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*मेहडू शाखा का परिचय*
 
चारण-साहित्य का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। चारण-कुलोत्पत्र लोकपूज्य देवियों की महिमा तथा सर्वाधिक काव्य-रचना के कारण इस जाति के अनेक पर्यायवाची शब्दों की व्युत्पत्ति में प्रतिष्ठा, पवित्रता एवं प्रवीणता का अर्थ लक्षित है। शक्ति के उपासक चारणों को प्रायः देवीपुत्र, गढ़वी, कविराज, ईहग, भांणव, वीदग (विदग्ध), नीपण (निपुण), सुपात आदि कहा जाता है। चारणों की कुल 120 प्रमुख शाखाओं में अधिकांशतः प्रसिद्ध पूर्वपुरुषों के नाम से प्रचलित हुई। क्षत्रियों की ही तरह कुछ नाम मूल स्थानों के परिचायक रूप में भी प्रयुक्त होते हैं। अपभ्रंश की प्रकृति और इतिहास के अंधकचरे ज्ञान के परिणाम स्वरुप कई शहरों, जातियों, गोत्रों, देवीस्थानों, आदि के भ्रामक, आधारहीन व अनुचित अर्थो मैं नामकरण की रूढ़ परम्परा एक दूसरे की देखादेखी धड़ल्ले से चलने लगी है। राजस्थान में यह विकृति अबाध रूप से चलन में है, जिस पर भाषा वैज्ञानिकों और इतिहास के उद्भट विद्वानों द्वारा पुष्ट प्रमाणों से सत्य अर्थ को प्रकाश में लाने की महती आवश्यकता है।
चारणों की शाखाओं में निम्नांकित नाम उनके प्रख्यात पूर्वजो अथवा आदि पुरुषों के ही सूचक है, यथा— आढा, सांदू, आसिया, देथा, रतनू, लाळस, कविया, संडायच, रोहड़िया, देभल, कनिया, वणसूर, मेहडू आदि-आदि।
मेहडू शाखा का परिचय—
शिव शक्ति द्वारा उत्पन्न विजयपाल (उर्फ-विजमल) के पुत्र का नाम मेहडू चारण प्रसिद्ध हुआ। वंशोत्पति विषयक छप्पय अथवा दोहों में से ये पंक्तियां विशेष पठनीय है—
*वीसहथ तणा त्रण सुत वळे, विजमल आसावर किया।*
*तिंकां नै वंश झालां तणा, करे नेग चारण किया।।1।।*
*ह्रा झाला हरपाळ रा, मेहडू विजलम राह।*
*सगती नेग समापियौ, पूतां पौळ प्रवाह।।2।।*
 
मेहडूजी के पुत्र का नाम केशोजी, पौत्र का नाम खुशालजी और प्रपौत्र का नाम गिरवरदानजी था। उक्त गिरवरदानजी की 10वीं पीढ़ी में ठाकुरसी मेहडू हुए जिन्होंने 7 बार हिंगलाजदेवी के दर्शनार्थ तीर्थयात्राएं की थी। उन्ही ठाकुरसी की 11वीं पीढ़ी में जन्मे सामदत्तजी मेहडू ने थानपिंगल नामक क्षेत्र में 12 गाँवो की जागीर (मुख्य स्थान वदाण्या) फारसीनवीस होने के कारण नवाब हैदर महमद से प्राप्त की। निस्संतान थे, उनके छोटे भाई हरराज का वंश थानपिलंग में विद्यमान हैं। हरराजजी मेहडू की छोटी बहन जेतबाई के शरीर पर हिंगलाजदेवी का सिक्का अंकित था तथा उन्होंने भक्तिभाव से समाधि ली। उल्लेखनीय है कि उक्त हरराजजी की 11वी पीढ़ी में गंगाधरजी मेहडू हुए जिन्होंने संभजग्य (शंभयज्ञ) कर लंके ब्राह्मणों को वर्षड़ा आदि 7 गांव दान दिये। इसी पुण्य परम्परा के अनुसार उक्त गंगाधरजी मेहडू के पुत्र का नाम शंकरजी तथा पौत्र का नाम नाराणोजी (नारायणजी) था। जिन्होंने कर्नाटक के नवाब गोसमैंमद से प्राप्त तीन गांव कसारा घाटी देस में सेतुबन्ध रामेश्वरजी के सदावर्त पेटे अर्पित कर दिए— (1) नाना खैड़ों (2) हरणगाम (3) चोपड़ों।
भक्त कवि नारायणा जी नेहरु के छोटे भाई मैंने इधर राज्य यंत्र गांव कंजली तथा बाद में मेवाड़ में गांव वाली जागीर में पाया। मेंळगजी मेहडू की छठी पीढ़ी में प्रसिद्ध कवि-मनीषी लूणपाळजी मेहडू हुए (जो सिरजणहारजी के पुत्र एवं सतीदानजी के पौत्र थे) प्रख्यात कवि लूणपाळ मेहडू ने तैमूरलंग बादशाह से 12 विरुद का सम्मान पाया था। लूणपालजी मेहडू के बहु आयामी व्यक्तित्व एवं सम्मान का परिचायक यह प्राचीन छप्पय पठनीय है। यथा—
*सूरवीर अणभंग, वळे दाता सतवादी।*
*सरणायां सधार, देग अणखूट सिवादी।*
*पंडित लंगरबंध, वाक्यसिद्धि वरदाईक।*
*ब्रमग्यांनी द्र्ढकाछ, कविन्द कथ अगम कहाईक।*
*ब्रद तिवरलंग पतसाह सूं, लुणपाळ बारह लिया।*
*तिण दीह वंस महडू तणा, बारह विरद कहाविया।।*
 
