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बीकानेर रो इतियास पढां तो एक नाम आपांरै साम्हीं आवै जिको वीरता, अडरता, उदारता, री प्रतिमूरत निगै आवै। वो नाम है महाराज पदमसिंहजी रो। पदमसिंहजी जितरा वीर उतरा ई गंभीर तो उतरा ई लोकप्रिय। किणी कवि कह्यो है–

सेल त्रभागो झालियां, मूंछां वांकड़ियांह।
आंखड़ियांह देखां पदम, सुखयारथ घड़ियांह।।

पछै प्रश्न उठै कै इण त्रिवेणी संगम री साक्षात प्रतिमा मुगलां रै अधीन कै उणांरो हमगीर क्यूं रह्यो?

इण प्रश्न रो पडूत्तर जोवांला तो सहज निगै आवै, वो एक तो ओ है कै तत्कालीन विपरीत परिस्थितयां में वो आदमी विद्रोह नीं कर’र आपरै परिवार री बैवती आई परंपरा रो निर्वाह कियो अर दूसरो ओ कै वो आदमी कोई शासक नीं हो अपितु शासक रो छुटभाई हो। छुटभाई रो नैतिक कर्तव्य हुवतो कै वो आपरै अग्रज अथवा शासक रै भावानुकूल व्यवहार कर’र आपरो रगत-पसीनो राज-समाज री सेवा में समर्पित करै।

इण पेटे महाराज पदमसिंहजी अद्भुत अर प्रेरक व्यक्तित्व निगै आवै जिणां एक आज्ञाकारी भाई रै रूप में वै इज काम किया जिकै उणांरै बडे भाई अर महाराजा अनोपसिंहजी उणांनै भोल़ाया।

हालांकि पदमसिंहजी मुगल दरबार में उवो नाम हो जिणसूं पातसाह आलमगीर ई चांपो खावतो। पदमसिंहजी भलांई मुगल मनसबदार हा पण उणां आपरी अडरता अर स्वाभिमान माथै आंच नीं आवण दी। जठै मुगलां सीधो-सीधो उणांरै जमीर नै जगायो उठै-उठै उण आंटीलै मरद समसीर रै हाथ ई नीं घालियो अपितु उणरो तेज ई बतायो।

इतियास में एक किस्सो आवै कै एक’र ओरंगाबाद में आलमगीर रो रैवास हो। उठै दूजै सरदारां साथै पदमसिंहजी अर उणांरा भाई मोहनसिंहजी हा। मोहनसिंहजी रै एक हिरण पाल़तू। जिको रमतो-रमतो शहर रै मुगल कोटवाल़ री हवेली गयो परो। उठै कोटवाल़ रै आदम्यां हिरण नै पकड़ लुका लियो। मोहनसिंहजी रा आदमी हिरण लारै गया। पण उण अर उणरै आदम्यां आवल़-कावल़ बोल काढ दिया। दूजै दिन दरबार में कोटवाल़ अर मोहनसिंहजी री आंख्यां भेल़ी हुई अर मोहनसिंहजी कह्यो-“कोटवाल़जी ! म्हारो हिरण थांरी हवेली में है। थे दियो नीं अर ऊपर सूं म्हारै आदम्यां नै बेइज्जत भल़ै किया।”

आ सुण’र कोटवाल़ कह्यो-
“तूं कूड़ो अर थारा आदमी भल़ै अंकै ई कूड़ा। वो हिरण तो म्हारो इज है।”

इण तूं तड़ाकै रै साथै मोहनसिंहजी तरवार री मूठ हाथ देय आगै बुवा जितरै आगै सूं कोटवाल़ अर लारै सूं उणरै साल़ै तरवार बाही जिणसूं मोहनसिंहजी घायल हुय पड़िया। दरबार में हल्लो हुयो जिणसूं आलमगीर ई उठै बैठो ऊभो हुयो। उणी बखत पदमसिंहजी उठै आयग्या। घायल मोहनसिंहजी कह्यो–
“भाभा! म्हारै घाव आकरो है। हूं तूं आपसूं बिछड़ूं पण म्हारै घाव करणियो उवो ऊभो।”

