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भगवती श्री करनीजी की मान्यता सर्व समाज में समादृत है। सुवाप गांव में वि.सं.1444 की आश्विन शुक्ला सप्तमी को किनिया मेहाजी दूसलोत के घर करनीजी का जन्म हुआ। चैनजी सांदू के शब्दों में-

चवदासै संमत वरस चमाल़ै,
सातम सुकर शुध आसोज।
कारण सगत जनमिया करनी,
चारण कुल़ बधारण चोज।।
उदर जलम आढी धिन देवल,
इल़ धिन ऊपन गांम सुवाप।
पित मेहो किनियो धिन परिया,
अवतरिया श्री करनी आप।।

वि.सं.1474की माघ सुदि 7 के दिन आपकी शादी साठीका के जागीरदार केलूजी बीठू के पुत्र देपाजी के साथ हुई-

चवदै सही चवोतरै, स्वयंवर धिनो सुजाण।
मा सुद सातम सोम मुख, रचियो किनिये राण।।
(करनी-रूपक-बखतावरजी मोतीसर सींथल़)

आपका समग्र जीवन लोककल्याण तथा पर्यावरण संरक्षण में व्यतीत हुआ। गौपालन, अरण्य संरक्षण, तथा मानवमात्र के हितार्थ आपने अनेक कार्य संपादित किए जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस कालखंड में थे।

कालांतर में साठीका से अपने परिवार के साथ पशुधन लेकर ‘जोड’ वर्तमान देशनोक स्थान पर आ गई। यहीं पर आपने आततायी काना राठौड़ को क्षत्रियत्व रहित व्यवहार करने पर काल का ग्रास बनाया तथा जनहितैषी रणमलजी राठौड़ को जांगलू का राव स्थापित किया।

राव रणमलजी का ही नहीं अपितु इनके पुत्र जोधाजी को जोधपुर तथा पौत्र बीकाजी को बीकानेर जैसे सुदृढ़ राज्य स्थापना हेतु वरदान व मार्गदर्शन दिया-

जंगल़ू पछै ज जोधपुर, इल़ पर राज अथाह।
बेटो नृप मुरधर बजे, पोतो जँगल़ पतसाह।।
(बखतावरजी मोतीसर)

जैसा कि सर्वविदित है कि चिड़ियानाथजी के प्रकोप से बचने हेतु जोधाजी ने मेहरानगढ़ की नींव करनीजी के हाथ से ही लगाई थीं-

“श्री जोधपुर रो किलो सं.1515 रा जेठ सुद 11सनीवार राव जोधाजी नीम दीवी। श्री करनीजी पधार नै सो विगत-पहला तो चौबुरजी जीवरखी कोट करायो चिड़ियाटूंक ऊपर।” (मारवाड़ रै परगनां री विगत -नैणसी-सं.ना.सिं.भाटी)

अवध पनरोतरै संमत पनरै इल़ा,
बाघ चढणोतरै वेद वरनी।
गेह बड भाग किनियां तणै गोतरै,
कला सरजोत रे रूप करनी।।
(खेतसी मथाणिया)

इन्हीं जोधाजी के पुत्र बीकाजी नवीन राज्य की स्थापना का स्वपन लेकर इनके पास देशनोक आए और इनके यहां काफी महिनों तक अपने लवाजमें सहित रहे। करनीजी ने ही अपने प्रभामंडल का प्रयोग करके बीकाजी का विवाह राव शेखाजी भाटी पूगल़ की पुत्री रंगकंवर के साथ संपन्न करवाया था।

यह तथ्य भी सर्वविदित है कि पांडू गोदारा व बीकाजी के बीच प्रगाढ़ता करनीजी ने ही करवाई थीं। करनजी ने कहा था कि-
“बीका ! राज थारो, जमी जाटां री।”

करनीजी के इस सुभग संदेश की पालना न केवल बीकाजी ने की अपितु उनकी संतति ने भी आस्थापूर्वक की। यही कारण था कि बीकानेर रियासत में दोनों जातियों के बीच समन्वय बना रहा।

राव बीकाजी के उत्तराधिकारी राव लूणकरन्नजी तथा लूणकरन्नजी की गादी पर वि.सं. 1583 श्रावण कृष्ण पक्ष में राव जैतसी(जैतसिंहजी) बैठे।

