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जिसने जन-जन की पीड़ा को,
निज की पीड़ा कर पहचाना।
सदियों के बहते घावों पर,
मरहम करने का प्रण ठाना।
महलों से बढ़कर झौंपड़ियां,
जिसकी चाहत का हार बनी।
संग्राम किया नित सत्ता से,
वो कलम सदा तलवार बनी।
वो गीत चिरंतन गाने वाला,
है कहां विप्लवी युगचेता।
भव का नव निर्माण कराने को,
जो शंखनाद कर बल देता।
शोषण की सबल दीवारों के,
उड़ जाने का उद्घोष किया।
उन्मुक्त मुक्ति की अंगड़ाई,
लेते मानव को जोश दिया।
उस रक्त मसी से लिखने वाले,
कवि को पुनः बुलाता हूं।
मैं मानवता के प्रबल पुजारी,
को आवाज लगाता हूं।
हे मालदान! हे देपावत!
हे मनुज! मेरा आह्वान सुनो।
तुम आकर फिर से अवनी पर,
कवि-कर्म चुनो! कवि-धर्म चुनो।।
~~डाॅ गजादान चारण “शक्तिसुत”

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