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त्यागमूर्ति श्री गणेशदास जी विक्रमी संवत १९३३ फाल्गुन शुक्ला पंचमी को जयपुर में ब्रह्मलीन हो गए थे। इन्हे अपने निर्वाण से ऐक दशक पहले नेत्र व्याधि होकर दृष्टि सम्पुर्णतः बंद हो गई थी तथा संसार असार हो गया था। इन्है अल्लूनाथजी का इष्ट था तथा वे कभी कभार जसराणा उनकी समाधि पर भी जाया करते थे। एक बार अकस्मात वे अल्लूजी को याद करने लगे और येन केन जसराणा समाधि पर पहुंच कर भाव विभोर होकर अरदास करने लगे। इस घटना का विवरण जोगी दान जी कविया ने अपनी पुस्तिका “त्यागमूर्ति श्रीगणेशदासजी” में भी किया है जिसकी भूमिका विद्याभूषण श्रीहरिनारायणजी जयपुर ने लिखी। वे लिखते हैं किः…..

“कुछ समय बीतने पर गणेशदासजी गांव जसरांणा के पास आये जहां प्रसिध्द संत चारण अलूजी का स्थान था, जिनका कि भक्तमाल में भी “अल्हूजी” नाम से आख्यान है। किसी कारणवश गणेशदास जी के नेत्रों में जाऴा पङ गया था और उनकी दृष्टि बंद हो गयी थी, उन्होने अलूजी का आश्रय लिया। बहुत प्रार्थना करने व अनशन व्रत धारने पर उनको आकाशवाणी हुई कि तेरे नेत्र दिव्य हो जायेंगे। इतना कहते ही आँखों का जाला हटकर सूझने लग गया।

।।सप्तम् सर्ग।।
वे एक दिन यौं घूमते ही,
गांव जसराणे गये।
जिस स्थान पर अनुपम अलूजी,
सिध्द थे प्रगटित हुये।

श्रीमान सिध्द गणेश को भी,
देह दुख सहना पङा।
युग चक्षु के भीतर अचानक,
स्थूल जाला आ पङा।

बैठे रहे निस्तब्द से कुछ,
काल सोच विचार में।
आई अचानक याद उनको,
क्रिया यह उपचार में।

उठ कर अलू के चरण मंदिर,
की तरफ वो चल पङे।
तत्काल निश्चित स्थान पर,
वे हो गये जाकर खङे।

अत्यन्त करूणापूर्ण शब्दों,
में करी आराधना।
हे सिध्द।मेरा कार्य तुमको,
ही पङेगा साधना।

कह कर प्रदक्षिण में उन्होने,
झट पदार्पण कर दिया।
आकिश भाषित रूप में तब,
सिध्द नें यह वर दिया।

जाओ, तुम्हारी आँख निर्मल,
मुकर सम हो जायेगी।
माया मयी संसार की ममता,
नहीं छू पायेगी।

आकाश-वाणी अलू की जब,
सुनी सिध्द गणेश ने।
बस विदा उस ही समय ले ली
युग दृगों के क्लेश ने।

~जोगीदानजी कविया।।

प्रस्तुति- संप्रेषण: राजेंद्रसिंह कविया संतोषपुरा सीकर (राज.)

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