यह बात प्रसिद्ध है कि एकबार राव लूणकरन्न जी अपने पुत्रों को लेकर देशनोक गए और उनके भविष्य के बारे में करनजी से पूछा। तब करनजी ने कहा था कि-

पातल़ियो प्रताप, रूड़ो रतनसी।
सारां में सरदार, जाडो जैतसी।
वैर उग्राहण वैरसी।।

राव जैतसी का शौर्य व औदार्य जनविश्रूत है। उन्होंने अपने जीवनकाल में बीकानेर राज्य की यश पताका को फहराया तथा अरियों का मानमर्दन कर कुल गौरव की अभिवृद्धि की।

कवि खेताजी गाडण अपने एक गीत में लिखतें हैं कि जैतसी तो ऐसा किसान है जिसने तलवार धारण कर अपने घोड़ों रूपी बैलों को रण -खेत में जोता तथा ऐसी खेती की जिससे केवल वैरियों के माथों का संग्रहण रूपी धन अथवा धान ही प्राप्त होता है-

सोभाग सुधन सत्र सीस संग्रहण
सार धार हल़ सुत्र संभाल़।
फेरिया तुरी धमल़ पर फेरण,
बीकहरै रण खेत विचाल़।।

उन दिनों मुगल बादशाह बाबर, जिसके पुत्र कामरान का शासन काबुल पर था। उसने राव जैतसी के सुयश तथा वैभव के बारे में सुनकर बीकानेर पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के समय को लेकर कवियों तथा इतिहासकारों में मतैक्य नहीं मिलता। चूंकि हमारा विषय इतिहास नहीं होकर मात्र काव्य है अतः मतभिन्नता की बात नहीं करके हम केवल इस विषय पर रचित काव्य की बात करेंगे।

मुगल कामरान विशाल सेना के साथ बीकानेर पर आक्रमण करने हेतु बढ़ने लगा, उस समय राव जैतसी ने अपनी आराध्या देवी करनीजी से प्रार्थना की। किंवदंती है कि उस समय उन्हें करनीजी ने दर्शन दिए तथा आश्वस्त किया कि “कामरान से डरने की कोई जरूरत नहीं है और न ही सेना की अभिवृद्धि करने की। अभी तेरे पास जितने घुडसवार हैं उतने ही प्रयाप्त हैं।”

जब कामरान ने आक्रमण किया उस समय राव जैतसी ने केवल 108अदम्य वीरों के साथ रातीघाटी नामक स्थल पर युद्ध किया। इस युद्ध में जैतसी ने ऐसी झाकझीक मचाई कि मुगल कामरान भयातुर होकर भाग खड़ा हुआ। विजयश्री जैतसी को मिली इससे बीकानेर किले की कमनीय कीर्ति चारों ओर विस्तीर्ण हुई।

इस गौरवानुभूति दिलाने वाली घटना को विषयवस्तु बनाकर अनेक डिंगल रचनाकारों ने रम्य रचनाएं प्रणीत की। इन रचनाओं में उल्लेखनीय है-

  1. ‘छंद राउ जइतसी रउ'(सूजा वीठू नगराजोत)
  2. छंद राव जैतसी रो पाघड़ी(मेहा वीठू)
  3. राउ जेतसी रौ रासो(अज्ञात)
  4. राव जैतसी रा रसावला(दूदा वीठू)

इन महनीय रचनाओं के अलावा काफी गीत इस गौरव बिंदू को रेखांकित करते हैं। इन रचनाओं के माध्यम से हमारा राष्ट्रीय गौरव उद्घाटित होता है। क्योंकि जिन मुगलों ने विशाल क्षेत्र में अपनी विजय पताका फहराई, उन्हीं मुगलों की महत्वाकांक्षाओं को रातीघाटी की माटी में कुचला गया।

कृतज्ञ राठौड़ों ने अपनी यशस्वी विजय का समग्र श्रेय करनीजी के दिव्य चमत्कार को समर्पित किया-

करनादे रा कोटड़ा, कोटां काबल वट्ट।
राव हकारै जैतसी, भागा कमरा थट्ट।।

जांगलधरा के गौरव में अभिवृद्धि करने वाली इस महनीय विजय का यश कवियों ने करनीजी को सश्रद्ध समर्पित किया। इनमें जैतसी के समकालीन तथा परवर्ती कवि उल्लेखनीय है। कतिपय उदाहरण देने समीचीन रहेंगे-

