बीका को यह खबर मिली तो उसने सरदारों से सलाह कर बड़ी फौज के साथ जोधपुर पर चढाई कर दी। बीका ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी के दर्शन किये ओर प्रार्थना की कि जोधा के पुत्रों मे मैं सबसे बडा हूँ इसलिये पिता के उत्तराधिकार का स्वत्व मेरा ही है मेरी विद्यमानता में सूजा जोधपुर का शासक नहीं बन सकता। श्रीकरणीजी ने बीका को समझाया कि जब तू यहाँ आकर एक स्वतंत्र राज्य का शासक बन चुका तो फिर जोधपुर पर तेरा कहां स्वत्व रहा। वहाँ तेरा स्वत्व तभी तक था जब तेरे राज्य की स्थापना नहीं हुई थी। अब जोधपुर पर मन बढाना अन्याय है और तेरी सारी राठौड़ जाति का निरर्थक नाश हो जायेगा इतना ही नहीं, सम्भव है कि दोनों राज्यों का सदा के लिये नाम शेष हो जाये। तू टिकायपन की पूजनीक चीजें प्राप्त कर झगडा खत्म कर दे। इस पर बीका ने सहमति भर के श्रीकरणीजी से आज्ञा मांगी तब श्रीकरणीजी ने कहा कि बीका अच्छा ही होगा, प्रस्थान कर।

इस प्रकार बीका श्रीकरणीजी से सदुपदेश लेकर जोधपुर पहुँचा। सूजा ने स्वयं गढ के भीतर रहकर कुछ सेना उसका सामना करने के लिए भेजी, परन्तु अधिक देर तक बीका की फौज के सामने ठहर न सकी। अनन्तर बीका की सेना ने जोधपुर के गढ को घेर लिया। जोधपुर के जागीरदारों को जब मालूम हुआ कि श्रीकरणीजी की ऐसी इच्छा है कि पूजनीक चीजें राव बीका टीकाईपन के कारण उसी की होनी चाहिए तो राव सूजा ने पूजनीक चीजें राव बीका को देकर सौख्य स्थापित कर लिया। सूजा जोधपुर का स्वामी बना तथा बीका अपने टीकाईपन की चीजें लेकर देशनोक श्रीकरणीजी के दर्शन करके बीकानेर गया।

बीका का वरसिंह को अजमेर की कैद से छुड़ाना:-
उन दिनों मेडता पर बीका के भाई दूदा तथा वरसिंह का अधिकार था। वरसिंह इधर-उधर लूटमार किया करता था। एक बार उसने सांभर को लूटा तथा अजमेर की भूमि का बहुत बिगाड किया। इस पर अजमेर के सूबेदार मल्खूखाँ ने अपने आपको उससे लडने में असमर्थ देख कर उसे लालच देकर अजमेर बुलाया और गिरफ्तार कर लिया। इस खबर के मिलने पर मेडता के प्रबन्ध के लिए अपने पुत्र वीरम को छोडकर दूदा बीकानेर चला गया, जहाँ उसने बीका को यह घटना कह सुनाई। इस पर बीका ने कहा तुम मेडता जाकर फौज एकत्र करो, मैं आता हूँ। दूदा के जाने पर बीका ने इसकी खबर सूजा के पास भिजवाई और स्वयं श्रीकरणीजी से आज्ञा ले सेना सहित रीयां पहुंचा, जहाँ दूदा अपनी फौज के साथ उससे आ मिला। जोधपुर से चलकर सूजा ने कोसाणे में डेरा किया। अजमेर का सूबेदार इन विशाल सेनाओं का आना सुनते ही डर गया और उसने वरसिंह को छोडकर सुलह कर दी। अनन्तर दूदा तो वरसिंह को लेकर मेडता गया और बीका देशनोक श्रीकरणीजी के दर्शन करके बीकानेर लौट गया। सूबा सुलह का हाल सुनकर कोसाणे से जोधपुर चला गया।

बीका का खंडेले पर आक्रमण:-
शेखावटी के खंडेला का स्वामी रिड़मल प्रायः बीका के राज्य में लूटमार किया करता था। उसने एक बार बीकानेर और कर्णावती का बहुत नुकसान किया। तब राव बीका ने गढ एव नगर का सुरक्षा बंदोबस्त करके सेना सहित खंडेला को कूच किया। बीका ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी से आज्ञा ली। फिर बीका ने उस पर आक्रमण कर दिया। रिड़मल ने दो कोस सामने आकर उसका सामना किया, पर उसे पराजित होकर भागना पडा। इस तरह राव बीका ने श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से अपने शत्रु रिड़मल को परास्त किया।

बीका की रेवाड़ी पर चढ़ाई:-
राव बीका की बहुत दिनों से दिल्ली की भूमि दबाने की इच्छा थी। अतएव उसने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी से आज्ञा लेकर रेवाडी की ओर कूच किया और उधर की बहुत सी भूमि पर अधिकार कर लिया। खंडेले के स्वामी रिड़मल को जब इसकी खबर लगी तो उसने दिल्ली के सुल्तान से सहायता की याचना की, जिस पर 4,000 फौज के साथ नवाब हिन्दाल को उसके साथ कर दिया। ये दोनों बीका पर चढ़े, जिस पर बीका ने वीरतापूर्वक इनका सामना किया तथा रिड़मल और हिन्दाल दोनों को तलवार के घाट उतार नवाब की सारी सेना को भगा दिया। इस प्रकार राव बीका ने श्रीकरणीजी के प्रताप से विजय हासिल की।

बीकानेर लौटकर सुखपूर्वक राज्य करते हुए वि. सं. 1561 आषाढ सुदी 5 (17 जून, 1504 ई.) सोमवार को बीका का देहान्त हो गया।

बीका को बीकानेर राज्य की स्थापना एवं उसके सुदृढीकरण में श्री करणीजी के वरदान पर इतिहासकारों के दृष्टिकोण:-

1. इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा ने ‘ राजस्थान का इतिहास’ में पृ. 255-56 पर लिखा है कि बीका को इस अभियान में करणीदेवी का वरदान प्राप्त हो गया तो उसका काम सरल बन गया। बीका इतने बडे भू-भाग का स्वामी बनने का सभी श्रेय श्रीकरणीमाता को देता था।

2. इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने ‘ बीकानेर राज्य का इतिहास’ प्रथम खड में पृ. 111 पर लिखा है कि बीका करणीजी का अनन्य उपासक था और राज्य की वृद्धि को उसी की कृपा का फल समझता था।

3. इतिहासकार दीनानाथ खत्री ने ‘ बीकानेर राज्य का संक्षिप्त इतिहास’ में पृ. 9 पर लिखा है बीका करणीजी का अनन्य उपासक था।

4. इतिहासकार हरिसिंह भाटी ने ‘पूगल राज्य का इतिहास’ में पृ. 285 पर लिखा है बीका अपने समूह साथियों के साथ जांगलू की राह पर थे, उन्हें सौभाग्य से देशनोक स्थान पर देवी करणीजी के दर्शन हुए उनसे साक्षात्कार हुआ, देवी ने उन्हें सफलता के लिए आशीर्वाद दिया।

बीका को वृहद राज्य का संस्थापक बनने का श्रीकरणीजी द्वारा वरदान देने का उल्लेख बीकानेर राज्य का इतिहास भाग-1 (गौरीशंकर हीराचंद ओझा) में पृ. 92, पूगल राज्य का इतिहास (हरिसिंह भाटी) में पृ. 285, राजस्थान का इतिहास (गोपीनाथ शर्मा) में पृ. 255-56, बीकानेर राज्य का संक्षिप्त इतिहास (दीनानाथ खत्री) में पृ. 9, दयालदास री ख्यात भाग 2 (सं. दशरथ शर्मा) में पृ. 4, बीकानेर राज्य का गजेटियर (पाउलेट) में पृ. 2, वीर विनोद (कविराजा श्यामलदास) द्वितीय भाग खण्ड 2 में पृ. 478, तवारीख बीकानेर (मुंशी सोहनलाल) में पृ. 91, चारणा री बातां (ठाकर नाहरसिंह जसोल) में पृ. 17, राजस्थान के सूरमा (तेजसिंह तरूण) में पृ. 49; His Highness the Maharaja of Bikaner a Biography by K.M.Pannikar; Page No 3-4; The relations of the house of Bikaner with the central powers(1465-1949) by Dr.Karni Singh; Page No 21-22; Prince, Patriot P parliamentarian biography of Dr.Karni Singh Maharaj of Bikaner by Rima Hooja; Page No 5 आदि ग्रंथों में हुआ है।

राव लूणकर्ण:-
राव लूणकर्ण का जन्म बीका की रानी रंगकुँवरी के गर्भ से वि. सं. 1526 माघ सुदी 10 (12 जनवरी, 1470 ई.) को देशनोक में हुआ था। नरा के निःसन्तान मरने पर उसका छोटा भाई होने के कारण वि. सं. 1561 फाल्गुन वदी 4 (23 जनवरी, 1505 ई.) को लूणकर्ण बीकानेर की गद्दी पर बैठा। तब श्रीकरणीजी को बीकानेर आने का निमंत्रण भेजा गया, परन्तु उन्होंने अपने पुत्र पुण्यराज को भेजकर उसका तिलक करवा दिया जो आसका देकर वापस देशनोक लौट आया। वि.सं. 1562 (1505 ई.) चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को राव लूणकर्ण रानी सहित देशनोक श्रीकरणीजी के दर्शन करने आया और 2 दिन ठहरकर वापस बीकानेर लौट गया।

महाराणा रायमल की पुत्री से विवाह:-
चित्तौड़ के महाराणा रायमल की पुत्री का सम्बन्ध राव लूणकर्ण से हुआ था। वि.सं. 1570 (1513 ई.) फाल्गुन वदी 3 को राव लूणकर्ण विवाह करने के लिए बडी धुमधाम के साथ बारात लेकर चित्तौड पहुँचा। तब मार्ग में सबसे प्रथम देशनोक पहुँचकर श्रीकरणीजी की प्रदक्षिणा और प्रणाम कर बारात मे चलने के लिये प्रार्थना की, परन्तु उन्होंने चलना अस्वीकार कर दिया और अपने पोते सावल, ईशर, डूंगर और कान्हड को बारात के साथ भेज दिया।

नारनोल पर चबाई और लूणकर्ण का मारा जाना:-
वि.सं. 1583 (1526 ई.) को राव लूणकर्ण नारनोल पर आक्रमण करने के लिए सैनिक तैयारी करने लगा। इस पर श्रीकरणीजी स्वयं बीकानेर गई, लूणकर्ण ने उनके दर्शन किये। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि लूणकर्ण अभी नारनोल पर आक्रमण करने का समय नहीं है। परन्तु लूणकर्ण माना नहीं, जबकि श्रीकरणीजी भविष्य की बातें जानती थी, होनहार टले नहीं और उसने नारनोल के नवाब शेख अबीमीरा पर आक्रमण कर दिया। लूणकर्ण तथा कुँवर प्रतापसी, बैरसी तथा नेतसी आदि ने वीरतापूर्वक नवाब का सामना किया, परन्तु नवाब की सेना बहुत अधिक थी साथ ही उसके (लूणकर्ण) सरदार उसके विपक्षियों से जा मिले। अत: लूणकर्ण का पक्ष निर्बल हो गया और अन्त में 1583 वैशाख वदी 2 (31 मार्च, 1526 ई.) शनिवार को 21 आदमियों को मारकर अपने पुत्र प्रतापसी, नेतसी, बैरसी तथा पुरोहित देवीदास ओर कर्मसी के साथ लूणकर्ण अन्य राजपूतों सहित ढोसी गाँव में मारे गये।

दयालदास के अनुसार, पीछे सं. 1583 फौज कर नारनौल ऊपर पधारणै री त्यारी करी तारा श्रीकरनीजी आप बीकानेर पधारिया। तद रावजी श्री लूणकरणजी करनीजी रै डेरै दरसण करण आया। तारा श्रीकरनीजी फुरमायौ लूणकरण अबार नारनौल ऊपर जावण री समै नहीं है। पण रावजी मानी नहीं। तद श्रीकरनीजी कयौ तूं नारनौल जावै है, क्यूंई जैतसीनूं दियौ चाहिजे। तद रावजी जैतसी पर विराजी हा सू तमकर कयौ, जैतसी नूं काई दूं भाटा के? तारां श्रीकरनीजी फुरमायौ, हमें लाल, अै भाठा जैतसी रेईज रैहसी। सू करनीजी तौ भविसतरी वात जाणता हा, हूणहार टलै नहीं। अरु रावजी इण वातनूं जाणी नहीं। दरसण कर गढ दाखल हुवा। श्रीकरनीजी वैलमैं विराज देसणोक पधारिया।

राव जैतसी:-
एक दिन राव लूणकर्ण जैतसी, प्रतापसी, बैरसी, रतनसी और तेजसी के साथ श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक पहुँचा। जब इन बच्चों ने नमस्कार किया तो श्रीकरणीजी ने यह पद्य कहा-

पातलियो परताप रुडो रतनसी,
सारां में सिरदार जाडो जैतसी,
X X X X X बैर उग्राहण बैरसी।

देवी श्रीकरणीजी के मुख से निकले हुए वाक्य भविष्य में उन राजकुमार के साथ इसी तरह फले कि उस दिन से जैतसी के वंशज तो राज्य के अधिकांश स्वामी रहते चले आये हैं। परतापसी के वंशजों की केवल एक ही कोटरी ‘तलवा’ गाँव में है, उनकी आमदनी भी 500 रुपया वार्षिक है। रतनसी के वंशज जागीर और कुल में सबसे श्रेष्ठ हैं परन्तु वंश वृद्धि अधिक नहीं है और बैरसी की संतान सदा से वीर होती आई है।

जब ढोसी नामक स्थान में पिता लूणकर्ण के मारे जाने का समाचार जैतसी के पास बीकानेर पहुँचा तो जैतसी ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

वि.सं. 1583 (1526 ई.) आसोज सुदी 14 को राव जैतसी ने देशनोक जाकर श्रीकरणीजी के दर्शन किये और वि.सं. 1584 (1527 ई.) आसोज सुदी 10 को जैतसी ने अपने पिता को नारनोल लडाई में धोखा देने वाले कल्याणमल पर चढाई की तथा कल्याणमल को भगाकर जैतसी ने द्रोणपुर की गद्दी पर बीदा के पौत्र सागा को, जो संसारचंद का पुत्र था, बैठाया। इस प्रकार श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से राव जैतसी ने कल्याणमल को हराकर भगा दिया।

जोधपुर के राव गांगा की सहायता करना:-
वि.सं. 1585 मार्ग शीर्ष वदी 7 (3 नवम्बर, 1528 ई.) को जोधपुर के राव गांगा बाधावात और उनके काका शेखा सूजावत के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में नागौर का खान दौलत खाँ शेखा की मदद पर था, और राव गांगा ने राव जैतसी को बीकानेर से अपनी सहायतार्थ बुलवाया। राव गांगा व जैतसी की सम्मिलित सेना के आगे शेखा की सेना के पाँव उखड़ गये तथा नागौर का खान भाग गया। शेखा युद्ध में मारा गया। इस प्रकार राव जैतसी की मदद से राव गांगा की विजय हुई और राव जैतसी ने देशनोक में श्रीकरणीजी के दर्शन किये, तत्पश्चात बीकानेर लौटे।

(द) श्रीकरणी माता एवं जैसलमेर राज्य:-
मारवाड़ व बीकानेर के राठौड़ शासकों की भाँति जैसलमेर व पूगल के भाटी शासकों में भी श्रीकरणीजी के प्रति दृढ़ आस्था एव विश्वास था। जैसलमेर के शासक चाचगदेव, देवीदास, घडसी तथा जैतसी भी देवी श्रीकरणीजी के अनन्य भक्तों में से थे। जैसलमेर के शासक भी समय-समय पर श्रीकरणीजी के दर्शन करने आते थे तथा उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते थे।

बीकानेर तथा जैसलमेर का सीमा विवाद:-
वि.सं. 1542 (1485 ई.) में जब बीकानेर राज्य की स्थापना का श्रीगणेश हुआ तब एक ओर उसकी सीमा निर्धारित नहीं हुई थी, इसलिये जैसलमेर तथा बीकानेर के मध्य लडाई बनी रही। गड़ियाला और गिराछर नाम के दो गाँवों में इन दोनों राज्यों की सीमा मिलती थी। गड़ियाला गाँव बीकानेर राज्य के अधिकार में, बीकानेर से 44 मील पश्चिम में मगरा क्षेत्र में है और वहाँ के जागीरदार रावलोत भाटी है। गिराछर जैसलमेर राज्य के अधिकार में है और वहाँ के जागीरदार बरसिंह भाटी है। दोनों गाँवों के बीच में एक तलाई है जिसको धिनेरु की तलाई कहते हैं। इसके लिए दोनों में झगडा चला, तब एक पंचायत दोनों राज्य में स्थापित हुई। दोनों ओर से प्रसिद्ध पंचों ने इस पंचायत में धिनेरु, जिसको खराढ्या भी कहते हैं, की तलाई को बीकानेर राज्य की ओर रख दिया, इससे बीकानेर वालों ने प्रसन्न होकर गिराछर के भाटियों को, जो जैसलमेर के भाई-बंधु और जागीरदार थे, ताना मारा कि भाटियों की माँ तो राठौड़ ले जा रहे हैं। यह ताना सुनते ही दोनों राज्यों की सेनाएँ उक्त तलाई पर जा पहुँची और वहीं दोनों में लडाई हुई, जिसमें दोनों पक्षों के कई आदमी मारे गये।

राव जैतसी का अदीठ रोग ठीक करना:-
श्रीकरणीजी लोक देवी आवड़जी की पूजा करती थी। श्रीआवडजी के जैसलमेर राज्य में 52 धाम (थान) हैं। इनमें से श्रीकरणीजी की तेमडाराय (श्रीआवडजी का अपर नाम) के प्रति दृढ आस्था थी और समय-समय पर श्रीकरणीजी तेमडाराय दर्शनार्थ जाया करती थी। उस समय के जैसलमेर महारावल उनका बहुत आदर सत्कार करते थे और अपनी लम्बी यात्रा के दौरान कई बार श्रीकरणीजी जैसलमेर रुका करती थी।

एक बार श्रीकरणीजी तेमडाराय दर्शनार्थ जा रही थी। उस समय जैसलमेर का महारावल जैतसी था, जो उस समय अदीठ फोड़े से पीडित था। उसने अन्त समय नजदीक जानकर श्रीकरणीजी के दर्शन की इच्छा व्यक्त की। महारावल जैतसी ने जब श्रीकरणीजी के तेमडाराय पधारने का समाचार सुना तो वे अदीठ से व्याकुल होते हुए भी श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ एक मंजिल सामने आये और उनके दर्शन करके चरणों में शीश झुकाकर बोले, मुझे अन्त समय में आपने दर्शन देकर मेरे पर बडा उपकार किया क्योंकि अब मेरी मृत्यु निकट है। श्रीकरणीजी ने उसी समय उनकी पीठ पर हाथ फेर कर वरदान दिया कि तुम्हारी मृत्यु इस रोग से नहीं होगी और रोग आज से ठीक होने लगेगा। उसी समय श्रीकरणीजी की कृपा से महारावल जैतसी की पीडा जाती रही और वे निरोग होने लगे।

दयालदास के अनुसार
नै रावल मजल अेक समा आय दरसण कियौ। तद श्रीकरनीजी जैतसी रै ऊपर हाथ फेरियो सू रावलरो सरीर कंचन हुवौ। तारा रावल कयौ, माता हूं देसणोक जांसू। तद श्रीकरनीजी कयौ, म्हे अठै आयग्या नी, थारी जात सफल हुई।

श्यामलदास के अनुसार-
यह देवी जैसलमेर के रावल जैतसी को अच्छा करने गई थी, जबकि उनका बदन खून की खराबी से बिगड गया था।

कैप्टन पी. डबल्यू पाउलेट के अनुसार-
She went to Jaisalmer to cure the Rawal Jetsi of a tumour. This she reported to have effected by passing her hand over the sore.

