वक्त आने पर वतन पे वार दी जिसने जवानी
पुत्र था प्रताप जिसके रक्त में सच्ची रवानी
बंधु जोरावर कि जिसकी भारती खुद ले बलैयां,
क्रांतिकारी केसरी के त्याग की अद्भुत कहानी।
।।शक्तिसुत।।
“इदम् राष्ट्राय, इदम् न ममः” की अमर सूक्ति को यत्र-तत्र-सर्वत्र सुनने-सुनाने का सुअवसर पाकर भी हम अपने आपको धन्य मानते हैं लेकिन असल में उन हूतात्माओं का जीवन धन्य है, जिन्होंने इस महनीय आदर्श को अपने जीवन एवं आचरण से चरितार्थ किया है। राष्ट्रहितार्थ अपना सर्वस्व न्योच्छावर करके भावी पीढ़ी के लिए मिसाल कायम करने वाले असंख्य प्रातःस्मरणीय भारतीय चरित्रों में से एक अति विशिष्ट चरित्र है- क्रांतिकारी केसरीसिंह बारहठ। वीर वसुंधरा के विरुद से विभूषित भरतभूमि का इतिहास ऐसे असंख्य वीरों के शौर्य की गाथाओं से परिपूर्ण है, जिनको स्मरण करके हर भारतीय को गौरव की अनुभूति होती है। यदि वैचारिक प्रतिबद्धताओं एवं संकीर्ण स्वार्थों को दरकिनार करके इन गौरव गाथाओं को पढ़े या सुने तो हर-एक हिंदुस्तानी का सीना गर्व से फूल उठेगा, शरीर का रोम-रोम खड़ा हो जाएगा, दिल को एक विशेष प्रकार की सुखद अनुभूति होगी तथा अनायास ही जुबान से निकल पड़ेगा- “सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा”। वस्तुतः त्याग तो त्याग होता है, उसकी ना तो कीमत आंकने की औकात किसी के पास है और ना ही किसी एक के त्याग की किसी दूसरे के त्याग से तुलना करने का कोई औचित्य। कारण भी स्पष्ट है कि जिसके पास जो था, वो उसे वार गया अतः वो त्याग किसी संश्लेषण-विश्लेषण का नहीं वरन सम्मान एवं श्रद्धा का अधिकारी होता है। ऐसे अनाम उत्सर्ग करने वाले चरित्रों को याद करके तथा उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को जानकर हम अपनी भावी पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़े रखने में साफल्यमंडित हो सकते हैं। पूर्वजों की आन, बान, शान एवं उसूल-अरमानों के वरदाई वृक्ष की टहनियां समय की स्वार्थी तपन से कुछ मुरझाई-मुरझाई सी लगने लगी है लेकिन यदि हमारे कानों में इन आदर्श चरित्रों की गाथाएं गूंजती रहेंगी तो हम अपनी जड़ों को जिंदा रखने में कामयाब होते रहेंगे और यदि जड़ें रहेंगी तो फिर ये मुरझाई हुई टहनियां पुनः हरी-भरी होकर लहलहाने लगेंगी-
मैं इस धरा पे सरफरां हो जाऊंगा
इंसानियत के नाम में मकबरा हो जाऊंगा
मेरी सूखी टहनियों पे हंसने वालो!
जडें ग़र जिंदा रही तो फिर हरी हो जाऊंगा।
राष्ट्रभक्ति रूपी वटवृक्ष की जड़ों को जिंदा रखने की दिशा में एक उल्लेखनीय रचनात्मक कदम उठाया है राजस्थानी भाषा के कवि श्री किशन लाल वर्मा ने, जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के एक महान क्रांतिकारी श्री केसरीसिंह बारहठ को केंद्र में रखते हुए “क्रांतिवीर केहर केसरी” नाम से एक महाकाव्य का सृजन किया है। राजस्थानी भाषा के हाड़ोती बोलीरूप में सृजित यह काव्यकृति वण्र्य-विषय चयन एवं वर्णन कौशल दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस महाकाव्य में ठाकुर केसरीसिंह बारहठ के संपूर्ण जीवन के साथ भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारियों की गौरवगाथा को गरिमामयी अभिव्यक्ति मिली है। पूरी काव्यकृति में जिन चरित्रों पर कवि ने अपनी कलम चलाई है, उनमें केंद्रीय पात्र है- ठाकुर केसरीसिंह बारहठ एवं उनका पूरा परिवार। प्रसंगवशात अन्य क्रांतिवीरों के चरित्र भी वांछित स्वरूप में उभर कर सामने आए हैं लेकिन कवि का प्रतिपाद्य केसरीसिंह बारहठ का जीवन चरित्र उजागर करना रहा है।
