अंग्रेजी कहावत ‘Poets are born, not a made’ अर्थात् “कवित्वशक्ति जन्मजात होती है, सिखायी नहीं जाती’, वाली बात को गलत सिद्ध करनेवाली, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त’ रा’ओ लखपत व्रजभाषा पाठशाला में कवि – प्रतिभा प्राप्त करनेवाले जिज्ञासु छात्रों को काव्यशास्त्र के अभ्यास की ओर रुचि पैदा हो ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध करवाया जाता था, जिसके फलस्वरूप सर्जक प्रतिभाएं स्वयं प्रकाशित होकर बाहर आ सकती थी। कई ऐसी उच्च कोटि की सर्जक – प्रतिभाओं को प्रकाशित करने में इस संस्था का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसी पाठशाला में रहकर अध्ययन करनेवाले लब्ध – प्रतिष्ठित साहित्यकार कवीश्वर दलपतराम डाह्याभाई के यशस्वी पुत्र कविवर न्हानालाल ने ठीक ही कहा है – “भुजियो डुंगर कच्छना राजानुं सिंहासन छे पण व्रजभाषा पाठशाला कच्छना राजवीओनो कीर्तिमुकुट छे”* – भूजिया पहाड़ कच्छ के शासक का सिंहासन है किन्तु व्रजभाषा पाठशाला कच्छ के शासकों का कीर्तिमुकुट है।
कविराज हमीरजी रत्नु की प्रेरणा से कच्छ के साहित्य प्रेमी शासक लखपतसिंह द्वारा स्थापित की गई ‘कच्छ – भुज’ की इस पाठशाला में चारण, ब्रह्मभट्ट, जैन, क्षत्रिय और अन्य जाति के छात्र अध्ययन के लिए प्रवेश प्राप्त करते थे। विद्या अध्ययन के लिए इसी पावन – गङ्गा में नित्य स्नान करनेवाले छात्रों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती रहती थी। संस्था का नियम था कि जिनकी अभिरुचि शत – प्रतिशत साहित्यिक हो उनको ही प्रवेश दिया जाये। जिन छात्रों को प्रवेश मिलता उनको काव्य – शास्त्र, छन्द शास्त्र, अलङ्कार शास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, अश्वविद्या, इतिहास और पुराण का अध्यास करवाया जाता था। इसके साथ ही चारणी – साहित्य, पिंगल व्रजभाषा और अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ कवियों की काव्य साधना का भी अभ्यास करवाया जाता था। इस संस्था के द्वारा काव्य शिक्षा तो दी ही जाती थी किन्तु प्रस्तुति की कला का भी सम्यक् ज्ञान दिया जाता था। इसके द्वारा अभिव्यक्ति कौशल सिखाया जाता था। रा’देशल की उत्तरावस्था से प्रारम्भ हुई यह संस्था स्वातन्त्र्य – प्राप्ति तक चली। इन देढ – सौ साल की अवधि में इस संस्था में रहकर इन में से साहित्य – साधना करनेवालों में से करीबन चारसौ से अधिक छात्र तो प्रतिष्ठित कवि हुए है। गुजरात, राजस्थान, मालवा और हरियाणा तक की राज्य सभा में वे कवि राजकवि का पद प्राप्त किये हुए थे। इसी पाठशाला में जिन छात्रों ने पढ़ाई की है कुछ आज भी विद्यमान हैं और साहित्य – सर्जन में प्रवृत्त रहकर संस्था की यशपताका दसों दिशाओं में फहरा रहे हैं। व्रजभाषा – पाठशाला की इस सुदीर्घ परम्परा के एक कवि – राजकवि शंकरदानजी देथा के जीवन और कवन को प्रस्तुत करने का यहाँ मैं प्रयास कर रहा हूँ।
