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भारतीय स्वातत्रय संग्राम में जिस प्रकार के अपूर्व शौर्य और त्याग की साक्षी दी गई थी आज उसी के एक सुनहरे प्रसंग का अनावरण इस मार्ग में होता है । जिस गौरव एवं अपूर्व साहस के साथ यह भूमिका अदा की गयी, वह आज एक प्रकार से विस्तृत होते हुए भी भविष्य में हमारे इतिहास में चिरंतन प्रेरणा का स्त्रोत रहेगी। सच तो यह है कि किसी ज्योति शिखा को अंधकार कब तक छिपा कर रख सकेगा? सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मातृभूमि भारत को आजाद कराने के लिये सर्वस्व की आहुति देने वाले देशभक्त ठा. जोरावरसिंह बारहठ की वीरता और कुर्बानी की कहानी यद्यपि आज का युग एवं समाज कई कारणों से भूल चुका है परन्तु जिस समय कभी स्वतंत्र भारत का सच्चा इतिहास लिखा जायेगा, ऐसी ही अनजान विभूतियां देश एवं राजस्थान का मस्तक ऊंचा करेंगी क्योंकि यही वह महान् देश भक्त था जिसने तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग पर चांदनी चौक में सन् 1912 में बम्ब फैका था और यह आयोजन केवल कोई धमाका अथवा विस्फोट मात्र करने के लिये नहीं था। परन्तु ब्रिटिश साम्राज्यशाही की जिस अजयता को देखकर भारतीय समाज का मानस हमेशा के लिये पराधीनता के रसातल में डूबा जा रहा था उसे यह बताकर सजग करना था कि अंग्रेज अजय नहीं है। हम अपनी स्वाधीनता इनसे क्रांति के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं और विश्व को यह प्रकट करना था कि भारतीय भी अब अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को चुनौती दे सकते है । क्रांतिकारी आंदोलन का यही ध्येय था । वस्तुतः इतिहास में कितने लोगों ने ऐसे चरम साहस का कार्य किया होगा । जोरावरसिहंजी का जन्म विक्रम 1940 भाद्रपद शु . पक्ष दसमी तदनुसार 12 सित . सन् 1883 को उदयपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम था ठाकुर कृष्णसिंह बारहठ, जो तत्कालीन राजस्थान के माने हुए विद्वान और सभी नरेशों द्वारा सम्मानित थे।