भारतीय स्वातंत्र्य राजसूय में अपनी-अपनी अनाम आहूतियां देने वाले क्रांतिवीरों में अग्रगण्य क्रांतिकारी केसरीसिंह बारहठ का राष्ट्रप्रेम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। न केवल स्वयं केसरीसिंह बारहठ वरन उनका पूरा परिवार इस स्वातंत्र्य संग्राम में सोत्साह कूद पड़ा था। भारतीय इतिहास में गुरु गोविंदसिंह एवं बारहठ केसरीसिंह, दो ऐसे नाम हैं, जिनका पूरा का पूरा परिवार राष्ट्रहितार्थ कुर्बान हुआ। केसरीसिंह बारहठ के परिवार से उनके अलावा उनके अनुज जोरावरसिंह बारहठ, उनके सुपुत्र कुंवर प्रतापसिंह बारहठ तथा उनके दामाद ईश्वरदान आसिया कुल चार पुरुष सदस्यों ने स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका अदा की। न केवल पुरुष सदस्यों वरन उनके घर की वीर नारियों ने भी अपना पल-पल भारत माता के नाम कर दिया। केसरीसिंह बारहठ के अनुज किशोरसिंह तथा बड़े पुत्र रणजीतसिंह का स्वाधीनता संग्राम में प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं रहा। यद्यपि प्रसंगवश उनका वर्णन भी यथास्थान हुआ है। प्रमुख पात्रों के रूप में ठाकुर केसरीसिंह, ठाकुर जोरावरसिंह, कुंवर प्रतापसिंह, ईश्वरदान आसिया है वहीं सहायक पात्रों के रूप में माणिककंवर, अनोपकंवर, चंद्रमणि आदि नारी पात्र है। इसके साथ ही ठाकुर केसरीसिंह बारहठ के क्रांतिकारी मित्र अर्जुनलाल सेठी, रास बिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल, गोपालसिंह खरवा आदि चरित्रों का सम्यक वर्णन है। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस, महात्मा गाँधी तथा क्रांति से संबंधित गरम एवं नरम दल दोनों की गतिविधियों आदि से केसरीसिंह बारहठ के जुड़ाव तथा उनके योगदान को कवि ने बड़ी बुद्धिमता एवं श्रद्धा के साथ व्यक्त किया है।
स्वयं ठाकुर केसरीसिंह बारहठ, जिनको विरासत में शिक्षा, संस्कार एवं कवित्वशक्ति के साथ सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए पर्याप्त पार्थिव संसाधन मिले थे। वे चाहते तो अंग्रेजी शासन के दौरान बहुत अच्छे पद पर नौकरी कर सकते थे, ऐशोआराम का जीवन जी सकते थे लेकिन उन्होंने पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता की पीड़ा को महसूस किया और उन बेड़ियों को काट फेंकने के लिए कमर कसी। क्रांति का शंख क्या फूंका अपना सारा सुख-वैभव फूंक दिया। जीवन भर क्रांति की योजनाएं, क्रांति से संबंधित साहित्य प्रकाशन एवं हथियार आदि के लिए धनसंग्रह की योजना, सरकार का जुल्म, कारावास, परिजनों पर सरकारी वक्र दृष्टि और एक के बाद एक परिजनों का अपनी आँखों के सामने स्वर्गधाम सिधारते हुए देखना। कुल मिलाकर क्रांति की तीव्र अग्नि में तप-तप कर कुंदन बनने वाला वह व्यक्तित्व अपने आपमें विलक्षण है। क्रांतिकारी श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा “बंदी जीवन” में लिखा है कि “नहीं मालूम आज भारत में कितने ऐसे पिता हैं, जो सरदार केसरीसिंह की तरह सब जान-बूझकर अपने और अपनी संतान को इस तरह देश के कार्य में बलि दे सकेंगे। ” धन्य है वह माँ भारती का स्वाभिमानी लाल। न केवल क्रांतिचेतना एवं स्वाधीनता संग्राम में योगदान वरन बारहठ केसरीसिंह की बहुज्ञता भी कवि किशनलाल वर्मा के लिए चाहत का केंद्र बनी। “केहर केसरी” नामक अध्याय में कवि एक कवित्त के माध्यम से स्पष्ट करता है कि किन कारणो से केसरीसिंह बारहठ उनके चित्त चढ़ गए-
दरसणां का जाणकार इतियासां का फणकार,
बुद्धिजीवी ऊंची कोटी का छा केहर केसरी।
लेखक विचारक कवि क्रांतिकारी ज्यां की छवि,
कुरीतियां बुराई सूं लड़ै छा केहर केसरी।
घणा प्रतिभा का धणी जोड़ायत माणक मणी,
अहंकार दखावां सूं दूरा केहर केसरी।
सादगी अर सरलता नीति मं उदारता का,
किसन कवि के मन भाया केहर केसरी।
केसरीसिंह बारहठ की धर्मपत्नी श्रीमती माणिक कंवर का जीवन तो महात्मा बुद्ध की धर्मपत्नी यशोधरा से कहीं अधिक त्याग वाला जीवन है। यशोधरा के पति उसे रात्रि के समय सोते हुए छोड़कर बिना बताए घर से निकल गए थे। लेकिन वे अपना जीवन सुधारने हेतु तपस्या के लिए वन को गए थे तथा यशोधरा के पास अपना पुत्र भी था, जिसके सहारे वह अपना जीवन व्यतीत कर सकती थी। साथ ही उसे यह संतोष था कि उसके पति तपस्या कर रहे हैं। वे स्वस्थ एवं सुखी हैं। दूसरी तरफ माणिक कंवर है, जिसके पति एवं पुत्र ही नहीं जंवाई तथा देवर भी क्रांति के सिपाही हैं, जो अहर्निश अपने सर पे कफन बांध कर चलते हैं। सरकार का दमनचक्र ऐसा चला कि परिवार की संपति एवं आवास तक छीन लिए गए। पति, बेटा तथा दामाद सब जेल में है, देवर फरारी पर है। प्रतिदिन अंग्रेजी सरकार के कारींदे अपने सितम ढकाते हैं। यातनाओं की दर्दे-दास्तान सुनकर ही हृदय कांप जाता है लेकिन धन्य है, वह भारत माता की स्वाभिमानी एवं साहसी बेटी, जिसने इन सब जुल्मों को सहन करते हुए भी उफ तक नहीं कहा। वह अपने पति एवं परिजनों के राष्ट्रहितार्थ त्याग के मग में कहीं अवरोध नहीं बनी।
