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विभिन्न चारण शाखाओं का संक्षिप्त परिचय

आढ़ा

चारणों की बीस मूल शाखाओं  (बीसोतर) में “वाचा” शाखा में सांदु, महिया तथा “आढ़ा” सहित सत्रह प्रशाखाएं हैं। इसके अन्तर्गत ही आढ़ा गौत्र मानी जाती है। आढ़ा नामक गांव के नाम पर उक्त शाखा का नाम पड़ा जो कालान्तर में आढ़ा गौत्र में परिवर्तित हो गया। चारण समाज में महान ख्यातनाम कवियों में दुरसाजी आढ़ा का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है। इनका जन्म 1535 ईस्वी में आढ़ा (असाड़ा) ग्राम जसोल मलानी (बाड़मेर) में हुआ। इनके पिता मेहाजी आढ़ा तथा दादा अमराजी आढ़ा थे। ये अपनी वीरता, योग्यता एवं कवित्व शक्ति के रूप में राजस्थान में विख्यात हुए। इन्हें पेशुआ, झांखर, उफंड और साल नामक गांव एवं 1 करोड़ पसाव (1607 ई.) राव सुरताणसिंह सिरोही द्वारा प्रदान किये गये। राजस्थान में राष्ट्र जननी का अभिनव संदेश घर-घर पहुंचाने के लिए ये पूरे राजपूताना में घूमें। वीर भूमि मेवाड़ में पधारने पर महाराणा अमरसिंह ने इनका बड़ी पोल तक भव्य स्वागत किया था। इन्हीं के वंशजों में जवान जी आढ़ा को ही मेवाड़ में जागीर गांव मिले। इतिहास विशेषज्ञ डाॅ. मेनारिया के अनुसार दुरसाजी ने अपनी काव्य प्रतिभा से जितना यष, प्रतिष्ठा और धन अर्जित किया उतना किसी अन्य कवि ने नहीं प्राप्त किया। अचलगढ़ (माउन्ट आबू) देवालय में इनकी पीतल की मूर्ति स्थापित है जिस पर (1628 ई.) का एक लेख उत्तीर्ण है। संभवतः किसी कवि की पीतल की मूर्ति का निर्माण पूर्व में कहीं देखने को नहीं मिलता है। इनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में विरूद्ध छहतरी, किरतार बावनी एवं श्रीकुमार अज्जाजी नी भूचर मोरी नी गजजत मुख्य है।


आसिया

महाकवि बांकीदास आसिया (सन् 1761-1833 ई.)
सद्विद्या बहुसाज, बांकी था बांका बसु,
कर सुधी कविराज, आज कठीगो आसिया
विद्या कुल विख्यात, राजकाज हर रहस री
बांका तो विण वात, किण आंगल मन री कहां
महाराज मानसिंह (जोधपुर) 1761 ई. 1833 ई.

आसिया गोत्र की उत्पति जोधपुर के गांव खाटावास से मानी जाती है और एक अन्य मत के अनुसार बेवटा गाँव से भी मानी जाती है। आसियों का मूल गांव लाकड़ थुम्ब है। यहीं से अन्यत्र जगह आसिया शाखा का विस्तार माना जाता है।
महाराणा उदयसिंह मेवाड़ जब कुंभलगढ़ में साहुकार के यहां बड़े हुए और उनका विवाह जालोर महाराज की पुत्री से किया गया। उक्त राजकुमारी के गुरू करमसी आसिया थे, जो कि भांड़ियावास के निवासी थे। महारानी के गुरू होने एवं बुद्धिमान, सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण महाराजा उदयसिंह जी आसिया करमसी को अपने साथ मेवाड़ में ले आए। प्रथम बार उदयसिंह जी ने करमसी आसिया को पसुंद ग्राम जागीर में दिया। बाद में ठाकुर बख्तराम जी के बेटे और जसवन्तसिंहजी के पोत्र वीरदान जी को पसुंद का परगना मिला। महाराणा भीमसिंह जी ने पुनः पसुंद व मोर्यो की कडिया, करमसिंह जी के पोते जसवन्तसिंह जी को तथा मेघटिया व मंदार गांव को महाराणा राजसिंह जी ने करमसिंह जी के वंशज खेतसिंह के पुत्र गिरधरसिंह जी को दिए।


अखावत

अक्खाजी बारहठ
अक्खाजी रोहड़िया बारहठ शाखा में उत्पन्न हुए तथा शेरगढ़ परगने के अन्तगर्त भांडू गांव के निवासी थे। पांच महीने की अवस्था में इनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। तब मालदेव की पत्नि रानी झाली ने अक्खा को अपने स्तन का दूध पिला कर बड़ा किया। इनके समान आयु का ही रानी झाली का पुत्र उदयसिंह भी था। कालान्तर में जब उदयसिंह जी के विरूद्ध चारणों द्वारा आउवा में सत्याग्रह धरना दिया गया तब अपने सखा अक्खाजी को उदयसिंह ने सुलह के लिए दुरसा आढ़ा के पास जो कि चारणों के धरने का नेतृत्व कर रहे थे भेजा। तब दुरसा जी ने निम्न दोहा सुनाया।

