ये षड्यंत्री दौर न जाने,
कितना और गिराएगा।
छद्म हितों के खातिर मानव,
क्या क्या खेल रचाएगा।
ना करुणा ना शर्म हया कुछ,
मर्यादा का मान नहीं।
संवेदन से शून्य दिलों में,
सब कुछ है इंसान नहीं।।
‘मैं’ का कारोबार मुल्क के,
कौने-कौने पहुँचा है।
और करे तो अधम कर्म है,
आप करे तो ऊँचा है।
ये कैसा चिंतन है साथी!
ये कैसी होशियारी है।
गप्पों का बाजार गर्म है,
सच ने चुप्पी धारी है।
अच्छे को अच्छा कहने में,
जाने क्यों शर्माते हैं।
और ज़रा सी कमी मिले तो,
उछल-उछल कर गाते है।
रज के कण जितने निज गुण को,
गिरि-सुमेरु बतलाते हैं।
हिमगिरि से पर-गुण को पल में,
पत्थर कह निपटाते हैं।
दोहरे मापदण्ड दुनियां के,
बात बात में बात मिली।
रंग बदलने में मानव से,
गिरगिट-कुल को मात मिली।
सुनी सुनाई बातें लिखकर,
अहम सने इतराते हैं।
आत्मश्लाघा से आगे इक,
इंच नहीं बढ़ पाते हैं।
जानबूझ कर सच पे पर्दा,
डाल झूठ को लिखते हैं।
कुंठा को मौलिकता कहने,
वाले दिखते बिकते हैं।
कुत्सित मन की कुंठाएं अब,
साहित का शृंगार हुईं।
जो ढकने की चीजें थीं,
वे नंगी सरे बाजार हुईं।
शयनकक्ष के दृश्य सभा की
बन शोभा इतराते हैं।
द्वि-अर्थी संवाद मंच की,
अब रौनक कहलाते हैं।
धारावाहिक शो टीवी के,
‘वल्गर’ पन पे टिकते हैं।
अनैतिक अश्लील आचरण,
मुख्य रोल में दिखते हैं।
कार्टून के चैनल जो कि
बच्चों के मन भाते हैं।
उनमें भी ये प्रगति-पुजारी,
घृणित दृश्य दिखाते हैं।
शैशव वय की नादानी में,
ये शैतानी भरते हैं।
इंसानों का चोगा धारे,
कृत्य हैवानी करते हैं।
जगो हिन्द के सजग युवाओ!
छद्म वार को पहचानो।
दोमुंहें सांपों को देखो,
उनके फन का फन जानो।
तटस्थ रहे तो ताना-बाना,
उलझेगा या टूटेगा।
‘मुझको पता नहीं’ कहने से,
अब ये पिंड न छूटेगा।
बाकायदा शौक भले ही,
चाहे जितने फरमाओ।
पर वो ग़र है बेकायदा,
रोको! फिर ना शरमाओ।
हक के खातिर लड़ना है तो
लाख लड़ो लड़ते जाओ।
लेकिन स्वारथ सिध करने को,
जन-जन को मत लड़वाओ।
खुद के हाथों पतवारें ग़र,
ना थामी तो भटकेंगे।
लहर- कहर से ग़र छूटे तो,
बीच भँवर में अटकेंगे।
आने वाले तूफानों से,
बचना है तो आन अड़ो।
खुद से पहले राष्ट्र रहेगा,
शंखनाद कर निकल पड़ो।
जाति-पंथ से ऊपर साथी,
जन्मभूमि की आन रखें।
वन्देमातरम गान रखें ओ
अपना हिंदुस्तान रखें।
~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”