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कविराज दुरसाजी आढ़ा

कविराज दुरसाजी आढ़ा

मारवाड़ राज्य के धुंधल गांव के एक सीरवी किसान के खेत में एक बालश्रमिक फसल में सिंचाई कर रहा था पर उस बालक से सिंचाई में प्रयुक्त हो रही रेत की कच्ची नाली टूटने से नाली के दोनों और फैला पानी रुक नहीं पाया तब किसान ने उस बाल श्रमिक पर क्रोधित होकर क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए उसे टूटी नाली में लिटा दिया और उस पर मिट्टी डालकर पानी का फैलाव रोक अपनी फसल की सिंचाई करने लगा।

उसी वक्त उस क्षेत्र के बगड़ी नामक ठिकाने के सामंत ठाकुर प्रतापसिंह आखेट खेलते हुए अपने घोड़ों को पानी पिलाने हेतु उस किसान के खेत में स्थित कुँए पर आये तब उनकी नजर खेत की नाली में मिटटी में दबे उस बालक पर पड़ी तो वे चौंके और उसे मिटटी से निकलवाकर अपने साथ सोजत ले आये व उसकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की। कालांतर में वही बालक पढ़ लिखकर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमता व अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर राजस्थान के एक परम तेजस्वी कवि के रूप में विख्यात हुआ। उस वक्त कविता के नाम पर जितना धन, यश, और सम्मान इस कवि को मिला उसे देखते हुए राजस्थान के इतिहासकार एवं साहित्यकार उस तेजस्वी कवि के महत्व की तुलना हिंदी के महाकवि भूषण से करते हुए उसे भूषण से भी बढ़कर बताते हैं।

बात चल रही है मारवाड राज्य के सोजत परगने के पास धुन्दला गांव में मेहा जी आढ़ा के घर १५३५ ई. (वि.स. १५९२ माघ सुदी चवदस) को जन्में महाकवि दुरसा आढ़ा की। इनके पिताजी मेहाजी आढा हिंगलाज माता के अनन्य भक्त थे जिन्होने हिंगलाज शक्तिपीठ की तीन बार यात्रा की। मां हिंगलाज के आशीर्वाद से उनके घर दुरसाजी जैसे कवि का जन्म हुआ। गौतमजी व अढ्ढजी के कुल में जन्म लेने वाले दुरसाजी आढा की माता धनी बाई बोगसा गोत्र की थी जो वीर व साहसी गोविन्द बोगसा की बहिन थी। भक्त पिता मेहाजी आढा दुरसाजी की छ वर्ष की आयु में फिर से हिंगलाज यात्रा पर चले गये तथा इस बार इन्होने सन्यास धारण कर लिया। अत: पिता की अनुपस्थिति में घर चलाने हेतु बचपन में ही उन्हें मजबूरी में एक किसान के खेत में बालश्रमिक के तौर के पर कार्य करना पड़ा जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।

दुरसा जी जब पढ़ लिखकर योग्य हो गए तो वे सिर्फ एक श्रेष्ठ कवि ही नहीं थे, उनकी तलवार भी उनकी कलम की तरह ही वीरता की धनी थी, उनकी बुद्धिमता को देखते हुए बगड़ी के सामंत ठाकुर प्रताप सिंह ने उन्हें अपना प्रधान सलाहकार व सेनापति नियुक्त किया व पुरस्कार स्वरूप धुंधाला व नातलकुड़ी नामक दो गांवों की जागीर भी प्रदान की।

