जन्म | संवत 1515 श्रावण शुक्ल बीज को प्रातः काल में |
---|---|
माता पिता | माता का नाम अमरबाई गाडण व पिता सुराजी रोहड़िया शाखा के चारण थे |
जन्म स्थान | भादरेस, बाडमेर राजस्थान |
विवाह | |
संवत 1532 कार्तिक शुक्ल ग्यारस (देवउठनी ग्यारस) के दिन झांफली गाँव के भेरुदानजी झीबा की सुपुत्री देवलबाई के साथ ईश्वरदास जी का विवाह हुआ | |
महाकवि ईशरदासजी बारहठ से समंधित सामान्य जानकारी | |
“ईसर घोडा झोकिया,महासागर के माय! उपस्थित जन समूह के देखते ही देखते ईश्वरदास जी अदृश्य हो श्री कृष्ण में समा गए !
1- हरिरस, 2- देवियाण, 3- गुण हरि-रस, 4- गुण निंदा स्तुति, 5- हालां झालां रा कुंडलिया, 6- गुण वैराट, 7- गुण रास किला, 8- गुरुड पुराण, 9- गंगा अवतरण, 10- वृज विनोद, 11- गुण आगमन आदि थे !
हरिरस ग्रंथ को अनूठे रसायन की संज्ञा दी गई है — सरब रसायन में सरस, हरिरस सभी ना कोय !
| |
जीवन परिचय | |
ईसरा परेमसरा – को मालाणी के ठाकुर से भादरेस नामक ग्राम जागीर में सांसण के रूप में मिला था। उसके दो पुत्र हुए – उदयराज और रामदान। उदयराज के भी दो पुत्र हुए सूराजी और आसाजी। ये दोनों ईश्वर के परम भक्त थे। सूराजी की धर्मपत्नी का नाम अमरबाई था, जो गाडण शाखा के चारण हमीरजी के पुत्र रणछोड़जी की पुत्री थी। रामदानजी के वंश में गुमानदासजी थे जो सूराजी व आशाजी दोनों भाइयों को हमेशा परेशान करते रहते थे। एक बार बहुत अच्छी फसलें पकी और जमाना अच्छा आया। सूराजी की अच्छी फसल देख-देख कर भी गुमानजी दुखी हुआ करते थे। फसल को काटने के लिये गाँव के बहुत से लोगों को घी-रोटा का सेवन करने के बदले फसल काटने की सूरोजी ने व्यवस्था की। इसे ‘लाह’ करना कहते थे। इसमें लगभग 20 लोगों के लिये भोजन तैयार किया गया था। परन्तु जब गुमानदानजी को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने खेत में घास काटने के लिये ‘लाह’ की व्यवस्था कर सुरोजी के काम में बाधा पहुँचाना चाहा। सूरोजी के सभी लोगों को अपने खेत पर घास कटवाने के लिये जबरदस्ती लेकर चले गये। सूरोजी ऐसा देखकर बहुत दुःखी हुए परन्तु करें तो क्या करें ? ‘लाह’ के लिये बनाये गये भोजन का अब क्या किया जाय ? (क) ज्वालागिरी का पुनर्जन्म – तब पता चला कि गाँव के पास साधुओं की एक जमात (समूह) आई हुई है अत: क्यों न यह भोजन उनको करवा दिया जाय। सूराजी साधुओं की उस जमात के पास उन्हें भोजन कराने को गये और उनके मुखिया महन्त ज्वालागिरीजी से भोजन ग्रहण करने का निवेदन किया। उन्होंने निमन्त्रण स्वीकार किया वे सूराजी के साथ चलकर उनके घर पर गये। कुछ ही देर में 20-25 लोगों की जमात के लिये खाना तैयार पाकर साधु ज्वालागिरीजी को कुछ संशय हुआ। उसने सूरोजी से पूछा कि यह भोजन इतना जल्दी कैसे तैयार हो गया ? सूराजी उदास रूप में मूक खड़े रहे। साधू ने कहा, घबराने की कोई बात नहीं है, जो कुछ हुआ है, सत्य कह दो। तब सूराजी ने वस्तुस्थिति से साधू को अवगत किया। इस पर साधू ज्वालागिरी ने कहा कि गुमानदान को यहाँ बुलाकर लाओ। उन्होंने ऐसा क्यों किया है ? गुमानदान अपनी योजना की सफलता पर खुश होकर पास ही फिर रहे थे। ज्वालागिरी की बात सुनकर उन्होंने कहा कि, महाराज आपको