मुंशी सोहनलाल के अनुसार-
रावलजी के वर्म पर इस अफीका बर गुजीदा रोजगार ने हाथ फेरा-मअनू इस अमल को उनका शफा हासि हो गई।

इस पर महारावल ने कृतार्थ होकर एक गाँव श्रीकरणीजी को भेंट किया। श्रीकरणीजी ने वह गाँव उसी समय एक सोलंकी राजपूत को प्रदान कर दिया। श्रीकरणीजी 15 दिन तक जैसलमेर में बिराजी और फिर तेमडाराय के दर्शन किये।

श्रीकरणीजी तेमडाराय के दर्शन करके वापस लौट रही थी तो उक्त सीमा विवाद का झगडा नहीं सुलझा तो दोनों ओर के पंच पंचायती के लिए श्रीकरणीजी को रास्ते में मिले और अपना-अपना पक्ष रखने लगे। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि इस समय तुम दोनों शांत रहो, यह तलाई किसी के भी अधिकार मे नहीं रहेगी। यहाँ दोनों राज्यों का गोधन चरा करेगा। अन्त में उसी तलाई के निकट मैं अपना शरीर छोड़ूंगी। जिस स्थान पर मेरा शरीर पात होगा। वहीं दोनों राज्यों का त्रिपटा समझा जायेगा। इस फैसले से दोनों ही पक्ष उस समय शांत हो गये और श्रीकरणीजी वहाँ से चलकर देशनोक पहुँची।

गुम्भारे का निर्माण:-
वि.सं. 1594 (1537 ई.) की चैत्र बदी द्वितीया को अर्थात् श्रीकरणीजी के ज्योतिर्लीन से एक वर्ष पूर्व उन्होंने श्रीआवड़ माता की सेवा पूजा करने हेतु अपने हाथ से एक छोटा सा कोठा बनाया जिसको ‘गुम्भारा’ कहते हैं। इसे बडे-बडे पत्थरों को बिना चूना मिट्टी के एक-दूसरे के ऊपर रखकर बनाया गया है। इसकी छत पर जाल के वृक्ष के बडे-बडे तने रख दिये गये हैं। यह जमीन की सतह से कुछ नीचा है। श्रीकरणीजी के ज्योतिर्लीन के बाद इसी जगह पर उनकी प्रतिमा स्थापित की गई थी।

दयालदास के अनुसार, पीछे स. 1594 चैत्र वद 2 नै श्रीकरनीजी आपरै हाथ सूं गुंभारौ कियौ, बिनां तगारी। नै जालारा लकड़ दिया ऊपर।

कुटुम्बियों को महाप्रयाण बाबत् बताना:-
एक दिन श्रीकरणीजी ने अपने कुटुम्बियों को बुलाकर उनसे अपनी इच्छा प्रकट की कि डेढ सौ वर्ष तक हमने अपना भौतिक शरीर रखा है। अब मैं इसे छोडना चाहती हूँ। मैं यहाँ से जैसलमेर होती हुई तेमडाराय के दर्शन करके बहिन बूट और बहुचरा से मिलने खारोडा (सिंध, पाकिस्तान) जाऊंगी। वहाँ से वापस आते समय रास्ते में मैं अपना भौतिक शरीर छोड़ूंगी। यह सुनकर उनके परिवार वालों ने दुःख प्रकट किया और अन्त समय में उनके (श्रीकरणीजी) साथ रहने की प्रार्थना की। श्रीकरणीजी ने उन्हें अपने साथ चलने से मना कर दिया जिसके फलस्वरुप अन्य सदस्य तो मान गये। परन्तु उनके ज्येष्ठ पुत्र पुण्यराज ने साथ चलने का हठ कर लिया और कहा कि मैं अन्त समय में आपकी सेवा करने के लिए साथ चलूंगा। इस पर श्रीकरणीजी ने उन्हें समझाया कि मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ अत. मुझे किसी भी प्रकार की सेवा की आवश्यकता नहीं है। दूसरा, तुम स्वयं 117 वर्ष के हो इसलिये साथ चलने में तुम्हें कठिनाई होगी। तीसरा मेरे ज्योतिर्लीन होने की घटना को देखना तुम्हारे भाग्य में नहीं लिखा है। इसलिये तुम्हारा साथ चलना उपयोगी नहीं है। परन्तु पुण्यराज नहीं माने। इस पर श्रीकरणीजी ने उनको भी साथ चलने की स्वीकृति दे दी। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने अपने महाप्रयाण का कुटुम्बियों को बताकर वि. सं. 1594 (1537 ई.) के माघ मास के प्रारम्भ में देशनोक से रवाना होकर तेमडाराय के दर्शन कर तथा बहिन बूट-बहुचरा से मिलने के लिये रवाना हुए। इस यात्रा में श्रीकरणीजी के साथ उनका ज्येष्ठ पुत्र पुण्यराज, सारंगिया विश्नोई (रथवान) और एक सेवक दरोगा थे।

जैसलमेर प्रवास तथा बन्ना भक्त को दृष्टि देना:-
श्रीकरणीजी देशनोक से सीधे जैसलमेर गये। जैसलमेर के महारावल ने श्रीकरणीजी का आतिथ्य सत्कार किया। अपने जैसलमेर प्रवास के दौरान एक दिन श्रीकरणीजी अपने भक्त बन्ना खाती के घर गये। बन्ना खाती जन्मांध था। श्रीकरणीजी ने भक्त बन्ना को अपनी मूर्ति बनाने के लिए कहा। बन्ना खाती ने निवेदन किया, माँ। मैं जन्मान्ध हूँ मैं मूर्ति कैसे बना सकता हूँ। इस पर श्रीकरणीजी ने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए देखा। इस पर बन्ना की आँख खुल गई और उसकी दृष्टि गरुड सी हो गई। इसके बाद श्रीकरणीजी ने बन्ना खाती को अपना वह रुप दिखाया जो कि वर्तमान देशनोक के निज मंदिर की मूर्ति पर अंकित है और वैसी ही मूर्ति बनाकर देशनोक पहुँचा देने का निर्देश दिया। बन्ना खाती ने निवेदन किया कि देशनोक यहाँ से बहुत दूर है इसलिए मैं पूर्ति लेकर कैसे देशनोक पहुँच पाऊंगा। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि मूर्ति तैयार हो जाने के बाद तुम इसको सिर के नीचे डाल के सो जाना जब तुम्हारी नींद खुलेगी, तब तुम अपने को देशनोक पाओगे। और बाद में ऐसा ही हुआ।

दयालदास के अनुसार, सू अेक आंधौ सुथार थौ, अवस्था बरस 80 मैं, तिणरै घरे जाये श्री करनीजी कयौ, तूं म्हारी मूरत घडदे। तद सुथार कयौ, माता हूं तौ आंधौ हुवौ, सूझै नहीं, पण म्हारा बेटा माथैरै ताण घड देसी। तद श्री करनीजी कयौ, म्हारै सामौ जोय। तारा सुथार सामौ जोयौ नै सामौ जोवतां आंख्यांरौ जाल आघौ हुवौ। नै बालकरी निजर हुई। नै सुथार हाथ जोड प्रदक्षणा दीनी। पीछे श्रीकरनीजी उठेसूं विधा हुवा सू खारौड़ै देवल खनै गया। नै देवल बूट सूं मिलिया।

कैप्टन पी.डबल्यू पाउलेट के अनुसार, She likewise cured an aged carpenter of blindness, by causing him to attempt to look at her.

मुंशी सोहनलाल के अनुसार, इसी तरह यह भी एक रिवायत है कि श्री करनीजी के बचन से एक ना बीना बीना हो गया। भोमजी बीठे ने लिखा है-

सुरत जखम सूथार, आध हींणे वृध ऊमर।
X X X X X X X X X X X X X X X
रिव तेज जिमे रिव रायरी, कमलासण मूरत करी।।

तेमडाराय दर्शन करके खारौडा जाना:-
जैसलमेर से रवाना होकर श्रीकरणीजी तेमडाराय पहुँची। जहाँ उन्होंने तेमडाराय के दर्शन किये। तत्पश्चात् वे खारोडा पहुँची। चारण जाति में अवतरित लोक देवल देवी, जो करणी माता की मौसेरी बहिन थी। इनकी दो पुत्रियाँ बूट एव बहुचरा रहती थी जो शक्ति के अवतार मानी जाती है। खारोडा (सिंध) जाकर श्रीकरणीजी उन शक्तियों से मिली और वहाँ वे 12 दिन उनके साथ रही। इसी अवधि में श्रीकरणीजी ने अपने भक्त अणदा की कुएँ में गिरने से रक्षा की थी। तो देवी बूट ने घमण्ड से कहा कि आपने मुझे क्यों नहीं कहा? मैं आपके भक्त का उद्धार करने में समुचित मदद देती। इस पर श्रीकरणीजी ने उत्तर दिया, दूसरे को उसी कार्य के लिए कष्ट दिया जाता है जो स्वय से नहीं हो सकता हो। जब मैं स्वयं उसकी रक्षा कर सकती थी तो किसी दूसरे की सहायता क्यों लेती? बूट श्रीकरणीजी के इस उत्तर का रहस्य तो नहीं समझ पायी। परन्तु इसमें उसने अपने गौरव में कुछ कमी महसूस की। अतः उसने श्रीकरणीजी को कहा कि हे जगदम्बे। निःसंदेह आप हमारी स्वामिनी हैं और हम आपकी दासियाँ हैं परन्तु कभी-कभी दासियाँ भी कमाल का कार्य कर दिखाती है। यह सुनकर श्रीकरणीजी मन में हँसने लगी और उन्होंने उसी समय विराट रुप धारण कर अपना मुँह कई योजन में फैला कर खोला। उसमें बूट ने स्वयं को भी नौ लाख शक्तियों के साथ खडा देखा। इससे उसका भ्रम दूर हो गया और अपने अभिमान भरे शब्दों पर पश्चाताप किया।

स. नारायणसिंह भाटी ने जैसलमेर री ख्यात में लिखा है-देवल देवी चारण जाति में अवतरित लोक देवी मानी जाती है जिसने जैसलमेर के महारावल घडसी को अदीठ (कैंसर) की पीडा से मुक्ति दिलाई थी तथा देवल देवी के आदेशानुसार उसने घडसीसर नामक तालाब का निर्माण करवाया। (तवारीख जैसलमेर पृ. 41)

जैसलमेर री ख्यात में पृ. 48 पर इस प्रकार लिखा है कि रावलजी घडसीजी घड़सीसर तालाब बंधायो देवल चारणी सकत को अवतार छौ सो कुकमरौ वाटकौ लेकर धर दिवी जिणी जागा पाल नाखी वर दीनो पाणी सुसे नहीं।

इसके बाद खारोडा (सिंध, पाकिस्तान) से रवाना होकर श्रीकरणीजी गाँव बूगटी पहुँची। वहाँ हरबूजी साँखला ने, जिनकी गिनती पंच पीरों में की जाती है, श्रीकरणीजी को अपने यहाँ ठहराया और दो दिन तक सेवा का लाभ उठाया।

श्रीकरणीजी का ज्योतिर्लीन होना:-
बूगटी से श्रीकरणीजी देशनोक के लिए रवाना हुई तथा गडियाला और गिराछर के बीच धीनेरु की तलाई के पास पहुँचकर अपने रथ को रोक लिया। यह वही स्थान था जिसके लिए बीकानेर और जैसलमेर राज्यों के बीच सीमा सम्बन्धी विवाद चल रहा था और श्रीकरणीजी ने पंचों को वचन दिया था कि वे वहाँ महाप्रयाण करेगी। श्रीकरणीजी ने सोचा कि उनके अवतार के सारे कार्य पूरे हो चुके हैं तथा उनकी आयु भी 150 वर्ष और छः मास हो चुकी है अत उन्हें अब अपना भौतिक शरीर छोड देना चाहिए।

सूर्योदय का समय था। श्रीकरणीजी ने स्नान करने की इच्छा प्रकट की और अपने पुत्र पुण्यराज को रथ के नीचे से घड़ा निकालने को कहा। पुण्यराज ने घड़ा देखा तो खाली था उनहोंने माताजी से निवेदन किया कि घड़ा तो खाली है। इस पर श्रीकरणीजी ने अपने सेवक की उपस्थिति में पुण्यराज को आदेश दिया कि जाओ धीनेरू (खराढ्या) तलाई से घडा भर लाओ। पुण्यराज घडा भरने के लिए चले गये। पीछे से श्रीकरणीजी ने रथवान सारंगिया विश्नोई को कहा कि मेरी झारी निकालो, उसमें कुछ पानी है। सारंगिया ने झारी निकाली उसमें कुछ पानी था। श्रीकरणीजी ने उससे कहा कि उसमें जो पानी है वह मेरे शरीर पर उडेल दो। यह कहकर श्रीकरणीजी वहीं पर तीन पत्थरों की चौकी बनाकर उस पर स्नान करने के लिए बैठ गई। रथवान सारंगिया विश्नोई ने झारी लेकर उसका पानी उन पर उडेल दिया। ज्योंही झारी का पानी उनके भौतिक शरीर पर गिरा त्यों हि उनके शरीर से एक ज्वाला निकली और उस ज्वाला में उसी क्षण उनका वह भौतिक शरीर अदृश्य हो गया। वहाँ कुछ भी नहीं था। ज्योति में ज्योतिर्लीन हो गये। इस प्रकार वि.सं. 1595 (1538 ई.) की चैत्र शुक्ला नवमी शनिवार को श्रीकरणीजी ज्योतिर्लीन हुए।

दयालदास ने लिखा है –
नै सूरजरी उगाली गांव गाडियालै खराढयां तलायां है तठै आया। नै अठै गाडै सूं ऊतरिया, तद सारंगियै कयौ, क्यूं माता? पीछे झबोल मार ध्यान कियौ। सू सरीर मांयांसूं अग्नरी झल नीसर ने सूरजमें जोत मिल गई। सू इण तरैँ जोगा अग्नि सूं श्रीकरनीजी धाम पधारिया।

पनरै सै पिच्याणवै चैत सुकल गुरु नम।
देवी सागण देहसूं पूगा जोत परम।।

संवत् 1595 चैत सुद 9 वृहस्पतवार श्रीकरनीजी जोगा अग्निसूं परम धाम पधारिया।

अरु सुथार बूढौ देवली देसणोक ले आयौ। तद मूरत गुंभारै मैं पधराई। सं. 1595 चैत्र सुद 14 सनीवार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र प्रतिष्ठा हुई।

श्यामलदास ने लिखा है-
गडियाला ग्राम में खराढयां तालाब पर इस देवी का देहान्त हुआ लोग बयान करते हैं कि उन्होंने शरीर से अग्नि उत्पन्न करके योगशास्त्र की रीति से अपनी देह को भस्म किया था। इनका मंदिर देसणोक में बनवाया गया, जिसको अब तक बीकानेर की रियासत में बहुत बड़ा मानते हैं जैसे उदयपुर में भी एकलिंगजी का मंदिर है, वैसे ही बीकानेर में करणी देवी का स्थान माना जाता है।

कैप्टन पी. डब्ल्यू. पाउलेट ने लिखा है-
She alighted at a place called karardian Talai, where for sometime she sat in comtemlation with her head covered. At length a jet of flame issued from her body …….. her tample.

मुंशी सोहनलाल ने लिखा है-
जैसलमेर से वापिसी के वक्त करादटन तालाब पर ठहरी उस जगह कुछ अर्से तक अपने सिर को ढाँकरकर जिक्र व फिक्र में बैठी रही आखिरकार एक शौला उनके जिस्म से निकला और उसको घेर लिया-और वह गायब हो गई-करनीजी-देवी का औतार बतौर मुहाफिज बीकानेर अब तक ख्याल की जाती हैं और सब लोग उनकी परिस्तिरा अब तक करते हैं।

उक्त सभी ग्रंथों में श्रीकरणीजी द्वारा वि. सं. 1595 चैत्र सुदी नवमी को योग शास्त्र विधि से देह त्यागने का लिखा है। श्री करणीजी के ज्योर्तिलीन होने के विषय में दयालदास री ख्यात भाग-2 पर पृ. 53 पर वि. सं. 1595 चैत्र सुद 9 बृहस्पतिवार (गुरुवार) के दिन श्री करणीजी का योगशास्त्र विधि से परमधाम पधारने का लिखा है और वि. सं. 1595 चैत्र सुद 14 शनिवार उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में श्री करणीजी की मूर्ति की प्रतिष्ठा देशनोक में होना बताया। यदि वि. सं. 1595 चैत्र सुदी नवमी को गुरुवार था तो वि. सं. 1595 की चतुर्थदशी (14) को शनिवार नहीं आ सकता। पंचाग की सहायता से व शोधपूर्वक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि श्री करणीजी वि. सं. 1595 की चैत्र सुदी नवमी शनिवार के दिन ज्योर्तिलीन हुए और वि. सं. 1595 की चैत्र सुदी चवदस गुरुवार के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में श्री करणीजी की मूर्ति की देशनोक मंदिर में स्थापना हुई थी।

इस सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है-

बरस डेढ सौ छह मास, दिन उपरान्त दोय।
देवी सिधाया देह सूं जगत सुधारण जोय।।

श्रीकरणीजी के ज्योतिर्लीन होने के सम्बन्ध में एक कवित्त दयालदास री ख्यात भाग 2 (सं. दशरथ शर्मा) में पृ. 53 पर इस प्रकार है-

उठी अंग सूं आग जोत रिव किरण समाणी,
सारी सकत्यां मांय कला भारी किनियाणी।
पूगल हंदे पाट थिंरु राव सेखो थापै,
रिणमल कमधां राज इला सारी ले आपै।
प्रज सीस दीध परचा इसा चारण सोये निभवा थया,
पन्नरै संमत पिच्याणवै करनादे सुरपुर गया।

जब पुण्यराज पानी लेकर पहुँचा तो आगे सारंगिया विश्नोई और उनके नौकर को रोता हुआ पाया। पुण्यराज इससे समझ गया कि माताजी ने अपना शरीर छोड़ दिया है इसलिये वह भी रोने लगा। कहते है कि पुण्यराज को उस समय आकाशवाणी सुनाई दी कि हमने इतने ही दिन तक अपने शरीर को रखना उचित समझा था, तुम लोग यही से देशनोक शीघ्र पहुँचो। आज से चौथे दिन एक भक्त बन्ना खाती मेरी मूर्ति लेकर देशनोक में गुम्भारे के बाहर सोया हुआ मिलेगा, उसके सिर के नीचे मेरी मूर्ति होगी। उस मूर्ति को मेरे बनाये हुए गुम्भारे में स्थापित कर देना। मैं हमेशा उस मूर्ति में रहूंगी जिसे जो कुछ अरदास करनी हो वह उस मूर्ति के सामने करे। जो दिल से पुकारेगा उसकी प्रार्थना मैं अवश्य सुनूंगी।

ये आकाशवाणी सुनकर वे लोग देशनोक के लिये रवाना हो गये। देशनोक पहुँचकर सारी घटना लोगों को कह सुनाई। धीनेरु तलाई के पास जो कि देशनोक से 35 मील दूर है, श्रीकरणीजी के ज्योतिर्लीन होने की जगह पक्का मंदिर बना हुआ है तथा वहाँ अब भी सेवा पूजा होती है। वहाँ ओरण भूमि छोड़ दी गई और इस प्रकार श्रीकरणीजी ने बीकानेर तथा जैसलमेर राज्यों की सीमा का विवाद समाप्त कर दिया।

आकाशवाणी के अनुसार ठीक चौथे दिन बन्ना खाती श्रीकरणीजी की मूर्ति लिये गुफा के आगे सोया हुआ मिला और वि.सं. 1595 (1538 ई.) की चैत्र शुक्ल 14 गुरुवार को वह मूर्ति श्रीकरणीजी के आदेशानुसार उनकी गुफा में स्थापित कर दी गई जो आज भी मौजूद है तथा तब से निरन्तर इसकी सेवा पूजा सुव्यवस्थित ढंग से होती चली आ रही है।

श्री करणी माता की शिक्षाएँ एवं संदेश

इस अध्याय में हम श्रीकरणी माता के चारित्रिक गुणों को समझने का प्रयास करेंगे जिसके कारण वे जन साधारण में पूजी जाती है। इन चारित्रिक गुणों में उनके मानवतावादी दृष्टिकोण, वचन निर्वाहता, शरणागत वत्सलता, गो-रक्षा संस्कृति, मातृ-भूमि प्रेम तथा न्यायप्रियता जैसे महान् गुण हैं जिनका अध्ययन करेंगे तथा उनके दैविक स्वरुप को जानने का प्रयास करेंगे।

(अ) मानवतावादी दृष्टिकोण:-
देवी श्रीकरणीजी के चरित्र का ऐतिहासिक अध्ययन करने पर उनके मानवतावादी जैसे महान् गुण पर प्रकाश पडता है। देवी श्रीकरणीजी ने जीवनपर्यन्त मानवतावादी दृष्टिकोण बनाये रखा तथा जनकल्याण के कार्य किये। देवी श्रीकरणीजी से सम्बन्धित ऐतिहासिक घटनाओं का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है उनके चरित्र में सबसे महत्वपूर्ण गुण मानवतावादी दृष्टिकोण था जो निम्नलिखित ऐतिहासिक घटनाओं से दृष्टिगत होता है।

01. प्रेतात्मा का कल्याण करना:-
श्रीकरणी जी जब पाँच-छः वर्ष की हुई थी तब सावण की तीज को स्नानादि करके अपनी बहिनों के साथ झूला झूलने के लिए जाती है, घर के पास ही एक जाल का वृक्ष होता है। उस वृक्ष में एक प्रेतात्मा निवास करती थी। जिसका खौफ पूरे सुवाप गाँव में व्याप्त था। श्रीकरणीजी तथा उनकी बहिनों ने उस वृक्ष पर झूला डाल दिया। सबसे पहले श्रीकरणीजी उस वृक्ष पर झूला झूली जिससे उस जाल के वृक्ष में निवास करने वाली प्रेतात्मा ने साक्षात् जगदम्बा के दर्शन किये जिससे प्रेत धन्य हो गया और उसका श्रीकरणीजी ने कल्याण कर दिया। प्रेतात्मा का श्रीकरणीजी द्वारा कल्याण करने से सुवाप गाँव से सदैव के लिए प्रेतात्मा का खौफ खत्म हो गया। वह जाल का वृक्ष आज भी सुवाप गाँव में मौजूद है। श्रीकरणीजी जिस वृक्ष पर झूला झूली थी, वह जाल का वृक्ष करणी झूला के नाम से प्रसिद्ध हो गया है।

02. साठिका गाँव में बिच्छू उत्पन्न न होने का वरदान देना:-
श्रीकरणीजी जब देपाजी के साथ विवाह करके उनके ससुराल साठिका पहुँची तो केलू जी बीजू ने वर-वधू के स्वागत हेतु भव्य आयोजन कर रखा था। जब श्रीकरणीजी तथा देपाजी को मोतियों द्वारा बधाया गया तब श्रीकरणीजी ने तोरण (खेजड़ी की सूखी लकड़ी का बना) को स्पर्श किया तो वह तोरण हरा-भरा हो गया। श्रीकरणीजी के प्रताप से खेजड़ी की सूखी लकड़ी हरी-भरी खेजड़ी में परिवर्तित हो गयी। बधाने के समय कुटुम्ब की महिलाएँ खडी हुई थी उस समय लच्छू बाई नाम की उनकी ननद को बिच्छू ने डंक मार लिया, जिसकी पीडा से वह रोने लगी परन्तु बधाने के समय शुभ कार्य पर रोना अपशुकन माना जाता है। अत कन्या लिच्छू बाई ने अपने दर्द को बडी कठिनता से सहन किया। उसके बाद में श्रीकरणीजी के समक्ष अपनी पीडा प्रकट की। इस पर पास बैठी हुई महिलाएँ कहने लगी कि इस गाँव में बिच्छू बहुत अधिक होते हैं, उनसे बहुत सम्भल कर रहना चाहिए। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि आज से ही इस गाँव के सारे बिच्छू लुप्त हो जायेंगे और भविष्य में कभी भी उत्पन्न नहीं होंगे। इतना कहकर उन्होंने लिच्छू बाई के डक लगे अंग को स्पर्श किया, तो उसके शरीर से बिच्छू का विष एकदम उतर गया। उस दिन से लेकर आज तक साठिका गाँव में बिच्छू उत्पन्न नहीं होते। इस तरह से आषाढ मास वि. सं. 1473 (1416 ई.) को श्रीकरणीजी ने साठिका गाँव के लोगों को बिच्छू जैसे विषैले जीव से मुक्ति दिलाई। यही श्रीकरणीजी का मानवतावादी दृष्टिकोण है जिसके फलस्वरुप वर्तमान में भी साठिकावासी श्रीकरणीजी द्वारा दिये गये वरदान का प्रतिफल प्राप्त कर रहें हैं।

03. ननिहाल वाले आढो को शाप मुक्ति की राह बताना:-
श्रीकरणी माता के विवाह में उनके ननिहाल से उनके मामा नहीं आये। उनके विवाह में माता द्वारा न तो भात भरी गई न ही अपने किसी प्रतिनिधि को विवाह में भेजा। यह घटना किसी भी कन्या का सामाजिक अपमान करवाती है। इस घटना से क्षुब्ध होकर श्रीकरणीजी ने ननिहाल वालों को शाप दिया जिसका अध्ययन हम दूसरे अध्याय मे कर चुके है।

