महामहोपाध्याय कविराजा श्यामलदास के पूर्वज मारवाड़ के मेड़ता परगने में दधिवाड़ा ग्राम के रहने वाले देवल गोत्र के चारण थे। इस गांव में रहने के कारण ये दधिवाड़िया कहलाये। इनके पूर्वज जैता जी के पुत्र महपा (महिपाल) जी को राणा सांगा ने वि.स. 1575 वैशाख शुक्ला 7 को ढोकलिया ग्राम सांसण दिया जो आज तक उनके वंशजों के पास है। महपाजी की ग्यारहवीं पीढ़ी में ढोकलिया ग्राम में वि.सं. 1867 के जेष्ठ माह में कम जी का जन्म हुआ। बड़े होने पर वे उदयपुर आ गये। वे महाराणा स्वरूपसिंह व शम्भुसिंह के दरबार में रहे जहां उन्होंने दोनों राणाओं से सम्मान पाया। इनका विवाह किशनगढ़ के उदयपुर ग्राम के रोहडिया बारहठ परिवार में एजनबाई के साथ हुआ जिनकी कोख से श्यामलदास का जन्म आषाढ़ कृष्णा 7 वि.स. 1893 के दिन ढोकलिया ग्राम में हुआ। इनके तीन भाई और दो बहिनें थीं।
इनका अध्ययन घर पर ही हुआ परम्परा से प्राप्त प्रतिभा तो इनमें भरपूर थी। फारसी और संस्कृत में उनका विशेष अध्ययन हुआ। इनका प्रथम विवाह साकरड़ा ग्राम के भादा कलू जी की बेटी के साथ हुआ। इनसे एक पुत्री का जन्म हुआ। दूसरा विवाह मेवाड़ के भड़क्या ग्राम के गाड़ण ईश्वरदास जी की बेटी के साथ हुआ। इनसे संतानें तो कई हुई पर उसमें से दो पुत्रियां ही जीवित रहीं।
वि.सवत 1927 के वैशाख में उनके पिता कमजी का देहावसान हो गया। उस समय श्यामलदास की आयु 34 वर्ष की थी। पिता के देहावसान के पश्चात् श्यामलदास गांव से उदयपुर आ गये और पिताजी के दायित्व का निर्वहन करने लगे। इसी वर्ष के आषाढ़ में महाराणा शम्भुसिंह जी मातमपूर्सी के लिए श्यामलदास जी की हवेली पर पधारे। तब से महाराणा की सेवा में रहने लगे।
एक बार मेहता पन्नालाल की सलाह पर महाराणा शम्भुसिंह जी अपनी यात्रा का व्यय नगर के धनाढ्य लोगों से लेने की योजना बना रहे थे। यह बात श्यामलदास को ठीक न लगी, उन्हें इस योजना के पीछे ईर्ष्या-द्वेष व बदले की भावना दिखाई दे रही थी। महाराणा को सीधा कहने का उन्हें साहस नहीं था पर लिखित में उन्हें यह न करने की सलाह दी और लिखा कि इससे आपकी बदनामी होगी। यदि यात्रा करनी ही आवश्यक हो तो राजकोष के खर्चे से करिये। यह पत्र उन्होंने ‘अवतार चरित’ नामक पुस्तक में रखा जिसे महाराणा रोज पढ़ते थे। पढ़ते समय किताब में पड़े इस पत्र को जब राणा ने पढ़ा तो बड़े प्रसन्न हो गये और श्यामलदास को इस नेक सलाह का धन्यवाद दिया। बाद में राणा ने निजी कागजों का बक्स श्यामलदास को सुपुर्द कर दिया। श्यामलदास धीरे-धीरे महाराणा के विश्वस्त बनते जा रहे थे तभी भरी जवानी में राणाजी का स्वर्गवास वि.स. 1931 में हो गया। श्यामलदास इससे बड़े निराश हुए।
