श्रीमद् सब सुख दाई।
नृपति कुं श्रीसुखदेव सुनाई।।टेर।।
विप्र श्राप तैं जात अधमगति,
डरियो नृपत मन मांई।
ऐसो कोई होय जगत में,
श्रीकृष्ण लोक पंहुचाई।।1।।
आये सुक नृप के सुख दायक,
अमृत बचन सुनाई।
अमर होउ नृप जाय अभय पद,
सो भागवत बांच सुनाई।।2।।
त्रिविध ताप कलिमल भय हरनी,
बरनी ब्यास गुसाँई।
सोहि कहूं नृप सुनहु जतन सों,
किसन चरित सुखदाई।।3।।
सुनि सुक वचन भयो मन आनंद,
संसय गयो है विलाई।
दृढ आसन करि बैठ गंग तट,
सप्त दिवस लौ लाई।।4।।
कृष्ण चरित सुनि भयो कृष्ण मय,
तब हरखै ऋषि राई।
भयो उछाह विमान चढ्यो नृप,
जय जय धुनि सुरगाई।।5।।
गरू दयाल की दया हमारे,
श्रीमद् की सरणाई।
रे मन अब तूं डरत कौन से,
कहत समाना गाई।।6।।
आज के समय में बड़े बड़े भागवताचार्य जो ज्ञान तगड़े सुसज्जित व तड़कभड़क वाले मंचो से लटके झटके ताली पटके व नृत्य संगीत सभी भांति के जश्नादि से भी जनता जनार्दन को नही दे पाते हैं, वही सब ज्ञान माननीया समानबाई ने सहजता से ही मात्र छः पदो में ही समाहित करके जनमानस के उपयोगार्थ कर दिया है। आप सबको समर्पित है।
~~प्रेषित: राजेन्द्रसिंह कविया (संतोषपुरा-सीकर)