हम भाइयों की पंचायती करने की आवश्यकता नहीं है। साधु ने कहा कि मैं तो तुझे प्रेम व सद्भावना से आपस में रहने को कह रहा हूँ। भ्रातत्वभाव में ऐसा नहीं होना चाहिये। गुमानदान ने तब कहा कि माराज! आपको हम भाइयों की पंचायती का ज्यादा ही शौक हो तो आप इनके घर में जन्म ले लो, फिर आराम से पंचायती करना। मैं तो आपको कहता हूँ, यह पुत्रहीन है, इसलिये इसकी सारी जागीर भी आखिर में मुझे ही तो मिलने वाली है। साधू ने जब अपने सामने ही इस प्रकार की घोर अन्याय पूर्ण बातें सुनी तो उसने कहा कि गुमानदान मेरा मन्तव्य तो ऐसा न था परन्तु तुम्हारी यही मर्जी है तब मैं इस सूराजी के घर अवश्य जन्म लूंगा, तब तुम्हारी सभी जागीर भी इनकी होगी। ज्वालागिरी पशोपेश में पड़ गये। जमात ने भोजन किया और ज्वालागिरीजी वहाँ से सीधे बलूचिस्तान में शक्ति हिंगलाज के द्वार पर गये। वहाँ शक्ति से, सूरोजी के घर जन्म लेने की कामना प्रस्तुत की। प्रत्येक दर्शनार्थी की एक बार में एक मनोकामना पूर्ण करने का हिंगलाज का वचन है। इसलिये शक्ति माँ ने साधू की यह विनती स्वीकार कर ली। साधू ज्वालागिरी ने मारवाड़ के मालाणी प्रदेश के भादरेस गाँव में सूराजी बारठ के घर संवत 1595 सांवण सुदि 2 शुक्रवार को जन्म लिया। (सं. 1595-1675 वि.) साधू की पूर्व आज्ञानुसार इसका नाम ‘ईसरदास’ (ईश्वरदास) रखा। इसके पश्चात् सूराजी के चार पुत्र और हुए -भोजराज, नांदोजी, कुरोजी और छलोजी। ईसरदासजी के जन्म लेते ही इनके घर सुख – समृद्धि हो गई। गुमानदान का परिवार वर्ष प्रतिवर्ष समाप्त होता चला गया। जब ईसरदासजी दस वर्ष के हुए तब तक गुमानदान का पूरा परिवार ही समाप्त हो गया और उनकी समस्त जागीर सूरानी के उत्तराधिकार में चली गई। यथा विवरण- ईसाणंद ऊगाह। चंदण घर चारण तणै। ईसरदास का विवाह देवलबाई नामक चारण कन्या के साथ हुआ तब इनकी आयु 16 वर्ष के लगभग थी। इसके कुछ समय पश्चात् इनके माता – पिता का अवसान हो गया। देवलबाई से ईसरदास के दो पुत्र जम्णाजी और चाडोजी उत्पन्न हुए। देवलबाई की मृत्यु एक बिच्छू से विनोद करते हुए उसके डंक के प्रभाव से हुई। (ख) ईसरदास ईश्वर की ओर – अपने चाचा आसोजी की द्वारिका यात्रा के समय ईसरदासजी गुजरात व सौराष्ट्र की यात्रा में उनके साथ थे। इस यात्रा में वे जामनगर के रावळ जाम के निमंत्रण पर गये। वहाँ दरबार में इनका बड़ा सम्मान किया। इन दोनों कवियों की काव्य धारा से रावळ मुग्ध हो गये। परन्तु ईसरदास की कविता पर वहाँ के राज पण्डित और भक्त पिताम्बरदास भट्ट ने सिर हिलाया। ईसरदास ने सोचा कि यह मेरे काव्य का निरादर कर रहा है। इसलिये रात्री को तलवार लेकर वे उसके घर गये। वहाँ पीताम्बरदास अपनी पत्नी से कह रहा था कि यदि ईसरदास मानव कविता त्याग कर ईश्वर की कविता में गुणगान करे तो उसका उद्धार हो जाता है। मैंने विद्वान और धर्मपरायण चारण ऐसा और कहीं नहीं देखा। ईसरदासजी यह सुनकर उनके सामने प्रगट हुए और उसको अपना गुरु स्वीकार किया। यहाँ से उनकी कविता ईश्वर की और प्रवाहमान होने लगी। रावळ जाम ने ईसरदास को 24 गाँवों की जागीर, वस्त्राभूषण अर्थात करोड़ पसाव प्रदान कर अपना दरबारी कवि घोषित किया। ईसरदासजी ने यहाँ आकबर अवसूरा