सत्य, शक्ति और सरस्वती की उपासना करनेवाले चारणजाति के वसतड़ी गाँव के श्री जेठीदानभाई देथा के घर 1948 के आषाढ़ शुक्ला द्वितीया और आदित्य वासरे अर्थात् रविवार के दिन शंकरदानजी का जन्म हुआ। पिता जेठीदानजी और माता दलुबा की भक्ति और संस्कारों का प्रभाव पुत्र पर जीवन पर्युक्त रहा। एक भक्ति – परायण, संस्कारी पुरुष के रूप में शंकरदानजी के व्यक्तित्व का विकास हुआ। बालक शंकरदानजी को अपने पितृपक्ष की ओर से स्वरूपदानजी देथा जैसे चारणी साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित की विरासत मिली तो मातृपक्ष की ओर से वळा वल्लभपुर (सौराष्ट्र) के राजकवि ठारणभाई मेहडु की साहित्यिक विरासत का लाभ मिला| शंकरदानजी में छिपी सर्जक प्रतिभा को पहचानकर उन के मामा ठारणभाई मेहडु ने इसे बारह साल की उम्र में ही ‘रा’ ओ लखपत व्रजभाषा पाठशाला में ‘काव्य – शिक्षण के’ लिए प्रवेश दिलवाया। पाठशाला में रहकर अन्य छात्रों की तुलना में विशिष्ट सर्जक – प्रतिभा हासिल करनेवाले शंकरदानजी पाठशाला के प्राचार्य श्री हमीरदान खडियाजी के प्रीतिपात्र छात्र बन गये थे किन्तु पिताजी की असामयिक मृत्यु हो जाने पर अभ्यास छोड़कर घर की जिम्मेदारी उठा लेनी पड़ी! घर की जिम्मेदारी के साथ साथ आपकी काव्य साधना तो अविरत जारी ही रही। शंकरदानजी की कवित्व शक्ति से प्रभावित होकर लिमड़ी (सौराष्ट्र) के शासक दौलतसिंहजी ने आपको राजकवि का स्थान देकर प्रतिष्ठित किया। पच्चीस वर्ष की उम्र में लिमड़ी का राज कवि पद प्राप्त करनेवाले शंकरदानजी का देह – विलय दिनांक 13-01-1972 में 81 वर्ष की आयु में हुआ। जब तक आपकी साँस चलती रही, आपकी साहित्य साधना भी चलती रही। आपकी साहित्य साधना इतनी अनुपप और अनन्य थी कि आप चारणी साहित्य के शिखर पुरुष के रूप में स्थापित हो गये। चारणी – साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित शंकरदान देथा कवि, विवेचक, काव्यमर्मज्ञ, इतिहासविद्, पुराणपण्डित, भाषाशास्त्री, संपादक, कोषकार और समाजशास्त्री आदि रूपों में बहुमुखी, प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। आपके साहित्य की सुवास सौराष्ट्र – गुजरात की सीमा पार करके राजस्थान और मालवा तक फैली और लोगों के दिलो दिमाग पर आपकी कवि – प्रतिभा का जादू भर गया। इसी वजह कई छोटे – बड़े राज्य आपको अपने राज्य का राज कवि – पद ग्रहण करने के लिए निमन्त्रित करते और प्रलोभन देते रहते थे लेकिन इस स्वाभिमानी, वफादार कविने किसी भी तरह के मोहजाल में फँसे बिना लिमड़ी के साथ अपना रिश्ता जीवनभर निभाया और हमारी गुजराती कहावत ‘धणी धारवो तो एक ज’ अर्थात् ‘स्वामी तो एक ही होना चाहिए’ वाली बात को चरितार्थ किया। आपकी साहित्य – साधना, परोपकारी वृत्ति और औदात्य के कारण लिमड़ी राज्य को भी यश और कीर्ति प्राप्त हुए।