राणा शम्भुसिंह जी ने अपने जीवनकाल में ही सज्जन सिंह जी को गोद ले लिया था। अतः श्यामलदास का उनसे निकट का सम्पर्क था। सज्जनसिंह जी अल्पवयस्क होते हुए भी विलक्षण बुद्धि वाले थे अतः वे श्यामलदास जी के व्यक्तित्व पर मुग्ध थे। गद्दी पर बैठते ही राणा ने श्यामलदास को उसी प्रेम से अपनाया। महाराणा सज्जनसिंह का राजत्व काल बहुत लम्बा नहीं रहा पर उनके उस काल को मेवाड़ का यशस्वी राजत्व काल कहा जा सकता है जिसका श्रेय तत्कालीन प्रधान श्री श्यामलदास को जाता है। उनके राजत्वकाल में पुलिस के नवीन संगठन की अवस्था, कवायदी फौज की स्थापना कर मामा अमानसिंह को उसका कमाण्डर-इन-चीफ बनाया जाना, अभियांत्रिकी विभाग का गठन, सामन्तों के साथ सं. 1935 में दीवानी और फौजदारी के मुकदमों के अधिकारों बाबत नई कलमबद्दी, मेवाड़ में 10 जिलों का निर्माण कर उस पर हाकिमों की नियुक्ति, सभी वस्तुओं से कर हटाकर केवल 9 वस्तुओं पर जकात (कर) तथा डाण (कस्टम) महकमें का प्रबन्ध, जंगलात कायम करना, वि.सं. 1936 में भूमि की पैमाइश कराकर पुख्ता बंदोबस्त करना, वि.सं. 1937 में इजलास खास के स्थान पर सबसे ऊ पर की अदालत महकमा खास मुकर्रर करना, मेवाड़ के इतिहास का लेखन, रेल मार्ग की स्वीकृति, सज्जन यंत्रालय का खोला जाना, साप्ताहिक समाचार पत्र `सज्जन कीर्ति सुधाकर’ का प्रकाशन, आदि कई काम प्रारम्भ हुए। प्रशासनिक दृष्टि से जहां मेवाड़ में नये प्रबंधन का शुभारम्भ हुआ वहीं इतिहास लेखन, समाचार पत्र प्रकाशन, सज्जन औषधालय जैसे शिक्षा और सेवा के कार्य भी शुरू किये गये।
सज्जन सिंह के समय में समाज के दुख को भी पहिचाना गया था। पहले हर वस्तु पर जकात दी जाती थी इससे प्रजा कष्ट में थी उसे पहिचान कर उस जकात को कम करके केवल 9 वस्तुओं पर ही जकात कर दिया गया। डाण के विभाग को शुरू करके उन्होंने नये आर्थिक स्रोत ढूंढ निकाले जिससे जनता को बहुत राहत मिली। इस प्रकार हर पक्ष का चिन्तन कर प्रशासन के काम को अनुशासित किया गया जिसका सम्पूर्ण श्रेय श्यामलदास को दिया जा सकता है।
महाराणा सज्जन सिंह और श्यामलदास में परस्पर अनन्य प्रेम था। पारिवारिक जीवन में तो दोनों एकात्म थे केवल दरबारे में उनका व्यवहार स्वामी-सेवक का रहता था। जहां कविराजा की हमेशा राणाजी के प्रति स्वामी भक्ति थी वहीं महाराणा सज्जन सिंह में कविराजा के प्रति सहोदर का सा भाव था। महाराणा साहब कविराजा के परिवार को अपना परिवार मानते थे। कविराजा अपनी मां को `बहुजी’ और बहिन को `बाईजी’ कहकर पुकारते थे वैसे ही महाराणा कभी उनके घर पधारते थे तो वो भी कविराजा की तरह ही मां अथवा बहन को `बहुजी’ या `बाईजी’ पुकारते थे। उनके जीवन की अनेक घटनाएं है जो उनके प्रगाढ़ प्रेम को प्रदर्शित करे हैं। उनमें कुछ घटनाएं यहां दी जा रही है।
एक बार महाराणा अपने साथियों के साथ हाथियों पर जगदीश चौक तक पहुंचे। वहां पहुंच कर महाराणा ने कहा- `सांवल जी (महाराणा श्यामदलदास को इसी नाम से पुकारते थे) आप अपने साथियों के साथ बाजार होते हुए कोतवाली जाओ। मैं घाणेराव से होते हुए कोतवाली (घण्टाघर) पहुंचता हूं देखें कौन वहां पहले पहुंचता है। ’ ऐसा कह कर महाराणा घाणेराव की घाटी ओर मुड़ गये। कविराजा की हवेली भी घाणेराव की घाटी पर ही थी। महाराणा सीधे हवेली पहुंचे। हाथी से उतरे और हाथी को सामने वाले मकान के ढूंढे में छिपा दिया और स्वयं चुपके से एक अंधेरी नाल में से होते हुए गौयाण की हवेली, जो उस समय कविराजा के उपयोग में आती थी, की छत पर पहुंच गये और पहरे वाले को हुक्म दे गये कि कविराजा आये तो कुछ मत कहना। कविराजा ने कोतवाली पहुंच कर देखा कि दरबार अभी तक नहीं पहुंचे। श्यामलदास को यह समझते देर न लगी कि महाराणा ने अपना मार्ग घाणेराव का क्यों चुना है। वे सीधे अपनी हवेली पहुंचे, सिपाही से पूछा। वह कविराजा के प्रभाव से कांपने लगा पर कुछ बोला नहीं पर संकेत से बता दिया कि महाराणा कहां गये ? कविराजा दौड़ते हुए छत पर पहुंचे जहां महाराणा जी बैठे हुए थे। छत पर जनानियों के कपड़े सूख रहे थे। आते ही कपड़े बटोरते हुए कुछ बड़बड़ाने लगे। राणाजी उनके गुस्से का कारण समझ कर बोले कि नाराज न हो, बेचारी घर छोड़ कर कहां सुखाती। फिर दोनों हंसते हुए हाथियों पर बैठकर महलों की ओर चले गये।
गर्मी के दिन थे। कविराजा महलों में अपने कमरे में जिसे `कविराजा की ओवरी’ कहते हैं में मध्याह्न में सुस्ता रहे थे। उनका निजी सचिव था- दशोरा ब्राह्मण दुर्लभराम, जो दुबला पतला था। उसके जांघ पर अपना सिर रखकर वे लेटे हुए थे। दुर्लभराम पंखी से हवा कर रहा था उस हवा में कब नींद आ गई उन्हें पता न चला। महाराणा सुख महलों में विराजते थे। महाराणा को एक पुस्तक की आवश्यकता पड़ी जो महलों के ऊपरी भाग में सरस्वती भण्डार में थी। वे चाहते तो किसी सेवक को भेज कर वह पुस्तक वहां से मंगा सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस बहाने वे अपने अनन्य से मिलने भी जाना चाहते थे। प्रेमवश उस गर्मी में एक पुस्तक लेने के लिए महाराणा कविराजा की ओवरी में पहुंचे तो देखते क्या है कि दुर्लभराम की जंघा पर सिर रखकर कविराजा सो रहे है और दुर्लभराम पंखा कर रहे है। महाराणा को वहां पाकर वह ब्राह्मण तो घबरा गया। पर महाराणा ने हाथ के इशारे से शान्त रहने को कहा और इशारे में यह भी कह दिया कि कविराजा को जगाओ मत। तुम ऊपर जाकर सरस्वती भण्डार से अमुक पुस्तक निकाल लाओ। परन्तु दुर्लभराम की जंघा पर तो कविराजा का सिर था वह कैसे उठता। अतः राणा ने धीरे से उसका सिर अपनी जांघ पर ले लिया और पंखी लेकर उसे हवा करने लगे। दुर्लभराम ऊपर के महलों में गये। इधर उस ब्राह्मण की पतली जांघ के स्थान पर महाराणा की पुष्ट जांघ थी और पंखी के हवा के झोके में भी बल कुछ दूसरा ही था। इस परिवर्तन से कविराजा की आंख खुल गई, देखा स्वामी सेवा कर रहे हैं। वे घबरा कर उठ बैठे और कहा- ‘कहां गया वह नालायक मुझे जगाया तक नहीं। ’ महाराणा ने उसे कहा, नाराज मत हो, मैंने ही उसे ऐसा करने को कहा था।
