रहसी रै सुरताणिया!
वीरता अर वीर आज ई अमर है तो फखत कवियां या कविता रै पाण। क्यूंकै कवि री जबान माथै अमृत बसै अर उण जबान माथै जिको ई चढ्यो सो अमर हुयो। भलांई उण नर-नाहरां रो उजल़ियो इतियास आज जोयां ई नीं लाधै पण लोकमुख माथै उण सूरां रो सुजस प्रभात री किरणां साथै बांचीजै।
ऐड़ो ई एक वीर हुयो सुरताणजी गौड़। हालांकि कदै ई गौड़ एक विस्तृत भूभाग माथै राज करता पण समय री मार सूं तीण-बितूण हुय थाकैलै में आयग्या।
इणी गौड़ां मांय सूं ई ऐ सुरताणजी गौड़ हा। सीकर रै आखती-पाखती इणां रो कोई गांम हो। दूजो कोई विशेष काम नीं हो सो नित रो शिकार रमणो अर मौज करणी। ज्यूं ई सूर्योदय हुवतो अर त्यूं घोड़ी काठी मेल’र शिकार जावणो यानी “सूर उगंत शिकारै!” रो एक ई काम रैयग्यो।
एक दिन शिकार नै निकल़िया अर रिंधरोही में अबोल जिनावरां – पंखेरूवां रो घाण कर’र कठै ई सुसतावै ई हा जितरै सांझासर गांम रा चारण मुकनजी किनिया ई घोड़ी चढिया आयग्या।
दोनां री आंख्यां मिली। मिलतां ई एक – दूजै सूं जंवारड़ा किया। सुरताणजी भोजन करण री मनवार करी। मुकनजी उतर’र देख्यो तो च्यारां कानी मांस ई मांस। कवि इणगत अबोल पंखिया अर जिनावरां नै मृत देख्या तो हृदय व्यथित हुयग्यो।उणां कह्यो- “हुकम! आं थांरो कांई खाधो? आं खड़ खाधो उवो ई करतार उगायो! आपरो कांई नुकसाण कियो? सो थे आं रो इणगत घाण कियो?-
जालम सूं डरै त्रिणां सूं जीवै,
मदत नको मारियै मुवै।
वाघ धकै जांणो वीसारै,
हिरणां लारै कांय हुवै?
रवि ऊगै आखेटां रमणो,
पूगै देखै खोज पगां।
म्रगां न थांरो बाप मारियो,
मारै तूं किण खून म्रगां?
(बांकीदासजी)
आ सुण’र सुरताणजी कह्यो कै” –
हुकम! बात आप ई सही फुरमावो पण म्हैं जितरै थोड़ो अस्त्रशस्त्रां सूं रम नीं लूं जितरै म्हनै म्हारा बूकिया खावता रैवै। आप तो जाणो ई हो कै राजपूत रो जामो लेय पछै शिकार नीं रमूं कै पछै दया धारलूं तो कीकर पार पड़सी?”
आ सुणतां ई मुकनजी कह्यो कै –
“शिकार ई रमणी है तो देश धूंसणिये वैर्यां री रमो। क्रोधी ई बणणो है तो आतताइयां नै दंड देवण सारू बणो। पण उठै ओ रूप धारै उणनै ताण पड़ै। बूकियां में गाढ चाहीजै। ई लावा – तीतरियां नै संताया कोई जोर नीं पड़ै ! जोर तो सिंह री शिकार कर्यां पड़ै-
लावां तीतर लार, हर कोई हाका करै।
सिंघां तणी शिकार, रमणी मुसकिल राजिया।।”
आ सुणी जणै सुरताणजी पाछो कह्यो कै –
“हुकम! कितोक जीवणो! राजपूत नै लंबी उम्र री उम्मीद नीं राखणी। पछै लंबी उम्र ई नीं जणै मन नै क्यूं मारूं? जिकै शौक पाल़ूं उवै तो पूरा करूं कै नीं?”
आ सुण’र मुकनजी कह्यो-
“भला सरदार!नाम! कीं काम कर्यां ऊबरै न कै जीवहत्या कर्यां सूं।जीवण में जसजोग काम करो ताकि लारै लोग गल्लां बांचता रैवै।बाकी ई खूनखराबे सूं लोग कसाई भलांई कैवो रजपूती रुखाल़णियो तो कैवै नीं।”
आ सुण’र सुरताणजी कह्यो-
“बाजीसा! शिकार तो म्हारो शौक है। इणमें कैड़ो कसाईवाड़ो?
राजपूत नै शिकार नीं रमण रो ओ आप कांई ऊंधो पाठ पढावो?”
जणै मुकनजी कह्यो-
“बडा सरदार! ई जीव-जिनावरां नै मार्यां तो आप पाप सूं गारत हुयग्या। पाप में डूबग्या। आपनै सीधो नरक मिलसी। एक राजपूत म्हारै चारण रै देखतां ऊंधी राह तकै जणै असह्य है। आपनै सूंई वाट घालणो म्हांरो धरम है। पछै ई आप पाप रै कूप में पड़णा चावो तो आ दड़ी अर ओ मैदान!”
ओ शब्द-तीर सीधो सुरताणजी रै काल़जै जाय लागो। उणां पाछो कह्यो-
“हुकम! ओ प्रण लेवूं कै आज सूं जीवहत्या नीं करूंलो पण पाप उतरण रो मारग, मरण नै वरण करणियो दिन अर अवसर किसो हुसी? आ बात आपनै म्हनै पाछी बतावणी पड़सी।”
आ सुणतां ई मुकनजी कह्यो –
वाह! वाह! भला मिनख वचन पाल़जै। जीबाछल़ मत लगाजै।
मरण रो दिन आज ई बतायदूं कै धरती, धरम अर लुगाई जात माथै आफत देखै जिणदिन खाग अर वाग पकड़जै।”
दोनूं आप – आपरै मारग गया।
थोड़ै दिनां पछै मराठा वामनराव रै साथै मिल’र जार्ज थॉमस फतेहपुर माथै हमलो कियो। हालांकि कठै-कठै ई
पंचाधां (मुसलमानां रो एक जाति या समुदाय) रो फतेहपुर नै लूटण सारू हमलै रो उल्लेख मिलै। उण बखत आसै-पासै रै राजपूतां वीरता दरसाय जार्ज थॉमस नै फुरण्यां सांस अणा दियो। उण बखत उणनै पाछो नाठणो पड़्यो।उण जुद्ध में पाप मुक्त हुवण सारू सुरताणजी गौड़ जिकी वीरता बताई उवा आज ई अमर है। उण प्रणधारी वीर रो ऊजल़ो मरण सुण मुकनजी सांझासर सूं उणरै घर जाय खरड़ी माथै एक दूहो सुणायो। जिको आज ई लोककंठां में गौरव रै साथै गूंजै-
*मन चायो पायो मरण, हुई फतेहपुर हल्ल।*
रहसी रै सुरताणिया, (थारी) गौड़ घणा दिन गल्ल।।
*गिरधरदान रतनू दासोड़ी*