राजस्थान में सांस्कृतिक चेतना व साहित्यिक संपदा को संरक्षित व संवर्धित करने में डिंगल काव्यधारा का महनीय अवदान रहा है। लेकिन प्रायः हम यह सुनते आए हैं कि डिंगल कवियों की रचनाओं में युगबोध अथवा समकालीन सोच नहीं होता है। यही नहीं इन कवियों की रचनाओं में संवेदनाओं की शुन्यता व आम आदमी की व्यथा कथा का नामोनिशान ही नहीं है। आरोपण करने वालों का कहना है कि यह काव्य केवल सामंती सोच का पक्षधर व स्तुतिपरक रचनाओं की बहुलता वाला है।
यह सभी आरोप एकपक्षीय व पूर्वाग्रहों से परिपूर्ण है। क्योंकि साहित्य का अर्थ ही सार्वजनीन व सार्वभौमिक हित संधान होता है तब डिंगल काव्य इसका अपवाद कैसे हो सकता है?
इसका सृजक किसी जाति अथवा समुदाय का क्यों न हो! वो व्यष्टिपरक हितसंधान की बात कैसे कर सकता है? अतः डिंगल काव्य भी समष्टिमूलक ही लिखा गया है।
वैसे भी सर्वविदित तथ्य है कि समय और समाज सदैव परिवर्तनशील है। ऐसे में साहित्य ही जनमानस के अंतर्मन में गहरे उतरकर उसकी मानसिकता को प्रभावित कर उसकी सोच का निर्माण करता है।
सोच के साथ ही सामाजिक परिस्थितियां तथा प्रतिबद्धताएं बदलती है। जब परिस्थितियों व प्रतिबद्धताओं में बदलाव आता है तो साहित्यिक पृष्ठभूमि भी बदल जाती है। ऐसे में कवि अथवा साहित्यकार तत्कालीन समय के सच से रूबरू होता ही है। उस समय वो चाहे डिंगल में लिखे अथवा अन्य किसी भाषा में। लेकिन सच से साक्षात्कार करता ही करता है। वातावरण भलेही अनुकूल रहे अथवा विपरीत, वो अपनी अभिव्यंजना बिना किसी हानि-लाभ की सोचकर करता है। इस परिपेक्ष्य में मुरारीदानजी मंडपी की स्वीकारोक्ति युगीन डिंगल काव्य धारा को कसौटी पर परखने हेतु प्रयाप्त होगी-
भूंडी हो अथवा भली, है विधना रै हाथ।
कवि नै तो कहणी पड़ै, बणै जकोई बात।।
इसी बात की ताईद देवकरणजी ईंदोकली करते हैं। वे कवि को समय का कैमरा मानते हैं-
कूड़ी साची कैवणी, है नीं म्हांरै हाथ।
कवी समय रो कैमरो, विश्व बात विख्यात।।
लेकिन अधिकतर इसकी आलोचना वे ही लोग करते हैं जो इस काव्य की भाषा व भावों से दूर-दूर की रिश्तेदारी ही नहीं रखते।
डिंगल राजस्थानी की काव्य शैली है जिसमें महाप्राण ध्वनि वाले तथा वजनदार शब्दों का बाहुल्य माना गया है। सीतारामजी बीठू के शब्दों में-
परहरै कोमल़ां पुरस व्यंजन पड़ै,
अड़ै ना कंठ अणपाठ आखै।
अरथ में अनंत विद्यार्थी अड़बड़ै,
भड़भड़ै व्याकरण सिद्ध भाखै।।
यही कारण है कि इसे महावीरों की प्रिय भाषा की संज्ञा से अभिहित किया गया है-
संस्कृत प्राकृत तै घणी सावणी,
भड़ां मन भावणी डिंगल़ भाखा।
परंतु डिंगल में वीर रसात्मक काव्य का आधिक्य होते हुए भी अन्य रसों को पूर्णरूपेण स्थान मिला है।