ई.सन १५८३ में एक बार अकबर ने सिरोही के राव सुरताणसिंह के खिलाफ जगमाल सिसोदिया (मेवाड़) के पक्ष में सेना भेजी, मारवाड़ राज्य की सेना ने भी जगमाल के पक्ष में सुरताण सिंह के खिलाफ चढ़ाई की उस सेना में बगड़ी ठाकुर प्रतापसिंह भी दुरसा आढ़ा सहित युद्ध में भाग लेने गए। आबू के पास दताणी नामक स्थान पर दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ जिसमें अपने युद्ध कौशल को प्रदर्शित करते हुए दुरसा आढ़ा घायल हो गये, संध्या समय जब सुरताण अपने सामंतों सहित युद्ध भूमि का जायजा लेते हुए अपने घायल सैनिकों को संभाल रहा था तभी उसके सैनिकों को घायलावस्था में दुरसा मिला वे उसे मारने ही वाले थे कि दुरसा ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह एक चारण है और प्रमाण के तौर पर उसनें तुरंत उस युद्ध में वीरता दिखा वीरगति को प्राप्त हुए योद्धा समरा देवड़ा की प्रशंसा में एक दोहा सुना डाला।

राव सुरताणसिंह उनके दोहे से प्रसन्न हो और चारण जाति का पता चलने पर घायल दुरसा को तुरंत अपने साथ डोली में डाल सिरोही ले आये और उनके घावों की चिकित्सा कराई, ठीक होने पर राव सुरताणसिंह ने दुरसा की प्रतिभा देखते हुए उन्हें अपने पास ही रोक लिया व उन्हें अपने किले का पोलपात बनाने के साथ ही एक करोड़पसाव का इनाम देने के साथ पेशवा, झांकर, ऊंड व साल नामक गाँव दिए। उसके बाद दुरसा जी सिरोही में ही रहे।

महाकवि दुरसा ने तत्कालीन मुग़ल शासकों की राजनैतिक चालों को समझ लिया था और वे अपनी कविताओं के माध्यम से शाही तख़्त को खरी खोटी सुनाने से कभी नहीं चूकते थे। राजस्थान में राष्ट्र-जननी का अभिनव संदेश घर घर पहुँचाने हेतु उन्होंने यात्राएं की उसी यात्रा में जब वे मेवाड़ पहुंचे तो महाराणा अमर सिंह ने बड़ी पोळ तक खुद आकर दुरसा का भव्य स्वागत किया। राजस्थान का सामंत वर्ग दुरसा आढ़ा की नैसर्गिक काव्य प्रतिभा के साथ उनकी वीरता पर भी समान रूप से मुग्ध था यही कारण था कि राजस्थान के सभी राजा महाराजा उनका समान रूप से आदर करते थे।

आपको अपने दीर्घ जीवनकाल में अपरिमित धन, यश एवं सम्मान मिला। राजाओं द्वारा प्राप्त पुरस्कार को यदि काव्य-कसौटी माना जाय तो इतिहासकार कहते है कि दुरसा जैसा कवि अन्यत्र दुष्प्राप्य है। इसकी बानगी नीचे देखें:

दुरसाजी को प्राप्त सांसण में जागीर:
धुंदला, नातल कुडी, पांचेटिया, जसवन्तपुरा, गोदावास, हिंगोला खूर्द, लुंगिया, पेशुआ, झांखर, साल, ऊण्ड, दागला, वराल, शेरूवा, पेरूआ, रायपुरिया, डूठारिया, कांगडी, तासोल, सिसोदा। इनके अलावा बीकानेर के राजा रायसिंह ने इनको चार गांव सांसण में दिये थे जिनकी पुष्टि बीकानेर के इतिहास से होती है।

करोड पसाव पुरस्कार:

  • १करोड पसाव रायसिंह जी बीकानेर ने
  • १ करोड पसाव राव सूरताण सिरोही ने
  • १ करोड पसाव मानसिह आमेर ने
  • १ करोड पसाव महाराणा अमरसिंह मेवाड ने
  • १ करोड पसाव महाराजा गजसिंह मारवाड ने
  • १ करोड पसाव जाम सत्ता ने
  • ३ करोड पसाव अकबर बादशाह ने दिये जिन्हे जनकल्याण में खर्च किये अर्थात् तालाबो, कुओ, बावडियों इत्यादि के निर्माण में व्यय किया।

