कवि डॉ. नरपतदान आसिया “वैतालिक”
जन्म | 25 अगस्त 1974 |
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उपनाम | वैतालिक |
जन्म स्थान | ननिहाल ग्राम मलावा, तहसील रेवदर, जिला सिरोही |
पता | |
ग्राम खांण, तहसील रेवदर, जिला सिरोही (राजस्थान) | |
प्रमुख रचनाए | |
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जीवन परिचय | |
कवि डॉ. नरपत आवडदान आसिया “वैतालिक” (email: narpatasia@gmail.com) राजस्थानी, हिंदी, उर्दू, गुजराती और ब्रज भाषा की कविता के उभरते हुए नवोदित हस्ताक्षर हैं। आप ग्राम खांण, तहसील रेवदर, जिला सिरोही (राजस्थान) से हैं। आप का जन्म राजस्थान में उनके ननिहाल ग्राम मलावा, तहसील रेवदर, जिला सिरोही में उनके नानाजी कवि श्री अजयदान जी लखदान जी रोहडिया के यहाँ दिनांक 25/08/1974 को हुआ। साहित्य की विरासत उनको वैसे तो वंश परंपरागत ही मिली क्योंकि वह उसी परिवार से ताल्लुक रखते है जिसमे चारण रत्न लाडूदानजी आसिया जो बाद में स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रसिद्ध संत ब्रहमानंद स्वामी बने। ब्रह्मानंद स्वामी अपने जमाने के बहुत बडे कवि और विद्वान थे। जिनके चर्चरी, रेणकी और ऐसे कई छंद और ब्रज भाषा के पद आज भी गुजरात और राजस्थान के लोक मानस में रमे हुए हैं और जन जन के कंठ के हार बने हुए हैं। “वैतालिक” को प्रारंभिक कविता की शिक्षा उनके नानाजी श्री अजयदान जी लखदान जी रोहडिया से मिली। जो महाराव लखपत जी ब्रजभाषा काव्य पाठशाला भुज के अंतिम विद्यार्थीयों में से एक थे। आप राजस्थानी और ब्रज भाषा के एक सम्मानित कवि अपने जमाने के रहे। कवि वैतालिक ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गुजरात के विभिन्न जगहों पर ली। मोरबी मे लखधीर जी इन्जीनियरींग कोलेज से इन्होने बी ई (इन्डस्ट्रीयल ) में किया। बाद में एम बी ए राजस्थान के मालवीय रिजनल इन्जीनियरींग कोलेज से किया। वर्तमान में वे गुजरात सरकार की ओइल और गेस क्षेत्र की कंपनी में सिनियर ऑफिसर के पद पर गांधीनगर में काम कर रहे हैं। आप का वाट्सअप पर एक ग्रुप “डिंगळ री डणकार” इन दिनो काफी लोकप्रिय हुआ है। इस ग्रुप में नव कवियों के साथ छंद बध्ध कविता और डिंगळ गीत की विलुप्त साहित्यक धरोहर को कैसे संजोकर अक्षुण्ण रखा जाए उसके सामुहिक प्रयास किए जाते है। इसमें बिना जाति और धर्म के भेदभाव, सब नव कवियों को छंद बध्ध कविता के ज्ञान का सामुहिक आदान प्रदान किया जाता है। आप की प्रमुख रचनाए मेहाई सतसई (सात सो दोहो का संग्रह), मां मोगल मछराळ शतक (मोगल मां के एक सो आठ दोहों का संग्रह), आवड आखे आसिया ( आवड मां पर दोहै लगभग 300 रचना जारी), मेघदूत का राजस्थानी में भावानुवाद, कृष्ण के विभिन्न चित्रों पर दोहा लेखन (करीब चार सो दोहै) आवड मां पर त्रिकूट बंध गीत, त्रिभंगी छंद, भेरूजी का