डिंगल की अपनी प्रवृत्तिगत विशेषताएं हैं, जो विविधवर्णी है। इसमें राष्ट्रीय चेतना की अनुगूंज है तो वीर वाणी का अजस्र प्रवाह भी। इसमें प्रेरणा का स्रोत प्रशस्ति काव्य है तो इतिहास चेतना के मुखर स्वर भी। अंतस उद्गारों की अभिव्यक्ति के रूप में भक्ति काव्य है तो समन्वय व समरसता का सुभग संदेश भी। इसमें उत्कृष्ट का अभिनंदन है तो निष्कृष्ट का निंदन भी। इसमें मर्सिया काव्य है तो प्रकृति के चारू चित्रण को निरूपण करती रम्य रचनाएं भी। नीति-निर्देशन है तो उत्साह संचरित करता रंग काव्य भी।
ऐसी विविध बहुरंगी विशेषताओं वाले काव्य के विभिन्न पक्षों पर चर्चा नहीं करके आलोचक केवल इसे प्रशस्तिमूलक काव्य के रूप में निरूपित कर अपने ज्ञान की इतिश्री कर लेते हैं। जो कि कतई सही नहीं है।
मैं यहां अन्य प्रवृत्तियों की चर्चा नहीं करके केवल डिंगल के युगबोध अथवा समकालीन सोच की बात करूंगा। समय के सच को पहचानकर चेतना व जागृति के समवेत स्वरों का नाम ही प्रगतिशीलता है।
या यों कहें कि यथार्थ का चित्रण ही प्रगतिशीलता है। इस नाते भी डिंगल काव्य को परखने, समझने की कोशिश करें तो भी डिंगल काव्य खरा उतरता है।
खरा उतरना स्वाभाविक भी है क्योंकि डिंगल काव्य में युगीन बोध प्रमुखता से प्रतिध्वनित हुआ है। यह बात सभी समालोचक जानते हैं। वे यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि कोई भी काव्यधारा हो वो अपने समय के सच को अभिव्यंजित करती ही है।
डिंगल कवियों ने भी पथ विस्मृत लोगों का पथ प्रशस्त करत हुए सदैव अपनी निर्भीकता का परिचय दिया। उन्हें भी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हेतु सत्ता का कोपभाजन बनकर निर्वासित तथा कष्टसाध्य जीवन जीना पड़ा परंतु वे इस बात पर अडिग रहे कि-
हूं तो देखूं जैड़ी दाखूं।
हूं तो कूड़ रति ना भाखूं।
उनकी सत्यता सदैव असंदिग्ध रही है।
डिंगल कवियों ने सदैव सत्ताधारियों को ही रंजित किया हो ऐसी बात नहीं है। वे तो सत्ता के बागी वीरों के अधिक अनुरागी रहे है। अगर हम निष्पक्ष भाव से अध्ययन करेंगे तो बात स्पष्ट हो जाएगी कि डिंगल़ कवियों ने अधिकतर कविताएं उन लोगों के सम्मान में की जो धरती, धर्म, अपने मानवीय अधिकारों की रक्षार्थ युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त कर गए। उनके पीछे या तो संतति रही नहीं और रही तो घर तूटने से नादारगी में जीवन यापन करने वाली।
इस स्वीकारोक्ति में कोई संकोच नहीं कि जो अपने सिंद्धातों, वचनों, स्त्री रक्षार्थ, स्वाभिमान, धर्म, धरती अथवा स्वातंत्र्य की भावनाओं का प्रबल पोषक रहा उनका चरित्र चित्रण इन्होंने हृदय की गहराईयों से मंडित किया है। इन कवियों ने मुखरता से कह दिया था कि धर्म जाते, धरती छिनते या स्त्रियों पर आसन्न संकट को देखकर मृत्यु का वरण हरएक को करना चाहिए-
धर जातां धर्म पल़टतां, त्रिया पड़तां ताव।
तीन दिहाड़ा मरण रा, कहा रंक कहा राव?