आ सुणतां ई पदमसिंहजी झाल़बंबाल़ हुय तरवार काढी जितै-जितै आलमगीर न्हाठ महलां बड़ियो। बीजा ई मोटा मुगल ओलो खाय ऊभा रह्या अर कोटवाल़ एक थंभै री ओट लुकग्यो पण पदमसिंहजी तरवार बुई जिको उण थंभै नै चीरती उणरी देह रा दो टुकडा कर दिया। ओ खिलको देख कोटवाल़ रो साल़ो न्हाठो जितरै घायल मूणसिंहजी कह्यो-
“भाभा! मोरै घाव घालणियो तो उवो न्हाठै।”

पदमसिंहजी उणरै लारै ताचकिया। वो कूद’र न्हाठण वाल़ो इज हो जितरै तरवार बुई जिको टुकड़ां में बंटग्यो।

पछै मोहनसिंहजी नै डेरे ले जावण लागा जितरै अर्जुन गौड़ आयग्यो। ज्ञात रैसी कै अर्जुन गौड़ उवो मिनख हो जिण धोखै सूं अमरसिंहजी नागौर रै घाव कर’र कलंक लियो। इणनै देखतां ई पदमसिंहजी कह्यो-
“आव गोड़ ! जे राड़ मांडतो हुवै तो?”

पदमसिंहजी री आंख्यां रो रंग देख’र गोड़ पाऊंडा आगीनै दिया।

पदमसिंहजी री वैर शोधन भावना नै बखाणतां किणी कवि कह्यो है कै-
“हे पदमसिंह! जे त़ू ई मोहनसिंहजी (मूणसिंहजी) रो मरण सुण’र दूजां दांई मनसोभो करतो रैतो तो, वैर नीं ले सकतो अर जे वैर नीं ले सकतो तो ओ खटको थारै हमेशा रैतो-

एक घड़ी आलोच, मोहन रै करतो मरण।
सोह जमारो सोच, करतो रैतो करनवत।।

गोरधनजी गाडण (सड़ू) इण विषय में लिखै-

नाहर पदम निडार नर, गऐ ओरंग के भीच।
लज सांकल़ तोड़ै रवद, पड़ै हवदै बीच।।

मोहण अंबखास बिचै जुध पदमा,
किलमां चढ्यो कराड़ै।
भायां वैर उग्राहण भाई,
आयो खाग उपाड़ै।।

एक कवेसर लिख्यो है कै जे तूं उण बखत मोहनसिंह रो वैर नीं लेतो तो पछै दूजां सूं वो उवो वैर लिरीजतो ई नीं-

जे तूं पदमा जै’र, मोहनसिंह वाल़ै मरण।
वीका दूजो वैर, कह पदमा! कुण काढतो?

पदमसिंहजी उण आलमगीर रै दरबार में तरवार बाही जिणरै आतंक रै डंक सूं उण बखत पूरो भारत डरूं-फरूं हो। उणरी कुटल़िता, क्रूरता जग चावी ही। ऐड़ै पातसाह रै देखतां उठै खाग बाय आपरी मूंछ रो मरट अखी राखियो अर पातसाह उणांनै तूंकारो दैणो तो दूर इण बाबत पूछण री हूंस तक नीं करी। उलटो उण कोटवाल़ अर उणरै छोरां-छपारां सूं दी गई सुविधावां पाछी खोसली। पदमसिंहजी रै इण आपाण रै बाबत कवियां लिख्यो है के–“हे पदमसिंह तूं एक ई ऐड़ो वीर है जिको पातसाह रै दरबार में उणरै आदम्यां माथै तरवार बाय जीवतो बारै निकल़्यो। थारो ओ काम वारणाजोग है बाकी ऐड़ो करणिया आगै तो मरिया इज है-

पदम कु़वर करनेस रा, तो हत्थां बल़िहार।
तसलीमां री जायगा, तूं बाहै तरवार।।
लड़िया सुणिया लोय, आगै अंबखास में।
कुशल़ै तो जिम कोय, कदै न आयो करनवत।।
मींया मूछावेह, एकलड़ो आल़ोझियो।
परगैह पूछावेह, नड़ायो कर्ननरँदउत।।