अखवी आवंतां भांण दवादस भाणवत
तेज वदन तपतां, वाहर वीसोतर तणी।

जिस पर अक्खा आरहठ उदयसिंह का साथ छोड़कर स्वयं भी धरने पर बैठ गये।


बाटी

इस शाखा का नाम पिता के नाम के ऊपर प्रसिद्ध हुआ “कविवर कृष्णसिंह बारहठ” बाटी शाखा के गांव-जांतला, लिम्बोड मसोदिया (बांसवाडा, डूंगरपुर) कडीयावद (चितौडगढ) है। इनके अतिरिक्त गुजरात कच्छ में पालीताणा, मदाद, देढाणा, कलोल इत्यादि कई गांव है मारवाड में भी इस शाखा के गांव है। बाटी शाखा मूल रूप से गाडण, पांचोलिया, रतडा, सीरण आदि के अन्तर्गत मानी जाती है।


भादा

किसनाजी भादा (सन् 1533-1655 ई.)
भादा शाखा की मुल उद्गम शाखा भांचलिया है। इसके अन्तर्गत चांचड़ा सिंढ़ायच बांसग, वाळिया इत्यादि शाखाएं आती है।
मेवाड़ में भादा शाखाओं के गांव किसना जी भादा के पुत्रों को मिले थे। किसना भादा (1533 ई.) श्री नगर (अजमेर) के रहने वाले थे जो की पंवार राजपूतों की राजथानी थी। यहां का शासक पंचायण पंवार था, आमेर नरेश मानसिंह इन्हीं के प्रथानमंत्री थे, व श्रीनगर का शासन चलाते थे। अब्दुल रहीम खानखाना तथा किसना जी भादा अनन्य मित्र थे। जिसके कारण दिल्ली दरबार में इनकी पहुंच थी। परोपकारी एवं मानव सेवा के लिए बलिदान देने वालों में इनका नाम सदैव अविस्मरणीय है।
अकबर बादशाह के कहने पर राजा मानसिंह ने मेवाड़ पर हमला कर दिया। मानसिंह अपने लश्कर सहित पिछोला तक पहुंच गया। मानसिंह के साथ जग्गाजी बारहठ भी थे। तब राजा मानसिंह ने अपने अश्व को जगत प्रसिद्ध पिछोला में पानी पिलाते हुए गर्वोक्ति कही “हे अश्व तू छक कर पानी पी। या तो इस पिछोला पर राणा जोधा ने अपने अश्व को पानी पिलाया या फिर आज में पिला रहा हूं।” इस बात पर स्पष्टवक्ता जगाजी बारहठ ने तुरंत अपने स्वामी को भी फटकार कर ये दोहा सुनायाः-

मान मन अजंसो मती अकबर बळ आयाह,
जोधे जंग में आपरे, पाणां बळ पायाह
अर्थात् हे मानसिंह तुम अकबर के बल पर इतरा रहे हो जबकि राव जोधा ने अपने बल से अश्व को पानी पिलाया।

इस बात पर नाराज होकर मानसिंह ने तत्काल जयपुर रियासत के समस्त चारणों की जागीरें जब्त कर ली। पन्द्रह वर्ष तक जयपुर रियासत में चारणों का एक भी गांव नहीं रहा। तब किसनाजी भादा ने पुनः मानसिंह जी को अपनी बुद्धिमता व कवित्त्व शक्ति से प्रसन्न कर उन्हें जागीर बहाल करने पर विवश किया। मानसिंह ने यह शर्त रखी कि आपको मेरे यहीं रहना होगा। किसनाजी ने चारणों का भला सोच कर अपनी जागीर छोड़ मानसिंह के यहां बिना जागीर के रहना स्वीकार किया इसके पश्चात् मानसिंह ने इन्हें लसाड़ीया गांव व एक करोड़ पसाव दिया। कालान्तर में लसाड़ीया से ही निकलकर साकरड़ा भादाओं का ठिकाना बना तथा इसके बाद सरवाणीया, दुधालिया, महाराजा जगतसिंह जी के समय जागीर में मिले। बांसवाड़ा में नपाणिया भी भादा शाखा का मुख्य गांव है। भादा शाखा में इश्वरदान भादा, चंदु भादा भी अच्छे कवि हुए।


बोग्सा

लालदानजी बोग्सा
नराः शाखा के अन्तर्गत आने वाली मुख्य शाखाओं में “बोग्सा” गोत्र आती है, देवल, पायक, झीबा, राणा आदि कई शाखाएं इसके साथ मानी जाती है। बोग्सा गोत्र में कई कवि, विद्वानों के नामों में मुख्य विजयदान (प्रज्ञा चक्षु) मारवाड (मरवडी) गांव के लालदान जी बोग्सा, बांकीदान जी बोग्सा, सुरता जी। विजयदान प्रज्ञा चक्षु डीगंल-पिंगल भाषा विद्वान थे। इनकी स्मरण शक्ति विलक्षण होने से इन्हें प्रज्ञा चक्षु कहा गया है। मेवाड़ में इस शाखा के डींगरोल घातोल भाकरोदा गाँव है।