लंगरबंद का वीरुदधारी लूणपालजी मेहडू एक महान योद्धा भी था, जिससे पूर्व के जाटों पर विजय प्राप्त की थी। लूणपालजी जैसे प्रबल पराक्रमी चारण कवि के पुत्र का नाम संग्रामसिंह, पौत्र का खंगारसी और प्रपौत्र का नाम सामलदासजी था। सामलदासजी मेहडू अत्यन्त प्रख्यात कवि थे, जो कविता में अपना नाम सारंगधरजी लिखते थे। उनका विवाह ककू भगू के आसिया झींथारामजी की सुपुत्री फूलबाई के साथ हुआ था। मारवाड़ के राव रिणमल (राव जोधाजी के पिता) ने उक्त विद्वान सारंगधरजी (उर्फ सांमलदासजी) को संवत् 1484 चैत्र सुदि 10 रविवार के दिन बहुत शानदार रीझ से सम्मानित किया था। उसकी साक्षी का छप्पय प्रस्तुत है-
*दिया कड़ा मुंदड़ा, मतंग मोताहळ माळा।*
*पंचे भिड़ज आपिया, सरस् वाल रा सिघाळा।*
*चूंडावत वड चीत, रीत परियां रखवाळो।*
*वीरमहर वडवीर, अलंग वंस रौ उजालो।*
*चवदैसै समत चौरासिये, चैत मास रिव दसम नै।*
*रिणमाल मौहर करदां रिघू, सुज मैहडू सांरग नै।।*
 
इतिहास से यह प्रमाणित तथ्य है कि राव रिणमलजी (जो चूडाकी के पुत्र और वीरमदेव के पौत्र थे) का संवत् 1484 वि. में मारवाड़ की राजधानी मंडोर पर अधिकार हो गया था। जो आगे भी कई वर्षों तक बराबर रहा। अतः उपयुर्क्त छप्पय ऐतिहासिक दृष्टि से सही है। उन्ही सामलदासजी (उर्फ सारंगधरजी) के तीन पुत्र हुए- (1) जाडोजी मेहडू (2) जोधोजी ओर जैवंतजी। जाडोजी मेहडू मध्यकालीन अत्यन्त प्रसिद्ध, प्रभावशाली ओर प्रतिभा सम्पन्न कवि-मनीषी थे। महाराणा प्रताप और बादशाह अकबर के समकालीन सर्वाधिक प्रख्यात और प्रज्ञ चारण सुकवि हुए, जिनमें लखाजी बारहठ, दुरसाजी आढा, जाडोजी मेहडू, मालाजी सांदू, सांइया झूला, माधोदासजी दधवाड़िया, ईसरदासजी बारहठ, अलूजी कविया, भीमाजी आशिया, मथुरादासजी देथा, कुसललाभ (गाँव सिरुवा जैसलमेर का रतनू था, जिसने जैन धर्म की दीक्षा ली) इत्यादि विशेष उल्लेखनीय है। जाडोजी मेहडू का शरीर भारी भरकम (जाडा) होने के कारण प्राय लोगों ने जाडोजी कहकर पुकारते थे। जाडोजी का असली नाम में मेहकरण मेहडू था। महान कवि रहीम खानखाना कृत जाडोजी मेहडू की प्रशंशा में रचित यह दोहा आज भी प्रशिद्ध है।
*धर जड्डी अंबर जडा, जड्डा मेहडू जोय।*
*जड्डा नाम अल्लाह दा, अवर न जड्डा कोय।।*
 
