कविवर झूंठाजी आशिया कह्यो है कै भीतां तो एक दिन धूड़ भैल़ी हुय जावैली पण गीत अमर रैवैला-
भींतड़ा ढह जाय धरती भिल़ै,
गीतड़ा नह जाय कहै गांगो।
आ बात एकदम सटीक है जिण लोगां मोटी पोल़ां चिणाई उणां रा नाम आज सुणण में कदै-कदास ई आवै पण जिकां मन-महराण ज्यूं राख्यो, उणांरो नाम आज ई हथाई में नित एक-दो बार तो आ ई जावै तो ब्याव-बधावणां में ई तांत रै तणक्कां माथै उवां रा ई गीत सुणण नै मिलै क्यूंकै-
गवरीजै जस गीतड़ा,
गया भींतड़ा भाज।
जिणांरा गीत प्रीत रै साथै गाईजै उवां में एक उदारमना हा मूल़जी कर्मसोत। धनारी गांम रै ठाकुर रा छुटभाइयां में केहरसिंहजी रै घरै मूल़जी रो जनम हुयो-
तोसूं केहर-तणाह,
मुरधर अंजसै मूल़िया।।
केहरी समोभ्रम चहीला क्रीत रा,
कनकगिर ऊपरां तुंहिज काढै।।
एकदम साधारण घर पण जोग सूं जोधपुर महाराजा जसवंतसिंहजी (द्वितीय) इणांनै नागौर रा हाकम बणा दिया। किंवदंती है कै नागौर किल्ले में उणांनै गड्योड़ो खजानो लाधग्यो।
मूल़जी रै जची कै लारै नाम कै तो भींतड़ां सूं ऊबरै कै गीतड़ां सूं उबरसी। उणांरै मन कह्यो कै भींतां रा तो एक दिन ढिगला हुय जावैला-
पड़िया ढगल़ हुवै पाखाण!
क्यूंकै भू माथै जितरी ई भींता है। ईश्वर उणांरी एक आयु निश्चित की है पण गीतां री आयु तो शेषनाग सूं ई बधीक है-
भू पर जैती भींतड़ा, ईशर निमधी आव।
गाई तिणसूं गीतड़ा, अधक आव अहराव।।
पछै क्यूं कल़दार खरच कर’र दगड़ भेल़ा करूं ?
पण गीत तो अमर कमठाणो है-
कीरत महल अमर कमठाण।
सो गीत ई रचाया जावै।
उणां आपरै मोट्यार गाल़ै में दाढी छंटावण रो उछब आयोजन कियो अर उछब रै टांणै एक ई दिन में 140 ऊंठ उण बखत रै चावै कवियां नै समाप्या। जणै ई तो उक्ति चावी हुई कै भविस में कोई पण दाढी छंटावै जणै “मूल़जी करमसोत छंटावै ज्यूं छंटावजो।”
जिकै कवि उछब रै मौके हाजर हा उणांनै उठै ई करहां माथै चढाय बहीर किया अर जिकै मशहूर हा अर हाजर नीं हा उणांरै घरै पूगता किया-
मूल़ धनेरी मेलिया,
पातां घर पाकेट।।
कह्यो जावै कै मूल़जी 200ऊंठ उण बखत रै चावै कवेसरां नै उपहार स्वरूप भेंट किया-
थेट कमै थल़वाट रा, करहा ले चहुंकूंट।
दीधा पातां दोयसौ, मूल़ै हेकण मूठ।।
आ ईज साख कवि हीरजी सांदू मिरघेसर भरै-
करमसोत मालम कल़ी, मूल़ा रहियो मन्न।
दीधा ओठा दोयसौ, दिलसुध एकण दन्न।।
इण बात री ताईद मदजी आशिया(सोन्याणा) आपरै एक गीत में भरै-
दिए गघ सुपातां हेक दिन दोयसौ,
चित्त मठां तणै उर बीज चमकै।
दुवा सादुल़सी तुंही गघ रीझ दे,
हेमगिर ऊपरां किया हमकै।।
—
होडां कर हलकारिया,
असल थल़ी रा ऊंठ।
कमध मूल़ दे-दे कव्यां,
खाली रखी न खूंट।।
~मदजी सोन्याणा
किणी दूजै कवि कह्यो है कै कीरत रा मारग केई दातारां आप-आपरी मुजब थपिया पण तैं उणांसूं आगै बध’र काम कियो-
सुदतारां संसार, केता इल़ चीला किया।
घलिया घण घंसार, मेरू सिखरां मूल़िया।।
मोहणदासजी कविया बिराई लिखै-
सोभा सादूल़ाह, इल़ा चहूं दिस ऊजल़ी।
मन मोटै मूल़ाह, ऐधूल़ा धन ऊधमै।।
जिण बखत मूल़जी ऊंठां री रीझां करी उण बखत ऊंठ री महत्ता अर उपयोगिता जगचावी ही। उण बखत रै किणी लोककवि कह्यो है कै जे दस छाल़्यां, एक ऊंठ अर सौ खेजड़्यां हुवै तो कैड़ो ई काल़ कूट’र काढदां-