चांचडा

चांचडा शाखा की उद्गम मूल शाखा चडवा है, जिसके अन्तर्गत चउफवा, झुला, बरझड़ा आदि गोत्र आती है यद्यपि इसके बारे में ज्यादा ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती है, फिर भी यह अनेक गोत्रों का समुदाय रहा है। इस गोत्र के बारे में गुजराती में एक गीत लिखा मिलता है जिसमें इनकी अन्य ‘भाईपा’ गोत्र का वर्णन मिलता है-
काजा, चउवा आलग्ग ध्रारी, लागंडीआ,
कुंवारिया मूजड़ा छाछडा भाम, धनीया, भातंग
अरड सूभग झुला जणीया, वीझंवा
अेक, सुपार खरे, गावो ऐसी हरि नरसिंह
वागीया, धाया, नाया, राजवला वरसड़ा
गांगडीया चाटका राजा खोड खुंलडीया


देथा

जुगतीदान देथा (सन् 1855-1936 ई.)
देथा गोत्र भी प्राचीन गोत्र रही है, इसकी उदगम शाखा मारू है जिसमें किनीयां, सौदा, सुरताणीया, सीलगा कापल इत्यादि गोत्र आती है। हालांकि वर्तमान “देथा” शब्द से सभी परिचित है। राजस्थान ही नहीं वरन पूरे देश में विजयदान देथा के साहित्य की प्रशंसा है। यह सम्पूर्ण चारण समाज के लिए गौरवान्वित बात है।


दधिवाड़िया

महामहोपाध्याय कविराजा श्री श्यामलदास जी दधिवाड़िया

उदयनगर उन दिनन महं, सून्दर कविन समाज
सुकविन सर्व सिरोमनी, हो स्यामल कविराज
~~ठा. केसरी सिंह बारहठ

दधिवाड़ नामक गांव से इस गोत्र का नाम दधिवाड़ीया माना जाता है। जबकि मूल रूप से देवल (खांप) के चारण हैं। मेवाड़ महाराणा के सबसे विश्वस्ततम विश्वासपात्रों में प्रारम्भ से ही दधिवाड़िया चारण रहे हैं। खेमराज जी दधिवाड़िया जैसी विभूतियों से लेकर कविराजा महामहोपाध्याय श्यामलदास जी, कविराजा सगतीदान जी का, मेवाड़ राजघराने में विशेष रूतबा रहा है। मेवाड़ महाराणा जगतसिंह जी के प्राणों की रक्षा कर उन्हें नवजीवन प्रदान कर खेमराज जी ने महाराणा को अपना ऋणी बना लिया वही श्यामलदास जी जैसे विद्वान ने अपनी विद्वता से सम्पूर्ण राजपूताने में अपनी कीर्ति फैलाई। उनके द्वारा रचित वीर-विनोद के समक्ष तत्कालीन समय के किसी भी विद्वान की रचना नगण्य थी। इरान का यात्री यहां पर भ्रमण पर आया तब कविराजा श्यामलदास जी द्वारा इरान की भौगोलिक स्थिति का वर्णन सुनकर दंग रह गया। उसने महाराणा को कहा कि में स्वयं इरान का होते हुए भी इतना नहीं जानता जितना आपके कविराजा जानते हैं। यह एक छोटी सी घटना उदाहरण है उनकी विद्वता की।
कविराजा श्यामलदास जी उस समय चारणों की शिक्षा के बारे में चिंतित थे, उन्होंने चारणों की सुशिक्षा के प्रबन्ध के लिए महाराणा से कह कर चारण छात्रावास बनवाया। जिसके लिए चारण सदेव ऋणी रहेगा। मेवाड़ में दधिवाड़िया के धारता, खेमपुर, गोटिपा तथा ढ़ोकलिया इनकी जागीर गांव रहे हैं।


जागावत

जागा जी खिड़िया
“जागावत” शाखा का उदगम खिड़िया शाखा से माना जाता है। वीर पराक्रमी एवं उत्कृष्ठ कवि जागा जी के नाम पर इनके वंशज जागावत चारण कहलाने लगे। जागा जी ने रतलाम में रह कर “वचनिका राठोड रतनसिंह जी महेशदासोत री” नामक ग्रन्थ की रचना की (1959 ई.) यह गद्यः पद्यः का एक अमूल्य ग्रन्थ है। जो बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की ओर से डाॅ. टेसीटोरो द्वारा सम्पादित हुआ है। इसके साथ ही ये भक्ति रचनाएं भी करते थे। इनके काव्य में भक्ति-वीर काव्य श्रृंगार काव्य का अदभूत संगम है। इन्हें महाराजा रतनसिंह के उत्तराधिकारी रामसिंह जी ने आलोगिया, एकलगढ़, दलावड़ी गांव प्रदान किए। कालान्तर में दलावडी के स्थान पर सेंमलखेड़ा गांव दिया गया। चिरोला (बांसवाडा) घोड़ावद गांव के वंशजों का है। इन का स्वर्गवास रतलाम में हुआ। वही नरेशों के स्मारक छतरियों के पास शिवबाग में इनका दाह संस्कार किया गया जो इनकी राज-भक्ति को दर्शाता है।