कृष्णसिंहजी के तीन पुत्र थे – देशभक्त ठाकुर केसरीसिंह (कोटा ), इतिहासवेत्ता किशोरसिंह बृहस्पत्य और धीर जोरावरसिंह इनकी पैतृक जागीर, ग्राम एंव हवेली शाहपुरा मेवाड़ में थी। श्री जोरावरसिंह का बाल्यकाल उदयपुर में व्यतीत हुआ और शिक्षा भी वहीं प्रारम्भ हुई। लेकिन जब श्रीकृष्णसिंह महाराजा जसंवतसिंहजी के पास जोधपुर चले गये तो बालक जोरावरसिंह भी जोधपुर चला गया और वहीं पर ही उनकी शेष शिक्षा दीक्षा हुई। कृष्णसिंहजी के स्वर्गवास के बाद महाराजा सरदारसिंहजी ने उन्हें उसी वेतन एवं के साथ जोधपुर में महारानीजी के कामदार के रूप में रख लिया। श्री जोरावरसिंह का विवाह कोटा रियासत के ग्राम अतरालिया के ठाकुर तख्तसिंहजी की पुत्री अनोप कंवर के साथ हुआ था। युवावस्था में पांव रखने के कछ समय बाद ही श्री जोरावरसिंह ने अपने आपको देश की आजादी के लिये क्रांतिकारी आंदोलन में पतंग की तरह फेक दिया। साथ में थे उनके भतीजे अमर शहीद प्रतापसिंह और बड़े भाई देश भक्त केसरीसिहं बारहठ, जो राजस्थान में स्वाधीनता आंदोलन के प्रथम उन्नायकों में से थे। इस प्रकार एक ही परिवार ने तीन देश भक्त मातृभूमि को समर्पित किये। सन् 1912 में जब भारत की राजधानी नई दिल्ली बदलने को योजना बनाई गई तो यह आयोजन किया गया कि वायसराय लार्ड हार्डिग का नवनिर्मित दिल्ली स्टेशन पर स्पेशल ट्रेन से उतरते ही सभी देशी। राजाओ. फौजी, अधिकारियों, गवर्नर आदि द्वारा शाही स्वागत हो,अभूतपूर्व शान शौकत पूरे फौजी लवाजमे के सा जुलूस को देखने शान शौकत के साथ वायसराय एंव वायसरीन हाथी पर बैठकर लवाजमे के साथ राजधानी दिल्ली में प्रवेश करें। इस अभुतपूर्व जुलूस को देखने के लिये देश के कोने – कोने से लाखो नर – नारी इकठ्ठे हो कर दिल्ली में जमा हो गये थे और एक ऊंचे हाथी पर, जो सोने का छत्र लेकर बैठा था बलरामपुर राज्य का जमादार महावीरसिंह। ज्योंहि यह शाही जुलूस सम्पूर्ण सैनिक, दल बल एवं देश भर के राजा नवाबों, सर्वोच्च सैनिक एवं सिविल अधिकारियों के साथ चांदनी चौक पहुंचा तो कुछ ही क्षणों में एक गगनभेदी धमाका हुआ और वायसराय के हाथी पर बम्ब फूटा जिससे वायसराय काफी घायल होकर बाल बाल बच गये और जमादार महावीरसिंह का वही प्राणांत हो गया। यहीं पर चांदनी चौक में एक इमारत की गैलेरी से, जहां महिलाएं ही महिलाएं बैठी थी, बुर्का ओढ़ कर अपने साथ बम्ब लेकर जोरावरसिंहजी बैठे थे और उनके साथी एवं भतीजे कुंवर प्रतापसिंह सीढ़ियों के नीचे खडे थे। जैसे ही वायसराय का हाथी सामने आया जोरावरसिंह ने बम्ब फेका लेकिन एक महिला के हाथ का किंचित धक्का लग जाने के कारण थोड़ा सा निशाना चूक गया। वायसराय घायल होकर बच गये। मुल्जिम को पकड़ने के लिये ब्रिटिश सरकार और सभी देशी राज्यों ने लाखों रूपयों के इनामों की घोषणा की । दिल्ली और समीपवर्ती क्षेत्र में ब्रिटिश पुलिस का जाल बिठा दिया गया। स्काटलैंड यार्ड से एक्सपर्ट बुलाये गये। लेकिन मुल्जिम भाग निकला और आजन्म पकड़ा न जा सका। इस घटना के 27 – 28 वर्ष बीत जाने के बाद वह स्थान दिल्ली में स्वयं जोरावरसिंहजी ने अपनी चौदह वर्षीय पौत्री राज्यलक्ष्मी देवी को बता धीरे से कहा था “यह वह जगह है जहाँ से मैने बम फेका था। जोरावरसिंहजी इस घटना के बाद आजन्म फरार रहे और फरार अवस्था उन्होंने इतने वर्षों बाद यह बात कही थी। बम फेकने के बाद ये प्रतापसिंह तथा उनके अन्य साथी तितर बितर हो गये। बाद में दिल्ली ‘केस का प्रसिद्ध मुकदमा चलाया गया। दिल्ली में कांतिकारी दल के प्रमुख मास्टर अमीरचंद अवध बिहारी बालमुकुंद एंव बसंत कुमार विश्वास आदि को फांसी की सजा हुई लेकिन जोरावरसिंह पकड़े नही जा सके। भारत में इस क्रांति के एवं विप्लव के नेता थे रासबिहारीजी अर्जुनलाल सेठी जी एवं ठाकुर केसरीसिंहजी, राव गोपालसिंह खरवा। सशस्त्र कांति के लिये अर्जुनलाल सेठी के चार शिष्य मोतीचन्द, छोटेलाल आदि जो सभी जैन एवं जोरावरसिंह शामिल थे| इनमें से एक को सरकार ने एप्रवर बना लिया एवं अन्य को फांसी दी गयी। परन्तु श्री जोरावरसिंहजी गिरफ्तार नहीं हो सके और आजन्म फरार रहे। अंग्रेजो की सशस्त्र एंव खुफिया पुलिस के जाल से किस साहस, बुद्धि , चातुर्य और धीरज के साथ उन्होंने अपने आपको बचाया होगा यह कहने से अधिक सोचने की बात है। अंत में 1937 में एक बार वे किसी देशद्रोही के विश्वासघात से उदयपुर में गिरफ्तार कर लिये गये तो महाराणा स्वंय बग्गी में बैठकर घूमते हुए उन्हें देखने निकले क्योंकि वे बचपन में साथ साथ खेल चुके थे और उन्हें ‘ जोरावरसिंह के लिये बहुत लिहाज था। आखिर वे अमरसिंह नाम के सीतामऊ राज्य के कोई छुट भाई जागीरदार मान कर छोड़ दिये गये। श्री जोरावरसिंह की फरारी अवस्था का अधिकांश समय मालवा के सीतामऊ एकलगढ ‘ एवं समीपवर्ती बीहड़ जंगलो और दुर्गम घाटियों में व्यतीत हुआ व  कई दिनों तक भूखे प्यासे श्मशानों में छिपे रहे, पलिस द्वारा घेरा डालने पर रस्सियों द्वारा मकान से मकान कुद कर जंगलों में भाग जाना पड़ता। इन सब विपत्तियों को उन्होंने एवं उनकी धर्मपत्नी अनोपकंवर ने एक असीम उत्साह व दिलेरी के साथ सहा। लेकिन सर्वस्व गंवा बैठने के बाद भी जोरावरसिंहजी के मन पर कभी कुंठा नहीं आई। उनका स्वभाव अत्यंत सरल एवं प्रकृति उदार थी। एक बार ब्रिटिश सरकार के जासुस को उनके बारे में पता चला कि वे सीतामऊ रियसातम में कही रह रहे हैं है। तो सीतामऊ महाराजा रामसिंहजी ने उन्हें संदेश कहलवाया ब्रिटीश पुलिस उनका पीछा कर रही है  अत : वे उनका राज्य छोड कर ही अन्यत्र चले जाये। इस पर उन्होंने एक संदेशवाहक के साथ महाराज को रहीम का यह दोहा लिख भेजा :-