  1. चकरां अणदीठाय देव चलाय।
    घणा मिल़ आपो आपैय घाय।
    बाई रा बांण बहै विरदैत।
    जोवै जुध कौतुक ऊभो जैत।।
    (मेहाजी वीठू)
  2. कर प्रारंभ आवियो कमरो,
    धर थल़वट सिर नजर धरै।
    जत जैतसी तणो जग-जामण,
    करनी ऊपर तेज करै।।
    (पृथ्वीराजजी राठौड़)
  3. आई जिम आगरै,
    आप प्रिथीराज उबेलण।
    जवन चाड जैतरी,
    कियो करनादे कण-कण।।
    (द्वारकादासजी)
  4. वाढि वाढि विरदेत,
    रिमां दल़ां नै रातरा।
    जीताड़ै जद जैत,
    हरवल़ हुय मेहासधू।।
    (महाराजा गजसिंहजी, बीकानेर)
  5. सझ फौज लड़ंगा कमरै संगा,
    मचै उदंगा अढमंगा।
    पड़ छौड़ ऊचंगा भाग पठंगा,
    महि ढक अंगा उतबंगा।
    भिड़ पांच प्रसंगा जैत अभंगा,
    पढ जय जंगा वीकपती।
    पढ बगसा अंबे बाहु प्रलंबे,
    मकर विलंबे दास मती।।
    (बगसीरामजी लाल़स)
  6. प्रजाल़ा लाग असमांन तन-पूरणा,
    कहर चन-पूरणा आय कीधो।
    पखायत जैत रै करण मन-पूरणा,
    दरस अन्नपूरणा जेम दीधो।।
    (केसराजी खिड़िया)
  7. बाबरी जात पतसाह केव्यां बल़ी,
    देस दाबल़ थल़ी कीध दावो।
    सात ती भड़ां सूं चढ जुध जैतसी,
    च्यार चक फतै वरदान चावो।।
    (चिमनजी रतनू)
  8. जो थापै जैतसी असुर कमरो उथापै।
    सिहलवै कर स्हाय,
    कल़ह अमरै दल़ कापै।।
    (गंगारामजी देपावत)
  9. मेले फौज कामरा मिरजो,
    ऊ जंगल़ धर आयौ।
    केवी तैं भांजै किनियांणी,
    जैत राव जीतायो।।
    (बांकीदासजी आसिया)
  10. कर जोड़ जैतसी अरज कीन।
    ओ देश धरा गढ तो अधीन।
    तद सुणत करनल मात तत्त।
    सैदेह दरस दीनों सगत्त।।
    (रामदानजी तोल़ैसर)
  11. कृपा अभलाखियो जैत भिड़ियो कटक,
    तुरत कर दाखियो जोर तारां।
    समर जीताड़ियो सूर चंद साखियो,
    बीकपुर राखियो कई बारां।।
    (खेतसी मथाणिया)
  12. मेछ कमरो गुमर धार मन मुरड़ियो,
    आंवल़ै थाट मिल़ उरड़ आया।
    ध्यावतां जंगल़ धर हूंत मोटा धणी,
    जैत कज पधार्या जोगमाया।।
    (बालाबगसजी पाल्हावत)

विस्तार भय से मूल बात पर आ रहा हूं। इसी विषय पर बींसवीं सदी के श्रेष्ठ डिंगल कवि हिंगलाज दानजी कविया ने एक खंड काव्य लिखा- ‘मेहाई-महिमा’

हिंगलाजदान जी कविया उस कालखंड के कैसे कवि थे ? इस बात को केवल बद्रीदानजी गाडण के एक दोहे के माध्यम से समझ सकते हैं-

कवि कविया हिंगल़ाज रो, जस कथियो नह जाय।
अभिधा लक्षणा व्यंजना, सबदां में न समाय।।

अतः कृति की बात करने से पहले उनका संक्षेप में परिचय देना समुचित रहेगा।

कवि श्रेष्ठ सागरजी कविया, जिन्हें कवियों ने ‘सागर सिद्ध’ की संज्ञा से अभिहित किया है, की गौरवशाली वंश परंपरा में रामप्रतापजी कविया के घर वि.सं.1924 की माग शुक्ला 13शनिवार के दिन सेवापुरा गांव में कवि पुंगव हिंगलाजदान जी कविया का जन्म हुआ। कुशाग्र बुद्धि, विलक्षण स्मृति, वाग्मिता, आदि गुण आपमें वंशानुगत थे। यही कारण है कि आप एक नैसर्गिक कवि थे। आपका समग्र काव्य हृदयग्राही व चित्ताकर्षक है। डिंगल़ -पिंगल़ में आपको समरूप प्रावीण्य प्राप्त था तो साथ ही आप संस्कृत व उर्दू में भी निष्णांत थे। यही कारण है कि डिंगल़ के मर्मज्ञ विद्वानों ने आपको डिंगल़ परंपरा का अंतिम महाकवि माना हैजो वस्तुतः सत्य प्रतीत होता है।

आपकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं- ‘मेहाई-महिमा’,  ‘दुर्गा बहतरी’,मृगया- मृगेंद्र’, ‘अपजस-आखेट’, प्रत्यय-पयोधर, ‘सालगिरह शतक’, ‘वाणिया रासो’। इन महनीय रचनाओं के अलावा आपके कई डिंगल छंद व चिरजाएं शक्ति की भक्ति में प्रणीत हैं जो अत्यंत प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं।

हम समग्र काव्य पर बात नहीं करके केवल ‘मेहाई-महिमा’ पर ही बात करेंगे।

‘मेहाई-महिमा’ में बीकानेर के पराक्रमी शासक राव जैतसी की मुगल कामरान पर हुई विजय गाथा को गुंफित किया गया है। हिंगलाजदानजी कविया भी डिंगल के अन्य कवियों की भांति इस विजय के पीछे राव जैतसी पर करनीजी की कृपा का प्रसाद मानतें थे। आपकी यह पूरी रचना इन्हीं भावों की भावभूमि पर अनुप्राणित है।

कवि करनीजी को आद्यशक्ति जो त्रिशक्ति (महालक्ष्मी, महासरस्वती, व महाकाली) के रूप में भी विश्वविश्रुत है के रूप में वंदन करते हुए लिखतें हैं -‘हे पराम्बा !आप ही हिंगल़ाज हो तथा आप ही मामड़ के घर अवतरित होने वाली आवड़ हैं। आवड़ का ही वो रूप आप करनीजी हैं तथा करनीजी के रूप में ही वर्तमान में आप इंद्रबाई हैं, जिन्हें मैं यह गौरवशाली काव्य सुना रहा हूं।’

कवि का उक्ति वैचित्र्य अद्भुत है। कथानक का सजीव रूप चलचित्र की भांति शब्दों के माध्यम से उकेरा गया है। जैसे -जैसे छंद पढ़तें हैं वैसे-वैसे पूरा कालक्रम व घटनाक्रम हमारी आंखों के सामने दृश्यमान होने लगतें है। चूंकि हम जानतें हैं कि डिंगल कवियों का मनमयूर जितना वीररस की घटा को देखकर नाचता है उतना अन्य रस-बदरियों को देखकर नहीं। ‘मेहाई-महिमा’ उस परंपरा का जीवंत दस्तावेज है। जिस परंपरा में जीने वाले लोग स्वाभिमान, साहस व शौर्य की प्रतिमूर्ति हुआ करतें थे। अतः ऐसों नायकों के चारु चरित्र की चंद्रिका चतुर्दिक चमकाने हेतु जिस काव्य चमत्कार व शब्द साधना की महनीय आवश्यकता हुआ करती है वो हमारे आलोच्य कवि की विशद विशेषता है।

मूलतः यह एक खंडकाव्य है। खंडकाव्य की जो विशेषताएं हुआ करती हैं उनसे यह परिपूर्ण है। कवि रचना का प्रारंभ स्तवन से करतें हुए आद्यशक्ति की अवतरण अवधारणा को परिपुष्ट करतें हुए कामरान का जंगलधरा पर प्रयाण करने तथा उसकी बेगम का उसे ऐसे न करने हेतु समझाना आदि का वर्णन करतें हुए उसकी विशाल सेना, युद्धकुशलता, अस्त्र-शस्त्रों की बहुलता, कुत्सित मानसिकता तथा उसकी भयावहता का वर्णन करतें हुए लिखता है कि-

धर जंगल़ ऊपर फौज धकी।
जमरांण जमात समाण जिकी।
….
अखड़ेत पटेत जवान इसा।
दर कूच कियो दिखणाद दिशा।
….
छिति हूं उडि खेह अकाश छई।
चक्रवाक स्नेह तज्यो चकई।

कवि लिखता है कि जैसे ही जैतसी को गुप्तचरों द्वारा सूचना मिली कि कामरान बीकानेर पर चढ़ आया है –