कविया

कविराज श्री करणीदान कविया (सन् 1685 ई. लगभग)
कविया शाखा में जन्मजात प्रतिभा लेकर श्री करणीदान कविया आमेर राज्यान्तर्गत गांव डोगरी में अवतीर्ण हुए। इनके माता-पिता का नाम क्रमशः इतियाबाई एवं विजयराम था। इनकी जीवनधारा राजस्थान के अनेक राज्यों में कल-कल निनाद करती हुई उत्तरोत्तर गतिशील होती रही। ये संस्कृत, प्राकृत, डिंगल-पिंगल, ज्योतिष, संगीत, वेदान्त में प्रवीण थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ सूरजप्रकाश, विरद श्रृंगार, यतीरासा एवं अभय भूषण प्राप्त होते हैं। जिनमें सूरजप्रकाश नामक ग्रन्थ में साढ़े सात हजार छंद हैं। कविराज ने तत्कालीन देशकालीन परिस्थिति के अनुसार कविताएं एवं इतिहास की मशाल लेकर अंधकार में भटकती हुई क्षत्रिय जाति का पथ प्रदर्शन किया। इनका अंतिम समय किशनगढ़ में व्यतीत हुआ। तथा वहीं इनकी जीवनलीला (1780 ई. लगभग) समाप्त हुई। यहां इनकी स्मृति में छतरी बनी हुई है।
तत्कालीन महाराज इनका कितना सम्मान करते थे यह इस दोहे से चरितार्थ होता है।

अस चढ़ै राजा अभो, कवि चाढ़ै गजराज।
पोहर हेक जळेव में मोहर हलै महाराज।।


खिड़िया

कृपाराम जी खिड़िया इस शाखा में महान कवि हुए जिनके द्वारा रचित राजीया रा दूहा राजस्थानी साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध हुए। इनका मूल निवास मारवाड़ में था लेकिन सीकर के राव राजा लक्ष्मणसिंह के पास ही यह जीवन पर्यन्त रहे। लक्ष्मणसिंह ने इन्हें ढ़ाणी प्रदान की जिसे कृपाराम की ढ़ाणी कहा जाता है। इनके द्वारा रचित कई नाम उपदंश विषयक दोहन संस्करण है।


लखावत

लक्खाजी बारहठ (सन् 1563 ई.)
लक्खाजी बारहठ के नाम से इनके वंशजों का नाम लखावत पड़ा। लक्खाजी मारवाड़ राज्यान्तर्गत नानणियाई के निवासी थे। इनके पिता का नाम नानण था। लक्खाजी की वाणी में एक अलग ही ओज व प्रभाव था। ये महान साहित्यकार, बुद्धिमान एवं राजनैतिक सूझबूझ के धनी थे। जिसके कारण ये अकबर के विशेष कृपा पात्र रहे। दिल्ली दरबार में इनके हस्तक्षेप एवं घनिष्ठता के कारण राजस्थान के समस्त राजा महाराजा इनसे मिलने के लिए लालायित रहते थे। लक्खाजी चारण जाति हितेषी स्वाभिमानी एवं सत्य का आग्रह करने वाले महान विद्वान थे। अकबर ने इन्हें मथुरा में बड़ी हवेली दी थी। जहां ये ठाठ बाठ से रहते थे। जोधपुर महाराज सुरसिंह ने इन्हें तीन गांव की जागीर प्रदान की। रेंदड़ी (सोजत), सींधलानडी (जेतारण), उफंचा हाड़ा, टेला व भेरूंदा (मेड़ता)। जिनके पट्टों की नकले वर्तमान में भी है। इनके द्वारा रचित “पाबु रासा” ग्रन्थ मिलता है। अकबर के कहने पर इन्होंने बेलि कृष्ण रूक्मणी की टीका मरू भाषा में लिखी।

अकबर मुख सूं अखियो रूड़ो कह दूं राह।
म्हैं दुनियां रो पातसा, लखो वरण पतसाह।।


मेहडू/जाड़ावत

महकरण मेहडू (जड्डा चारण)
महडू शाखा का नामकरण मेड़वा गांव पर प्रसिद्ध हुआ माना जाता है। महडू केसरिया, महियारीया सहित बारह शाखाओं का विवरण मिलता है। इस शाखा के गांव सरस्या, बाड़ी, देवरी, खेरी, संचयी, सालीया एवं कोकलगढ़ है। मेहडू शाखा में कविवर महकरणजी, कानदासजी, लांगीदानजी, वजमालजी जैसे कवि हुए। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली एवं काव्य प्रतिभा से यश कीर्ति महकरण मेहडू को प्राप्त हुई। ये मूलतः सरस्या (तह जहाजपुर, भीलवाड़ा) के रहने वाले थे। इनकी काव्य प्रतिभा पर अकबर बादशाह भी मुग्ध थे। शरीर से भारी होने पर ये जाड़ा चारण नाम से विख्यात हुए। तथा इनके वंशज जाड़ावत/मेहडू कहलाने लगे। अकबर बादशाह के दरबार में प्रथम भेंट मे ही इन्होंने अपने भारी शरीर होने से उठ कर नजराना करने के विषय मे अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। इस पर इनको बैठे-बैठे ताजीम देने का अधिकार दिया गया। अकबर के नवरत्नों में से एक वजीर खानखाना मिर्जा अब्दुल रहीम ने इनकी विद्वता पर मुग्ध होकर ये दोहा कहाः-