मध्यकालीन कवि दुरसाजी आढा, जाडाजी मेहडू, रंगरेला बीठू, नरहरिदासजी बारठ, मुरारिदानजी बारठ, दलपतजी बारठ, करनीदानजी कविया से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के लोकचेतना के प्रतीक बांकीदासजी आशिया, बुधजी आशिया, सूर्यमल्ल जी मीसण, जनकवि ऊमरदानजी लाल़स, तथा बीसवीं सदी के मुखर कवि हिंगलाजदानजी कविया, केशरीसिंहजी बारठ, देवकरणजी बारठ, अक्षयसिंहजी रतनू, जसकरणजी रतनू, नारायणसिंह जी शिवाकर, बदरीदानजी गाडण, बदरीदानजी कविया की सतत श्रृंखला में वर्तमान कवि डॉ.शक्तिदानजी कविया, लक्ष्मणदानजी कविया, डूंगरदानजी आशिया, मोहनसिंहजी रतनू प्रभृति कवियों की रचनाओं का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि इनकी रचनाओं में लोकभावों की ललक है तो
जनचेतना के स्वरों की अनुगूंज भी। समकाल से कदमताल है तो युगबोध को प्रतिध्वनित करते स्वर भी। इस सुदीर्घ श्रृंखला को पढ़ेंगे तो हम निर्विवाद रूप से पाते हैं कि इनकी कविताओं में वर्गचेतना, सामाजिक विषमता, शोषकों के प्रति आक्रोश, मानवीय मूल्यों की स्थापना, स्त्री सम्मान के प्रति प्रतिबद्धता मुखरता से प्रकट होती है।
इस बात के स्पष्टीकरण के रूप में दुरसाजी आढा की रचना ‘किरतार-बावनी’ पढ़ते हैं तो हम उनकी जनवादी सोच तथा प्रगतिशील अभिव्यंजना से परिचित होते हैं। इस रचना में कवि का मुखर स्वर शोषितों के पक्ष में करुणार्द्र होकर उभरा है। भलेही हम इसे आजकी वर्गचेतना की श्रेणी में शुमार करने से आनाकानी करें परंतु इसमें कोई दोराय नहीं है कि कवि ने मजदूर, कृषक, मरजीवा, बाजीगर, महावत, नौकर, मछवारे, भिखारी, लकड़हारे, मदारी आदि का जो कारुणिक चित्रण उकेरा है। उससे कवि की मानवीय सोच तो प्रकट होती ही है, साथ ही संवेदनात्मकता का स्पंदन भी परिलक्षित होता है। दुरसाजी का उक्त रचना में आम आदमी की व्यथा-कथा से सरोकार अभिव्यक्त होता है।
कवि ने उन जातियों, व्यक्तियों और धंधों को अपनी इस रचना में वर्ण्य विषय बनाया जो जीवनयापन हेतु कष्ट साध्य से कष्ट साध्य कार्य हेतु विवश थे। कवि की हर पंक्ति- “किरतार पेट दुभर कियो, सो काम एह मानव करै।” कटु जीवनानुभवों को अभिव्यंजित करती है। इस बात की स्पष्टता हेतु लकड़हारे की बेवशी का एक करुण जीवंत चित्र श्री आढा के शब्दों में–
जेठ महीने जोर, तपै तिहां दणीयर तातो।
धरती वसदे धखै, महा बल़ लूयै मातो।
काल़ा गिरवर कहर, जोई तिहां निरधन जावै।
सिर भारो ले सबल़, धसे घर सांमो धावै।
भार संजोगै भेदीयो, भूमि पाव पाछा भरै।
किरतार पेट दुभर कियो, सो काम मानव एह करै।।
इन्हीं कवि दुरसाजी की रचना ‘विरद छिहतरी’ तत्कालीन समय की अद्वितीय रचना है। जिसमें धरती, धर्म व स्वाधीनता के लिए अपनी ध्वजा फहराने वाले महाराणा प्रताप के यशस्वी चरित्र की चंद्रिका चतुर्दिक चमकाने का काम किया गया है। उस समय जिन राजा महाराजाओं ने अपनी स्वाधीनता व स्वाभिमान अकबर के यहां गिरवी रखा, उनको कवि ने संवेदनाशून्य पत्थरों व महाराणा को पारस की संज्ञा से अभिहित करते हुए कहा है-
अकबर पथर अनेक, के भूपत भेल़ा किया।
हाथ न आयो हेक, पारस राण प्रतापसी।।
इन्हीं कवि के समकालीन कवि जाडाजी मेहडू(महकरणजी) ने तो एक कदम आगे चलकर उन जमीर बेच चूके राजाओं को लताड़ा है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि विधर्मियों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर उनसे जो खिताब प्राप्त कर रहो ! उसमें कौनसी बडाई परिलक्षित हो रही है? कवि उनका उपहास कुछ यों करता है-
हाथीबंध घणा घणा हैवरबंध,
किसूं हजारी गुमर करो?
पातल राण हसै त्यां पुरसां,
भाड़ै महल़ां पेट भरो!!