लाख पसाव पुरस्कार:
दुरसाजी को कई लाख पसाव मिले जिन्हे सिरोही महाराव राजसिंह, अखेराजजी, मुगल सेनापति मोहबत खान व बैराम खान से प्राप्त हुए।
दुरसाजी आढा ने पुष्कर के चारण सम्मेलन में १४ लाख रूपये खर्च करके समाज हित का कार्य किया।

विरच्यो प्रबंध वरणरो, सूरज शशिचर साख।
तठै खस्व दुरसा तणा, लागा चवदा लाख।।

आउवा धरणा के अग्रज
दुरसाजी आढा के नेतृत्व में आउवा का धरणा वि स १६४३ के चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में हुआ। इनके धरणे में इनके मुख्य सहयोगी अक्खाजी, शंकरजी बारहठ, लक्खाजी आदि समकालीन चारण थे सबसे ज्यादा चवालीस खिडिया गोत्र के चारणों ने शहादत दी। दुरसाजी आढा ने गले में कटारी खाई। धागा करने के बाद भी देवी कृपा से वे बच गये। उन्होने मोटा राजा उदयसिंह को दिल्ली के दरबार में सरेआम लज्जित किया। गले में कटारी का घाव खाने से दुरसाजी के गले की आवाज विकलांग हो गई। इस पर अकबर ने पूछा कि आपकी आवाज कैसे बिगड गई? तब उन्होने कहा कि कुत्ते ने काट लिया था इतना बडा कुत्ता कैसे हो सकता है तो उन्होने मोटा राजा की तरफ संकेत किया।

दुरसाजी आढा के निर्माण
पेशुआ

  1. दुरसालाव पेशुआ
  2. बालेश्वरी माता मंदिर
  3. कनको दे सती स्मारक
  4. पेशुआ का शासन थडा

झांखर

  1. फुटेला तालाब
  2. झांकर का शासन थडा

पांचेटिया

  1. किसनालाव
  2. शिव मंदिर
  3. दुरसश्याम मंदिर
  4. कालिया महल
  5. धोलिया महल

हिगोंला खुर्द

  1. हिगोंला के महल
  2. हिगोंला का तालाब

रायपुरिया

  1. बावडी का निर्माण जो मेवाड रियासत का सांसण गांव था जहां से इनके लिए पांचेटिया (मारवाड )में पानी पहुचता था क्योकि आउवा धरणे के बाद उन्होने मारवाड के पानी का त्याग कर दिया था।

महाकवि दुरसा के स्फुट छंदों में दृढ़ता, सत्यप्रियता एवं निर्भीकता का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। स्फुट छंदों व प्रयाप्त मात्रा में उपलब्ध फुटकर रचनाओं के अलावा दुरसा द्वारा रचित तीन ग्रंथों का उल्लेख प्राय: किया जाता है- “विरुद छहतरी, किरतार बावनी और श्री कुमार अज्जाजी नी भूचर मोरी नी गजगत।”

कवि दुरसा ने दो विवाह किये थे और अपनी छोटी पत्नी से उन्हें विशेष प्रेम था। दोनों पत्नियों से उन्हें चार पुत्र- भारमल, जगमाल, सादुल और किसना प्राप्त हुए। बुढापे में उनके जेष्ठ पुत्र ने उनसे संपत्ति को लेकर विवाद किया तब उन्होंने कहा- एक तरफ मैं हूँ दूसरी और मेरी संपत्ति, जिसको जो लेना हो ले ले। यह सुन पहली पत्नी से उत्पन्न सबसे बड़े पुत्र भारमल ने उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया, बची खुची संपत्ति के साथ छोटी पत्नी के बेटे किसना ने पिता के साथ रहना स्वीकारा अत: दुरसा अपनी वृद्धावस्था में मेवाड़ महाराणा द्वारा दिये गांव पांचेटिया में अपने अंतिम दिन व्यतीत करते हुए १६५५ ई. में स्वर्गवासी हो गये।

