हर बात को खुद पे खताना, बन्द करिए बापजी।
बिन बात के बातें बनाना, बन्द करिए बापजी।
बीज में विष जो भरा तो फल विषैले खाइए,
ख़ामख़ा अब खार खाना, बन्द करिए बापजी।
सागरों की साख में ही साख सबकी है सुनो!
गागरों के गीत गाना, बन्द करिए बापजी।
लफ़्ज वो लहज़ा वही, माहौल ओ मक़सद भी वो,
चोंक जाना या चोंकाना, बन्द करिए बापजी।
पनिहारिनों की पिंडलियों से नीर लिपटा देख कर,
मेंढकों जिम मसमसाना, बन्द करिए बापजी।
आस्तीनों के भुजंगों की जरा परवाह करो,
बेबात का बाजू चढ़ाना, बन्द करिए बापजी।
वोट के खातिर वतन के अमन को गिरवी रखा,
चैन जनता का चुराना, बन्द करिए बापजी।
वक्त की आँधी में दंभी दुर्ग रज ज्यों उड़ गए,
अहम को फ़िर आजमाना, बन्द करिए बापजी।
ग़र तुम्हारे जहन में धोखा फ़रेबी कुछ नहीं,
(तब) चोर ज्यों आँखें चुराना, बन्द करिए बापजी।
ए वतन के रहनुमाओ! रहम हम पे ये करो,
भावनाएँ बेच खाना, बन्द करिए बापजी।
एक झटके में बलंदी से गरत में जा गिरे,
फ़िर हमें ठेंगा दिखाना, बन्द करिए बापजी।
हार हो या जीत जन के बीच रहना सीखिए,
पाँच बरसों बाद आना, बन्द करिए बापजी।
जो दगा करके सगा बन सामने आए कभी,
(उस) मतलबी को मुँह लगाना, बन्द करिए बापजी।
“गजराज” ‘अंगों की जुबां’ पढ़ने लगे हैं लोग अब,
हर बात का मतलब बताना, बन्द करिए बापजी।
~डॉ. गजादान चारण ‘शक्तिसुत’