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(आत्मा जोगी छे, मन भोगी छे। ज्यारे आत्मभाव जाग्रत थाय छे, त्यारे निज ना साचा स्वरूप नी ओञख थाय छे। ऐवा निजतत्व ने जाग्रत करवा आह्वान करतु काव्य……)

।। जाग हवे तुं, जाग रे जोगी।।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….
तन नी व्हाली आञस छोडी, मन नी मांह्यली ममता तोडी।
गाइ ले अलख राग रे जोगी।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….
* क्यां सुधी फांफा, क्यां सुधी फांका ।
जनम राज नो, लखणे रांका।
हञवी हाल्युं तने न सोहे, दोट मेली ने भाग रे जोगी।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….(1)
* खंजवाञी ने जखम खोतरे।
आनंद नामे पीड़ा नोतरे।
खंधा धंधा मेल ने पडता, तारे मारग लाग रे जोगी।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….(2)
* पञ एक नी नहीं आश सांस नी।
बञते जंगल कुटिया घास नी ।
काजञ कोटडी जोजे न लागे, धोञे अंचञे दाग रे जोगी।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….(3)
* पराइ पंचाते खुद ने खोयुं ।
मन ना वमञे मन ने मोयुं ।
मन मर्कट छे बंधन कारण, ऐना न होय चाग रे जोगी।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….(4)
* तरवा मरवा नी मेल त्रूष्णा।
धुबाको कर जपती रषणा ।
*जय* घट भीतर उछञे मोजा, आनंद प्रेम अताग रे जोगी।
जाग हवे तुं, जाग रे जोगी…….(5)
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-कवि : जय – जयेशदान गढवी

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