अचलेश्वर शिव मंदिर – आबू पर्वत के अचलेश्वर जी के शिव मंदिर में जहां शिवजी के अंगूठे की पूजा की जाती है वहां मंदिर में शिव जी के सामने नंदी के पास दुरसाजी आढा की पीतल की मूर्ति लगी हुई है जिस पर १६२८ ई. का एक लेख उत्कीर्ण है। लेख के अनुसार इनकी जीवित अवस्था में इस मूर्ति की स्थापना हुई। ऐसा सम्मान किसी कवि को नही मिला।
पद्मनाथ मंदिर सिरोही- पैलेस के सामने इस मंदिर के बाहर हाथी पर सवार इनकी मूर्ति भी बडी महत्वपूर्ण है जो विष्णु मंदिर के बाहर लगी हुई है जो सदियो से उनके अतुल्य सम्मान का प्रतीक है। लेख के अनुसार इनकी जीवित अवस्था में इस मूर्ति की स्थापना हुई। किसी कवि की पीतल की मूर्ति के निर्माण की जानकारी इससे पूर्व कभी नहीं मिली।

महाकवि दुरसा की नजर में घोर अंधकार से परिपूर्ण अकबर के शासन में जब सब राजा ऊँघने लग गए किन्तु जगत का दाता राणा प्रताप पहरे पर जाग रहा था। राणा प्रताप के प्रण, पराक्रम व पुरुषार्थ पर मुग्ध कवि ने लिखा-

अकबर घोर अंधार, उंघाणा हींदू अवर।
जागै जगदातार, पोहरै राण प्रतापसी।।

सिरोही के राव सुरताणसिंह की प्रशंसा में –

सवर महाभड़ मेरवड़, तो उभा वरियाम।
सीरोही सुरताण सूं, कुंण चाहै संग्राम।।

आगरा के शाही दरबार में एक मदमस्त हाथी को कटार से मारने वाले वीर रतनसिंह राठौड़ (जोधा) की प्रशंसा में कवि ने कहा-

हुकळ पोळी उरड़ियों हाथी, निछ्टी भीड़ निराळी।
रतन पहाड़ तणे सिर रोपी, धूहड़िया धाराळी।।
पांचू बहंता पोखे, सांई दरगाह सीधे।
सिधुर तणों भृसुंडे सुजड़ी, जड़ी अभनमे जोधे।।
देस महेस अंजसिया दोन्यौ, रोद खत्री ध्रम रीधो।
बोहिज गयंद वखाणे आंणे, डांणे लागे दीधो।।

दुरसा आढ़ा को प्रथम हिंदूवादी राष्ट्रभक्त कवि भी कहा जा सकता है जिसने अकबर के सामने राणा प्रताप की प्रशंसा और अकबर की निंदा की। ये अकबर के दरबार में होते हुए भी उसके मुंह पर महाराणा प्रताप की प्रशंसा करते थे। स्वयं अकबर भी इनकी निर्भीकता का सम्मान करता था एवं इनका अत्यंत आदर करता था। जब महाराणा प्रताप के निधन का समाचार अकबर को प्राप्त हुआ तो उसे अत्यंत विस्मय और दुःख हुआ और उसने अपनी जीभ दांतो तले दबाई और उसके आंसू बह निकले और उसने गहरा निश्वास खींचा। धन्य हैं ऐसे वीर जिनकी मृत्यु पर शत्रु भी आंसू बहाएं। इस अवसर पर उसी समय अकबर की दशा का आँखों देखा वर्णन दुरसा आढा ने इस छंद में किया जो आज तक प्रसिद्ध है।

अस लेगो अण दाग, पाग लेगो अण नामी।
गो आड़ा गवड़ाय, जिको बहतो धुर बामी।
नवरोजे नह गयो, न गो आतशा नवल्ली।
न गो झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली।

गहलोत राण जीतो गयो, दसण मूँद रसना डसी।
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।