इस शाप का पता उनके ननिहाल वाले मामा को चला तो वे साठिका गाँव पहुँचे और श्रीकरणीजी के ससुर केलूजी से मिले और उन्हें आढ़ाणां गाँव में पधारने के लिए आमंत्रित किया तथा विवाह के समय किसी कारणवश नहीं पहुँचने के लिए क्षमा याचना की और उन्होंने केलू जी को सकुटुम्ब आढ़ाणां गाँव पधारने का अनुरोध करने लगे। तब श्रीकरणीजी ने अपने मामा को अपने पास बुलवाया तथा कहा कि तुम व्यर्थ की बातें बहुत बना लेते हो। मैं तुम्हारे यहाँ नहीं चलना चाहती हूँ। इस पर जब मामाजी ने हाथ जोड़कर श्रीकरणीजी से प्रार्थना की देवी आप साक्षात् भगवती का अवतार हो आप हमारी नासमझी में की गई भूल को क्षमा कर दो। आपके विवाह में उपस्थित न होकर हमनें बडी गलती कर दी है। हमारी आर्थिक दशा दिन-दिन बिगड रही है। इस पर जब मामा ने अधिक मिन्नतें की तो श्रीकरणीजी को उनके मामा पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता। लेकिन तुम इतनी दूर से चलकर मेरे पास आये हो इसलिए मैं तुम्हें शाप मुक्ति की राय दे सकती हूँ। तुम लोगों को अपना पैतृक गाँव आढ़ाणां को छोडकर बाहर तो जाना ही पडेगा। लेकिन तुम्हारी सन्तान पहाड़ों में पहुँचकर निवास करने लगेगी तब तुम्हारी आर्थिक स्थिति में सुधार हो जायेगा। इस प्रकार श्रीकरणीजी से राय लेकर उनके मामा अपने गाँव गये। श्रीकरणीजी का शाप अक्षरशः सत्य हुआ। आढ़ाणां गाँव वाले आढों की संतान दिनों-दिन नत होती गयी। वे लोग घर-घर फिरने लगे और उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई।

एक बार अकाल के समय राज्य के कामदार आढ़ाणां गाँव में अनाज खरीदने आया, जो किसी तकरार के कारण, कानोजी आढ़ा के हाथों से मारा गया। इस कारण राज्य के कोप से डरकर मेहाजी तथा कानोजी दोनों भाई सपरिवार अपना गाँव छोडकर सोजत परगने के गाँव धूंदला में आ बसे थे। लेकिन इनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि मेहाजी को अत्यधिक निर्धनता के कारण सन्यास लेना पडा तथा उनके पुत्र दुरसा आढ़ा को बाल्यकाल में एक सीरवी किसान के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। इस तरह श्रीकरणीजी के शाप के कारण आढों से उनका पैतृक गाँव आढ़ाणां छूट गया तथा उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई।

लेकिन जब दुरसा आढ़ा सिरोही के पर्वतीय प्रदेश में आया तो उसका भाग्योदय हो गया। उसे सिरोही के राव सुरताण ने अपना पोलपात बना दिया और आढों को सिरोही जिले में झाँकर (देवलपुर), ऊंड, पेशुवा, वरायल गाँव जागीर में मिल गये। इस प्रकार पार्वत्य प्रदेश में आ जाने से दुरसा आढ़ा की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ हो गई। उसे मध्यकालीन चारण कवियों में सर्वाधिक धन प्राप्त हुआ। अतः श्रीकरणीजी के आशीर्वाद के फलस्वरुप आज भी जो आढ़ा शाखा के चारण पर्वतीय प्रदेश के गाँवों में निवास कर रहे हैं उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ बनी हुई है तथा वे आढ़ा चारण जो मरु प्रदेश में निवास कर रहे हैं उनकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर बनी हुई है वे दरिद्रता पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं। श्रीकरणीजी का वचन अब भी सत्य प्रतीत हो रहा है और पर्वतीय प्रदेश के आढों के गाँव झांकर (सिरोही), ऊंड (सिरोही), पेशुआ (सिरोही), वरायल (सिरोही), रायपुरिया (पाली), पांचेटीया (पाली) में निवास करने वाले आढ़ा सरदार खुशहाली पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहें हैं।

04. मृत उदावत वर को जीवनदान देना:-
वि.सं. 1475 (1418 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को श्रीकरणी माता सकुटुम्ब गोधन के रक्षार्थ अपने ससुराल साठिका का परित्याग करके जा रही थी। साठिका गाँव से श्रीकरणीमाता का परिवार दो कोस दूर ही गया था कि बधालो नामक गाँव की कांकड के बाहर बनी सराय के पास बडी संख्या में लोग एकत्रित हुए खडे थे। श्रीकरणीजी ने इतने सारे लोगों को एक साथ खडा देखकर अपना रथ रुकवाया और भीड में खडे व्यक्ति से एकत्रित होने का कारण पूछा तो उस व्यक्ति ने विलाप करती राजपूत महिला की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसका पति अपने ससुराल से गौना कराकर लौट रहा था। यह किसी दूर के गाँव का रहने वाला था। रात को अंधेरा होने के कारण इस गाँव की सराय में ठहरा। इस महिला के पति को रात को सोते समय पैणा सर्प पी गया। जिससे इससे पति की मृत्यु हो गई। इस कारण से यह महिला विलाप कर रही है। हम सभी गाँव वाले मिलकर इसके पति के चिता की तैयारी कर रहे हैं। यह सुनते ही श्रीकरणीमाता का मानवतावादी उदार दृष्टिकोण जाग उठा और नवविवाहिता दुल्हन को इस तरह विलाप करते देखकर देवी श्रीकरणीजी का करुणामय भाव जाग उठा। उस महिला पर देवी को तरस आ गया तथा श्रीकरणीजी अपने रथ से उतरकर मृत उदावत सरदार के शव के पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखकर उसको कहा कि ‘वीरा उठ खड़ा हो’, इस तरह श्रीकरणीजी का वचन मुँह से निकलते देवी शक्ति से मृत उदावत सरदार उठ खड़ा हुआ। श्रीकरणीजी ने उस मृत उदावत सरदार को जीवित करके उस नवविवाहिता स्त्री को अत्यन्त खुश कर दिया। उस स्त्री ने श्रीकरणीजी के दोनों पाँव पकड कर उन्हें कोटिशः कोटिशः धन्यवाद दिया। इस तरह का दैविक चमत्कार बधालो गाँव के सभी लोगों ने देखा। अत उक्त ऐतिहासिक घटना का अध्ययन करने से श्रीकरणीजी का मानवतावादी दृष्टिकोण प्रकाशमान होता है।

05. मथाणियाँ गाँव वालों के लिए वरदान देना:-
जोधपुर के मेहरानगढ की नींव वि. सं. 1515 (1458 ई.) ज्येष्ठ शुक्ल 11 शनिवार के दिन श्रीकरणीजी ने अपने हाथों से रखी। उसके पश्चात् श्रीकरणीजी ज्येष्ठ शुक्ल 13 को मथाणियाँ गाँव के स्वामी अमराजी बारहठ के अनुरोध पर उनके गाँव मथाणियाँ गई। अमराजी बारहठ श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त था। उन्होंने श्रीकरणीजी के मथाणियाँ आगमन की स्मृति में उनका एक मन्दिर बनाने की बात उनको कही थी तो श्रीकरणीजी ने उसे आज्ञा दी कि गुम्बदाकार मन्दिर का निर्माण न करके तिबारेनुमा मन्दिर बना देना। उसमें मेरी मूर्ति न स्थापित करके मेरी चरण पादुकाओं को स्थापित कर देना तथा देवी ने मथाणियाँ गाँव के लिए वरदान दिया कि तेरे गाँव में कभी महामारी नहीं आयेगी, और अतिवृष्टि, ओलावृष्टि आदि देवी प्रकोप से यहाँ कोई हानि नहीं होगी तथा गाँव में कभी भी आग नहीं फैलेगी और कहा कि नित्य सवेरे सवा पहर दिन चढने तक मैं यहाँ मन्दिर में प्रत्यक्ष रहूँगी।

दूसरे दिन श्रीकरणीजी ने अमरा बारहठ को कहा कि तेरी सन्तान बहुत अधिक बढेगी और आपस में लडती-भिडती रहेंगी, इसलिये तेरे इस गाँव का शासन पत्र किसके अधिकार में रहेगा, इस पर तूने कभी विचार किया है क्या? यह सुनकर अमरा बारहठ ने वह जागीर का ताम्र-पत्र देवी श्रीकरणीजी को दे दिया और कहा कि माँ आप जैसा कहो वैसा मैं करने के लिए तैयार हूँ। कहा जाता है कि देवी श्रीकरणीजी ने जागीर का ताम्र-पत्र अपने हाथों से मन्दिर में रखवा दिया और उसके ऊपर चबूतरे का निर्माण करवा दिया और उस पर अपनी पादुकाएँ रख दी ताकि देव मन्दिर होने के कारण उसको खोदकर शासन पत्र को कोई निकाल न सके। इस तरह श्रीकरणीजी ने अपने भक्त अमराजी बारहठ के वंशजों में भविष्य में होंने वाली तकरार की सम्भावना खत्म करके दूरदर्शिता का कार्य किया। वि. सं. 1515 (1458 ई.) से मथाणियाँ वालों को दिये गये वरदान का देवी श्रीकरणीजी आज भी निर्वाह कर रही है और यहाँ के लोगों मे आज भी ऐसा दृढ विश्वास है कि अपने वचनानुसार नित्य सवेरे सवा पहर श्रीकरणीमाता मढ में विराजमान रहती है।

श्रीकरणीजी द्वारा अमराजी बारहठ को भाई कह कर सम्बोधित किया गया था अतः आज भी श्रीकरणीजी के वंशज किनिया शाखा के चारण तथा अमराजी के वंशज अमरावत बारहठ इस पवित्र रिश्ते को निभा रहें है। इन दोनों गौत्र (अमरावत बारहठ तथा किनिया) के चारण आज भी इस पवित्र रिश्ते को निभाते हुए आपस में वैवाहिक सम्बन्ध भी नहीं करते हैं।

जनश्रुति के आधार पर शंकरोत बारहठों का मानना है कि श्री करणीजी मथानिया से खारी खुर्द पधारी थी और अपने हाथों से थिराजी का भाई-बँट करवा कर खारी का विभाजन किया। श्रीकरणीजी ने अपने हाथों से माताजी का थांन स्थापित किया जो आज भी गवली के रुप में स्थित है, जिसकी पूजा की जाती है।

(ब) वचन निर्वाहता:-

01. मांगलिया राजपूतों को वरदान देना:-
श्रीकरणीजी के विवाह के बाद बारात साठिका गाँव के लिये जा रही थी। उन दिनों गर्मी के दिन थे जिससे देवी श्रीकरणीजी के पशु बहुत प्यासे हो गये तीसरे पहर बारात मांगलिया राजपूतों के गाँव पहुँची। गाँव के कुँए पर पशुओं को पानी पिलाने के लिए रोका और वहाँ के मांगलिया राजपूतों को कहा कि हमारे पशु बहुत लम्बी यात्रा करके आये हैं अतः बहुत प्यासे हैं, तुम इनको पानी पिला दो। मांगलिया राजपूत श्रीकरणीजी के दैविक अवतार से वाकिफ थे। उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा कि बाईजी हमारे कुँए में तो गिनती के दस-बीस चडस ही पानी निकलता है, उस पानी को तो हमने पहले ही निकाल लिया है। अब आप जैसी आज्ञा दे वैसा करें? अब इस कुँए में चार घडी बाद जब पुनः जल का संचार होगा, तब आपकी गायों को जल पिलाकर हम घर जायेंगे। श्रीकरणीजी ने उनकी शुद्ध भावना को देखकर उनको कहा कि आप लोग अपने मन में पानी के लिए चिन्ता न करें, आज तो तुम इस कष्ट को जैसे-तैसे सहन कर लो, कल मेरी मूर्ति बनाकर उसको कच्चे चमड़े में रखकर इस कुँए में डुबा देना और कुँए का नाम करनीसर रख देना। इससे इस कुँए में अखूट पानी हो जायेगा और उसकी तुम्हें भविष्य में कमी नहीं अखरेगी। साथ ही देवी ने यह आज्ञा भी दी कि जिस खेजड़ी (शमी) की छाया में हमने पहुँच कर विश्राम लिया है उसको कभी मत काटना। यह वृक्ष यहाँ सदैव फलता-फूलता रहेगा।

02. अणदा खाती की रक्षा करना:-
वि.सं. 1473 (1416 ई.) को श्रीकरणीजी साठिका गाँव जा रही थी। तब उन्होंने बीच में करणू गाँव मे खाती परिवार के यहाँ विश्राम किया था और उस समय खातीन (सुथारिन) स्त्री को श्रीकरणीजी ने उसके पुत्र अणदा (करणा) की रक्षा करने का वचन दिया था। इस वरदान के पाने के बाद अणदा श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त बन गया और वह हर पल करणी-करणी जाप किया करता था। तब लोगों ने उसका नाम करणीदास रख दिया था। जिसे संक्षेप में लोग करणा कहकर ही पुकारते थे। इस वरदान के कई वर्षों बाद एक दिन अणदा सुथार (करणा) पास के गाँव आऊ में एक कुँए में काठ (जमोठ) ठीक करने के लिए उतरा था। जब वह उसको ठीक करके चडस (मोट) पर बैठकर वापस कुँए से बाहर निकल रहा था तो उसका रस्सा (लाव) पुराना होने के कारण टूट गया। यह देखकर बरहे के बैल को हाँकने वाले आदमियों (कीलिया तथा बारिया ने) शोर मचाया। गाँव के सार्वजनिक कुँए को ठीक करने के लिए वहाँ बहुत सारे लोग खड़े हुए थे। वे सब के सब यह देखकर घबरा गये। रस्सा (लाव) टूटकर चड़स कुँए में गिरने लगा, उस समय अणदा (करणा) ने ‘देवी करणी रक्षा कर’ कहा। उस समय देवी श्री करणी जी पाकिस्तान के सिंध के गाँव खारोडा में थे। ये शब्द उसके मुँह से निकलते ही एक दम्भी (एक प्रकार सर्प का) ने प्रकट होकर उस टूटे हुए रस्से के दोनों सिरे अपने दोनों मुँह में थाम लिये और अणदा (करणा) ने उसी समय अन्दर से आवाज दी कि लाव (रस्सा) टूटा नहीं है तुम बैलों को हाँकते चलो इस पर बाहर खडे लोगों को विश्वास हुआ कि ताव टूटी नहीं है। और उन्होंने अणदा (करणा) को बाहर निकाला तो वे टूटे हुए रस्से की जगह दम्भी को जकडा हुआ देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उसी क्षण वह दम्भी गायब हो गई। इस घटना से अणदा पर देवी श्रीकरणीजी का इतना प्रभाव पडा कि वह अपना गाँव करणू छोडकर देवी श्रीकरणीजी के श्री चरणों में निवास करने हेतु देशनोक आकर बस गया। अभी वर्तमान में भी देशनोक गाँव में अणदा सुथार के वंशज निवास कर रहे हैं। इस घटना के बाद से श्री करणी माता के अनुयायी भक्त दम्भी (एक प्रकार का सर्प) को बडा पवित्र एव भगवती श्री करणीजी का रूप मानते हैं।

इस घटना के समय में श्री करणीजी ने खारोडा (सिंध वर्तमान में पाकिस्तान) में बैठे-बैठे अपने भक्त अणदा का मारवाड़ के आऊ (फलोदी के निकट) में उद्धार करते हुए उसकी जीवन रक्षा करते है। जिसके साक्ष्य का एक प्राचीन दोहा मिलता है-

आऊ में टूटी बरत, पैसारे पैठाँह।
अणदो खाती तारियो, माँ खारोडै बैठाँह।।

03. झगडू शाह की रक्षा करना:-
सेठ झगडू नाम का एक माहेश्वरी वैश्य था। जो उन दिनों चित्तौड नगर में रहता था वह बहुत धनी व्यापारी था। उसका व्यापार समुद्र पार के दूर-दूर तक के देशों में होता था और उसकी राज्य में बहुत प्रतिष्ठा थी। किसी कारणवश महाराणा मोकल झगडू से नाराज हो गया। तब वह चित्तौड नगर को छोडकर मारवाड़ के खींवसर नामक नगर में बस गया। उसने श्रीकरणीजी के दैविक चमत्कारों की चर्चा चित्तौड में भी बहुत सुन रखी थी, खींवसर में आने के बाद उसका श्रीकरणीजी के प्रति श्रद्धा भाव बढने लगा और वह हर शुक्ल चतुर्दशी को देशनोक आकर श्रीकरणीजी के दर्शन करने लगा। उसने एक दिन श्रीकरणीजी से प्रार्थना की कि आप मेरे भावी जीवन में आने वाले सकट के समय सहायता का वरदान दें। देवी श्रीकरणीजी ने उसके भक्ति भाव से प्रसन्न होकर कहा कि तुझे कभी विपदा पडे तो मुझे स्मरण कर देना मैं तेरी अवश्य सहायता करुंगी। इस तरह भक्त झगडू ने श्रीकरणीजी से आशीर्वाद प्राप्त किया।

वि.सं. 1516 के भाद्रपद शुक्ल दशमी गुरुवार को झगडू समुद्र पार से व्यापार करके घर लौट रहा था तो समुद्र में भयंकर तूफान आ गया जिससे उसकी नांव डांवाडोल होने लगी। झगडू शाह ने अपने जीवन को संकट में देखकर श्रीकरणीजी से रक्षा की पुकार की। उस समय श्रीकरणीजी देशनोक में गायों का दूध निकाल रही थी और पास ही उनकी सास खडी हुई थी। देवी श्रीकरणीजी ने झगडू की पुकार सुनते ही बाँया हाथ बढाकर दैविक शक्ति से उसकी नाव को खींचकर किनारे ले आयी और दाहिने हाथ से गाय की दुहारी करती रही। गाय का दूध निकालने के बाद उन्होंने अपनी अंगिया को निचौडा तो उनकी सास ने उनकी अंगिया के भीगी होने का कारण पूछा, तो श्रीकरणीजी ने कहा कि सेठ झगडू की नाव तूफान में फँस गयी थी। उसको खींचकर समुद्र के तट पर लाने में समुद्र के पानी से मेरी अंगिया भीग गयी थी, उन्होने अंगिया निचोड़ते हुए कहा कि ‘ जा बाड़े में बस जा’, अर्थात् बाडे में समा जा। उनके ये शब्द सुनकर उनके पास खडे सेवक ने उनसे पूछा कि आप किसको बाडे में समा जाने का कह रही हो। इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि देशनोकवासियों को भविष्य में मकान आदि के निर्माण के लिए पानी की आवश्यकता होगी तो यह समुद्र का खारा पानी मात्र 10-15 फीट खोदने पर मिल जायेगा। परन्तु इसको खोदने से पहले बाडा बनाना होगा। इस तरह आज भी देशनोकवासियों को जब मकान आदि के निर्माण के लिए पानी की आवश्यकता होती है तो पहले बाडा बनाकर मात्र 15-20 फीट खोदने पर खारा पानी मिल जाता है जबकि यहाँ का जलस्तर 350-400 फीट नीचे होने पर भी देवी श्रीकरणीजी की कृपा से खारा पानी मकान निर्माण आदि कार्यो के लिए थोड़ा सा खोदने पर मिल जाता है कार्य पूर्ण होने पर उस गड्डे को बूर दिया जाता है।

बीकानेर की तवारीख (मुंशी सोहनलाल) ने पृ. 23 पर लिखा है-देशनोक कसवा के अन्दर छोटी कुइया घरों में बनी हुई है उनमें देखा गया महज आठ-दस हाथ अमीक पानी है लेकिन इन चाहातखाम का पानी शोर (खारा) है-सितह जमीन में कुछ तफावत पाया नहीं जाता। वाशिंद गान इसको करणीजी की बरकत दुआ से बयान करते हैं। ऐसा ही उल्लेख बीकानेर के इतिहास (जेम्स टॉड कृत) के पृ. 65 पर हुआ है।

इस तरह श्रीकरणीजी ने अपने भक्त झगडू की डूबती नाव को किनारे लाकर उसके प्राण बचाये। साथ ही देशनोकवासियों के लिए मकान आदि के निर्माण करने हेतु आसानी से खारा पानी भी सुलभ करवा दिया।

भगवती श्री करणी माता ने झगडू शाह की नाव को अरब सागर के तट पर गांधीधाम से करीब 15 किमी दूर वीरा गाँव में किनारे लगाया था। इस स्थान पर झगडू शाह ने करीब 550 वर्ष पूर्व हरसिद्धी माता के नाम से श्री करणी माता का मंदिर बनाया था, इस मन्दिर के वाम पक्ष में झगडू शाह और उसकी दोनों पत्नियों की मूर्तियाँ भी लगी हुई है। इस प्राचीन मंदिर के पास में मां करणीजी के भक्त किशन कुमार नवलखा जी ने करणी माता का सफेद संगमरमर से नया मंदिर 2018 ई में बनवाया है। किशन कुमार नवलखा(जैन) राजस्थान के बीकानेर जिले की नोखा तहसील के जैसलसर गाँव के हैं जो काठमांडू में व्यवसाय करते हैं ।

इस तरह देवी श्रीकरणीजी द्वारा उसकी रक्षा करने पर वह उनका दृढ आस्थक बन गया और समय-समय पर श्रीकरणीजी के दर्शनार्थ देशनोक आया करता था।