चोखी व्है दस छाल़ियां, एक भलेरो ऊंठ।
सौ खेजड़ व्है सांतरा, काल़ काढदां कूट।।
ऐड़ै में आपां समझ सकां कै ऊंठ कोई बापड़ो पशु मात्र नीं हो अपितु रजवट रो रूप अर थल़वट थंभ हो। जिणनै थल़-जहाज कैय कवियां कीरत करी है। उण धर-करोत नै कवियां रै हाथां सूंपियो।
धर-करोत यानी ज्यूं करोत लकड़ी नै चीरै ज्यूं ईज ऊंठ आपांरै पगां सूं धरती नै चीरतो बैवतो। उण ऊंठ नै कवियां री सवारी सारू सनमान सैती भेंट करणियै कै घरै पूगतै करणियै रै मनमें कवियां अर उणांरी कविता रै प्रति कितरो आदरभाव रह्यो हुसी? आपां कल्पना कर सकां।
हीरजी सांदू लिखै कै मनमठिया तो चढी रै खास जाखोड़ां नै काल़जै री कोर कर’र काठा झाल्योड़ा राखै पण हे मूल़ा! तूं तो तोड कवियां नै कोड कर’र बंधावै-
क्रपण रखै कर कोड, जाखोड़ा चढणै जिसा।
तूं बंधवावै तोड, मौज करी नै मूल़िया।।
हीरजी सांदू सीधो-सीधो इशारो मूल़जी कानी सूं जोधपुर कविराजा मुरारिदानजी नै करी भेंट कानी करै। बात चालै कै कविराजा जोधपुर महाराजा टाल़ किणी री भेंट अंगेजता नीं। उणां ओ पण ले राख्यो। मूल़जी रै मन में सोच्यो कै दूजै केई कवियां नै जाखोड़ा उपहार में दिया पण कविराजाजी नै भेंट नीं करी जितरै कांई कियो? आ सोच’र एक दिन उवै सजाई समेत खास चढी रो पांगल़ लेय’र कविराजाजी री हवेली आगै हाजर हुया। अठीनै सूं कविराजा कचेड़ी पधारण सारू पालकी में विराजण निकल्या ई हा कै मूल़जी अरज करी-
“हुकम हूं ई कचेड़ी ई जाऊं सो आप म्हारै ऊंठ माथै विराज’र म्हनै मोटो करो!”
कविराजाजी कह्यो-
“अरे हुकम! हूं पाछो पछै कीकर आऊंलो ? सो आप पधारो। हूं पालकी में आऊं।”
आ सुण’र मूल़जी कह्यो कै-
“हुकम! हूं ई पाछो ई मारग ई आसूं सो आपनै रावल़ै छोड’र आगै जाऊंपरोला। ”
जद कविराजाजी मूल़जी साथै ऊंठ बैठ कचेड़ी गया। नियंत समय माथै मूल़जी हाजर होय कविराजाजी नै ऊंठ रै आगल आसण बैठाय खुद नीचै ऊभां किड़क देय एक छड़ी री दी। ऊंठ एकी ढाण हुयो। ओ खिलको देख’र कविराजाजी कह्यो-
“रे बडा सिरदार हूं जोधपुर धणी रो अयाचक हूं। हूं किणी री कोई भेंट स्वीकारूं नीं, सो आप आपरो पांगल़ पाछो ले लिरावो। ”
आ सुण’र मूल़जी कह्यो कै-
“हुकम मूल़ै तो आपनै दे दियो ! हमै रावल़ी मरजी है राखो कै आगै किणीनै देवो। ”
आ कैय नागौर रा हाकम मूल़जी उपाल़ा आपरै मारग बहीर हुयग्या।
जद ई तो वीतरागी गणेशपुरीजी ई मूल़जी रै करहां री कीरत करियां बिनां नीं रैय सक्या-
सांगै री कांबल़ सही, हाड दधीच कहाय।
करहा मूल़ कमध रा, जातां जुगां न जाय।।
ओ ई कारण हो कै उण उदारमना रै देहावसान माथै दिलगीर हुय कविश्रेष्ठ ऊमरदानजी लाल़स नै ई कैणो पड़्यो कै आज रजपूती रो कोट नीं रह्यो। जिकै आदमी सारू ऊमरदानजी लाल़स जैड़ो बेबाक कवि ‘कोट रजपूती को’ कैवै! तो आपां सोच सकां कै मूल़जी रो व्यक्तित्व कितरो असरदार रह्यो हुसी-
लूट जस लोट गयो मूलसिंघ मोट मन,
ओट थट अच्छन की कोट रजपूती को।।
उण बखत रै घणै कवियां उण साहित्यप्रेमी सपूत रा मरसिया कैय आपरो कविकर्म निभायो। किणी कवि कह्यो-
दपट सराड़ा दोय, कीरत रा कीना कमध।
हमै न दुसरो होय, मागां हाल्यो मूल़सी।।
जितैतक उदारता अर उदार रै पेटे संवेदनशील रैवणिया रैसी जितरै तक उण सपूत रा ऊंठ अमर रैसी।
~गिरधरदान रतनू “दासोड़ी”