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खुद रै बदळ्यां बिना बावळा,
राज बदळियां के होसी ।
कंठां सुर किलकार कार्यां बिन,
साज बदळियां के होसी।।

कितरा राज बदळता देख्या,
सीता रै पण कद सौराई।
जनक आपरै वचन जिद्द में,
परणावण री सरत पौलाई।।

भागां सूं रघुवंस भेटियो,
छोड़ जनक घर अवध सिधाई।
राम धणी अर धण सीता री,
जोड़ी जग में अमर कहाई।।

अवध कठै आराम राम नै,
बाप बण्योङो काम बिगाड़्यो।
दे वनवास अवध छोडण हित,
प्रकट मलीणो हेलो पाङ्यो ।।

अवध छोड़ वन गमन पीव संग,
ससुर वचन सिर पर धर लाई।
पंचवटी में रात दिवस पच,
सेवक जिम कीनी सेवकाई।।

पंचवटी में छळ सूं पकड़ी,
आ रावण नुगरै अभिमानी।
लाय पटक दी लंकपुरी में,
जो कुछ बीती सो सिय जाणी।।

लंका सूं छुड़वाय लखण संग,
ओठा अवधपुरी नै आया।
अवधपुरी रै आंगण-आंगण,
सगळा तोरण द्वार सजाया।।

जे इतरो होकर रुक ज्यातो,
तो भी बात समझ में आती।
पण सीता नै अगन परख में,
देख्यां सचमुच फाटै छाती।।

सीता जनता एक सरीखी,
देख जनक दशरथ घर देखो।
पंचवटी रो कद पतियारो,
लंका रो कुण लेवै लेखो।।

हर जुग में सीतावां हारी,
धोबी धौंस इयां ही अड़सी।
अगन परख में खरी उतरबा।
जुग-जुग जतन जुटाणा पड़सी।।

त्रेता सीय,द्रोपदी द्वापर,
कलियुग मांही केठा कितरी।
जनता, जननी री भेडां जिम,
लूंठा लंफ-लंफ लाणी कतरी।।

~डॉ. गजादान चारण “शक्तिसुत”

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