द्रोपदी एक क्षत्रीयांणी हती, राजपूती धर्म अने युद्ध नी कळा ने जांणवावाळी समर्थ विरांगना हती, आजे जो कोई सामान्य स्त्री ना सीयळ पर कोई दुष्ट नजर करे अने आजनी सामान्य नारी जो सिंहण जेम त्राडती होय, तो एतो द्रोपदी …
द्रौपदी
रचना:जोगीदान चडीया
कायर सामे करगरुं, ई,राजपुती नइ रीत
जरी न थाउं जोगडा, भू पर हुं भयभीत
नथी गांगली हुं खरी खत्रियाणीं
उपाडी पछाडुं त मागे न पांणी
धरी हाथ कीर्पांण ने ढुंढ ढाळुं
जगी जोगणी हस्तिनापूर जाळूं 01
चडी चंडका चंड ने मुंड माथे
हजी शस्त्र हुं जो धरुं एम हाथे
दुसासं दुजोधं तणो दाट वाळुं
बधा कौरवो ने उभा आंय बाळुं 02
धरूं धर्म काजे हजू जोगदानं
परीत्रांण साधू करूंहुं प्रदानं
नको कोय जोधा मने संग जोशे
दळुं ऐ बधा ने द्रस्या हींण दोशे 03
पछी नजर फेरवी पांडवो माथे..अने द्रोपदी खीजाई ने बोली..
निचे शुं जुवो छो नथी लाज नेठा
निमांणा बनीने हजूं केम बेठा
धणीं छो धणीं छो छतां धूत कारू
जण्यां कां न पांणा लखो फीटकारू 04
धुतरास्ट्र तो अंध छे एनी तो आशा न करी सकाय..पण हे पितामह भिष्म तमे जोई रह्या छो एना करतां….
भये अंध क्युं ना भिषं द्रस्य भाळी
कपाळे लगावी उभा मेश काळी
करे कूळ नारी कळेळाट काळो
बचावी सको नाय तो मूख्ख बाळो 05
गजां पूर ने द्वारका दूर गाळो
धरम् नो रखोपो रियो क्यां धजाळो
तुये त्रीकमा जो चुक्यो आज टांणुं
जिभुं कैडवी जोगडा हुंय जांणु 06
अहीं द्रोपदी ना थया होय एवा
कहो रैयतो ना हशे हाल केवा
दशा दूर्बळो नी विचारी डरुछुं
नहीं वाळ बांधुं प्रतिज्ञा करुंछुं 07
चिरी छातियुं लोय ना धोध धोबे
पिवे वाळ मारा रणें खोब खोबे
धगंता रगत्ते जदे वाळ बोळुं
तदे चोटलो शींच आ शीस तोळुं 08
~जोगीदान चडीया