ठाकुर केसरीसिंह के अनुज तथा राजस्थान के चंद्रशेखर की संज्ञा से अभिहित क्रांतिकारी जोरावरसिंह बारहठ अपने अग्रज के पदचिह्नों पर चलने वाले वीर योद्धा थे। उनकी शारीरिक ताकत एवं मानसिक दृढ़ता लाजवाब थी। दिल्ली के चांदनी चैक में लार्ड हार्डिंग पर बम फैंकने में कुंवर प्रताप के साथ ये ही थे। आरा कांड में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने जब इन्हें अपराधी घोषित कर दिया तो ये फरार हो गए तथा जीवन भर अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आए। कवि किशन लाल वर्मा ने इस चरित्र को भी बहुत श्रद्धा के साथ उभारा है। दिल्ली के चांदनी चैक में लार्ड हाॅडिंग पर बम फैंकने हेतु बन रही योजना के दौरान जबर जोशीले जवान जोरावरसिंह बारहठ द्वारा सहमति देना एवं इस कार्य को पूर्ण मुस्तैदी से करने का आश्वासन देती कवि की ये पंक्तियां देखिए-
कुण नमटावै वायसराय नैं, सेर सूंठ कुण की माँ खाय।
तर्क-वितर्क चालर्या जमकै, ईश्वर म्हांकी करै सहाय।
खंभ ठोक जोरावर बोल्या, म्हूं सुल्टाऊं वायसराय।
विफल रती भर भी ना हूंगो, म्हारै गोडै घणा उपाय।।
ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ की धर्मपत्नी श्रीमती अनोप कंवर का जीवन रामायण की उर्मिला से मिलता-जुलता है। हाँ! उर्मिला को यह तो संतोष था कि उसके पति लक्ष्मण 14 वर्षों के वनवास काल की समाप्ति पर उसके पास लौट आएंगे लेकिन अनोप कंवर के लिए तो ऐसा सोचना भी संभव नहीं था क्योंकि उसके पति अंग्रेजी सरकार की आँखों में धूल झोंककर फरारी काट रहे थे। इससे भी आगे की मार्मिक पीड़ा एवं एक औरत के लिए त्याग की पराकाष्ठा यह थी कि यद्यपि फरारी के दौरान जोरावर सिंह कई बार वेश बदल कर अपने घर आते थे तथा रुकते थे लेकिन इस दौरान भी अनोप कंवर अपने पति के साथ एकांतवास के पलों को सुकून से नहीं जी पाती थी। कारण स्पष्ट था कि यदि वे पति-पत्नी एकांतवास में सहवास करते हैं और उनसे अनोप कंवर गर्भवती हो जाती है तो अंग्रेजों को स्पष्ट पता चल सकता था कि जोरावर सिंह जिंदा है और ऐसे में परिवार पर अंग्रेजी शासन के जुल्मों का चक्र और तेज हो सकता था। उस देवी ने अपने जीवन में जिस संयम का परिचय दिया एवं अपने परिवार के प्रति दायित्वों का जिस निष्ठा से निर्वहन किया, वह स्तुत्य है।
आजादी के आंदोलन का सबसे किशोर क्रांतिकारी कुंवर प्रतापसिंह बारहठ आग का दहकता हुआ अंगारा था। क्रांतिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल ने अपनी आत्मकथा “बंदी जीवन” में कुंवर प्रताप सिह बारहठ पर एक पूरा अध्याय लिखा है तथा उनकी क्रांतिचेतना एवं सुदृढ़ संकल्पशक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। ध्यातव्य है कि जब जेल में अंग्रेज अधिकारी कुंवर प्रतापसिंह बारहठ को यातनाएं देकर गुप्त सूचनाएं देने के लिए बाध्य कर रहे थे, उस समय शचीन्द्र नाथ सान्याल उसी जेल में प्रताप के पास वाली बैरक में बंद थे। वे प्रताप के साथ होने वाली हर ज्यादती एवं प्रताप की दृढ़ता को अपने बैरक में बैठे हुए सुनते तथा महसूस करते थे। ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग के निदेशक सर आर्चीबाल्ड क्लीवलैंड ने कुंवर प्रतापसिंह बारहठ से गहन पूछताछ करने के बाद टिप्पणी दी कि “मैंने आज तक प्रतापसिंह जैसा वीर और विलक्षण बुद्धि वाला युवक नहीं देखा। उसे सताने में हमने कोई कसर नहीं रखी पर वह टस से मस नहीं हुआ। हम सब हार गए, वह विजयी हुआ। ” जिसने अंग्रेजों से स्पष्ट कहा कि मेरे मरने से तो मेरी माताश्री माणक कंवर अकेली ही शोकमग्न होकर बिलखेगी लेकिन अगर मैंने क्रांतिकारियों से संबंधित गुप्त सूचनाओं का भेद खोल दिया तो इस भारत की अनेक अबलाओं को बिलखना पड़ेगा अतः मैं अपनी एक माँ को हंसाने के लिए देश की लाखों माताओं को रुला नहीं सकता। मात्र 18-19 साल की उम्र का ऐसा तेजस्वी देशभक्त जवान हमारी युवाशक्ति के लिए सदैव प्रेरणा बना रहेगा। राजस्थान में होने वाले हर राष्ट्रभक्ति के कार्यक्रम में अमर शहीद कुंवर प्रतापसिंह बारहठ से संबंधित यह दोहा अवश्यंभावी उच्चरित होता है-
म्हां मरियां महलां झुरै, माता माणक अेक।
भेद दियां भारत तणी, अबला झुरै अनेक।।
कवि किशन लाल वर्मा ऐसे वीर की बलैयां लेते हुए लिखते हैं-
मांडै शर्मा बुद्धदत्त, धन-धन रे परताप।
उजळी कर दी कोख नैं, झेल-झेल संताप।
झेल झेल संताप, भेद रत्ती ना उगळ्या।
दौलत परलोभन का, तमगा जमकै उछळ्या।
भरखी नूण मरच, फेरूं भी जमकै ठांडै।
छः बरसां तक सही यातना, शर्मा मांडै।।
बारहठ परिवार का एक और अभिन्न हिस्सा, जो क्रांति की दहकती ज्वाला बनकर अंग्रेजों की नींदे हराम करने लगा, वह था उनका दामाद ईश्वरदान आसिया। अपनी राष्ट्रभक्ति, शौर्यशक्ति एवं बुद्धिमता के कारण क्रांतिकारी ईश्वरदान आसिया इतिहास में अमर हो गए। अंग्रेजी हुकूमत के दमनचक्र का शिकार होकर सजा, जेल, फरारी आदि सभी पड़ावों से जुगरने वाला यह वीर भी राष्ट्रभक्तों की श्रद्धा का केन्द्र बना। स्वयं ठाकुर केसरीसिंह बारहठ को इनकी क्रांतिचेतना पर नाज़ था। उनके स्वाधीनता संग्राम में योगदान को बारहठ केसरीसिंह ने अपनी पुत्री चंद्रमणि को लिखे पत्रों में रेखांकित किया है। ईश्वरदान आसिया को भी अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया लेकिन सबूतों के अभाव में वे जेल से छूट गए और अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करते रहे, एक उदाहरण देखिए-
दिल्ली और लाहौर कांड में, आया पकड़ कुंवर परताप।
जीजा ईश्वरदान आसिया, जेळां में झेलै संताप।
बना सबूतां बीर छूटग्या, केहर घूम रह्या आजाद।
पड़ै न हाथ फेर गोरां के, पूग्या सिंध हैदाराबाद।।
इन सबके साथ ही एक बलिदानी चरित्र है ठाकुर केसरीसिंह बारहठ की सुपुत्री चंद्रमणि, जिसके पति ईश्वरसिंह आसिया अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण सरकार के आँखों की किरकिरी बने हुए थे। काम-केलि की कमनीय वय में एक पत्नी को अपने पति का वियोग कितना असह्य होता है, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। ठाकुर केसरीसिंह बारहठ जेल में बैठे हुए भी अपने परिवार के सदस्यों की मनःस्थिति एवं मजबूरियों को बखूगी जानते थे। उनकी लाडली सुपुत्री की करुण कहानी भी पल-दर-पल उनकी आँखों के सामने नाचती थी। किंतु वाह रे शेर! वाकई केसरी तो केसरी था, क्या जिगरा पाया था। जेल से सन 1914 में अपनी प्रिय पुत्री चंद्रमणि को पत्र लिखा तो उसमें भी राष्ट्रधर्म की रमणीय रागिनी ही लिखी। ऐसे कितने पिता हैं जो, अपनी संतानों को ऐसे संस्कार देने हेतु अहर्निश तत्पर रहते हैं। पत्र का मजमून पढ़िए- “तुम अवश्य यह जानकर संतुष्ट होगी कि भारत के एक महत्त्वपूर्ण प्रदेश में जाग्रति होने का काम अपने परिवार की महान आहूति से ही प्रारंभ हुआ है। इस राजसूय यज्ञ में हम लोगों की बलि मंगलरूप हुई है। नाशवान शरीरों की तुच्छता और इस महाभारत अनुष्ठान की महत्ता मिलाकर देखने से ही यह सब प्रतीत होगा।” उस स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त पिता की संस्कारवान देशभक्त पुत्री ने भी अपने जीवन को उसी ऊर्जस्विता के साथ में जिया। राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार एवं नाटककार अर्जुनदेव चारण की नाट्यकृति “बलिदान” इस महान बाला के उल्लेखनीय बलिदान की जीवंत कहानी बयां करती है। ऐसी वीर नारी को शत-शत नमन।