(स) शरणागत वत्सलता:-

01. भूरा भंसाली को सनाथ बनाना:-
सूजासर गाँव में एक भूरा भंसाली नामक बालक निवास करता था। उसके माता-पिता बाल्यकाल में ही चल बसे थे। इस अनाथ भूरा को उसकी माँ की बहुत याद आती थी। उसने सुन रखा था कि देशनोक में श्रीकरणीमाता नाम की एक देवी निवास करती है, जो बच्चों को बहुत प्यार करती है। एक दिन वह सूजासर गाँव के बाहर देशनोक जाने वाले मार्ग पर बैठा था तभी उसे एक बैलगाड़ी देशनोक की ओर जाती हुई दिखाई देती है जिसमें महिलाएँ और बच्चे बैठे हुए थे। पुरुष बैलगाड़ी के पीछे-पीछे चल रहे थे। भूरा भी उस बैलगाडी के पीछे-पीछे चलने लगा। यात्रियों ने दयावश उसे अपनी बैलगाडी में बैठा दिया। यात्रियों के साथ भूरा भी देशनोक श्रीकरणीजी के दर्शन करने पहुँच गया। जैसे ही उसने श्रीकरणीजी के दर्शन किये उसका मातृत्व भाव जाग उठा और वह एक टक से श्रीकरणीजी की ओर देखने लगा। तभी देवी श्रीकरणीजी का ध्यान यात्रियों के बीच बैठे भूरा की ओर गया, जो उदास बैठा था। श्रीकरणीजी ने यात्रियों से पूछा यह बालक किसका है? यात्रियों ने उस अपरिचित बालक की दुःख भरी दास्ताँ सुनाई। यह सब सुनकर श्रीकरणीजी ने उसे स्नेहपूर्वक बुलाकर अपने पास बैठाया और उससे हँस-हॅसकर बातें करने लगी, जैसे कि उस बालक से उनका पुराना परिचय हो। श्रीकरणीजी के दर्शन करके सब यात्री संध्या पूर्व प्रस्थान कर गये तथा श्रीकरणीजी ने भूरा को अपने पास ही रख दिया।

शाम को जब श्रीकरणीजी के बड़े पुत्र पुण्यराज (पूनाजी) घर आये तो उस अपरिचित बालक को देखकर उन्होंने श्रीकरणीजी से पूछा कि यह लड़का किसका है? तो उन्होंने कहा कि यह मेरा भूरिया बेटा है। इस तरह श्रीकरणीजी ने भूरा भंसाली नामक अनाथ बच्चे को अपनाकर सनाथ कर दिया तथा उसे कभी भी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी। उन्होंने न केवल अनाथ बच्चे को शरण दी बल्कि उसके साथ वत्सलता पूर्वक व्यवहार भी किया।

अब भूरा भंसाली श्रीकरणीजी के परिवार का सदस्य बन गया। न केवल श्रीकरणीजी बल्कि परिवार के सभी सदस्य बालक की सुख सुविधा का ध्यान रखते थे। समय के साथ भूरा वयस्क हो गया। भूरा भी हर समय श्रीकरणीजी की सेवा में लगा रहता था, जो दूर-दूर से श्रीकरणीजी के दर्शन करने के लिये आते थे उनका वह बहुत ध्यान रखता था।

एक दिन श्रीकरणीजी ने भूरा से पूछा कि तू मेरी ही सेवा में बैठा रहेगा या अपनी घर गृहस्थी भी बसायेगा। तो इस पर उसने कहा कि मैं अब तक अपने माता-पिता का मौसर (मृत्यु-भोज) नहीं कर पाया हूँ। अत. समाज वाले मुझे कैसे अंगीकार करेंगे तब उसे श्रीकरणीजी ने कहा कि तुम मौसर की तैयारी करो। भूरा को श्रीकरणीजी पर पूर्ण विश्वास था उसने चूल्हे पर छोटी सी कडाई चढाकर हलवा तैयार किया तथा अपने सारे समाज को और गाँव वालों को निमंत्रण दे दिया। इस तरह सारी तैयारी करके भूरा श्रीकरणीजी को बुलाने के लिए उनके पास गया तब श्रीकरणीजी ने उसे अपनी पुरानी लोवड़ी देते हुए कहा कि इसे हलवे की कडाई पर ओढा देना और मैं स्वयं तेरे घर आकर प्रसादी ग्रहण करुंगी। भूरा ने श्रीकरणीजी की लोवड़ी को कडाई पर ओढा दी। श्रीकरणीजी ने भूरा भंसाली के घर पधार कर भोजन ग्रहण किया। फिर बाद में उसके सभी समाज वालों तथा गाँव वालों को भोजन कराया। श्रीकरणीजी के प्रताप से उसका हलवा अखूट हो गया तथा उसने अपने माता-पिता का मौसर किया। उसके बाद अपने समाज की लडकी से विवाह कर दिया। भूरा भंसाली देवी श्रीकरणीजी की वात्सल्यता से पहले तो सनाथ हो गया फिर उनके आशीर्वाद से उसकी घर गृहस्थी बस गयी। आज भी देशनोक गाँव में भूरा भंसाली के वंशज निवास कर रहे हैं और ये श्रीकरणीजी को अपनी कुलदेवी मानते है। भूरा के वंशजों के वर्तमान में देशनोक में सवा सौ घर हैं।

02. सींथल गाँव के बीठूओं की सहायता करना:-
सींथल (सिंहस्थल) गाँव पहले बेठवासिया खाँप के ऊदावत राठौड़ों के अधिकार में था। इस गाँव को बाद में रेणसी साँखला ने बीठू चारण को जागीर में दे दिया। इससे अब नियमानुसार ऊदावतों को बीठू की प्रजा बनकर इस गाँव में रहना पड़ रहा था। यह बात ऊदावतों को बुरी लगने लगी तथा इसको उन्होंने अपना अपमान मान लिया। बीजू के वंशज लूणा के समय में उसको शोभा और बीदा ऊदावत ने कुछ बल प्रयोग करके निकालने का प्रयास किया। ऊदावतों ने लूणा को कई तरह से परेशान किया। प्राचीन काल से ही यह नियम चला आ रहा है कि चारण कितना भी सबल क्यों न हो? वह राजपूत व्यक्ति पर कभी शस्त्र नहीं उठाता। इसी तरह राजपूत भी कभी चारण पर शस्त्र नहीं उठाते। लेकिन जब कभी ऐसी विरोधी स्थिति बन जाती है तो चारण लोग राजपूतों के विरूद्ध धरना देते है तथा तागा करते हैं। चारण लोग तागा करके अपना देह त्याग देते थे। अगर चारण तागा करने में सफल हो जाता था तो राजपूत अपयश का पात्र बन जाता था। इस अपयश से बचने के लिए राजपूत लोग चारणों की बात स्वीकार कर लेते थे।

जब ऊदावतों के अन्याय के विरूद्ध लूणा ने तीन बार तागा किया, परन्तु वह प्रत्येक बार जीवित बच गया। इस पर वह दुःखी होकर देशनोक श्रीकरणीजी की शरण में पहुँच गया और अपना दुखड़ा उनको सुनाया और कहा कि मैंने अन्याय के विरुद्ध तीन बार तागा किया परन्तु मैं प्रत्येक बार बच गया इससे देश भर में मेरी बदनामी फैल चुकी है। मैं किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा हूँ। इस पर श्रीकरणीजी ने लूणा को सलाह दी कि तू यहाँ से सीधा नापासर चला जा। वहाँ बहुत सारे साँखले (राजपूत) एकत्रित हुए हैं, तू भी उनके मेहमानों में शामिल हो जाना। वे तुझसे भोजन ग्रहण करने का आग्रह करे तो तू उनसे यह वचन लेना कि अगर मेरी मृत्यु हो जावे तो तुम लोग मुझे सींथल गाँव ले जाकर ऊदावतों के द्वार पर जला देना। जब तू भोजन करेगा तो खीर में केश आ जाने से तेरी मृत्यु हो जायेगी और सांखला राजपूत तुम्हें सींथल ले जाकर ऊदावतों के द्वार पर जला देंगे और पीछे से मैं सारा काम संभाल लूंगी।

श्रीकरणीमाता के निर्देशानुसार लूणा बीठू सीधा नापासर चला गया। वहाँ जाकर वह साँखलों के आये हुए मेहमानों में सम्मिलित हो गया। उससे भोजन का आग्रह किया तो उसने साँखलों से उक्त वचन ले लिया। देवी संयोग से लूणा की खीर में केश आ गये जो उसके गले में उलझ गये जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। सभी साँखलों ने मिलकर अपने वचनानुसार उसके शव को सींथल गाँव ले जाकर ऊदावतों के द्वार पर जला दिया। साँखलों को अधिक संख्या में देखकर ऊदावतों ने घरों से बाहर निकलने का साहस नहीं किया। संध्या के समय साँखले वापस नापासर चले गये। तब ऊदावत बाहर आकर लूणा बीठू की भस्म को फैंकने लगे तभी श्रीकरणीजी वहाँ उनको त्रिशूल लिये हुए दिखाई दी। श्रीकरणीजी ने ऊदावतों को युद्ध के लिए ललकारा, परन्तु श्रीकरणीजी को सामने पाकर उनकी आगे बढने की हिम्मत नहीं हुई। श्रीकरणीजी ने सब ऊदावतों का वध कर दिया। उनमें से एक ऊदावत श्रीकरणीजी का भक्त था, उसे उन्होंने छोड दिया। वह भागकर सीधा देशनोक पहुँचा और उसने श्रीकरणीजी से निवेदन किया कि मातेश्वरी मैं तो आपका भक्त हूँ मैं दूसरे ऊदावतों के साथ नहीं हूँ उन्हें अपने किये का फल मिल गया। कृपा कर मुझ पर आप दया करें। तब श्रीकरणीजी ने कहा कि मैं सींथल गाँव में एक भी ऊदावत को रहने नहीं दूंगी। तू मेरा भक्त है और तू मेरी शरण में आया है इसलिये मैं तुझे जो कहूँ वह कर। तू सींथल से अपना सामान बैलगाडी में लाद कर चला जा। जहाँ तेरी बैलगाडी की सोल टूटे वहाँ पर तू बस जाना। वह ऊदावत राजपूत श्रीकरणीजी के निर्देशानुसार अपना सामान सींथल से बैलगाडी में लाद कर चल दिया। रास्ते में जिस स्थान पर उसकी सोल टूट गयी वहीं पर बस गया। उस स्थान पर उसके नाम से शोभा नाम का एक गाँव बस गया और वह उस गाँव का स्वामी बन गया। कुछ समय बाद वहाँ एक गाँव आबाद हो गया। इस तरह श्रीकरणीजी ने शरणागत ऊदावत को जहाँ सींथल में उसके हिस्से 10-20 बीघा भूमि आती थी। श्रीकरणीजी की कृपा से वह पूरे गाँव का स्वामी बन गया, आज भी उसके वंशज शोभा गाँव में निवास कर रहें है।

इसी तरह से श्रीकरणीजी ने अपनी शरण में आये हुए लूणा बीठू को ऊदावतों के विरुद्ध सहायता देकर उनके अत्याचारों से उसे मुक्ति दिलाई। साथ ही अपने भक्त शोभा ऊदावत को माफ करके उसे पृथक गाँव का स्वामी बना दिया।

03. मन्दार के मोकल मोहिल की रक्षा करना:-
मन्दार नामक नगर का स्वामी मोकल मोहिल था। वह श्रीकरणीजी का अनन्य भक्त था। एक बार वह अपने शत्रुओं से युद्ध करने के लिए गया। मोकल मोहिल बड़ा ही साहसी व्यक्ति था। उसके पास शत्रुओं की तुलना में सैनिक कम थे। फिर भी उसने बडे साहस के साथ अपने शत्रुओं पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। उसके शत्रुओं ने उसके रथ के घोडे पर भीषण प्रहार किये। जिससे मोकल मोहिल का एक घोडा युद्ध भूमि में मर गया। अब उसके पास दो ही विकल्प बचे एक तो यह कि वह युद्ध क्षेत्र से भागकर प्राण बचाये अथवा दूसरा विकल्प यह था कि वह स्वयं बिना रथ के पैदल लडकर वीरगति को प्राप्त हो जाये। मोकल ने ऐसे घोर संकट के समय श्रीकरणीजी से रक्षा हेतु पुकार की। उसी समय उसके रथ के मरे हुए घोड़े की जगह सिंह जुड गया। उसने समझ लिया कि युद्ध में श्रीकरणीजी उसकी सहायता कर रही है। उसका आत्मविश्वास दोगुना हो गया। उसने शत्रुओं पर फिर से भीषण प्रहार किये। रथ के आगे जुता सिंह दहाड़ कर उसका रथ शत्रुओं की ओर खींच कर ले गया और मोकल ने एक-एक करके सारे शत्रुओं को धराशाही कर दिया। इस तरह मोकल मोहिल श्रीकरणीजी के प्रताप से न केवल युद्ध जीता बल्कि उसके प्राण भी बच गये। इस युद्ध में विजय के बाद मोकल मोहिल की श्रीकरणीजी के प्रति दृढ आस्था और बढ गयी।

गौ-रक्षा संस्कृति:-
श्रीकरणीजी के पिता मेहाजी भी पशुओं को पालते थे। उनके पास गायें, भैंसे, साँढणियाँ, भेडें, बकरियाँ तथा घोडे आदि को मिलाकर उनके यहाँ सैकडों पशु थे। उनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन ही था। श्रीकरणीजी गायों के बछडों को बहुत प्यार करती थी। उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन-काल में गो-पालन का कार्य किया है। उन्होंने अपनी जन्म स्थली सुवाप को ब्रज भूमि बना दिया था।

युवावस्था में श्रीकरणीजी का विवाह हुआ तो उनके पिता मेहाजी ने उन्हें दहेज में बहुत सारे पशु दिये जिसमें 400 गायें तथा 200 साँढणियाँ सम्मिलित थी। जब श्रीकरणीजी के पति देपाजी ने कारणवश ये सब पशु लेने से इंकार कर दिया तो भी श्रीकरणीजी ने अपनी प्रिय गायों को हठात् अपने साथ साठिका ले लिया, जिनकी सख्या 200 थी।

श्रीकरणीजी के ससुर केलूजी भी पशुपालक ही थे। उनके घर भी बहुत सारे पशु थे और श्रीकरणीजी अपने साथ 200 गायें और लेकर आ गयी। श्रीकरणीजी के पति देपाजी ने उनकी बहिन गुलाब बाई से दूसरा विवाह किया तब मेहाजी ने बहुत सारी गायें और पशु उनको दहेज में दिये जिसे देपाजी अपने साथ साठिका ले आये। इस प्रकार केलू जी बीठू के यहाँ बहुत बडी पशुओं की भीड हो गई। जिससे साठिका गाँव में पशुओं के लिए पेयजल संकट आ पडा। क्योंकि साठिका गाँव में एक ही पानी का कुआँ था जिसमें इतना अधिक पानी नहीं था और गाँव वालों के भी बहुत सारे पशु थे। एक बार पानी की बात को लेकर श्रीकरणीजी की उनके कुटुम्बियों से बहस हो गयी जिसका वर्णन हम दूसरे अध्याय में कर चुके हैं। इस प्रकार वि. सं. 1475 (1418 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को भोजन के पश्चात् अपने ससुर, सास, पति, देवर तथा दूसरे कुटुम्बियों को साथ लेकर गोधन की रक्षा के लिए सदा के लिए साठिका गाँव का परित्याग कर दिया। यदि श्रीकरणीजी चाहती तो मांगलियों के कुँए में पशुओं के लिए अखूट पानी किया था उसी तरह साठिका के कुँए में भी अखूट पानी कर सकती थी लेकिन श्रीकरणीजी के अवतार का उद्देश्य बीकानेर एव जोधपुर राज्य की स्थापना करके मरु-प्रदेश के लोगों को लूट-खसोट तथा अत्याचारों से मुक्ति दिलाना था।

श्रीकरणीजी ने गो रक्षा के लिए साठिका गाँव को छोडकर जांगलू के जोहड में अपना स्थायी निवास बना दिया। वहाँ उस समय राव कान्हा का राज था। जांगलू का राजा राव कान्हा अपना कर्तव्य भूल गया था। उसने श्रीकरणीजी की गायों को अपने राज्य में चारा-पानी के लिए मना कर दिया था तथा उन्हें अपने राज्य की सीमा से निकालने लगा। इस तरह श्रीकरणीजी ने उसे हिन्दू धर्म का कर्तव्य भूलते देखकर गायों पर अत्याचार न करने को कहा। फिर भी नहीं माना तो उसको श्रीकरणीजी ने अपने हाथों से मार डाला जिसका विस्तारपूर्वक अध्ययन हमने तीसरे अध्याय में किया है।

गायों के लुटेरे सूजा मोहिल तथा कालू पेथड़ का वध करना:-
बेठवासिया खाँप के ऊदावत कुँवर बीका के जांगलू आने से चिन्तित होकर चारों ओर लूट-मार करने लग गये थे और कुँवर बीका इन लोगों के इन उपद्रवों से बहुत तंग आ गया था तब उसने एक दिन देशनोक पहुँचकर श्रीकरणीजी से प्रार्थना की कि ऊदावत मुझे बहुत परेशान कर रहे हैं तो श्रीकरणीजी ने उसे कहा कि इन लुटेरों में दो व्यक्ति मुख्य है गोगोलाव का स्वामी कालू पेथड और सूजासर का स्वामी सूजा मोहिल। इन्होंने बहुत बडा गिरोह बनाकर देश भर में आतंक फैला दिया और खूब लूट-मार कर रहें है ये दोनों कुछ समय बाद मेरे हाथों से मारे जायेंगे।

एक दिन श्रीकरणीजी पूगल गयी हुई थी, पीछे से ये दोनों उनकी अनुपस्थिति में 25 लुटेरों को साथ लेकर देशनोक के ओरण में पहुँचे। इस समय श्रीकरणीजी का ग्वाला दशरथ मेघवाल (एक अछूत जाति) उनकी गायों को देशनोक के ओरण में चरा रहा था। इन लुटेरों ने वहाँ पहुँचकर उनकी गायों को घेर लिया इनमें एक बच्छराज नामक सांड था उसने गायों के चारों और दौड-दौड कर उनको बाहर जाने से रोकता रहा और जो लुटेरा गायों पर हमला करता उस को दौडकर टक्कर मारता। इस प्रकार बच्छराज के हमलों से तंग आकर सूजा मोहिल ने बरछे से कई प्रहार करके उसे मार डाला। उधर दशरथ मेघवाल कालू पेथड का मुकाबला कर रहा था, जो गायों को घेर के आगे बढ रहा था। कालू पेघड ने दशरथ मेघवाल को लडाई में मार दिया।

उपर्युक्त घटना की सूचना अन्य ग्वालों ने भागकर देशनोकवासियों को दे दी। इस पर लक्ष्मणराज की पुत्री साँपू ने श्रीकरणीजी को पुकार लगाई की दादी तू तो रावों के कार्य सिद्ध करती फिरती है और राव तेरी ही गायों को घेर कर ले जा रहें हें। जिस चन्द्रभागा गाय का दूध तुझको अधिक प्रिय था आज वह अन्य गायों के साथ बरछों के प्रहार सहन करती हुई ले जाई जा रही है। यदि कहीं सुनती हो तो शीघ्र आना। साँपू की पुकार सुनकर श्रीकरणीजी घटना स्थल पर पहुँची और उन्होंने सूजा मोहिल को ललकारा कि दुष्ट हिन्दू होकर तूने बैल के वध का पाप अपने सिर पर लिया है। ऐसे कलंकी और अधर्मी को अधिक जीने की आवश्यकता नहीं है। अपने किये का फल पा, यह कहकर उन्होंने उसकी छाती में एक त्रिशूल का वार किया, जिससे वह वहीं ढेर हो गया। श्रीकरणीजी ने सूजा मोहिल का वध करके उसके गाँव को नष्ट किया तथा भग्गू और सीलवा के मध्य में देशनोक से 12 कोस दक्षिण पर कालू पेथड को जा घेरा और सब साथियों सहित उसका वहीं पर वध कर दिया। इस तरह श्रीकरणीजी ने लुटेरों से अपनी गायों की रक्षा करके देशनोक लेकर आ गयी। जिस जगह कालू पेथड अपने साथियों सहित मारा गया उस स्थान पर अब एक रेतीला टीला है और उसको अब भी कालिया का डूंगर कहते है।

श्रीकरणी चरित्र तथा करणी प्रकाश ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि श्रीकरणीमाता उक्त घटना के समय पूगल गयी हुई थी। इन ग्रन्थों में उल्लेख आता है कि उस समय पूगल के राव शेखा की पुत्री रंगकुँवरी का बीका के साथ विवाह हो रहा था। अतः यह घटना वि. सं. 1524-25 (1467-68 ई.) की होगी।

गाय के बछड़े को पुन: जीवित करना:-
एक बार श्रीकरणीजी अपनी पोती साँपू से मिलकर छोटडिया गाँव से आ रही थी। लौटते समय उन्हें कीतासर गाँव में एक ब्राह्मण कन्या रोती हुई मिली। कीतासर गाँव वर्तमान में चुरू जिले के रतनगढ तहसील में पडता है। श्रीकरणीजी ने इससे रोने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मेरे हाथ से गाय का बछडा मर गया है अत मुझे समाज वाले अपनी जाति से बहिष्कृत कर रहे हैं। श्रीकरणीजी को बिलखती हुई ब्राह्मण कन्या पर तरस आ गया। वे अपने रथ से उतरकर उस बछडे के पास गई और उस पर हाथ फिराते हुए कहा कि ‘उठ रै गऊ रा जाया’। देवी शक्ति से वह बछडा कान फड-फडाकर उठ खडा हुआ। ब्राह्मण कन्या बछडे को पुनः जीवित देखकर अत्यन्त खुश हुई। खुशी से श्रीकरणीजी को अपने घर लेकर गयी। वह कन्या व्यास परिवार की थी। तब से ही इस गाँव के व्यास परिवार में श्रीकरणीजी की बडी मान्यता है और ये लोग श्रीकरणीजी को अपनी कुलदेवी मानते हैं।

मातृ-भूमि प्रेम:-
महाभारत मे कई स्थानों पर कुरुजागल देशों का वर्णन मिलता है। प्राचीनकाल में इस जांगल देश की राजधानी का नाम भी जांगल था जिसको आजकल जांगलू कहते हैं। इसी ऐतिहासिक जांगल देश में आजकल बीकानेर का सुविख्यात राज्य अवस्थित है, जिसका विस्तार लगभग 25 हजार मुरब्बा मील है। बीकानेर राज्य के शासक अब भी जांगल देश के स्वामी कहलाते है। विक्रमी तेहरवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक यहाँ पर सांखला शाखा के पँवार राज्य करते थे, जिनकी राजधानी जांगलू थी। विक्रमी चौदहवीं शताब्दी के अन्त में धीरे-धीरे सांखलों का बल घटने लगा और उनके राज्य का वह भाग जो पूगल से मिलता था, भाटी राजपूतों ने दबाकर अपने अधिकार में कर दिया। तब से इन दोनों राजपूत जातियों में वैमनस्य के बीज बोये गये और चौदहवीं शताब्दी के अन्त में इन बीजों द्वारा उत्पन्न वृक्ष के ऐसे कडवे फल लगे कि उन्होंने दोनों ही को निर्बल बना दिया।