आज हम जिस स्त्रीविमर्श की बात करते हैं, उसकी बात तो सत्रहवीं शताब्दी में ही कविश्रेष्ठ रंगरेला(वीरदास) बीठू ने करदी थी। पश्चिमी राजस्थान के धाट इलाके में जहां पानी की बड़ी किल्लत थी। वहां तालाबों से पानी स्त्रियों को लाना पड़ता था। दूरदराज के जलाशयों से पानी लाना बड़ा दुष्कर कार्य था। सिर पर पानी का भार, घर पर भूख से बिलबिलाते बच्चे आदि का कारुणिक चित्रण रंगरेला ने यों किया है-
पदम्मण पाणीय लैण प्रभात।
रुल़ंतिय आवत आधिय रात।
बिलक्खाय टाबर जोवत वाट।
धिनो धर धाट धिनो धाट।
रंगरेला ने तत्कालीन जैसलमेर राज्य की सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विषम परिस्थितियों का बेबाक चित्रण किया है-
राती रिड़ थोहर मधम्म रूंख।
भमै दिगपाल़ मरंताय भूख।
हुंचेरांय तालर आवत हेर।
म्हैं दीठाय जादम जैसल़मेर।।
गल़्योड़िय जाजम मांय बगार।
जुड़ै जंँह रावल़ रो दरबार।
घोड़ा ढिग लाख बुगांराय ढेर।
म्हैं दीठाय जादम जैसलमेर।
तो इनके परवर्ती कवि मयारामजी सिंढायच ने तो इनसे एक कदम आगे बढ़कर जैसलमेर की दारुण-दशा का चित्राम उकेरा है-
खींपां रा खोलड़ा, छझ मुरटां छाईजै।
मांय जवा मोकल़ा, खैण हूंछां खाईजै।
पाणी साठां पुरां, खोद काढै तो ई खारो।
हल़ ओठा हाकणा, अरोगण दूध अज्या रो।
जो लोग केवल यह जानते हैं कि डिंगल सामंती प्रशंसा का काव्य है। जिसे डिंगल में सर काव्य कहा जाता है। ऐसे लोगों को डिंगल का निंदात्मक यानी विसर काव्य भी पढ़ना चाहिए। उन कवियों ने राजाओं के सद्कार्यों की प्रशंसा में कोई संकोच नहीं किया है तो उनके शोषण, अत्याचार, अनाचार व जनविरोधी कार्यों की भी कटु आलोचना में कोई कोताही नहीं बरती।
जब आमेर कुंवर मानसिंहजी अकबर की तरफ से मेवाड़ का विध्वंस करता हुआ पिछोला झील पर अपने अश्वों को पानी पिलाते हुए गर्वोक्ति से बोला कि- “इस झील पर कभी मेवाड़ में डर पैदा कर राव जोधा राठौड़ ने अपने घोड़ों को पानी पिलाया था या फिर आज मैं पिला रहा हूं।” मानसिंहजी के ही एक सैनिक जगा बारठ को यह थोथी गर्वोक्ति असहनीय लगी तो उसने तत्काल कहा कि- “अकबर के बल पर आए हैं! इसमें आपकी क्या बडाई है?-
माना मन अंजसै मती, अकबर बल़ आयाह।
जोधै जंगम आपरा, पाणां बल़ पायाह।।
जब बीकानेर महाराजा दलपतसिंहजी, जहागीर के खिलाफ रण मैदान में आए तो अपने ही बंधु-बांधवों के घात से पकड़े गए। उस समय सताजी बीठू ने वीरता का दंभ भरने वाले राठौडों की कटु निंदा करते हुए कहा था-
फिट वीदां फिट कांधलां, जंगल़धर लेडांह।
दलपत हुड ज्यूं पकड़ियो, भाज गई भेडाह।।
जब जोधपुर महाराजा अजीतसिंहजी ने अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु दिल्ली के वृद्ध बादशाह फरुखसियर को अपनी 17वर्षीय राजकुमारी इंद्रकुंवर का डोला दिल्ली भेजा। इस बात का पता भभूतदानजी कैर को चला तो उन्होंने महाराजा के इस संवेदनहीन कृत्य की कटु आलोचना की थी। मानवाधिकारों की बात करें तो इससे बड़ी पैरवी क्या हो सकती है? निरंकुश महाराजा को उलाहना देते हुए कवि ने कहा-
काल़च री कुल़ में कमंध, राची किम आ रीत।
दिल्ली डोलै भेजनै, अबखी करी अजीत।।
इन्हीं महाराजा की जब उनके ही पुत्र बखतसिंह ने हत्या करदी तो निडर कवि दलपतजी बारठ ने पितृहन्ता की निंदा में “पिता मार पच्चीसी” बनाकर अपने कवि कर्म का निर्वहन किया था। बखतसिंह के इस कायराना कृत्य की निंदा करता हुआ कवि कहता है-
नृप बखता राच्यो नहीं, जूने नरकां जीव।
आछी दी अजमाल रा, नवा नरक री नीव।।
इस बात से नाराज होकर बखतसिंहजी ने कवि को अपने राज्य नागौर से निष्कासित कर दिया था। उस समय भी कवि ने अपनी बेबाकी का परिचय देते हुए कहा था कि-
‘नाक भींच निकल़ू जितो, (थारो)नागाणो नरियंद!!’