साहित्य का मुख्य प्रयोजन संस्कृति का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना होता है तथा संस्कृति का मुख्य प्रयोजन मानव एवं मानवजीवन को ऊध्र्व बनाना होता है। साहित्यकार कवि किशन लाल वर्मा ने अपनी संवेदना एवं संचेतना के बल पर भारतीय इतिहास के उस गौरवमय स्वर्णिम अध्याय को अपनी प्रतिभाशाली कलम से उजागर करते हुए अपने श्रद्धासुमन तो भेंट किए ही हैं साथ ही वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के सामने एक ऐसे उज्ज्वल आदर्श को प्रस्तुत किया है, जिसको पढ़कर हर किसी को गर्व की अनुभूति होगी।
कवि किशनलाल वर्मा एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं तथा सौभाग्य से आधुनिक वीररसावतार सूर्यमल्ल मीसण की धरती में पले-बढ़े हैं अतः उनका हृदय राष्ट्रभक्ति के भावों से भरा हुआ है। अपने पूर्व पुरुषों तथा राष्ट्रभक्तों के प्रति उनकी श्रद्धा स्तुत्य है। आपने आजादी के अमर नायक महाराणा प्रताप पर भी एक काव्यकृति “कीका को परताप” नाम से सृजित की है। इसी कड़ी में ठाकुर केसरीसिंह बारहठ को केंद्र में रखकर लिखी गई यह काव्यकृति “क्रांतिवीर केहर केसरी” आपके हाथों में है। मुझे विश्वास है कि यह कृति सुधी पाठकों के अंतःस्थल को स्पर्श करने में सफल होगी तथा कवि का लेखनश्रम सार्थक होगा।
कवि किशन लाल वर्मा भारतीय इतिहास एवं राजस्थान की स्वाभिमानी परंपराओं के गहन अध्येता हैं। यहां की काव्य सृजन परंपरा से भी भली भांति परिचित हैं अतः वे कृति का शुभारंभ अपने संकल्पित काव्य के चरित्रनायक की वंश परंपरा के बखान से करता है, जिसमें सौदा बारहठों के मूल पुरखों के ठिकाने खोड़ गाँव में महाराणा हम्मीर के आगमन एवं माँ बरवड़ी जी के आशीर्वाद से प्रारंभ करके कृष्णसिंह बारहठ तक का वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्याय में केसरीसिंह बारहठ के जन्म एवं उनके परिवार का वर्णन है, जिसमें उनके जन्म के महीने भर बाद ही माता बख्तावर कंवर के स्वर्ग सिधारने एवं दादी माँ शृंगार कंवर द्वारा शिशु केसरी को दुग्धपान कराने तथा पालन-पोषण करने का वर्णन है। इसी अध्याय में उनके पिताश्री कृष्णसिंह द्वारा दूसरी शादी करने तथा दूसरी पत्नी की कोख से किशोरसिंह एवं जोरावरसिंह के जन्म का वर्णन है। इस अध्याय में तीनों भाइयों की पढ़ाई-लिखाई एवं शादी-विवाह के साथ ही पूरे परिवार का सराहनीय वर्णन है। इससे आगे क्रमशः जीवण झलक, देस नखाळो, केसरी को कोटा मं वास, राजपूताना मं जन जागरण, मनावणा अर चेतावणी, चेतावणी रा चूंगट्या, हूंकार, जातरा, निराशा, आजादी की डगर, केहर केसरी, गुपत क्रांति, डकैती, गिरफ्तारी अर सजा, जेळ जातरा, जोरावर की जूम, कुंवर परताप (बनारस कांड), जेळ सूं रिहाई, नूई सरूआत, वर्धा में प्रेस वार्ता सन 1920, वर्ष 1920 में अेजेन्ट को पाती, केसरी चरित, नचैड़ शीर्षक से कुल 25 अध्यायों वाला यह काव्य अपने कलेवर में एक महनीय महाकाव्य है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था कि – “राम तुम्हारा चरित्र, स्वयं ही काव्य है/ कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है” मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह क्रांतिकारी राष्ट्रभक्तों का चरित्र भी जीवंत काव्य ही होता है। यही श्रद्धा का भाव लेकर कवि किशनलाल वर्मा घोषणा करता है कि ऐसे वीर परिवार पर कलम चलाते हुए उसे बहुत गर्व हो रहा है और उसे ही नहीं स्वयं भारत माता भी अपने ऐसे सपूतों पर नाज करती है-
अस्या वीर परिवार पे, कलम चलाऊं आज
करती डोलै मातश्री, हरख हरख के नाज
हरख हरख के नाज, जंवाई पे बलिहारी
ईश्वरदान कूदग्या, रण में कर किलकारी
केसर जोरावर जामण का जस्या वीर छै
बलि चढ्या परताप, पूतजी अस्या वीर छै।