धर जड्डा अंबर जड़ा जड्डा चारण जोय।
जड्डा नाम अल्लाहरां अवर नं जड्डा कोय।।


महियारिया

कविवर श्री नाथुसिंह महियारिया
महियारिया गौत्र का नाम महाराणा द्वारा महियार गांव जागीर में देने पर उक्त गांव के नाम से महियारिया हुआ। इनके पूर्वज गुजरात में सिद्धपुर पाठण राज्य के अन्तर्गत गणेसरा जागीर के स्वामी थे। वहां से इनका मेवाड़ में आगमन हुआ। महियारिया गौत्र में ख्यातनाम कवियों में श्री नाथुसिंह महियारिया का नाम विशेष रूप से स्मरण किया जाता है। इनमें जन्मजात काव्य प्रतिभा थी। इनके द्वारा लिखित ग्रन्थों में वीर-सतसई अपने आप में वीर-रस की अनुपम कृति है। वीर-सतसई एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें कवि ने राजस्थान की वीरता व देशभक्ति के विशद मार्मिक प्रसंगों को आज की तथा आने वाली पीढ़ी के लिए एक गौरवानुभूति के रूप में सजाया।
इन्होंने बाल्य काल से ही कविता लिखना आरम्भ कर दिया जो सदैव अनवरत चलता रहा। इनकी काव्य रचना की विशेषता यह थी कि एक जगह बैठ कर नहीं करते थे वरन् चलते फिरते, कार्य करते, आखेट खेलते समय इनको स्वतः काव्य स्मरण हो आता। ये इनको उसी जगह कागज पर लिख देते। इनकी रचनाओं में हाड़ी शतक, झालामान शतक, गांधी शतक, करणी शतक इत्यादि प्रमुख है।


मिश्रण

महाकवि सुर्यमल्ल मिश्रण (विक्रम संवत 1872-1920 ई.)
चंडकोटि नामक कवि ने संस्कृत आदि छः भाषाओं को मिश्रित करके शास्त्रार्थ जीता। इस कारण मिश्रण कहलाये। जिसका अपभ्रंश “मीसण” हुआ।
कविवर कृष्ण सिंह जी बारहठ के अनुसारः मौरवी, इश्वरीया, जामनगर, बांकानेर (गजरात), लूणवास, कुण्डली, मोलकी, मेंरोप, झाकोल, खेरवाड़ा, मटकोला, हरणा (राजस्थान) मिश्रण शाखाओं के गांव है। महात्मा हरदासजी मिश्रण, हरीश जी मिश्रण, महाकवि श्री सूर्यमल मिश्रण, आनंद करमानंद, श्री खेत सिंह जी, नारायण सिंह इसी शाखा में हुए। सूर्यमल मिश्रण सम्पूर्ण साहित्य जगत के उद्भट वैटुष्य प्रकाण्ड पंडित एवं विलक्षण काव्य प्रतिभा के धनी थे। इनके समान बहुभाषाविज्ञ नाना विषयों के धुरंधर विद्वान एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न कवि चारणकुल में न हुए न होंगे। भले ही यह कथन अतिशयोक्ति लगे मगर यह निराधार नहीं है। ये बूंदी नरेश महाराव रामसिंह के राजकवि थे। इनके पिता का नाम चंडीदान, माता का नाम भवानीबाई था। इनके द्वारा रचित वीर-सतसई के मूल में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ही प्रेरक पृष्ठभूमि रही। इन वीर रसपूर्ण प्रेरणादायी दोहों के द्वारा कवि ने तत्कालीन राजनैतिक संदर्भ में देश के सुप्त पुरूष को उद्भूत किया।


पालावत

श्री बालाबख्श पालावत
पालावत, “बारहट” शाखा के अन्तर्गत माने जाते हैं। इसी पालावत शाखा में बालाबख्श जी जैसे महान भक्त, दानी, परोपकारी चारण हुए थे, जिन्होंने काशी नगरी प्राचारिणी सभा को कई हजार रूपये दान दिए, जिसके सूद से “बालाबख्श, राजपूत चारण, पुस्तक माला” के अन्तर्गत राजपूत एवं चारणों के रचे हुए इतिहास तथा कविता विषयक ग्रन्थों का प्रकाशन होता है।
इनका जन्म जयपुर राज्यान्तर्गत हणुतिया ग्राम में हुआ, इनके पिता का नाम नृसिंहदास तथा बड़े भाई का नाम शिवबख्श था। ये सभी अच्छे कवि थे। इनकी अनेकों रचनाओं में 19 ग्रन्थ लिखे हुए हैं।
1) अश्व विधान सूचना
2) भूपाल सुजसवर्णन
3) षट शास्त्रा सारांश
4) सन्धोपासना अत्यानिका
5) क्षत्रिय शिक्षा पंचाशिका,
6) शोक शतक
7) नरूकुल सुयश
8) आसीस अष्टक
9) शास्त्रा प्रकाश
10) मान महोत्सव महिमा इत्यादि। मेवाड़ में पालावतों का गांव मण्डपिया (भीलवाड़ा) में है।