समचार धणी छत्रधार सुण्या।

तो मानो किसी ने चलते कालींदर की पूंछ पर पैर धर दिया हो ! उनके रोम-रोम में क्रोधाग्नि भभक उठी। ऐसा लगने लगा कि जैसे स्वयं कालयवन चलकर मुचुकुन्द की कंदरा में अपनी मृत्यु को आमंत्रित देने आ गया हो-

कालंदर कुंडली,
पूछ दाबत पल़टायो।
किनां काल़ बस जवन,
मुचकंध जगायो।

रावजी ने अपने सरदारों को युद्धार्थ मंत्रणा व चारण मनीषियों को वीरों में वीरोचित भाव संचरित करने वाले काव्यपाठ हेतु आमंत्रित किया-

सुणि-सुणि हुकम सताब,
आभ छबता भड़ आया।
रण कविता उच्चरण,
विवुध चारण बुलवाया।

रावजी व देश के प्रति समर्पण व काव्य के अवगाहन से उन वीरों ने कहा कि-

लाख हूं हेक हेको लड़ण,
भुज-ठालक झाली भुजा।।

इसके बाद उस समय के सांस्कृतिक गौरव का जो चित्र उकेरा गया है वो वरेण्य है। कवि ने उन वीरों की स्वामी भक्ति देश के प्रति अनुरक्ति, व वीर प्रकृति का जो वर्णन किया है उसे पढ़कर हम उस कालखंड की मानसिक यात्रा करने को मजबूर हो जातें हैं यानी उसमें खो जातें हैं। यही कवि की वो विशेषता है जिसके कारण उन्हें निर्विवाद रूप से डिंगल का अंतिम महाकवि कहा जाता है।

जैतसी युद्ध की समस्त तैयारी करके देशनोक करनीजी के दर्शनार्थ गए व विजयश्री वरण का वरदान लेकर लौटे-

जल़ मूक सजल़ वीजल़ जिसी,
धकै खाग खेटक धरी।
कर जोड़ जुलम जालिम कथा,
कमधमोड़ मालिम करी।।

जैतसी की भक्ति व दृढ़ आस्था को देखकर करनीजी ने कहा कि- ‘इसमें कोई संशय नहीं है कि हार कमरान की व विजयश्री जैतसी का वरण करेगी-

जैत भूप जैतरी, हार कमरा री होसी।
मृड पोसी मुंडमाल़, जगतचख कौतक जोसी।।

करनीजी के इन वचनों को शिरोधार्य कर वीर जैतसी ने अपने अति सीमित वीरों के साथ पागड़ै पैर रखा। जैतसी ने फिर जो युद्ध किया वो जातीय गौरव की अभिवृद्धि करने तथा मातृभूमि के सुयश को साफल्य मंडित करने वाला सिद्ध हुआ। कवि लिखता है कि जिस प्रकार विशाल कौरव सेना को बैराठ के युद्ध में अकेले पार्थ ने परास्त कर दिया था उसी प्रकार जैतसी ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए-

बल़ी नृप जैत भुजां बल़िहार।
पत्री अणभीज परां खल़ पार।
बांणां थट कैरव राण विराट।
ब्रहन्नट जांण करै द्रहवाट।।

या फिर अपनी हठधर्मिता व शरणागत वत्सलता के लिए अलाउद्दीन से हम्मीर चौहान रणथंभौर में अदम्य साहस के साथ लड़ा उसी प्रकार जैतसी ने युद्ध किया-

हमां चहुंवाण अलावद हेर।
खांगी-बंध जैत रच्यो जुद्ध खेल।।

कवि लिखता है कि दोनों तरफ की सेनाएं अपने -अपने देश की आन स्थापना के लिए व स्वामी के कारण प्रण-प्राण से लड़ रही थीं-

मियां पतसाह पखै मजबूत।
राजा छल़ छोह छकै रजपूत।।
लड़ै दहु काबल़ जंगल़ लज्ज।
उदंगल़ जाण दिली कनवज्ज।।

आखिर में करनीजी की कृपा से जैतसी इस युद्ध में अपने शौर्य की पताका फहराकर ही आए। कवि लिखता है कि मैंने तो केवल वो वर्णन किया है जो मैंने सुन रखा था-