इसी कड़ी में करनीदानजी कविया ने तो बखतसिंह के जीवनकाल के सभी कुकृत्यों की निंदा करते हुए यहां तक कह दिया कि-
बखतेस जनम पायां पछै,
किसी बात आछी करी?
जब राजाओं की आपसी फूट, वैमनस्यता आदि का फायदा उठाकर अंग्रेजी सत्ता ने अपने पैर मजबूत करने लगी। जब भारत में चारों तरफ अंग्रेजी आक्रांताओं का आतंक हावी होने लगा तब पूरे देश के कवियों की कलम किंकर्तव्यविमूढ़ थी। उस समय बांकीदासजी आशिया का नाम हमारे सामने आता है। हम उस समय उनके अभिजात्य वर्ग के कवि रूप से कहीं अधिक आम आदमी के पक्ष में अभिव्यक्ति करने वाले कवि रूप से अधिक परिचित होते हैं।
उस समय पूरा देश, पूरे देशी राजा अंग्रेजों के आतप से आतंकित और शंकित थे। उनके खिलाफ किसी में चूं तक करने की हूंस नहीं थी उस समय इस भविष्यदृष्टा कवि ने भारतीय जनमानस को जाति, पांति धर्म समुदाय की भावनाओं से ऊपर उठकर अंग्रजों का संगठित मुकाबला करने का आव्हान किया था। इस प्रकार का बेबाक उद्घोष करके सुशुप्त भारतीय जनमानस में जोश संचरण करने का प्रथम श्रेय लेने वाले बांकीदासजी ही थे।
1857के गदर से 52 वर्ष पूर्व अर्थात 1805ई. में ‘चेतावणी रो गीत’ लिखकर राजस्थान के राजाओं को फटकारते हुए अंग्रेजो की कुचालों से बचने का आव्हान किया था-
आयो अंगरेज मुलक रै ऊपर,
आहंस लीधी खैंच उरां।
धणियां मरै न दीधी धरती,
धणियां ऊभां गई धरा।।
बांकीदासजी ने उन तमाम राजाओं व ठाकुरों की कटु निंदा की है। जो गुपचुप तरीके से विदेशी सत्ता को दंड भरते थे और ऊपर से अपनी निडरता की शेखी बघारते थे-
सुहड़ां सीख घरां नै समपे,
गोढे राखो गोला।
रुपिया जाय भरो अंगरेजां,
बंगल़ै बोला बोला।।
आज हमारी सरकारें देश की आजादी के सत्तर वर्षों बाद ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसा नारा लेकर आई हैं। वहीं बांकीदासजी ने आज से दौ सौ वर्ष पहले इस पर लिखा और उसी शासक या राज को अच्छा माना जहां ‘बेटी की हत्या न की जाती हो, गौ और शास्त्रवेत्ताओं को श्रद्धेय माना जाता हो, सत्य पर अडग रहकर विद्वानों को सम्मान दिया जाता हो-
बोलै साच, न मारै बेटी,
मांनै बंभ सुरह मन मोट।
वित सारू दत्त दिए वीदगां,
खत्रियां तिकां नै लागै खोट।।
उसी समय राजा-महाराजों को चेताते हुए बुधजी आशिया ने बेबाक कहा था कि अत्याचार का एक दिन अंत अवश्यंभावी होना ही है। उन्होंने कहा कि दंभियों को लंका की गति पर दृष्टिपात करना चाहिए। जहां रावण जैसे दंभी का अंत रीछ-वानरों की सेना ने कर दिया था-
बाल़कनाथ कहै छै बाबा,
किल्लां गुमर मत कीजो।
लंका रीछ बांदरां लूटी,
दिष्ट जिकण पर दीजो।।
डिंगल कवियों ने समय की पदचाप को पहचानने में रति भर भी चूक नहीं की। वे सही रूप में जानते थे कि महलों में अकर्मण्यता घर करने लगी है। जहां श्रमसाधना का कोई मोल नहीं रहा। जहां केवल हाथों पर हाथ धरे लोग निठल्ले बैठे हों। ऐसे में देश की दशा सुधारने एवं एक दिशा निर्धारित करने में झोपड़ों अर्थात जनसाधारण की भूमिका महनीय होगी।