आगरा में बादशाह अकबर के शाही दरबार में 70 खान और 72 उमराव सभी को खड़ा रहना पड़ता था। खड़े व्यक्तियों के सहारे के लिए सभागार की छत में लोहे अथवा पीतल की छोटी-छोटी गोलाकार कड़ियां में लच्छेदार रेशमी डोरियाँ लटकती रहती थी, जिनमें एक हाथ (दाएं अथवा बायें) से सुविधानुसार पकड़ कर राहत महसूस की जाती थी। जाडोजी मेहडू के भारी बदन के लिए खड़ा रहना कष्टप्रद कार्य था अतः उन्होंने एक दिन बादशाह अकबर को यह सोरठा सुनाया और जाजम पर बैठ गये–
*पगां न बळ पतसाह, जीभां बळ जाचक तणो।*
*सुण हो अकबर साह (म्हेतौ) बैठा हि बैठा बोलस्यां।।*
 
जाडोजी मेहडू की प्रसिद्धि, प्रभाव और पांडित्य के कारण मेवाड़ के जहाजपुर परगने के 84 गांवो में प्रमुख सरसिया नामक गांव का स्व-शासन जागीर के रूप में प्राप्त हुआ, जो आज भी उनके वंशजों के अधिकार में है। महाराणा प्रताप के प्रमुख प्रेरणा स्रोत कवियों में जाडाजी मेहडू भी अग्रणी थे। उनके रचे गीत में महाराणा प्रताप की छात्रधर्म के प्रति अडिकता का कथन दृष्टव्य है। यथा-
*हाथीबंध घणा घणा हैमरबंध, कसूं हजारी गरब करौ।*
*पातल रांण हसै त्यां पुरसां, भाड़े महळा पेट भरौ ।।1।।*
*सिंधुर किसा किसा तो साहण, सोना किसा किसा सिर सूत।*
*साह सबळ ले अबळ समापै, रांणो कहै किसा रजपूत ।।2।।*
*बाजा किसा किसा त्यां बाजंद, मदझर किसा किसा त्यां मांन।*
*पग गहलोत गिणे नह सुपहां, नर ते असुर किया नर मांन ।।3।।*
*सांगाहरा साह अकबर सूं, सिंघ खड़ाक सुरद खग साय।*
*पत सीसोद न मांनै सुपहां, धी त्रिय ले पग लागै धाय ।।4।।*
जाडोजी के छोटे भाई जोधोजी को मारवाड़ के राव सूजा के पुत्र ऊदाजी (जिससे राठौड़ों में उदावत शाखा चली) ने संवत् 1585 में जोधावास गांव जागीर में इनायत किया और उन्हें भाई कह कर सम्मानित किया। उसी विषय का एक सोरठा और छप्पय प्राचीन हस्तप्रति से मिला है। यथा-
*वद श्रीमुखसूं वांण, कमंध ऊद भाई कहै।*
*जोधा रौ घण जांण, विध विध मांन वधावियौ।।*
*छप्पय*
*आठ करह दस तुरंग, दोय सिरपाव अमांमा।*
*कंठा मोती कड़ा, सुरंद बगासिया समांमा।*
*लिखणो दोय हजार, कमध ऊपजितौ कीधो।*
*अपदत्तं परदत्त, गांम जोधावस दीधौ।*
*पनरासौ समत पिचियासियै, दांन जरू सांसण दियौ।*
*सूजा सुजाव ऊदै सुरिंद, कविंद जोध मोटो कियौ।।*

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