रतनू

रतना नामक पिता से यह शाखा प्रसिद्द हुई। इनके बुजुर्ग पुरोहित बसुदेवजी खेती किया करते थे। उनके सात बेटे थे। देवराज भाटी ने दुशमनों के खौफ से उनके पास आ कर कहा कि मुसलमान मेरे पीछे आते हैं। मुझको बचाओ। बसुदेवजी ने अपना जनेऊ और कपड़े उसको पहिना कर हल जोतने में लगा दिया। इतने में ही मुसलमान आये और अपने शिकार देवराज भाटी को पूछने लगे। बसुदेवजी ने कहा कि यहां तो मैं हूं या मेरे बेटे हैं, तीसरा कोई नहीं। मुसलमानों ने कहा खैर! तो तुम सब हमारे सामने शामिल बैठ कर खाना खा लो। बसुदेवजी ने 6 बेटों को तो दो दो करके तीन पांत में बैठाया और सातवें को जिसका नाम रतना था, देवराजजी भाटी के साथ बैठा कर खाना खिलाया। मुसलमान तो यह देख कर लौट गये मगर रतना को भाइयों ने गैर कौम के साथ खा लेने से अपने खाने पीने में शामिल न रखा। कुछ अरसे पीछे भाटी देवराज ने गया हुआ राज पा कर बसुदेवजी को अपना पुरोहित और रतना को अपना बारहट बनाया। यहीं से रतनू शाखा का आरम्भ हुआ।

रतनू, नाला तथा चीचा ये तीनो शाखाएं परस्पर भाई हैं।

कवि हमीरदान रतनू महाराजा लखपति सिंह के दरबार की शोभा थे। ये जोधपुर राज्यान्तर्गत घडोई ग्राम के निवासी थे और बचपन से ही कच्छ-भुज में रहते थे। इन्होने निम्नलिखित तेरह ग्रंथों की रचना की:
१) लखपत पिंगल
२) पिंगल प्रकाश
३) हमीर नाम माला
४) जदवंस वंशावली
५) देसल जी री वचनिका
६) लखपत गुण पिंगल
७) ज्योतिष जड़ाव
८) ब्रह्माण्ड पुराण
९) पिंगल कोष
१०) भागवत दर्पण
११) चाणक्य नीति
१२) भरतरी सतक
१३) महाभारत रो अनुवाद छोटो व बड़ो


रोहडिया बारहट

भक्त शिरोमणी कवि महात्मा ईसरदास बारहठ
महात्मा ईसरदास जी का जन्म भादरेस गांव में हुआ था। इन्होंने जीवन के प्रारम्भिक वर्ष जामनगर के नवाब के यहां बिताये। ईसरदासजी को जामनगर में अपार यश, धन एवं सम्मान ही नहीं मिला, प्रत्युत इनका काव्य-ज्ञान भी वहीं परिमार्जित एवं परिष्कृत हुआ। जाम साहब के दरबार में पिताम्बर भट्ट नामक एक राज पंडित रहते थे। जो संस्कृत के ज्ञाता एवं धर्म शास्त्र के धुरन्धर विद्वान थे। आरम्भ में ईसरदासजी और पिताम्बर भट्ट में पारस्परिक प्रतिद्वन्द्वता का भाव था। यह सुनकर की ऐसा होनहार कवि किसी राजा का गुणगान न कर हरि सुमिरन करे तेा उसकी प्रभिता का सच्चा सदुपयोग हो सकता है। ईसरदास जी का हृदय परिवर्तित हुआ और इन्होंने उनको अपना गुरू बना लिया फिर उनसे संस्कृत का ज्ञानोपार्जन कर आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया। वेद शास्त्रों के गम्भीर ज्ञान ने इन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में गतिशील किया। इनके हृदय में सुसंस्कार पहले से ही विद्यमान थे अतः अवसर पाकर यह पल्लवित होते गए। ईसरदास अपने समय के एक उच्च कोटि के विद्वान कवि एवं भक्त ही नहीं थे। प्रत्युत एक चमत्कारवादी सिद्ध भी थे। इसीलिए लोक जीवन में लोग इन्हें “ईसरा परमेशरा” कहते हैं। एक बार सांगा राजपूत के यहां विश्राम लेते समय जब उसने अपना एक मात्र कम्बल भेंट स्वरूप ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की तब ये कह कर चले गए कि लौटते समय अवश्य इस भेंट को लेकर जाऊंगा। इस बीच वेणु नदी को पार करते समय बाढ़ आ जाने से सांगा पशुओं सहित बह गया। बहते-बहते उसने जोर से चिल्लाकर तट पर खड़े ग्रामवासियों से कहा कि भाई मेरी मां से कह देना कि ईसरदास के लिए जो कम्बल रखा हुआ है, वह उन्हें लौटने पर अवश्य दे दिया जाए। लोटते समय सांगा को न पाकर ये तत्काल सांगा की जल समाधि के पास जाकर कहने लगे – तुम्हारी प्रतिज्ञा अनुसार में कम्बल लेने आया हूं। अतः आकर उसे पूर्ण करो। इतने में ही सामने से आवाज आई। आ रहा हूं! थोड़ी ही देर में सांगा पशुओं सहित आता हुआ दिखाई दिया और उसने इनके पैर पकड़ लिए। लगभग 40 वर्ष तक जाम साहब के पास रह कर वृद्धावस्था में यह अपनी जन्म भूमि भादरेस लौट आए और अपने जीवन के अन्तिम दिनों में गुड़ा ग्राम के पास लूनी नदी के तट पर एक कुटीर बना कर रहने लगे। वहीं पर 80 वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। भादरेस की जीर्ण कुटीर में आज भी चारण बंधु इन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वहां के पवित्र रजकण को मस्तक पर धारण करते हैं। वहां प्रातःकाल सदैव हरिरस का पाठ होता है। लोगों को विश्वास है कि ईसरा उन्हें आज भी उपदेश दे रहा है। दीवाली व होली पर्व पर जंगल में गांव के बाहर जहां इनके खेत थे, जाल वृक्ष में स्वतः दीपक जलते हैं। यह देखकर ही लोग होली मनाते हैं। महात्मा ईसर दास ने कई रचनाएं की जिनमें से ‘हरिरस’ एवं ‘हाला-झाला रा कुण्डलिया’ विशेष प्रसिद्ध है। अन्य रचनाओं में ‘छोटा हरिरस, ‘बाल लीला’, ‘गुण भागवत हंस’, ‘गरूड़-पुराण’, ‘गुण-आगम’, ‘निन्दा-स्तुति’, वैराट, देवियाण’ प्रमुख है।