त्रिभंगी छंद, नवनाथ का त्रिभंगी छंद, गणेश का त्रिभंगी छंद, चामुंडा का रोमकंद छंद, नव दुर्गा का रोमकंद/त्रिभंगी छंद बनाए है। कई रचनाओं का उल्लेख करना यहां संभव इसलिए नही है क्योंकि अनावश्यक परिचय लंबा हो जाएगा। आप ने डिंगळ री डणकार ग्रुप बनाकर सब राजस्थानी भाषा के नव कवियों और विद्वानों को एक मंच पर इकट्ठा कर दिया और राजस्थानी/डिंगळ भाषा की कविता की परंपरा सजीव बनाए रखने का सार्थक प्रयास किया है। |
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कवि डॉ. नरपतदान जी की प्रशंसा में अन्य कवियों के उद्गार इस प्रकार हैं:-
आछौ नरपत आशियो, चारण वरण चकार।
गांव गांव गूंजाय दी, डिंगळ री डणकार।।
ठावी डिंगळ ठाकरां, है कुण चोरण हार।
बैठो नरपत बारणै, मोहन संग मुरार।।
~~मोहन सिंह जी रतनू
आल़सिया ईहग सबै, समझ कवित बिन सार।
आयो नपियो आसियो, ताण किया तणकार।।
तपियो नपियो ताण सूं, जपियो कायब जोर।
पातां थपियो पाटवी, चुण गपियो चितचोर।।
डिंगल़ री डणकार रो, सुपनो किय साकार।
अपणै नरपत आशियै, भुजां उठायो भार।।
~~गिरधर दान सा रतनू दासोडी
नरपत किम नुगरा बणां, किम विसरां विद्वान।
बिन सीखण वय में वळै, आप तणा अहसान।।
नरपत निरखै न्हाटजा, ले लठ उभी त्यार।
जे झट हामी नी भरी, (तौ)ताणैला तलवार।।
नरपत नेह निभावियो, जदुराजा सूं जोर।
ओ रंगरेजो नित रंगै, राधा नवी नवीनकोर।।
वा! वैतालिक वेखली, ऊंडी दीठ अपार।
हूंडी थुं हद ज्ञान री, ढूंढी पद रज पार।।
तव शमसीरां तांणली, कलम तणी कुलवीर।
नेह लपेट्यां नरपता, बाढी धार र धीर।।
पाठक रसिया सबद रा, कसिया कलम केकाण।
जित नरपत पढिया तनो, वदिया करण वखाण।।
राखां ला घण रिजग सूं, चाखां कविता चाव।
ताकां तव इण प्रीत नै, भखां भावो भाव।।
तव बंदूकां तागडी़, नव ई कलम रो नेह।
नरपत निर्मल निवडियो, गरवत करां घणेह।।
आसल नरपत उगेरो, मुधरी लारो लार।
धण आवेला आप री, हींडण लारो लार।।
तव बदूंका ताणियां, भटके लो भिलमाय।
कलम नपा री कामणी, अलम टपा नी आय।।
जलम जात जुडियो रह्यो, बलम बावळी नाय।
तलम ज तळवा चाटती, कविता बलम सुहाय।।
नरपत ला इण नसल री, असल फाबती नार।
धसल घुसा दै धव रह्यो, टसल बंध टणकार।।
गाईजै गीतां गजब, गिरधर हिय रै गाम।
सिर धर राखी शान सूं, निरखर नेहचै नाम।।
असल ओपती ओळियां, धसल घुसै हिय धाव।
मिसल बिछावै मान री, नसल नरप घर जाव।।
~~वीरेन्द्र लखावत
नपसा था पर नाज
सदा संभालण सेवगां, मनमिन्दर नित मांज।
आवै मात उतावली, मेहाइ महाराज।।
दूहा सुंदर दाखिया, कर कीरत रौ काज।
अवस सुणैलां ईसरी, मेहाइ महाराज।।
उर उपजायां आखरा, महिमा सारूं मा ज।
साहित रचवा सांतरौ, मेहाइ महाराज।।
महिमा गाई मोकली, नपसा था पर नाज।
म्हैर करें नित मावड़ी, मेहाइ महाराज।।
चरणा नरपत सूम्प दी, ऊजल अंतस आज।
सतसई सुजस सांतरी, मेहाइ महाराज।।
~~©महेन्द्र सिंह सिसोदिया
छायण, जैसलमेर(राज.)
