पूरा नाम | माँ वांकल |
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माता पिता का नाम | |
जन्म व जन्म स्थान | |
स्वधामगमन | |
विविध | |
राजस्थान के बाड़मेर जिले में चौहटन उपखंड मुख्यालय से 9 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा की तरफ रेतीले टीबे और पहाड़ियों के बीच स्थित है। जो कि श्री वाकल धाम महातीर्थ विरात्रा के नाम से जाना जाता है। | |
जीवन परिचय | |
राजस्थान के बाड़मेर जिले में चौहटन उपखंड मुख्यालय से 09 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा की तरफ रेतीले टीबे और पहाड़ियों के बीच स्थित है। जो कि श्री वाकल धाम महातीर्थ विरात्रा के नाम से जाना जाता है। इस तीर्थ की स्थापना लगभग आज से 2074 वर्ष पूर्व महाराजा वीर विक्रमादित्य द्वारा की गई वीर विक्रमादित्य शंको पर अपनी शानदार विजय के हर्ष में हिंगलाज शक्ति पीठ (वर्तमान पाकिस्तान में स्थित) की यात्रा पर गये। तन- मन- धन से हिंगलाज मां की पूजा – अर्चना की। मां हिंगलाज प्रसन्न हुई। देवी की प्रसन्नता एवं आशीर्वाद की मुद्रा देखकर राजा वीर विक्रमादित्य ने बड़ी विनम्रता से मां से विनती करते हुए कहा- हे माँ ! मैं आपको प्रणाम करता हूं। मुझे आपके दर्शन से अपार शक्ति एवं शांति मिलती है। मेरी यह अभिलाषा है कि आपके प्रतिदिन दर्शन कर सकूं, इसीलिए मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे साथ उज्जैन पधारे। वीर विक्रमादित्य की श्रद्धा एवं युक्त प्रार्थना से हिंगलाज देवी प्रसन्न हुई और आकाशवाणी हुई की हे विक्रम ! मैं तुम्हारी अंतर्मन से की गई प्रार्थना से प्रसन्न हूँ, तुम्हारी नम्रता ने मुझे प्रभावित किया है। हे राजन ! मैं तो तुम्हारे साथ नहीं चल सकती क्योंकि मैं इस स्थान को नहीं छोड़ सकती हूं लेकिन तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी और तुम्हारे साथ मेरी एक शक्ति चलेगी जो कि आगे चलकर संसार में तुम्हारे नाम से जानी जाएगी (वांकल) लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि यदि तुमने पीछे मुड़कर मेरे शक्तीपीठ हिंगलाज धाम की ओर देखा तो मेरी ‘वांकल-शक्ति’ उस स्थान से आगे नहीं बढ़ेगी, ऐसा कहकर मां हिंगलाज ने विक्रमादित्य को अपनी दैवीय शक्ति ‘वांकल’ को श्री विग्रह के साथ उज्जैन के लिए विदा किया। परम शक्ति मां ‘वाकल’ को श्री विग्रह के दर्शनार्थ जगह-जगह जन समुदाय उमड़ रहा था। लोग मां ‘वाकल’ की जय के साथ विक्रमादित्य की भी जय-जयकार कर रहे थे। विक्रमादित्य आगे बढ़ते हुए राजस्थान के बाड़मेर जिले की चौहटन तहसील के बीजराड़ व घोनिया के बीच विशाल बहाड़ीनुमा रेतीले टीबे पर क्षणिक विश्राम हेतु रुके (परम शक्ति मां ‘वांकल’ का विश्राम स्थल होने से यह क्षेत्र श्रद्धा का केंद्र बन गया) कालांतर में यहां पूजा-आराधना भी होने लगी। वर्तमान में यह गोंडाणा (गोराणा) माताजी मंदिर के नाम से पहचानी जाती है । गोंडाणा (गोराणा) के विशाल ऊंचे पहाड़ीनुमा रेतीले टीबे पर श्री हिंगलाज माता के शक्ति स्वरूपा वांकल माताजी की प्रतिमा स्थापित के बाद यहां एक मंदिर भी बन गया है। इसके पश्चात आगे बढ़ते हुए विक्रमादित्य ने ढोक गांव से 05 किलोमीटर दूर (जो वर्तमान में विरात्रा स्थान है) ‘भूरा भाखर हरणे डूंगर’ के बीच में थोड़ी देर के लिए रुके जहां वर्तमान में आदुपुरा नाम से माताजी का मंदिर बना हुआ है। और उसी पहाड़ी पर रात्रि विश्राम भी किया राजा वीरविक्रमादित्य प्रातः उठकर आगे के लिए रवाना होने वाले थे की थे उन्हें दिशा का भ्रम हो गया, भूल से हिंगलाज शक्तिपीठ की तरफ देख लिया उस समय आकाशवाणी हुई कि हे विक्रम मेरा वचन पूरा हो गया हैं, मेरा मंदिर बनाकर यही प्रतिष्ठ करो मैं तेरा नाम अजर-अमर कर दूंगी। ‘वीर रातरा रेवण सुं ‘इस इस्थान का नाम विरात्रा रख दिया और उसी दिन से विक्रम सवंत प्रारंभ हुआ ऐसी मान्यता है। महाराज वीर विक्रमादित्य ने माताजी की आज्ञा अनुसार मंदिर बना कर प्राण प्रतिष्ठा कर आस्था-विश्वास- श्रद्धा भक्ति से सयुंक्त हो पूजा अर्चना की ईसके बाद विभिन्न जातियों और समय-समय पर रहे यहां के स्थानीय शासकों द्वारा पूजा अर्चना करने के उल्लेख या के लोकगीतों में मिलते हैं। यह इस्थान (डेरी थान) वर्तमान में ‘माताजी का गढ़ मंदिर’ जाना जाता है। जिसमें राजा वीर विक्रमादित्य के बाद वंगा (पाकिस्तान) के गेलड़े परमार राजपूत, सिन्ध सुमरा, लवाणा, हाडी के हाड़ेचा, डाभी (गुजरात) के डोडिया चौहान, कुनकापुर (कुनणपुर सौराष्ट्र) के नन्दवाना ब्राह्मण, कच्छ के काछेबा रेबारी श्री वांकल विरात्रा जी की पूजा अर्चना करते रहे हैं। वर्तमान में भोपा परमार राजपूत भीयड़ भोपेजी के वंशज माताजी की पूजा अर्चना कर रहे हैं। भीयड़ वंश शुरू से ही राजस्थान प्रदेश में बाड़मेर जिले के ढोक, घोनिया, सणाऊ,जसाई परो गांवो में निवास कर रहे हैं। प्रेषित – नरपतसिंह आसिया, वलदरा सिरोही (राजस्थान) |
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