राजकवि शंकरदानजी ने चारणी साहित्य के संशोधन – संपादन के लिए भगीरथ कार्य किया है। आपने भक्त कवि श्री इसरदासजी रोहडिया कृत ‘हरिरस’ और ‘देवियाण’, भक्त कवि स्वरूपदानजी देथा कृत ‘पाण्डव यशेन्दु चन्द्रिका’, कविवर चन्द बरदाई कृत ‘ज्वालामुखी देवी की स्तुति’, जैन लुकागच्छीय किसन कवि कृत ‘किसन बावनी’, कविराजा करणदानजी कविया कृत ‘विरदशृङ्गार’, कविवर नंददासजी कृत ‘अनेकार्थी’ और ‘मानमञ्जरी’ – ‘नाममाला’ कविवर जयकृष्ण दास कृत ‘रूपदीप पिंगल’ और कई प्राचीन काव्यों का संपादन – संशोधन कार्य किया है। पाण्डुलिपि आधारित इन ग्रन्थों की पाण्डुलिपि प्राप्त करके इनका शास्त्रीय ढंग से गहरा अध्ययन कर इसकी वाचना तैयार करते थे। मूल पाठ की वाचना तैयार हो जाने के बाद इसका गुजराती अनुवाद तैयार कर के ग्रन्थ के रचयिता के बारे में संशोधन मूलक जानकारी प्रस्तुत करते थे तत्पश्चात् ग्रन्थ की विशिष्टताओं को अलग से बाहर कर उसकी ओर ज्यादा ध्यान केन्द्रित करके उसे विद्वत्भोग्य और आस्वाद्य बनाते थे। कृति के साथ जुड़े ऐतिहासिक और पौराणिक सन्दर्भो का विस्तृत परिचय देकर आप कृति का सम्पादन करते हैं। जिस कृति का आप संपादन करते हैं उसके बारे में सविस्तृत जानकारी देकर पूर्व संपादित कार्य पर भी यथेष्ट प्रकाश डालते रहे हैं यह आपके संपादन कार्य की एक विशिष्टता रही है। एक कृति पर आप इतना परिश्रम करते थे कि आनेवाली पीढ़ी को – इस यज्ञ में आहुति देने वाले ‘होता’ को बड़ा लाभ मिलता था। इसी वजह हस्तप्रत पर आधारित चारणी – साहित्य की समृद्ध परम्परा का अध्ययन करनेवाले आम आदमी को – सामान्य काव्य रसिक को बड़ा फायदा रहता था। कृतियों का संपादन करके बैठ जाना नहीं, किन्तु प्रकाशन की जिम्मेदारी को भी निभाना है ! न केवल प्रकाशन किन्तु वितरण का कार्य भी आप ही द्वारा सम्हालते थे। अरे ! लघु – संग्रह का संपादन व्रजभाषा पाठशाला के छात्रों को दृष्टि समक्ष रखकर ही किया गया था । इस लघु – संग्रह की पांचसौ प्रति पाठशाला के छात्रों के लिए भेंट – स्वरूप भेजकर अपनी मातृसंस्था और गुरुवर्य हमीरजी खड़िया के ‘ऋण’ से ‘उऋण’ होना चाहते थे। यह घटना आपकी उदार साहित्य – प्रति की द्योतक है।
संपादन प्रवृत्ति के साथ – साथ आपकी काव्य – सर्जन प्रवृत्ति भी निरंतर जारी रही है। संपादित की हुई प्रत्येक कृति के परिशिष्ट में आप अपनी एक न एक ‘काव्य कृति’ अवश्य रखते हैं। प्राय : आप द्वारा संपादित प्रत्येक कृतियों में यह बात देखने में आती है। आप द्वारा रचित काव्यों का सम्पादन राघवजी देथा ने ‘सुकाव्य संजीवनी’ और ‘नर्मदालहरी’ नाम से किया है। आजीवन साहित्य सेवा में प्रवृत्त ऐसे शंकरदान देथा द्वारा असंख्य काव्यों का सृजन हुआ है जिनमें से कुछैक प्रकाशित हो सका है किन्तु कुछ भी प्रकाशित हुआ है इनमें आपकी कवित्व शक्ति, अनन्य शिवभक्ति और त्यागवृत्ति का परिचय मिलता है।
शंकरदानजी रचित कुछ दोहों में इनकी जीवन दृष्टि का परिचय मिलता जैसे-
‘हरि या हर का भजन कर, दे गरीब को दान;
कवि शंकर कल्याणप्रद, मारग उभय महान …।1.
‘सगुण निर्गुण दोउ एक है, अक्षर अंक समान;
भ्रम छांड़ी करहूँ भजन, दाखे शंकरदान…।2.
‘कायम शिव स्मरण करे, दे मिशकीन को दान;
सुखी सोई संतन रहे, दाखे शंकरदान…।3.