शाखा के पेथा भाई गढ़वी की पुत्री राजबाई के साथ विवाह किया। जिससे इन्हें तीन पुत्र 1. कांनदास, 2. जेसाजी और 3. गोपालदास का जन्म हुआ। इनके वंशज जामनगर रियासत के गाँवों में आबाद है और ईसरांणी बारठ के वंशज कहलाते हैं। इस विवाह में रावळ जाम स्वयं बाराती बनकर गये थे और ‘राजबा’ को अपने हाथ से ‘चूंदड़ी’ ओढाकर चारण – राजपूत का मामा – भानजा का रिश्ता प्रगाढ किया था। अर्थात् जाम ने अपनी बहिन के रूप में राजबाई को ‘चुदड़ी’ ओढाई। चारण की छोटी कन्या राजपूत के लिये बहिन (बाईसा) एवं बड़ी ऊमर की महिला ‘बुआसा’ कहलाती है। यह इनके धर्म की मर्यादा है। रावळ जाम पहले कच्छ में रहते थे परन्तु ईसरदास की सलाह से उन्होंने कच्छ को त्याग दिया और अपनी सेना सहित हालार प्रदेश में आये। वहां शत्रुओं को मारकर ‘नवानगर’ शहर बाया। वहाँ राजधानी स्थापित करके उस शहर का नाम अपने नामकरण पर ‘जामनगर’ रखा, जो प्रसिद्ध है। ईसरदास ने अपने जागीर के गाँवों में संचाणे ग्राम में अपना आवास रखा। क्रोड़पसाब के बारे में एक दोहा प्रसिद्ध – क्रोड़पसाव ईसर कियौ। दीयौ संचाणो गांम। अब ईसरदास का प्रवाह ईश्वर भक्ति तरफ बहने लगा। उनका आध्यात्मिक ज्ञान उच्च शिखर पर पहुँच गया जहाँ उन्हें अपने पास साक्षात् ईश्वर का बोध हो रहा था। इसी काल में आपने 162 छंदों का ‘हरिरस’ नाम से परमेश्वर का एक भक्ति काव्य रचा। इसको सुनाने को वे सीधे द्वारिकाधीश के मन्दिर में द्वारिकापुरी गये। वहाँ पर उन्होंने ईश्वर को उसकी जगत माया का निरूपण करने वाला ग्रंथ ‘हरिरस’ पढ़कर सुनाया और अपना पर्दा हटाकर दर्शन देने को ईश्वर से विनती की। जिसे ईश्वर को स्वीकार करना पड़ा और प्रत्यक्ष दर्शन दिये। स्वयं ईसरदास ने कहा- ईसर सूं ईसर पुणे। खोल पडदा यार। आचार्य बदरीप्रसाद साकरिया ने इस बाबत द्वारिकापुरी के पण्डितजी को पूछा तो उन्होंने पत्रोत्तर दिया कि मन्दिर के दफ्तर में यह बात दर्ज है कि ‘इसरदासजी ने अपना ग्रन्थ ‘हरिरस’ भगवान को सुनाया था, जिसका समय भी उन्होंने लिखा है। राजस्थान रिसर्च सोसायटी ने भी इस बात की पुष्टि की है। हरिरस की महता को केशवदास गाडण ने इस प्रकार व्यक्त की है- जग प्रागळतौ जांण। अथ दावानळ ऊबरण। हलवद के शासक ने भी ईसरदास को बहुमूल्य पारितोषिक भेंट किया था। जूनागढ़ राव नवघण से अमरेली के वजाजी सरवैया की शत्रुता हो गई। नवघण के आक्रमण से बचने के लिये वजाजी सरवैया जामनगर के रावळ जाम की शरण में चले गये। वहाँ वजाजी की ईसरदास से बड़ी घनिष्ठता हो गई। कुछ मास बाद जमा के प्रयत्नों से जूनागढ के शासक से अमरेली वजाजी की सन्धि हो गई, तब वजाजी पुनः अमरेली लौट गये। इस समय वजाजी के पुत्र करन की शादी का समय था इसलिये वजाजी ने बड़े ही आग्रहपूर्वक ईसरदासजी को करन की शादी में आने का निमन्त्रण दिया। विवाह में जाते समय रास्ते में रात्री पड़ गई, तब वेणु (बिणाई) नदी के तट पर नागरचाळा नामक ग्राम में रास्ते में खेल रहे बालकों से ईसरदासजी ने पूछा कि इस गांव का ठाकुर कौन है ? मुझे उसके घर जाना है। राजपूतों के दो उद्दंड बालकों ने साथ चलकर फिर कहा कि वह सामने झोंपा दिख रहा है उसी के पास में ठाकर का रावळा है। ठाकुरसा का नाम सांगाजी