राणा ने अपने घोडों पर दाग नही लगने दिया (बादशाह की अधीनता स्वीकार करने वालों के घोडों को दागा जाता था) उसकी पगड़ी किसी के सामने झुकी नही (अण नमी पाघ ) जो स्वाधीनता की गाड़ी की बाएँ धुरी को संभाले हुए था वो अपनी जीत के गीत गवा के चला गया। (गो आड़ा गवड़ाय ) (बहतो धुर बामी, यह मुहावरा है। गीता में अर्जुन को कृष्ण कहते है कि, हे! अर्जुन तुम महाभारत के वर्षभ हो यानि इस युद्ध की गाड़ी को खींचने का भार तुम्हारे ऊपर ही है। )
तुम कभी नोरोजे के जलसे में नही गये, न बादशाह के डेरों में गए। (आतशाँ -डेरे) न बादशाह के झरोखे के नीचे जहाँ दुनिया दहलती थी। (अकबर झरोखे में बैठता था तथा उसके नीचे राजा व नवाब आकर कोर्निश करते थे। )
हे! प्रतापसी तुम्हारी म्रत्यु पर बादशाह ने आँखे बंद कर (दसण मूँद ) जबान को दांतों तले दबा लिया, ठंडी सांस ली, आँखों में पानी भर आया और कहा गहलोत राणा जीत गया।

महाराणा प्रताप विषयक दुरसा आढा की रचना “विरद छिहत्तरी” के दोहे इतिहास प्रसिद्ध हैं जो राणा प्रताप को अकबर की तुलना में श्रेष्ट ठहराते हैं और दुरसा ने अकबर के सामने भी इन्हें प्रस्तुत करने की निर्भीकता दिखाई।

अलख धणी आदेश, धरमाधार दया निधे।
बरणो सुजस बेस, पालक धरम प्रतापरो।। (१)
गिर उंचो गिरनार, आबु गिर ओछो नही।
अकबर अघ अंबार, पुण्य अंबार प्रतापसीं।। (२)
वुहा वडेरा वाट, वाट तिकण वेहणो विसद।
खाग, त्याग, खत्र वाट, पाले राण प्रतापसीं।। (३)
अकबर गर्व न आण, हिन्दु सब चाकर हुआ।
दिठो कोय दहिवाण, करतो लटकां कठहडे।।(४)
मन अकबर मजबूत, फुट हिन्दुआ बेफिकर।
काफर कोम कपूत, पकडो राण प्रतापसीं।।(५)

अकबर किना याद, हिन्दु नॄप हाजर हुआ।
मेद पाट मरजाद, पोहो न आव्यो प्रतापसीं।।(६)
अकबर के बुलाने पर सब हिन्दू राजा हाजिर हो गए पर मेवाड़ की मर्यादा का रक्षक राणा प्रताप उसके अधीन नहीं हुआ

मलेच्छां आगळ माथ, नमे नही नर नाथरो।
सो करतब समराथ, पाले राण प्रतापसी।।(७)
कलजुग चले न कार, अकबर मन आंजस युंही।
सतजुग सम संसार, प्रगट राण प्रतापसीं।।(८)
कदे न नमावे कंध, अकबर ढिग आवेने ओ।
सुरज वंश संबंध, पाले राण प्रतापसी।।(९)

चितवे चित चितोड, चित चिंता चिता जले।
मेवाडो जग मोड, पुण्य घन प्रतापसीं।।(१०)
चित्तौड़ का चित्त चिंता की चिता में जल रहा था पर जगत के सरताज राणा का पुण्य उसके लिए बादल बनकर बरसा

सांगो धरम सहाय, बाबर सु भिडीयो बहस।
अकबर पगमां आय, पडे न राण प्रतापसी।।(११)
जैसे उनके पितामह राणा सांगा ने धर्म का सहारा लेकर बाबर से टक्कर ली ठीक वैसे ही राणा प्रताप ने कभी अकबर की चरण वंदना नहीं की।

अकबर कुटिल अनित, और बटल सिर आदरे।
रघुकुल उतम रीत, पाले राण प्रतापसी।।(१२)
अकबर जो भी कुटिलताएं करता है उनको अन्य राजा शिरोधार्य करते हैं पर राणा प्रताप रघुकुल की उत्तम रीति का ही पालन करता है