दयालदासजी आपरी ख्यात में लिखै कै एकर जसवंतसिंहजी जोधपुर, करनसिंहजी सूं घात वापरी अर सहायतार्थ आपरै एक मित्र नवाब नै भेल़ो राख्यो। उणां शिकार रै मिस्स करनसिंहजी नै बुलाय साथै लिया अर नवाब नै करनसिंहजी माथै घाव करण सारू त्यार कियो। जद इण बात रो ठाह पदमसिंहजी नै लागो तो वै अजेज उठै गया अर खुद महाराजा री ख्वासी में बैठा। उठै नवाब ई हथणी री माथै बैठ आयो। वो घड़ी-घड़ी हथणी नै महाराजा रै हाथी गुढै लावै पण हथणी आवै नीं। आखिर पदमसिंहजी आपरो हाथी, हथणी कनै ले जाय हथणी री अंबाड़ी खांच एक झटको दियो जिणसूं अंबाड़ी बिखरगी। नवाब समझग्यो कै मोत आई जणै हाथ जोड़तै कह्यो- “महाराज आपरो सभाव दया रो है।” आ कैय खतावल़ो हथणी टोराय परिया गयो। पछै उण जसवंतसिंहजी नै ओल़भो दियो कै-
“म्हनै बिनां मोत मरा देवता। राजा करन रो बेटो बलाय रो बटको अर खुदा रो नूर है।”

दखिण रा पटेल जादुराय, सांवतराय पातसाही में दंगो कियो। उणांरो घणो आतंक। पातसाह बीड़ो फेरियो जणै अनोपसिंहजी झालियो। आंनै ठाह लागो जणै दोनूं भाई अनोपसिंहजी नै दबावण आया। हमलो हुयो। आंरी मार सूं पातसाही सेना रा पग उखड़ण लागा जितै अचाणचक पदमसिंहजी सत्रसालजी रतलाम आया जिणसूं दखणियां रा पग पतल़ा पड़िया अर वै ठैर नीं सक्या। किणी कवि पदमसिंहजी री इण अडरता विषयक लिखै–

पदमसिंह करनेस रा, पैंडा दैण पटेल।
कजल़ी वन रा नीपना, दल़ ओपम दांतेल।।

उण दोनां भायां विचार कियो कै जितैतक पदमसिंह अर सत्रसाल जीवता है जितै अनोपसिंह रो बाल़ ई बांको नीं कर सकां सो पैला इणांनै मारिया जावै। इण खातर एकदिन अचाणचक पदमसिंहजी रै डेरे माथै दिखणियां हमलो कियो। उण बखत महाराज जोगमाया री जोत करै हा सो सत्रसालजी नै आदेश दियो कै हूं सेवा करूं जितै थे आंनै रोको। सेवा कर’र महाराज चढिया अर आंरै माथै आपरो कटक न्हाखियो। जोर झाकझीक बाजी। पदमसिंहजी रो भाल़ो सांवतराय माथै बुवो जिको सांवतराय री छाती अर घोड़ै रा मगरां मांयकर ओझर फोड़तो पार हुयो। घायलियो घोड़ो उठै सूं न्हाठो जको जादूराय रै हाथी कनै जावतो तड़ाछ खाय पड़ियो अर प्राण मुगत हुयो तो सांवतराय रो ई हंसो उडग्यो। जद महाराज तरवार काढ लड़िया। कह्यो जावै कै पदमसिंहजी री तरवार रो तोल पच्चीस सेर हो-

कटारी अमरेस री, पदमा री तरवार। 
सेल तिहारो राजसी, सरहायो संसार।।

उठै पदमसिंहजी रो घोड़ो कट पड़ियो जणै उवां गाडण गोरधनजी रै *पतासै* घोड़ै चढ रण मांडियो। उठै दिखणियै गणपत रै वार सूं ओ घोड़ो ई कटियो जणै महाराज पूरबिये भगवंतराय रै घोड़ै चढ खाग बजाई। उठै महाराज एकला पड़िया जको दिखणिया च्यारां कानी झूंबिया। तरवारां री चौकड़ी पड़ी। महाराज घायल हुय पड़िया। रीस में दांत पीसै अर किड़किड़ी खावै। घायल महाराज रै किणी बरछी बाही तो किणी तरवार बाही। महाराज भाभड़ाभूत हुय घायलिये सिंघ ज्यूं दहाड़ां करै। उण लड़ाई में महाराज रा केई जोगता मिनख काम आयां।