गौड़ है। इसरदासजी ने वहीं सांगाजी ठाकुर को आवाजें लगाई और इधर-उधर फिरकर ठाकुर का कोर्ट ढूंढने का प्रयास किया। सोंगे के नाम की आवाजें सुनकर झोंपड़ी से उसकी माँ बाहर आई और ईसरदास को अपने घर ले गई। वहाँ पर साँगा व उसकी गरीब माँ दो सदस्य ही थे। साँगा वैरीशाल का पुत्र था वह गाँव के बच्छड़े चराता था। इसरदास उनके अतिथि बनकर रहे। प्रातः अश्वारोही होकर प्रस्थान करते समय सांगा ने कवि को पूजा – पाठ में बैठने का, ऊन का बना छोटा बिछौना (आसन) जिसे कांबळी कहते हैं, भेंट किया। ईसरदास ने इस वक्त यह आसन यहीं रखने को कहा और विवाह समारोह से वापिस लौटने पर इसे ले जाने का वादा करके प्रस्थान किया। (अ) करन को जीवित करना – ईश्वरदासजी अश्वारोही होकर शीघ्रता से करन की शादी में सम्मिलित होने को प्रातः अमरेली पहुँचे तो राज परिवार वहां की शवयात्रा सामने से आती हुई दिखाई दी। जब ईसरदासजी पास पहुँचे तो लोगों ने दारुण रुदन करते हुए कहा कि दुल्हा करन को रात्री में काले सर्प ने डस लिया है। बहुत इलाज करने के बाद भी हीरा था वो हाथ से चला गया। ईसरदास ने हाथ का इशारा करके करन के शव की अर्थी को भूमि पर रखावाया। राजा विजैराज व तमाम राजपरिवार के साथ जनता भी दीन अवस्था में विलाप कर रही थी। ईसरदास ने विजैराज को ढाढस बंधाते हुए शान्त किया और सबसे कहा कि रुदन मत करो। मेरा प्रभू ईश्वर करेगा, करन जीवित होगा – सभी लोग एक टकटकी से ईसरदास को देखने लगे। कवि ने पहले अपनी आँखें बन्द करके ध्यान मुद्रा में ईश्वर से कुछ बातें कहीं। फिर पृथ्वी पर बैठ गये और भगवान को करन को जीवित करने का आग्रह किया। फिर एकाएक प्रभू में लीन होकर यह डिंगल गीत कहने लगे। यथा- धनंतर, मयंक, हणु सुक्र धाऔ| नर, सुर पाळक आप नबड़। ईसरदासजी ने अपने पास की पानी की “दीवड़ी” से करन के शरीर पर जल छिड़का। करन के शरीर में पुनर्जीवन आया। वह ऊठ कर कवि के चरणों में गिरा। विजयराज व सभी राज परिवारगण ने भी कवि के चरणों में गिरकर उनका अभिवादन किया। वे सभी असिमित हर्ष से प्रफुल्लित हो उठे। जब अर्थी दुल्हे में परिवर्तित हो गई तब लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ईसरदास को बड़े गाजे-बाजे के साथ भव्य स्वागत कर राज महल में लाया गया। फिर तत्काल बरात बनाकर करन का विवाह समापन किया। विवाहोपरान्त प्रीति भोज के अवसर पर राजा व रानी ने ईसरदास के चरणों में बैठकर अमरेली का राज्य ईसरदास को भेंट कर दिया। स्वयं को आज्ञा पालन में सेवक के रूप में रहने की भी राजा ने घोषणा की। ईसरदास ने राजसत्ता की भौतिकता में पड़ने से इन्कार कर दिया, इसलिये वापिस राजा को राज सौंप दिया। कवि ने कहा कि मुझे ईश्वर की भक्ति करनी है इसलिये मैं आपकी इस प्रार्थना को स्वीकार नहीं कर सकता। तब राजा ने कवि को लाख पसाव एवम् बरसड़ा और ईसरिया नामक दो गाँव की जागीर भेंट की। राज परिवार ने ईसरदास को तीन मास तक वहाँ रोके रखा। और वन्दनीय सेवा की। संवत् 1621 वैसाख सुदि नवमी को करन सरवैया का विवाह सम्पन्न करवाया गया था। करन की घटना के पश्चात् चारण के लिये राजपूत की किसी भी अर्धी के साथ चलने का निषेध हो गया। वही चारण क्षत्रिय (मामा) की अर्थी के साथ चल