सान्दू

मालोजी सान्दू
वाचाः शाखा के अन्तर्गत आढ़ा, सान्दु, महिया सहित सदर गौड़ माने है। जिसमें सान्दू शाखा भी एक है सान्दूओं का मेवाड़में हापाखेड़ी एक मात्र गांव है।
माला जी सान्दू इस शाखा के महान विद्वान कवि हुए विमानेर नरेश रायसिंह जी ने इन्हें लाख पसाव व भदोरा गांव प्रदान किया। अपने समय के प्रतिष्ठित कवि थे। महाराजा पृथ्वीराज वृत ‘बेलि किशन रूक्मणी री’ के निर्णायकों में ये भी एक थे। इनकी कई रचनाएं भी मिलती है।

रामाजी सांदू
प्रख्यात कवि जिन्होंने हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से लड़ाई लड़ी तथा अपने एक प्रसिद्द गीत में महाराणा प्रताप द्वारा एक ही वार में बहलोल खां को घोड़े सहित काट देने की घटना का आँखों देखा वर्णन किया। वे एक युद्ध में राणा प्रताप के लिए बहादुरी से लड़ते हुए काम आये। इस बलिदान पर पृथ्वीराज राठोड़ (बीकानेर) ने रामा सांदू की प्रशंसा में गीत कहा है। इनसे चली शाखा रामावत सांदू कहलाती हैं जिनके गाँव हैं हिलोड़ी, डीडिया, शिव, अणेवा, अजीतपुरा, रामासणी।


सांयावत (झूला)

भक्त कवि सांयाजी (झूला)
चड़वा, शाखा के अन्तर्गत झुलाशाखा बरसड़ा शाखाए आती है। झुला गोत्र में सांयाजी नामक महानभक्त हुए उन्हीं के वंशज सांयावत कहलाते हैं।
सांयाजी झूला महान दानी, परोपकारी भक्त कवि थे। भक्त कवि सांयाजी झूला कुवाव गांव गुजरात के निवासी थे। इन्होंने अपने गांव में गोपीनाथ भादेर, मंठीवाला कोट, किला तथा बावड़ियां बनवाई थी। जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रजभूमि जाते वक्त मार्ग में श्रीनाथद्वारा में श्रीनाथ दर्शन करने गये। वहां इन्होंने सवा सेर सोने का थाल प्रभु के चरणों में धरा था। जो आज भी विद्यमान है। उस दिन से आज तक वहां तीन बार आवाज पड़ती है “जो कोई सांयावत झूला हो वो प्रसाद ले जावें”।
मृत्यु के अंतिम दिन मथुरा में एक हजार गाये ब्राह्मणों को दान दी तथा हजारों ब्राह्मण गरीबों को भोजन करवाकर हाथ जोड़कर श्री कृष्णचंद जी की जय कर इन्होंने महाप्रयाण किया। इनका लिखा हुआ “नागदमण” भक्ति रस का प्रमुख ग्रन्थ है|


सिलगा

श्री सांईदान सिलगा
सीलगा शाखा में सांईदान जी विद्वान कवि थे। जो कि झाड़ोल के निवासी थे। इनके पिता का नाम मेहाजठ था। इनका रचना काल 1652 ई. के लगभग था। इन्होंने एक ग्रन्थ रचना की जिसमें 277 पद है जिसे सवंतसार या वृष्टि विराम भी कहा जाता है।


सिंढ़ायच

भांचलिया नरसिंह भढ़ पुष्कर कियो पड़ाव।
विरद सिंहढायच बख्सियो राजा नाहर राव।।

भांचलियाः शाखा के अन्तर्गत ही सिढायंच शाखा मानी गई है। इसमें भादा, बासंग, उज्जवल शाखाएं भी आती है। नरहरिदास नामक भाचलिया (भादा) चारण द्वारा अधिक सिंह मारने पर “सिंहढायच” की पदवी दी गई। जिससे इनके वंशज सिंढायच कहलाते है। कहते हैं पुष्कर के निकट शेरों द्वारा गायें अधिक मारी जाती थी। इस पर नरसिंहदासजी भांचलिया ने शेरों को मारने का प्रण लिया तथा 100 शेरों को मारने पर जोधपुर महाराज द्वारा सिंहढायच की उपाधि दी गई। इन्हें प्रथम गांव मोगड़ा प्राप्त हुआ। तब वहां से मदोरा (नरसिंहगढ़, म.प्र.) जागीरी का गांव मिला। कालांन्तर में मण्डा, भारोड़ी (उज्जवल), ओसारा, मादड़ी इत्यादि गांव प्राप्त हुए।


