(2) “डिंगऴकाव्य अर वीरवर कल्लाजी रायमलोत”
!! गीत !!
ऊभौ ऐक अनङ महा भङ आडौ,
वीरत गुर खत्रवाट वहै !
पङियां सीस पछैई पालटसी,
कोट म कर कर कल्लौ कहै !!1!!
रायमलोत कहै रढरांमण,
मिऴै जिकै घण आय मिऴै !
भुज साजां त्यां कोट न भिऴसी,
भुज भांजै जद कोट भिऴै !!2!!
राव राठवङ मूझ राठौङे,
रजवट मांडे भलौ रयौ !
सिर साटै देसूं सिवियांणौ,
कलै वचन प्रत एह कयौ !!3!!
घट बहङाङ आपरौ घावां,
ते घङ घावां सेन तछै !
पहल बढे रणखलौ पौढियो,
पालटियौ अणखलौ पछै !!4!!
इस गीतमें सिवाणा किले के प्रति कल्ला जी का कथन कवि के शब्दों में अंकित हुआ है वीरत्व तथा छात्रवट से परिपूर्ण यौध्दा कल्ला कहता है कि हे गढ मेरा शिर धङसे कटकर गिरने के बाद ही कोई भी शत्रु तुझे अधिकृत कर पायेगा इससे Rपहये कदापिनहीं अतः तूंकिंचित भयातुरन हो, व किला लेने के आकांक्षी वीरों को पहले तलवारों के घाव मिलेंगें व मेरी भुजाएं कट कर गिरने के पश्चात यह कोट अन्य के अधिकार में जायेगा भुजाएं रहते हरगिज नहीं ! मेरी यह दृढ प्रतिज्ञा है कि मेरे मस्तक रहते यह किला कभी भी नहीं भिऴेगा, अपनी इस प्रतिज्ञा का पूर्णतः निर्वहन करते हुए प्रतिपक्षी सेना का भारी संहार करते हुए यह महाभङ जब धराशायी हो गया तभी अणखला पर शत्रुसेना काबिज हुई ! संवत1645 विक्रमी माघ शुक्ला 10 के दिवस सिवाणें में संम्पन्न हुए शाके का व कल्लाजी की राणियों एंव छत्राणियों द्वारा किएगए जौहर काऐक अन्य डिंगऴ गीत में अनूठी उक्तियों सहित बहुत ही सुन्दर व सरस रोचक वर्णन अवलोक नीय व पठनीय है !!
!! गीत !!
निहग वखांणै अमर धर सको नर,
तूटियो अणखलौ दुरंग तारां !
सायधण आग झऴवाट महीं सांपङै,
धणी रिण सांपङै खाग धारां !!1!!
वाह सत वाह वीरत विखम वेर में,
रवि मयंक जितै सुसबद रहांणौ !
अनऴ ज्वाऴा बऴी रांणियां वडै अंग,
रूक ऊडै बरंग लङै रांणौ !!2!!
भूम खऴहऴ रूधिर ताय राता भुरज,
तरण सूझै नहीं धूम तुरऴां !
अगन ची झऴां भसमी हुवै अंतेवर,
हुवौ तिल-तिल कलौ घाव हुरऴां !!3!!
रायमल कुऴवधु समोभ्रम रायमल,
भलौ पायौ परब रीझियौ भांण !
साख जमहर तणी भरै सिवियांण सुज,
साख समहर तणीं भरै सिवियांण !!4!!
महाकवि दुरसा आढा कृत एक गीत में कल्ला रायमलोत द्वारा शिर कटने के बाद कटारी से शत्रु संहार करने की अदभुत घटना का उल्लेख प्रामाणिक रूप से किया है जिसमें दुरसा आढा की मान्यता है कि सतयुग में तो ऐसे उदाहरण मिलते है पर कलयुग में कल्लाजी जैसी वीरता दिखाकर कबंध युध्द करने वाला यौध्दा अन्य कोई नहीं हुआ ! दानवदल की भांति मुगलिया सेना के बङे भाग में अपना शौर्य प्रदर्शित करते हुए उस राठौङ वीर ने अनेक शत्रुऔं को मारते हुए धराशायी कर, अपने मस्तक विहिन धङ से उज्जवल असि-धारा को प्रवाहित किया थाइस रायमल के पुत्र के समान वीरत्व का ऐसा भारी विलक्षण उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है इस भाव से ओतप्रोत डिंगऴ-गीत आपके नजर !!
!! गीत !!
दऴां चाऴ दइवांण सारति फिरी दांणवां,
चूक प्रकटे चरकि हाथ चाढी !
प्रगट घट ऊपरै भ्रगट कटियां पछै,
कलै जमजाऴ प्रतमाऴ काढी !!1!!
हुवै अतद्रोह दांणव छभा हुकऴै,
काऴ गति वह गयौ विचित्र केवांण !
काढ जमदाढ प्रकट हुवौ कऴेहवा,
कहर सिर छेदिया पछै कलियांण !!2!!
पाखती मीर उडिया तरसि पारसी,
घात चूकौ नहीं चूक रै घाई !
ऊजऴी धार पङियार हूं आछटी,
रोस त्रूटै कवटि हिन्दवै राई !!3!!
जे किण हि साचवी तपणि सतवै जुगनि,
पासि ढऴियां कमऴ पछै प्रतमाऴ !
जुवै माथै हुवै दुरति रांमौत जिम,
किणहि काढि नहीं ऐणि कऴिकाऴ !!4!!
इस प्रकार इस महाभङ वीर का अनेकानेक कविकौविदों ने बहुत ही महिमां मंडन किया है यह जैसा महावीर था वैसा ही कवेसरो ने वर्णन किया अथवा जैसा कवि लोगों ने वर्णन किया वैसा ही यह वीर रणभूमि में लङकर मरा था !!
~राजेंन्द्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर !!
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