उन दिनों इस देश में और कई छोटे-छोटे राज्य भी थे जिनमें अधिकांश बैठवासिया खाँप के ऊदावत राठौड़, राजपूत, जाट, मुसलमान थे उपरोक्त राजपूत, जाट और मुसलमान सब के सब पक्के डाकू थे। आस-पास की प्रजा को लूट कर उसके धन पर अपना उल्लू सीधा करना ही इनका मुख्य कर्तव्य था। यह प्रदेश उन दिनों हिसार सूबा के अन्तर्गत पड़ता था। दिल्ली के लोदी सम्राट के वहाँ राजस्व (खिराज) यहाँ के शासक जमा कराते थे।

श्रीकरणी जी जांगल प्रदेश में शांति, सद्‌भावना और भाई-चारे का वातावरण स्थापित करना चाहती थी। वे आपस के स्थानीय झगडे, मन-मुटाव, छोटी-मोटी झड़पें धोखाधड़ी आदि निपटा कर एक सुन्दर वातावरण बनाने की पक्षधर थी। चारण जाति की होने के कारण श्रीकरणीजी सभी राजपूत जातियों में पूजनीय थी और सब इनका मान-सम्मान करते थे इनके कहने और करने में फर्क नहीं होने से यह सभी की श्रद्धा का पात्र थी। इनका मुख्य ध्येय लोगों में धैर्य, सहनशीलता, अहिंसा और नैतिकता का प्रचार करने का था। इनका उपदेश था कि बदले की भावना छोडो, आपस में रक्तपात नहीं करो, झगडों और विवादों का आपस में या पंचायत से समाधान करो। राजपूतों को अहंकार का त्याग करना चाहिए, इसी के कारण इनकी अनेक पीढियों का क्षय हुआ था।

उपर्युक्त राज्यों के शासक आपस मे सदैव एक दूसरे के विरुद्ध लड़ते-झगड़ते रहते थे। इन लड़ाई-झगड़ों तथा लूटमार से प्रजा इतनी तंग थी कि वर्षभर में दस-दिन भी लोग चैन से नहीं बैठ सकते थे। इन राज्यों की लूट-खसोट से तंग वहाँ की प्रजा श्रीकरणीजी को शक्ति का अवतार मानने के कारण, देशनोक पहुँच कर अपना दुखड़ा रोया करती थी। इसलिए उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि इन सब लुटेरे राज्यों का नाश कर इनके स्थान पर जब तक किसी बडे राज्य की स्थापना न हो जाय, तब तक न तो ये लोग अपनी क्रूर प्रवृति से बाज आयेंगे और न प्रजा भी सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकेगी। जब कुँवर बीका जोधपुर से चलकर देशनोक पहुँचा तब उन्होंने इसी को इस वृहत राज्य के शासक के अनुरुप समझ कर उसी के लिये उक्त राज्य की स्थापना को उचित समझा। तथा राव बीका ने श्रीकरणीजी की सहायता से बीकानेर का एक प्रबल राज्य स्थापित कर लिया।

न्यायप्रियता:-

1. सच-झूठ का न्याय करना:-
एक बार जांगलू मे दो व्यक्तियों में परस्पर किसी बात पर विवाद हो गया और वे परस्पर झगड़ते हुए न्यायकर्त्ता के पास न्याय के लिए पहुँच गये। एक व्यक्ति दूसरे को झूठा बताता और स्वयं को सच्चा बताता। इस प्रकार उन्होंने परस्पर विरोधी बयान दिये जिसके कारण न्यायकर्त्ता परेशानी में पड़ गया और उनका सही न्याय नहीं कर सका। तब उसने कहा कि यदि तुम सच्चा न्याय कराना चाहते हो तो साठिका गाँव चले जाओ वहाँ देवी अवतार श्रीकरणीजी निवास करती है वे तुम्हारा सच्चा न्याय कर सकती है। इस पर वे दोनों व्यक्ति लडते-झगडते हुए साठिका गाँव पहुँच गये और श्रीकरणीजी के सामने दोनों ने अपना-अपना पक्ष रखते हुए न्याय के लिए प्रार्थना की। श्रीकरणीजी ने उन दोनों की बातों को सुना और गाय का दूध निकाल कर उनके सामने रखते हुए कहा कि तुम दोनों इस दूध में अपना-अपना हाथ डालो जो भी झूठा होगा उसका हाथ इस कच्चे दूध में जलने लगेगा। दोनों व्यक्तियों ने अपना हाथ दूध में डाल दिया। तुरन्त ही झूठे व्यक्ति का हाथ कच्चे दूध से ही जलने लग गया। उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली और श्रीकरणीजी के पैरों में गिर पडा और माफी माँगने लगा। इस तरह श्रीकरणीजी ने चमत्कारपूर्ण न्याय करके स्वयं की न्यायप्रियता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया जो सदैव स्मरणीय है।

2. डोसी को शाप देना:-
श्रीकरणी के बड़े पुत्र पुण्यराज ने देशनोक में एक कुआँ खुदवाया और उस कुँए का नाम उन्होंने पूनासर (स्वयं के नाम पर) रख दिया। श्रीकरणीजी को कुँए का नामकरण अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे चाहती थी कि कुँए का नाम पूना अपने पिताजी के नाम पर रखे। श्रीकरणीजी ने इस हेतु जगडू डोसी से चर्चा की और उसके द्वारा श्रीकरणीजी ने पूनाजी को समझवाया, परन्तु इस पर भी पूनाजी राजी नहीं हुए।

श्रीकरणीजी ने एक दिन पूनाजी से पूछा कि कुँए का नाम रख लिया तब पूनाजी ने कहा कि रख लिया (पूनासर के सन्दर्भ में कहा) तब श्रीकरणीजी ने उसे कहा कि रख दिया तो राख ले।

इतना कहना हुआ कि दूसरे दिन सुबह पूनाजी ने अपने कुँए में झाँक कर देखा तो उन्हें पानी की जगह राख-राबड़ी मिली। इस घटना से वे एक दम घबरा गये और वे श्रीकरणीजी के पास जाकर माफी मांगने लगे और उन्होंने अपने कुँए का नाम बदलकर देपासर रख दिया तब जाकर उनके कुँए का पानी सही हुआ।

पूनाजी ने जब कुँए का नाम देपासर रखा तब कहा कि माँ इससे तो कुँए में चारों भाइयों का हिस्सा हो जायेगा। तब देवी श्रीकरणीजी ने कहा कि सभी भाइयों का हिस्सा हो जाने से भाई चारा बढेगा। तेरे को कोई हानि नहीं होगी। यह कहते हुए श्रीकरणीजी ने भूरा भंसाली तथा जगडू डोसी को चारों भाइयों में भूमि का बराबर हिस्सा करने का आदेश दिया। इस कार्य में जगडू डोसी ने बडे पुत्र पूनाजी (पुण्यराज) का हिस्सा कुछ अधिक रख दिया। इस पर श्रीकरणीजी ने जगडू डोसी को तीन-चार बार टोका भी था फिर भी उसने श्रीकरणीजी के बात की परवाह नहीं की तो श्रीकरणीजी ने रुष्ट होकर कहा कि ‘मेरा डोसी न तो घटेगा न बढेगा’। श्रीकरणीजी के श्रीमुख से निकले वचन का परिणाम यह है कि देशनोक गाँव में निवास कर रहे डोसी जाति का वंश न तो बढता है न घटता है। आज भी उनकी जाति के 2-3 घर ही हैं। जो आज से 600 वर्ष पहले थे।

3. राव बीका को उपदेश देना:-
वि.सं. 1547 (1490 ई.) में जोधपर में राव जोधा का स्वर्गवास हो गया। तब राव बीका ने श्रीकरणीजी के सम्मुख देशनोक पहुँच कर प्रार्थना की कि जोधा के पुत्रों में मैं सबसे बडा हूँ इसलिये पिता जोधा के राज्य का मैं वास्तविक उत्तराधिकारी हूँ। मेरी विद्यमानता में सूजा जोधपुर का शासक नहीं बन सकता। तब देवी श्रीकरणीजी ने बीकानेर नरेश राव बीका को समझाया कि जब तू यहाँ आकर एक स्वतत्र राज्य का शासक बन चुका है तो फिर जोधपुर पर तेरा स्वामित्व कहाँ रहा। अब जोधपुर पर तेरा मन बढाना अन्याय है और तेरी सारी राठौड़ जाति का निरर्थक नाथ हो जायेगा इतना ही नहीं सम्भवतः दोनों राठौड़ राज्यों का सदा के लिए नामो-निशान मिट जायेगा। जोधपुर के बराबर का राज्य तू यहाँ स्थापित कर चुका है अत. तू घाटे में बिल्कुल नहीं है। अब रहा तेरी टीकायत होने का सवाल सो तू अपने पिता के राज्य चिन्ह लेकर शांति धारण कर ले तो जोधपुर के राठौड़ भाइयों को हानि पहुँचाने का कलंक तेरे सिर पर नहीं मढा जायेगा। एक सिंहासन, एक नकारों की जोडी, एक छत्र और एक किरणी। ये चीजें तू जोधपुर से अपने टीकायतपन में प्राप्त कर सकता है और यह उचित भी है। यदि इस अभिप्राय से जोधपुर जाना चाहता है तो प्रसन्नतापूर्वक जा, परन्तु वहाँ पहुँच कर लोभ से अपने मन को विचलित न होंने देना और अपयश का भागी न होना।

राव बीका ने श्रीकरणीजी के आदेश की पालना की जिससे राठौड़ राज्य आपस में नष्ट होने से बच गये तथा राव बीका जोधपुर से पूजनीक चीजें प्राप्त करके बीकानेर लौट आया जिसका विस्तारपूर्वक वर्णन हम तृतीय अध्याय में कर चुके हैं।

इस प्रकार श्रीकरणीजी के चरित्र से सम्बन्धित ऐतिहासिक घटनाओं का अध्ययन करते हैं, तो हमें देवी श्रीकरणीजी की न्यायप्रियता दृष्टिगत होती है। देवी श्रीकरणीजी ने सदैव न्याय का ही साथ दिया है। उपर्युक्त तीनों घटनाएँ देवी श्रीकरणीजी को न्यायप्रिय सिद्ध करती है।

श्री करणी माता का समाज सुधार में योगदान

(अ) सर्व-धर्म समभाव एवं जातिगत भेद मिटाने का प्रयास:-

1. सर्व-धर्म समभाव का प्रयास:-
पूगल के शासक राव शेखा को मुलतान के शासक हुसैन लगा ने कैद कर लिया। तब राव शेखा की रानी ने श्रीकरणीजी से निवेदन किया कि आपका भाई मुलतान की कैद में पडड़ा सड़ रहा है उसको बंधन मुक्त करवाओ। तब श्रीकरणीजी ने उसे कहा कि मैं तो उसे कैद से मुक्त कर दूँगी, परन्तु तुम्हें राव बीका के साथमें तुम्हारी पुत्री रंगकुँवरी का विवाह करना होगा, इस शर्त पर रानी ने विवाह की तिथि निश्चित की। विवाह के समय में कन्यादान के लिये शेखा की जरुरत पडी, तब श्रीकरणीजी ने अपने वचनानुसार राव शेखा को छुडाने के लिये मुलतान गई और मुलतान के शासक हुसैन लगा से शेखा को मुक्त करने को कहा तब हुसैन लगा ने अपने पीर सरवर से पूछा कि हिन्दुओं की देवी श्रीकरणीजी शेखा को छुडाने के लिये आई है तुम उनको कुछ करामात दिखाओ तो मैं उन्हें शेखा को छोड़ने का मना कर दूँ। इस पर सरवर पीर ने श्रीकरणीजी से कहा कि तुम अपनी करामात से शेखा को छुडा ले जा सकती हो तो ले जाओ। तब श्रीकरणीजी ने अपनी करामात से कैद में जाकर शेखा को हाथ पकडकर खडा किया। उनके हाथ लगते ही शेखा की हथकड़ी व बेड़ियाँ अपने आप छूट गई और श्रीकरणीजी ने राव शेखा को अपनी भुजा पर बैठा के उड गई। इसकी खबर नवाब हुसैन लगा को मिलती तो उसने सरवर पीर को कहा कि हिन्दुओं की देवी श्रीकरणीजी अपनी करामात से शेखा को उडाकर ले जा रही है तुम भी उन्हें अपनी करामात दिखाओ। इस पर सरवर पीर भी उनके पीछे उड़ पडा, और उसने श्रीकरणीजी को युद्ध के लिए ललकारा। इस पर श्रीकरणीजी ने उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। हार से हताश होकर सरवर पीर ने श्रीकरणीजी से कहा कि बाई अब हमें वापस मुलतान जाना है। कुछ ऐसी सलाह दो जिससे हमारी इज्जत रह जाये, इस पर श्रीकरणीजी ने कहा कि तुमने मुझे बाई कहकर पुकारा है अत अब तुम्हारी इज्जत रखना मेरा कर्तव्य है। इसी के साथ श्रीकरणीजी ने अपने ओढने की लोवड़ी का एक टुकड़ा चीर कर उसे दे दिया, जिसे सरवर पीर ने हाथ जोड कर स्वीकार किया। और सरवर पीर ने अपने गले की राखड़ी श्रीकरणीजी को दे दी।

फिर श्रीकरणीजी का आशीर्वाद लेकर सरवर पीर मुलतान वापस लौट गया और नवाब हुसैन लगा से देवी श्रीकरणीजी के करामात की प्रशंसा की और श्रीकरणीजी को अपनी बहिन के रुप में लोवड़ी का टुकडा नवाब को दिखाया।

इस प्रकार से श्रीकरणीजी एक पहर में 335 कोस दूर मुलतान से पूगल राव शेखा को कैद से छुडा कर ले आई। और राव शेखा के हाथ से उसकी बेटी रंगकुँवरी का विवाह बीका से करवाया। यह घटना वि.सं. 1524-25 की है इस समय श्री करणी जी ने चील (सवळी) का रूप धारण करके शेखा को मुलतान से पूगल पहुँचाया था।

आज भी सरवर पीर के वंशज मुलतान में श्रीकरणीजी के हाथ की सहनाणी के रुप में लाल कपड़ा बांधते हैं और श्रीकरणीजी के वंशज काले रंग के धागे की राखडी गले में रखते है।

सरवर पीर की इच्छा से देवी श्रीकरणीजी ने उसकी धर्म बहिन बनना स्वीकार किया था। मुलतान के पीरों की परम्परागत गद्दी ने इस बहिन-भाई के पवित्र रिश्ते को, हिन्दू मुसलमान का भेदभाव बरते बिना, सन् 1947 ई. तक साल दर साल निभाया। उन्होंने श्रीकरणीजी की दैविक शक्ति में विश्वास बनाये रखा तथा प्रत्येक वर्ष आसोज माह के नवरात्रों में बकरों की एक जोडी देवी श्रीकरणीजी को चढाने के लिये मुलतान से देशनोक भेजा करते थे। मुलतान के पीरों की परम्परागत गद्दी द्वारा भेजी जाने वाली बकरों की जोडी को देशनोक के श्रीकरणीजी के वंशज ‘मामेजी री सिलाड’ के नाम से पुकारते थे और नवरात्रों में इस सिलाड के देशनोक पहुँचने का भक्तगण बडी उत्सुकता से इन्तजार करते थे। सन् 1947 ई. के बाद में राजनैतिक बाधाओं के कारण यह सिलाड आनी बंद हो गई। इसे चालू रखने के लिये न तो मुलतान के पीर शिष्यों ने प्रयास किये और न ही देशनोक के चारण बन्धुओं ने इस विषय में कोई रुचि दिखाई।

इस प्रकार श्रीकरणीजी ने सर्व-धर्म समभाव का ऐसा प्रयास किया जिसमें साम्प्रदायिक सद्भाव की ऐसी अनूठी परम्परा दिखाई दे रही है जिसकी आज के परिप्रेक्ष्य में नितांत आवश्यकता है।

श्रीकरणीजी में उच्च श्रेणी की अलौकिक शक्तियाँ तथा चमत्कारिक व्यक्तित्व होते हुए भी उन्होंने बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सरवर पीर के मात्र बाई नाम से सम्बोधित करते ही उसे उचित सलाह दी जिससे उसकी मुलतान वापसी पर इज्जत रह गई।।श्रीकरणीजी ने इसके साथ ही उसकी बहिन बनना भी स्वीकार किया जो उस धार्मिक संकीर्णता के काल की अनूठी मिसाल है।

2. गऊ रक्षक दशरथ मेघवाल को सम्मान दिलाना:-
श्रीकरणीजी की गायों को चराने का कार्य दशरथ करता था, जो मेघवाल जाति का अछूत था। श्रीकरणीजी सदैव दशरथ के कार्य से खुश रहती थी क्योंकि वह गौ की अच्छी सेवा करता था। कभी श्रीकरणीजी देशनोक से बाहर जाती थी तो उनको गायों की सेवा की चिंता नहीं रहती थी क्योंकि दशरथ उनकी गायों को अच्छी तरह से चराता और पानी पिलाता था।

एक बार श्रीकरणीजी पूगल गई हुई थी, तो पीछे से सूजा मोहिल तथा कालू पेथड़ उनकी गायों को घेर के ले गये। इन लुटेरों से संघर्ष करते हुए दशरथ मारा गया’ जिसका विस्तारपूर्वक अध्ययन चतुर्थ अध्याय में किया जा चुका है। अपने प्रिय गौ सेवक दशरथ की मौत का श्रीकरणीजी को अत्यन्त दुःख हुआ। इस पर श्रीकरणीजी ने अपने पुत्रों को बुला के आज्ञा दी कि मेरे स्वर्गवास के उपरान्त जहाँ मेरा स्थान बनाया जाये ठीक उसके सामने दशरथ मेघवाल के स्थान की स्थापना की जाये, और दोनों समय उसकी आरती की जाय। वह हमारी गायों की रक्षा करते हुए मारा गया है अर्थात् गायों के लिये उसने अपना बलिदान दिया है इसलिए वह देवयोनि को प्राप्त हुआ है।

श्रीकरणीजी के आदेश के अनुसार ही करणीजी मंदिर देशनोक में दशरथ का स्थान बनाया गया जो मंदिर में सिंह द्वार के भीतर दाहिनी ओर बना हुआ है। दशरथ के स्थान की पूजा भी दोनों समय होती है वह कोतवाल कहलाता है। आज से करीब 600 वर्ष पूर्व अछूत जाति के दशरथ को यह सम्मान दिलाना अपने आप में श्री करणी माता का अद्वितीय कार्य के समान था। उस युग में भोमियों के रूप में सिर्फ राजपूत आदि उच्च जातियों की पूजा की जाती थी। जहाँ बाबा रामदेव जी ने अछूतों के उद्धार के लिए कार्य किया था वहीं श्री करणी माता ने उन्हें समाज में सम्मान दिलाया।

3. चारण जाति में भेदभाव मिटाने का प्रयास:-
काछेला चारण जीवराज सूंघा, जो मूलत: गुजरात के काठियावाड प्रांत के धोलिया गाँव का निवासी था। वह पशुपालन के साथ साथ घोडों का व्यापार भी करता था। श्रीकरणीजी के जीवन काल में वह जांगलू प्रदेश अपने पशुओं को लेकर आ गया। उसके पास उत्तम नस्ल के काठियावाड़ी घोड़े थे। जीवराज ने भी श्रीकरणीजी की ख्याति सुन रखी थी। वह श्रीकरणीजी के दर्शन करने अपने गोधन के साथ देशनोक पहुँचा। उसने श्रीकरणीजी के दर्शन किये और अपना परिचय दिया। गोपालक चारण श्रीकरणीजी को बहुत सुहाते थे। उस पुरुषार्थी चारण को देखकर श्रीकरणीजी बहुत प्रसन्न हुई।

बीका उस समय अपने काका कान्धल के साथ जांगलू में सैन्य तैयारी कर रहा था। कान्धल को गुजराती युवक जीवराज का पता लगा। कान्धल को उत्तम नस्ल के घोडों की आवश्यकता थी। उसने बीड में जाकर जीवराज के घोडे देखे तो उसे सभी घोडे पसंद आ गये। उसने मोल-भाव करके सभी घोडे एक साथ खरीद लिये जिसकी भारी रकम बनी। कान्धल ने उसका अधिकांश नकद चुका दिया, शेष राशि को कुछ समय बाद लौटाने का वादा किया। कान्धल ने जीवराज को कहा कि जब तक मैं तुम्हें शेष राशि नहीं लौटा देता तब तक मेरे अधिकार की छोटडिया गाँव की भूमि अपने पास रखो।

काछेला चारण जीवराज सूंघा छोटडिया गाँव में आकर रहने लगा। छोटडिया के आस-पास मारु चारणों के अनेक गाँव है, वे उसके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं करते थे। उनमें से किसी ने जीवराज को ताना मारा कि तुम काछेला चारण हो, घोडे एवं घी बेचते फिरते हो, हम तुम्हारे साथ बेटी व्यवहार नहीं करेंगे। जीवराज सूंघा एक स्वाभिमानी चारण था, उसने सोचा ऐसी संकीर्ण मनोवृत्ति वाले लोगों के बीच रहना उचित नहीं जो चारण को चारण नहीं मानते। वह सीधा कान्धल के पास गया और उनसे निवेदन किया कि मैं अपने गाँव धोलिया (गुजरात) जा रहा हूँ। मुझे मेरी बकाया राशि दो अपनी छोटडिया की जमीन सम्भालों। कान्धल ने जीवराज को रुखा उत्तर दिया। इस पर जीवराज कान्धल की कोटडी के सामने धरने पर बैठ गया और अन्न जल त्याग दिया। चारण को धरने पर बैठा देख कान्धल सोच में पड गया। कोई चारण न्याय प्राप्त करने के लिए उसके द्वार पर धरना दे दे, यह कान्धल के लिए एक अशोभनीय घटना थी।

कान्धल ने मामले को गम्भीरता से लेते हुए कुँवर बीका को श्रीकरणीजी के पास देशनोक भेजा। श्रीकरणीजी ने अपना संदेशवाहक भेजकर जीवराज को अपने पास देशनोक बुलवाया।

श्रीकरणीजी ने जीवराज से कहा कि कान्धल और बीका चारणो का समादर रखने वाले भले राजपूत है। इनके द्वार पर धरना क्यों देते हो?