ऐसी छोटी मोटी अनेक घटनाएं है जो युवा, गंभीर और तेजस्वी असाधारण महाराणा के उछलते प्रेम और प्रौढ़ सेवक कविराजा की अगाध स्वामी भक्ति की असाधारणता को प्रकट करती हैं। ये ही व्यवहार असंदिग्ध रूप से सिद्ध करते है कि महाराणा सज्जन सिंह के यशस्वी शासन काल में मेवाड़ ने जो आधुनिक सुधारों का पहला डंका बजाया उसमें नवीन भाव और व्यवस्था का उद्गम था। कविराजा का हृदय और उद्घोषणा की गुण ग्राही महाराणा की आज्ञा ने। शब्द और अर्थ के समान वे दो नहीं एक ही थे।
वि.सं. 1939 श्रावण मास में भारत की जागृति के जन्मदाता स्वामी दयानन्द सरस्वती उदयपुर पधारे। कविराजा स्वामी जी के नाम से पहले ही परिचित थे और उनकी अनुपम विद्वता और प्रतिभा पर मुग्ध थे। अतः उनके आगमन पर सस्वागत सादर सज्जन निवास बाग (गुलाब बाग) के नवलखा महल में ठहराया गया। कविराजा ने महाराणा सज्जन सिंह से उनकी भेंट भी कराई। स्वामी जी सात मास तक उदयपुर में विराजे उस अन्तराल में महाराणा सज्जन सिंह तथा कृष्णसिंह बारहठ स्वामी जी से मनु स्मृति पढ़ते थे।
इन्ही दिनों महाराणा के सभापतित्व में `परोपकारिणी सभा’ की स्थापना की गई। यद्यपि कविराजा राजकार्य में व्यस्त रहते थे तो भी समय-समय पर स्वामी जी के दर्शन करने अवश्य जाते थे। कविराजा की सत्यप्रियता और निःशंकता पर स्वामी मुग्ध थे। एक दिन स्वामी जी ने उनसे कहा `कविराज! हम तुम्हारी चारण पाठशाला के छात्रों को भोजन करायेंगे। ’ योजनानुसार चारण पाठशाला के बच्चों को कविराजा नवलखा महल में लाये और सभी छात्रों ने स्वामी जी के समक्ष भोजन किया। उन छात्रों में केसरीसिंह बारहठ भी थे। सभी बालक स्वामी जी की भव्य मूर्ति के दर्शन कर कृत कृत्य हो गये।
महाराणा सज्जन सिंह कविराजा की ईमानदारी और सादगी से प्रभावित थे। आपसी सम्बन्ध भी मधुर थे। एक दिन महाराणा ने कविराजा को कहा- `सांवल जी! जो तुम्हें वेतन दिया जा रहा है वह कम है। तुम जितनी आवश्यकता समझो वेतन बता दो, मैं उतना ही मासिक वेतन तुम्हारे लिये स्वीकार कर लूंगा। ’ पहले तो कविराजा को इस बात पर आश्चर्य आया कि राणा जी इस प्रकार क्यों कह रहे है। पर इस बात को टालने के लिये कविराजा ने कहा `हजूर! घर पर हिसाब लगा कर कल बताऊंगा। ’ दूसरे दिन कविराजा ने आकर निवेदन किया- `मुझे पौने चार सौ रूपये काफी होते है। ’ तब महाराणा ने उन्हें कहा- सांवल जी! आपका बड़ा परिवार है, नाम भी बड़ा है, ऊपरी खर्चा भी अधिक होगा तथा घर के लोगों की आपसे अपेक्षाएं भी होगी। ऐसे में यह वेतन तो कम पड़ेगा। तब श्यामलदासजी ने कहा- `मेरे लिये यही पर्याप्त है। आवश्यकता पड़ी तो हजूर से अर्ज कर लूंगा। मेरा घर तो साधारण गृहस्थी का बना रहे इसी में शान्ति है। ’ तब से उनको केवल पौने चार सौ रूपये मासिक मिलते लगे जो महाराणा फतह सिंह ने कविराजा के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र यशकरण के नाम पर कई वर्षों तक दिये।
