आज के इस विज्ञानिक प्रतिस्पर्धा के युग (कल युग) मे भले ही कोई माने या ना माने लेकिन गढवी चारण का इतिहास कुच्छ और ही है.
यह चारण (उचारणा देव ) उस अलोकिक महान श्रेष्ठतम् शक्ति जो तीनों लोकों का संचालन करती है, के शब्दनाद उसके मुख द्वारा निकले वच्चन से पैदा हुआ.. यानि कि कोख से नहीं मुख से पैदा हुआ । यह तदन एक खरा सत्य है …..
कि शब्द से सप्तलोक मे कोई वस्तु शक्तिमान नहीं… शब्द आकाश का पुत्र है…आकाश का आंकलन करना असंभव है । शब्दनाद अति शक्तिशाली, स्दैव सर्वत्र विचरने वाली तथा कदापि नष्ट नहीं होने वाली अपने आपमें
एक अद्भुत नाद है…शब्दबाण जिसे लागे लगे वे महान हो गये।
“लागा शब्दों ना बाण”( संत कबीर) हाँ ! यह सत्य है कि शब्द को पकडना अति कठिनत्म् है बोले गये शब्द की गूंज कहां अलोप हुई….इसे कोई विरला संत ही जान सकता है । पुनः संत कबीर कहते हैं कि….
दूध फाटे धृत कहां गया, कांसा फूटा नाद ।
तन छूटे मन कहां गया, जाणे विरला साध ।।
भावार्थ:–अगर दूध किसी कारणवश फट जाये और उसका दही जमा कर बिलोड़ा जाये तो भी उसमें मख्खन(घी ) नहीं निकलता ।कहां अलोप हो जाता है घी? फिर भले ही उसे क्ई दिनों क्यों ना बिलोड़े
इसी भांति… कांसे का बर्तन हाथ से छूट जाए और फर्श पर गिरने की जो रणकार नाद हो वह कहां अलोप हो जाती है एवं तन से छूटा प्राण मन कहां चला जाता है इसे तो कोई आत्मज्ञानी संत ही जान सकता है। तो शब्द जो मैया के मुख से निकला…… उच्चारा…उच्चारणा देव…उत्पन्न हुआ… वही चारण…जिसने उत्पन्न होते ही… पहला शब्द…
उच्चारा…👉 जय 👈
जय माताजी…. यही तो हमारी आज भी पहचान है…जय माताजी बोलते ही अगला व्यक्ति समझ जाता यह कोई देवीपूत है ।
हमें राजा पृथु मृत्यु लोक मे लाया
हम जो कहते, उच्चारण करते वही होता था….चाहे जय बोला या क्षय बोला ….होता वही जो शक्ति पूत उच्चरता । हमें मैया ने दो कार्य सोंपे… पहला तप करना और दूसरा सत्य का उच्चारण करना… बस यही दो काम चारण के…..फिर आज इन दोनों कार्यों
को छोड़…और काम कयों हाथ लिए हमने ? क्या! वो पाठ भूल गये उसका अनुसरण नहीं किया ? कया ! खानपान बदल गया जो दिव्यशक्ति नष्ट हो गई… हो रही ? कया ! काव्यकल्ला- युक्ति- कलम कल्ला छोड़ दी ?
क्या ! मैया हमें तरछोड़ हमारे घरों से चली गई ? क्या ! हम सुपात्र पूत मैया के नहीं रहे ? क्यों ! हमारे घर मैया जन्म नहीं लेती ?
कया ! शिक्षा.. सिष्ठाचार..आचार
विचार.आपसी भाईचारा.तालमेल
सही नहीं ??? वस्तुतः कौनसा दौश पाप लग रहा है.. निंदा, द्वेष, छल कप्ट आदि से ………
हम ग्रसित हैं…क्या ग्रहण लग गया है….तो आइए ! हम सब मिल कर… इन दुविधाओं का…चारण एक्ता मे आई दरारों का….चारणत्व के विशाल बटवृक्ष
पर छाई कुसंग, कुरीति, कुसंम्प, कटाक्ष, कुव्यसन, कुसाहस, कुलक्षणरूपी बेलों का.. (याद रहे सावन भादवा मे कुच्छ ऐसी बेले (वेलड़ियां ) वृक्षों पर छा जाती हैं… जो उसका असली रूप ढ़क देती हैं…जिसे दूरी से पहचान पाना मुश्किल होता है ।ऐसी बेलों को तोड़ फेंक देवें ताकि हमारे वटवृक्ष दीव्य कल्लारूपी विशाल आकार का विश्व आभास कर सके हमें पहचाने । इसके अलावा
हमारे अस्मिता का प्राचीन चारण गढ…जिसकी नींवें गहरी एवं अति मजबूत थीं जिसमें हम सदियों से निवास करते आए हैं…अब पुराना हो गया है…दरारें पड़ गई हैं…ईंटें एक एक कर गिर रही हैं…नींवें हिल गई हैं..
तो आईए ! हम सब मिलकर मानवसागर से मिट्टी लावें…एक्ताभठ्ठी से ईंटें लावें…और…स्नेह सरिता का प्रेम रूपी पवित्र जल मिला पुनः चारण गढ का निर्माण करें ताकि इसे न तूफान गिरा सके…नाकोई सुनमी बाड़ बहा ले जा सके..यह तब संभव होगा जब हमसब आपसी दूरियां, भ्रांतियां त्याग देंगें.. एकता डोरे बंधे समाज हित कार्य करेंगे ।
इति सत्य्म्…शिवम्…सुंदरम् ।
चार नीति गत सोरठा
मिनखां बिचे मोल, तोल व्हे टका सरिख ।
कूड़ा करे कौल, डगमग जीव डोफां तणां ।।
सुघड़ ऊंडी सोच, वेण कहंतां करत विचार
हिवड़ो होचपोच, कायर जीव करे सदा ।।
इसा अवर अनेक, चुगलखोर घेरे चपट ।
टणकी पाले टेक, विरला वीर वचन तणी ।।
क्षिण भर कोनि खेद, भेद पण जाणयो भलो ।
छींके ब्होला छेद, लाधा “आशू” लप्कतां ।।
–आशूदान मेहड़ू जयपुर राज.