(‘मनांकन’, मार्च -2000)
चारणी साहित्य की एक विशिष्ट परम्परा रही है कि अपने माहिती ज्ञान को दीर्घकाल कण्ठोपकण्ठ रूप स्मृति में संग्रहित करने हेतु वे इन सारी बातों को सूत्रात्मक रूप में काव्य में समाविष्ट कर लेते हैं। इसमें भी विशेष कर यह दोहाबद्ध स्वरूप में प्रस्तुत होने के कारण प्रस्तुत हुई जानकारी हम्मेश जिह्वाग्रे ही रहती है। सब कुछ जबानी ही याद रह जाता है। समग्र सामग्री को कण्ठस्थ ही रखा जाता है जिसे आवश्यकतानुसार यथासमय उचित ढंग से अत्यन्त प्रभावी शैली में प्रस्तुत किया जाता है। मध्यकालीन चारण कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा मिलता है जिसमें उस समय के ख्याति प्राप्त मुख्य कवियों के नामोल्लेख के साथ उनके द्वारा प्रस्तुत हुए विशिष्ट स्वरूपों का पता चलता है।
‘कविते अलु दुहे करमाणंद, पात इसर विद्या चो पुर;
मे हो छन्द झूलणे मालो, सुर पदे गीत हरसुर। ‘(वही)
(काव्य रचना में अलुजी कविया, दोहों में करमाणंद मिसन बेजोड़ है। इसी तरह इसरदास रोहड़िया सर्व विद्याओं में महापूर समान होने के कारण विद्वानों में बेजोड़ है। मेहोजी छन्द रचना में, मालाजी आशिया ‘झूलना रचने में’, पदों में सुराजी रोहड़िया और गीत रचना में हरसुर रोहड़िया मूर्धन्य हैं।)
चारण कवि द्वारा प्रस्थापित इस परंपरा के अनुसार भक्तमाल में भी चारण भक्त कवियोंके नाम इसी तरह प्रस्तुत हुए हैं। अन्य एक दोहे में इस तरह की जानकारी को सूत्रात्मक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
इसर, अलु, करमाणंद, आणंद, सूरदास पुनि संता;
मांडण जीवों, केसव, माधव, नरहरदास अनंता…।
………………………………….
सांयो झूलो सिद्धहर, हर मिसण हरदास;
चारण कुल तारण भया, इसर नरहरदास …।
(‘मनांकन’, मार्च -2000)
उपर्युक्त दोहों से यह फलित होता है कि मध्यकाल में जब प्रकाशन की सुविधा नहीं रही होगी तब इन चारणों ने समग्र जानकारी को कण्ठोपकण्ठ संग्रहित करके दोहों के रूप में इन्हें जिह्वाग्रे रखा था कि तुरन्त ही इसका उपयोग किया जा सके। यह परम्परा आज तक अक्षुण्ण रह पायी है और इसी वजह साम्प्रत समय के चारणी साहित्य के कवियों के नाम और उनके द्वारा रची गई रचनाओं को भी दोहों में समाविष्ट किया गया है। इस दोहे में कविराज शंकरदानजी और उनके समकालीन कवियों के नाम भी मिलते हैं –
‘पबेड़े दोहे पालरव, गायन पिंगल गीत;
तर्कछन्द दुला तणा, कवि शंकर कवित।
‘( दोहों – कटाक्षयुक्त दोहों की रचना में पालरवभा पालिया, पिंगल आधारित गीतों की रचना में भावनगर के राजकविश्री पिंगलशीभाई ‘नरेला’, तर्कबद्ध छन्दों की रचना में पद्मश्री दुलाभाई काग ‘भगतबापु’ और कवित की रचना में लिमड़ी के राजकवि शंकरदानजी देथा श्रेष्ठ है।)
कविराज शंकरदान देथा और पद्मश्री कवि काग की साहित्यिक सिद्धि की बिरुदावली गाते हुए एक कविने स्वतंत्र रचना भी की है। इस काव्य में शंकरदानजी के कवित पर सन्दर्भ मिलता है –
‘कवि शंकर कवित कथे, खण्ड खण्ड विख्यात;
*राग मधुर वक्तव्य वर, दुला भगत दरषात।’
(कविराज शंकरदासजी देथा रचित कवित – खण्ड खण्ड में और देश विदेश में प्रसिद्ध हुए है तो पद्मश्री कवि काग अपनी काव्य रचनामें इन्हें मधुर राग में सुन्दर, स – रस वक्तव्य देने में सर्वत्र बेजोड़ दृष्टिगोचर होता है।)