लोपे हिन्दु लाज, सगपण रों के तुरक सु।
आर्य कुल री आज, पुंजी राण प्रतापसीं।।(१३)
आज तुर्कों के कारण हिन्दुओं की लज्जा जा रही है पर राणा आज भी आर्य कुल की पूँजी बनकर खड़ा है

सुख हित शिंयाळ समाज, हिन्दु अकबर वश हुआ।
रोशिलो मॄगराज, परवश रहे न प्रतापसी।।(१४)
अपने सुख के लिए सियार हिन्दू राजा अकबर के अधीन हो गए पर क्रुद्ध सिंह के समान प्रताप कभी पराधीन नहीं रहा

अकबर फुट अजाण, हिया फुट छोडे न हठ।
पगां न लागळ पाण, पण धर राण प्रतापसीं।।(१५)

अकबर पत्थर अनेक, भुपत कैं भेळा कर्या।
हाथ न आवे हेक, पारस राण प्रतापसीं।।(१६)
अकबर ने पत्थर के समान कई हिन्दू राजाओं को इकठ्ठा किया मगर पारस पत्थर राणा प्रताप उसके कभी हाथ नहीं लगा

अकबर नीर अथाह, तह डुब्या हिन्दु तुरक।
मेंवाडो तिण मांह, पोयण राण प्रतापसीं।।(१७)
अकबर अथाह समुद्र के समान है जिसमें सब हिन्दू राजा डूब गए पर कमल के समान राणा प्रताप उसके ऊपर हमेशा तैरता रहा

जाणे अकबर जोर, तो पण ताणे तोर तीड।
आ बदलाय छे ओर, प्रीसणा खोर प्रतापसीं।।(१८)
अकबर हिये उचाट, रात दिवस लागो रहे।
रजवट वट सम्राट, पाटप राण प्रतापसीं।।(१९)
अकबर घोर अंधार, उंघांणां हिन्दु अवर।
जाग्यो जगदाधार, पहोरे राण प्रतापसीं।।(२०)
अकबरीये एकार, दागल कैं सारी दणी।
अण दागल असवार, पोहव रह्यो प्रतापसीं।।(२१)
अकबर कने अनेक, नम नम निसर्या नरपती।
अणनम रहियो एक, पणधर राण प्रतापसीं।।(२२)

अकबर है अंगार, जाळे हिन्दु नृप जले।
माथे मेघ मल्हार, प्राछट दिये प्रतापसीं।।(२३)
अकबर रुपी अग्नि ने सब हिन्दू राजाओं को भस्म कर दिया पर इस प्रताप रुपी घन वृष्टि ने उसे भी बुझा दिया