रणांगण में जादूराय आपरै आदम्यां नै दाग दिरावण हथणी सूं उतर मैदान आयो। आगै उण लोही सूं गरकाब महाराज कानी देख्यो। महाराज नै कोई सुधबुध नीं। पूरो शरीर घावां सूं चकबोल़। हथियार पूरा छूट पड़्या। खाली एक कटार कमर बंधी रैयी तोई लोही रा पिंड बणावै। जणै किणी दिखणियै जादूराय नै कह्यो-
“ऐ इज महाराज पदमसिंह है। जिणां आपरै भाई सांवतराय नै दुरगत कर’र मार्यो।”

जणै रीस में जादूराय जाय महाराज रै माथै खांडो बायो। खांडो कांई लागो जाणै महाराज नै चेतो आवण री कोई औषधि दी हुवै। जरड़ दैणी उभा होय जादूराय रो घांटो झाल नीचो न्हांख’र छाती में गोडो देय अर कमर सूं कटार काढ बाही। कटार जादूराय री छाती चीर पार हुई। पाछी कटार काढ भल़ै बाही जको महाराज रो हाथ अर कटार जादूराय री छाती में इज रह्या अर दोनां रा प्राण पंखेरू उडग्या। नीचै जादूराय अर ऊपर महाराज। दिखणियां महाराज नै झपट आगा लिया तो देख्यो कै जादूराय री छाती में महाराज रो हाथ आंतड़ियां अल़ूझ्योड़ो।

दिखणियां जादूराय, सांवतराय दोनां नै भेल़ो दाग दियो। पछै महाराजा अनोपसिंहजी ई तापी नदी रै कड़खै पदमसिंहजी नै दाग दियो अर छतरी कराई।

आधुनिक इतिहासकारां लिख्यो है कै जे पदमसिंहजी जैड़ा वीर आलमगीर री भीर नीं कर’र जे मराठां रा हमगीर बणता तो आज भारत रो इतिहास ई बीजो हुवतो। पण होणी नै कुण टाल़ै।

पदमसिंहजी री उण वरेण्य वीरता नै अंकित करता तेजसी सांदू भदोरा लिखै–

लागा पग सेस आभ सिर लागो,
सुणिया नहीं भागो संसार।
मोटी पाघ ऊपरै पदमा,
तूटी सुणी घणी तरवार।।

आ ई बात रतनू सूरदासजी बलोत (दासोड़ी) लिखै—

एकण पदम तणै आकल़ता,
भड़ै घणै ऊझटै भिड़।
पड़िया लगां अबाही पदमै,
पदम तणा नवदूण पिड़।।

किणी दूजै कवि जादूराय नै गोडां तल़ै मसल’र मारण रै भाव रो गीत लिखतां कह्यो है-

घावां बहुत खेत पड़्यो वप घूमत,
बुधहीणै कीवी सिर बाह।
जठै पदम गिरतै जादम नै,
गोडां तल़ दीना गजगाह।।

इणी वीरता बाबत रतनू दूदाजी बलोत (दासोड़ी) लिख्यो है–

करि जुध धरा रह्यो करनाणी,
बदखोरो आयो चढ बाढ।
घोड़ै हूंत लियो झलि घांटो,
देखत पार करी जमदाढ।।

महाराज पदमसिंहजी रो नाम जितरो वीरता में मसहूर उतरो ई उदारता में चावो। उणां गोगजी बीठू रो काल्पनिक खत अफट राख्यो अर हर दसरावै आपरी ओलाद नै उणांरो ब्याज चुकावण रो आदेश दियो तो सिंढायच हरिदासजी बाणावत री नौ लाख री हूंडी एक दूहै माथै भरी–

रघुपत काय न रक्खियो, एक पदम आराण।
पाण अठारै पदम रै, कर तो वल़ केवाण।।

पदमसिंहजी री वीरगत वरियां पछै किणी कवि उणांरी उदारता नै चितारतां लिख्यो–

गज दुय सांसण गांम, लाख दोय हिक लहर में।
हव कव पूरण हांम, कद अवतरसी करनउत।।

महाराज पदमसिंहजी री वीरता, साहस, उदारता अर निर्भीकता विषयक जाणकारी तटस्थ भाव सूं आजरी पीढी नै मिलणी चाहीजै।

~गिरधरदान रतनू दासोड़ी

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