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आई श्री सोनल माँ पर अटूट विश्वास के इस प्रसंग की ऐतिहासिक सम्पूर्ण माहिती कवि श्री जयेशदान झीबा (कवि जय) द्वारा प्राप्त हुई
स्व. रघदान लागीदानजी झीबा
आई सोनल माँ पर अटूट विश्वास का अद्धभुत प्रसंग

दिसम्बर 1971 में भारत ओर पाकिस्तान के मध्य युद्ध के दौरान थर पारकर क्षेत्र के हिन्दू परिवार मातृ भूमि को अंतिम प्रणाम कर भारत भूमि की तरफ चल पड़े। कच्छ, बनास काँठा, बाड़मेर ओर जैसलमेर वगैरह जिलों की सीमाओं पर जहाँ- जहाँ इनके सगे-संबंंधी थे, वहां वहां आने वाले परिवार स्थाई होते गये। ऐसा ही चारणों का एक परिवार देदळाई गांव के रहने वाले रघाजी लाँगाजी झीबा राजस्थान के बाड़मेर जिले के चोहटन तहसील के सुहागी गांव आ पहूँचा। सुहागी मेहड़ु शाखा के चारणों का गांव था। यहाँ के तगजी हिंदुजी मेहड़ु रघाजी के जामाता।
रघाजी मालधारी व्यक्ति थे। रघाजी के पास लगभग तीन सौ गायों का स्वामित्व था। उच्च कोटि के विचारों के धनी रघाजी झीबा विधर्मियों को किसी भी कीमत पर गोवंश नही बेचते थे। यहाँ तक कि गायों के बछड़ो को भी बन्धिया नहीं  करते थे। वे जगदम्बा रवेची के अनन्य उपासक थे। पाकिस्तान में इनकी तरफ से इनके गाँव की सीमाओं के अंदर शिकार पर प्रतिबंधित किया हुआ था।
सुहागी गाँव में रघाजी झीबा की सभी गायें एक दिन सीमा पार कर पाकिस्तान चली गयी। इसका गायों के ग्वाल को पता भी न चल पाया। भारत के 1971 शिमला समझौते के चलते भारत की तरफ से विजित पाक का थर पारकर क्षेत्र पुनः पाकिस्तान में चला गया था। अतः गायों को ढूँढने पाकिस्तान जाना संभव नही था। युद्ध के कारण साम्प्रदायिक वैमनस्य भी बढ़ गया था। रघाजी झीबा को चिंता हो रही थी कि गायों के साथ क्या होगा। कोई उपाय सूझ नही रहा था। रात भर रघाजी झीबा जागते रहकर व्यथित ह्रदय से एक स्वर में आह्वान कर रहे थे “हे जोगमाया में चारण हु, मेरी सात पीढ़ी से मेरी पूर्वजो की गाये जो मेरे घर की शोभा थी विधर्मियों  की धरती पर चली गई हैं। मैंने लाखों रुपये के बदले भी गायें विधर्मियों को नही दी। मेरी गायें आज लावारिस पाकिस्तान में हैं। मेरी गायों की रखवाली आप ही करना।” इस प्रकार दिन व्यतीत होते गये। गायों का कोई समाचार नहीं  मिल रहा था। तब एक दिन सुरेंद्रनगर के रावळीयावदर गाँव से आये हुए रावळदेव बात कर रहे थे। सोरठ के मढ़ड़ा में आई सोनल माँ साक्षात्  जोगमाया है। महाशक्ति का अवतार है। रघाजी झीबा ने यह बात सुनी। इस बात से रघाजी के ह्रदय में श्रद्धा एवं आशा का दीप प्रज्जलित हो गया।
संध्या वंदना के दौरान माला फेरते समय रघाजी झीबा आई सोनल माँ को याद करके गद्गद् ह्रदय से प्रार्थना करने लगे ” हे आई माँ ! आप कळयुग में चारण कुळ में जगदम्बा अवतार धारण करके आई हो। मैं मेरे पूर्वजों की तरफ से प्राप्त सर्वस्व का त्याग कर भारत भूमि पर आया हुँ। मेरे प्राणों से भी मुझे अधिक प्रिय मेरी गायें विधर्मियों  के देश में हैं। कई दिन हो गये गायों  के कोई समाचार नहीं  मिले। हे माँ ! मैं आपकी सच्चे ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ कि यदि मैंनें  मन वचन व कर्म से एक सच्चे चारण की तरह जीवन व्यतीत किया है तो मुझ पर कृपा कर। मेरी गायें सही सलामत घर आ जाए । हे आई माँ ! यदि मेरी गायें सलामत आएगीं तो मैं उसी घड़ी आपके दर्शन करने सौराष्ट्र आऊँगा। इसे चमत्कार कहें या जोग-संजोग कहें। एक सच्चे चारण की अटूट श्रद्धा कहें या आई श्री सोनल माँ की असीम कृपा कहें। प्रभात बेला में सोहागी गाँव के किनारे गायों के मधुर रँभाने की आवाज एवं गायों के गले की घण्टियों की आवाज यकायक एक साथ अनुगूँजित हो उठी। एक सच्चा पशुपालक अपने पशुओं की आवाज पहचान लेता है। रघाजी झीबा अपनी गायों को तुरंत पहचान गए और मन ही मन बोल उठे कि यह तो मेरी धमोळ, हिरेण, काबेर (गायों के नाम) की आवाज है। अपने पुत्रों को आवाज दे कर कहा कि देखो आई श्री सोनल माताजी अपनी गाये को वापिस ले आए है। सभी ने जाकर देखा तो गाँव के किनारे रघाजी की गायों का झुण्ड मालिक के स्वागत में रम्भा रहा था। धन्य हो जोगमाया, वाह सोनल माँ, जय हो सोनल माँ, आई माताजी की कृपा करते हुए रघाजी झीबा भावविभोर हो गये। अपने चारों पुत्रों को रघाजी ने कहा कि सभी गायों को सम्भालो।  कोई गाय पीछे तो नहीं रह गई है। पुत्रों ने नजरें दौड़ा कर कहा कि पिताश्री सभी गायें सही सलामत वापिस आ गई है। किसी भी गाय के गले का धागा या टोकरी भी कम नही है। इस आश्वासन पर रघाजी झीबा ने कहा कि मैं  अभीआई माँ के दर्शनार्थ जा रहा हूँ। मेरी जोगमाया ने मेरी लाज रखी है। सोनल माँ ने मेरा जीवन सुधारा है।
राजस्थान से रघाजी आई माँ के दर्शनाथ कणेरी आये। सोनल माँ के चरणों मे पगड़ी रख पूरा वृत्तान्त सुनाया। आई श्री सोनल माँ भक्त रघाजी की प्रतिबद्ध भक्ति खूब प्रसन्न हुए। आई माताजी ने रघाजी झीबा को सात दिन तक कणेरी गाँव में रहने को कहा। विदाई लेते समय आई माँ ने रघाजी से कहा “कोई इच्छा हो तो कहना जोगमाया पूरी करेंगे।” रघाजी ने कहा-” माँ आप प्रसन्न है तो मेरे लिए कुछ भी मांगना शेष नहीं रह गया है। आई माताजी आप से एक विनती है। मैं अपने पुरखों की जागीर पारकर में छोड़कर आया हूँ। पुत्री के गाँव में अधिक समय रहना उचित नहीं है। मैं किसी पर आश्रित ना रहकर स्वतंत्र रह सकूँ, माँ मुझे ऐसा आशीर्वाद दो। आई माँ रामायण पढ़ रहे थे। आई माताजी ने अपनी तस्वीर लेकर रघाजी को देते हुए कहा “यह तस्वीर आप रखो। चारण का कर्तव्य निभाना। अपने संतानों को चारणत्व के संस्कार देना। किसी के अधिकार का हनन मत करना। जहाँ अच्छा लगे वहाँ इस तस्वीर को रख कर गांव बसाना, आप और आपका संपूर्ण परिवार सदैव प्रसन्न रहेंगे। आई माँ की वंदना कर रघाजी झीबा ने विदाई ली। कुछ समय पश्चात राजस्थान छोड़कर परिवार के साथ कच्छ आये। लखपत तालुका के पान्ध्रो गांँव की सीमाएं अनुकूल  लगीं। रघाजी झीबा ने यहांँ गांँव बसाने का निर्णय किया। ई.स. 1987 में सोनलनगर गांव की रघाजी झीबा ने स्थापना की। कच्चा मंदिर बना कर आई सोनल मां की प्रतिमा स्थापित की। फिर परिवार के लिए झोपङियाँ  बनाईं । समय बीतते-बीतते पाकिस्तान से आये हुए अलग अलग क्षेत्रो में बसे परिवार सोनलनगर में आकर स्थाई हुये। आई सोनल माँ का शिखरबद्ध मन्दिर बनाया। अत्यंन्त दैदिप्यमान मूर्ति की स्थापना की। आज सोनलनगर में लगभग 200 चारणों के घर हैं। प्रतिवर्ष सोनलबीज ,नवरात्रि और  विजयदशमी को धूमधाम से मनाया जाता है। ये वृतांत मैंनें  स्वयं मेरे दादाजी रघाजी झीबा के मुख से सुना था। पाकिस्तान से गायें वापिस आयीं। इस घटना का समस्त सुहागी गांँव, मेरा परिवार और चारण समाज साक्षी हैं। आई सोनल माँ के प्रति श्रद्धा दृढ़ हो इसलिए यह वृतान्त आप सभी के समक्ष मेरे द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
आई माँ की सदैव कृपा बनी रहे इसी प्रार्थना के साथ

– जयेशदान गढवी (कवि जय)

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