दासोडी गिरधर दिपै, भारोडी हिमतेस।
नाथूसर गज नीपजै, नरपत खाँण नरेस।।
~~मोहन सिंह जी रतनू
घटाटोप नभ गरजणा, गूंजै डिंगल गाज।
महि पर बोले मोरिया, नरपत ऊपर नाज।।
~~मोहन सिंह जी रतनू
अनुपम रचना आशियो, नरपत आखै नीत।।
छन्द, दोहरा, सोरठा, गजलां, कविता, गीत।।
अदभुत लिखतो आशियो, टणका आखर टाळ ।।
जिभ बिराजी जोगणी, मां मोगल मछराळ।।
~~मीठा मीर डभाल
नर नानेरे नीपजे, नव नखतर निरमाण।
निरखो निजरों नाळ ने, नरपत नेक निशांण।।
नरपत तो नवनीत है, गहन शान्ति रो गेह।
कवियों बीच किलोळ कर, सबरो राखे स्नेह।।
छटा छबी अनुप्रास अर, वयण सगाई हेर।
नरपत जिसा आसु कवी, दीठा नाही फेर।।
नरपत नहचो राखजे, नित रहजे निज ध्यांन।
घण बादळ देवालिया, ढके नहीअसमान।।
काळा केसों कर दिया, धवलों नाह मिटेह।
चरित चित चितराम नपा, दूरां देश दिठेह।।
साध सिरै सुर साधना, सुरसत रे गलहार।
सत साहित सिरजण करे, नरपत साहितकार।।
गिरधर नरपत दुहूँ रवि, सांदू सरवण सोम।
जोत गजा जगमाल री, डिंगल वाळी भौम।।
दो दिवला डण कार रा, दीपे डींगल डाल।
रचै छाटका छंद ऐ, गिरधर अर वैताल।।
नीति नरपत उमेद गज, सरवण अर जगमाल।।
नवल मीर गिरधर तणा, डींगल रा रखवाल।।
~~हिम्मत सिंह जी कविया नोंख
असल अडावळ वास, गांव खांण बसियौ गजब।
ऊजळ कवि-कुळ खास, असल कवी नृप आशियौ।।१।।
मरुधर तणी मठोठ, अर्बुद नग तण अटळ व्रत।
गुटकी लिवी ज घोट, अजयदान सूं आशियै।।२।।
सद् मातुल संस्कार, नानौसा विद्वान नर।
कवित सृजण कूँतार, निपज्यौ नरपत आशियौ।।३।।
अवल संत री ओळ, ब्रह्मानंद जिसडा़ विदग।
उण कुळ खांण उजोळ, उपज्यौ नरपत आशियौ।।४।।
शिल्प भाव सैंजोड़, सबदमाळ पोवै सुघड़।
अवरां सूं तव होड़, हुवै न नरपत आसिया।।५।।
रँग नव रस रळियाण, छंद ऊचरै छळकता।
गळ उगेरियां गाण, अमिरस छळकै आसिया।।६।।
पिंगल-डिंगल प्रीत, संस्कृत- हिंदी सामरथ।
गजल दूहरा गीत, अरपै नित नृप आशियौ।।७।।
चटपट ठावै छंद, आखर मांडै ओपता।
उपजावै आणंद, आशू कवि नृप आशियौ।।८।।
बहु विध स्वर वरणाव, अलंकार रस ओपमा।
उथलै बहु अरथाव, अखर भण्यां तव आसिया।।९।।
अरस परस हिंगलाज, मेहाई राजी मनां।
आवड़ तव हिवळास, आन बसी नृप आसिया।।१०।।
सांप्रत रैय् तव शीश, वीणपाणि रौ वरद हथ।
विप्र नवल आशीष, अरपै नरपत आसिया।।११।।
~~नवल जोशी
आखर थारा आसिया, भाखर ऊगो भांण।
मेहाई महराज रा, विध विध किया वखांण।।
आखर पोया आसिया, सतसई मोती सीप।
जांणें नरपत जोपिया, देशांणै मढ दीप।।
~~अर्जुनदान जी मुहड़ (सनवाड़ा)