सकता है। जो ईसरदास की तरह उसको पुनर्जीवित करने की क्षमता रखता हो ! परन्तु अब ईसरदास जैसे भक्त कहाँ रहे ? (घ) सांगा गौड़ को पुनः जीवित करना – तीन मास रुकने के पश्चात् सावण के सुहावने मौसम में कवि वापिस जामनगर के लिये प्रस्थान हुए। अपने वचन के अनुसार ऊन का आसन (कम्बल) लेने हेतु ईसरदास नागरचाला गाँव में साँगा के घर पहुँचे। वे साँगा की कुटिया में गये जहाँ साँगा की अकेली माता शोक संतप्त थी। क्योंकि बालक सोंगा पुत्र वैरीशाल गौड़ 10-15 दिन पूर्व ही वेणु (बिणाई) नदी में एक बच्छड़ी को पानी में से निकालने के चक्कर में स्वयं भी बच्छड़ी के साथ नदी में डूबकर मर गये थे। जल में डूबते समय अपने साथियों को बार – बार आवाज लगाकर कहा था कि मेरी माँ को कहकर कवि ईसरदासजी को कम्बल अवश्य दे देना। इसलिये सांगा की माता ने अतिशीघ्र भोजन बनाया और ईसरदास को भोजन करने के लिये कहा। क्योंकि वह सांगा की अंतिम इच्छा पूर्ति करने को भक्तकवि को “कांबली” देना चाहती थी। उसने अपने पुत्र के शोक को भी मन के अन्दर दबाकर रखा। उसने ईसरदास से प्रसन्न चित से बातें की। परन्तु अपने सामने एका एक भोजन का थाल देखकर महात्मा ईसरदास ने कहा कि, माजीसा, मैं ऐसे अकेला भोजन नहीं करूंगा। सांगा आयेगा तब हम दोनों पास में बैठकर भोजन करेंगे। बार-बार कहने पर भी महात्मा नहीं माने तो अंततः माता का हृदय द्रवित हो उठा। उसने करुण क्रन्दन करते हुए कहा कि सांगा तो गाय की एक बच्छड़ी के साथ पानी में डूब मरा है जिसे 10-15 दिन होने को है। ईसरदास बालक की बचकानी बातों की तरह कहने लगे कि नहीं, सांगा कैसे डूब सकता है ? वह तो अभी आएगा। तभी चश्मदीद साथी बालकों ने कहा कि जल में डूबते समय सांगा ने यह कहा था। किसी कवि के दोहों में उस कथन की अभिव्यक्ति-यथा- नदी वहंतौ जाय। सादज सांगलियै दियौ। यह सुनकर ईसरदास वहाँ से खड़े हुए और वेणु नदी की तट पर चले, जहाँ बालक सांगा गौड़ पानी में डूबा था। साथी बालकों ने सांगा के डूबने का स्थान बताया और यह भी कहा कि वह कविश्वर को कांबली देने की पुकार अपनी माता को करता रहा, फिर पानी में डूब गया। ईसरदास अत्यन्त व्याकुल हो गये। वे उस तट पर इधर-उधर फिरते रहे और ईश्वर से बातें करते रहे। वे ईश्वर से विधि विधान की बातों का नाम लेकर झगड़ते भी थे और पल भर में दास बनकर विनय भी करते थे। कुछ समय तक इस क्रम के चलते रहते वे अकस्मात भाव विभोर हो उठे और सांगा को सम्बोधित करके कहने लगे। यथा- सांगलिया ने साद’। वहते जळ वेणु तणे। ॥दोहा॥ परम पिता परमेश्वर को ईसरदास की प्रार्थना को स्वीकार करना पड़ा। सांगा व उस बच्छड़ी की आत्माओं को मुक्त किया गया। वे दोनों नदी की विपरीत दिशा में विपरीत प्रवाह में आते हुए दिखाई दिये। सांगा की माता व अन्य सभी लोग अवाक रह गये। सांगा पहले कवि के फिर उसकी माता के चरणों में नतमस्तक हुआ। पूरा गाँव आश्चर्य मिश्रित हर्ष से फूले नहीं समा रहे थे। ईसरदास ने सांगा को अपने पास बैठाकर भोजन किया। ग्राम्यजन ने वहाँ भारी इन्तजाम के साथ ईसरदास को तीन दिन तक रोके रखा। फिर भक्त ईसरदास सांगा के हाथ से बिछाने का आसन (कोबळी) लेकर वापिस जामनगर पहुँचे। (च) आयर (नाग) क्षत्रियों