धाट पारकर बोलियों पर विमर्श करने के लिए एक ऐसे समूह की आवश्यकता थी जो केवल इस विषय पर परिचर्चा करने के लिए प्रतिबद्ध हो, का गठन करने के लिए भाई रतनदान बधाई व प्रशंसा के पात्र है…!
वह संस्कृत भाषा जिसमें वेद लिखे गये है, वह भाषा जो उपनिषदों की भाषा है, जिस भाषा में अभिज्ञानशाकुंतलम जैसे नाटक लिखे गये हो, जिसमें मेघदूत जैसे महाकाव्य रचे गये हो, वो भी ख़त्म हो सकती है तो धाट पारकर तो महज बोलियाँ है जिनका अपना कोई लिखित साहित्य नहीं है, दर्शन नहीं है, स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है उनका विलुप्त होना अधिक संभव है अत: हमें उनके प्रति सतर्क होने की आवश्यकता है।
किसी भी विचार या शिल्प को बनने में वर्षों का समय लगता है, किंतु नष्ट होने में बहुत कम समय लगता है यथा- कोई मूर्तिकार किसी मूर्ति को बनाने में एक दिन का समय लगाता हो पर उसे नष्ट एक मिनट में किया जा सकता है इसी प्रकार
हमारी बोलियों को पुष्पित-पल्लवित करने में हमारे पूर्वजों का वर्षों का परिश्रम लगा है उसे यूँ छोड़ना हमारा दुर्भाग्य होगा।
हमारे पास हमारी विरासत के नाम पे ,अस्मिता के नाम पे केवल हमारी बोलियाँ ही है इसी लिए इन्हें बचाना परम आवश्यक है।
अभियांत्रिकी का विद्यार्थी होने के नाते मैंने पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव को समीप से महसूस किया है। मेरे महाविद्यालय में प्रतिवर्ष कई सांस्कृतिक उत्सव आयोजित किये जाते हैं जिनमें Asia’s Best disc jockey व Bollywood के अनेक Singers perform कर चुके हैं किंतु मुझे उनसे अधिक आनंद लोक गीतों को सुननें में आता है।
साहित्य पढ़ना मेरी अभिरुचि है अत: मैं खाली समय में हिंदी साहित्य पढ़ता हूँ कभी उर्दू के किसी शायर को पढ़ता हूँ, अंग्रेजी के एक दो poets को यदा कदा पढ़ता हूँ किंतु मुझे जिस अलौकिक साहित्यिक आनंद की अनुभूति मारवाड़ी दोहों में होती है वो अकथनीय है। एक दो दोहे में यहाँ उद्धृत भी करना चाहूँगा-
साजन आवतां देख, मैं तोड़ दियो गल हार।
लोग जाणे मोती चुगां, मैं झुक झुक करूं जोवार।।
इस दोहे के कथानक में प्रेम की अभिव्यक्ति व नारियों पर सामाजिक प्रतिबंध तथा विवशता का अद्भुत समन्वय है।
इसी ढंग का एक और दोहा-
ओछी वीरख अपड़ा नहीं, लाम्बी लाज मरां।
साजन धोरे ढळे गेया, ऊभी अरज करां।।
यह दोहा हरियाणवी व भोजपुरी के हजारों अश्लील गानों पर भारी है।
जब कभी भी मैं मन बहलाव के लिए youtube पर विचरण करता हूँ तो मेरी दृष्टी Rock music, pop music के इतर सदीक खान व कुटल खान के गानों को ढूंढ़ती है।
निसंदेह हमें अपनी बोली के अतिरिक्त भारतीय व विदेशी भाषाएँ सीखनी चाहिए वो हमारे व्यक्तित्व में निखार लाती है, हमें विश्व की अन्य संस्कृतियों को समझने का अवसर देती हैं किंतु हम अपनी भाषा को हीन समझ कर अंग्रेजी या अन्य भाषाएँ सीखें तो यह अच्छी बात नहीं है।
हम अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाएँ सीख सकते हैं अपनी भाषा इसमें सहायक होगी क्योंकि एक स्थापित तथ्य है कि यदि कोई व्यक्ति द्विभाषी है तो व बहुभाषी आसानी से हो सकता है।
आज विज्ञान में नित नये अविष्कार हो रहे है, नित नई तकनीकें आ रहा है, हम भौतिक उन्नति कर रहे हैं, निसंदेह हमें बेहतर जीवन निर्वाह के लिए समय व तकनीकी के साथ कदमताल करना होगा पर इसका आशय यह नहीं हम अपनी संस्कृति को विस्मृत कर दें।
तो आइए अपनी बोली को आने वाली पीढियों के लिए बचायें ताकि कल कोई युवक जब अपने गाँव से दूरस्थ किसी अभियांत्रिकी महाविद्यालय की आधुनिक उपकरणों से युक्त प्रयोगशाला में अपने आप को भौतिक रूप से घिरा हुआ बल्कि मानसिक रूप से अकेला महसूस करेगा तो हमारी
संस्कृति का आस्वादन कर अपनी थकन दूर कर सकेगा।