पान के काज गयो गजराज,
कुटुम्ब समेत धस्यो जल मांहीं।
पान कर्यो जल शीतल को,
असनान की केलि रचितिहि ठाहीं।
कोपि के ग्राह ग्रह्यो गजराज,
बुडाय लयो जल दीन की नांहीं।
जो भर सूँड रही जल पै तिहिं,
बेर पुकार करि हरि पाहीं।।
पोढे हुते सुख सेज पै नाथ,
अनाथ की टेर सुनी जब जागै।
आतुर संग तज्यो कमला,
पट पीत बिसारि पयोदेहि भागै।
बाँह तो बाम तैं ऐंच लई गज,
दक्षिण चक्र लै छैद्यो अभागै।
जय जयकार भई तिहि बार,
उबारन बारन बार न लागै।।
श्री तँह चित्त विचार कियो जु,
कहाँ मम प्राण अधार पधारे।
मोहि तजी पट पीत तज्यो,
खगराज तज्यो पगत्राण बिसारे।
प्यारो हुतो चलि जापै गये,
अभिमान वृथा मन मे हम धारे।
सोचत यों जयकार सुन्यो तब,
जान परी गजराज उबारे।।
अकास सभी सुर वृन्द अमन्द,
प्रसन्न प्रसून तभी बरसावत,
गिरिन्द मुनिन्द करै सुख कन्द के,
कीरति गान हिये हरसावत,
रसा पर भक्तन राशि अनन्दित,
दुष्ट निकन्दन के गुण गावत।
छुटाय पनाही गयंन्द के फन्द,
गुविन्द गुनाही गिराह गिरावत।।
भक्तिमति समानबाई सुपुत्री रामनाथजी कविया सटावट, मत्स्य की मीरां के नाम से सुविख्यात थी व भगवान की अनन्य भक्त थी। समानबाई के भजन व पद सूर के पदो के बराबर उच्च कोटि के हैं और समानबाई के मंगलगीत जो कि विवाह व मांगलिक वेला में सम्पुर्ण राजस्थान के चारण समाज में मातृशक्ति द्वारा गाये जाते हैं यह उनकी समाज को अमूल्य देन और थाती है।
प्रेषित: राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा सीकर)