सौदा

नरूजी बारहठ
मुगलों के हाथ चितौड़ चले जाने के बाद महाराजा हम्मीर अपने कुछ वफादार सरदारों के साथ द्वारिका की यात्रा पर निकल पड़े। गुजरात के खोड़गांव (चारणों की जागीर) में चखड़ा चारण की बेटी बरवडी जी (शक्तिरूप) से मुलाकात हुई। महाराजा ने अपने राज्य छिन जाने की सारी घटना बताई। तब बरवड़ी जी ने उन्हें द्वारिका की यात्रा को बीच में छोड पुनः केलवाड़ा जाने का कहां एवं साथ ही यह कहा कि चितोड़ पुनः तुम्हारे कब्जे में आ जाएंगा। बरवड़ी जी ने 500 घोड़े बिना कीमत अपने बेटे बरू के साथ महारजा की सहायता में भेजे। घोड़े प्राप्त कर हम्मीर ने बरू जी को अपने विश्वासपात्रों में लेकर अपना बारहठ (घोड़ों की सौदेबाजी एवं व्यापार करने से इन्हें सौदा बारहठ कहते है) बना केलवाड़ा के पास आंतरी सहित कई गांव जागीर में दिए। जिनमें रावछा, सोनियाणा, बीकाखेड़ा, पाणेर, पनोतिया, आदि सम्मिलित थे। ईस्वी सन् 1344 में बरू जी से सहायता प्राप्त कर महाराणा हम्मीर ने चितौड़ पुनः प्राप्त कर लिया एवं बरवड़ी देवी की याद में एक मंदिर चितौड़ के किले पर बनाया जो अन्नपूर्णा देवी के मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है।
वीर जैसा और कैसा बारहठ सोनियाणा (मेवाड़) के निवासी थे। जो हल्दीघाटी के युद्ध में 18 जून 1576 ईस्वी में अपने सभी स्वामी महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो मेवाड़ और चारण जाति को गौरवान्वित किया।
बरू जी के वंशज नरूजी, हाला जी एवं वेला जी को बाद में गिरडिया, केवलपुरा, करणपुर, वड़लिया, मेघटिया बरवाड़ा, सेणुन्दा एवं डिडवाणा आदि गांव जागीर में मिले। नरूजी ने अपने 20 विश्वासपात्रा सैनिकों के साथ मुगलों द्वारा जगदीश मंदिर की मूर्तियां खंडित करने आये ताज खां एवं रूहिल्ला खां से 1668 ई. में युद्ध किया एवं वीरगति को प्राप्त हुए। इनका स्मारक जगदीश मंदिर के पास स्थित है।


सुरतानिया

सूराजी
सूरा जी नाम पिता के नाम से यह शाखा सुरतानीयां मानी गई, एसा माना जाता है। इसकी मुल स्त्रोत शाखा मारू है। जिसके अन्तर्गत किनियां, कोचर, देथा, सौदा, सीलगा, घूंघरियां इत्यादि बीस शाखाएं आती है।


टापरिया

श्री सुरायची टापरिया
“टापरिया” एसी लोक मान्यता है कि गुजरात राज्य में करणदेव सोलंकी के समय मकवाणा शक्ति राणी थे। किसी समय राजमार्ग पर हाथी पागल हो तथा वो उन्माद मचाता हुआ चार बालकों को मारने के लिए उन्मत हुआ ऐसे मे माता जी ने गोखड़े में बैठे-बैठे ही हाथ लम्बा कर चारों चारण बालको को बचा लिया जिसमें एक बालक के सिर पर टापली मारी उसके वंशज टापरिया के नाम से जाने जाते है। मेवाड़ वागड़ मालवा में एक मात्रा गांव बड़वाई है। वीर पराक्रमी राणा प्रताप के साथ युद्ध में भाग लेने वाले सुराय जी टापरिया यही बडवाई (मेवाड़) के निवासी थे।

 


तुंगल

ठिकाना भूरक्या कला पो. बिनायका तह.बड़ी सादड़ी जिला चितौड़


वरसड़ा

वरसड़ा गोत्र प्राचीन मानी जाती है। तथा यह चडवा (चउवा) झुला, सहित कई अन्य प्रशाखाओं के भाईपे की शाखा है। इस शाखा में गुजरात के माण्डण भगत वरसड़ा हुए थे जो कि महात्मा ईसरदास के समकालीन थे।
वरसडा शाखा में रायसिंह बरसड़ा कवि के साथ ही इतिहास वेत्ता थे। ये मारवाड़ के पीथासणी के निवासी थे इनके द्वारा लिखा काव्य ग्रन्थ “शनिचर री कथा” उपलब्ध है इसके अतिरिक्त इनकी रचित अन्य छुटकर रचनाएं भी बताई जाती है।

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