खड़ै सुरलोक भणीजत खांत
सुणी हिंगल़ाज भणी जिण भांत।
प्रिथीपत राजस्थान पुगाय।
अँबा निज थांन थई थित आय।।

जैसा कि काव्य रसिकों को विदित ही है कि कवि ने यह रचना उस समय विराजित शक्ति स्वरूपा इंद्रबाई सा के आदेशों की पालनार्थ प्रणीत की थीं। अतःरचना बनाकर कवि ने उन्हें आद्योपांत सुनाया। कवि लिखता है कि यह कितना सुखद संयोग है कि जिस मा के सुयश को मैंने विरचित किया है उन्हीं के अवतार इंद्रबाईसा को मैं यह रचना सुना रहा हूं! मानो यह सोने में सौरभ के सदृश है-

मौनूं सुगंध सोनूं मिल्यां,
बल़िहारी इण बात री।
साखात सकति इंदर सुणै,
महिमा करनल मात री।।

संक्षेप में कवि की भाषा, शैली छंद वैशिष्ट्य आलंकारिक छटा के बारे में लिखना भी समीचीन लगता है।

‘मेहाई-महिमा’ आर्या, दोहा, छप्पय, त्रोटक व मोतीदाम यानी पांच प्रकार के छंदों में पूरी कृति वर्णित है। पूरी रचना में ‘वयण सगाई’ के ‘आद मेल़़’ का प्रयोग हुआ है। जो इनके शब्द सामर्थ्य व काव्य पारंगतता का द्योतक है। इसके साथ ही छेकानुप्रास व वृत्यनुप्राश के तो ये सिद्धहस्त कवि हैं-

खणख्खण खेटक भेटत खाग।
रिखेश्वर वीण झणझ्झण राग।
विथा भुव भार फणफ्फण व्याल़।
कणक्कण फोज जणज्जण काल़।।

रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमा व पुनरुक्तिप्रकाश आदि का सहज प्रयोग वंदनीय है।

उत्प्रेक्षा
खल़ां दल़ कंस विधूसण खीझ।
वीजूजल़ जाण झबूकत बीज।
….
अछै धमगज्र अचाणक वार।
पबै पर जाणक वज्र प्रहार।।

उपमा
चरख्यां चटीठ अंगीठ चख,
पीठ समोवड़ पाल़णा।
….
धर -करोत अवधूत,
बहुत मजबूत महाबल़।
अजब गजब आवाज,
गाज मादल़ त्रामागल़।

हिंगलाजदानजी ने अपने पूर्ववर्ती कवियों का अनुकरण करतें हुए भी अपना काव्य वैशिष्ट्य दर्शाने में सफल रहे। उन्होंने रूढिगत अनुशरण को त्यागकर अपनी निजत्व लिए मौलिक शैली का निर्माण किया। उन्होंने वर्णों को द्वित करने, संबंध कारकों का प्रयोग, ध्वन्यात्मक शब्द बाहुल्य का प्रयोग नहीं के बराबर किया है। उन्होंने यथा स्थान तत्सम शब्दों का प्रयोग कर उन्हें राजस्थानी रंगत में ढाला है तो साथ ही अरबी-फारसी, तद्भव, देशज शब्दों का इतनी सुंदरता व सहजता से प्रयोग किया है कि उससे काव्य की चारूता निखर गई है।

ऐसे दिग्गज कवि ने ‘हिंगल़ाज ‘ की विकट यात्रा भी की थीं। उस यात्रा की याद को चिर स्थाई बनाएं रखने हेतु आपने ‘दुर्गा बहतरी’ की रचना की थी। रचना ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संदर्भ कोश है। सजीव वर्णन किया गया है। ईशरदासजी की ‘देवीयांण’ के बाद अगर देवी-भक्तों के बीच अगर किसी रचनाओं को लोकप्रियता प्राप्त हैं तो इस रचना का स्थान प्रथम है।

ये दोनों रचनाएं अर्थ गांभीर्य, भाव दुरूहता तथा अपने वर्णन वैशिष्ट्य के कारण आम पाठक की समझ से दूर थीं। ऐसे में इन रचनाओं का हृदयस्पर्शी मर्म आम पाठक तक पहुंचे उसके लिए इसका सरलार्थ व भावार्थ होना लाजमी था। लेकिन यह कार्य साधारण समझ के व्यक्ति के बूते से बाहर ही था। लेकिन जहां चाह वहां राह। ऐसे भगीरथ कार्य को संपादित करने के लिए मा करनीजी ने संस्कृत, डिंगल़, पिंगल़, अंग्रेजी तथा हिंदी के उद्भट विद्वान भंवरदानजी रतनू ‘मधुकर’ (खेड़ी) को निमित्त बनाया।

