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कर रहा हूँ यत्न कितने सुर सजाने के लिए
पीड़ पाले कंठ से मृदु गीत गाने के लिए
साँस की वीणा मगर झंकार भरती ही नहीं
दर्द दाझे पोरवे स्वीकार करती ही नहीं
फ़िर भी हर इक साज से साजिन्दगी करती रही
ऐ जिंदगी ताजिंदगी तू बन्दगी करती रही।

आँख का पाकर इशारा जो मचलना छोड़ती
देह की इस रागिनी को ग़र जरा सा मोड़ती
जीभ पे विष की जगह पर गर अमी रखती जरा
तो न तुझको देखना पड़ता मगर ये माजरा
क्यों हमेशा इंद्रियों की हाज़िरी भरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही।

खुद से ज़्यादा दूसरों के शौक की परवाह की
परिजनों की चाहतों पे वार खुद की चाह दी
‘क्या कहेंगे लोग तुझको’ सोच यह डरती रही
मुखर होने की जगह पर मौन ही धरती रही
निज हृदय को वेदना दे मौत बिन मरती रही
ऐ जिंदगी ताजिन्दगी तू बन्दगी करती रही।

~डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’

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