जीवराज मारु चारणों के व्यवहार से बडा खिन्न था। उसने श्रीकरणीजी के समक्ष अपनी व्यथा प्रकट कर दी और कहा कि जब थली के मारु चारण उसे चारण नहीं मानते, उसके साथ समानता का व्यवहार नहीं करते, बेटी व्यवहार करने को तैयार नहीं तो मैं ऐसे चारणों के बीच रहकर क्या करुंगा थोथी थली में बसने की बजाय अपने गोधन को लेकर गुजरात लौट जाना ही मेरे हित में है। मैं अपनी बकाया रकम लेना चाहता हूँ इसलिए मैंने कान्धल के द्वार धरना दिया है।

श्रीकरणीजी जीवराज के स्वाभिमान और पुरुषार्थ से प्रभावित हुई और उसे यथोचित आश्वासन देते हुए कहा कि चारण एक धारण अर्थात् चारण सब समान है, जैसे मारु है, वैसे ही काछेला, जो भेद बुद्धि रखते हैं वे मूढ हैं इन मूर्खों की बातों की ओर ध्यान मत दो। तुम तो सच्चे चारण हो। गोकुल के गोपाल हो, जो गायों की सेवा कर रहे हो, चिन्ता छोडो और छोटडिया जाकर सुखपूर्वक रहों। यह समझों मैंने तुमको अपना लिया है जिसे मैं अपना लूंगी उसे सब अपना लेंगे, सब तुम्हारा ही घर है भीतर जाकर भोजन करो।

श्रीकरणीजी ने बीका को कहा कि तुम आनन्द से जांगलू जाओ, चारण को मैंने मना लिया है। बीका श्रीकरणीजी को प्रणाम कर जांगलू लौट गया। इसके पश्चात् श्रीकरणीजी ने चारण जाति में भेद मिटाने के लिए साहसिक कदम उठाया और अपने पुत्र लक्ष्मण (लाखन) की बडी पुत्री साँपू का विवाह काछेला युवक जीवराज के साथ कर दिया। श्रीकरणीजी को अपनी पोती साँपू से विशेष लगाँव था। कहा जाता है कि साँपू को विदाई के समय श्रीकरणीजी ने कहा था कि मैं आठ पहर में एक बार छोटडिया आऊँगी। वही विश्वास आज भी साँपू के वंशजों में चला आ रहा है।

कहा जाता है कि एक बार श्रीकरणीजी अपनी पोती साँपू से मिलने छोटडिया आयी थी तब छोटडिया के गुवाड में जिस स्थान पर रथ से उतरी वहीं श्रीकरणी मंदिर बना हुआ है तथा गाँव में पानी के अभाव को देखते हुए श्रीकरणीजी ने स्वयं जाकर कुँए का स्थान बताया, वहीं कुआँ खोदने पर अमृत जैसा मीठा अथाह जल निकला। इस प्रकार श्रीकरणीजी ने अपनी चारण जाति में भेंट को मिटाने का प्रयास किया और स्वयं मारु चारण होते हुए भी अपनी पोती सॉपू का विवाह काछेला चारण जीवराज के साथ कर दिया। उस काल मे, जब मानव-मात्र में ऊँच-नीच, जाति-पाँति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी, इनके द्वारा चारण एक धारण का उपदेश आप में अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है। जिसकी आज के परिपेक्ष में माँ करणी जी के उपदेश पर अमल करने की आवश्यकता नितान्त जान पड़ती है।

श्रीकरणीजी के जीवनकाल का अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है उन्होंने धार्मिक विद्वेष तथा जातिगत ऊँच-नीच को कभी प्रश्रय नहीं दिया यही कारण था कि उन्होंने सरवर पीर को अपना धर्म-भाई बनाया तथा दशरथ मेघवाल को अपनी सेवा में रखकर उसे समुचित सम्मान दिलाया। उन्होंने कभी राजा-रंक में भेद नहीं समझा। उनके दरबार में चूंडा, रिड़मल, जोधा, बीका, नरा, लूणकर्ण, जैतसी, शेखा भाटी, हरु भाटी, रावल चाचगदेव तथा रावल देवीदास को वही सम्मान था, जो कि अणदा खाती, झगडूशाह, दशरथ मेघवाल, भूरा, भंसाली, थम्सू खाँ दन्तानी तथा सूवा ब्राह्मण को था। उनके दरबार में सभी जातियों और वर्गो के लोगों को समान भाव से देखा जाता था।

आज भी श्रीकरणीजी मंदिर देशनोक में इसी परम्परा का निर्वाह किया जाता हैं। मंदिर का किलेदार साँखला राजपूत थे। पूजारी चारण है। खजांची सुथार है। और निरखी ओसवाल वैश्य है। दिया-बत्ती के लिए वसीर खाँ, बाबू खाँ पिजारा रुई देता हैं प्रसाद भी लेता हैं। नाई मशाल जलाता है, मुसलमान तेली मीठा तेल (तिलों का) देता है। इस प्रकार देशनोक के श्रीकरणी मंदिर में सभी जातियों एव धर्मों के लोग श्रीकरणीजी की श्रद्धा भाव से नैमित्तिक पूजन कार्य को करते हैं। ऐसा सर्व-धर्म समभाव का उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलता हैं।

(ब) नारी उत्थान में योगदान:-
श्रीकरणीजी ने सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध जागृति लाने का हर सम्भव प्रयास किया। श्रीकरणीजी ने मन वचन, कर्म से करुणा का विस्तार, स्वावलम्बी जीवन, सत्य में आस्था, सहिष्णुता, धैर्य, निडरता, शरणागत वात्सल्य, दानशीलता, आत्मबलिदान की भावना आदि उच्च आदर्शों की रक्षार्थ अनुपम वीरता के साथ मर-मिटने की भावना इनके चरित्र की विशेषताओं के रुप में प्रवाहमान हैं। श्रीकरणीजी का उद्देश्य समाज में साहस का संचार कर उसे सद्भाव पर चलाना था। इस हेतु इन्होंने पवित्रता, विश्वास एव धर्मपालन का अखण्ड रुप समाज के सामने अपने आचरण के माध्यम से अभिव्यक्त किया। इसी कारण स्त्री के सबला रुप की इतनी सजगता से अभिव्यक्ति सम्भव हो पाई हैं।

1. पुत्र-पुत्री में भेद मिटाने का प्रयास:-
मातृ वात्सलय की प्रतीक श्रीकरणीजी ने अपने आचरण से मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को अस्वीकारा एव संदेश दिया कि मनुष्यों में कोई बडा-छोटा, स्त्री-पुरुष और छूत-अछूत नहीं है। उनके लिए सभी संतानवत समान है। श्रीकरणीजी के समय समाज में स्त्रियों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। पुत्री के जन्म को हेय दृष्टि से देखा जाता था। देवी श्रीकरणीजी ने ऐसी सोच रखने वाले को कठोर दण्ड दिया है, चाहे वह अपने परिवार का ही सदस्य क्यों न हो? देवी श्रीकरणीजी के जन्म के अवसर पर खिन्नता प्रकट करने वाली अपनी भुँआ को उन्होंने दण्ड दिया और उनके हाथ को टूटा कर दिया। जिसका विस्तार पूर्वक अध्ययन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। ये उनकी पहली सीख थी जो व्यक्ति पुत्र-पुत्री में भेद करते थे। इस प्रकार उस युग में श्रीकरणीजी द्वारा स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने का जो प्रयास किया वो अपने आप में बडा अप्रतिम कार्य हैं। जिसकी आवश्यकता आज के परिपेक्ष में जनतांत्रिक सरकार भी महसूस कर रही है ऐसा कार्य श्री करणी माता आज से छ सौ वर्ष पूर्व कर चुकी है।

2. पर्दा प्रथा विरोधी:-
हालाँकि श्रीकरणीजी के समय में चारण समाज में इतना पर्दा-प्रथा का प्रचलन नहीं हुआ था, फिर भी यह बुराई समाज में व्याप्त थी। श्री करणी जी पर्दा प्रथा के विरोधी थे, वे इस बुराई को समाज से समाप्त करना चाहते थे। मर्यादानुसार देशनोक के श्रीमढ में पर्दा रखना मना हैं। यदि मंदिर का पुजारी ससुर हैं और पुत्रवधू दर्शनार्थ उपस्थित होती है तो ससुर के हाथ से सिन्दूर बिन्दी ले लेती हैं। श्रीकरणीजी की वजह से देशनोक के चारण समाज में आरम्भ से ही पर्दा-प्रथा नहीं रही। उन्होंने पर्दा-प्रथा को कभी प्रश्रय नहीं दिया। यही कारण रहा होगा कि उस सामन्ती युग में यात्री महिला जैसे ही देशनोक के ओरण में प्रवेश करती अपना पर्दा उतार कर एक ओर रख देती।

3. लोक कल्याण की भावना:-
क्षात्रधर्म के पुनरुद्धार और सामाजिक सुव्यवस्था की स्थापना हेतु श्रीकरणीजी जैसी युगनिर्मातृ-विभूति का जन्म ऐसे समय हुआ जब छोटे-छोटे शासक प्रजा-लूंटकों के रुप में असहाय प्रजाजनों को लूटना ही अपना कर्तव्य समझते थे। आतताइयों के जुल्मों से सत्रस्त होकर सामान्य जन-जीवन में सुशासन और शांति की आशा भी एक प्रकार से मृत-प्राय हो चुकी थी। विक्रम की पंद्रहवी शताब्दी के उतरार्द्ध और सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मरु प्रदेश और जांगलू जनपदों में प्राय सर्वत्र लूट-खसोट, विग्रह और अस्थिरता का क्षुब्ध वातावरण बना हुआ था। शक्तिशाली राज्य के अभाव में शांति और सुराज्य की कल्पना करना भी सम्भव नहीं था। इसी महत् उद्देश्य को पूर्ण करने में श्रीकरणीजी के सारे कार्य-कलाप प्रमुख रुप से केन्द्रित रहे। तत्कालीन भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियाँ भी प्रायः ऐसी ही अस्थिर धुरी-हीन राज्य सत्ता और दुर्व्यवस्था को उद्‌घाटित करती हैं। अस्थिरता और अराजकता के इस परिप्रेक्ष्य में श्रीकरणीजी ने वीर राठौड़ों की नवोदित शक्ति को अपनी देवी और मानवीय शक्तियों से प्रतिष्ठापित किया। वे शक्ति का अवतार होने के कारण स्वयं वीरत्व की प्रतिमूर्ति थी इसलिये उन्होंने आतातायी प्रजा-लूटेरों को समाप्त कर प्रजापालक राजत्व का पोषण किया। इसी कड़ी में श्रीकरणीजी ने अत्याचारी शासक राव कान्हा का वध किया। वहीं रिड़मल व जोधा को सदाचारी जानकर आशीर्वाद दिया जिससे उन्हें मारवाड़ का राज मिला।

मारवाड़ के शासक राव चूंडा, राव रिड़मल तथा राव जोधा जो तीन पीढियों से श्रीकरणीजी के प्रति अटूट भक्ति और विश्वास रखते आ रहे थे उस भक्ति की परिणिति कुँवर बीका को बीकानेर जैसे वृहद स्वतन्त्र राज्य का स्वामी बनाने पर हुई। जांगलू का यह प्रदेश उस समय सोलह छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। जो आपसी वैमनस्य से निरन्तर एक दूसरे से लड़ते रहते थे। प्रजा इन सारे कहरों को सहन करती थी। इन राज्यों के स्वामी, मुसलमान, जाट और राजपूत थे, जो डाकू ज्यादा और प्रजापालक कम थे।

समाज में बढती अराजकता को खत्मकर जनकल्याण हेतु सुशासन की स्थापना करने के लिए श्रीकरणीजी ने राव बीका को बृहद् राज्य का संस्थापक बनने का वरदान दिया जिसके फलस्वरुप उस प्रदेश के सभी सोलह राज्य नवस्थापित राज्य में एक होकर सदा के लिये विलीन हो गये। कुँवर बीका हर घडी में श्रीकरणीजी के आशीर्वाद और मार्गदर्शन के लिये आया करता था। उसे श्रीकरणीजी हमेशा जनकल्याण के कार्य करने की सलाह देती रहती थी। बीका के जनकल्याण की भावना से प्रभावित होकर श्रीकरणीजी उसे उत्तरोत्तर सफलता का आशीर्वाद देती रही। जिसके फलस्वरुप बीकानेर जैसे मजबूत और विशाल राज्य को स्थापित किया।

श्रीकरणीजी हमेशा राजपूत राजाओं को जनकल्याण की सलाह देती थी। उन्होंने अपने धर्म भाई पूगल के राजा राव शेखा को डकैती जैसे पृणित अपराध के कार्य को छोड़ने की शर्त पर ही कैद से मुक्त कराया था। साथ ही जब राव जोधा अपने पिता राव रिड़मल के मारे जाने के बाद श्रीकरणीजी की शरण में पहुँचा तब उन्होंने उसे कहा कि रिड़मल ने लोभ के वश में अपना विवेक खो दिया था और मुझसे कुछ नहीं पूछा। उसने अपने भानजे का राज्य हथियाना चाहा था, यह अन्याय था इसीलिए उसका नाश हुआ तुम अपने पिता की तरह लोभ मत रखना, गरीबो व असहायों की सहायता करते रहना। इस तरह उन्होंने राव जोधा को भी समय-समय पर नेक सलाह दी ताकि जोधपुर राज्य की प्रजा भी सुख-पूर्वक रह सकें।

इसी तरह राव जोधा की मृत्यु के बाद जब राव बीका के मन में लोभ की भावना उठी तब उसे श्रीकरणीजी ने नेक सलाह दी जिससे राठौड् शक्ति का नाश होने से बच गया।

श्रीकरणीजी ने यहाँ तक कि अपने अन्य समय में भी जनकल्याण का कार्य किया और उन्होंने जैसलमेर व बीकानेर राज्यों के विवादित सीमा स्थल पर अपनी देह त्याग दी। चूंकि दोनों राज्यों के शासकों में श्रीकरणीजी के प्रति दृढ आस्था थी। इसलिए उन्होंने उस विवादित क्षेत्र को ओरण भूमि मे बदल दिया ताकि श्रीकरणीजी को प्रिय लगने वाले पशु-पक्षी अपनी भूख शान्त कर सकें।

इस प्रकार जिस विशाल मरु जांगलू प्रदेश में जहाँ कभी अराजकता और उत्पीडन ने जन-जन को अभिशप्त कर रखा था वहाँ श्रीकरणीजी के आशीर्वाद से जोधपुर व बीकानेर जैसे दो सुदृढ विशाल राज्यों की स्थापना हो गयी जिससे जनता के लूट-खसोट आदि अमानवीय अत्याचार समाप्त हो गये। यही कारण है कि जिसकी वजह से श्रीकरणीजी के प्रति आज भी जनमानस में दृढ आस्था बनी हुई हैं।

4. पर्यावरण संरक्षण में योगदान:-

श्रीकरणीजी द्वारा देशनोक में ओरण स्थापना करना:-
मरुधरा की पवित्र भूमि में सदियों से लोक देवी, देवता संतों व भक्तों का समय-समय पर अवतरित होने की परम्परा रही हैं। श्री करणी चरित्र (किशोरसिंह बार्हस्पत्य) के परिशिष्ट में दुर्गादानजी देपावत ने देशनोक ओरण का सुंदर एवं मनोरम वर्णन किया हे जो निम्न प्रकार से है-

वि.सं. 1444 में श्रीकरणीजी ने लोक हितार्थ अवतार लेकर तत्कालीन जांगल प्रदेश को अपनी कर्मस्थली बनाया तथा जोधपुर व बीकानेर राज्यो की सुदृढ़ स्थापना के अलावा मानव मात्र एवं पशु-पक्षियों के संवर्द्धन हेतु देशनोक में करीब 10,000 बीघा में ओरण की स्थापना की व जिन आयनाओं (परम्पराओं) को स्थापित किया उनमें बेर वृक्षों व गोचर भूमि की रक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।

राजस्थान के लोक देवी देवताओं के साथ ओरण स्थापना एवं वृक्ष पूजा की परम्परा सदा से रही हैं। श्रीकरणीजी के नाम पर अनेकानेक गाँवों व मन्दिरों के साथ-साथ ओरण (रक्षित वन) भी स्थापित हैं। जिनका प्राचीन ‘मिसल बन्दोवस्त’ से लेकर वर्तमान राजस्व जमा बन्दियों में बाकायदा खाते कायम हैं।

आज के युग में पर्यावरण सुरक्षा का अनुपम आदर्श:-
पश्चिमी राजस्थान की प्रचण्ड ताप से परितप्त इस भूधरा पर जैसे ही वर्षा ऋतु का आगमन होता है, बीकानेर जिले में स्थित देशनोक का माँ करणीजी द्वारा रक्षित यह ओरण भूमि एकाएक लहलहा उठती हैं, व दूर-दूर तक सघन बोरड़ियों (बेर वृक्षों) की हरीतिमा से सुशोभित यह भू भाग राष्ट्रीय मार्ग से गुजरने वाले हर राहगीर का ध्यान अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। चरते हुए गाय, भैंस, भेड, बकरियों के झुण्ड व गले में बंधी हुई घंटियों का मधुर स्वर तथा कुलाचें भरते हुए हिरणों के झुण्डों की नयनाभिराम शोभा देखते ही बनती हैं।

माँ श्रीकरणीजी की अगम्य दूरदर्शिता:-
करीब 600 वर्ष पूर्व न गोचर भूमि की कमी थी न पर्यावरण प्रदूषण की किंचित भी समस्या, लेकिन भविष्य दृष्टा श्रीकरणीजी ने गाय व गोचर को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर इस विशाल ओरण की स्थापना की, व उनके उपायों की घोषणा की व ओरण रक्षा हेतु कडे नियम निर्धारित कर निम्न आयनाओं (परम्पराओं) की घोषणा की।

ओरण की आयाना (परम्परा):-
1. इस भूमि में कोई भी व्यक्ति हल नहीं चला सकता।

2. हरे वृक्ष की लकड़ी काटना तो दूर दातुन तोडना भी वर्जनीय है।

3. ईधन के रुप में सूखी लकड़ी को काम में लेना मना हैं।

4. ओरण सीमा व गाँव में चूल्हे के अलावा किसी भी प्रकार का प्रदूषण मना है।

5. कसाई खाना व पशु बंध्याकरण सर्वथा मना हैं।

6. कुम्हार का आवा व धोबी की भट्टी लगाना भी मना हैं।

7. ओरण में अभयदान था, स्टेट टाईम में कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो ओरण सीमा में प्रवेश के बाद बीकानेर राज्य का कोई भी कानून लागू नहीं होता था।

8. पशु चराने व बेर तोडने पर किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लगेगा।

देशनोक गाँव के लिए ओरण का वरदान:-
आज गोचर भूमि की प्रत्येक गाँव में इतनी कमी है कि लोगों को बरसात के मौसम में अपने पशुओं को बांधकर रखना पडता है। मगर देशनोक का पशुधन अत्यन्त सौभाग्यशाली है कि इस विशाल ओरण में चरने हेतु ग्रामवासियों के किसी भी पशु पर कोई भी प्रतिबन्ध नहीं है व चराई हेतु किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है।

इसी प्रकार अनगिनत बेर वृक्षों से हजारों मन रसीले मीठे बरे फल भी बहुतायत में मिल जाते हैं। विटामिन सी से भरपूर स्वादिष्ट इन फलों को तोडने हेतु किसी पर कोई मनाही नहीं थी जिसको जिसको जितना चाहिये ले जाए, अनेक गरीब व्यक्ति बेर बेचकर अपना पेट पालन करते हैं। आज कोई भी सरकार या संस्था करोडों रुपये खर्च करके भी इतने विस्तृत भू भाग में इतनी बडी सख्या में वृक्षारोपण नहीं कर सकती। यह तो माँ करणीजी का चमत्कार ही है।

ओरण की सुरक्षा:-
श्रीकरणी मन्दिर व ओरण एक दूसरे के पूरक है व ओरण तो मन्दिर व गाँव का आवरण ही है। ओरण से गाँव की शोभा है। यह ओरण रक्षा की परम्परा एक अमूल्य परम्परा है व लोक जीवन की अनुपम थाती है। इस अमूल्य सम्पदा की सुरक्षा पर गाँव व क्षेत्र के प्रत्येक बालक, युवा व वृद्ध को गौर करना है। यह हम सबकी जिम्मेदारी एव कर्तव्य है।

वर्तमान व भावी पीढी में ओरण के प्रति जागृति पैदा हो इस हेतु कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को घरों में दीप मालिका करके व ओरण परिक्रमा का विशाल सामूहिक आयोजन व अन्य कार्यक्रम रखकर प्रतिवर्ष वर्षगांठ मनाई जाये तो यह एक अच्छी शुरुआत होगी। ओरण परिक्रमा में हजारों लोग प्रतिवर्ष जाते हैं लेकिन इस आयोजन को और विशाल पैमाने पर किया जाए तथा ओरण सुरक्षा के प्रति जनमानस में जागृति पैदा की जाने की जरुरत हैं।

श्रीकरणी से सम्बन्धित कुछ लोक आस्था के वृक्ष:-
श्रीकरणीजी से जुड़े हुए कुछ ऐतिहासिक वृक्ष 600 वर्ष हो जाने के बाद भी आज वैसे ही हरे भरे खड़े हैं। श्रीकरणीजी के जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि वे बडी पर्यावरण प्रेमी थी। उनके द्वारा लगाये प्रत्येक पेड आज भी हमें पर्यावरण के प्रति जागृति प्रदान करते हैं। उन्होंने अपने जीवनकाल में देशनोक गाँव में करीब 10,000 बीघा ओरण क्षेत्र स्थापित किया, जो उस युग में उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है।

1. सुवाप गाँव का जाल वृक्ष:-

2. सुवाप गाँव का करणी झूला वृक्ष एवं पीपल का पेड:-

3. नेहड़ी जी का खेजड़ी का वृक्ष:-

4. कालू गाँव का खेजड़ी का वृक्ष:-

5. छोटडिया गाँव की करणी खेजड़ी:-

6. कीतासर गाँव का रोहिड़े का वृक्ष:-

इस प्रकार श्रीकरणीजी से सम्बन्धित कुछ ऐतिहासिक वृक्ष विभिन्न क्षेत्रों में आज भी मौजूद है। जिसका अध्ययन हमने ऊपर किया है। ये सभी वृक्ष आज भी लोक आस्था के कारण पूजे जाते हैं और ये शताब्दियों से हरे-भरे लहराते हुए हमें पर्यावरण के प्रति प्रेम व जागृति का श्रीकरणीजी का संदेश दे रहे हैं, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।