कविराजा की सत्यता, स्पष्टता और राजभक्ति से महाराणा सज्जन सिंह इतने अधिक प्रभावित थे कि वे राजपूत जाति और राजपूत राज्यों के लिये समस्त चारण जाति को ही ईश्वरीय देन समझने लगे। कविराजा के ऐतिहासिक अनुशीलन तो उनके हृदय पर यह अमिट छाप लगा दी कि यदि राजपूत जाति के पतन को रोकना है तो पहले चारणों को सुशिक्षित करना चाहिये। राजपूत जाति के हक में चारण जाति से बढ़कर निर्भीक सलाहकार, पूर्ण विश्वस्त और शुभचिंतक नहीं मिल सकता। कविराजा के इस प्रयत्न को वे देख चुके थे पहले वि.सं. 1936 और दूसरी बार वि.सं. 1937 में उन्होंने जातीय अधिवेशन भी किये। जिसमें चारणों के शिक्षण के विस्तार पर चर्चा हुई थी। कविराजा की प्रार्थना पर महाराणा सज्जन सिंह जी ने क्षत्रियों की वार्षिक आमदनी का दशमांस त्याग में देना नियत करके यह नियम बांध दिया कि `सौ रूपयों की जीविका पर दस रूपये हुए उनमें से पांच चारणों के लिये हो और वे जिला हाकिमों के मारफत मंगवा कर उदयपुर में चारण पाठशाला बनवा कर उनमें चारणों के लड़कों की पढ़ाई में खर्च किये जावें। ’ तदनुसार वि.सं. 1937 में पाठशाला और छात्रालय कायम हुआ उसमें छः अध्यापक, जिसमें रामनारायण दुग्गड़ भी थे, नियत किये गये। भवन जब तक न बना तब तक यह पाठशाला रावछा के बारहठ पहाड़ जी की हवेली में चला।
कविराजा को किसी से कुछ मांगने की चिड़ थी परन्तु जाति सेवा के लिये उन्होंने चन्दा मांगना स्वीकार किया। उनके प्रभाव से और समझाने की विशेषता से सब बड़े उमरावों, सरदारों व सजातियों से उत्साह और उदारता से अच्छा चन्दा इकट्ठा किया। थोड़े ही समय में लगभग चालीस हजार रूपये इकट्ठे हो गये और पाठशाला का निर्माण शुरू हो गया। वि.सं. 1941 में जोधपुर व किशनगढ़ के महाराज उदयपुर आये तो महाराणा दोनों अतिथियों को चारण पाठशाला का प्रारंभिक निर्माण दिखाने ले गये, उन्हें यह निवेदन भी किया कि निर्माण पूर्ण होने पर इसका उद्घाटन आपके हाथों करेंगे। पर महारणा सज्जन सिंह के असामयिक निधन के कारण यह कार्यक्रम न हो सका।
कविराजा की योग्यता और कार्यकुशलता से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने संवत 1935 में उनको `केसरे हिन्द’ का तमगा देकर सम्मानित किया। यह तमगा तत्कालीन पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल इम्पी ने रेजीडेंसी दरबार में प्रदान किया। उन्होंने महाराणा के सम्मुख यह प्रस्ताव भी रखा कि मेवाड़ के इतिहास के लेखन का इन्हें जो कार्य भार दे रखा है उस कार्य प्रगति पर नहीं है क्योंकि कविराजा कोराज्य प्रबंध के कार्य से समय नहीं मिलता है। वास्तव में कविराजा के राज्य प्रबंध के कारण मेवाड़ सुव्यवस्थित हो चुका था और अंग्रेज सरकार इस अवस्था में चंचु प्रवेश भी नहीं कर पायी थी। इस `वीर विनोद’ के लेखन प्रारम्भ करने पर उनका यह कार्य हल हो जायगा। पर श्यामलदास यह कार्य महाराणा के जीवनकाल में प्रारम्भ न कर सके। उनके देहावसान के पश्चात वे `वीर विनोद’ के लेखन में जुट गये।