केसरीसिंह बारहठ को अपने राजे-महाराजाओं की उदासीनता एवं अंग्रेज-भक्ति बहुत अखरती थी। उन्होंने उनके सोए हुए स्वाभिमान को फिर से जगाने का संकल्प लिया। कवि किशनलाल वर्मा लिखते हैं कि केसरीसिंह बारहठ ने अपने समय के राजाओं को फटकारते हुए लिखा कि आज भारत के सारे राजाओं का खून पानी हो गया है। हमें हमारी ही लाठी से अंग्रेज पीट रहा है, हमारा खजाना विदेश को जा रहा है। क्या कारण है कि हमें गुलामी रास आने लगी है। हम अपने शरीर पर चाबुक सहन करने के अभ्यस्त क्यों होते जा रहे हैं? कवि की सहज गतिमान भाषा का एक उदाहरण देखिए-
धरण छै रजपूतिया बलिदान की
हाडा कुंभा राण स्वाभिमान की
राष्ट्रगौरव नैं जगाणो लाजमी
तस बुझाणी फेर करपाण की
जोतर्या अंग्रेज म्हांकी आण नैं
चूंटर्या करसां खलाणा धाण नैं
देखर्यो जातो खजानो देस को
खैंचर्या छै दुष्टता सूं प्राण नैं
राजा महाराजा सारा ई फैलग्या
लाखड़ी म्हांकी अर म्हांपै पैलग्या
रास आई क्यूं गुलामी आपनैं
ताजणा चाबूक डीलां झैलग्या।।
कवि अपने लंबे अनुभव के बल पर हमारे आस पास के वातावरण के साथ वर्तमान दौर की चुनौतियों को भी भलीभांति जानता है। अतः जब वह अतीत की बात करता है तो स्वाभाविक रूप से वर्तमान भी उनकी निगाह में रहता ही है। वस्तुतः कवि काल की ही उपज होता है अतः वह अपने विगत का स्मरण भी वर्तमान को संवारने हेतु ही करता है। कवि किशनलाल वर्मा जब राजपूताना में जन जागरण का वर्णन करते हैं तो उनकी कलम से निकली पंक्तियां एक काल की बजाय सर्वकाल के लिए प्रासंगिक बन जाती है-
शिक्षा जात धर्म का सुधार मं
देस डूबर्यो छै क्यूं उधार मं
दूब रेत मं उगाबो लागग्या,
हाल, देर दार छै बहार मं
काव्यकृति में अनेक जगह ऐसे उत्साहजन्य उदाहरण है, जिनसे ये लगता है कि कवि अपनी एक-एक पंक्ति को अपने संकल्पित लक्ष्य की ओर बढ़ते सुदृढ़ कदम की तरह पूर्ण जोश के साथ रचता है। राजस्थान में क्रांति की शुरुआत का संकेत देती कवि की ये हर्ष भरी पंक्तियां देखिए-
पांखड़ा उग्याया घणा होस का
बाजग्या नगारा भर्या जोस का
डील मं मरोड़ा ले”री क्रांति,
गूंजर्या जैकारा जय घोष का।
दिल्ली दरबार में सम्मिलित होने हेतु जा रहे मेवाड़ी महाराणा फतहसिंह को ठाकुर केसरीसिंह बारहठ द्वारा लिखे गए 13 सोरठे राजस्थानी साहित्य एवं आजादी की अलख जगाने की दृष्टि से चर्चा का विषय रहे हैं। “चेतावणी रा चूंगट्या” नाम से लिखी इस रचना ने इतिहास की धारा को बदलने का काम किया। ऐसा माना जाता है कि ये सोरठे पढ़ने का महाराणा पर विलक्षण असर हुआ और वे दिल्ली जाने के बावजूद दिल्ली दरबार में शरीक नहीं हुए। इस पूरे घटनाक्रम को कवि किशन लाल वर्मा ने बहुत सिद्दत से चित्रित किया है। संपूर्ण वृतांत के साथ ही केसरीसिंह बारहठ द्वारा रचित सोरठों के भावों को भी एक दर एक अपनी भाषा में रूपांतरित करके कवि ने अपनी भाषायी दखल का परिचय दिया है। अपनी लेखनी एवं परंपराओं के संस्कारों पर कवि का विश्वास देखिए, वह महाराणा को लिखता है कि मुझे विश्वास है कि आप किसी भी सूरत में अब दिल्ली दरबार में नहीं जाएंगे क्योंकि भगवान एकलिंगजी की कृपा से अब तक आपकी तरवार में कड़पाण विद्यमान है-
जावैगा ना आप दरबार मं
म्हारौ बस्वास छै सरकार मं
अेकलिंगजी रखाणै आण नैं
पाण हाल जींवती तरवार मं।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान नरम दल एवं गरम दल दोनों की अंग्रेज विरोधी एवं क्रांतिचेता गतिविधियां अंग्रेजी हुकूमत की नींद हराम करने वाली थी। अंग्रेजी अफसर लाटसाहब के मुंह से कवि कहलवाता है कि ये क्रांतिकारी तो हमारी नींद हराम करने के लिए ही पैदा हुए हैं। ना तो खुद सोते हैं और ना ही हमें सोने देते हैं। उधर पंजाब में लाला लाजपत राय का दबाव बढ़ता जा रहा है। इधर बंगाल में शचीन्द्र नाथ सान्याल नया मोरचा खोल कर सामने आ गया। इससे आगे बिना हाड-मांस वाले पुतले महात्मा गाँधी के बंदर भी पूरा खेल बिगाड़ने में लगे हुए हैं। ये तो अपने उसूलों के ऐसे पक्के लोग हैं जो हमारी मार खाकर भी उफ तक नहीं करते और अपने काम में अनवरत लगे हुए हैं। इधर राजपूताना के हाल तो और भी बदतर होते जा रहे हैं क्योंकि यहां इस केसरीसिंह बारहठ के ये शेरेदिल क्रांतिकारी रातदिन हमारी हड्डी-पंसलियों को तोड़ने-मरोड़ने में लगे हुए हैं। क्रांति के इस देशव्यापी स्वरूप का तथ्यात्मक वर्णन करती कवि की ये पंक्तियां कितनी सरस एवं सटीक है-