श्री करणी माता का धार्मिक एवं सांस्कृतिक योगदान

श्रीकरणीजी ने अपनी दैविक शक्ति के बल पर जोधपुर व बीकानेर जैसे सुदृढ राज्यों की स्थापना करवाई जिसके परिणामस्वरुप सुशासन की स्थापना हुई और प्रजा को लूट-खसोट तथा अमानवीय अत्याचारों से मुक्ति मिली। श्रीकरणीजी ने अपने तपोबल से कई तरह के समाज सुधार के कार्य किये जिससे समाज को सही दिशा मिली। उनके अवतरण का देश, धर्म, संस्कृति, समाज, स्थापत्य, चित्रकला तथा मूर्तिकला आदि सभी क्षेत्रों में स्पष्ट प्रभाव दिखाई पडता है।

धार्मिक क्षेत्र में प्रभाव:-

श्रीकरणीजी के अवतरण के समय तक भारत पर इस्लाम का आधिपत्य हो गया था। दिल्ली पर उस समय तुगलक शासकों का शासन था तथा भारत के कई भागों में मुस्लिम राज्यों की स्थापना हो चुकी थी। श्रीकरणीजी के जन्म से पूर्व भारत पर महमूद गजनवी तथा मुहम्मद गौरी के आक्रमण हो चुके थे जिससे हिन्दू धर्म की अभूतपूर्व क्षति हुई। इन आक्रमणों के पश्चात् भारत में इस्लामिक राज्य की स्थापना से तो और भी हिन्दू धर्म एव संस्कृति की कमर टूट गई।

मुस्लिम शासक अपना शासन कुरान और हदीस के नियमों से चलाते थे चूंकि कुरान और हदीस मुसलमान शासकों को अपने शासन में हिन्दुओं को रहने की अनुमति नहीं देते थे, और उन्हें इस्लाम या मृत्यु दोनों में से एक का चुनाव करने को कहते थे, इसलिए उलेमा लोग समय-समय पर सुल्तानों पर दबाव डालते थे कि शरीअत के कानूनों का पालन किया जाये, और हिन्दुओं को या तो मुसलमान बना दिया जाय या उनका निर्ममतापूर्वक वध कर दिया जाय। धर्मान्ध उलेमाओं द्वारा सुल्तानों पर इस प्रकार के दबाव डालने के अनेक समकालीन तवारीखों के पृष्ठों में मिलते है।

अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल (1296-1316 ई.) में काजी मुगिसउद्दीन ने यह माँग की थी उसने कहा था कि चूंकि हिन्दू पैगम्बर के सबसे कट्टर शत्रु है इसलिए खुदा ने स्वयं ही हिन्दुओं का पूर्ण दमन करने का आदेश दिया है। पैगम्बर ने कहा है कि वे या तो इस्लाम स्वीकार करें और नहीं तो उन्हें कत्ल कर दिया जाय या गुलाम बना लिया जाय और राज्य उनकी सम्पत्ति जब्त कर ले। केवल महान् विद्वान अबूहनीफ ही हिन्दुओं पर जजिया लगाने की अनुमति देते हैं, जबकि अन्य विद्वानों का यही मत है कि मृत्यु या इस्लाम के सिवा उन्हें और कोई रास्ता नहीं है।

मुसलमान शासकों द्वारा उस समय हिन्दुओं पर कठोर अत्याचार किये, उन पर जजिया कर लगाया, उन्हें सार्वजनिक रुप से उपासना करने और धार्मिक प्रचार करने की भी अनुमति नहीं दी। उन पर कुछ कानूनी अयोग्यताएँ भी लाद दी गयी थी। उदाहरण के लिए मुसलमानों के विरुद्ध मुकदमों में उनके प्रमाणों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक और सिकन्दर लोदी जैसे धर्मान्ध सुल्तानों के शासनकाल में तो हिन्दू न अच्छे वस्त्र पहन सकते थे, न घोडे पर सवार हो सकते थे, और यहाँ तक कि अच्छे हथियार भी नहीं रख सकते थे, कभी-कभी तो उन्हें पान तक नहीं खाने दिया जाता था, और न मुसलमानों जैसे वस्त्र ही पहनने दिये जाते थे। शरीअत के अनुसार हिन्दुओं को नये मंदिर बनाने और पुराने मंदिरों की मरम्मत करने देना वर्जित था। केवल युद्ध या सैनिक अभियानों के समय ही नहीं बल्कि शांतिकाल में भी हिन्दुओं के मंदिर गिरा दिये जाते थे, और उनकी देव मूर्तियों के टुकडे-टुकडे कर दिये जाते थे।

सल्तनत काल में भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य तो चरम सीमा पर था, साथ ही समाज में लूट-खसोट का भयंकर वातावरण था। सम्पूर्ण हिन्दू धर्म में छुआछूत की भावना चरमोत्कर्ष पर थी, परन्तु पश्चिमी राजस्थान के जांगल प्रदेश की स्थिति तो और भी गम्भीर थी। कहते हैं कि जब-जब पृथ्वी पर पाप बढता है, धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है। तब देवता पृथ्वी पर मनुष्य रुप में अवतरित होते हैं और सत्पुरुषों का उद्धार और दूषित कर्मो का नाश करके धर्म की स्थापना करते हैं और वे जनता के दुःख का निवारण करके अपने उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् ज्योर्तिलीन हो जाते है। यह ईश्वरीय भक्ति भक्तों तथा अवतारों के रुप में अवतीर्ण होती रही है। वि. सं. (1400-1600) के बीच भारत में इस प्रकार के बहुत अवतार हुए हैं। ऐसे संकटकाल में श्रीकरणीजी ने वि.सं. 1444 (1387 ई.) को अवतार लिया और अनेक चमत्कारिक कार्य किये, जिसमें बीकानेर व जोधपुर राज्यों की स्थापना प्रमुख था, जिसके फलस्वरुप छोटे-छोटे राज्य समाप्त हो गये और प्रजा के दुःखों का अन्त हो गया। श्रीकरणीजी ने देवी अवतार द्वारा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को नष्ट होने से बचाने का काम भी किया है क्योंकि इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा जो बडे पैमाने पर हिन्दू मंदिरों को तोड़ा गया जिससे हिन्दू धर्म के अनुयायियों में अपने धर्म के प्रति घोर निराशा की भावना उत्पन्न हो गई थी और वे इस्लाम की तरफ आकर्षित होने लगे थे। ऐसे समय श्रीकरणीजी ने हिन्दू धर्म में देवी अवतार धारण करके हिन्दुओं के मन में अपने धर्म के प्रति आस्था व विश्वास बनाये रखवाया। श्रीकरणीजी ने कई चमत्कारिक कार्य किये जिससे हिन्दुओं को भी अपने धर्म के प्रति गौरव का अनुभव होता रहा और वे अपने धर्म से जुड़े रहे। समय-समय पर हिन्दू धर्म में होने वाले अवतारों के कारण ही आज भी भारत में बहुसंख्यक हिन्दू मतावलम्बी हैं।

श्रीकरणीजी एव अन्य लोक देवियों के अवतरण के कारण हिन्दू धर्म के शक्ति सम्प्रदाय का भी व्यापक प्रचार हुआ और शाक्त मतावलम्बियों की सख्या में अप्रत्याशित बढोतरी हुई। विभिन्न राजवंशों के उत्थान में इन लोक देवियों ने चमत्कारी भूमिका निभाई जिससे शासकों द्वारा इन लोक देवियों की स्मृति में अतुल धन लगाकर इनके भव्य मंदिरों के निर्माण करवाये।

श्रीकरणीजी ने अपनी चमत्कारिक शक्ति से कई लौकिक एवं अलौकिक कार्य किये जिससे हिन्दू धर्म एव संस्कृति के प्रति लोगों का दृढ विश्वास बना रहा। श्रीकरणीजी की दैवीय शक्ति के कारण ही उन्हें आज भी विश्व में इतनी प्रसिद्धि मिल रही है। समूचे विश्व की निगाह में श्रीकरणीजी का विशेष महत्व है श्रीकरणीजी मंदिर देशनोक (बीकानेर) आज किसी अजूबे से कम नहीं है। जहाँ हजारों की तादात में चूहे (काबा) होने के बावजूद भी प्लेग जैसी बीमारी का नामोनिशान नहीं है। यह बात समूचे विश्व को आश्चर्यचकित कर देने वाली है। प्लेग बीमारी मुख्य रुप से चूहों से फैलती है। आज के वैज्ञानिक युग में यह बात जरुर आश्चर्यचकित कर देने वाली है कि जब सूरत में प्लेग की बीमारी फैली हुई थी तो कई लोग प्लेग से ग्रसित होकर श्रीकरणीजी मंदिर देशनोक (बीकानेर) पहुँचे और मंदिर में चूहों (काबों) को पिलाने वाला दूध पिया जिससे उनकी प्लेग की बीमारी दूर हो गई। ऐसा ही व्यक्ति मेरे गुरु सुल्तानसिंहजी डाबी (पिण्डवाडा) को मिला तथा उनसे इस अछूत चमत्कार की चर्चा करते हुए सुनाया। तब सुल्तानसिंहजी डाबी ने उक्त घटना को मुझे बताया। (उन्हें पता था कि मैं पी.एच.डी. कर रहा हूँ) श्रीकरणीजी मंदिर में हजारों चूहे (काबे) सदियों से विचरण कर रहे फिर भी प्लेग यहाँ से कोसों दूर रहा है। यही कारण जिसकी वजह से श्रीकरणीजी विश्व में लोकप्रिय हो रही है और नेशनल ज्योग्राफी चैनल तथा रिसर्च स्कॅालर के लिये चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसे कई चमत्कारिक कार्य श्रीकरणीजी अपने ज्योर्तिलीन के बाद भी कर रही हैं ऐसी दृढ आस्था एव विश्वास जनमानस में देखने को मिल रहा है। यही कारण है कि श्रीकरणीजी की गिनती विश्व की प्रसिद्ध लोक देवियों में हो रही है और उनके हजारों मंदिर अविभक्त भारत में देखने को मिल रहे हैं। श्रीकरणीजी के मंदिर राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, असम, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, सिंध, बलुचिस्तान आदि भागों में देखने को मिल सकते हैं।

साहित्यिक क्षेत्र में प्रभाव:-

चारण जाति में उत्पन्न हुई लोकपूज्य देवियों में श्रीकरणीजी की प्रसिद्धि सर्वाधिक है। उनकी प्रसिद्धि के प्रवाडे भी अनेक हैं। श्रीकरणीजी की प्रसिद्धि के सम्बन्ध में एक दोहा डिंगल में इस प्रकार प्रचलित है।

मोती समो न ऊजलौं, चंदण समो न काठ।
करनी समो न देवता, गीता समो न पाठ।।

डा. हीरालाल माहेश्वरी ने मेहा बीठू द्वारा रचित ‘करणीजी रा छंद’ का उल्लेख किया है जो अब से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व सोलहवीं शताब्दी (ई.) के उत्तरार्द्ध की रचना है।

आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व के कवि रामदान लालस (सन् 1761-1825 ई.) द्वारा रचित ‘करणी रुपक’ भी मिलता है जिसका मूल पाठ साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित (1999 ई.) ‘राजस्थानी शक्ति काव्य’ ग्रंथ के 23 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है।

चिरजाएँ दो प्रकार की होती है। एक को ‘सिंघाऊ’ कहते हैं जिसमें देवी के चरित्रों का वर्णन और प्रशंसा आदि का समावेश रहता है। दूसरी चाडाऊ कहलाती है। इसमें देवी के प्राचीन चरित्रों को उसको स्मरण दिला कर यह प्रार्थना की जाती है कि जिस प्रकार तूने अमुक भक्त की सहायता की थी उसी प्रकार तू मेरी भी सहायता कर।

एक बार अलवर के महाराजा बख्तावरसिंह द्वारा शिकार किया घायल सूअर मालाखेडा दरवाजे के बाहर चमेली बाग में किसी रसूलशाही फकीर के तकिए में जा घुसा। अतः वह फकीर बहुत नाराज हुआ और उसने महाराजा को बद्दुआ दी जिससे उनके पेट में घोर पीडा उत्पन्न हो गई। अनेक उपचार किये गये, परन्तु पीडा शान्त नहीं हुई। दूत के द्वारा फकीर से माफी भी मांगी गई परन्तु वह (फकीर) टस से मस नहीं हुआ और महाराजा बख्तावरसिंह दर्द से तडफडा रहे थे। उस समय दुःखी होकर उन्होंने कहा, देखो एक मामूली फकीर की बद्‌दुआ से मैं इतना दुःख पा रहा हूँ मेरे धर्म में इतने देवी-देवता हैं, वे सब कहाँ गये, जो मेरी रक्षा नहीं कर रहे? उस समय महाराजा के पास हणुतिया गाँव के उम्मेदराम पालावत भी बैठे थे, वे महाराजा के कृपापात्र भी थे तथा श्रीकरणीजी के दृढ आस्तिक थे। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के देवी-देवता बहुत प्रबल और समर्थ हैं, वे तुरन्त ही आपका कष्ट निवारण कर सकते हें, परन्तु इसके लिए आपको दिल में उनके प्रति दृढ आस्था और विश्वास होना आवश्यक है। यदि आप चाहें तो मैं अभी श्रीकरणीजी का आह्वान करके चिरजा (प्रार्थना) करुँ, जिससे तत्काल आपकी उदर पीड़ा शान्त होती नजर आयेगी। महाराजा ने कहा मैं तो दर्द के मारे बेहाल हो रहा हूँ तुम कुछ भी ऐसा करो जिससे मेरा दर्द मिटे और मुझे फकीर के सामने न जाना पडे, मेरी प्रतिष्ठा को भी आँच न आवे। अब उम्मेदरामजी ने गुगल की आहुति देकर ज्योति प्रज्वलित की और चाडाऊ चिरजा (स्तुति) का पाठ आरम्भ कर दिया। कुछ ही समय बाद एक सफेद चील महल के मुंडेर पर आ बैठी। उम्मेदरामजी ने महाराजा को कहा कि बाहर चल कर चील रुप में देवी श्रीकरणीजी के दर्शन कीजिये, देवी ने जिस रुप में पूगल के राव शेखा भाटी को मुलतान में दर्शन देकर मुक्त कराया था। उसी रुप में आपको रोग मुक्त करने पधारी है। महाराजा ने बाहर चील रुपिणी शक्ति को प्रणाम किया और कुछ ही मिनटों में उनके पेट का दर्द बिल्कुल ठीक हो गया।

शार्दूलसिंह कविया ने अपनी पुस्तक में कवि उम्मेदराम पालावत के वंशज ठा. फतहसिंह माहुंद के सौजन्य, वो छंद प्राप्त किये हैं, जो कवि ने राजा बख्तावरसिंह के स्वास्थ लाभ के लिए श्रीकरणीजी की स्तुति स्वरुप कहे थे।

।।छप्पय।।
चन्दू बेगी चाल, चाल खेतल बड चारण।
तोलो हाथ त्रिशुल, धजाबंध लोवड़ धारण।।
बीस हथी इण बेर, देर मत कर डाढाली।
हरो रोग हिंगलाज, करो ऊपर महाकाली।।
लगाज्यो देर पल एक मत, आवड़जी री आण सूं।
आखता सींह चढ आवज्यो, देवी गढ देसाण सूं।।

डा. श्यामसिंह रत्नावत (चारण साहित्य परम्परा) के अनुसार इस संकट से मुक्त होने पर महाराजा बख्तावरसिंहजी ने इसको श्रीकरणीजी की कृपा का प्रसाद माना।

(द्रष्टव्य “Alwar and its Arts Treasures” by T.Handley, surgeon Major)

इस सम्बन्ध में दो राजस्थानी दोहे एक ऐतिहासिक तलवार की मूँठ पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है, जो वहाँ (अलवर) के संग्रहालय में प्रदर्शित है। दोहे इस प्रकार है-

धम धम बाग त्रमांगला, हुवै नकीबां हल्ल
सादां आजे संभली, किनियाणी करनल्ल
बाढाली बहतांह, राढाली, त्रम्मक रुडै
साढाली, सहताँह, डाढाली ऊपर करे।

पीडा शान्त होने पर महाराजा ने स्वस्थता का अनुभव किया और श्रीकरणीजी के प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त करते हुए महाराज बख्तावरसिंह ने 25,000 रुपये का चढावा देशनोक भेजा, जिसमें एक जोड़ी जड़ाऊ पादुका, एक जोड़ी सोने के किवाड, जडाऊ पत्र, स्वर्ण चौकी और चौब छड़ी शामिल है। इन वस्तुओं की उपस्थिति आज भी उक्त घटना की सत्यता और महाराजा की दृढ भक्ति भावना का परिचय दे रही है। यह घटना श्रीकरणीजी के ज्योर्तिलीन के बाद की है।

चिरजाओं के अलावा छंदपरक काव्य रुप में भी चारण शक्ति काव्य विपुल मात्रा में रचा गया है। छंदपरक शक्ति काव्यों के अतिरिक्त विशिष्ट छंदों यथा गीत, दोहा, सोरठा, कवित्त, नीसांणी, रोमकंध, कुंडलिया, चन्द्रायणा, रेणकी, त्रिभंगी, शिखरिणी, चौपाई, रासौ, इन्दव आदि छंदों में भी अनेक शक्ति काव्य लिखे गये हैं। गीत छंद राजस्थानी का अपना विशिष्ट और बेजोड छंद है। शक्ति विषयक गीत हजारों की संख्या में है। दोहा भी राजस्थानी का लाडला छंद है देवियों सम्बन्धी दोहों की कोई गिनती ही नहीं है। इन दोहों की अन्तर्कथाएँ भी बडी रोचक है। दोहा काव्यों में खींदल कृत ‘आवड़जी रा दूहा’ लधोजी कृत ‘कालका जी रा दूहा’, अज्ञात कवि कृत ‘जमानां रा दूहा’ (मंहमाय वाहक), ‘करणीजी रा दूहा’ आदि उल्लेखनीय रचनाएँ है। सोरठा काव्यों में रामनाथ कविया कृत ‘करणीजी रा सोरठा’ एव ‘पाबूजी रा सोरठा’ प्रसिद्ध है।

स्थापत्य कला के क्षेत्र में श्रीकरणीजी का योगदान:-

1. देशनोक नगर की स्थापना:-
श्रीकरणीजी के निर्माण कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान देशनोक नगर की स्थापना करवाना था। श्रीकरणीजी के आशीर्वाद स्वरुप राव रिड़मल जब जांगलू का शासक बना और उसने श्रीकरणीजी को अपना आधा राज्य भेंट करना चाहा तब श्रीकरणीजी उसे सिर्फ अपने गायों के चारे के लिये जितनी भूमि आवश्यक थी, वहीं स्वीकार की। तो रिड़मल ने दस गाँवों की बीड से लगने वाले कुछ खेत मिलाकर बीड का नवीन सीमांकन कर दिया। इस प्रकार दस गाँवों के दस नोंक मिल जाने के कारण यह देशनोक कहलाता है। देशनोक की स्थापना श्रीकरणीजी ने वि. सं. 1476 (1419 ई.) वैशाख शुक्ल द्वितीया, शनिवार को की थी।

2. कुएँ एवं तालाबों के निर्माण में योगदान:-
उस समय जांगल प्रदेश में पानी का सर्वत्र अभाव था अत श्रीकरणीजी ने जनकल्याण हेतु कुएँ खुदवाये तथा तालाबों का निर्माण करवाया। जो आज भी श्रीकरणीजी की जनकल्याण में रुचि के साक्षात् उदाहरण पेश कर रहें हैं और लोगों को पेयजल उपलब्ध करवा रहें हैं।

श्रीकरणीजी के समय में सर्वप्रथम वि.सं. 1514 (1457 ई.) में देशनोक में पुण्यराज ने कुँआ खुदवाया, जो श्रीकरणीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे (गुलाब बाई से उत्पन्न) इस कुएँ का नाम श्रीकरणीजी की इच्छानुसार ‘देपासर’ रखा गया। इसी प्रकार पुण्यराज ने देवायतरा ग्राम में अपने हिस्से की भूमि में एक तालाब खुदवाया जो ‘पूनासर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।

वि.सं. 1515 (1458 ई.) में श्रीकरणीजी ने देशनोक में एक कुँआ खुदवाया जो ‘करणीसर’ के नाम से जाना जाता है तथा श्रीकरणीजी द्वारा देवायतरा गाँव में एक तालाब का निर्माण भी करवाया जो ‘करणी सागर’ कहलाता है। देवायतरा गाँव का आधा भाग भाई बंट में देपाजी के हिस्से में आया था।

वि.सं. 1516 (1459 ई.) में श्रीकरणीजी के देवर ‘डेढा’ ने अपने नाम पर देशनोक में एक कुँआ खुदवाया और उसका नाम ‘ डेढासर’ रखा।

3. दुर्ग निर्माणों में भूमिका:-
श्रीकरणीजी ने राव जोधा के आग्रह पर वि.सं. 1515 (1458 ई.) ज्येष्ठ सुदी 11, गुरुवार को अपने हाथ से मेहरानगढ किले की नींव रखी।

इसी तरह राव जोधा के पुत्र राव बीका ने भी अपने पिता की तरह वि.सं. 1542 (1485 ई.) में श्रीकरणीजी के हाथों से बीकानेर नगर तथा दुर्ग की नींव का पत्थर रखवाया। पुराने गढ में जहाँ श्रीकरणीजी के हाथ से शिलान्यास करवाया गया, वहीं श्रीकरणीजी का मंदिर बना हुआ है, जहाँ उनकी प्रतिमा का पूजन नियमित रुप से हुआ करता है। जोधपुर एवं बीकानेर जैसे सुदृढ दुर्गों की नींव श्रीकरणीजी द्वारा रखने का विस्तारपूर्वक उल्लेख तृतीय अध्याय मे किया जा चुका है।

4. गुम्भारा निर्माण करना:-
वि.सं. 1594 (1537 ई.) की चैत्र वदी द्वितीया को श्रीकरणीजी ने आवड़ माता की सेवा पूजा करने हेतु अपने हाथ से एक छोटा सा कोठा बनाया जिसको ‘गुम्भारा’ कहते हैं। इस गुम्भारे में ही श्रीकरणीजी के ज्योर्तिलीन होने के बाद उनकी मूर्ति स्थापित की गई।