सर सुखे पंछी उडै, औरहिं सर ठहराय।
मच्छ कच्छ बिन पन्छ के, कहो रहीम कित जाय।

विद्वान एवं गुणज्ञ महाराजा ने इसके बाद उनको कभी कुछ नहीं कहलवाया और वे विभिन्न नामों से मालवा के ग्रामों में भ्रमण करते रहे। अतं में जब सन् 1937 में ब्रिटिश भारत में कांग्रेस सरकारें बनी तो बिहार सरकार के मुख्यमंत्री बाबू श्री कृष्णसिंह और गृहमंत्री अनुग्रह नारायणसिंह से श्री जोरावरसिंह के विरूद्व आरा केस में जारी हुए वारन्ट को रद्द कराने हेतु ठाकुर केसरीसिंह एवं उनके मित्र बाबू पुरूषोत्तमदास टंडन ( भारत रल ) ने प्रयत्न किया। लेकिन विधाता की कैसी विडम्बना थी कि जिस दिन जोरावरसिंह के विरूद्व जारी हुए वारन्ट में रद्द होने की सूचना दैनिक पत्रों में प्रकाशित हुई उसी दिन निमोनिया से ग्रसित होकर कुछ दिन की बीमारी के बाद आश्विन शुक्ला पंचमी सन् 1939 को कोटा अतरालिया की हवेली में हमेशा के लिये वह महान देशभक्त अनन्त का गोद में समा गया ।

–महेंद्रसिंह चारण
संपादक
चारणत्व मेगज़ीन
उदयपुर

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