इस कार्य को श्यामलदास ने बहुत परिश्रम से किया। इतिहास लेखन केसारे स्रोत-प्राचीन प्रशस्त्तियां, सिक्के, ताम्रपत्र, पट्टे, परवाने, भाट एवं जागाओं की बहियां, प्रकाशित अंग्रेजी, फारसी, अरबी, हिन्दी संस्कृत ग्रंथ और अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों का पता लगा कर उन्हें खरीदा गया, उनकी प्रतिलिपियां कराई गई, किवदन्तियां संग्रहित की गई, पुरातत्व के साधन जुटाये गये, उसके आधार पर उन्होंने `वीर विनोद’ का लेखन प्रारम्भ किया। उनके साथ विभिन्न भाषाओं के विद्वान लगाये गये इनमें गोविन्द गंगाधर देशपाण्डे ब्रिटिश सरकार की ओर से शिलालेख-ताम्रपत्र आदि पढ़ने में सहायतार्थ लगाये गये थे तथा अंग्रेजी के लिये रामप्रसाद बी.ए.रखे गये थे। सं. 1944 में पं. गौरीशंकर हीराचन्दओझा रामप्रसाद के स्थान पर नियत किये गये। ओझा जी के आने तक `वीर विनोद’ का लेखन लगभग पूरा हो चुका था। ओझा जी की योग्यता को कविराजा ने पहिचान लिया था अत: इन्हें सार्वजनिक पुस्तकालय में लगा दिया।
वाणी विलास पुस्तकालय जहाँ बैठकर कविराजा श्यामलदास जी ने वीर विनोद की रचना की थी
`वीर विनोद’ के मुद्रण का कार्य सज्जन यंत्रालय प्रेस में हो रहा था। महाराणा फतह सिंह ने इसकी ग्यारह सौ प्रतियां छपवाई थी इसमें से एक सौ प्रतियां कविराजा के लिये निजी उपयोग के लिये थी। कविराजा ने मुद्रण के समय से ही तीन प्रतियां रामप्रसाद बीए., गौरीशंकर ओझा व कृष्ण सिंह बारहठ को देना प्रारंभ कर दिया था। कविराजा का यह संकल्प था कि `वीर विनोद’ छप कर तैयार होने के पश्चात वे राजकार्य से सन्यास ले लेंगे, पर ईश्वर की इच्छा कुछ दूसरी थी। वि.सं. 1949 आषाढ़ शुक्ला 11 के दिन उन्हें पक्षाघात हुआ और लगभग डेढ़-दो वर्ष तक यही दशा रही। इस समय का लाभ उठा कर जो लोग उनके कार्य से ईर्ष्या करते थे जिन्हें उनके प्रतिष्ठा से जलन थी, कविराजा विरोधियों ने प्रपंच रचा और महाराणा फतह सिंह के मस्तिष्क में यह बात बिठाने में सफल हो गये कि इस ग्रंथ के कारण उमराव आदि अपने अधिकार मांगेगे, अंग्रेजों में भी कविराजा की प्रतिष्ठा बहुत अधिक है अत: वे भी इसकी बात प्रमाणिक मान कर निर्णय लेंगे। अत: इसे प्रकाश में न लाया जाय। महाराणा ने भी वीर विनोद की सारी प्रतियां यहां तक कि उनका प्रुफ भी महलों में मंगवा लिया और एक कमरे में डालकर उस कमरे को ताला लगा दिया। अगर तीन प्रतियां बाहर न जाती तो शायद `वीर विनोद’ इतिहास के गर्त में चला जाता।
वीर विनोद के अतिरिक्त कविराजा ने ऐतिहासिक गहरी छानबीन करके दो पुस्तिकाएं और लिखी थी- `पृथ्वीराज रासो की नवीनता’ और अकबर के जन्मदिन में संदेह। ये दोनों पुस्तिकाएं एशियाटिक सोसायटी बंगाल व मुम्बई आदि प्रसिद्ध संस्थाओं से समाहत हुई। `पृथ्वीराज रासो की नवीनता’ पुस्तक पर भी बवाल मचा था। इस पुस्तक को लेकर पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या ने बेदले राव साहब को भड़का दिया कि कविराजा ने