हेतु पुत्र जैसा को गिरवा रखना – जामनगर पर रावळ जाम का प्रभावी व सशक्त शासन था। रावळ जाम का संवत् 1621 के कार्तिक मास में देहान्त होने पर उसका कमजोर उत्तराधिकारी गद्दी पर बैठा। जिसके कारण पड़ौसी शासक इसके क्षेत्र में आतंक फैलाने लगे। इस समय गुजरात पर बहादुरशाह का शासन था। उसने जामनगर की कमजोरी का लाभ उठाते हुए इस क्षेत्र के आयर (नाग) क्षत्रियों पर एक शाहीकर लगा दिया। नाग क्षत्रियों के अनेकों समुदाय प्रमार, पड़िहार, चाहुमान, चालुक्य, आहीर, यादव इत्यादि शाखाओं में बंट गये। इसी प्रकार एक समुदाय आहीर की तरह अही से ‘आयर’ बना। चारण आज भी इस नाम जाति-‘आयर’ को मामा से संबोधित करते हैं ये भी चारण को अपना भानजा कहते हैं। यदि कोई अनजाना चारण गुजरात में आज भी इनके घर चला जाता है। तब ये लोग उसको सगे भानजे के समान प्यार व दुलार से रखते हैं। जामनगर क्षेत्र की तमाम आयर जाति पर बहादुरशाह ने साठ हजार रुपयों का कर (टैक्ष) लगाया। उसने यह आदेश दिया कि या तो आयर साठ हजार रुपये अदा करें अन्यथा इन्हें मुसलमान धर्म स्वीकार करना होगा। आयर जाति में भूचाल आ गया। वे जामनगर राजा की कमान में लड़ने को तैयार हुए परन्तु राजा ने सहयोग करने से इन्कार कर दिया। आठ दस सम्मानित – मौजीद आयर उदास व निराश होकर वापिस लौट रहे थे तो वे ईसरदासजी से मिले और अपनी व्यथा उनको सुनाई। कवि ने कहा कि चलो मैं बादशाह को समझाता हूँ। कवि मामाओं के पक्ष में खड़ा हुआ। अपने पुत्र जैसाजी को साथ लेकर आयरों के साथ बादशाह के पास गये। बादशाह ने ईसरदास को कहा कि, “रे शायर तू अल्ला का बन्दा है, हम तेरे पर रहम करते हैं, तू इनके शाही कर (टैक्ष) के रुपये अदा करदे, हम आयरों को तब माफीनामा दे देंगे।” ईसरदास ने एक मास के बाद रुपये भरने का कह दिया। उस पर बहादुरशाह ने कहा, “रे हिन्दू शायर, जरा सोच समझ कर बात करना। तू अपने को खुदा का बन्दा कहता है ! यह इकरार तुम अपनी मर्जी से हमसे कर रहे हो। आज पीर का दिन है, द्वितीया का चाँद दिखने का दिन है। तुम्हारे साथ लाये अपने फर्जन जैसाजी को हम यहाँ रखेंगे। तब तक एक मास में हमारा शाही कर अदा कर देना, वरना फिर उस द्वितीया को चाँद देखकर दूसरे रोज तुम्हारे बेटे को मुसलमान बना दिया जायेगा। साथ आये आयरों ने ईसरदास को ऐसा करने से बहुत रोका परन्तु भानजे ईसरदास ने मामों की एक भी बात नहीं सुनी। जैसा को नजर बन्दी में डलवाकर ईसरदास घर आ गये। एक मास का समय व्यतीत हो गया, परन्तु ईसरदास उस रकम को बादशाह को अदा न कर सके। परन्तु द्वितीया का चाँद दिखाई न देने के कारण बादशाह चारण जैसाजी को मुसलमान नहीं बना सका। ईसरदास वादे के मुताबिक द्वितीया तिथि को उपस्थित हुए। जब तृतीया को भी चन्द्र दर्शन नहीं हुए तब बादशाह भयभीत हो गया। उधर लोगों ने गुजरात में चारों और चारण देवियों के चमत्कार की बातें बादशाह को बता रखी थी। बादशाह ने विनम्र होकर ईसरदास को कहा, रे पीर, पूछ तेरे रब को, तू अब क्या चाहता है? ईसरदास ने कहा कि जब तक शाही टैक्ष नहीं भरा जायेगा, तब तक चन्द्र दर्शन नहीं होंगे। बादशाह ने कहा, रे बन्दा, शाही कर अदा करदे, तुझे कौन मना करता है। नबी के खिदमतगार, तू बता अब क्या