अकबर मारग आठ, जवन रोक राखे जगत।
परम धरम जस पाठ, पीठीयो राण प्रतापसीं।।(२४)
आपे अकबर आण, थाप उथापे ओ थीरा।
बापे रावल बाण, तापे राण प्रतापसीं।।(२५)
है अकबर घर हाण, डाण ग्रहे नीची दिसट।
तजे न उंची ताण, पौरस राण प्रतापसीं।।(२६)
जग जाडा जुहार, अकबर पग चांपे अधिप
गौ राखण गुंजार, पिले रदय प्रापसीं।।(२७)
अकबर जग उफाण, तंग करण भेजे तुरक।
राणावत रीढ राण, पह न तजे प्रतापसीं।।(२८)
कर खुशामद कुर, किंकर कंजुस कुंकरा।
दुरस खुशामद दुर, पारख गुणी प्रतापसीं।।(२९)
हल्दीघाटी हरोळ, घमंड करण अरी घणा।
आरण करण अडोल, पहोच्यो राण प्रतापसीं।।(३०)
थीर नृप हिन्दुस्तान, ला तरगा मग लोभ लग।
माता पुंजी मान, पुजे राण प्रतापसीं।।(३१)
सेला अरी समान, धारा तिरथ में धसे।
देव धरम रण दान, पुरट शरीर प्रतापसीं।।(३२)
ढग अकबर दल ढाण, अग अग जगडे आथडे।
मग मग पाडे माण, पग पग राण प्रतापसीं।।(३३)
दळ जो दिल्ली हुंत, अकबर चढीयो एकदम।
राण रसिक रण रूह, पलटे किम प्रतापसीं।।(३४)
चित मरण रण चाय, अकबर आधिनी विना।
पराधिन पद पाय, पुनी न जीवे प्रतापसीं।।(३५)
तुरक हिन्दवा ताण, अकबर लागे एकठा।
राख्यो राणे माण, पाणा बल प्रतापसीं।।(३६)
अकबर मच्छ अयाण, पुंछ उछालण बल प्रबल।
गोहिल वत गहेराण, पाथोनीधी प्रतापसीं।।(३७)
गोहिल कुळ धन गाढ, लेवण अकबर लालची।
कोडी दिये ना काढ, पणधर राण प्रतापसीं।।(३८)
नित गुध लावण नीर, कुंभी सम अकबर क्रमे।
गोहिल राण गंभीर, पण न गुंधले प्रतापसीं।।(३९)
अकबर दल अप्रमाण, उदयनेर घेरे अनय।
खागां बल खुमाण, पेले दलां प्रतापसीं।।(४०)
दे बारी सुर द्वार, अकबरशा पडियो असुर।
लडियो भड ललकार, प्रोलां खोल प्रतापसीं।।(४१)
उठे रीड अपार, पींठ लग लागां प्रिस।
बेढीगार बकार, पेठो नगर प्रतापसीं।।(४२)

रोक अकबर राह, ले हिन्दुं कुकर लखां।
विभरतो वराह, पाडे घणा प्रतापसीं।।(४३)
अकबर लाखों श्वान समान हिन्दू राजाओं को साथ लेकर राणा प्रताप का रास्ता रोकता है पर वराह के समान राणा उनको धराशायी कर रहा है

देखे अकबर दुर, घेरा दे दुश्मन घणा।
सांगाहर रण सुर, पेड न खसे प्रतापसीं।।(४४)
अकबर राणा को घेरने के कई यत्न करता है पर सांगा का पौत्र राणा प्रताप एक पैण्ड भी नहीं खिसकता

अकबर तलके आप, फते करण चारो तरफ।
पण राणो प्रताप, हाथ न चढे हमीरहर।।(४५)

अकबर दुरग अनेक, फते किया नीज फौज सु।
अचल चले न एक, पाधर राण प्रतापसीं।।(४६)
अकबर ने अपनी फ़ौज से कई दुर्ग जीते पर राणा प्रताप रुपी पहाड़ जरा भी नहीं हिलता

दुविधा अकबर देख, किण विध सु घायल करे।
पवंगा उपर पेख, पाखर राण प्रतापसीं।।(४७)
हिरदे उणा होत, सिर धुणा अकबर सदा।
दिन दुणा देशोत, पुणा वहे न प्रतापसीं।।(४८)
कलपे अकबर काय, गुणी पुगी धर गौडीया।
मणीधर साबड मांय, पडे न राण प्रतापसीं।।(४९)
मही दाबण मेवाड, राड चाड अकबर रचे।
विषे विसायत वाड, प्रथुल वाड प्रतापसीं।।(५०)

बंध्यो अकबर बेर, रसत घेर रोके रीपुं।
कन्द मूल फल केर, पावे राण प्रतापसीं।।(५१)
अकबर ने राणा की रसद रोक दी पर राणा कंद मूल कैर फल खाकर भी संघर्षरत है