रासो को प्रमाणों से कल्पित ठहरा दिया है। उसने उनसे पैसे भी एंठे और कविराजा के ग्रंथ को गलत साबित करने का प्रयत्न किया जिसे बंगाल के रायल एशियाटिक सोसायटी ने लिख भेजा कि ये तर्क तथ्य हीन है और कविराजा की पुस्तक प्रमाण पुष्ट है। आखिर भेद खुल जाने पर पण्ड्या जी ने कविराजा से क्षमा मांगी। कविराजा ने कहा, `कोई मुझे गालियां देकर भी अपनी पेट भराई करे तो मुझे बुरा नहीं लगता। मेरी हानि तो नहीं हुई और न ही तुम कर सकते हो क्योंकि मेरा यह लेख न किसी स्वार्थ से था न द्वेष से। तुमने बेदले रावजी से पैसे ठगे हैं अत: उन्हीं से माफी मांगो। तुम्हारे चेष्टा करने पर भी मेरी और बेदले रावजी की मैत्री और स्नेह में कोई अन्तर नहीं आया। ’ वास्तव में वे केवल विद्वान और लेखक ही नहीं उदार मना भी थे।
महाराणा सज्जन सिंह के देहावसान के बाद श्यामलदास का अधिकांश समय `वीर विनोद’ के लेखन में ही गया। आवश्यकता पड़ने पर वे राणा का राजकार्य में सहयोग भी करते थे अतः महाराणा फतहसिंह जी भी उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे, उनका आदर भी करते थे, उनकी बात मानते भी थे। उनकी स्पष्टवादिता पर तो वे कायल थे।
वि.स. 1941 में जब महाराणा गद्दी पर बैठे उस से प्रायः एक वर्ष पूर्व उनके पुत्र भोपालसिंह का जन्म हो चुका था अतः वह महाराजकुमार की दृष्टि से ही गद्दी पर आया था। छोटा बालक और फिर महाराणा का पुत्र होने के कारण हर कोई उसे गोद में उठाता था। बालक को वैसे भी गोद में उठाने की इच्छा स्वाभाविक होती है पर यहां तो खुशामद करने के लिये हर कोई उसे गोद में उठाता था। स्थित ऐसी हो गई कि जनानी ड्योढी के अन्दर और बाहर बालक भोपालसिंह के कदमों ने धरती को नहीं छुआ। यह प्यार का अतिरेक बालक के शारीरिक विकास में बाधक पड़ सकता था। यह बात कविराजा को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने यह बात महाराणा से भी कही- और निवेदन किया राजकार्य की तरह महाराज कुमार के लालन पालन व उसके विकास पर भी आप ध्यान दें। महाराणा ने उनकी बात को स्वीकारते हुए यह कार्य करने की बात कही। पर खुशामदी लोग बहाना बनाकर भी उसे गोद में ले लिया करते थे। कविराजा ने इस बात को कभी पसन्द नहीं किया।
महाराणा फतहसिंह शिकार के बड़े शौकीन थे। शेर की खबर सुनकर उनका नित्यक्रम भी छूट जाता था। एक दिन उन्हें सूचना मिली कि उदयपुर के पास की पहाड़ियों में शेर घुस आया है। यह समाचार उन्हें रात के बारह बजे मिला। रात को तीन बजे हरकारा पहुंचा कि ठीक चार बजे अमुक स्थान पर शिकारी कपड़े पहनकर पहुंच जाओ। धीरे-धीरे पुत्रोत्सव की सी खुशी से बड़े-बड़े महकमों के अफसर, उमराव, सामन्त व अन्य वहां जमा हो गये। शिकारी वेश में उमरावों-सरदारों का दरीखाना लग गया। आठ सौ नौकरिया (शिकार में हांका देने वाले भील) हाथ मे बल्लम लिये शिकार के स्थान पर पहुंच गये और सारा मगरा घेर लिया। कविराजा नित्य के