चाहता है? ईसरदास ने कहा कि एक मास की अवधि और बढाई जाए। बादशाह ने कहा कि मुझे कबूल है। परन्तु तुझे अब यह रकम एक लाख रुपये का शाहीकर देना होगा। (छ) झाला रायसिंह का उपकार – ईसरदास लौटकर वापिस अपने साँचांणा गाँव आ गये। उनका पुत्र जैसाजी अब भी आयर मामों के लिये जमानत में नजरबन्द था। इस घटना की जानकारी काठियावाड़ के धांगघ्रा के शासक रायसिंह झाला को मिली तब वह सांचाणे ग्राम में ईसरदासजी के पास आये और पूरा वृतान्त सुना। इसने व्यापारी वर्ग से कुछ चन्दा इकट्ठा करके व शेष राशि अपने पास से लेकर एक लाख रुपये गुजरात के बादशाह बहादुरशाह को आयरों का शाही कर राज्य के खजाने में जमा कराया। ईसरदासजी के पुत्र जसानी बारठ को नजरबन्दी से मुक्त करवाया। ईसरदासजी इस घटना से रायसिंह झाला पर बड़े प्रभावित हुए और इस अहसान के बदले मैं धन्यवाद के दो शब्द स्वतः स्फुटित हो गये। यथा- ॥दोहा॥ ॥डिंगळ गीत॥ इस प्रकार कवि ने अपने कर्तव्य का निर्वहन किया और अपने उपकार का अहसानबद्ध होकर इस घटना को अरमत्व प्रदान किया। साथ ही अपनी सांस्कृतिक मर्यादा की प्रतिबद्धता को उजागर किया। यह घटना ईसरदास के दैवी चरित्र व चारण-क्षत्रिय के घनिष्ठ सम्बन्धों का सजीव चित्रण है। (ज) क्षत्राणी की प्रार्थना- ईसरदास का प्रण खण्डित – काठियावाड़ के दो छोटे – छोटे शासक, एक ध्रांगध्रा का रायसिंह झाला, दूसरा ध्रौळ का जसाजी हाला। दोनों मामा – भानजे परस्पर अत्यन्त घनिष्ठता। स्नेहपूर्ण वातावरण में चौपड़ खेल रहे थे। इतने में गाँव के पास से नगाड़े बजाते हुए के जाने की आवाज आई। ध्रौळ के जसाजी ने जब नगाड़ा बजाने वाले की जानकारी की तो पता चला कि यह तो मठाधीश मुकुन्द भारती की जमात पास से गुजर रही है। इस पर जसाजी ने कहा कि तब कोई बात नहीं। मामा रायसिंह से भानजा जसाजी हाला का यह दर्प सहन नहीं हुआ, उसने कहा कि मैं नगाड़ा बजाता हुआ आपके गाँव के पास से निकलूं तो आप क्या कर लोगे ? जसाजी ने कहा कि मामाजी को वहीं वीरगति प्राप्त करनी होगी। रायसिंह झाला जसा को ललकार कर उठे और युद्ध का न्यौता देकर गाँव चले गये। गाँव में आकर रायसिंह ने अपनी सेना की तैयारी की। इस सैनिक अभियान का पता जब इसकी पत्नी को मिला तब उसने पति से कहा कि आप जो कुछ कर रहे हैं वह तो ठीक है। आपका यह युद्ध किसी स्वार्थपूर्ति या राज्य विस्तार के लिये नहीं लड़ा जा रहा है। यह तो आपने अपनी बात की आन के लिये युद्ध का उद्घोष किया है। युद्ध का परिणाम क्या होगा ? इसे मैं नहीं जानती, परन्तु इस युद्ध को अमरत्व प्रदान हो, मेरी यह कामना है। झाला रायसिंह ने कहा कि इसका अमरत्व प्रदान करने वाला भक्तवर ईसरदास के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा चारण नहीं है। परन्तु ईसरदासजी परमेश्वर के अलावा किसी पुरुष विशेष का कविता में वर्णन नहीं करते, उन्होंने तो यह प्रण ले रखा है। वे अपना प्रण खण्डित कैसे करते? यदि मैं स्वयं उनके पास जाकर अपनी वीरता का वर्णन करने को कहूँ तो यह मेरी मानसिकता का गिरा हुआ भाव होगा, जिसे भक्त कवि स्वयं भी स्वीकार नहीं करेगा। फिर भी तुम्हारी इच्छा इस युद्ध को अमरत्व प्रदान करने की है तो तुम स्वयं रथ लेकर जाओ और पूरा