भागे सागे भोम, अमृत लागे उभरा।
अकबर तल आराम, पेखे राण प्रतापसीं।।(५२)
अकबर जिसा अनेक, आव पडे अनेक अरी।
असली तजे न एक, पकडी टेक प्रतापसीं।।(५३)
लांघण कर लंकाळ, सादुळो भुखो सुवे।
कुल वट छोड क्रोधाळ, पैड न देत प्रतापसीं।।(५४)
अकबर मेगल अच्छ, मांजर दळ घुमे मसत।
पंचानन पल भच्छ, पट केछडा प्रतापसीं।।(५५)
दंतीसळ सु दुर, अकबर आवे एकलो।
चौडे रण चकचुर, पलमें करे प्रतापसीं।।(५६)
चितमें गढ चितोड, राणा रे खटके रयण।
अकबर पुनरो ओड, पेले दोड प्रतापसीं।।(५७)
अकबर करे अफंड, मद प्रचंड मारग मले।
आरज भाण अखंड, प्रभुता राण प्रतापसीं।।(५८)
घट सु औघट घाट, घडीयो अकबर ते घणो।
ईण चंदन उप्रवाट, परीमल उठी प्रतापसीं।।(५९)
बडी विपत सह बीर, बडी किरत खाटी बसु।
धरम धुरंधर धीर, पौरुष घनो प्रतापसीं।।(६०)

अकबर जतन अपार, रात दिवस रोके करे।
पंगी समदा पार, पुगी राण प्रतापसीं।।(६१)
अकबर राणा की कीर्ति को रोकने के कई यत्न करता है पर उसकी कीर्ति सात समुद्र पार फ़ैल गयी है

वसुधा कुल विख्यात, समरथ कुल सीसोदिया।
राणा जसरी रात, प्रगट्यो राण भलां प्रतापसीं।।(६२)
जीणरो जस जग मांही, ईणरो धन जग जीवणो।
नेडो अपयश नाही, प्रणधर राण प्रतापसीं।।(६३)
अजरामर धन एह, जस रह जावे जगतमें।
दु:ख सुख दोनुं देह, पणीए सुपन प्रतापसीं।।(६४)

अकबर जासी आप, दिल्ली पासी दुसरा।
पुनरासी प्रताप, सुजन जीसी सुरमा।।(६५)
समय की बात है अकबर जैसे चले जायेंगे और दिल्ली भी दूसरों की हो जाएगी पर राणा प्रताप का सुयश सदा अमर रहेगा

सफल जनम सदतार, सफल जोगी सुरमा।
सफल जोगी भवसार, पुर त्रय प्रभा प्रतापसीं।।(६६)
सारी वात सुजाण, गुण सागर ग्राहक गुणा।
आयोडो अवसाण, पांतरेयो नह प्रतापसीं।।(६७)
छत्रधारी छत्र छांह, धरमधार सोयो धरा।
बांह ग्रहयारी बांह, प्रत नतजे प्रतापसीं।।(६८)

अंतिम येह उपाय, विसंभर न विसारीये।
साथे धरम सहाय, पल पल राण प्रतापसीं।।(६९)
यही सत्य है, कभी ईश्वर और धर्म को मत भुलाओ, राणा ने धर्म को नहीं भुलाया तो धर्म ने सदा उसकी सहायता की

मनरी मनरे मांही, अकबर रहेसी एक ज।
नरवर करीये नांही, पुरण राण प्रतापसीं।।(७०)
अकबर साहत आस, अंब खास जांखे अधम।
नांखे रदय निसास, पास न राण प्रतापसीं।।(७१)
मनमें अकबर मोद, कलमां बिच धारे न कुट।
सपना में सीसोद, पले न राण प्रतापसीं।।(७२)
कहैजो अकबर काह, सेंधव कुंजर सामटा।
बांसे से तरबांह, पंजर थया प्रतापसीं।।(७३)

चारण वरण चितार, कारण लख महिमा करी।
धारण कीजे धार, परम उदार प्रतापसीं।।(७४)
इस चारण कवि दुरसा ने राणा प्रताप की महिमा का कथन किया है जिसमें परम उदार राणा को ह्रदय में रखा है।
बिना स्वार्थ के राणा प्रताप की सच्ची प्रशस्ति में यह काव्य रचा है

आभा जगत उदार, भारत वरस भवान भुज।
आतम सम आधार, पृथ्वी राण प्रतापसीं।।(७५)
काव्य यथारथ कीध, बिण स्वारथ साची बिरद।
देह अविचल दिध, पंगी रूप प्रतापसीं।।(७६)

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