क्रांतिकारियां का काम नींद नैं करै हराम,
सोवै ना सोबा दै बैरी लाठ साहब बोलर्या।
ऊंठी पंजाब लाला लाजपत को दबाव,
नयो मोरचो सान्याल बंगाल में खेलर्या।
गाँधीजी का बांदरा बगाड़र्या छै सांदराई,
सीसाड़ा करै ना लात घूसा खाता डोलर्या।
राजपूताना का हाल होता जार्या बदहाल,
केहर केसरी का म्हांकी आंतड़्यां मरोड़र्या।।
बारहठ केसरीसिंह द्वारा संपादित समाजसेवा एवं संस्कार से जुड़े कार्यों को भी कवि ने बखूबी चित्रित किया है। राजस्थान के राजपूत, चारण आदि समाजों में व्याप्त टीका-प्रथा के खिलाफ केसरीसिंह बारहठ की मुहीम का कवि के शब्दों में वर्णन देखिए-
टीका परथा बंद करबा कारण
हाथ जोड़्या छा सबां के बारणै
अे.जी.बी. के अेक पत्तर भेजद्यो,
चाल खड़्या जिंदगी संवारणै।
तत्कालीन समय में राजा महाराजाओं के राजकुमार अजमेर की मेयो काॅलेज में विद्याध्ययन करते थे। अंग्रेजी शिक्षा का पाठ्यक्रम केसरीसिंह बारहठ को अखरता था क्योंकि यह पाठ्यक्रम भारतवासियों को पल-पल गुलामी का अहसास करवाता था तथा युवाओं के मन में हीन भावना के बीज बोता था। कवि ने इस पीड़ा को सटीक शब्द दिए हैं-
हीण भावणा पनप री, म्हां गोरां का दास।
संस्कार उलटा मलै, झेल रह्या परिहास।
झेल रह्या परिहास, संस्कृति अपणी भूल्या।
इतिहासां का पानां, उड़ बूळ्यां पै झूल्या।
बेबस करै तो कांई, खाडर्या मेख मीण छै।
राजा अेक बरोबर, मनड़ै भाव हीण छै।
क्रांतिकारी केसरीसिंह बारहठ एवं उनके साथी देश की युवा पीढ़ी को परतंत्रता की पीड़ा एवं उनसे दुष्परिणामों से परिचय करवाते हुए पूर्ण जोशोखरोश के साथ क्रांति की मशाल थामने का आह्वान करते हैं। जाति-पांति के भेद भाव को भूलते हुए इस मुल्क को ही अपनी जाति मानने तथा दासता की बेड़ियों को काट फैंकने के आह्वान वाले स्वर कितने गरबीले हैं, कवि की वाणी में देखिए-
दासत की जिंदगाणी हीण छै
सोच अंग्रेजवी कमीण छै
देस सूं उपाड़ दूर फैंकद्यो,
मुल्क जात आपणी जमीन छै।
देस मं सशस्त्र क्रांति करां
देस धर्म के लिए जीयां-मरां
आप-आप की भी कांई जिंदगी
पीड़ मात भोम की आपां हरां।
कवि राजस्थान के वीरों की अमर गाथाओं का गहन अध्येता होने के कारण इस तथ्य से भलीभांति परिचित है कि यहां के राजाओं तथा सूरवीरों ने जब तलवार संभाली तो उनके साथ उन्हें हौसला देने वाला कलम का धनी चारण युद्धभूमि में विद्यमान रहता था। वह कलम के साथ करवाल का भी कुशल संचालक था अतः अनेक बार उसने कलम के साथ अपनी तलवार का कमाल दिखाकर जमाने को अचंभित किया था। चारण कुल के गौरव को याद करते हुए अपने काव्यनायक की प्रशस्ति में कवि किशन लाल वर्मा की ये पंक्तियां कितनी कृतज्ञता भरी है-
चारण मरग्या मारग्या, उजळो करग्या नांव
परदेस्यांई भौम पे, ना धरबा द्यो पांव
ना धरबा द्यो पांव, आप बरवड़ी जाया
करणी माता की माथा पे हरदम छाया
रीत नीत रै हेत कियो नित मरबो धारण
साथ न छोड़ै कदै, सत्य को यो छै चारण।
वस्तुतः जब कोई व्यक्ति सर्वजनहिताय कार्य करता है तो वह दूसरों के जिए हीरो बन जाता है। दुनिया अपने आदर्श नायक के हर कार्य में गौरव के कारणों को ढूंढ ही लेती है। जब केसरीसिंह बारहठ को कोटा से बिहार की हजारीबाग जेल में स्थानांतरित किया गया तो उस शेर को बेड़ियों में जकड़ कर बेलगाड़ी से लेकर गए तथा रात रात भर बेलगाड़ी में चलना, साथ में पूरा सरकारी लवाजमा। कवि किशन लाल वर्मा इसे अपनी काव्यनिगाहों से देखते हुए लिखते हैं कि केसरीसिंह बारहठ तो बेड़ियों एवं हथकड़ियों के साफे-सेवरों से सुसज्जित दुल्हा है तथा ये सरकारी मुलाजिम सारे उसके बाराती है। यह उत्साही दुल्हा अपने लिए स्वांतत्र्य वधू लेने हेतु हजारीबाग जेल जा रहा है-
हो गई रवानगी कोटा सूं हाथोंहाथ
पहरादार बैठग्या संगीनवां ले साथ
बात-चीत बोल-चाल लोग छान मून,