इसलिए ही मालाजी आशिया को कहना पड़ा-
जूझै माला झूंपड़ा, गावां जस रा गीत।
बेगी पाछी बावड़ै, रणां मरण री रीत।।
ब्याल़ू बातांरांह, अकरम किम जीवै अठै।
हिलतां हाथांरांह, दीपै करतब देवड़ा।।
जहां-जहां सामंतों का शोषण डिंगल़ कवियों ने देखा वहां उन्होंने बिना हिचक जनपक्ष में अपनी वाणी मुखर की। महेवा के मालिक ने जब जनता को पीड़ित व प्रताड़ित किया तब बगसीरामजी रतनू ने प्रखरता से कहा था-
मिद्धम दाखूं देश महेवो।
करै धणी परजा सूं केवो।
बेगा थका हिये मे बेवो।
सुख-दुख घरै आपरै सेवो।।
जब जनता को लगने लगा कि अंग्रेजों के आतंक से मुक्ति दिलाना राजाओं के वश की बात नहीं रही है। ऐसे में इन दोनों के खिलाफ जनता को ही उठना होगा। जब जनसाधारण में इस चेतना का संचरण होने लगा तब जन भावों के पक्ष में हिंगलाजदानजी कविया को लिखना पड़ा-
झाल़्यो बल़ झूंपड़ां,
कालजो हाल्यो किल्लां।
दबगी गोफ्यां देख,
टकर खाणी गज टिल्लां।
खग ढालां बीखरी,
जेल़ियां जोड्या जिल्ला।
धणियां री धातरी,
प्रातरी लेवै पल्ला।
जोड़ता हाथ थांनै जिका,
ऊभा हाथ उबारियां।
गढपत्यां आज कोठै गई,
तेग तणी तरवारियां।।
जब-जब देश में सामाजिक समरसता में खटास आया है अथवा भातृत्व भाव कमतर होने लगा या वैमनस्यता बढ़ी या धर्मांधता ने पैर पसारे तब-तब डिंगल कवियों ने अपनी वाणी मुखर कर सांप्रदायिक सौहार्द्र स्थापित करने में अपनी महनीय भूमिका निर्वहन की। भलेही महात्मा ईशरदासजी हो, भलेही पीरदानजी। भलेही अलूजी कविया हो भलेही चिमनजी कविया सभी ने सामाजिक समरसता व धार्मिक सहिष्णुता स्थापित करने में अपनी उदात्त मानसिकता का परिचय दिया है।
ये कवि सर्वधर्मसमभाव तथा समन्वय का माहौल बनाने हेतु सदैव सचेष्ट रहे। अलूजी ने ह़िदू-मुस्लिम एकता का सुभग संदेश देते हुए कहा है-
कुण हिंदू कुण तुरक,
कवण काजी व्रमचारी।
कुण मुल्ला दरवेश,
जती जंगंम विचारी।।
इसी भावों का अवगाहन करते हुए ईशरदासजी कहते हैं कि ईश्वर तो एक ही है भलेही पूजा पद्धतियां अलग हो। ऐसे में झगड़ा क्यों-
एक करै वरत एक करै रोजा,
एक जाय जगति एक जाए हजा।
एक कहै अनंत एक कहै आलम,
एक कहै ईस एक कहै आदम।।
ईशरदासजी के मानस शिष्य पीरदानजी लालस तो ईश्वर का आव्हान हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने तथा दंगाइयों के दमन हेतु करते हुए लिखते हैं-
आवो उरां परमेसर एक, हिंदू तुरक न हुवै हेक।
मार मार दइतां नै मीर, पुणै चौपई बारट पीर।।
यही नहीं डिंगल कवियों ने तो जातीय जकड़न पर भी प्रहार किया है। ईशरदासजी ईश्वरीय विधान से प्रतिप्रश्न करते हुए यहां तक कहते है कि पूरी मानवीय सृष्टि सृजन अगर ईश्वर के ही हाथ में हैं तो किसी को तथाकथित उच्चकुल में तो कुछ को तथाकथित नीच वंश में जन्म देता ही क्यों है? सभी को समकक्ष रखना चाहिए–
आद तूझ थी ऊपन्या, तैं सरज्या सह जीव।
ऊंच-नीच घर अवतरण, दे क्यूं वंश दईव?