ध्यातव्य है कि भंवरदानजी ने इनसे पूर्व महान भक्त कवि नरहरदासजी के वृहद ग्रंथ ‘अवतार चरित्र’ का भी अद्भुत अनुवाद किया है जो साहित्यनुरागियों के बीच व्यापक फलक पर लोकप्रियता प्राप्त कर चूका है।

इन रचनाओं के हिंदी अनुवादों को पढ़कर निशंक कहा जा सकता है कि श्री रतनू तत्कालीन ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संदर्भों को समझने में प्रावीण्य रखतें हैं।

अवतार चरित्र के विषय में धीरजी बारठ की यह उक्ति जितनी नरहरदासजी पर समीचीन है उतनी ही महाकवि हिंगलाजदान जी पर लेकिन ‘मधुकरजी’ का अनुवाद पढ़ने पर इन पर भी इतनी ही सटीक बैठती है-

दुझल़ झोक रुघवीर नरहर दहूं देखतां,
उकत क्रांमत नखत छित अफारा।
हद हुई लंक रा लहणहारा ज्यूं हिज,
हद हुई ग्रंथ रा कहणहारा।।

यानी जितना उक्ति चातुर्य व वैचित्रयपूर्ण वर्णन हिंगलाजदान जी ने किया है उतनी ही सहजता, सुगमता प्रगल्भता के साथ आपने इन रचनाओं का अर्थ किया है।

ये दोनों रचनाएं हिंदी टीका के कारण पाठकों के लिए चित्ताकर्षक सिद्ध होंगी क्योंकि पाठक इसके मूल भावों को पकड़ने में सहजता महसूस करेगा। मुझे लगता है कि मूल सृजण से अनुवाद का कार्य श्रमसाध्य अधिक है क्योंकि अनुवादक को अनुदित रचना के मूल भावों, सरोकारों तथा संदर्भों तक पहुंचना पड़ता है। इस क्षेत्र में ‘मधुकरजी’ पूर्णरूपेण सफल रहे हैं।

दोनों मनीषियों को मेरा सादर वंदन-

कविया हिंगलाज ! सदी को शिखर पुरूष,
कवि सिरताज जाको सेवापुरा धाम है!!
उक्ति अनुपम वहा !जुक्ति को बखानू कहा,
शब्द को घड़ैया अहो दुनि सरनाम है!!
सुरवाणी मरूवाणी उर्दू पिंगल में पटू,
ग्रंथन को गूढ कोश सुनी बात आम है!!
अलू को वंशज अंशज कवि सागर को,
गुन आगर को कवि गीध का प्रणाम है!!

गिरा ज्ञान गंभीर, सहज फिर सरल़ सभावां।
गरव रहित गुणवान, भक्त हृदय शुद्ध भावां।
बहुभाषी विद्वान, उरां अपणास अथागी।
परापरी सूं प्रीत, इधक पाल़ै अनुरागी।
धिन थान खेड़ी ढुंढाड़ धर, जगत भँवर सह जाणियो।
रतनुवां वंश सारी रसा, अंजस कारज आणियो।

प्रथम तो हिंगलाजदानजी जैसे उद्भट विद्वान की कृति फिर भंवरदानजी रतनू जैसे मनीषी का अनुवाद और फिर मुझ अकिंचन को पाठकीय टिप्पणी करने हेतु आदेश मिलना न केवल असहज कर गया बल्कि लघुता भी महसूस हुई। लेकिन मैं आदरणीय भंवरदानजी के आत्मीय आदेश कि -‘ ईं कै ऊपर तनै ई लिखणो है!’ से मेरी हूंस बढ़ी और उसी हूंस की बदौलत ये हृदय के भाव आप तक पहुंचाएं हैं। इन में से जो कुछ वरेण्य बन सका है तो उसका समग्र श्रेय इन दोनों मनीषियों को जाता हैं और जो कुछ कमी रह गई है वो मेरे खाते में है-

रूड़ो तिको प्रताप रावल़ो,
भूंडो तिको अमीणो भाग।

इति शुभम
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान दासोड़ी, कोलायत, बीकानेर
02/11/2018 [9982032642] 
गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”

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