परम शिवभक्त शंकरदानजी ने – विशेषत: कवित्त रचना में ही सिद्धि प्राप्त की है। शिवभक्ति और कवित्व – शक्ति के साथ चारणत्व का सुभग समन्वय प्रस्तुत करनेवाला इनका एक कवित्त यहाँ उदाहरण के लिए लेते हैं। चारणों के लिए आदिकाल से कहा जाता है कि *’महेश डाडो और शेष नानो’* चारणों के हृदय में सहज भक्ति तो होती ही है, इस में भी दृढ़ शिवभक्ति – भाव और कवित्व शक्ति हो तो, तो इस त्रिवेणी संगम का नतीजा कुछ ऐसा ही निकलता है –
।कवित्त।
वांछित प्रदात्ता वर, विबुध के वृक्ष जैसो;
सागर संसार कु उल्लंघवें को बेरो हे;
शंकर भनत दर्दीजन को दरदहर;
वैद्य धनवन्तर ते सुखद घनेरो है;
संकट के शैल छेदवे में शुद्र आयुध सो;
अंतर के तम पर अरक उजेरो है;
संपत्ति को ढेरो सुख साधन सकल मेरो;
ताप अघहारी त्रिपुरारि नाम तेरो है
(हे शिवजी ! आप भक्तों के इच्छित सुख का वरदान देने में कल्पवृक्ष समान हैं, तो इस दुःस्तर और अपार संसार सागर को पार करने में जहाज सम हो। कवि शंकरदान कहते हैं कि – रोगी – पीड़ितों के दर्द हरने में – दूर करने में वैद्य धन्वन्तरी के समान सुख देनेवाले हैं। जीवन में आ धमके दु:ख मुसीबतों के पर्वत को तोड़ने में – हटाने में काटने में इन्द्र भगवान के शस्त्र वज्र की भांति हैं। अन्तर में – हृदय में छाये मोहमाया के अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य – प्रकाशित, सूर्य के तेज की भाँति हैं। आप इस संसार की समग्र संपत्ति के ढग – पर्वत सम हैं, एवं मेरे जीवन में तो मेरे सुख साधन सम हैं, हे प्रभु ! आप का नाम भी संसार के समग्र ताप – आधि, व्याधि व उपाधि तथा जीवन के दौरान किए हुए पाप को हरनेवाला, उन सब का विनाश करनेवाला है।)
उन्होंने स्थितपज्ञ संत की तरह अपनी जीवनशैली द्वारा समाज को त्याग एवं तप की महिमा समझाई थी। समाज के निम्न स्तर के लोगों को भक्ति की ओर उन्मुख करने के लिए उन्होंने दोहे के माध्यम से सरल बानी में देह की नश्वरता समझाई है, जो कि आस्वाद्य है:-
नित रटवुं हर नाम, देवं धन अन्न दीनने;
करवा जेवां काम, साचां ई बे शंकरा …१
दानव मानव देवने, सूरां भगतां सोत;
माथे सउने मोत, साचुं अंते शंकरा….२
मातंग बगीयु मोटरू, कोड्युं होय केकाण;
पण छेल्लु परियाण, छे पग पालुं शंकरा…३
राजकवि होने के नाते कई क्षत्रियों के साथ उनका अंतरंग (निजी) संबंध था। बड़े – बड़े राजा – महाराजा भी शंकरदानजी के मुंह से निकले शब्द पर कार्य करने के लिए उत्सुक रहते थे, परन्तु उनमें चारण – सहज स्पष्टवादिता होने से उन से थोड़े डरते भी थे। शंकरदानजी ने अनेक बार जोखिम उठाकर भी क्षत्रिय को सत्य वचन सूना कर अपना चारणधर्म निभाया था। स्वातन्त्र्य पूर्व विमान आया तब उसमें बैठने के लिए उत्सुक राजकविओं तथा फैडरेशन के आने पर शुतुर्मूग – वृत्ति दिखलाकर आँखें मूंद लेने वाले क्षत्रियों को आपने सब के सामने सुनाया था:
‘पार्थिव वर्ग पतंग इव, कर लो मौज विलास;
कृपा दोर ब्रिटिश को, तूट्ये खेल खलास …’1
‘चेतो ! जागो ! नृपति ! अब मत लो आराम!
