नज़्मों की नासेट में
निकला हुआ शायर
जब मांधारा होने के बाद
अपने आसरे को लौटता है
तो उखणकर लाता है
अनोखे अनोखे आखर
ख़ूजों में भरकर लाता है
ख़्यालों की खूम्भीयाँ
सबदों की रिनरोहि में
रबकते हुए चुरबण के लिए
चापटियों को चुगता है
छिलोछिल भरता है
दिल की दिहड़ी को
कच्ची हथकढ़ दारू से
राह की अबखाइयाँ को
मुरड़कर भारा करता है
मन की बखड़ियों को
बारी-बारी से बळीता करते हुए
सबद-सबद को सारजीत करता है
वह आखरों का अलाव तपता है
कल्पनाओं की कलाळण
भरती है प्याले पर प्याले
वह मदछकिया मन का मेळू
माँझल रात को मनवार करता है
एक शायर जब भी
नज़्मों की नासेट पर निकलता है
छंदों का छकड़ा भरकर लौटता है।
~रेवन्ता