सरस्वती की उपासना – चारण, जो उपासना को अपने जीवन का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मानते हैं, भारतीय संस्कृति की पहचान और समाज में नैतिकता, त्याग, बलिदान, वीरता और भक्ति की वृद्धि के लिए साहित्य का सृजन किया है। समाज को आकार देने के विशिष्ट दृष्टिकोण के साथ, चारणी साहित्य के रचनाकारों ने अपने भाषण और व्यवहार में पूर्ण सामंजस्य स्थापित किया है और जीवन में मूल्यों को प्राथमिकता दी है। तो यह साहित्य ऐसा नहीं है कि जीवन कैसा है, लेकिन जीवन कैसा होना चाहिए? दूसरे शब्दों में, चारणी साहित्य “जीवन की खातिर कला” का पैरोकार है।
चारणों ने सरस्वती और शक्ति की उपासना की ताकि आर्यावर्त का झंडा बुलंद किया जा सके। उन्होंने अच्छे, तकनीक, सत्य और नीति के लिए अमूल्य बलिदान दिए हैं। कविता एक अभ्यास या पेशा नहीं बल्कि एक संस्कार था। कविता उनके मस्तक से नहीं बल्कि उनके रक्त से जागती है। शूरवीरों के प्रति उनकी श्रद्धा कायरों के प्रति घृणा के कई प्रसिद्ध इतिहास है।
चारण मात्र शूरवीरता की बाते करने वाला साहित्यकार ही नहीं था, लेकिन जब अवसर आने पर वह एक बहादुर लेखक था, जो पैरोथ के नक्शेकदम पर नहीं चलता था। वह धर्म, धरा और इज्जत की खातिर बलिदान की ऊँचाइयों पर चलते हुए सभी के अग्रदूत थे।
अतः कवियों की एक लंबी परंपरा है, जिनकी वाणी और व्यवहार में विरोधाभास नहीं हैं, ईसरदासजी रोहड़िया, हरदासजी मीसण, सायाजी झूला, दुरसाजी आढ़ा, गोदड़ मेहडू, हमीरजी रतनू, करणीदानजी कवियां, ब्रह्मानंदजी, स्वरूपदानजी देथा, नरहरदानजी बारहठ, बांकीदासजी आशिया, लांगीदासजी मेहडू और सूर्यमल्लजी मीसण जैसे पहली पंक्ति के रचनाकारों ने इस परंपरा को समृद्ध किया है। यहाँ लांगीदासजी मेहडू के जीवन और कविता का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया गया है-
लांगीदास के पूर्वज-
लांगीदासजी मेहडू मध्ययुगीन देहाती चारणी साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित कलियों में से एक के रूप में है। लांगीदासजी मेहडू के पूर्वज डुंगरशी मेहडू को थळा के तत्कालीन राजवी शतरसालजी झाला ने देगाम (सुरेंद्रनगर जिले के दसाडा तालुका का एक गाँव) लाख पसाव के साथ पुरस्कृत किया था। डूंगरसी मेहडू के वंशजों में लुणपाल मेहडू नामक एक प्रसिद्ध चारण कवि हुए जिन्होंने ढोलमारू की प्रसिद्ध प्रेम कहानी लिखी। इस लुणपाल मेहडू के वंशज में जसवंत मेहडू हुये उन्होंने अयाचक व्रत रखा, गेडी के राजकुमार वाघेला मेंकराणजी ने उनके अयाचक व्रत को तोड़ने का अनुचित प्रयास किया और इसलिए वे तनावग्रस्त हो गए और उन्होंने त्रागा कर अपना बलिदान दिया।
जसवंत मेहडू की सातवीं पीढ़ी मांडण मेहडू हुये। मांडण मेहडू भी कवि थे। मांडण मेहडू के तीन पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र लांगीदास मेहडू थे।
लांगीदास का बचपन और शिक्षा-
उन्होंने अपना बचपन देगाम में बिताया, साहित्यिक शिक्षा और डिंगळ छंदशास्त्र का ज्ञान उन्हें चारण विद्वानों के पास से मिला होगा। उस समय मेहडूओं के अलावा सामळ ओर झला शाखा के चारण रहते थे। उनकी साहित्यिक खोज के संस्कार सहज रूप से उनके बचपन में ही मिले होंगे। उस समय साहित्य – संस्थान की परंपरा इतनी मजबूत थी कि केवल उनके परिवार ही पाठशाला बन गए। इसके अलावा, उन्होंने पंडित लाल भट्ट से भी शिक्षा प्राप्त की, जो डिंगल साहित्य और पुराण कथाओं के महान विद्वान थे। लांगीदास ने एकादशी महाशय ग्रथ के मंगलाचरण में गुरु लाल भट्ट का उल्लेख किया है। उनसे उन्होंने कविता और पुराणों का अध्ययन किया।
लांगीदास की कृतियों के कितने ही उल्लेख-
नप्रमाणों और इनके विषय में प्रचलित अनुश्रुतियों के आधार पर इनको हल्लवद के झाला राजवंश की तीन पीढ़ियों का राज्याश्रय प्राप्त था। इसी झाला राजवंश की तरफ से लाख पसाव के साथ गोलासण गांव गिरास में मिला। दसाङा के दरबार रूस्तम खानजी की तरफ से कितने ही गरास प्राप्त हुए।
साणंद राज्य की तरफ से इनके कितने ही गांवों में एक – एक खेत भेंट में दिया। जोधपुर नरेश अभयसिंह के शेरबुलंद खान सुबा के साथ के युद्ध में विजय की विरूदावली के काव्य के कारण स्वर्ण का सवा मण का हाथी, चोटी बंध सोने की छङी और एक कटिमेखला पुरस्कार सम्मान स्वरूप प्राप्त हुईं।
इनके भाई मेघाजी मेहङू को देगाम की सभी जागीरें देकर; मेघाजी के लिए चिंतित इनके माता -पिता की चिंता दूर की। ध्रांगध्रा नरेश की तरफ से मिले हुए लाख पसाव को लेकर देगाम आते हुए मार्ग में भरवाङा के बीच में स्वंय के विषय में होती बातचीत में अपमान का अंश पाकर सदा के लिए कुटूंब के साथ देगाम त्याग दिया। बजाणा के जत दरबार के कुंवर के द्वारा किए गये पक्षी के शिकार को देखकर, इसके ऐसे संस्कार स्वयं के संतान पर न पङें, इसलिए दरबार की तरफ से मिले हुए गरास और घर त्याग दिया। गोलासण गांव मिलने से पूर्व मिले हुए दुदापर गांव को भी नजदीक के जत पीपली के लोगों के चोरी आदि के संस्कार संतानों पर पङे इस भय से त्याग दिया; इत्यादि विगतें देखने को मिलती हैं। इस संदर्भ में एक दुहा भी मिलता हैं,कि-
पास जियां ऐ पीपली ,सख थोङो बहुत दुख।
(तूं)आळण हारो एक है,(त्यां)लेखणहारा लख।।
*क्रमशः*
ये पूरा आलेख गुजराती मे था इसे गुजराती को देवनागरी लिपी में टाईप किया– दिनेशदानजी आशिया देशनोक