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भव का नव निर्माण करो हे !
यद्यपि बदल चुकी हैं कुछ भौगोलिक सीमा रेखाएँ;
पर घिरे हुए हो तुम अब भी इस घिसी व्यवस्था की बोदी लक्ष्मण लकीर से !
रुद्ध हो गया जीवन का अविकल प्रवाह तो;
और भर गया कीचड़ के लघु कृमि कीटों से गलित पुरातन संस्कृति का यह गन्दा पोखर !

और उड़ चले रजत-पंख के राजहंस तो,
फिर भी जिसमें छप-छप करती बूढ़ी बतखें तैर रही हैं !
टर्राते हैं बचे-खुचे कुछ दुर्बल दादुर !
इस पोखर के अवगाहन का मोह छोड़कर,
नवल सांस्कृतिक सिन्धु संतरण आज करो हे !
नूतन निर्माण करो हे !

चर्वित-चर्वण रीति-नीति की खा अफीम तुम, ऊंघ रहे हो इस पीनक में !
इधर मृत्यु के महापुंज से नई ज़िंदगी जूझ रही है !
और गूँजते युग-निर्माता नए राग ये !
इन रागों में वार-वधू के नूपुर की झँकार नहीं है !
संघर्षण है ये तो शत शत संघर्षों के !

और खुल रहे मनुज-मुक्ति की नगरी के फिर सिंह-द्वार भी !
बदल रहे विश्वास पुराने !
अरे तृषा की इन घड़ियों में कितने शंकर गरल पान कर रहे निरंतर !

लोक युद्ध की इस वेला में तुम भी मुक्ति प्रयाण करो हे !
भव का नव निर्माण करो हे !

~~कवि स्व. मनुज देपावत (देशनोक)

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