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दारु रौ दूख – कवि भंवरदान झणकली

”साची सीख ग्रहण कर साथी दारुड़ौ धीक्कार रै”

लागा पाप वाजीयौ लौफर,पहलौ परचौ पायौ।
पैठ ऊड़ी पाड़ै मां पीछै,करजदार कहलायौ।
घर मां घाल़ी क़लै कामणी, खाली हुवौ खवार् रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।1।।

दारु पीकर दानव् खुटा, असुर मुवा अधखाई।
प्रथ्वीराज पीकर पछतायौ, मुगल़ा दिल्ली गमाई।
बौतल रै दरीया मां बहता, डुब गया दरबार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।2।।

आखौ दिनभर खुन बिलौवै, पांच रुपईया पावै।
सांझ पड़ी ठैकै पर सुतौ, गैलौ हौश गमावै।
लौक लाज तक धसझुलण लागौ, ए चुस्की रौ लाचार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।3।।

आधी रात धरां दिश आवै, ऊलटौ जहर ऊल़ैकै।
सौपौ पड़ीया सार सिपाही, टाट मौचड़ा पाड़ै।
फटकारा दैकरफौटू पर, थूकै थानैदार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।4।।

लड़खड़ातौ नाल़ी मै गिरकर, किचड़ सुन्ड कल़ावै।
ऊन्थै मुख रौ उककड़ा पर, सुतौ शौर मचावै।
गिडसुरी गत खावै गुचलका, ए भुन्डा रा आचार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।5।।

टुकड़ै रै खातर टाबरिया, निरणा भरै निसाशा।
लुगड़ फाटा फिरै लुगाई, हुवै न्यात मां हासा़।
कर्म फुटकर कहै कामणी, क्यौ बौड़ी किरतार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।6।।

गैणा़ बैच्या गुद़ड़,बैच्या, ख़ौल़ड़ बैचै खाधौ।
उकलतै पाणी सु उगै, रौज काल़जौ राध़ौ।
आज पिवण़ री अज़ा अनौखी, सुल़गै साज सुधार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।7।।

मद पिवण मा पाप मौ़कल़ा, सभी धर्म समझावै।
आधी उम्र खौए अधर्मी,मुवा नरक मां जावै।
सिख बारट भंवरदान कै बैली़, मान लीजौ हौशीयार रै।
साची सीख ग्रहण कर साथी, दारुड़ौ धीक्कार रै।।8।।

–कवि भंवरदान झणकली

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