वृतान्त सुनाकर अपने मन की इच्छा कवीश्वर से निवेदन करना। संभव है तुम्हारा निवेदन स्वीकार कर लें। झाला रायसिंह अपनी सेना को जसानी हाला के घमण्ड को चूर – चूर करने के लिये तैयार कर रहे थे। उधर रायसिंह की पत्नी रथ जोतकर ईसरदासजी के गाँव गई। रानी का भव्य स्वागत किया गया तथा यहाँ आने का प्रयोजन पूछा। रानी ने बड़े ही अनुनय विनय से पूरा वृतान्त ईसरदासजी को सुनाया। तदुपरान्त रानी ने इस युद्ध को अमर करने की जब प्रार्थना की तो ईसरदासजी बड़ी देर तक मौन हो गये। वे बड़ी ही उहापोह की स्थिति में फंस गये। उन्होंने ईश्वर के अलावा किसी भी व्यक्ति का काव्य रचने का निशेष कर रखा था, तथापि यहाँ मर्यादा गत कई बातें इनके दिमाग में चल रही थी। महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार अर्जुन के प्राण संकट में देखकर अपना प्रण खण्डित किया, भक्तवर ईसरदास को भी राणी की इच्छा की गम्भीरता को देखकर अपना प्राण खण्डित करते हुए यह कहना पड़ा कि आपकी इच्छा पूर्ण करने को मैं इन वीरों के संग्राम का वर्णन अवश्य करके इस युद्ध को अमर कर दूंगा। राणी सहर्ष वापिस लौटी। अपनी घोषणा के अनुसार झाला रायसिंह नगाड़े बजाता हुआ आया और दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। जसाजी हाला को वीरगति प्राप्त हुई और रायसिंह भयंकर रूप से घायल हुए। गुजरात व काठियावाड़ के इतिहास में इस युद्ध का उल्लेख है। भक्तकवि ईसरदास ने इस युद्ध का मार्मिक वर्णन ‘हालां-झालां रा कुंडलिया’ नामक काव्य में वर्णित किया। कुंडलिया नामक 50 छंदों में यह वीररस का एक लघु काव्य है। यह युद्ध संवत 1632 में लड़ा गया था। अकबर की नीतियों व उसके ‘दीने – इलाही’ धर्म के कारण हिन्दू धर्म का भारी ह्रास होने लगा था। तब चारण कुल में महापुरुषों के रूप में कुछ चारण अवतरित हुए थे। जिन्होंने हिन्दू धर्म में जनचेतना जागृति की व क्षत्रिय शासकों को भी सम्बल प्रदान किया। उस काल में एक औलिया पुरुष के रूप में चारण ईसरदास अवतरित हुए तथा उनके अलौकिक कार्यों के कारण के ‘ईसरा-परमेसरा’ के नाम से जाने जाते हैं। गाँव भादरेस (बाड़मेर) जन्मभूमि पर इनका भव्य मन्दिर बना हुआ है। जहाँ इनकी पूजा अर्चना की जाती है। दर्शनार्थी मनोकामना पूर्ण करते हैं। चारण होने के कारण ईसरदास ने भी मातृशक्ति की आज्ञा से देवियांण नामक ग्रंथ बनाकर शक्ति को प्रसन्न किया। वृद्धावस्था में ये मालानी (मारवाड़) के गुड़ा गाँव के पास लूनी नदी के किनारे जंगल में एक पर्ण कुटी बनाकर विरक्त की भांति रहे। वं संवत 1675 में 80 वर्ष की आयु में परम धाम को प्राप्त हुए। कहा यह भी जाता है कि संचाणा ग्राम के पास समुन्द्र तट पर आकर घोड़े सहित समुन्द्र के जल में समा गये। ईसर घोड़ो झोकियो। महासागर के माय। |
इसरदासजी रचित अथवा उनसे सम्बंधित रचनाओ अथवा आलेख पढने के लिए नीचे शीर्षक पर क्लिक करें:-
- सिध्द सन्त महात्मा ईसरदासजी – राजेन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर
.
2 Responses
Kavi Shri Ishwarsas ji ki adbhut Rachna aur Kavya yahan dekhne Ko Mila
ईश्वर दास जी के जीवन चरित्र का बहुत ही शानदार तरीके से वर्णन किया है।
बहुत-बहुत आभार