जातीय जकड़न से भारतीय समाज में पनपती विषमता व खटास की तरफ हमारा ध्यानाकर्षण करते हुए नारायणसिंहजी कविया लिखते हैं-
बीखरिया बेकार है, गिणिया अणगिणियाह।
माल़ा में ई ओपसी, माल़ा रा मिणियाह।।
भारत नै गारत करै, छूआछूत रो भूत।
धारै दूजै धरम नै, देखो हिंदवण पूत!!
भलेही डिंगल कवियों का मन रणखेती में ज्यादा रमा हो लेकिन इनके मनमें हल़ व हल़धर के प्रति जो सम्मान रहा वो वरेण्य कहा जा सकता है। उन्होंने निःसंकोच कृषक को एकमात्र कमाऊ तथा अन्यों को केवल मुफ्तखाऊ कहा है। जनकवि ऊमरदानजी लाल़स कहते हैं-
जटा कनफटा जोगटा,
खाकी परधन खावणा।
मुरधर में कोड़ा मिनख,
(ज्यां में) किरसा एक कमावणा।।
यही कारण है कि मेहनतकश और खेतीखड़ के पक्ष में इन कवियों ने अपनी वाणी मुखर की। कवियों ने स्पष्ट कहा है कि अब केवल गीत सृजन का समय नहीं रहा है। अब तो गीतों को फिटा(छोड़ने) करने एवं फोग गुड़ाकर(काटने) कुस-के-बाप (हल) की चाकरी करने का समय है। हरदानजी बारठ के शब्दों में–
आछा मेह हुवै ऊनाल़ू,
सारी जिणसूं गरज सरै।
चार महीनां करो चाकरी,
कुस रो बाप निहाल करै।।
अगर इसकी सेवा करेंगे तो बदले में शरीर को बलिष्ठता प्रदान करने वाली थल़ देश की बाजरी मिलेंगी-
जाजरी बाजरी राज री जीमणी,
थल़ी रा देश बल़िहार थारै।
गीतों को त्यागने तथा हल को अपनाने का सुभग संदेश देकर डिंगल कवियों ने धरतीपुत्र की महत्ता प्रतिपादित की है साथ ही श्रमनिष्ठा से मुख मोड़ने वालों को चेताया है। रामाजी रतनू कहते हैं-
भणियोड़ा भूखां मरै, खड़ै जिकै अन्न खाय।
गीतां सूं ओगत गई, है ओपत हल़ मांय।।
लब्बोलुआब कहा बिना हिचक के कहा जा सकता है कि डिंगल ने उन सभी विषयों पर अपनी कलम चलाई जिससे मानवीय मूल्यों को संरक्षण मिले। इन मनीषियों ने अंधविश्वास, पाखंड, जातिवाद, अफंड, शोषण, क्रूरता, मानवाधिकार, समरसता, अत्याचार आदि विषयों पर अपनी कलम चलाकर युगीन चेतना का परिचय दिया। इन कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से कृषकों की कारुणिक दशा, पर्यावरण संरक्षण, सांप्रदायिक सद्भाव, नशा निवारण आदि उकेरकर सिद्ध किया कि वे केवल समय के मूक दर्शक नहीं अपितु समय के प्रखर प्रवक्ता तथा नीति निर्देशक हैं। तभी तो उदयराजजी उज्ज्वल कहते हैं-
जद कद किणी समाज में,
आवै पतन अथाग।
बीती संपत बाहुड़ै,
इण साहित अनुराग।।
~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान,
दासोड़ी कोलायत, बीकानेर।