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तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलंबन !

जहाँ श्वास की हर सिहरन में, आहों के अम्बार सुलगते !
जहाँ प्राण की प्रति धड़कन में, उमस भरे अरमान बिलखते !
जहाँ लुटी हसरतें ह्रदय की, जीवन के मध्यान्ह प्रहर में !
जहाँ विकल मिट्टी का मानव, बिक जाता है पुतलीघर में !
भटक चले भावों के पंछी, भव रौरव में पथ बिसार कर !
जहाँ ज़िंदगी साँस ल़े रही महामृत्यु के विकट द्वार पर !
वहाँ प्राण विद्रोही बनकर, विप्लव की झंकार करेंगे !
और सभ्यता के शोषण के सत्यानाशी ढूह गिरेंगे !
मुक्त बनेगा मन का पंछी तोड़ काट कारा के बंधन !
तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलंबन !

तुम कहते संतोष शांति का, महा-मूल-मन्त्र अपना लूँ !
जीवन को निस्सार समझकर, ईश्वर को आधार बना लूँ !
पर शोषण का बोझ संभाले आज देख वह कौन रो रहा !
धर्म कर्म की खा अफ़ीम वह प्रभु मंदिर में पड़ा सो रहा !
कायर रूढ़िवाद का क़ैदी, क्या उसको इंसान समझ लूँ !
परिवर्तन-पथ का वह पत्थर, क्या उसको भगवान समझ लूँ !
मानव खुद अपना ईश्वर है, साहस उसका भाग्य विधाता!
प्राणों में प्रतिशोध जगाकर, वह परिवर्तन का युग लाता !
हम विप्लव का शंख फूँकते, शत-सहस्त्र भूखे नंगे तन !
तुम कहते संघर्ष कुछ नहीं, वह मेरा जीवन अवलंबन !

~कवि स्व. मनुज देपावत

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