विश्व प्रसिद्ध श्री करणी माता मंदिर, देशनोक (बीकानेर):-
राजस्थान के बीकानेर जिले में बीकानेर शहर से जोधपुर जाने वाले सडक मार्ग व रेल्वे मार्ग पर देशनोक कस्बा पड़ता है। देशनोक कस्बा बीकानेर शहर से 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। देशनोक में ही विश्व प्रसिद्ध श्री करणी माता का मंदिर है। श्री करणी माता देशनोक के मुख्य मंदिर में असंख्य चूहे (काबा) है। इन चूहों को काबा कहा जाता है। मंदिर के काबों के प्रति श्री करणीजी के भक्तों की विशेष श्रद्धा है। काबों को लड्डू, पेड़े, दूध, मिठाई तथा चूगा दिया जाता है। काबे मंदिर में स्वच्छन्द विचरण करते रहते है। चूहों (काबों) की रक्षा का बडा ध्यान दिया जाता है। मंदिर में परिक्रमा के समय यात्री पाँव घसीट कर चला करते हैं ताकि कोई काबा पाँव से न दबे। काबों की सुरक्षा हेतु मंदिर के सामने प्रांगण के ऊपर जाली लगा रखी है। काबों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि काबे मंदिर के मुख्य द्वार से बाहर नहीं जाते। अर्थात काबो लोपे नहीं कार। देशनोक मदिर में सफेद काबे का दर्शन बडा शुभ और सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। बीकानेर के महाराजा गंगासिंहजी सफेद काबा दर्शन करने के पश्चात् ही रियासत से बाहर जाते थे। काबा साधारण चूहे से भिन्न होता है काबे के नीचे की तरफ नोकवाला त्रिकोण शक्ति के प्रतीक के रुप में होता है। श्री करणी मंदिर देशनोक में हजारों काबे हैं। चूहों (काबों) की यह प्रजाति केवल देशनोक के मंदिर मे ही पाई जाती है। काबे यात्रियों के शरीर पर चढ जाते है, गोदी में आ बैठते है। इन्हें कोई हाथ से हटाता नहीं है बल्कि काबा का सिर पर चढना शुगन माना जाता है।

श्री करणीजी लाखन की आत्मा को यमलोक से धर्मराज को यह कह कर वापस लाई थी कि आज से जिस किसी मेरे वंशज की मृत्यु होगी, उसे काबा (चूहा) बनाकर अपने मंदिर में रख लूंगी। इसीलिए आज भी श्री करणीजी मंदिर में काबों (चूहों) को बहुत पवित्र समझा जाता है और इनका इतना ध्यान रखा जाता है।

श्री करणीजी मंदिर देशनोक में भी करणी माता की मूर्ति वि.सं. 1595 चैत्र शुक्ल चतुर्दशी गुरुवार को देशनोक मंदिर के गुम्भारे में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में प्रतिष्ठापित किया गया था तब से इस मूर्ति का नियमित पूजन किया जाता है।

बन्ना खाती द्वारा निर्मित श्री करणीजी की मूर्ति जैसलमेर के पीले रग के पत्थर की बनी हुई है और इस पर शिल्प कार्य बहुत बारीकी से किया गया है। मूर्ति का मुँह लम्बोतरा है, सिर पर मुकुट, कानो में कुंडल, दाहिने हाथ में त्रिशुल जिसके नीचे महिष का सिर पोया हुआ है। बाँये हाथ में नरमुंड लटक रहा है। गले मे आड (एक आभूषण), वक्षस्थल पर मोतियों की दुलडी माला और दोनों हाथों में चूडियाँ धारण की हुई है। लहंगे और साडी पर पहिनने अथवा ओढने के समय जो प्राकृतिक सल पड जाते हैं, उन सलों को दिखाने के लिये चुनावट दी हुई है और साड़ी पर फूल खुदे हुए हैं, लहँगा अधिक घेरदार नहीं है। मूर्ति की ऊँचाई लगभग दो फीट है। सिंदूर चढाते रहने के कारण पूर्ति के पाषाण की रंगत दिखाई नहीं देती है। केवल चार बडी पूजनों के समय राज्य की ओर से गोटा किनारी का लहँगा और साड़ी बनकर आती है और पोशाक धारण कराई जाती है शेष दिनों में केवल सिंदुर चढ़ा रहता है मूर्ति का पदस्थल भूमि से चार अंगुल ऊँचा है। श्री करणी माता की मूर्ति उनकी इच्छानुसार उनके हाथ के बनाये हुए गुम्भारे में स्थापित की गई है। श्री करणीजी की मूर्ति के बायीं ओर पाँचों मूर्तियाँ उनकी बहिनों की है और दाहिनी ओर की सातों मूर्तियाँ आवड़ माता आदि सातों बहिनों की है।

(i) श्री आवड् माता एवं इन्द्र बाईसा का मंदिर:-
श्रीकरणी मंदिर में ही उत्तर की ओर श्री करणीजी की आराध्य आवड माता का मंदिर है, जो छोटा किन्तु मनोरम है। इस मंदिर में काँच का काम किया हुआ है। मंदिर के चारों तरफ प्रदक्षिणा पथ पर गुलाबी ग्रेनाइट लगा हुआ है। श्री आवड माता मंदिर में आवड़ माता की सातों बहिनों की संयुक्त मूर्ति लगी हुई है। मूर्ति पर सिन्दूर चढा रहता है। श्री आवड माता के मंदिर में उनकी मूर्ति के बायीं ओर श्री इन्द्र बाईसा की सफेद संगमरमर में मर्दाना पोशाक में मूर्ति है। श्री इन्द्र बाईसा का जन्म वि.सं. 1964 (1907 ई.) के आषाढ शुक्ला नवमी शुक्रवार को खुड़द गाँव (जिला-नागौर) निवासी सागरदानजी रतनू शाखा के चारण की धर्मपत्नी धापूबाई की कुक्षि से हुआ था। श्री इन्द्र बाईसा श्री करणीजी की आराधना करती थी शक्ति के अवतार श्री इन्द्र बाईसा ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। भी इन्द्र बाईसा ने अपने जीवनकाल में कई चमत्कारों द्वारा अपने भक्तों का उद्धार किया। श्री इन्द्र बाईसा ने वि.सं. 2012 (1955 ई.) के मिगसर मास की कृष्ण पक्ष की द्वितीया, गुरुवार को सांसारिक देह का परित्याग किया।

(ii) श्री मानूबाई का मंदिर:-
भी करणीजी के मुख्य मंदिर के बायीं तरफ एक छोटा-सा मंदिर है जिसकी मूर्ति पर दो महिलाएँ अंकित है, यह मानू बाईसा का मंदिर कहलाता है। मानू बाई श्री करणीजी की छोटी बहिन गुलाब बाई के छोटे पुत्र लाखण (लक्ष्मणराज) की छोटी पुत्री थी। मानू-बाई और उनकी सहेली सती हो गई थी। यह उनका छतरीनुमा देवरा है।

(iii) दशरथ का चबूतरा:-
श्रीकरणीजी के मुख्य मंदिर के सामने मुख्य द्वार के अन्दर दायीं ओर कोने में एक ऊँचे छोटे से चबूतरे पर एक मूर्ति दशरथ मेघवाल की है। दशरथ की मूर्ति पर सफेद ध्वजा लगी होती है। यह चबूतरा श्री करणीजी की गायें चराते शहीद हुए दशरथ मेघवाल की स्मृति में बना हुआ है।

(iv) जूझारों की मूर्तियाँ:-
श्रीकरणीजी के मुख्य मंदिर के दायीं ओर चबूतरे पर करीब 8-10 मूर्तियाँ स्थापित है। जो जूझारों की है तथा आरती के समय इनकी भी पूजा होती है।

श्री करणी मंदिर के निर्माण में बीकानेर शासकों का योगदान-
श्रीकरणीजी की मूर्ति की स्थापना के बाद समय-समय पर बीकानेर के शासकों ने श्री करणीजी मंदिर देशनोक के निर्माण कार्य में अपना योगदान दिया था।

1. राव जैतसी का निर्माण कार्य- बीकानेर रियासत के चौथे शासक राव जैतसी (वि.सं. 1583-1598) ने श्री करणीजी के आशीर्वाद स्वरुप मुगल बादशाह बाबर के पुत्र कामरान को राती घाटी के युद्ध में परास्त किया था। सैनिकों की कमी के बावजूद भी जैतसी ने श्री करणीजी के आशीर्वाद से कामरान को वि.सं. 1595 (1538 ई.) आसोज सुदी 6 को युद्ध में परास्त किया। इस समय तक श्री करणीजी ज्योर्तिलीन हो चुके थे। श्री करणीजी के प्रताप से युद्ध में विजय के उपलक्ष में जैतसी ने देशनोक पहुँचकर गुम्भारे के ऊपर कच्ची ईंटों का मंदिर (मढ) बनवाया।

2. सूरसिंह का निर्माण कार्य- बीकानेर के आठवें शासक महाराज सूरसिंह (वि. सं. 1671-1688) ने देशनोक श्री करणी मंदिर में गोल भढ़ के चारों ओर चौकर मण्डप बनवाया। उन्होंने परिक्रमा और मढ़ के सामने अन्तराल मण्डप भी बनवाया जिसके तीन ओर दरवाजें है, जिन पर देवी-देवताओं से चित्रित चाँदी के किवाड़ चढ़े हुए है।

3. सूरत सिंह का निर्माण कार्य- बीकानेर के सत्रहवें शासक महाराज सूरतसिंह (वि.सं. 1844-1885) एक बार जोधपुर से बीकानेर लौट रहे थे। रास्ते में श्री करणीजी के दर्शनार्थ देशनोक रुके। परन्तु मंदिर के सामने जाकर अपनी सवारी में बैठे-बैठे ही हाथ जोडकर बीकानेर को रवाना हो गये। बीकानेर पहुँचते ही सूरतसिंह के पेट में जोर से पीडा होने लगी जो धीरे-धीरे असह्य हो गई।

पीडा की बात सुनकर लोगों ने महाराजा सूरतसिंह को बताया कि आपने श्री करणीजी की अवज्ञा की है क्योंकि आप अपनी सवारी में बैठे-बैठे ही श्री करणीजी को प्रणाम करके लौट आये थे। महाराजा ने अपनी इस अज्ञानतापूर्ण अवज्ञा को स्वीकार किया और माँ श्री करणीजी से अपने अपराध के लिए क्षमा याचना की तथा अपनी गलती के पश्चाताप में श्री करणीजी का मढ़ पक्का बनवाने की प्रार्थना की। श्री करणीजी की कृपा से सूरतसिह की पीडा उसी समय शांत हो गई। इस चमत्कार का अनुभव करते हुए दूसरे ही दिन महाराजा पुनः देशनोक पहुँचे। श्री करणीजी के दर्शन करके पूजन करवाया। उसके बाद उन्होंने वि.सं. 1882 (1825 ई.) को राव जैतसी द्वारा बनवाये गये कच्चे मढ़ के स्थान पर पक्का गुम्बददार मंदिर, उसके चारों ओर एक पक्का परकोटा व मंदिर का सिंह द्वार बनवाया तथा देपालसर (चुरू) के किले को तोडकर वही से लाये लोहे के बडे किंवाड सिंह द्वार पर चढाये और चाँदी के नकारों की एक जोडी भेंट की जिसके साथ ही महाराज सूरतसिंह ने शास्त्रोक्त रीति से श्री करणीजी के पूजन की व्यवस्था की जो आज तक चली आ रही है।

4. गंगासिंह का निर्माण कार्य- बीकानेर के 21 वें शासक महाराजा गंगासिंह (वि.सं. 1944-2000) ने सन् 1906 ई. में मंदिर के भीतर प्रांगण में संगमरमर के चौके जडवाये और परिक्रमा सुधारी। उन्होंने मध्य द्वार की छत पर सुनहरा चित्रांकन भी करवाया। इनके समय में कच्चे चौके पर लाल पत्थर के चौके लगाये गये थे जिन्हें हटाकर अब संगमरमर के सुन्दर टाईल्स लगा दिये गये है।

महाराजा गंगासिंह श्री करणीजी के अनन्य भक्त थे। इनके समय में दी बैंक ऑफ बीकानेर की जो स्थापना हुई थी, उसके हर चैक पर श्री करणीजी का चित्र रहता था। इन्होंने अपने पौत्र (सादुल सिंह के ज्येष्ठ पुत्र) का नाम ही श्री करणीजी के नाम पर करणीसिंह रखा था।

5. डूंगर सिंह का योगदान- बीकानेर के 20वें महाराजा डूंगरसिंह (वि.सं. 1929-1944) वि.सं. 1934 (1877 ई.) में भूज ब्याह कर जात देने के लिए देशनोक आये तो उन्होंने श्री करणीजी मंदिर में सोने का तोरण (जो मूर्ति के ऊपर लगा हुआ है), सोने के कटहरे (जो मूर्ति के दोनों बगलों में लगे हुए है) तथा सोने का चन्द्रहार (जो डूंगरसिंह की महारानी जाडेची ने भेंट किया) भेंट किया।

6. श्री करणी मंदिर के निर्माण में श्रद्धालुओं का योगदान- देशनोक श्री करणी मंदिर में बीकानेर राजाओं के अतिरिक्त अन्य श्रद्धालुओं द्वारा भी निर्माण कार्य एवं भेंट चढाने का उल्लेख मिलता है। देशनोक में श्री करणीजी की छठीं शत जयन्ती (वि.सं. 2044) के अवसर पर मंदिर के सिंह द्वार के अग्रभाग में जस्ते के चमकदार विशाल कपाट भूरा भंसाली के वंशज सेठ दीपचंद भूरा द्वारा चढाये गये। गुम्भारे के ऊपर गुम्बजदार मंदिर के किवाड अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह द्वारा भेंट किये गये थे। पखा शाल में एक मन चार सेर वजन वाला वीरघट झिलाय के ठाकुर गोवर्धनसिंह द्वारा भेंट किया हुआ है। ड्योढी के बाहर वाले चौक में बने तिबारों में एक ऊँचा तिबारा भोमजी चम्पावत द्वारा बनाया गया था, जिसे भोमजी की शाल कहा जाता है। श्री करणी मंदिर के सिंह द्वार के दोनों ओर संगमरमर से निर्मित दो बैठे सिंहों की मूर्तियाँ जो अत्यन्त बारीक काम के लिए प्रसिद्ध है, बीकानेर के सेठ चाँदमल ढढ्डा द्वारा बनवाई गई थी, ढढ्डा ने ही संगमरमर का कलात्मक सिंह द्वार बनवाया था। मंदिर और देशनोक रेल्वे स्टेशन के बीच इनके द्वारा एक पक्की धर्मशाला भी बनवाई हुई है।

मंदिर के सिंह द्वार का शिल्प देखने योग्य है, सिंह द्वार के शिल्पी हीरा नाम के सुथार थे। सिंह द्वार पर काबों की मनोरम पंक्तियाँ, केवडे के पत्तों में लिपटी सर्पाकृतियाँ, पूंगी बजाते सपेरे, वनस्पति और जीव-जन्तुओं का सजीव अंकन वास्तव में चित्ताकर्षक है।

2. नेहड़ी जी का मंदिर देशनोक:-
बीकानेर शहर से जोधपुर को जाने वाले सडक मार्ग पर देशनोक कस्बे में रेल्वे फाटक से पहले बायीं तरफ डेढ किलोमीटर की दूरी पर श्री करणीजी का मुख्य मंदिर है। देशनोक कस्बे में रेल्वे फाटक के उस पार दाहिनी तरफ नेहड़ी जी मंदिर का सड़क पर द्वार बना हुआ है। इस मुख्य सड़क से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित श्री करणी माता का म.दिर ‘श्री नेहड़ीजी का मंदिर’ कहलाता है। इसी नेहड़ीजी मंदिर में श्री करणीमाता ने बिलौना करने हेतु सूखी खेजड़ी की लकड़ी रोंपकर दही का बिलौना किया था। सूखी खेजड़ी की लकड़ी माँ करणीजी के तपोबल से हरी हो गई। आज श्री करणीजी द्वारा रोपित खेजड़ी ने बडे वृक्ष का रुप ले लिया है। श्रद्धालू इस खेजड़ी को स्पर्श करने मात्र को अपना सौभाग्य समझते है। इस खेजड़ी की पूजा की जाती है। आज 600 वर्षों पुरानी खेजड़ी नेहड़ीजी धाम बन गया है। नेहड़ीजी धाम में विक्रम संवत् 1999 के आश्विन मास में श्री करणीजी मूर्ति स्थापना की गई। प्रतिमा के अधोभाग में इसका शिलालेख अंकित है। बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने श्री करणी माता का यह नेहड़ी धाम बनवाया था। उन्होंने मंदिर के सामने का कमरा, दाहिने तरफ की रसोई और चारों ओर का परकोटा बनवाया। मंदिर के पिछले भाग में एक गुफा है, जिसमें शिवलिंग की पूजा की जाती है। इस गुफा में बाबा आत्मस्वरुप ने करीब 40 वर्ष तक रहकर तपस्या की थी। यहाँ बाबा का एक धूणा है। बाबा आत्मस्वरुप ने श्री करणी जी के प्रति भक्ति भाव से प्रेरित होकर संगरिया से आ ……………………………………

भक्त कुन्दनमल सोनी, देशनोक ने नेहड़ीजी मंदिर में नवीन निर्माण कार्य करवाया है। जिससे मंदिर का स्वरुप बहुत सुन्दर एव चित्ताकर्षक हो गया है।

3. श्री करणी मंदिर सुवाप (जन्मस्थली):-
श्रीकरणी माता की जन्मस्थली सुवाप गाँव है। सुवाप जोधपुर जिले के फलौदी तहसील में पडता है। सुवाप गाँव नागौर से फलौदी जाने वाले सडक मार्ग पर आऊ गाँव से 14 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।

एक बार जोधपुर महाराजा मानसिंह के दिवान इन्द्रराज सिंघवी सुवाप गाँव से होकर जा रहे थे। उस समय ढोल व नगारे बजाये गये। कुछ ग्रामीणों ने दीवान को समझाते हुए कहा कि यह श्री करणीजी की जन्मस्थली है यहाँ ढोल व नगारे श्री करणीजी के बजते हैं लेकिन दीवान इन्द्रराज सिंघवी अहंकार की बातें करने लगा और ढोल नगारे बजते रहे। जब दीवान आगे चला तो घोडे से नीचे गिर गया। इस तरह वह कई बार गिरा, तब उसको श्री करणीजी का चमत्कार समझ में आया। उसने श्री करणीजी थान पर जाकर माफी माँगी। उसने वि.सं. 1863 को गाँव की ऊँची टेकरी के ऊपर श्री करणीजी के मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर का पूर्ण निर्माण जन सहयोग से सुखदेव किनिया ने करवाया। सुखदेव किनिया के बाद 1993 ई. में डा. गुलाबसिंह जागाँवत बल्लूपुरा हाल जयपुर ने श्री करणीजी की जन्म स्थली सुवाप के मंदिर निर्माण का कार्य हाथ में लिया। डा. साहब ने भी करणीजी को शीश महल में बिठाया। निज मंदिर में सोने का काम, शीश महल, चौक, मुख्य द्वार का जिर्णोद्धार बिना जन सहयोग से स्वयं ने करवाया।

सुवाप में श्री करणीजी की मूर्ति चार भुजा वाली है। यहाँ की मूर्ति में श्री करणीजी का बाल स्वरुप है। मूर्ति के ऊपर श्री करणीजी के विवाह का तोरण रखा हुआ है। आश्विन शुक्ल सप्तमी को सुवाप में श्री करणीजी की जयन्ती के अवसर पर विशाल मेला भरता है। मेले की शुरुआत सोहनदान जी रातडिया की प्रेरणा से डा. गुलाब सिंह जागाँवत ने सन् 1991 से शुरु की। आज जयन्ती के अवसर पर हजारों लोग दर्शनार्थ आते है।

मेहाजी की चौकी-श्री करणीजी मंदिर के पास पूर्व में एक चबूतरा बना है। जहाँ पूर्व में मेहाजी का घर था। यहीं श्री करणीजी ने जन्म लिया था।

आवड़जी का गुम्भारा-यह स्थान सुवाप श्री करणी मंदिर से दक्षिण पश्चिम में बना हुआ है। इस मंदिर को स्वयं श्री करणीजी ने अपने हाथों से बनाया था। इस मंदिर में आवड़ माँ की सातों बहिनों साथ श्री करणीजी पूजा करती थी।

शेखा की जाल-श्री करणीजी ने अपने बाल्यकाल में पूगल के राजकुमार शेखा भाटी की फौज जो जिस जाल के वृक्ष के नीचे अपने पिताजी के भाते से जिमवाया था। वह जाल का वृक्ष आज भी सुवाप में हरा-भरा है। यह जाल का वृक्ष श्री करणीजी की कीर्ति की गाथा गा रहा है।

4. श्री करणीजी का मंदिर-साठिका (ससुराल):-
श्री करणीजी का विवाह साठिका गाँव के देपाजी बीठू के साथ हुआ था। साठीका गाँव बीकानेर जिले के नोखा तहसील में पडता है। देशनोक से साठिका 52 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। देशनोक से साठिका का एक रास्ता मुंजासर होते हुए जाता है तो दूसरा रास्ता पलाना-बरसिंहसर-जींदसर-लालमदेसर होकर है।

श्री करणीजी के साठिका मंदिर में तोरण की पूजा की जाती है। वर्तमान साठिका में श्री करणीजी का सुन्दर एवं भव्य मंदिर बनाया गया है।

5. श्री करणी मंदिर गडियाला (परमधाम):-
श्रीकरणीजी का परमधाम रिणमढ गडियाला में है। इस जगह पर वि. सं. 1595 चैत्र शुक्ल नवमी शनिवार को श्री करणीजी ने अपने भौतिक शरीर को योगशास्त्र विधि से समाप्त किया था। इसलिए श्री करणीजी का यह तीर्थ परमधाम कहलाता है। देशनोक से गडियाला का सीधा मार्ग कोलायत-देवातरा-गडियाला है बीकानेर से गडियाला 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। गडियाला तक पक्की सड़क बनी हुई है।

परमधाम गडियाला की पावन भूमि पर श्री करणीजी सैंकडों वर्षों तक कच्चे थान पर विराजमान रही। वि.सं. 2015 को शक्ति अवतार करणीकोट वाली श्री सायर माँ ने श्री करणीजी के इस पावन धाम की नींव रखी। इसके बाद जनसहयोग से मंदिर निर्माण हुआ। गडियाला के पटवारी अमरसिंह भाटी ने श्री करणीजी की दिव्य प्रेरणा से मंदिर का विकास करवाया। मंदिर में वृक्षारोपण, जल का टाँका और जल विशाल टंकी बनाई गई। चैत्र मास की शुक्ल नवमी को यहाँ भी करणीजी का मेला भरता है जिसमें दूर-दूर से यात्री आते है। देशनोक के भक्त कुंदनमल सोनी ने गड़ियाला मंदिर को वर्तमान में शिखरनुमा बनवाया है। जिससे मंदिर की भव्यता एवं सुन्दरता बढ गई है।

श्री करणीजी का वंश वृक्ष


~~डॉ. नरेन्द्र सिंह आढ़ा
इतिहास व्याख्याता
राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय
घरट, जिला-सिरोही

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