अनुसार समय पर वहां आ पहुंचे। उनके बैठते ही महाराणा ने उत्साह भरे स्वर में बधाई के तौर पर कहा “कविराजा जी। आज शेर उदयपुर के पास ही आ गया। ” तब कविराजा ने गंभीर स्वर में कहा- हजूर ! यह शेर आपको खुश करने के लिये इन जंगलों में नहीं आया है यह तो भटकता हुआ यहां आया है। मगर इन खुशामद खोरों को मालूम नहीं मालिक को एक दुर्व्यसन से मना करने के बजाय उनमें धकेलने से वे राज्य का कितना अहित कर रहे हैं। इधर इन्साफ के लिये मिसलों का ढेर लगा हुआ सड़ रहा है, गरीब प्रजा धूप, भूख व प्यास का कष्ट सहन कर न्याय के लिये कोसों से आकर निराश लौट रहे हैं और यहां शिकार का आनंद लिया जा रहा है। इस निरीह जानवर से तो ये बैठे हुक्काम ज्यादा खुंखार है जो मालिक की आंखों में धूल झोंक कर दिन दहाड़े गरीब प्रजा का खून चूस रहे है। ” (वही- पृ. 279) ये बातें सुन कर चारों ओर सन्नाटा छा गया। पांच मिनट बाद महाराणा ने आज्ञा दी- “ठीक है शिकार नहीं जायेंगे। सबको वापस बुला लो। ” महाराणा फतहसिंह का उनके प्रति कितना आदर था यह इस घटना से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
“वीर विनोद” मुद्रण का काम समाप्त हो चुका था। कविराजा की आंखों की रोशनी कम हो गई, पक्षाघात भी हो गया। रूग्णावस्था के समय महाराणा फतहसिंह उनका कुशलक्षेम पूछने उनके घर पधारे। जब उन्हें बताया गया कि श्री जी हजूर पधारे हैं तो दोनों हाथों से उनका अभिवादन करते हुए कहा कि मैंने पूर्व के दो महाराणाओं की सेवा की पर उतनी सेवा मैं आपकी नहीं कर सका इसका मुझे खेद है, आपने यहां पधार कर मेरा मान बढ़ाया है मैं इससे अभिभूत हूं, कृतार्थ हूं। “इससे मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे मालिक मेरे परिवार का भरण पोषण अवश्य करेंगे। ”
अपने आत्मीयजनों श्रीकृष्ण सिंह बारहठ, ठाकुर चिमन सिंह व कोठारी बलवन्त सिंह के समक्ष अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट करते हुए कहा- “मुझे जब कोई गंभीर रोग लग जाय तो मुझे सन्यास लिवा देना और मेरे बाग के बीच के चक्कर की जगह मेरा भूमिदाह करना। ” अतः उनकी इच्छानुसार देहान्त के दो दिन पूर्व उनको आतुर सन्यास दे दिया गया। उसके पश्चात इच्छा होते हुए भी महाराणा उनके दर्शन करने नहीं गये। देहावसान की बात किसी को पसंद नहीं थी। पर यह शाश्वत सत्य है कि “जातस्य ध्रुवों मृत्यु” जो जन्मा है वह अवश्य शरीर छोड़ेगा। रोग ने उनके शरीर को शिथिल कर दिया था। अन्त में संवत 1951 जेष्ठ कृष्णा अमावस्या तदनुसार सन 1894 के 3 जून को उनका देहावसान हो गया। उनकी इच्छानुसार श्यामल बाग में हजारों नर-नारियों के समक्ष उनका भूमि दाह किया गया। कविराजा बड़े सत्यवक्ता, न्यायकारी, धर्मशील, निर्लोभी, देशहितैषी, ईमानदार और सच्चे स्वामिभक्त थे। मेवाड़ में ये ही एक पुष्प थे जो इतना राज्याधिकार पाकर न कभी अभिमान में झूमे, न किसी का बुरा किया और न ही धन जोड़ा।