आयो फिर अरि आप को, फेड्रेशन फरशुराम …’2
इस प्रकार, क्षत्रिय समाज को जगाने के लिए आपने भव्य पुरुषार्थ किया, किन्तु विधि की विचित्रता के कारण उनकी बात बधिर कानों तक टकराकर वापिस आई। आपकी आँखों के सामने क्षत्रिय राज्यविहीन और अन्य लाभों से विहीन हुए ! कवि की भीतरी वेदना को यथातथ प्रस्तुत करता हुआ एक दोहा दृष्टव्य है –
‘अंतरना उंडाणनी, को’क वेधुने ज कहेवाय;
चोरे नव चर्चाय, चित्तनी वातुं शंकरा…
सौराष्ट्र में ‘कबीरा’ भगत के नाम से ख्याति प्राप्त इस कविराज का आंगन हमेशा संत, गरीब, अतिथि एवं अभ्यागतों से भरा रहता था। उन सब को सदा अन्न, धन एवं वस्त्र का दान कविराज देते रहे। इस बात की साख देता एक दोहा चारणी साहित्य में पाया जाता है। इसे देगाम के कविराज कनराज झीबा ने रचा है। देखिए:
“महिपतिओं राखो मति, उर दत्तरो अभिमान;
जब लग बेठो जगत में, देथो शंकरदान।’
(हे महिपतिओं, राजा – महाराजाओं आप कभी भी अपने मन में बेजोड़ दानेश्वरी – दाता – होने का अभिमान – गर्व – नहीं करना। क्योंकि, अपनी सफल संपत्ति को दान देनेवाला सौराष्ट्र के ‘कबीरा भगत ‘ नाम से ख्याति पानेवाला दाता – दानवीर शंकरदानजी देथा जीवित है। उनकी उपस्थिति में आप श्रेष्ठ दाता हो नहीं सकते।) अलबत्त, उपर्युक्त दोहे में तो कविराज के दानी होने की बात की सराहना की गई है। वास्तव में तो कविने व्यंजनात्मक ढंग से यह समझाना चाहा है कि श्रीमंतों के महलों की तुलना में गरीबों की झोंपडी बढ़कर है! तदुपरांत, दान करनेवाले की दान के पीछे की भावना का ही विशेष महत्त्व है, दान की राशि या चीजवस्तुओं का नहीं ! कविराज शंकरदान देथा ने अपने समकालीन राजा – महाराजा, कवि, संत, अतिथि एवं गरीबों के हृदय में शाश्वत स्थान पाया है। आपके देहविलय के पश्चात् कई कविओं ने श्रद्धांजलि – रूप काव्यों की रचना की जिनमें आप के दानी होने की बात इस प्रकार प्रकट होती है :
‘मांगण जणनो मालवो, भूख्यानो भगवान;
सरगे गयो जेठी सतण, देथो शंकरदान’… १.
(याचकों के लिए मालवा सम (मालवे के दानेश्वरी राजा भोज एवं वीर विक्रम की उदरता ऐसी थी कि याचक वर्ग मालवा के राजा से कभी भी खाली हाथ निराश वदन लेकर लौटते नहीं थे) और भूखे जनों, गरीबों के लिए अन्नक्षेत्र चलानेवाले भगवान जैसे कविराज शंकरदान (जेठीदान देथा के सुपुत्र) ने आज स्वर्ग के प्रति प्रयाण किया है।)
‘संत फकीर साधुने, आपे अन्न ने दान;
शिव भगत रटणों सुयश, देथा शंकरदान’…२
(वे दानेश्वरी शंकरदानजी देथा सदा संत, फकीर एवं साधुओं को अन्न, वस्त्र व धन का दान देते हैं। इस के अलावा परम शिवभक्त होने से भगवान शिव का नाम रट कर काव्य – रचना के द्वारा प्रभु के गुणानुवाद करते हैं।) परम शिवभक्त कविराज शंकरदानजी दानेश्वरी तो थे ही। इस के साथ मुख्यतः भगवान शिव के गुणानुवाद में ही मस्त – तल्लीन रहते थे, परन्तु वे लिमड़ी के राजकवि और चारण होने के नाते गुणवान क्षत्रियों की सज्जनता, उदारता, त्यागवृत्ति, शौर्य एवं प्रजावत्सलता को देखकर उसे काव्यांकित भी करते थे। इसके बावजूद वे कभी अपना चारणधर्म एवं चारणत्व को बिसारते नहीं थे। प्रसंग के अनुरूप यदि जरूरत पड़े तो अच्छे से अच्छे राजा – महाराजा या ‘चमरबंदों’ को भी सच कहने में हिचकते नहीं थे। वे खुशामत या वाहवाही करने से दूर रहते थे इस बात की प्रतीति इस दोहे के द्वारा होती है, देखिए:
‘खुशामद खोटी करी, कवियों नभीया के क;
(पण) अचकातो नहीं एक, (तुं) सत्य कहेतां शंकरा’
इस प्रकार कविराज शंकरदानजी के व्यक्तित्व वाङ्मय और उनके बारे में रचित काव्यो में इनके विरल व्यक्तित्व की झांकी मिलती है। जो उनको सर्वोपरि एवम् चारण साहित्य के जगम तीर्थ के रूप में स्थापित करती है।
स्त्रोत साभार – डाक्टर अंबादान रोहडीया द्वारा प्रेषित पीडीएफ फाइल से संकलित