बींद जी का साथ में सरकार छी बारात।
अपने लक्ष्य के प्रति अटल सावचेत एवं कर्मशील व्यक्तित्व के धनी केसरीसिंह बारहठ जेल में भी अपनी बातों, कविताओं एवं वाकचातुर्य के बल पर सबके चहेते बन गए और काल-कोठरी में रहने वाले उस क्रांतिकारी की रिहाई की सिफारिश का ताना-बाना उनकी इस मस्तमौला व्यवहार कुशलता एवं विद्वता के कारण बन गया, कवि के शब्दों मेें इस बात का संकेत देखिए-
सुण सुण कविता गीत बै मस्ताना हो गया
कैदी हजारी बाग का दीवाना हो गया
केसरी की कर्मशीलता नैं काम ऊ कर्यो
सिफारिसां का त्यार ताणा बाणा हो गया।
जब हजारीबाग जेल से रिहा होकर जब कोटा रेल्वे स्टेशन पर पहुंचे तो लोग उनके स्वागत हेतु आए। उनके मित्र गुरुदत्त कुशलक्षेम पूछ रहे थे। गुरुदत्त ने ठाकुर केसरीसिंह बारहठ से सांत्वना जताते हुए कहा कि आपको समाचार है कि आपका प्रिय पुत्र प्रताप शहीद हो गया है। केसरीसिंह बारहठ ने पहली बार यह हृदय विदारक समाचार वहीं सुना था लेकिन वाह रे माई के लाल! कितनी गंभीरता एवं धीरज भरा था उस हृदय में। केसरीसिंह ने गुरुदत्त को उत्तर दिया कि मैं तो आपके मुंह से ही सुन रहा हूं कि प्रताप मातृभूमि के काम आ गया। ना किसी तरह का विलाप ना कोई हायतौबा। एक पिता के लिए ऐसा साहस दिखाना वाकई उल्लेखनीय है, कवि ऐसे वीर को धन्य धन्य कह कर उसका यशोगान करता है-
हक्का-बक्का रह गया छा लोग बाग
हीवड़ै ना पाळ र्या छा द्वैष रा
पूत को मरण कै भाई लापता
धन्न केसरी रै थारो धन्न भाग
आजादी के आंदोलन के आगे बढ़ने के साथ ठाकुर केसरीसिंह ने महात्मा गाँधी के साथ मिलकर अपने अनुभव को देशहितार्थ लगाने का निर्णय लिया। सन 1920 में वर्धा की प्रेसवार्ता के समय ठाकुर केसरीसिंह बारहठ की भूमिका गाँधी के साथ नजर आई। प्रेस वार्ता में पत्रकारों के प्रश्नों का जवाब देते हुए वयोवृद्ध क्रांतिकारी केसरीसिंह बारहठ की बहुज्ञता एवं बुद्धिमता सामने आती है। राजस्थान के राजाओं को काँग्रेस के साथ जुड़ने का आह्वान करते हुए केसरीसिंह बारहठ ने जो कहा, उसे कवि के शब्दों में देखिए-
जुड़बो चाह्वै गर कोई, काँग्रेस सूं आज
राजपूताना देस में, ब्रिटान्यां को राज
ब्रिटान्यां को राज, कै नृप यां का कब्जा मं
डूब रह्या छै अेड़ी सूं चोटी करजा मं
हितकारी होगो जनता की आड़ी मुड़बो
परजा मं विश्वास बधै राजां को जुड़बो
कवि ने एक अध्याय “वर्ष 1920 मं अेजेन्ट को पाती” नाम से लिखा है, जिसमें केसरीसिंह बारहठ लिखते हैं कि शासन सत्ता एवं प्रजा में परस्पर विश्वास नहीं होगा तो फिर परेशानियां तो बढ़ेंगी ही। उन्होंने लिखा कि प्रजा के अधिकारों की उपेक्षा करने वाली सरकार को अंततः पश्चाताप की आग में जलना पड़ता है। देखिए कितनी निर्भीकता से स्थिति का वर्णन किया है-
परजा मं सुख शांति, अधिक मलै अधिकार
करो उपेक्षा आप मत, साच करो स्वीकार
साच करो स्वीकार, बाद मं पछतावैगा
दमन नीति सूं कोप, आप कांई सह पावैगा
कूट नीति की चालां, सब दोयम दरजा छै
थांकी कुरचाळां अब सब समझै परजा छै।
कवि किशन लाल वर्मा की यह काव्यकृति अपने आप में एक गौरवमयी रचना है। इस कृति को पढ़कर पाठक के मन में शहीदों के प्रति सम्मान, राष्ट्र के प्रति गौरव का भाव तथा स्वाभिमान की भावना प्रबल होगी। कवि की साहित्य, संस्कृति, इतिहास, अध्यात्म एवं लोकजीवन से संबंधित जानकारी स्तुत्य है। यह महाकाव्य राजस्थानी समाज ही नहीं संपूर्ण भारतीय समाज के लिए गर्व की अनुभूति कराने वाला काव्य है। मैं कवि किशनलाल वर्मा जी को हार्दिक बधाई देते हुए यह कामना करता हूं कि उनका यह महाकाव्य राष्ट्रभक्तों की चाहत का केंद्र बनेगा। यह महाकाव्य ठाकुर केसरीसिंह बारहठ तथा उनके परिवार की स्वातंत्र्य राजसूय में दी गई अनुपम आहूति का सम्यक मूल्यांकन करने के साथ ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम से जुड़े समस्त क्रांतिकारियों के इतिहास को नए सिरे से समझने की दिशा में नवीन जागृति एवं उत्साह पैदा करेगा। अस्तु!
~डा. गजादान चारण “शक्तिसुत”