Fri. Nov 22nd, 2024

देख रहा है
सृष्टा को दृष्टा
दूर अनंत अंतरिक्ष में
उसे दिखाई दे रही है
प्रकाश वर्ष को
द्रुत गति से लांघती
लपलपाती हुई
एक अगन लौ
भाप बनकर उड़ते हुए समंदर,
हरहराकर धरती के
सारे गर्तों को पाटते हुए
हिमगिरि के सब उतंग शिखर,
पवन उन्नचास के वेग में
वर्तुल बनकर उड़ते हुए जंगल,
नभ में ऊर्ध्व गति से
पथ विचलित और व्यग्र
भूतालिया बनी हुई सरीताएं,
उतप्त अंधड़ में दिशाहारे
कीड़ीनगरे की तरह
भयाक्रांत इंसान,
और उनका सामूहिक रुदन
पशु पक्षियों का कोलाहल
एक दूसरे में समाते हुए
नभ थल और जल
देख रहा है प्रतिपल।

सुन रहा है वह
फिर से एक और
ब्रह्मांडीय विस्फोट की अनूगुंज
घनघनाती हुई धरती की टंकार
गुरुशिखर के घंटे की तरह।
विस्फारित विदीर्ण नेत्रों से
देख रहा है विध्वंस होते विश्व को।

सुन रहा है वह
असीम शून्य से
प्रतिपल नजदीक आती हुई
महाप्रलय की मंथर पदचाप
और सृष्टा की संहारक सांसों को।

– रेवंता

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *